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सैमयार्थबोधिनी टीका प्र.शु. अ. ७ उ.१ कुशीलवतां दोषनिरूपणम् ६९५ मूलम्-मच्छा य कुम्मायसरीसिवाय मग्गू य उद्या दग रक्खासीया
अहाणमेयं कुसला वैयंति उदगेणंजेसिद्धि मुदाहरंति।१५॥ छाया-मत्स्याच कूर्माश्च सरीसृपाश्च मद्वश्वोष्ट्रा उदकराक्षसाश्च । ....
____ अस्थानमेतत्कुशला वदन्ति उदकेन ये सिदि मुदाहरन्ति ॥१५॥ अन्वयार्थः- (मच्छा य कुम्मा य सरी सिवा य) मत्स्याश्च कूर्माश्च सरीसृपाथ -जलसाः गोधादयश्च (मग्गू य उठा दगरक वसा य) मद्गवः जलकाका 'मच्छा य कुम्मा य' इत्यादि।
शब्दार्थ-'मच्छा य कुम्मा य सरीसिवा य-मत्स्या श्च कूर्मास सरीसृपाश्च' मत्स्य, कच्छप और सरीसृप 'मग्गू य उट्ठा दगरक्खसाय-- मदवः उष्ट्रा! उदकराक्षसाश्च' मद्गु नामके काक की आकृतिवाला जलचर, ऊंट के आकारका जलचर विशेष एवं जलराक्षस जो जल के स्पर्श से मुक्ति होती हो तो ये सब मुक्ति गामी हो जाते 'जे उदगेणये उदकेन' अतः जो उदकसे अर्थात् जलके स्पर्शादि से 'सिद्धिमुदा हरंति-सिद्धिं उदाहरति' मुक्ति की प्राप्ति बताते हैं 'अट्ठाणमेयं-एतत् अस्थानम्' उनका कथन अयोग्य है ऐसा 'कुसला वयंति-कुशला वदन्ति' मोक्षका तत्व जानने वाले पुरुष कहते हैं ॥१५॥
अन्वयार्थ--मत्स्य, कूर्म, जलसर्प भोगा, जलमृग, उष्ट्र, उदकराक्षस (जलमानव की अकृति के जलचा) आदि सभी जलचर मुक्त हो जाते
'मच्छा य कुम्माय' इत्यादि
श14-'मच्छा य कुम्मा य सरीसिवा य-मत्स्याश्च कूर्माश्च सरीसृपाध' - मत्स्य, २७५-४२१मन सरीसृ५-स। 'मन्गू य उद्या दगरक्खसाय-मद्वः उष्ट्राः उद्राक्षमाश्च' भशु मर्थात् घोडानी मातिवाणु य२ प्रारी, ઊંટના આકારનું જલયર પ્રાણી, તથા જલરાક્ષસ જે પાણીના સ્પર્શથી મુક્તિ थती य तो A मा भुतगामी १६ त 'जे उदगेण-ये उदकेन' अत:
मा ४थी मात् पाणी मालिका 'सिद्धिमुदाहरंति-सिद्धिम् उदाहरति' भुस्तिनी मालित मताव छे. 'अट्ठाणमेयं-एतत् अस्थानम्' तेयानु ४थन गये. श्य छ. मे प्रमाणे 'कुसला वयंति-कुशला वदन्ति' भाक्षना तत्पने तापामा પુરૂષે કહે છે. તે ૧૫ છે
સૂત્રાર્થ જે જળના પર્શી મુક્તિ મળતી હત, તે માછલાં, કાચબા, જલસર્પ, જળઘોડા, જલમૃગ, જળઊંટ, જળર ક્ષસ આદિ સધળાં
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