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पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद : द्वितीय उद्देशक]
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(सौधर्मदेव की) सर्वार्थसिद्धदेवत्वरूप में (अतीत, बद्ध, पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियों की वक्तव्यता) (सू. १०४१ के अनुसार) नैरकयिक (की वक्तव्यता) के समान (समझनी चाहिए ।)
[२] एवं जाव गेवेजगदेवस्स सव्वट्ठसिद्धगदेवत्ते ताव णेयव्वं ।
[१०४५-२] (ईशानदेव से लेकर) ग्रैवेयकदेव तक की यावत् सर्वार्थसिद्धदेवत्वरूप में अतीत, बद्ध, पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियों की वक्तव्यता भी इसी प्रकार कहनी चाहिए ।
१०४६. [१] एगमेगस्स णं भंते ! विजय-वेजयंत-जयंत-अपराजियत्ते णेरइयत्ते केवतिया दव्विंदिया अतीता ?
गोयमा ! अणंता । केवतिया बद्धेल्लगा? गोयमा ! णत्थि ।
केवतिया पुरेक्खडा? · गोयमा ! णत्थि ।
[१०४६-१ प्र.] भगवन् ! एक-एक विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित देव की नैरयिक के रूप में कितनी अतीत द्रव्येन्द्रियाँ हैं ?
[१०४६-१] गौतम ! अनन्त हैं । [प्र.] (उसकी) बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [उ.] गौतम ! नहीं हैं। [प्र.] (उसकी) पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [उ.] गौतम ! नहीं हैं। [२] एवं जाव पंचेंदियतिरिक्खजोणियत्ते ।
[१०४६-२] इन चारों की प्रत्येक की, असुरकुमारत्व से लेकर यावत् पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकत्वरूप में (अतीत, बद्ध, पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियों की वक्तव्यता भी) इसी प्रकार (समझनी चाहिए ।)
[३] मणूसत्ते अतीया अणंता, बद्धेल्लगा णत्थि, पुरेक्खडा अट्ठ वा सोलस वा चउवीसा वा संखेजा वा ।
[१०४६-३] (इन्हीं की प्रत्येक की) मनुष्यत्व के रूप में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ अनन्त हैं, बद्ध नहीं हैं,