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इक्कीसवाँ अवगाहना-संस्थान-पद]
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[१४९४-१] वनस्पतिकायिकों के शरीर का संस्थान नाना प्रकार का कहा गया है। [२] एवं सुहुम-बायर-पज्जत्तापजत्ताण वि।
[१४९४-२] इसी प्रकार (वनस्पतिकायिकों के) सूक्ष्म, बादर, पर्याप्तकों अपर्याप्तकों के शरीरों का संस्थान भी (नाना प्रकार का है।)
१४९५.[१] बेइंदियओरालियसरीरे णं भंते ! किंसंठाणसंठिए पण्णत्ते ? गोयमा ! हुंडसंठाणसंठिए पण्णत्ते। [१४९५-१ प्र.] भगवन् ! द्वीन्द्रिय-औदारिकशरीर का संस्थान किस प्रकार का कहा गया हैं ? [उ.] गौतम ! (वह) हुंडकसंस्थान वाला कहा गया है। [२] एवं पजत्तापज्जत्ताण वि।
[१४९५-२] इसी प्रकार पर्याप्तक और अपर्याप्तक (द्वीन्द्रिय-औदारिकशरीरों का संस्थान भी हुंडक कहा गया है।)
१४९६. एवं तेइंदिय-चउरि दियाण वि।
[१४९६-१] इसी प्रकार त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय (के पर्याप्तक, अपर्याप्तक शरीरों) का संस्थान भी (हुण्डक समझना चाहिए।)
१४९७.[१] तिरिक्खजोणियपंचेंदियओरालियसरीरे णं भंते ! किंसंठाणसंठिए पण्णत्ते ?
गोयमा ! छव्विहसंठाणसैठिए पण्णत्ते।तं जहा - समचउरंससंठाणसंठिए जाव' हुंडसंठाणसंठिए वि। एवं पज्जत्ताऽपजत्ताण वि ३।
[१४९७-१ प्र.] भगवन् ! तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रिय-औदारिकशरीर किस संस्थान वाला कहा गया
__ [उ.] गौतम ! (वह) छहों प्रकार के संस्थान वाला कहा गया है, यथा - समचतुरस्र-संस्थान से लेकर हुंडकसंस्थान पर्यन्त। इसी प्रकार पर्याप्तक, अपर्याप्तक (तिर्यञ्च-पंचेन्द्रिय-औदारिकशरीर के संस्थान) के विषय में भी (समझ लेना चाहिए।)
[२] सम्मुच्छिमतिरिक्खजोणियपंचेंदियओरालियसरीरे णं भंते ! किंसंठाणसंठिए पत्ते ? गोयमा ! हुंडसंठाणसंठिए पण्णत्ते। एवं पजत्तापज्जत्ताण वि ३।
१. 'जाव' शब्द 'नग्गोहपरिमंडलसंठाणसंठिए, साइसं०, वामणसं०, खुजसंठाणसंठिए, हंडसंठाणसंठिए, शब्दों का सूचक है।