Book Title: Sutrakritanga Sutram Part 02
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Jain Shastroddhar Samiti

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Page 688
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे मास्ते स्व स्वस्थानं स्वायुषः क्षयेऽवश्यं त्यक्ष्यन्ति । तथा-योऽव्ययं मोहाधायको बन्धुवान्धव सह संगासो मन्येऽनित्य एव सोऽपीति विभावनीयो बुद्धिमताऽनित्ये मति न विधेया कदापि, अपि तु मोक्षार्थमेव प्रयत्नो विधेय इति भावः ॥१२।। मूलम्-एवमादाय मेहावी अप्पणो गिर्द्धि मुद्धरे। आरियं उवसंपजे संवधम्म मकोवियं ॥१३॥ छाया--एवमादाय मेधावी आत्मनो गृद्धि मुद्धरेत् । __ आर्यमुपसंपधेत सर्वधर्मेरकोपितम् ।।१३॥ क्षय होने पर अवश्य हो उस स्थान का परित्याग करते हैं । इसके अतिरिक्त बन्धु बान्धवों के साथ जो संवास है, वह भी सदा बना रहने वाला नहीं-उसे भी किसी समय त्यागना ही पड़ता है । । ऐसा विचार कर वुिमान् पुरुष अनित्य पदार्थों में अपनी बुद्धि न लगावे, परन्तु मोक्ष के लिए ही प्रयत्न करे ॥१२॥ 'एवमादाय मेहावी' इत्यादि । शब्दार्थ-'मेहावी-मेधावी' बुद्धिमान् पुरुष एवमादाय-एपमादाय' सब स्थान अनित्य है ऐसा विचार करके 'अप्पमो मिद्धि मुद्धरे-आत्मनः गृद्धिम् उद्धरेत् अपनो मानव बुद्धि को इटाई 'सवयम्भमकोवियं-सर्व धर्मेरकोपितम्' सय कुनीकि धर्मों से दूषित नहीं किये हुए 'आरियं उपसंपज्जे-आर्यम् उपसंपद्येत' इस आर्य धर्म को ग्रहण करे ॥१३॥ તે સ્થાનને ત્યાગ કરે જ પડે છે. તે સિવાય બંધુજન કે જ્ઞાતિજન સાથે સંવાસ છે, તે પણ સદાકાળ બળે રહેતું નથી. તેને પણ કોઈ સમયે ત્યાગ કરવું જ પડે છે. આ પ્રમાણેનો વિચાર કરીને બુદ્ધિશાળી પુરૂષે અનિત્ય પદાર્થોમાં પિતાની બુદ્ધિ જોડવી ન જોઈએ. પરંતુ મેક્ષ માટે જ પ્રયત્ન કરતા રહે ૧રા 'एवमादाय मेहावी' त्यादि शा---'मेहावी-मेधावी' युद्धिमान ५३५ 'एवमादाय- (वमादाय' ५५॥ स्थान मनिय छ तेम विया२ रीने 'अपणो मिद्धिमुद्धरे-आत्मनः गृद्धिम् उद्धरेत्' पोतानी भयमुद्धिने टीवी है 'सव्वधम्ममकोवियं-सव धमैरको. पितम्' मध.४ मुनाथि यथा इपित नही ४२वा 'आरियं उनसंपज्जेआर्यम् उपसंपद्येत' मा माय माना थी२ ४२ ॥१३॥ For Private And Personal Use Only

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