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। प्रज्ञापनासूत्र
१६२३. पारिग्गहिया णं भंते ! किरिया कस्स कजति ? गोयमा ! अण्णयरस्सावि संजयासंजयस्स। [१६२३ प्र.] भगवन् ! पारिग्रहिकीक्रिया किसके होती है ? [उ.] गौतम ! किसी संयतासंयत के होती है। १६२४. मायावत्तिया णं भंते ! किरिया कस्स कजति ? गोयमा ! अण्णयरस्सावि अपमत्तसंजयस्स। [१६२४ प्र.] भगवन् ! मायाप्रत्ययाक्रिया किसके होती है ? [उ.] गौतम ! किसी अप्रमत्तसंयत के होती है। १६२५. अपच्चक्खाणकिरिया णं भंते ! कस्स कजति ? गोयमा ! अण्णयरस्सावि अपच्चक्खाणिस्स। [१६२५ प्र.] भगवन् ! अप्रत्याख्यानक्रिया किसके होती है? [उ.] गौतम ! किसी अप्रत्याख्यानी के होती है । १६२६. मिच्छादसणवत्तिया णं भंते ! किरिया कस्स कजति ? गोयमा ! अण्णयरस्सावि मिच्छादंसणिस्स। [१६२६ प्र.] भगवन् ! मिथ्यादर्शनप्रतययाक्रिया किसके होती है ? [उ.] गौतम ! किसी मिथ्यादर्शनी के होती है।
विवेचन - प्रकारान्तर से पंचविध क्रियाएँ और उनके अधिकारी - प्रस्तुत ६ सूत्रों (सू. १६२१ से १६२६) में प्रकारान्तर से ५ प्रकार की क्रियाओं का नामोल्लेख तथा उनके अधिकारी का निरूपण किया गया है।
आरम्भिकी आदि पांच क्रियाओं की परिभाषा-सचि पृथ्वी, जल, अग्नि आदि का उपमर्दन करना आरम्भ कहलाता है। आरम्भ से पहले दो क्रम होते है- संरम्भ और समारम्भ का। संरम्भ कहते हैं - संकल्प को, समारम्भ कहते है- परिताप क्रिया को। जिसका प्रयोजना या कारण आरम्भ हो, वह आरम्भिकीक्रिया कहलाती हैं- पारिग्रहिकी- धर्मोपकरण को छोड़ कर वस्तुओं को स्वीकार और उन पर मूर्छा परिग्रह है। परिग्रह से निष्पन्न पारिग्रहिकी। मायाप्रत्यया- माया- कपट-अनार्जव। माया जिसका प्रत्यय- कारण हो, वह मायाप्रत्यया। अप्रत्याख्यान- प्रत्याख्यान कहते हैं - त्याग, नियम या हिंसादि आस्रवों से विरति को। विरति या त्याग के परिणामोंका अभाव- अप्रत्याख्यान है। अप्रत्याख्यानजनित क्रिया- अप्रत्याख्यानक्रिया है।