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तेरहवां परिणामपद ]
[९३७ उ.] गौतम ! (वेदपरिणाम) तीन प्रकार का कहा गया है, वह इस प्रकार - ( १ ) स्त्रीवेदपरिणाम (२) पुरुषवेदपरिणाम और (३) नपुंसकवेदपरिणाम ।
विवेचन - दशविध जीवपरिणाम और उसके भेद-प्रमोद - प्रस्तुत १२ सूत्रों (सू. ९२६ से ९३७ तक) में गतिपरिणाम आदि १० प्रकार के जीवपरिणामो का उल्लेख करके प्रत्येक के भेदों का निरूपण किया गया है ।
गतिपरिणाम आदि की व्याख्या - ( १ ) गतिपरिणाम - नरकादि गति नामकर्म के उदय से जिसकी प्राप्ति हो, उसे 'गति' कहते हैं, नरकादिगतिरूप परिणाम अर्थात् नारकत्व आदि पर्याय- परिणत जीव का गतिपरिणाम है । (२) इन्द्रियपरिणाम - इन्दन होने से, अर्थात् ज्ञानरूप परम-ऐश्वर्य के योग से आत्मा 'इन्द्र' कहलाता है । जो इन्द्र का लिंग-साधन हो, वह इन्द्रिय है । इन्द्रियरूप परिणाम इन्द्रियपरिणाम है । (३) कषायपरिणाम - जिसमें प्राणी परस्पर एक दूसरे का कर्षण हिंसा (घात) करते हैं, उसे 'कष' कहते हैं या जो कष अर्थात्-संसार को प्राप्त कराते हैं, वे कषाय हैं । जीव की कषायरूप परिणति को कषायपरिणाम कहते हैं । ( ४ ) लेश्यापरिणाम- लेश्या का स्वरूप आगे कहा जाएगा। लेश्यारूप परिणमन को लेश्यापरिणाम कहते हैं । (५) योगपरिणाम- मन, वचन एवं काय के व्यापार को योग कहते हैं। योगरूप परिणमन योगपरिणाम है । (६) उपयोगपरिणाम - चेतनाशक्ति के व्यापार रूप साकार - अनाकार - ज्ञानदर्शनात्मक परिणाम को कहते हैं । उपयोगरूप परिणाम उपयोगपरिणाम हैं। (७) ज्ञानपरिणाम- मतिज्ञानादिरूप परिणाम को ज्ञानपरिणाम कहते हैं । (८) दर्शनपरिणाम- सम्यग्दर्शन आदि रूप परिणाम दर्शन-परिणाम है । (९) चारित्रपरिणाम- जीव का सामायिक आदि चारित्ररूप परिणाम चारित्रपरिणाम है । (१०) वेदपरिणाम- स्त्रीवेद आदि के रूप में जीव परिणमन वेदपरिणाम है ।
दशविध जीवपरिणामों के क्रम की संगति- औदयिक आदि भाव के आश्रित सभी भाव गतिपरिणाम बिना प्रादुर्भूत नहीं होते। इसलिए सर्वप्रथम गतिपरिणाम का प्रतिपादन किया गया है । गतिपरिणाम के होने पर इन्द्रियपरिणाम अवश्य होता है, इसलिए उसके पश्चात् इन्द्रियपरिणाम कहा है । इन्द्रियपरिणाम के पश्चात् इष्ट-अनिष्ट विषय के सम्पर्क से राग-द्वेषपरिणाम उत्पन्न होता है । अतः इसके बाद कषायपरिणाम कहा है । कषायपरिणाम लेश्यापरिणाम का अविनाभावी है किन्तु लेश्यापरिणाम कषायपरिणाम के बिना भी होता है । इसलिए कषायपरिणाम के पश्चात् लेश्यापरिणाम का निर्देश है' । लेश्यापरिणाम योगपरिणामात्मक है, इसलिए श्यापरिणाम के अनन्तर योगपरिणाम का निर्देश किया है । योगपरिणत संसारी जीवों का उपयोगपरिणाम होता है, इसलिए योगपरिणाम के पश्चात् उपयोगपरिणाम का क्रम है । उपयोगपरिणाम होने पर ज्ञानपरिणाम उत्पन्न होता है । इस कारण उपयोगपरिणाम के अनन्तर ज्ञान- परिणाम कहा है । ज्ञानपरिणाम के दो रूप हैंसम्यग्ज्ञानपरिणाम और मिथ्याज्ञानपरिणाम । ये दोनों परिणाम क्रमशः सम्यक्त्व, मिथ्यात्व (सम्यग्दर्शन, मिथ्यादर्शन) के बिना नही होते, इसलिए ज्ञानपरिणाम के अनन्तर दर्शनपरिणाम कहा है । सम्यग्दर्शनपरिणाम के होने पर जीवों के द्वारा जिन भगवन् के वचनश्रवण से अपूर्व - अपूर्व संवेग का आविर्भाव होने पर