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सूत्रकृतास्त्रे मूलम्-'पुच्छिस्सु णं समणो माहणां य,
अगारिणो यो परतित्थिया ये । से केइ णेगं तहियं धम्ममाहुँ,
___अंणेलिसं सौहु समिक्खयाए' ॥१॥ छाया-अपाक्षुः खलु श्रमणा ब्रह्मगाश्च, अगारिणो ये परतीथिकाश्च ।
स क एकान्तहितं धर्ममाह, अनीदृशं साधुसमीक्षया ।।१।। अन्वयार्थ -(समणा) श्रमणा यतयः (य) च पुनः (माहणा) ब्राह्मणाः (य) च पुनः (अगारिणो) अगारिणः क्षत्रियादयः, ये (परतिस्थिया य) परतीथिकाश्च शाक्यादयः (पुग्छिस्सु) अप्राक्षुः पृष्टवन्तः (से केद) सः कः (णेगंतहिय) एकान्त
शब्दार्थ-समणा-श्रमणाः। श्रमण 'य माहणा-च ब्राह्मणाः 'य-च' और 'अगारिणो-अगारिणः । क्षत्रिय आदि 'परतिस्थिया य-परतीर्थिकाश्च' और परतीर्थिक शाक्यादिने 'पुच्छिस्सु-अप्राक्षुः। पूछा कि 'से केह-सः कः' वह कौन है ? जिसने 'णेगंतहियं-एकान्तहितम्' केवल हित रूप 'अणेलिसं-अनीदृशम्' अनुपम 'धम्म-धर्म' धर्म 'साहुसमिक्खयाए -साधुसमीक्षया' सम्यक् प्रकार से विचार कर 'आहु-आह' कहा है ॥१॥ ____ अन्वयार्थ-श्रमणों, ब्राह्मणों, गृहस्थों और शाक्य आदि परती. थिकों ने पूछा कि वह कौन है जिसने एकान्त हितकर और अनुपम धर्म को जो दुर्गति में गिरते हुए जीवों को धारण करता है-बचाता है और शुभ स्थान में धारण कराता अर्थात् पहुँचाता है-सम्यक् प्रकार से जान
शमय-समण-श्रमणाः' श्रम 'य माहणा-च ब्रह्मणाः' मन माझा 'य-च' भने 'अगारिणो-अगारिणः' क्षत्रिय वगेरे ‘परतित्थिया य-परतीथिकाश्च' भने ५२तीय वि३ 'पुच्छिस्सु-अप्राक्षुः' ५७यु से केइ-सः क. ते है छे ? २0 ‘णेगंतहिय-एकान्तहितम्' पण ति३५ 'अणेलिसं-अनीशम्' अनुपम 'धम्म-धर्मम्' म 'साहु समीक्खयाए-साधु समीक्षया' सभ्यः प्रहारथी वियारीने 'आहु-आह' हे छे. ॥१॥
અન્વયાર્થ–પ્રમાણે, બ્રાહ્મણ, ગૃહ અને શાક્ય આદિ પરતીર્થિકોએ સુધર્મા સ્વામીને આ પ્રકારને પ્રશ્ન પૂછયે-દુર્ગતિમાં પડતાં જીવોને બચાધીને શુભસ્થાનમાં પહોંચાડનાર, એકાન્ત હિતકર અને અનુપમ ધર્મને સમ્યક પ્રકારે જાણીને તેની પ્રરૂપણ કરનાર તીર્થકર મહાવીર પ્રભુ કેવાં હતા?”
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