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[प्रज्ञापनासूत्र
अध्यवसाय से सात या आठ कर्मों को बांधता है; प्रस्तुत में यह बताया गया है कि वह ज्ञानावरणीयादि कर्म बांधता हुआ कायिकी आदि कितनी क्रियाओं से प्राणातिपात को समाप्त करता है ? तथा यहाँ ज्ञानावरणीय नाम कर्मरूप कार्य से प्राणातिपात नामक कारण का निवृत्तिभेद भी बताया गया है। उस भेद से बन्धविशेष भी प्रकट किया गया है। कहा भी है- तीन, चार या पांच क्रियाओं से क्रमशः हिंसा समाप्त (पूर्ण) की जाती है, किन्तु यदि योग और प्रद्वेष का साम्य हो तो इसका विशिष्ट बन्ध होता है।
उत्तर का आशय- उसी प्राणातिपात का निवृत्तिभेद बताते हुए उत्तर में कहा गया है- कदाचित् वह तीन क्रियाओं वाला होता है, इत्यादि। जब तीन क्रियाओं वाला होता है, तब कायिकी आधिकरणिकी और प्राद्वेषिकी क्रियाओं से प्राणतिपात को समाप्त करता है। कायिकी से हाथ पैर आदि का प्रयोग (प्रवृत्ति या व्यापार) करता है, आधिकरणिकी से तलवार आदि को जुटाता है या तेज या ठीक करता है, तथा प्राद्वेषिकी से 'उसे मारू' इस प्रकार का मन में अशुभ सम्प्रधारण (विचार) करता है। जब वह चार क्रियाओं से युक्त होता है, तब कायिकी, आधिकरणिकी, प्राद्वेषिकी क्रियाओं के उपरान्त चौथी 'पारितापनिकी' क्रिया से युक्त भी हो जाता है, अर्थात्-खङ्ग आदि के प्रहार (घात) से पीडा पहँचा कर पारितापनिकी क्रिया से भी युक्त हो जाता है। जब वह पांच क्रियाओं से युक्त होता है, तब पूर्वोक्त चार क्रियाओं के अतिरिक्त पांचवीं प्राणातिपातिकी क्रिया से भी युक्त हो जाता है। अर्थात् उसे जीवन से रहित करके प्राणातिपातक्रिया वाला भी हो जाता है।' . "तिकिरिए' आदि पदों का आशय - जीव ज्ञानावरणीय कर्म को बांधते हुए सदैव बहुत-से होते हैं, इस कारण तीन क्रियाओं वाले भी होते हैं, चार क्रियाओं वाले भी और पांच क्रियाओं वाले भी होते हैं। इस प्रकार एक जीव, एक नैरयिकादि, तथा अनेक जीव या अनेक नैरयिकादि चौवीस दण्डककर्ती जीवों को लेकर क्रियाओं की चर्चा की गई है।
सोलह दण्डक- ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्मों (कर्मप्रकृतियों) के बन्ध को लेकर प्रत्येक कर्म के आश्रयी एकत्व और पृथक्त्व के भेद से दो-दो दण्डक कहने चाहिए। इस प्रकार सब दण्डकों की संख्या १६ होती हैं। जीवादि में एकत्व और पृथक्त्व से क्रियाप्ररूपणा
१५८८. जीवे णं भंते ! जीवाओ कतिकिरिए ?
१. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र ४४० २. तिसृभिश्चतसृभिरथ पञ्चभिश्च (क्रियाभिः) हिंसा सामाप्यते क्रमशः । बन्धोऽस्य विशिष्टः स्याद्, योग-प्रद्वेषसाम्यं चेत्॥
- प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पं. ४४० ३. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र ४४० ४. वही, मलयवृत्ति पत्र ४४० ५. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र ४४१