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सत्तरहवाँ लेश्यापद : चतुर्थ उद्देशक)
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[प्र.] भगवन् ! क्या कृष्णलेश्या रस से इसी रूप की होती है ?
[उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। कृष्णलेश्या स्वाद में इन (उपर्युक्त वस्तुओं के रस) से भी अनिष्टतर, अधिक अकान्त, अधिक अप्रिय, अधिक अमनोज्ञ और अतिशय अमनाम है।
१२३४. णीललेस्सा पुच्छा।
गोयमा ! से जहाणामए भंगी ति वा भंगीरए इ वा पाढा इ वा चविता इ वा चित्तामूलए इ वा पिप्पलीमूलए इ वा पिप्पली इ वा पिप्पलिचुण्णे इ वा मिरिए इ वा मिरियचुण्णे इ वा सिंगबेरे इ वा सिंगबेरचुण्णे इ वा ।
भवेतारूवा? गोयमा ! णो इणढे समढे, णीललेस्सा णं एत्तो जाव अमणामतरिया चेव अस्साएणं पण्णत्ता। [१२३४ प्र.] भगवन् ! नीललेश्या आस्वाद में कैसी है ?
[१२३४ उ.] गौतम ! जैसे कोई भुंगी (एक प्रकार की मादक वनस्पति) हो, अथवा भुंगी (वनस्पति) का कण (रज) हो, या पाठा (नामक वनस्पति) हो, या चविता हो अथवा चित्रमूलक (वनस्पति) हो, या पिप्पलीमूल (पीपरामूल) हो, या पीपल हो, अथवा पीपल का चूर्ण हो, (मिर्च हो, या मिर्च का चूरा हो, अंगबेर (अदरक) हो, या श्रृंगबेर (सूखी अदरक-सोंठ) का चूर्ण हो; (इन सबके रस के समान चरपरा (तिक्त) नीललेश्या का आस्वाद (रस) कहा गया है।)
[प्र.] भगवन् ! क्या नीललेश्या रस से इसी रूप की होती है ? ___ [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। नीललेश्या रस (आस्वाद) में इससे भी अनिष्टतर, अधिक अकान्त, अधिक अप्रिय, अधिक अमनोज्ञ और अत्यधिक अमनाम (अवांछनीय) कही गयी है।
१२३५. काउलेस्साए पुच्छा।
गोयमा ! से जहाणामए अंबाण वा अंबाडगाण वा माउलुंगाण वा बिल्लाण वा कविट्ठाण वा भट्ठाण' वा फणसाण वा दालिमाण वा पारेवयाण वा अक्खोडाण वा पोराण वा बोराण वा तेंदुयाण वा अपक्काणं अपरियागाणं वण्णेणं अणुववेयाणं गंधेण अणुववेयाणं फासेणं अणुववेयाणं।
भवेतारूवा? गोयमा ! णो इणढे समटे, जाव एत्तो अमणामतरिया चेव काउलेस्सा अस्साएणं पण्णत्ता। [१२३५ प्र.] भगवन् ! कापोतलेश्या आस्वाद में कैसी है ?
१. पाठान्तर - 'भट्ठाण' के बदले श्रीजीवविजयकृत स्तबक में भच्चाण' पाठान्तर है, अर्थ किया गया है - भर्च वृक्ष के फल तथा
श्री धनविमलगणिकृत स्तबक में 'भद्दाण' पाठान्तर है, जिसका अर्थ किया गया है - अपक्व जैसी द्राक्षा - सं.