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________________ सत्तरहवाँ लेश्यापद : द्वितीय उद्देशक] [३०५ शुक्ललेश्यी देवों से पद्मलेश्यी देव असंख्यातगुणे अधिक हैं, क्योंकि सनत्कुमार, माहेन्द्र और ब्रह्मलोक कल्प में पद्मलेश्या होती है और वहां के देव लान्तककल्प आदि के देवों की अपेक्षा असंख्यातगुणे अधिक हैं। पद्मलेश्यी देवों से कापोतलेश्यी देवं असंख्यातगुणे अधिक हैं, क्योंकि कापोतलेश्या भवनवासी और वाणव्यन्तर देवों में पाई जाती है, जो कि उनकी अपेक्षा असंख्यातगुणे हैं। उनसे नीललेश्यी देव विशेषाधिक इसलिए हैं कि बहुत-से भवनवासियों और वाणव्यन्तरों में नीललेश्या पाई जाती है। नीललेश्यी देवों से कृष्णलेश्यी देव विशेषधिक होते हैं, क्योंकि अधिकांश भवनपति और वाणव्यन्तर देवों में कृष्णलेश्या होती है। इन सब की अपेक्षा से तेजोलेश्याविशिष्ट देव संख्यातगुणे अधिक हैं, क्योंकि बहुत-से भवनवासियों में, समस्त ज्योतिष्क देवों में तथा सौधर्म-ऐशान देवों में तेजोलेश्या का सद्भाव है। (२) सलेश्य समुच्चय देवियों के अल्पबहुत्व की समीक्षा - कापोतलेश्या वाली देवियाँ सबसे कम इसलिए हैं कि भवनवासी एवं व्यन्तर देवियों में ही कापोतलेश्या होती है, उनसे नीललेश्यायुक्त देवियाँ विशेषाधिक हैं क्योंकि बहुत-सी भवनवासी और वाणव्यन्तर देवियों में नीललेश्या पाई जाती है। इनकी अपेक्षा कृष्णलेश्या वाली देवियाँ विशेषाधिक हैं, क्योंकि अधिकांश भवनपति, वाणव्यन्तर देवियों में कृष्णलेश्या का सद्भाव होता है। इनकी अपेक्षा भी जेतोलेश्या वाली देवियाँ संख्यातगुणी अधिक हैं, क्योंकि तेजोलेश्या सभी ज्योतिष्क देवियों में तथा सौधर्म-ऐशान देवियों में पाई जाती है। एक बात विशेषत: ध्यान देने योग्य है, वह यह है कि देवियाँ सौधर्म और ऐशानकल्पों तक ही उत्पन्न होती हैं, आगे नहीं। अतएव उनमें इन कल्पों के योग्य प्रारम्भ की चार लेश्याएँ ही सम्भव हैं। इसी कारण तेजोलेश्या तक ही इनका अल्पबहुत्व बतलाया है । (३) सलेश्य देवों की अपेक्षा देवियों की संख्या अधिक - सैद्धान्तिक तथ्य यह है कि देवों की अपेक्षा देवियाँ बत्तीसगुनी और बत्तीस अधिक हैं। यही कारण है कि कापोत, नील, कृष्ण और तेजोलेश्या वाले देवों की अपेक्षा देवियाँ कहीं संख्यागुणी अधिक हैं, कहीं विशेषाधिक हैं । तेजोलेश्यी ज्योतिष्क देव-देवियों का अल्पबहुत्व - ज्योतिष्क देवों के सम्बन्ध में यहाँ एक ही अल्पबहुत्वसूत्र का प्रतिपादन किया गया है, क्योंकि ज्योतिष्कनिकाय में एकमात्र तेजोलेश्या ही होती है, कोई अन्य लेश्या नहीं होती । इसी कारण ज्योतिष्क देवों और देवियों का पृथक्-पृथक् अल्पबहुत्व-सूत्र निर्दिष्ट नहीं किया है। सलेश्य सामान्य जीवों और चौवीस दण्डकों में ऋद्धिक अल्पबहुत्व का विचार ११९१. एतेसि णं भंते ! जीवाणं कण्हलेस्साणं जाव सुक्कलेस्साण य कतरे कतरेहितो अप्पिड्डिया वा महिड्डया वा? गोयमा ! कण्हलेस्सेहितो णीललेस्सा महिड्डिया, णीललेस्सेहिंतो काउलेस्सा महिड्डिया, एवं १. (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३४९-३५० (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका भा. ४, पृ. १३१ से १३९ तक
SR No.003457
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages545
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size11 MB
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