________________
४७० ]
[प्रज्ञापनासूत्र
वि एवं चेव । अपजत्ताणं जहण्णेण वि उक्कोसेण वि अंगुलस्स असंखेजइभागं ।
[१५०६-४] बादर (वनस्पतिकायिकों के औदारिकशरीर) की (अवगाहना ) जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग (और) उत्कृष्ट कुछ अधिक हजार योजन की है । (इनके) पर्याप्तकों की (औदारिकशरीरावगाहना) भी इसी प्रकार की (समझनी चाहिए ।) (इनके) अपर्याप्तकों की (औदारिकशरीरावगाहना) जघन्य और उत्कृष्ट (दोनों प्रकार से) अंगुल के उसंख्यातवें भाग की (समझनी चाहिए ।)
[५] सुहुमाणं पजत्तापजत्ताण य तिण्ह वि जहण्णेण वि उक्कोसेण वि अंगुलस्स असंखेजइ भागं ।
[१५०६-५] (वनस्पतिकायिकों के) सूक्ष्म, पर्याप्तक और अपर्याप्तक, इन तीनों की (औदारिकशरीरावगाहना) जघन्य और उत्कृष्ट (दोनों रूप से) अंगुल के असंख्यातवें भाग की है ।
१५०७.[१] बेइंदियओरालियसरीरस्स णं भंते ! केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता ? गोयमा ! जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजइभागं, उक्कोसेणं बारस जोयणाई। [१५०७-१] भगवन् ! द्वीन्द्रियों के औदारिकशरीर की अवगाहना कितनी कहीं गई है ?
[उ.] गौतम ! (इनकी शरीरावगाहना) जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और अत्कृष्ट बारह योजन की है।
[२] एवं सक्थ वि अपजत्तयाणं अंगुलस्स असंखेजइभागं जहण्णेण वि उक्कोसेण वि।
[१५०७-२] इसी प्रकार सर्वत्र (द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रियों में) अपर्याप्त जीवों की औदारिकशरीरावगाहना भी जघन्य और उत्कृष्ट (दोनों प्रकार से) अंगुल के असंख्यातवें भाग की कहनी चाहिए।
[३] पजत्तयाणं जहेव ओरालियस्स ओहियस्स (सु. १५०७-१)।
[१५०७-३] पर्याप्त द्वीन्द्रियों के औदारिकशरीर की अवगाहना भी उसी प्रकार है, जिस प्रकार [१५०७-१ सू. में] (द्वीन्द्रियों के) औधिक (औदारिकशरीर) की (कही है ।) अर्थात् जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट बारह योजन की होती है । )
१५०८. एवं तेइंदियाणं तिण्णि गाउयाइं । चउरि दियाणं चत्तारि गाउयाई ।
[१५०८] इसी प्रकार (औधिक और पर्याप्तक) त्रीन्द्रियों (के औदारिक शरीर) की (उत्कृष्ट अवगाहना) तीन गव्यूति (गाऊ) की है तथा (औधिक और पयौप्तक) चतुरिन्द्रियों (के औदारिकशरीर) की (उत्कृष्ट