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औदारिकशरीर की
असंख्यातवाँ भाग तीन गव्यूति'
समुच्चय औदारिकशरीर की उत्कृष्ट अवगाहना - कुछ अधिक एक हजार योजन की कही गई है, वह समुद्र गोतीर्थ आदि में पद्मनाल आदि की अपेक्षा से समझना चाहिए । यहाँ के सिवाय अन्यत्र इतनी अवगाहना वाला औदारिकशरीर सम्भव नहीं है ।
[ प्रज्ञापनासूत्र
नौ-नौ सूत्रो का समूह - पृथ्वीकायिकदि एकेन्द्रियों के प्रत्येक के नौ-नौ सूत्र इस प्रकार है(१-३) औघिकसूत्र, औधिक अपर्यापतसूत्र, औधिक पर्याप्तसूत्र; (४-६) सूक्ष्मसूत्र, सूक्ष्म- अपर्याप्तकसूत्र और सूक्ष्म-पर्याप्तकसूत्र ; तथा (७-९) बादरसूत्र, बादर - अपर्यापतकसूत्र और बादर - पर्याप्तकसूत्र ; ये तीनों के त्रिक मिला कर पृथ्वीकायिक से वनस्पतिकायिकों तक के ९ - ९ सूत्र हुए । इसी तरह द्वि-त्रि- चतुरिन्द्रियों के औषिकसूत्र, पर्याप्तसूत्र और अपर्यापतसूत्र ; यों तीन-तीन सूत्र होते हैं । जलचरों के औधिक, उसके पर्याप्तक और अपर्याप्तक ये तीन सूत्र, गर्भज, उसके पर्याप्तक और पर्याप्तक ये तीन सूत्र, इस प्रकार तीनों त्रिक मिला कर जलचरों के ९ सूत्र होते हैं । इसी प्रकार स्थलचर चतुष्पद, उरः परिसर्प, भुजपरिसर्प, खेचरपंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों के प्रत्येक के औधिकत्रिक, गर्भजत्रिक एवं सम्मूच्छिमत्रिक के हिसाब से ९ - ९ सूत्र होते. है ।
मनूष्यों के औदारिकशरीर की उत्कृष्ट अवगाहना - तीन गव्यूति ( ६ कोस) की कही गई हैं, वह देवकुरू आदि के मनुष्यों की अपेक्षा से इतनी उत्कृष्ट अवगाहना समझनी चाहिए ।
वैक्रियशरीर में विधिद्वार
१५१४. वेडव्वियसरीरे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ?
गोमा ! दुविहे पण्णत्ते । तं जहा- एगिंदियवेडव्वियसरीरें य पंचेंदियवेडव्वियसरीरे य ।
[१५१४ प्र.] भगवन् ! वैक्रियशरीर कितने प्रकार का कहा गया है ?
(उ.) गौतम ! ( वह) दो प्रकार का कहा गया है, वह इस प्रकार - एकेन्द्रिय-वैक्रियशरीर और पंचेन्द्रिय- वैक्रियशरीर ।
१५१५. [ १ ] जदि एगिंदियवेडव्वियसरीरे किं वाउक्काइयएगिंदियवेडव्वियसरीरे अवाउक्का
१. पण्णवणासुत्तं (मूलपाठ - टिप्पण) भाग-१, पृ. ३३३ से ३३५ तक
२.
प्रज्ञापना., मलयवृत्ति, पत्र ४१३
३. प्रज्ञापतना., मलयवृत्ति, पत्र ४१३- ४१४
वही, मलयवृत्ति, पत्र ४१४
४.