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इक्की वगअवगहहग स्थग्ह-वद ]
[उ.] गौतम ! ऋद्धिप्राप्त-प्रमत्तसंयत- सम्यग्दृष्टि - पर्याप्तक-संख्यातवर्षायुष्क-कर्मभूमिक-गर्भज-मनुष्यों के आहारकशरीर होता है (किन्तु ) अनृद्धिप्राप्त - प्रमत्तसंयत- सम्यग्दृष्टि-पर्याप्तक-संख्यातवर्षायुष्क-कर्मभूमिकगर्भज - मनुष्यों के नहीं होता है ।
विवेचन - आहारकशरीर का अधिकारी प्रस्तुत सूत्र (सू. १५३३) के दस भागों में एकविध आहारकशरीर किसको प्राप्त होता है, किसको नहीं ? इसकी चर्चा की गई है ।
निष्कर्ष - आहारकशरीर एक ही प्रकार का होता है और वह कर्मभूमि के गर्भज - सम्यग्दृष्टिऋद्धिप्राप्त - प्रमत्तसंयमी - मनुष्य को होता है ।
संजत आदि शब्दों के विशेषार्थ प्रमत्त- जो प्रमाद करते हैं, मोहनीयादि कर्मोदयवश तथा संज्वलनकषाय-निद्रादि में से किसी भी प्रमाद के योग से संयमप्रवृत्तियों (योगों) में कष्ट पाते हैं। वे प्रायः गच्छवासी (स्थविरकल्पी) होते हैं, क्योंकि वे कहीं-कहीं उपयोगशून्य होते हैं ।
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अप्रमत्त - इनसे विपरीत जो प्रमादरहित हों, वे प्राय: जिनकल्पी, परिहारविशुद्धिक, यथालन्दकल्पिक एवं प्रतिमाप्रतिपन्न साधु होते हैं । वे सदा उपयोगयुक्त रहते हैं ।"
एक स्पष्टीकरण जैनसिद्धान्तानुसार जिनकल्पी आदि लब्धि-उपजीवी नहीं होते । क्योंकि उनका वैसा ही कल्प है । जो गच्छवासी आहारकशरीर का निर्माण करते हैं, वे उस समय लब्ध्युपजीवों एवं उत्सुकता के कारण प्रमत्त होते हैं । आहारकशरीर को छोड़ने में भी वे प्रमत्त होते हैं । औदारिकशरीर में आत्मप्रदेशों का सर्वात्मना (चारों ओर से) उपसंहरण करने से व्याकुलता आती है । आहारकशरीर में वह अन्तर्मुहूर्त तक रहते हैं । अतः यद्यपि उसके बीच के काल में थोड़ी देर के लिए जरा-सा विशुद्धिभाव आ जाता है । कर्मग्रन्थकार इस स्थिति को अप्रमत्तता कहते हैं, किन्तु वास्तव में देखा जाए तो लब्धुपजीविता के कारण वे प्रमत्त हैं |
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इड्डित्त - ऋद्धिप्राप्त- आमर्षौषधि इत्यादि ऋद्धियाँ - लब्धियाँ जिन्हें प्राप्त हों ।
आहारकशरीर में संस्थानद्वार
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१५३४. आहारगसरीरे णं भंते ! किंसंठिए पण्णत्ते ?
गोयमा ! समचउरंससंठाणसंठिए पण्णत्ते ।
पण्णवणासुत्तं (मूलपाठ) ३४२-३४३
प्रज्ञापना, मलय. वृत्ति, पत्र ४२४-४२५
वही, पत्र ४२४ - ४२५
वही, पत्र ४२४-४२५