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________________ बारहवाँ शरीरपद] [११५ (बद्ध-मुक्त) वैक्रियशरीरों के समान समझ लेना चाहिए। ९१३. एवं जाव थणियकुमारा। [९१३] स्तनिकुमारों तक के बद्ध-मुक्त सभी शरीरों की प्ररूपणा भी इसी प्रकार (करनी चाहिए।) विवेचन - असुरकुमारादि के बद्धमुक्त शरीरों की प्ररूपणा - प्रस्तुत दो सूत्रों (सू. ९१२-९१३) में असुरकुमार से लेकर स्तनितकुमार तक के दसों भवनपतिदेवों के बद्ध एवं मुक्त औदारिकादि पांचों शरीरों की प्ररूपणा की गई है। असुरकुमारों के बद्ध-मुक्त औदारिकशरीर - इनके बद्ध औदारिकशरीर नहीं होते, क्योंकि नारकों की तरह इनका भी भवस्वभाव इसमें बाधक कारण है। इनके मुक्त औदारिकशरीर नैरयिकों की तरह समझने चाहिए। ___ असुरकुमारों के बद्ध-मुक्त वैक्रियशरीरों का निरूपण - इनके बद्ध वैक्रियशरीर असुरकुमार देवों की असंख्यात संख्या के बराबर असंख्यात हैं। काल से तो पूर्ववत् असंख्यात उत्सर्पिणियों-अवसपिणियों के समयों के तुल्य हैं । क्षेत्र की अपेक्षा से - असंख्यात श्रेणी प्रमाण हैं । असंख्यात श्रेणियों में जितने आकाशप्रदेश होते हैं, उतने ही बद्धवैक्रियशरीर हैं। वे श्रेणियाँ प्रतर के असंख्यात भाग-प्रमाण होती हैं। यहाँ नारकों की अपेक्षा विशेषतर परिमाण बताते हुए शास्त्रकार कहते हैं- उन श्रेणियों के परिमाण के लिए जो विष्कम्भसूची है, वह अंगुल-प्रमाण क्षेत्र के प्रदेशों की राशि के प्रथम वर्गमूल का संख्यातवाँ भाग है। जैसे कि असत्कल्पना से एक अंगुलप्रमाण क्षेत्र की प्रदेश-राशि २५६ मानी गई। उसका जो प्रथम वर्गमूल है, वह १६ संख्यावाला माना गया। उसके संख्यातवें भाग में जितने आकाशप्रदेश हों, असत्कल्पना से पांच या छह हों, उतने प्रदेशों वाली श्रेणी परिमाण के लिए विष्कम्भसूची समझनी चाएि। इस दृष्टि से नैरयिकों की अपेक्षा असुरकुमारदेवों की विष्कम्भसूची असंख्यातगुणहीन है, क्योंकि नारकों की श्रेणी के परिमाण के लिए गृहीत विष्कम्भसूची द्वितीय वर्गमूल से गुणित प्रथम वर्गमूल जितने प्रदेशों वाली है। वस्तुतः द्वितीय वर्गमूल असंख्यातप्रदेशात्मक होता है। अतएव असंख्यातगुणयुक्त प्रथम वर्गमूल के प्रदेशों जितनी नारकों की सूची है, जबकि असुरकुमारादि की विष्कम्भसूची अंगुल के प्रथम वर्गमूल के संख्यातभाग-प्रदेशरूप ही है। यह युक्तियुक्त भी है। क्योंकि महादण्डक में भी समस्त भवनवासियों को रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिकों से भी असंख्यातगुणहीन कहा गया है। इस दृष्टि से समस्त नारकों की अपेक्षा उनकी असंख्यातगुणहीनता स्वतः सिद्ध हो जाती है। इनके मुक्त वैक्रियशरीरों की प्ररूपणा औधिक मुक्त वैक्रियशरीरों की तरह करनी चाएि। इनके बद्ध-मुक्त आहारक-तैजसकार्मण शरीर - इनके आहारकशरीरों की प्ररूपणा नैरयिकों की तरह, बद्ध तैजस-कार्मण बद्धवैक्रियशरीरों की तरह तथा इनके मुक्त तैजस-कार्मणशरीरों की प्ररूपणा औधिक मुक्त तैजस के समान समझनी चाहिए। १. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक २७६-२७७
SR No.003457
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages545
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size11 MB
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