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________________ [ १३५ तेरहवां परिणामपद ] [९३७ उ.] गौतम ! (वेदपरिणाम) तीन प्रकार का कहा गया है, वह इस प्रकार - ( १ ) स्त्रीवेदपरिणाम (२) पुरुषवेदपरिणाम और (३) नपुंसकवेदपरिणाम । विवेचन - दशविध जीवपरिणाम और उसके भेद-प्रमोद - प्रस्तुत १२ सूत्रों (सू. ९२६ से ९३७ तक) में गतिपरिणाम आदि १० प्रकार के जीवपरिणामो का उल्लेख करके प्रत्येक के भेदों का निरूपण किया गया है । गतिपरिणाम आदि की व्याख्या - ( १ ) गतिपरिणाम - नरकादि गति नामकर्म के उदय से जिसकी प्राप्ति हो, उसे 'गति' कहते हैं, नरकादिगतिरूप परिणाम अर्थात् नारकत्व आदि पर्याय- परिणत जीव का गतिपरिणाम है । (२) इन्द्रियपरिणाम - इन्दन होने से, अर्थात् ज्ञानरूप परम-ऐश्वर्य के योग से आत्मा 'इन्द्र' कहलाता है । जो इन्द्र का लिंग-साधन हो, वह इन्द्रिय है । इन्द्रियरूप परिणाम इन्द्रियपरिणाम है । (३) कषायपरिणाम - जिसमें प्राणी परस्पर एक दूसरे का कर्षण हिंसा (घात) करते हैं, उसे 'कष' कहते हैं या जो कष अर्थात्-संसार को प्राप्त कराते हैं, वे कषाय हैं । जीव की कषायरूप परिणति को कषायपरिणाम कहते हैं । ( ४ ) लेश्यापरिणाम- लेश्या का स्वरूप आगे कहा जाएगा। लेश्यारूप परिणमन को लेश्यापरिणाम कहते हैं । (५) योगपरिणाम- मन, वचन एवं काय के व्यापार को योग कहते हैं। योगरूप परिणमन योगपरिणाम है । (६) उपयोगपरिणाम - चेतनाशक्ति के व्यापार रूप साकार - अनाकार - ज्ञानदर्शनात्मक परिणाम को कहते हैं । उपयोगरूप परिणाम उपयोगपरिणाम हैं। (७) ज्ञानपरिणाम- मतिज्ञानादिरूप परिणाम को ज्ञानपरिणाम कहते हैं । (८) दर्शनपरिणाम- सम्यग्दर्शन आदि रूप परिणाम दर्शन-परिणाम है । (९) चारित्रपरिणाम- जीव का सामायिक आदि चारित्ररूप परिणाम चारित्रपरिणाम है । (१०) वेदपरिणाम- स्त्रीवेद आदि के रूप में जीव परिणमन वेदपरिणाम है । दशविध जीवपरिणामों के क्रम की संगति- औदयिक आदि भाव के आश्रित सभी भाव गतिपरिणाम बिना प्रादुर्भूत नहीं होते। इसलिए सर्वप्रथम गतिपरिणाम का प्रतिपादन किया गया है । गतिपरिणाम के होने पर इन्द्रियपरिणाम अवश्य होता है, इसलिए उसके पश्चात् इन्द्रियपरिणाम कहा है । इन्द्रियपरिणाम के पश्चात् इष्ट-अनिष्ट विषय के सम्पर्क से राग-द्वेषपरिणाम उत्पन्न होता है । अतः इसके बाद कषायपरिणाम कहा है । कषायपरिणाम लेश्यापरिणाम का अविनाभावी है किन्तु लेश्यापरिणाम कषायपरिणाम के बिना भी होता है । इसलिए कषायपरिणाम के पश्चात् लेश्यापरिणाम का निर्देश है' । लेश्यापरिणाम योगपरिणामात्मक है, इसलिए श्यापरिणाम के अनन्तर योगपरिणाम का निर्देश किया है । योगपरिणत संसारी जीवों का उपयोगपरिणाम होता है, इसलिए योगपरिणाम के पश्चात् उपयोगपरिणाम का क्रम है । उपयोगपरिणाम होने पर ज्ञानपरिणाम उत्पन्न होता है । इस कारण उपयोगपरिणाम के अनन्तर ज्ञान- परिणाम कहा है । ज्ञानपरिणाम के दो रूप हैंसम्यग्ज्ञानपरिणाम और मिथ्याज्ञानपरिणाम । ये दोनों परिणाम क्रमशः सम्यक्त्व, मिथ्यात्व (सम्यग्दर्शन, मिथ्यादर्शन) के बिना नही होते, इसलिए ज्ञानपरिणाम के अनन्तर दर्शनपरिणाम कहा है । सम्यग्दर्शनपरिणाम के होने पर जीवों के द्वारा जिन भगवन् के वचनश्रवण से अपूर्व - अपूर्व संवेग का आविर्भाव होने पर
SR No.003457
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages545
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size11 MB
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