________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. २ अनुकूलोपसर्गनिरूपणम् ७५ यत् हे महर्षे ! इस्त्यश्वादावुपविश्य क्रीडनार्थ वाटिकां गच्छ, सर्वत उत्तपं भोगं स्वीकुरु । अनेनोपायेन भवन्तं वयं पूजयाम इति भावः ॥१६॥
पुनरप्पाह--'वस्थे' त्यादि। मूलम्-वस्थगंधमलंकारं इत्थाओ सयणाणि य ।
भुंजाहिमाइं भोगाइं आउसो पूजयामु तं ॥१७॥ छाया--वस्त्रगंधमलं कारं त्रियः शयनानि च ।
___ मुंश्वेमान् भोगानायुष्मन् ! पूजयामस्त्वाम् ॥१७॥ अन्वयार्थः--(आउसो) हे आयुष्मन् ! (वस्थगंधमलंकारं) वस्त्रगंधमलंकारम्
आशय यह हैं कि-पूर्वोक्त चक्रवर्ती राजा आदि साधु के समीप पहुंचकर इस प्रकार कहते हैं-हे महर्षे ! हाथी घोडा आदि पर सबार होकर क्रीडा करने के हेतु वाटिका में पधारिए । उत्तमोत्तम भोगों को स्वीकार कीजिए । इस उपाय से हम आप की पूजा करते हैं ॥१६॥
पुनः कहते हैं-'वस्थ' इत्यादि ।
शब्दार्थ--'आउसो-आयुष्मन्' हे आयुष्मन् 'वत्थं-वस्त्रम्' उत्तम वस्त्र 'गंध-गन्धम्' गन्ध और 'अलंकार-अलङ्कारम्' अलंकार आभूषण 'इथिओ-स्त्रिया' स्त्रियां 'य-च' और 'सयणाणि-शयनानि' शय्या आसन उपवेशन-बैठने के योग्य वस्तु 'इमाई भोगाई-इमान् भोगान्' इन्द्रिय और मन के अनुकूल इन भोगों को 'भुज-भुक्ष्य' आप भोगे 'तं-स्वाम् आप को 'पूजयामु-पूजयामः' पूजा करते हैं ॥१७॥ ___ अन्वयार्थ-आयुष्मन् ! वस्त्र, गंध, आभूषण, स्त्री शय्या और કરીને રાજા, રાજમંત્રી, આદિ પૂર્વોકત લેકે સાધુને સંયમના માર્ગેથી ચલાયમાન કરીને ભેગે પ્રત્યે આસકત કરે છે, ગાથા ૧દા
'वत्थ' त्याह
शा-'आउसो-आयुष्मन्' मायु मन् 'वत्थं-वस्त्रम्' उत्तम पर गंध -गन्यम्' ग भने 'अलंकारं-अलङ्कारम्' म २-माभूषय 'इथिओ-स्त्रियः' लियो य-च' मने 'सयणाणि - शयनानि' शया मर्थात् पथारी मासन 6५. वेशन अर्थात् साना याय १२तु 'इमाई भोगाई-इमान् भोगान्' धन्द्रिय भने भनन भनु मालागाने 'भुंज-मुंव' मा५ लोगो 'तं-त्वाम्' सापनी 'पुजयामु-पुजयामः' भी पू री छीओ. ॥१७॥ .
For Private And Personal Use Only