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________________ ३७२] [प्रज्ञापनासूत्रं । [१३१९ प्र.] भगवन् ! निगोदपर्याप्तक और बादर निगोदपर्याप्तक कितने काल तक निगोदपर्याप्तक के रूप में रहते हैं? [१३१९ उ.] गौतम ! ये दोनों जघन्य भी और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त तक (स्व-स्वपर्याय में बने रहते १३२०. बादरतसकाइयपजत्तए णं भंते ! बादरतसकाइयपज्जत्तए त्ति कालओ केवचिरं होइ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं सागरोवमसतपुहुत्तं सातिरेगं । दारं ४॥ [१३२० प्र.] भगवन् ! बादर त्रसकायिकपर्याप्तक बादर त्रसकायिकपर्याप्तक के रूप में कितने काल तक . रहता है ? [१३२० उ.] गौतम ! (वह) जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट कुछ अधिक शतसागरोपमपृथक्त्व पर्यन्त बादर त्रसकायिकपर्याप्तक के रूप में बना रहता है। चतुर्थ द्वार ॥४॥ विवेचन - चतुर्थ कायद्वार - प्रस्तुत छत्तीस सूत्रों (सू. १२८५ से १३२० तक) में षट्काय के विभिन्न पर्यायों की अपेक्षा से कायस्थिति (उस रूप में लगातार कालावधि) की प्ररूपणा की गई है। सकायिक की व्याख्या - जो कायसहित हो, वह सकायिक कहलाता है। यद्यपि काय के पांच भेद हैं- औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण; तथापि यहां तैजस और कार्मण काय ही समझना चाहिए, क्योंकि ये दोनों संसार-पर्यन्त रहते हैं, अन्यथा विग्रहगति में वर्तमान एवं शरीर-पर्याप्ति से अपर्याप्त जीव के तैजस और कार्मण के सिवाय अन्य शरीर नहीं होते । ऐसी स्थिति में वह जीव अकायिक हो जाएगा और मूलसूत्रोक्त संसारी और संसारपारगामी, ये दो भेद नहीं बनेंगे। मूल में सकायिक के दो भेद बताए हैं - अनादिअपर्यवसित और अनादि-सपर्यवसित। जो संसारपारगामी नहीं होगा, वह अभव्य अनादि-अनन्त-सकायिक है. क्योंकि उसके काय का व्यवच्छेद कदापि सम्भव नहीं। जो मोक्षगामी है. वह अनादि-सान्त है. क्योंकि वह मक्ति अवस्था में सर्वात्मना सर्वशरीरों से रहित हो जाता है। यों षटकाय की दष्टि से भी पथ्वीकायिक. अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक तथा त्रसकायिक, ये छह भेद हैं।' असंख्यातकाल की व्याख्या - कालतः असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणीकाल जानना चाहिए। क्षेत्रतः असंख्यात लोक समझने चाहिए। अभिप्राय यह है कि लोकाकाश के असंख्यात प्रदेश हैं। ऐसे-ऐसे (कल्पित) असंख्यात लोकाकाशों के समस्त प्रदेशों में से एक-एक समय में एक-एक प्रदेश के क्रम से अपहरण किया जाए तो जितनी उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी उस अपहरण से व्यतीत हों उतनी ही उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी यहाँ समझना चाहिए। सारांश यह है कि अधिक से अधिक इतने काल तक सूक्ष्म जीव निरन्तर सूक्ष्म पर्याय में बना रहता है। यह प्ररूपणा सांव्यवहारिक जीवराशि की अपेक्षा से समझनी चाहिए। १. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३७९
SR No.003457
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages545
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size11 MB
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