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________________ ग्यारहवाँ भाषापद] [७९ [८७५ उ.] गौतम ! पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक जीव, न तो सत्यभाषा बोलते हैं, न मृषाभाषा बोलते हैं और न ही सत्यामृषाभाषा बोलते हैं, व सिर्फ एक असत्यामृषाभाषा बोलते हैं: सिवाय शिक्षापूर्वक अथवा उत्तरगुणलब्धि की अपेक्षा से (तैयार हुए पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों के, जो कि) सत्यभाषा भी बोलते हैं, मृषाभाषा भी बोलते हैं, सत्यामृषा भाषा भी बोलते हैं तथा असत्यामृषा भाषा भी बोलते हैं। ८७६. मणुस्सा जाव वेमाणिया एए जहा जीवा (८७१) तहा भाणियव्वा। [८७६] मनुष्यों से लेकर (वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क) वैमानिकों तक की भाषा के विषय में औधिक जीवों की भाषाविषयकप्ररूपणा के समान (सूत्र ८७१ के अनुसार) कहना चाहिए। विवेचन - चतुर्विध भाषाजात एवं समस्त जीवों में उसकी प्ररूपणा - प्रस्तुत सात सूत्रों (सू. ८७० से ८७६ तक) में चार प्रकार की भाषाओं का निरूपण करके समुच्चय जीव एवं चौवीस दण्डकों के अनुसार नैरयिकों से वैमानिकों तक के जीवों में से कौन, कौन-कौनसी भाषा बोलते हैं ? इसकी संक्षिप्त प्ररूपणा की गई है। द्वि-त्रि-चतुरिन्द्रियों एवं तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों की भाषाविषयक प्ररूपणा - द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों में केवल असत्यामृषा के सिवाय शेष तीनों भाषाओं का जो निषेध किया गया है, उसका कारण यह है कि उनमें न तो सम्यग्ज्ञान होता है और न ही परवंचना आदि का अभिप्राय हो सकता हैं। इसी प्रकार तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों में सिवाय कुछ अपवादों के केवल असत्यामृषा (व्यवहार) भाषा के अतिरिक्त शेष तीनों भाषाओं का निषेध किया गया है, इसका कारण यह है कि वे न तो सम्यक् रूप से, यथावस्थित वस्तुस्वरूप का प्रतिपादन करने के अभिप्राय से बोलते हैं और न ही दूसरों को धोखा देने या ठगने के आशय से बोलते हैं, किन्तु कुपित अवस्था में या दूसरों को मारने की कामना से जब भी वे बोलते हैं, तब इसी एक ही रूप से बोलते हैं । अतएव उनकी भाषा असत्यामृषा होती है। शास्त्रकार इनके विषय में कुछ अपवाद भी बताते हैं, वह यह है कि शुक्र (तोता), सारिका (मैना) आदि किन्हीं विशिष्ट तिर्यञ्च पंचेन्द्रियों को यदि प्रशिक्षित (Trained) किया जाय, अथवा संस्कारित किया जाय तथा विशिष्ट प्रकार का क्षयोपशम होने से किन्हीं को जातिस्मरणज्ञानादि रूप किसी उत्तरगुण की लब्धि हो जाए, अथवा विशिष्ट व्यवहारकौशलरूप लब्धि प्राप्त हो जाए तो वे सत्यभाषा भी बोलते हैं, असत्यभाषा भी बोलते हैं और सत्यामृषा (मिश्र) भाषा भी बोलते हैं। अर्थात्-वे चारों ही प्रकार की भाषा बोलते हैं। जीव द्वारा ग्रहणयोग्य भाषाद्रव्यों के विभिन्नरूप ८७७.[१] जीवे णं भंते ! जाई दव्वाइं भासत्ताए गेण्हति ताई किं ठियाइं गेण्हति ? अठियाइं गेण्हति ? १. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक २६०
SR No.003457
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages545
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size11 MB
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