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________________ इक्कीसवाँ अवगाहना-संस्थान-पद] [ ४५३ - [उ.] गौतम ! पांच शरीर कहे गए है । वे इस प्रकार - (१) औदारिक, (२) वैक्रिय, (३) आहारक, (४) तैजस और (५) कार्मण । विवेचन - शरीर के मुख्य पांच प्रकार-प्रस्तुत सूत्र में शरीर के मुख्य ५ प्रकारों का निरूपण है । प्रतिक्षण शीर्ण-क्षीण होते हैं, इसलिए ये शरीर कहलाते हैं । ___पांचों शरारों के लक्षण-(१) औदारिकशरीर-जो उदार अर्थात् प्रधान हो, उसे औदारिक शरीर कहते हैं । औदारिक शरीर की प्रधानता तीर्थकर, गणधर आदि के औदारिक शरीर होने की अपेक्षा से है । अथवा उदार का अर्थ विशाल यानी बृहत्परिमाण वाला है । क्योंकि औदारिक शरीर एक हजार योजन से भी अधिक लम्बा हो सकता है, इसलिए अन्य शरीरों की अपेक्षा यह विशाल परिमाण वाला है । औदारिक शरीर की यह विशालता भवधारणीय शरीर की अपेक्षा से समझनी चाहिए, अन्यथा उत्तरवैक्रिय शरीर तो एक लाख योजन का भी हो सकता है। (२) वैक्रियशरीर-जिस शरीर के द्वारा विविध, विशिष्ट या विलक्षण क्रियाएँ हों, वह वैक्रियशरीर कहलाता है । जो शरीर एक होता हुआ, अनेक बन जाता है, अनेक होता हुआ, एक हो जाता है, छोटे ये बड़ा और बड़े से छोटा, खेचर से भूचर और भूचर से खेचर हो जाता है तथा दृश्य होता हुआ अदृश्य और अदृश्य होता हुआ दृश्य बन जाता है, इत्यादि विलक्षण लक्षण वाला शरीर वैक्रिय है। वह दो प्रकार का होता है औपपातिक (जन्मजात) और लब्धि-प्रत्यय । औपपातिक वैक्रियशरीर उपपात-जन्म वाले देवों और नारकों का होता है और लब्धि-प्रत्यय वैक्रियशरीर लब्धिनिमित्तक होता है, जो तिर्यञ्चों और मनुष्यों में किसीकिसी में पाया (३) आहारकशरीर-चतुर्दशपूर्वधारी मुनि तीर्थंकरों का अतिशय देखने आदि के प्रयोजनवश विशिष्ट आहारकलब्धि से जिस शरीर का निर्माण करते हैं, वह आहारकशरीर कहलाता है । "श्रुतकेवली द्वारा प्राणिदया, तीर्थंकरादि की ऋद्धि के दर्शन, सूक्ष्मपदार्थावगाहन के हेतु से तथा किसी संशय के निवारणार्थ जिनेन्द्र भगवान् के चरणों में जाने का कार्य होने पर अपनी विशिष्ट लब्धि से शरीर निर्मित किये जाने के कारण इसको आहारकशरीर कहा गया है ।" यह शरीर वैक्रियशरीर की अपेक्षा अत्यन्त शुभ और स्वच्छ स्फटिक शिला के सदृश शुभ पुद्गलसमूह से रचित होता है ।। १. प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक ४०९ २. वही, पत्र ४०९ ..३. (क) प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्र ४०९ (ख) "कजंमि समुप्पण्णे सुयकेवलिणा विसिट्ठलद्धीए । जं एत्थ आहरिज्जइ, भणितं आहारगं तं तु ॥१॥ पाणिदयरिद्धि-दंसणसुहमपयत्थावगहणहेडं वा । संसयवोच्छेयत्थं गमणं जिणपायमूलंमि ॥२॥
SR No.003457
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages545
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size11 MB
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