Book Title: Sutrakritanga Sutram Part 02 Author(s): Kanhaiyalal Maharaj Publisher: Jain Shastroddhar Samiti Catalog link: https://jainqq.org/explore/020779/1 JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLYPage #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir I TTER जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री-घासीलालजी-महाराजविरचितया समयार्थबोधिन्याख्यया व्याख्यया समलङ्कतं हिन्दी-गुर्जर-भाषाऽनुवादसहितम् ॥ श्री-सूत्रकृताङ्गसूत्रम् ॥ H SHREE SUTRAKRUTĀNG SUTRAM (द्वितीयो भागः) PIGGEEEEEEEEEEEEEEE नियोजकः संस्कृत-प्राकृतज्ञ जैनागमनिष्णात-प्रियव्याख्यानिपण्डितमुनि-श्रीकन्हैयालालजी महाराजः प्रकाशका पालणपुरनिवासो महेता सूरजमल भाईचंदभाईना (मद्रास) धर्मपत्नी जासुदवाईना स्मरणार्थ तत्पदत्त-द्रव्यसाहाय्येन भ० भा० ० स्था० नशास्त्रोदारसमितिपमुखः श्रेष्ठि-धौशान्तिलाल-मङ्गलदासभाई-महोदयः ० राजकोट खवीखन् । प्रथमा आवृत्तिः बीर-संवत् विक्रम संवत् प्रति १५०० मूल्यम्-२० २५-०० DOBONEDD0BOMRDROBIOODIE For Private And Personal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री-घासीलालजी-महाराज. विरचितया समयार्थबोधिन्याख्यया व्याख्यया समलङ्कृत हिन्दी-गुर्जर-भाषाऽनुवादसहितम् ॥श्रीसत्रकृताङ्गसूत्रम्॥ SHREE SUTRAKRUTĀNG SUTRAM (द्वितीयो भागः) नियोजकः YYYYYYYYYYYYYYYYYYYYY संस्कृत-प्राकृतज्ञ-जैनागमनिष्णात-प्रियव्याख्यानि पण्डितमुनि-श्रीकन्हैयालालजी-महाराजः प्रकाशकः ___ पालणपुरनिवासी महेता सूरजमलभाई भाईचंदभाईना (मद्रास) धर्मपत्नी जासुबाईना स्मरणार्थे तस्प्रदत्त-द्रव्यसाहाय्येन अ. भा० श्वे० स्था. जैनशास्त्रोद्धारसमितिप्रमुखः श्रेष्ठि-श्रीशान्तिलाल-मङ्गलदासभाई-महोदयः मु० राजकोट प्रथमा-आवृत्तिः धीर-संवत् विक्रम संवत् ईसवीसन् प्रति १२०० २४९ २०२६ १९६९ मूल्यम्-रू० २५-०-० For Private And Personal Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir મળવાનું ઠેકાણું : श्री म. . ३. स्थानवासी જૈનશાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ, है. गठिया था ।3, २०४८, ( सौराष्ट्र ). Published by : Shri Akhil Bharat s. S. Jain Shastroddhara Samiti, Garedia Kuva Road, RAJKOT, (Saurashtra), W. Ry, India. ये नाम केचिदिह नः प्रथयन्त्यवज्ञां, जानन्ति ते किमपि तान् पति नैष यत्नः । उत्पत्स्यतेऽस्ति मम कोऽपि समानधर्मा, कालो ह्ययं निरवधिविपुला च पृथ्वी ॥ १ ॥ हरिगीतच्छन्दः करते अवज्ञा जो हमारी यत्न ना उनके लिये । जो जानते हैं तत्व कुछ फिर यत्न ना उनके लिये ॥ जनमेगा मुझसा व्यक्ति कोई तत्त्व इससे पायगा । है काल निरवधि विपुलपृथ्वी ध्यान में यह लायगा ॥१॥ भूयः ३. २५00 પ્રથમ આવૃત્તિ પ્રત ૧૨૦૦ વીર સંવત્ ૨૪૬ વિક્રમ સંવત ૨૦૨૬ ઇસવીસન ૧૯૬૯ मुद्र: મણિલાલ છગનલાલ શાહ નવપ્રભાત પ્રિન્ટીંગ પ્રેસ, घाट। , ममहावाह. For Private And Personal Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ९-१२ सूत्रकृताङ्गसूत्र भा. दूसरे की विषयानुक्रमणिका अनुक्रमाङ्क विषय तीसरा अध्ययन का पहला उद्देशा १ साधुको परीषह और उपसर्ग को सहन करनेका उपदेश २ संयम का रूक्षत्व का निरूपण ३ भिक्षापरीषह का निरूपण ४ वधपरीषह का निरूपण १७-२६ ५ दंशमशकादि परीषदों का निरूपण २७-२८ ६ केशलंबन के असहत्व का निरूपण २९-३१ ७ परतीथिकों का पीडित करनेका निरूपण ३१-३७ ८ अध्ययन का उपसंहार ३७-३९ तीसरे अध्ययन का दूसरा उद्देशा ९ अनुकूल उपसर्गों का निरूपण ४०-८७ तीसरे अध्ययन का तीसरा उद्देशा १० उपसर्गजन्य तपासंयम विराधना का निरूपण ८८-१०६ ११ अन्यतीर्थिकों के द्वारा कहे जानेवाले आक्षेपवचनों का निरूपण १०७-१११ १२ अन्यतीर्थिकों के द्वारा किये गये आक्षेप वचनों का उत्तर १११-१२५ १३ बाद में पराजित हुए अन्यतीथिकों की धृष्टता का प्रतिपादन १२५-१३० १४ वादिके साथ शास्त्रार्थ में समभाव रखने का उपदेश १३१-१३७ तीसरे अध्ययन का चतुर्थ उद्देशा १५ मार्ग.से स्खलित हुए साधु को उपदेश १३८-१९९ For Private And Personal Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra १६ १८ स्त्री परीषह का निरूपण दूसरा उद्देशा १७ स्खलित साधु के कर्मबन्ध का निरूपण १९ २० www.kobatirth.org ૧ चोथा अध्ययन का पहला उद्देशा ४ पांचवा अध्ययन का पहला उद्देशा दना का निरूपण पांचवा अध्ययन का दूसरा उद्देशा नारकीय वेदना का निरूपण छट्ठा अध्ययन महावीर भगवान के गुणों का वर्णन सातवां अध्ययन २१ कुशीलवालों के दोषों का कथन आठवां अध्ययन वीय के स्वरूप का निरूपण समाप्त 25 For Private And Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २००-२७७ २७८-३२६ ३२७-३९० ३९१-४५२ ४५३-५४७ ५४८-६४३ ६४४-७१४ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org * સદ્ગત શ્રીમતી જાસુદખાઇની જીવન ઝરમર Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ઉત્તમ તેમજ પ્રબળ ધાર્મિક ભાવના સાથે ધર્મીના સમસ્ત કાર્યોમાં પ્રવૃત્ત રહેનાર, દરેકે દરેક વ્યક્તિ પ્રત્યે સરળ સ્નેહ તેમજ સમસહિષ્ણુતા દર્શાવનાર, જીવનના પ્રત્યેક ક્ષણમાં પરહિતરત રહેનાર, * સંયુક્તકુટુંબમાં અતીવ ધૈર્ય તેમજ સદ્ભાવપૂર્વક ઉષ્માભર્યું જીવન જીવનાર, * ઘરના સૌ સાથે તેમજ સમાગત અતિથિઓ સાથે અતીવ માયાળુપણે વનાર, * કષાયના સમસ્ત પ્રસંગો પોતે ભૂલવા તેમજ અન્ય વ્યક્તિને તે પ્રસંગો ભૂલી જવા માટે પ્રેરણા આપનાર, માજોાખને તિલાંજલિ આપીને જીવનમાં સદા સાદગીને વરનાર, કાઈને ય પણ સંતપ્તજનાને સદા દિલાસા આપનાર. અસમાધિ થાય તેવું કદાપિ આચરણ ન કરનાર તેમજ ૧૯૯% ૯ ૯ ૯ For Private And Personal Use Only ૩૭ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir VALALALALALALALZEXAAAALAALANY પાલણપુર નિવાસી સદગત શ્રીમતી જાસુદબાઈ સુ. મહેતાના , " e are ' a 'સાદ' મરણાર્થે - દેહત્યાગ ૨૭–૫–૧૯૬૭ ૨૯-૧-૧૯૦૯ ಇತರರಿದಾರಾರೆಆಆಆಆಾಾಆಾಾಆಾಾಆಾರೆರಾಆಆಾಾಆಆಾರಿಸಿ ૭૨૭૭૭૪૭૭૭૭૯૪૭૭૭૭ ૭૪૭૭૭૭૭૭ ક. એક સુરજમલ ભાઈચંદ મહેતા તથા કુટુંબીઓ તરસ્થી ૭૭૭૭૭૭૭૭૭૭૭૭૭૭૭ For Private And Personal Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra શ્રી શાંતિલાલ મગળદાસભાઈ અમદાવાદ. આધમુરખ્ખીશ્રીઆ www.kobatirth.org શેઠશ્રી રામજીભાઈ શામજીભાઈ વીરાણી–રાજકાટ. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (સ્વ.) શેઠશ્રી શામજીભાઇ વેલજીભાઇ વીરાણી–રાજકાટ (સ્વ.) શેઠશ્રી છગનલાલ શામળદાસ ભાવસાર અમદાવાદ. વચ્ચે બેઠેલા લાલાજી કિશનચંદ્રજી સા. જૌહરી ઉભેલા સુપુત્ર ચિ. મહેતામચન્દ્રજી સા નાના – અનિલકુમાર જૈન ( દાયત્તા ) – For Private And Personal Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org આદ્યમુરબ્બીશ્રીએ (સ્વ.) શેઠશ્રી હરખચંદ કાલીદાસ વારિ ભાણવડ. (સ્વ.) શેઠશ્રી દિનેશભાઇ કાંતિલાલ શાહુ અમદાવાદ. શેઠશ્રી જેસિંગભાઈ પાચાલાલભાઇ અમદાવાદ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (સ્વ.) શેઠ રગજીભાઈ માહનલાલ શાહ અમદાવાદ. For Private And Personal Use Only શ્રી વિનેાદકુમાર વીરાણી સ્વ. શેઠશ્રી આત્મારામ માણેકલાલ અમદાવાદ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir આમુરબ્બીશ્રીઓ શ્રી વૃજલાલ દુલભજી પારેખ રાજકોટ, કોઠારી હરગોવિંદ્ર જેચંદભાઈ રાજકોટ, શિઠશ્રી મિશ્રીલાલજી લાલચંદજી સા, લુણિયા તથા શેઠશ્રી જેવતરાજજી લાલચંદજી સા. (સ્વ.) શેઠશ્રી ધારશીભાઈ જીવણલાલ મારસી .. સ્વ. શ્રીમાન શેઠશ્રી મુકનચંદજી સા. માલિયા પાલી મારવાહ For Private And Personal Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir આધમુરબ્બીશ્રીઓ પટેલ ડોસાભાઈ ગોપાલદાસ મું. સાણદ (જી. અમદાવાદ) ૧ અમીચંદભાઈ થા ૨ ગીરધરભાઈ ખાંટવિયા शाहाजी श्री मोडीलालजी गलुन्डिया સ્વર્ગસ્થ ન્યાયમૂતિ રતીલાલભાઈ ભાયચંદભાઈ મહેતા श्रीमान शेठ सा. श्री कानुगा धिंगडमलजी साब For Private And Personal Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir આઘમુરબ્બીશ્રીઓ સ્વ. શેઠશ્રી હરિલાલ અનોપચંદ શાહ ખંભાત, સ્વ. શેઠ તારાની સાવ ગેસ્ટSI मद्रास. श्रीमान् शेठ सा. चीमनलालजी सा. ऋषभचंदजी सा. अजीतवाले (सपरिवार) વચ્ચે બેઠેલા મોટાભાઇ શ્રીમાનું મૂલચંદજી - જવાહરલાલજી બરડિયા ૨ બાજુમાં બેઠેલા ભાઈ મિશ્રીલાલજી બરડિયા ઉભેલા સૌથી નાનાભાઈ પૂનમચંદ બરહિયા श्रीमान् सेठश्री खीमराजजी सा. चोरडिया For Private And Personal Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥श्री वीतरागाय नमः॥ श्री जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री घासीलालबतिविरचितया समयार्थप्रबोधिन्याख्यया व्याख्यया समलङ्कृतम् ॥श्री-सूत्रकृताङ्गसूत्रम् ॥ (द्वितीयो भागः) ॥ अथ तृतीयमध्ययनम् ।। व्याख्यातं द्वितीयाध्ययनम् , सम्पति क्रमप्राप्तं तृतीयमध्ययनं प्रारभते, द्वितीयाध्ययने स्वसमयपरसमययोनिरूपणमभिहितम् । तथापि परसमयस्य दोषा उक्ताः, स्वसमयस्य गुणाश्च । प्रतिबुद्धपुरुषस्य संयमोत्थानेनोस्थितस्य कदाचिदनुकूलपतिकूलोपसर्गाः मादुर्भवेयुः । ते सोडव्या इति तृतीयाध्ययने कथ्यते । तस्येदमादिमं सूत्रम्-'सूरं मण्णइ' इत्यादि । मूलम्-सूरं मण्णइ अपाणं जाव जेयं न पस्सइं। जुझंतं दधम्माणं सिसुपालोव्व महारहं ॥१॥ छाया--शूरं मन्यत आत्मानं यावज्जेतारं न पश्यति । युद्ध यमानं दृढधर्माणं शिशुपाल इव महारथम् ॥१॥ तीसरे अध्ययन का प्रारंभद्वितीय अध्ययन की व्याख्या की जा चुकी । अब अनुक्रम से प्राप्त तृतीय अध्ययन आरंभ किया जाता है। द्वितीय अध्ययन में स्वसमय और परसमय का निरूपण किया है, और उसमें भी परसमय के दोष तथा स्वसमय के गुणों का कथन किया गया है। तीसरे अध्ययन में यह निरूपण करते हैं कि बोध सम्पन्न और संयम में परायण मुनि को कदा. चित् अनुकूल या प्रतिकूल उपसर्गों की प्राप्ति हो तो उन्हें समभाव पूर्वक ત્રીજા અધ્યયનને પ્રારંભ બીજા અધ્યયનનું વિવેચન પૂરું થયું હવે ત્રીજા અધ્યયનની શરૂઆત થાય છે. બીજા અધ્યયનમાં સ્વસમય અને પરસમયનું નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું છે અને તેમાં સ્વાસમયના ગુણે અને પરસમયના દોષ પ્રકટ કરવામાં આવ્યા છે. હવે આ ત્રીજા અધ્યયનમાં એ વાત પ્રકટ કરવામાં આવે છે કે બેધસંપન્ન અને સંયમમાં પરાયણ મુનિને ક્યારેક અનુકૂળ અને પ્રતિકૂળ ઉપસર્ગોની પ્રાપ્તિ For Private And Personal Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे अन्वयार्थः -- (जाव) यावत् (जेयं) जेतारं पुरुषं ( न परसइ) न पश्यति तावत्पर्यन्तं कातरोपि (अप्पा) आत्मानं स्वात्मानम् (रं) शूरं संग्रामवीरं ( मन ) मन्यते (जुज्झतं ) युध्यमानम् संग्रामं कुर्वन्तम् (महार) महारथं ( दढधम्मा) धर्माणं नारायणं कृष्णम् (सिसुपालोव्ब) शिशुपाल इव= यथा कृष्णं युध्यमानं दृष्ट्रा शिशुपालः क्षोभमाप्तवानित्यर्थः ॥ १ ॥ सहन करना चाहिए। तीसरे अध्ययन का प्रथम सूत्र यह है-'सूरं मण्णइ अप्पा' इत्यादि । शब्दार्थ - 'जाव - यावत् ' जबतक 'जेयं जेतारम् ' विजयी पुरुष को न परसह न पश्यति' नहीं देखता है तबतक कायर पुरुष 'अप्पाणंआत्मानम् ' अपने को 'सूरं शूरम् ' शूरवीर ' मन्नइ' - मन्यते' मानता है 'जुज्झतं युध्यमानम् ' युद्ध करते हुए 'महार हं- महारथम् महारथी 'दढ धम्माण' - दृढ धर्माणम्' दृढ धर्म वाले-कृष्ण को देखकर 'सिसुपा लोव्व- शिशुपालहव' शिशुपाल जैसे क्षोभ को प्राप्तहुआ था वैसे क्षोभ को प्राप्त होते हैं ॥ १ ॥ अन्वयार्थ - जब तक विजेता पुरुष को नहीं देखता तब तक कायर भी अपने आप को संग्राम शूर मानता है । संग्राम करते हुए महारथी और दृढधर्मा नारोपण (कृष्ण) को देखकर जैसे (पहले गर्जना करनेवाला) शिशुपाल क्षोभ को प्राप्त हुआ || १|| થાય છે. તે ઉપસગે તેણે સમભાવપૂર્ણાંક સહન કરવા જોઇએ, ત્રીજા અધ્યયનનું पहेलु' सूत्र मा प्रमाणे छे. - 'सूरं मण्णइ अप्पार्ण' छत्याहि शब्दार्थ –'जाव - यावत्' नयां सुधी 'जेय - जेतारम्' विभ्यी यु३षने 'न परखइ न पश्यति' लेतेो नथी त्यां सुधी डायर ३५ 'अप्पाणं- आत्मानम् ' पोताने 'सूरं शूरम् ' शूरवीर 'मन्नइ - मन्यते' माने छे. 'जुज्झतं अश्तां 'महारहं - महारथम् ' महारथी 'दढधम्माणं दृढधर्माणम्' हृष्यने लेने 'सिसुपालोव - शिशुपालइव' शिशुपास प्रेम क्षेोभने आप्त थथेो हतो ते क्षोभने प्राप्त थाय छे. ॥ ॥ युध्यमानम्' युद्ध દઢધમ વાળા સૂત્રા—જ્યાં સુધી વિજેતા પુરુષને ભેટો ન થાય, ત્યાં સુધી કાયર પણ પેાતાને સગ્રામશ્ર માને છે. જેવી રીતે સમરાંગણુમાં વીરતાપૂર્ણાંક લડતા મહારથી અને દૃઢધાં નારાયણ (કૃષ્ણ)ને જોઈને (પહેલાં ગુના કરનાર) શિશુપાલ ક્ષુબ્ધ થઈ ગયેા હતેા, (એજ પ્રમાણે ઉપસ અને પરીષહે! આવી પડતાં ઢીલા પોચા માણસા સયમ માર્ગથી વિચલિત થઈ જાય છે) For Private And Personal Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. थु. अ. ३ उ. १ परिषहोपसर्गसहनोपदेशः ३ टीका-'जाव' यावत्-यावत्पर्यन्तम् 'जेयं' जेतारं पति द्वन्द्विनं राजानं 'न पस्सई' न पश्यति प्रतियोद्धारं न पश्यति तारदेव कापुरुषः 'अपाणं' आत्मानम् 'सूरं मण्णई' शूरं मन्यते-न मत्कल्पः परानीके शूरो विद्यते किन्तु शूरोऽहमेव इति मन्यते । यावत् पर्यन्तं समुद्यतायुधं जेतारं युद्धायोपस्थितं पुरतो न पश्यति, तावदेवाऽल्पवीर्यः स्वात्मानं नीर इति मन्यते । तावदेव गजः प्रमृतमदः अकालघनाम्बुदवघोरगजेनं करोति यावत् नखलांगूलमात्रायुधं घटाघटासमन्वितं कंपितकेशरकेशरिणं शब्दायमानं न पश्यति । तदुक्तम् 'तावद्गजः प्रस्तुतदानगण्ड: करोत्यकालाम्बुदगजितानि । यावन्न सिंहस्य गुहास्थलीषु लांगुलविस्फोटरवं शृणोति ॥१॥ टीकार्थ-जप तक विजेता विरोधी राजा को अर्थात् प्रतियोद्धा को नहीं देखता है, तब तक कायर पुरुष भी अपने को शूरवीर समझता है। वह ऐसा मानता है कि शत्रु की सेना में मेरे जैसा कोई धीर नहीं है, एक मात्र में ही वीर हूँ । अर्थात् जब तक शस्त्र ऊँचा उठाये हुए और युद्ध के लिए सामने आये हुए विजेता पुरुष को सन्मुख नहीं देखता है, तभी तक अल्पवीर्य अपने आपको वीर मानता है । मदोन्मत्त हाथी तभी तक वेमौसिम के सघन बादलों के समान घोर गर्जना करता है जब तक नाखून और पूछ मात्र आयुध वाले, सघन अयाल से युक्त केसर को कपाने वाले एवं दहाडते हुए केसरी को नहीं देखता है। कहा भी है-'तावद्गजः प्रस्तुतदानगण्डः' इत्यादि ટીકાઈ– જ્યાં સુધી પ્રતિસ્પધી સાથે લડવાનો પ્રસંગ ન આવે, ત્યાં સુધી કાયર પુરુષ પણ પિતાની જાતને શુરવીર માને છે તે એવું માને છે કે શત્રુની સેનામાં મારા જે પરાક્રમી કેઈ નથી. જ્યાં સુધી તેને સામનો કરવાને માટે કઈ શસ્ત્રસજજ વિજેતા પુરુષ તેની સામે શસ્ત્ર ઉઠાવીને ખડો થતો નથી, ત્યાં સુધી તે અ૯૫વીર્ય પુરુષ પિતાને વીર માને છે. મન્મત્ત હાથી કમોસમી સઘન વાદળાંઓની જેમ ત્યાં સુધી જ ઘેર ગર્જના કરે છે કે જ્યાં સુધી માત્ર નહોર અને પૂંછડી રૂ૫ શસ્ત્રોવાળે, સઘન કેશવાળીથી યુક્ત, કેસરોને કંપાવતે અને ગર્જના કરતા સિંહ તેની સામે ઉપસ્થિત થતો નથી. સિંહને જોતાં જ ते महोन्मत्त हाथी ली धूछो नासी onय छे ४ऱ्या ५५ छ -'तावद्गजः प्रस्तुतदानगण्डः' त्या तुं १५ भ६ ४२पाने ॥२ लातुं ४ For Private And Personal Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे दृष्टान्तद्वारा यादृशोऽर्थः सरलतयाऽवगतो भवति, तत्तथा न दृष्टान्ताऽभावे । अत इह स्वसमयप्रसिद्ध कृष्णशिशुपालयोधान्तं प्रदर्शयति 'जुज्झंति' इत्यादि । 'जुझत' युद्धद्यमानम्-युद्धं कुर्वन्तम् 'दढधम्माणं' दृढधर्माणं-दृढः धर्मः पराक्रमो यस्य स दृढधर्मा, तं दृढ़धर्माणाम् । 'महारई' महारथं-महान् रथो यस्य म महारथः-तम् , कृष्णं दृष्ट्वा 'शिशुपालोव्य' शिशुपाल इव-यथा माद्रीसुतः शिशुपालः कृष्णस्य दर्शनात्माक् स्वात्मपशंशामधानकं गर्जन कृतवान्, किन्तु पश्चात् युद्धाय पुरः स्थितं कृष्णवासुदेवं दृष्ट्वा क्षोभं प्राप्तः । कृष्णशिशुपालयोः कथा चरित्रग्रन्थात् अवगन्तव्येति भावः ॥१॥ ___जिसके गण्डस्थल मद भरने से गीले हो रहे हैं ऐसा हाथी तभी तक अकाल मेघों के सदृश गर्जनाएँ करता है, जब तक गुफा में होनेवाली सिंह की पूछ की फटकार की ध्वनि नहीं सुनता है। ___दृष्टान्त से आशय जैसे सरलता से प्रतीत होता हैं, वैसे दृष्टान्त के विना नहीं प्रतीत होता है । अतएव यहाँ स्वसमय में प्रसिद्ध कृष्ण और शिशुपाल का दृष्टान्त प्रदर्शित करते हैं । युद्ध करते हुए, दृढ पराक्रम वाले और महान् रथ वाले कृष्ण को देख कर जैसे माद्रीपुत्र शिशुपाल क्षोभ को प्राप्त हुआ। उसने कृष्ण को देखने से पहले तो खूब अपनी प्रशंसापूर्ण गर्जना की, परन्तु बाद में जब युद्ध के लिए सन्मुख उपस्थित कृष्ण वासुदेव को देखा तो घबरा उठा! कृष्ण और शिशुपाल की कथा चरितग्रन्थों से जान लेना चाहिए ॥१॥ ગયું છે એ હાથી ત્યાં સુધી જ અકાળ મેઘની સમાન ગર્જનાઓ કરે છે કે જ્યાં સુધી ગુફામાં રહેલા સિંહની પૂછડીના પછડાટને ઇવનિ સંભાળતે નથી. દાનત દ્વારા આશયને જેટલી સરળતાથી સમજી શકાય છે, એટલી સરળતાથી દૃષ્ટાન્ત વિના સમજી શકાતું નથી. તેથી સૂત્રકારે અહીં સ્વસમયમાં (જૈતસિદ્ધાંતમાં પ્રસિદ્ધ એવું કૃષ્ણ અને શિશુપાલનું દષ્ટાંત પ્રકટ કર્યું છે. દઢપરાક્રમી અને મહારથી કૃષ્ણને સમરાંગણમાં યુદ્ધ કરતા જોઈને માદ્રીપુત્ર શિશુપાલ ખૂબ જ ક્ષુબ્ધ થઈ ગયા હતા. જ્યાં સુધી તેણે કૃષ્ણના પરાક્રમને પ્રત્યક્ષ જોયું ન હતું, ત્યાં સુધી તે તે પિતાની વીરતાના બણગાં ફૂંકયા કરતે હતું, પરંતુ પરાક્રમી કૃષ્ણ વાસુદેવને પોતાની સામે સમરાંગણમાં ઉપસ્થિત થયેલ જોઈને તે કેવો ગભરાઈ ગયો હતો ! કૃષ્ણ અને શિશુપાલની કથા ચરિતગ્રંથમાંથી વાંચી લેવી જોઈએ. ૧. For Private And Personal Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. १ परिषहोपसर्गसहनोपदेशः ५ अधुना सर्वजनप्रतीतं दृष्टान्तं प्रदर्शयति सूत्रकार:-'पयाता' इत्यादि । पयाता सूरा रणसीसे संगामम्मि उवट्टिए। माया पुत्तं न जाणाइ जेएण परिविच्छए ॥२॥ छाया-प्रयाताः शूरा रणशीर्षे संग्रामे उपस्थिते। माता पुत्रं न जानाति जेत्रा परिविक्षताः ॥२॥ अन्वयार्थ:-(संगामम्मि) संग्रामे (उबट्ठिए) उपस्थिते प्राप्ते (रणसीसे) रणशी=युद्धाप्रभागे (पयाता) प्रयाताः प्राप्ताः (सूरा) शूराः शूरं मन्यमानाः (माया) माता (पुत्तं न जाणाइ) पुत्रं न जानाति-कटिपदेशतो भ्रश्यन्तं स्तनंध अब सूत्रकार सर्वविदित दृष्टान्त को दिखलाते हैं-'पघाता' इत्यादि। शब्दार्थ-'संगामम्मि-संग्रामे ' युद्ध 'उवहिए'-उपस्थिते ' छिडने पर 'रणसीसे-रणशीर्षे युद्ध के अग्रभाग में 'पयाता-प्रयाताः' गया हुआ 'सूरा'-शूगः' वीराभिमानी पुरुष 'माया-माता' माता 'पुत्तं न जाण'-पुत्रं न जानाति' अपने पुत्र को गोदसे गिरता हुआ नहीं जानती है ऐसे व्यग्रता युक्त युद्र में 'जेएण-जेत्रा' विजेता पुरुष के द्वारा 'परिविच्छए-परिविक्षताः' छेदन भेदन किया हुआ दीन बन जाता है ॥२॥ अन्वयार्थ-संग्राम उपस्थित होने पर युद्ध के अग्रभाग में उपस्थित हुए शूर अर्थात् वीरत्व का अभिमान करने वाले किन्तु वास्तव में कायर पुरुष, जिस भयानक युद्ध में माता अपनी गोदी से गिरते हुये पुत्र को भी नहीं जानती, ऐसे युद्ध में विजेता के द्वारा पराजित कर दिए जाते हैं ॥२॥ वे सूत्र२ सहित दृष्टान्त ८ ४२ छ-'पयाता' त्याल. शहाथ-'संगामम्मि-संग्रामे' युद्ध 'उवदिए-उपस्थिते' या मागे त्यारे रणसिसे-रणशी' युद्धना भागना मामा 'पयाता-प्रयाताः' गये 'सूरा- शूगः' वीर मभिमानी ५३१ 'माया-माता' भाता 'पुत्तं न आणाइ'-पुत्रं न जानाति' પિતાના પુત્રને મેળામાંથી પડતાં જાણતી નથી, એવા વ્યગ્રત યુક્ત યુદ્ધમાં 'जेरण-जेत्रा' वित! ५३५ना द्वा२। 'परिविच्छए-परिविक्षताः न सहन २i દીનતાયુક્ત બની જાય છે. વારા સૂત્રાર્થ–જેવી રીતે યુદ્ધની ભીષણતાને કારણે ગભરાઈ ગયેલી માતાની ગોદમાંથી નીચે સરી પડતા બાળકનું ધ્યાન પણ માતાને રહેતું નથી, એજ પ્રમાણે પિત ના વીરત્વનું અભિમાન કરનાર-કાયર હોવા છતાં પણ પિતાને શૂરવીર માનનાર-પુરુષ સમરાંગણમાં જ્યારે દુશ્મનની સામે ઉપસ્થિત થાય છે ત્યારે જોત જોતામાં શૂરવીર વિજેતા દ્વારા પરાજિત કરાય છે. . For Private And Personal Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे यम् (जेएण) जेना-जयनशीलेन (परिविच्छए) परिविक्षता कातराः युद्धाग्रभागे गच्छन्ति किन्तु भशनके युद्धे प्रारंभे सति रिपुभिः ते कातराः जीयन्ते इति भावः ॥२॥ टीका-'संगामम्मि' संग्रामे 'उबहिए' उपस्थिते सति रणसीसे' रणशीर्षयुद्धाग्रभागे-शत्रुसैन्यसंमुखे ‘पयाता' प्रयाताः उपस्थिताः 'मरा' शूराः पुरुषाः= वीराऽभिमानिनः । युद्धे प्रारब्धे सति वीराभिमानिनः वस्तुतः कातराः पुरुषाः युद्धाने उपस्थिता भवंति । किन्तु साहसविनाशके युद्धे समारब्धे ते कातराः भया. दिना आकुला भवंति, युद्धमेव विशिनष्टि, मायापुत्तमित्यादि । 'माया' माता 'पुत्त' पुत्रं स्वकीयपुत्रमपि स्वकटिमदेशात् पतन्तम् प्रियमपि पुत्रम् 'न जाणाई' न विजानाति एतादृशव्यग्रताजनके घोरे संग्रामे 'जेएण' जेत्रा-विजेत्रा शत्रुपुरु षेण 'परिविच्छए' परिविक्षता: हताः भवन्ति ॥२॥ टीकार्य-संग्राम छिड़ने पर वीरता का अभिमान करने वाले शूर पुरुष, जो वास्तव में कायर होते हैं युद्ध के अग्रभाग में चतुरंगी सेना के समान, उपस्थित हो जाते हैं। किन्तु जब साहस को समाप्त कर देने वाला संग्राम प्रारम्भ होता है, तब वे कायर भय आदि से व्याकुल हो उठते हैं । वह युद्ध कैसा भीषण होता है, यह दिखलाने के लिए सूत्रकार कहते है-उस युद्ध की भीषणता से घबराहट में आई हुई माता को अपनी गोद से गिरते हुए प्रिय पुत्र का भी ध्यान नहीं रहता है। इस प्रकार व्यग्रता उत्पन्न करने वाले घोर संग्राम में विजेता शत्रु के द्वारा वे पराजित कर दिए जाते हैं ॥२॥ ટીકાર્થી–પિતાના શૌર્યનું અભિમાન કરનાર પણ વાસ્તવમાં કાયરતાથી યુક્ત હોય એ પુરુષ, જ્યારે યુદ્ધને પ્રસંગ આવી પડે છે ત્યારે પિતાની ચતુરંગી સેના સહિત સમરાંગણના અગ્રભાગમાં ઉપસ્થિત થઈ જાય છે. પરંતુ જ્યારે ભીષણ સંગ્રામ શરૂ થાય છે ત્યારે દુશમનું પરાક્રમ જોઈને તે કાયરના ભય અને વ્યાકુળતા વધી જાય છે તે યુદ્ધ કેવું ભયાનક હોય છે તે બતાવવાને માટે સૂત્રકાર નીચેનું દષ્ટાન આપે છે-તે યુદ્ધની ભીષણતાને કારણે ગભરાઈ ગયેલી માતાને તેની ગેદમાંથી સરી પડતા બાળકનું પણ ભાન રહેતું નથી. એજ પ્રમાણે વ્યગ્રતા ઉત્પન્ન કરનારા તે ઘેર સંગ્રામમાં વિજેતા શત્રુ દ્વારા તે કાયરને જોતજોતામાં પરાજિત કરી દેવામાં આવે છે. મારા For Private And Personal Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. शु. अ. ३ उ. १ परिषहोपसर्गसहनापदेशः ७ पूर्व दृष्टान्तः प्रोक्तः सम्पति दान्तिकमाह-एवं सेहे वि' इत्यादि । मूलम्-एवं सेहे वि अपुढे भिक्खायरिया अकोविए। सूरं मण्णइ अप्पाणं जाव लूहं न सेवए ॥३॥ छाया--एवं शिष्योऽप्यस्पृष्टो भिक्षाचर्याऽकोविदः। शूरं मन्यत आत्मानं यावत् रूक्ष न सेवते ॥३॥ अन्वयार्थः-(एवं) एवमनेन प्रकारेण (मिक्वायरिया अकोविए) भिक्षाचर्याsकोविदः (अपुढे) अस्पृष्टः परीषहोपसर्ग: (सेहे वि) शिष्योपि-अभिनवप्रवजितः (अप्पाण) आत्मानं (सूरं) शूर-चारित्र शूरं (मन) मन्यते (जाव) यावत् पर्यन्तं (लहं) रूक्षम् संयम (न सेवए) न सेवते इति ॥३॥ दृष्टान्त कहकर अब दाष्टॉन्तिक कहते हैं-'एवं सेहे वि' इत्यादि। शब्दार्थ-एवं-एवम् ' इसी प्रकार 'भिक्खायरिया अकोविए'भिक्षाचर्याऽ कोविदः ' भिक्षाचर्या कि विधि के मर्म को न जानने वाले 'अपुढे-अस्पृष्टः' और परीषहों से जिन को संवन्ध नहीं है ऐसा 'सेहेविशिष्योपि' अभिनव प्रव्रजित शिष्य भी 'अप्पाणं-आत्मानम्' अपने को 'सूरं-शूरम्' तबतक शूर 'मन्नइ-मन्यते' मानता है 'जाव-यावत्' जब तक वह 'लूहं-रुक्षम्' संयमको 'न सेवए'-न सेवते' सेवन नहीं करता॥३॥ __ अन्वयार्थ-इसी प्रकार भिक्षाचर्या में अनिपुण एवं उपसर्गों से रहित नवदीक्षित साधु अपने को चारित्र में शूर मानता है परन्तु जय तक संयम का सेवन नहीं करता (तभी तक) ।।३।। હવે સૂત્રકાર દૃષ્ટાદ્વારા જે વાતનું પ્રતિપાદન કરવા માગે છે તે (evelds) ५४८ ४२ छ.- 'एवं सेहे वि०' त्यादि સૂત્રાર્થ_એ જ પ્રમાણે ભિક્ષાચર્યામાં અનિપુણ અને પરીષહ તથા ઉપસર્ગોથી રહિત સાધુ પણ પિતાને ચારિત્રની આરાધનામાં શૂર માને છે. પરતુ જકારે પરીષહ અને ઉપસર્ગો આવી પડે છે, ત્યારે તે સંયમન પાલન કરી શકતા નથી. ૩ -एवं-एवम्' 241 प्रमाणे 'भिक्खायरिया अकोविए-भिक्षाचर्याऽ कोविदः' (मिक्षायांनी विपिना भमन नाव 'अपुढे-स्पृष्ट्रः' भने परीषडाथी भने नथा मेवे। 'सेहेवि-शिष्योपि' अमिन प्रति शिष्य ५५ 'अप्पाणं-आत्मानम्' पाताने सूरं-शूरम्' त्यां सुधी शूरवी२ 'मन्नइ -मन्यते' भान छे. 'जाव-यावत्' या सुधात 'लूहं-रुक्षम्' सयभनु 'न सेवए -न सेवते' सेवन रते। नथी. ॥३॥ For Private And Personal Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गने टीका--'ए' एवम् अनेनैव प्रकारेण 'मिक्खारिया अकोलिए' भिक्षाचर्याऽकोविदः, भिक्षाचर्याविधिमानभिज्ञः उपलक्षणात् सकल साध्वाचाररिज्ञानविकलः अभिनवपत्रजितत्वात् 'अपुढे' अस्पृष्टः परीषदर्यस्य संबन्धो न जातः एतादृशः 'सेहे वि' अभिनवपत्र जितः कोमलवुद्धिशिष्योऽपि 'अपाण' आत्मानं स्वात्मानं तावदेव 'मरं' शूरम् 'मण्णई' मन्यते-तावदेव स्वात्मानं उस्कृष्टसाधा. चारपालने सिंहनाद करोति । शूरत्वस्य मर्यादामाह-'जावेति' 'जाव' यावत्'लूई' रूक्षं संयमम् 'न सेवए' न सेव ते यथा संग्रामशीर्षे समुपस्थितः शिशुपालो जेतारं वासुदेवं न दृष्टवान् तावदेव सिंहनादं कृतवान् तथैव कोमलबुद्धिरभिनवपत्राजितः यावत् परीपहोपसर्गरूपकेशरशटामुच्छालयन्तं संयमकेसरिणं न पश्यति तावदेव स्वात्मानं संयमवीर इति मन्यते तत्माप्तौ स गुरुकर्माऽल्पसत्व चारित्रभंगमुपयाति ॥३॥ टीकार्थ-इसी प्रति जो नवीन दीक्षित साधु, जो भिक्षा की विधि के मर्म से अनभिज्ञ है और उपलक्षण से साधु के समस्त आचार से नवदीक्षित होने के कारण अपरिचित है और जो परिषहों एवं उपसर्गों से अस्पृष्ट है अर्थात् जिसे इनका सामना नहीं करना पड़ा है, ऐसा साधु भी अपने को तभी तक चारित्रशर समझता है तभी तक उत्कृष्ट साध्वाचार पालन करने का मनोरथ करता है, जब तक संयम का सेवन नहीं करता है । जैसे संग्राम के शीर्ष भाग में उपस्थित शिशुपाल ने तभी तक सिंहनाद किया जब तक विजेता वासुदेव पर उसकी दृष्टि नही पडी, उसी प्रकार कोमलबुद्धि नवदीक्षित साधु जब तक परीषह और उपसर्गरूप केसर को हिलाने वाले संयमरूपी सिंह को नहीं देखता है, तभी तक अपने को संयमवीर मानता है। परीषह ટીકાર્ચ–એજ પ્રમાણે નવદીક્ષિત સાધુ કે જે શિક્ષાની વિધિના મર્મથી અનભિજ્ઞ છે, અને સાધુના સમસ્ત આચારોથી અપરિચિત છે, અને જેને પરીષહ અને ઉપસર્ગોને સામને ક પડ્યો નથી, એ સાધુ પિતાને ત્યાં સુધી જ ચારિત્રશૂર-ઉત્કૃષ્ટ સાધવાચારનું પાલન કરનાર માને છે કે જ્યાં સધી તેની સામે ભયંકર પરીષહ અને ઉપસર્ગો ઉપસ્થિત થતા નથી. જેવી રીતે સંગ્રામના અગ્રભાગમાં ઉપસ્થિત થયેલા શિશુપાલે ત્યાં સુધી જ સિંહનાદ કર્યો કે જ્યાં સુધી વિજેતા વાસુદેવ પર તેની નજર ન પડી, એ જ પ્રમાણે નવદીક્ષિત કમળ સાધુ જ્યાં સુધી પરીષહ અને ઉપસર્ગો રૂપ (કેશવાળી)ને કંપાવનાર સંયમ રૂપી સિંહને જેતે નથી, ત્યાં સુધી જ પિતાને ચારિત્રશુર For Private And Personal Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - - समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. १ संयमरय रुक्षत्वनिरूपणम् ९ संयमस्य रूक्षता प्रतिपादयति सूत्रकार:-'जया हेमंत' इत्यादि । मूलम्-जया हेमंतमासंमि सीतं फुसई सव्वग्गं । तत्थ मंदा विसीयंति रजहीणाव खत्तिया ॥४॥ छाया--यदा हेमन्तमासे शीतं स्पृशति सर्वागम् । तत्र मन्दा विषीदन्ति राज्यहीना इत्र क्षत्रियाः ॥४॥ अन्वयार्थ:--(जया) यदा येन प्रकारेण (हेमंतमासंमि) हेमंतमासे हेमन्तऋतौ-पौषमासे (सीतं) शीतं शैत्यं (सव्वग्गं) सर्वांगं प्रतिकूलतया (फुसइ) स्पृशति (तत्थ) तत्र तदा (मंदा) मंदा जडा:-गुरुकर्माणः (रजहीणा) राज्यहीना =राज्यभ्रष्टाः (खत्तियाव) क्षत्रिया इच (विसीयंति) विषीदंति-विषादमनुभवन्तीति ॥४॥ और उपसर्ग की प्राप्ति होने पर वह गुरुकर्मा एवं अल्पसत्व साधु चारित्र को भंग कर देता है ॥३॥ सूत्रकार अब संयम की रूक्षता का प्रतिपादन करते हैं-'जया हेमंत' इत्यादि। शब्दार्थ-'जया-पदा' जब 'हेमंतमासंमि'-हेमन्तमासे' हेमन्त ऋतु में अर्थात् पोषमहीने में 'सीतं-शीतम्' ठंडी 'सव्वंगसागम्' सर्वाङ्गको 'फुसइ-स्पृशति' स्पर्शकरती है 'तस्थ-तत्र' तब 'मंदा-मंदा' कायर पुरुष 'रज्जहीणा-राज्यहीना' राज्य भ्रष्ट 'खत्तिया व-क्षत्रिया इच क्षत्रीय के जैसे 'विसीयंति-विषीदंति' विषाद को प्राप्त होते हैं ॥४॥ ___ अन्वयार्थ--जय हेमन्त मास में अर्थात् पौष के महीने में पूरी तरह शीत का स्पर्श होता है तब भारी कों वाले मन्द साधु राज्य से भ्रष्ट हुए क्षत्रियों के जैसे विषाद का अनुभव करते हैं ॥४॥ - માને છે. જ્યારે પરીષહ અને ઉપસર્ગો આવી પડે છે, ત્યારે તે ગુરુકમાં અને અલ્પસત્વ સાધુ ચારિત્રને ભંગ કરી નાખે છે. આવા हवे सूत्र॥२ सयमनी ३क्षतानु प्रतिपादन ४२ छ-'जया हेमंत' त्यात ___ -'जया-यदा' या 'हेमंतमासंमि-हेमन्तमासे' उमन्त ऋतुमा अर्थात ५ महीनामा 'सीतं-शीतम्' 80 'सव्वर्ग-सम्'ि सर्वागने 'फसह -स्पृशति' २५ रे छे. 'तत्थ-तत्र' त्यारे 'मंदा-मंदाः' २५८५सय ५३५ रज्जहिणा-राज्यहिनाः' ५ प्रष्ट 'खत्तियाव- क्षत्रियाइव' क्षत्रिसनी 'विसीयति -विषीदंति' (वान प्राप्त थाय छे. ॥४॥ સ્વાર્થ-જ્યારે હેમન્ત બકતુમાં–પિષ માસમાં ભયંકર ઠંડીનો અનુભવ કરે પડે છે, ત્યારે ગુરુકમ મંદ (અજ્ઞાની) સાધુ પદભ્રષ્ટ થયેલા ક્ષત્રિની જેમ વિષાદનો અનુભવ કરે છે. જા For Private And Personal Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे ____टीका--'जया' यथा 'हेमंतमासंमि' हेमन्तमासे हेमन्त ऋतौ पौषमासादौ वा 'सीत' शीतं शैत्यम् 'सव्वंग' सर्वांगम् ‘फुसइ' स्पृशति 'तत्य' तत्र तदा तस्मिन् काले 'मंदा' मन्दा जडाः, गुरुकर्माणः पुरुषाः । 'रजहीणा' राज्यभ्रष्टाः 'खत्तिया' क्षत्रियाः 'व' इव 'विसीयंति' विषीदन्ति कष्टमनुभवन्ति, यथा राज्यरहिताः क्षत्रियत्वजात्यभिमानिनः दुःखायन्ते, तथा हेमन्तऋतौ पौष मासादौ अमन्दमन्दाऽनिलान्दोलितमबलशैत्यसंपर्के सति गुरुकर्माणः संयमकातराः पुरुषाः दुःखानुभवं कुर्वन्ति । “कुटुम्बकटुआगिव व्यथयते निलः अनेन हेमन्तकालिकशीतस्पर्शस्याऽतिदुस्सहत्त्वमुक्तमिति ॥४॥ मूलम्-पुढे गिम्हाहितावेणं विमणे सुपिवासिए । तस्थ मंदा विसीयंति मच्छा अप्पोदये जहा ॥५॥ छाया--स्पृष्टो ग्रीष्माभितापेन विमनाः सुपिपासितः । तत्र मन्दा विषीदन्ति मत्स्था अल्पोदके यथा ॥२॥ टीकार्थ--जव हेमन्त ऋतु में, सम्पूर्ण शरीर में शीत का स्पर्श होता है, उस समय जड और भारी कर्मों वाले पुरुष, राज्यच्युत क्षत्रियों के समान दुःख का अनुभव करते हैं। जैसे क्षत्रियत्व का अभिमान करने वाले पुरुष राज्य छिन जाने पर दुःखी होते हैं, उसी प्रकार शीतऋतु में तेज या धीमी-धीमी चलने वाली वायु के सम्पर्क से आन्दोलित प्रबल शीत के कारण संयम में कायर गुरुकर्मा पुरुष दुःख का अनुभव करते हैं । 'वायु कुटुम्ब के कटु वचनों के जैसी व्यथा पहुचाती है' इस प्रकार हेमन्त के समय का शीतस्पर्श अत्यन्न दुरसह कहा गया है ॥४॥ ટીકાઈ–-હેમન્ત તુમાં જ્યારે આ આ શરીરે શીતનો સ્પર્શ થાય છે. -જયારે હાડ ગાળી નાખે એવી કડકડતી ઠંડીનો અનુભવ કરવો પડે છે–ત્યારે ગુરુકમ સાધુ રાજયભ્રષ્ટ થયેલ ક્ષત્રિયોની જેમ દુઃખનો અનુભવ કરે છે. જેવી રીતે ક્ષત્રિયાત્વનું અભિમાન કરનાર પુરુ રાજ્ય ગુમાવી બેસવાથી વિષાદ અનુભવે છે, એ જ પ્રમાણે શિયાળામાં તેજ અથવા મન્દ ગતિથી વાતા પવનના સંપર્કને લીધે જે પ્રબળ ઠ ડીને અનુભવ કરાવે પડે છે. તેને કારણે, સંયમના પાલનમાં કાયર અને ગુરુકમ સાધુ પણ દુઃખને અનુભવ કરે છે. “વાયુ કુટુંબીઓના કટુવચને જેવી વ્યથા પહેંચાડે છે એ જ પ્રમાણે હેમંતના સમયને શીતપ પણ અત્યન્ત દુસહ કહેવામાં આવ્યો છે. પાકા For Private And Personal Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. थु. अ. ३ उ. १ संयमस्य रूक्षत्वनिरूपणम् ११ अन्वयार्थः -- (गिमाहितावेणं) ग्रीष्माभितापेन = ग्रीष्मकालिकौणेन (१हे) स्पृष्टः (त्रिमणे ) विमनाः = खिन्नान्तःकरणः (सुपिवासिए) सुविपासितः = तृपार्टीदोनो भवति (तत्थ ) तत्र ग्रीष्मोपसर्गं प्राप्ताः सन्तः (मंदा) मन्दाः = कातराः ( वसीयत) विषीदन्ति (अपोदर) अल्पोदके ( जहा मच्छा) यथा मत्स्या विषीदन्ति तथैवेति ||५|| शीतस्पर्श का परीषह दुःखजनक होता है, यह कह कर अब उerate की दुस्सहता का निरूपण करते हैं शब्दार्थ - ' गिम्हा हितावेणं - ग्रीष्माभितापेन' ग्रीष्म ऋतु के अभिताप से अर्थात् गर्मी से 'पुट्ठे-स्पृष्टः' स्पर्श पाया हुवा विमणे- विमनः ' खिन्न अन्तःकरणवाले अर्थात् उदास 'सुपिवालिए- सुपिपासितः' और प्यास से युक्त होकर पुरुष दीन हो जाता है, 'तत्थ तत्र' इस प्रकार गर्मी का परीषद प्राप्त होने पर 'मंदा - मन्दा' कायर पुरुष 'विसीयंतिविषीदन्ति' इस प्रकार विषाद को अनुभव करते हैं, 'अप्पोदए- अल्पो दके' थोडे जलमें 'जहा मच्छा-यथा मत्स्याः' जैसे मछली विषाद का अनुभव करती है ॥५॥ अन्वयार्थ - ग्रीष्मकाल की उष्णता से स्पृष्ट हुआ साधु खिन्न चित्त और पिपासा से पीडित होता है। गर्मी के परीषह को प्राप्त कायर जन उसी प्रकार छटपटाते हैं जैसे विना पानी की मछली ॥ ५ ॥ શીતપના પરીષહુ દુ:ખજનક હોય છે. તે પ્રકટ કરીને હવે સૂત્રકાર ઉષ્ણુસ્પેશની દુસહતાનું નિરૂપણ કરે છે— शब्दार्थ –' गिम्हा हितावेणं - ग्रीष्माभितापेन' ग्रीष्म ऋतुना खलितायथी अर्थात् अभी थी 'पुट्ठे-स्पृष्टः' स्पर्श' पास 'विमणे - त्रिमन: ' जिन्न अन्त: उरवाणी अर्थात् उहास 'सुपित्रासिए - सुपिपासितः' भने तरसधी युक्त थने ३ष हीन था लय छे. 'तत्थ - तत्र' આ પ્રકારે ગમી પરીષહું પ્રાપ્ત थवाथी मंदा - मन्दाः ' भूढ ५३ष 'विखीयंति - विषीदन्ति' सेवा प्रहारना विषाहनो अनुभव रे छे. 'अप्पादए - अल्पोदके' थोडा पाणीमां 'जहा मच्छा- यथा मत्स्याः ' જેવી રીતે માછલી વિષાદના અનુભવ કરે છે. પા સૂત્રા –જેવી રીતે પાણી વિના માછલી તરફડે છે, એજ પ્રકારે ગ્રીષ્મ કાળની ઉષ્ણતાથી પૃષ્ટ થયેલા અને પિપાસાથી વ્યાકુળ થયેલે ખિન્નતાના અનુભવ કરે છે, પા For Private And Personal Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे ___टीका--'गिम्हाहिनावेणं' ग्रीष्माभितापेन ग्रीष्ममासस्य ज्येष्ठमासादेः अभितापेनाऽतिशयितोष्णस्पर्शन 'पुढे स्पृष्टः पर्श प्राप्तः पुरुषः 'विमणे' विमनाः विखिनान्तःकरणः 'मुपिवासिए' सुपिपासितः अतिशयितपिपासया क्लान्तः दीनो भवति । 'तस्थ तत्र ग्रीष्मसमये उष्णपरीषहं प्राप्ताः, 'मंदा' मन्दाः जडाः 'विसीयंति' विषीदन्ति, विषादमनुभवन्ति, 'जहा' यथा येन प्रकारेण 'मच्छा' मत्स्याः 'अपोदये' अल्पोदके स्वल्पे जले विषादमनुभवन्ति । यथाऽल्पजले मत्स्याः दुःखिनो भवन्ति, तथोष्णपरिषहेण मन्दाः दुःखभानो भवन्ति ॥५॥ संमति भिक्षापरीषहमधिकृत्य सूत्रकारो ब्रूते-'सयादत्तेसणा' इत्यादि। मूलम्-सया दत्तेसणा दुक्खा जायणा दुप्पणोल्लिया। कम्मत्ता दुभगा चेव इच्चाहंसु पुढो जणा॥६॥ छाया--सदा दत्तैषणा दुःखं याचा दुष्प्रणोद्या । कर्माा दुर्भगाश्चैवेत्येवमाहुः पृथग् जनाः ॥६॥ टीकार्थ-ग्रीष्म के ताप से अर्थात् ज्येष्ठ मास आदि में तीव्र गर्मी के स्पर्श से पुरुष खिन्न मन हो जाता है और तेज प्यास लगने से दीन बन जाता है। उस ग्रीष्म के समय में उष्ण परीषह को प्राप्त कायर जन विषाद का अनुभव करते हैं। जैसे जल के अभाव में या अत्यल्प जल में मत्स्य दुःखी होते हैं । अर्थात् जैसे अल्प जल में मत्स्य दुःख से छटपटाते हैं, उसी प्रकार उष्ण परीषह से कायर साधु दुःखी होते हैं ॥५॥ ટીકાઈ-ગ્રીષ્મ ઋતુમાં–વૈશાખ અને જેઠ માસમાં-જ્યારે અસહ્ય ગરમી પડે છે. ત્યારે તેનાથી ત્રાસીને સાધુઓ મનમાં ઉદ્વેગને અનુભવ કરે છે. ઉષ્ણુતાને કારણે તીવ્ર તૃષાનો અનુભવ કરવાનો પ્રસંગ આવે ત્યારે તેવા સાધુઓ વ્યાકુળ થઈ જાય છે. એટલે કે ઉષ્ણપરીષહ સહન કરવાને પ્રસંગ આવે, ત્યારે કાયર સાધુએ વિષાદ અનુભવે છે. તેમની સ્થિતિ કેવી થાય છે, તે સૂવકારે આ પ્રકારે પ્રકટ કર્યું છે જેમ પાણી વિના અથવા અ૫ પાણીમાં માછલી તરફડે છે, એ જ પ્રમાણે ઉણપરીષહ આવી પડતાં કાયર સાધુ વિષાદ અનુભવે છે. પાપા ७वे सूत्रा२ मिक्षा५Nषतुं नि३५५५ रे छ–'सया दत्तेस्रणा' याह Aval - दत्तेसणा-दत्तषणा' मन्यन वारा सीधेस परतुने र अन्वेष ४२७. 'दुक्खा-दुःखम्' ५ 'सया-सदा' ना मत सुधा मात For Private And Personal Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टोका प्र. श्रु. अ. ३ उ. १ भिक्षापरीषहनिरूपणम् १३ अन्धयार्थः-(दत्तेपणा) दत्तैपणा अन्यप्रदत्त वस्तुनोऽन्वेषणम् (दुक वा) दुःखम् (सया) सदा जीवनपर्यन्तं साधूनां भवति तथा (जायणा) यांचा (दुप्पणोलिया) दुअगोद्या याश्चापरीषहः अल्पसत्वेन दुःखेन प्रणोद्यते सह्य ते (पुढो जणा) पृथग्जना पाकृतपुरुषाः (इच्चाहंसु) इत्येप्रमाहुः कथयंति, (कम्मत्ता) कर्माताः स्वकृतपूर्व कर्म गः फल मोक्तारः (दुब्नगा चे) दुभंगा भाग्यहीना इ इति ॥६॥ टीका--'दत्तेसणा' दत्तषगा 'दुक्खा' दुःख ननिका 'सा' सदा-आजीवन साधूनां भवति 'जायणा' याश्चा 'दुप्पणोलिलया' दुष्मणोद्या-दुःखेन सोढव्या अब सूत्रकार भिक्षा परीषह के विषय में कथन करते हैं'सया दत्तेसणा' इत्यादि। शब्दार्थ-'दत्तेसणा-दत्तषणा' अन्य के द्वारा दी गई वस्तु को ही अन्वेषण करना 'दुक्खा-दुःख' यह दुःख 'सया-सदा' जीवन पर्यन्त साधु को रहता है 'जायणा-यांचा' भिक्षाकी याचना करने का कष्ट 'दप्पणोल्लिया-दुष्प्रणोद्या' असह्य होता है 'पुढो जणा-पृथक जनाः' प्राकृतपुरुष अर्थात् साधारणलोक 'इच्चाहंसु-एवमाहुः' ऐसा कहते हैं कि 'कम्मत्ता-कार्ताः' ये लोक अपने पूर्वकृत पापकर्म का फल भोग रहे हैं 'दुभगाचेव-दुर्भगाश्चैव' तथा ये लोग भाग्यहीन हैं ॥६॥ ___अन्वयार्थ-साधुओं को दत्तषणा का अर्थात् दूसरो के द्वारा प्रदत्त वस्तु को ही ग्रहण करने का दुःख सदेव सहन करना पडता है। याचना परीषह भी दुस्सह होता है। साधारण जन साधुओं को देख कर कहते हैं, ये अपने कर्मों से पीडित हैं भाग्य हीन है' ॥६॥ टीकार्थ-साधुओं को जीवनपर्यन्त दत्तषगा का दुःख भोगना पडता है अर्थात् अदत्तादान के कारण सदैव दूसरों की दी हुई वस्तु से ही 4५५ त साधुने २७ छे. 'जायणा-यांचा' भिक्षानी यायना ३२वार्नु ४४ दुप्पणोल्लिया-दुष्प्रणोद्या' असय थाय छे. 'पुढो जणा-पृथक् जनाः' पाहत ५३५ मर्थात साधारण सो 'इच्चा हंसु-एवमाहुः' मे ४ ? 'कम्मत्ता- कर्माताः' माया पोताना पूर्वत ५।५:भर्नु ३ की २ छ. 'दुब्भगाचेव -दुर्भगाश्चैव' तथा मासा माग्यहीन छ. ॥६॥ સૂત્રાર્થ–સાધુઓએ અન્યના દ્વારા પ્રદત્ત વસ્તુને ગ્રહણ કરવાનું દુઃખ સદા સહન કરવું પડે છે, તે કારણે યાચના પરીવહ પણ દુર્સીડ ગણાય છે. સામાન્ય લોકો તે સાધુઓને જોઈને કહે છે – આ લેક તેમનાં કર્મોથી પીડિત છે, ભાગ્યહીન છે. પાર્. દા. ટીકાથ–સાધુઓ જીવનપર્યત દતષણુનું દુઃખ સહન કરવું પડે છે, કારણ કે તેઓ અદત્તાદાનના ત્યાગી હોવાને કારણે તેમને અન્યના દ્વારા For Private And Personal Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे भवति । याञ्चापरीपहो हि अल्पसत्वानां दुःखेन प्रणोधते, सह्यतेभिक्षाऽतीवकष्टदायिनी भवति । तथाचोक्तम्-- "गतिभ्रंशो मुखे दैन्यं गात्रस्येन्दोविवर्णता । मरणे यानि चिह्नानि तानि चिह्नानि याचके ॥१॥” इति । तावदेव स्वमानं स्थीयते, यावन किंचिद् याचते । तस्मात् याचा परीषहोऽतीव दुःख जनको भवति । तदेवं दुस्सहं याश्चापरीपहं परिसह्य विगताऽभिमानमहा. सत्वज्ञानाभिवृद्धये महापुरुषसेवितं पन्थानमनुव्रजतीति । आक्रोशपरीपहं श्लोका न अपरभागेन दर्शयति-"पुढो जणा" इत्यादि। निर्वाह करना पड़ता है। इसी प्रकार याचना परीषह भी उनके लिए दुस्सह होता है। अल्पसाव प्राणी बडी कठिनाई से उसे सहन कर पाते हैं । भिक्षावृत्ति अत्यन्त कष्टजनक होती है । कहा भी है-'गतिभ्रंशो मुखे दैन्य' इत्यादि। __ मृत्यु के समय जो चिह्न प्रकट होते हैं, वही चिह्न याचक में भी दिखाई देते हैं। उसकी गति अटक जाती है, मुख पर दीनता छा जाती है और चेहरा तेजोहीन हो जाता है।' तभी तक मनुष्य का गौरव टिकता है जब तक वह किसी वस्तु की याचना नहीं करता। अतएव याचा परीषह अत्यन्त दुःखजनक होता है । महासत्व पुरुष इस प्रकार दुस्मह याचना परीषह को सहन करके ज्ञानादि की निरन्तर वृद्धि के लिए महापुरुषों द्वारा सेवित पथ पर चलते हैं। આપવામાં આવેલી વસ્તુ વડે જ નિર્વાહ ચલાવ પડે છે. આ પ્રકારને યાચનાપરીષહ પણ તેમને માટે દુહ થઈ પડે છે. જેનામાં આત્મબળ ઓછું હોય છે એવાં સાધુ ઓ મહામુશ્કેલીએ આ પરીષહ સહન કરે છે. આ પરીષહ અસહ્ય બનવાથી કઈ કે.ઈ કમજોર સાધુ એ સંયમને પરિત્યાગ પણ કરી દે છે. ભિક્ષાવૃત્તિ કેટલી કષ્ટજનક હોય છે તે નીચેના કલેકમાં मतामा माव्यु छे. 'गतिभ्रंशो मुखे दैन्य' त्याह-मृत्युना समये २ ચિહા પ્રગટ થાય છે તે ચિહ્નો યાચકમાં પણ દેખાય છે. તેની ગતિ અટકી જાય છે, મુખ પર દીનતા છવાઈ જાય છે અને ચહેરા તેજહીન થઈ જાય છે.” જ્યાં સુધી માણસ કેઈની પાસે કઈ વસ્તુની યાચના કરતું નથી, ત્યાં સુધી જ તેનું ગૌરવ ટકે છે. તેથી જ યાચના પરીષહને અત્યંત દુસહ માન વામાં આવે છે. દૃઢ મનોબળવાળે પુરુષ જ યાચના પરીષહને સહન કરીને જ્ઞાનાદિની વૃદ્ધિ કરવા માટે મહાપુરુ દ્વારા સેવિત માર્ગે આગળ વધે છે. For Private And Personal Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सार्थबोधनो टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. १ भिक्षापरीषहनिरूपणम् १५ 'पुढो जणा' पृथग्जनाः = प्राकृतपुरुषाः साधारणलोका इत्थमाक्रोशन्ति । 'इच्चाहंसु' एवमाहुः अनेन प्रकारेण कथयन्ति । तथाहि ये एते साधवः मलिनांगाः लुंचितशिरसः क्षुधादिवेदनामग्नाः । ते एते 'कम्मत्ता' कर्मार्त्ताः पूर्वजन्मनि अनुष्ठितैः कर्मभिरार्त्ताः पूर्वजन्मनि स्वकृतकर्मणां फलमनुभवन्ति । अथवाकर्मभिः - कृष्णादिभिः आर्त्ताः, तत्कर्तुमशक्ता उद्विग्नाः सन्तः साधवः संवृत्ता इति । तथा एते 'दुभगा' दुर्भागाः = भाग्यहीनाः सर्वैरेव पुत्रकलत्रादिभिः परि त्यक्ताः, अन्यत्र शरणमलब्ध्वा साधवः संवृत्ताः प्रन्नज्याधारिणो जाता इति ॥ ६ ॥ 3 x मूलम् - एए सदे अचार्यता गांमेसु नयरेसु वा । E ८ तस्थ मंदा विसीयंति संगाम मिव भीरुया ॥७॥ छाया -- एतान् शब्दान् अशक्नुवन्तो ग्रामेषु नगरेषु वा । तत्र मन्दा विषीदन्ति संग्राम इव भीरुकाः ||७|| गाथा के उत्तरार्द्ध भाग में आकोश परीषह का उल्लेख किया गया है साधुओं को देखकर साधारण लोग इस प्रकार कहते हैं इन साधुओं का शरीर मैला कुचैला है, इन्हों ने मस्तक नोच रक्खा है और ये क्षुधा की वेदना से पीडित हैं । ये बेचारे अपने कर्मों से दुःखी हो रहे हैं- पूर्वजन्म में उपार्जित अशुभ कर्मों का फल भुगत रहे हैं। अथवा ये कमत्त हैं अर्थात् कृषि आदि कर्म करने में असमर्थ हैं, इसी कारण साधु बन गए हैं। ये अभागे हैं क्योंकि पुत्र पत्नी आदि सभी ने इनका परित्याग कर दिया है। जब कहीं शरण नहीं मिली तो साधु बन गए ! दीक्षाधारी हो गए हैं ॥६॥ ગાથાના ઉત્તરાર્ધમાં આક્રેશ પરીષહુના ઉલ્લેખ કરવામાં આઐ છે. સાધુઓને જોઈને સામાન્ય લેકે આ પ્રમાણે કહે છે-આ સાધુઓનું શરીર ગંદું છે, તેમણે કેશ લુચન કરીને માથે મુંડા કર્યાં છે અને તે ક્ષુધાની પીડા સહન કરે છે. તે બિચારા તેમના પૂર્વપાર્જિત કર્મોનું ફળ ભેગવી રહ્યા છે. અથવા તેઓ કર્માંત' છે.' આ વાકયતા અથ આ પ્રમાણે પશુ કરી શકાય તેએ ખેતી આદિ કમ કરવાને અસમથ છે, તે કારણે જ તેએ સાધુ અન્યા છે. તેએ દુર્ભાગી છે, કારણ કે પુત્ર, પત્ની આદિ સૌએ તેમના પરિત્યાગ કર્યાં છે. કોઈ પણ જગ્યાએ આશ્રય નહી' મળવાથી તેએ દીક્ષા લઇને સાધુ બની ગયા છે.' ાગાથા ટ્રા For Private And Personal Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir %3D सूत्रकृताङ्गसूत्रे अन्वयार्थः--(गामेसु) ग्रामेषु (नयरेसु वा) नगरेषु वा (एए सद्दे) एतान् शब्दान् एतान् पूर्वोक्तानाक्रोशरूपान् नथा चौरचाटिकादिरूपान शब्दान (अचायंता) सोढुमशक्नुवन्तः (तत्थ) तत्र-तस्मिन् आक्रोशे सति (मंदा) मन्दा अज्ञालघुपकृतयः (विसोयति) विषीदन्ति-विमनस्का भवन्ति संयमाद्वा भ्रश्यन्ते (इव) यथा (संगामंमि) संग्रामे रणशिरसि (भीरुया) भीरुकाः विषीदन्ति ॥७॥ टीका--'गामेसु' ग्रामेषु 'नयरे सु वा' नगरेषु वा 'एए सद्दे अवार्यता' एतान् शब्दान् अशक्नुवन्तः एतान् पूर्वोक्तान आक्रोशरूपान् तथा चौरचाटि शब्दार्थ-'गामेसु-ग्रामेषु' ग्रामोंमे नयरेसु वा-नगरेषु वा अथवा नगरों में 'एए सद्दे-एतान् शब्दान्' इन शब्दों को 'आचायंता-अश. क्नुवन्तः' सहन नहीं कर सकते हुए 'तत्य-तत्र' उस आक्रोश वचनों को सुनकर 'मंदा-मन्दा:' मंदमतिबाले 'विसीयंति-विषीदन्ति' इस प्रकार विषाद करते हैं-'हय-यथा' जैसे 'संगामंमि-संग्रामे संग्राममें 'भीरु याभीरुका' भीरु पुरुष विषाद करते हैं ॥७॥ ____ अन्वयार्थ-ग्रामों में अथवा नगरों में पूर्वोक्त आक्रोशरूप शब्दों को तथा 'यह चोर हैं, चोर है' इत्यादि शब्दों को सहन करने में असमर्थ होते हुये मन्दप्रकृति साधु विषाद को प्राप्त होते हैं या संयम से भ्रष्ट हो जाते हैं, जैसे संग्राम के शीर्ष भाग में भीरुजन विषाद को प्राप्त होते हैं ॥७॥ टीकार्थ--ग्रामों में या नगरों में पहले कहे हुये आक्रोश रूप श५४--'गामेसु-ग्रःमेषु' भीमा 'नयरेसु वा-नगरेषु वा' २१५१ नम 'एए सद्दे-एतान् शब्दान्' मा शहीने 'अचार्यता-अशन्क्रुवतः' सहन न घरी शतi 'तत्थ-तत्र' ते माडोश क्यने। अर्थात् ४७वा वयनाने साजाने मंदा -मन्दाः' म' भतिवाणा 'विसीयंति-विषीदन्ति' विषा ४२ छ 'इव- यथा' की शत 'संगामंमि-संग्रामे' याममा अर्थात् युद्धमा 'भीरुया-भीरुकाः' मी३ Y३५ विषाह ४३ छ. ॥७॥ સૂવાથે આ સાધુ તેના કર્મોથી દુઃખી છે' ઈત્યાદિ આક્રોશરૂ૫ શબ્દો તથા આ ચોર છે, આ ચાર (જાસૂસ) છે, ઈત્યાદિ સામાન્ય લેકો દ્વારા ઉચ્ચારાતા શબ્દો સાં%ળવાને અસમર્થ એ તે મન્દ પ્રકૃતિ સાધુ વિષાદ અનુભવે છે, અને જેવી રીતે સંગ્રામના મોખરાના ભાગમાં સ્થિત કાયર પુરુષ વિષાદ અનુભવે છે અને સમરાંગણ છેડીને ભાગી જાય છે, એ જ પ્રમાણે મન્ડમતિ સાધુ પણ સંયમના માર્ગેથી ભ્રષ્ટ થાય છે. કા ટીકાથ–પૂર્વોક્ત આક્રોશ રૂપ શબ્દ તથા “આ ચેર છે, આ જાસૂસ For Private And Personal Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. १ वधपरीषहनिरूपणम् १७ कादिरूपान् सोदुमशक्नुवन्तः, 'मंदा' मन्दा=मन्दमतयोऽल्पसत्वाः, 'तत्थ' तत्र तादृशाक्रोशादिरूप ग्रामकण्टकादि शब्दश्रवणकाले, 'विसीयंति' विषीदन्ति अतिशयेन दुःखमनुभवंति । 'व' यथा 'भीरुया' भीरुकाः कातरपुरुषाः 'संगामंमि' संग्रामे रणशिरसि चक्रकुन्तासिशक्तिनाराचाकुले स्टत्पटहशस्वझल्लरीनादसमाकुले विषादं गच्छन्ति अयशः पटह-मंगीकृत्य पलायन्ते । ग्रामे नगरे वा विधमानोऽल्पमतिः साधुराक्रोशशब्दजनितं दुःखं तथाऽनुभवति, यथा संग्रामे कातरः पुरुषो दुःखमनुभवतीति भावः ॥७॥ अतः परं वधपरीषहं सूत्रकारः दर्शयति-'अप्पेगे खुधिय' इत्यादि । म्लम्-अप्पगे खुधियं भिक्खू सुणी डंसइ लूसह । तस्थ मंदा विसीयति तैउ पुट्ठा व पाणिणो ॥८॥ शब्दों को एवं 'यह चोर है, यह जासूस है" इत्यादि कहे जानेवाले शब्दों को सहन करने में असमर्थ होकर मन्दमति या अल्पसत्व साधु उस समय अर्थात् कानों में कांटे के समान चुभने वाले उन आक्रोश वचनों को सुनने के समय अतीव दुःख का अनुभव करते हैं। जैसे चक्र, कुन्त, अमि शक्ति एवं नाराच (धाणों) से युक्त तथा बजते हुए ढोल शंख झालर आदि वाद्यों की ध्वनि से व्याप्त संग्रामशीर्ष में जैसे कायर पुरुष विषाद को प्राप्त होते हैं और अपयश सहन करके भी भाग खड़े होते हैं। तात्पर्य यह है कि ग्राम या नगर में धैर्यहीन साधु को आक्रोश पूर्ण वचन सुनकर उसी प्रकार दुःख का अनुभव होता है जिस प्रकार संग्राम में कायर पुरुष को ॥७॥ છે, ઈત્યાદિ ગ્રામ્યજને અને નગરજન દ્વારા ઉચ્ચારાતા શબ્દો સાંભળીને તે અલ્પમતિ અથવા અલ્પસર્વ સાધુ અત્યંત વિષાદ અનુભવે છે. પિતાના કાનમાં કાંટાની જેમ પીડા પહોંચાડનારા તે શબ્દ તેનાથી સહન થઈ શકતા નથી, તેથી આ પ્રમરના આકીશ વચને સાંભળવાથી તેને ઘણું જ દુઃખ થાય છે. જેવી રીતે ચક્ર, કુ. ખડગ, બાણ આદિથી યુક્ત અરિદળને જોઈને, ઢોલ, શંખ, ઝાલર, આદિ વાધો ને વનિથી વ્યાપ્ત સંગ્રામના અગ્રભાગમાં સ્થિત કાયર પુરુષ ડરી જઈને અપયશની પરવા કર્યા વિના સંગ્રામમાંથી નાસી જવાને તૈયાર થઈ જાય છે, એ જ પ્રમાણે મન્દીમતિ, અલ્પસર્વ સાધુ પણ પૂર્વોક્ત આક્રોશ વચનેને સાંભળીને વિષાદને અનુભવ કરે છે અને સંયમથી ભ્રષ્ટ થઈ જાય છે, ગાથા છા सू० ३ For Private And Personal Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - सूत्रकृताङ्गसूत्रे छाया--अप्येकः क्षुधितं भिक्षु शुनि दशति लूषकः । तत्र मन्दा विषीदन्ति तेजः स्पृष्टा व पाणिनः ॥८॥ अन्वयार्थः--(अप्पेगे) अप्येकः (लूसए) लूषकः क्रूरः (खुधियं) क्षुधितं बुभुः क्षित मिक्षामटन्तं (भिक्खु) भिक्षुम् (सुनीदंशति शुनी दशति भक्षयति (तत्थ) तत्रवादिभक्षणे (मंदा) मंदा:-अज्ञाः अल्पसत्यतया (विसीयंति) विषीदन्ति= दैन्यं भजन्ते (तेउपुट्ठा) तेजः स्पृष्टा-अग्निना दह्यमानाः (पाणिणोव) पाणिनो. जन्तइइवेति ॥८॥ इसके अनन्तर सूत्रकार वधपरीषह का वर्णन करते हैं'अप्पेगे खुधियं' इत्यादि । शब्दार्थ-'अप्पेगे-अप्येका' यदि कोई 'लूमए-लूषक: क्रूर 'खुधियंक्षुधितम्' भूखे 'भिक्खु-भिक्षुम्' साधु को 'सुणी दंसति-सुनीदशति' कुत्ता काटने लगता है तो 'तस्थ-तत्र' उस समय 'मंदा-मन्दाः' अज्ञ पुरुष 'विसीयंति-विषीदन्ति' इस प्रकार दीनता को पाता है की 'तेउ. पुट्ठा-तेजःस्पृष्टाः' अग्नि के द्वारा स्पर्श किया हुआ 'पाणिणोव-प्राणिनइव' प्राणी घबराता है ॥८॥ ___ अन्वयार्थ--कोई क्रूर कुत्ता आदि प्राणी भूखे (भिक्षा के लिए भ्रमण करते) साधु को काट लेता है । तब कुत्ता आदि के काटने पर मंदसत्व साधु विषाद करता है-दीन बन जाता है, मानों उसे अग्नि का स्पर्श हो गया हो ! ॥८॥ वे सूत्र४२ १५ परीषनु थन ४३ छ-'अप्पेगे खुधियं ध्याह शा---'अप्पेगे-अप्येकः' ने 'लूमए-लूषकः' ४२ 'खुधिय-क्षुधितम्' भूच्या भिक्खु-भिक्षुम्' साधुने 'सुणी दंसति-शुनी दशति' तरे। ४२७॥ मागे तो 'तत्थ-तत्र' ते समये 'मंदा ! -मन्दः' मा ५३५ ‘विसीयंति-विपीदन्ति' या प्रमाणे हीनता युत मानी जय छ । 'तेउपुद्रा-तेजः स्पृष्टाः' अभिना दा॥ २५ शयेर 'पाणिणो व-प्राणिन इव' प्राणी मराय छे. ॥८॥ સૂવાર્થી—ભિક્ષાકાસિને માટે ભ્રમણ કરતા ભૂખ્યા સાધુને કોઈ કઈ વાર કેઈ કુર કૂતરા કરડે છે. આવું બને ત્યારે મન્દસર્વ સાધુ વિષાદ અનુભવે છે. અગ્નિને સ્પર્શ થઈ ગયું હોય એટલું દુઃખ તેને તે વખતે થાય છે. દા For Private And Personal Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir PR समयार्थवोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. १ वधपरीपहनिरूपणम् १९ टोका--'अप्पेगे' अपि एकः, अपि शब्दः संभावनायाम् । एकः कश्चित् 'लूसए' लूपका क्रूरपाणी, स्वभावत क्रूर एव । यथा कुक्कुरादिः । 'खुधियं क्षुधि तम्-क्षुधार्तम् 'मि' भिक्षुकम् , भिक्षया परिभ्रमन्तं साधुम् । 'मुणी दंपति' शुनि दशति, स्वकीयदन्तैः साधोरंग विलुपति । 'तत्थ' तत्र-तस्मिन् आघातकाले 'मंदा' अल्पसत्ततया मन्दाः अज्ञाः 'वसीयति' विपीदन्ति-विवादमुपगच्छन्ति । क इव तत्राह 'तेउपुट्टा' ते नोभिरग्निभिः स्पृष्टाः दह्यमानाः, पाणिणोव' पाणिनो जन्तवः वेदनााः सन्तो यथा विषादमुपगच्छन्ति । आर्तध्यानोपहताः गात्रसंकोचनं कुर्वन्ति, एवम् अल्पमतयः साधवोऽपि क्रूरपाणिमिः अभिद्रुताः संयमाद् भ्रश्यन्ति । यतो ग्रामकण्टकानामति दुःसहत्त्वादिति तात्पर्यम् ॥८॥ मूलम्-अप्पेगे पडिभासंति पडिपंथियमागया। पडियारगया एए जे एए एवंजीविणो ॥९॥ टीकार्थ--यहाँ 'अपि' शब्द संभावना के अर्ध में है । कोई स्वभाव से ही क्रूर कुत्ता आदि जानवर भिक्षा के लिए अटन करते हुए भूखे साधु को काट खाता है, साधु के अंग में अपने तीक्ष्ण दांत गडा देता है, उस समय जो साधु धैर्यहीन या अल्पसत्व होते हैं, वह विषाद का अनुभव करते हैं, जैसे आग से जले हुए प्राणी वेदना से आर्त हो उठते हैं और आर्तध्यान से युक्त होकर अङ्गों को सिकोड लेते हैं। इसी प्रकार सत्वहीन साधु भी क्रूर प्राणी का उपद्रव होने पर संयम से गिर जाते हैं, क्योंकि ग्रामकंटक अर्थात् इन्द्रियों से प्रति. कूल स्पर्श आदि अत्यन्त ही दुस्सह होते हैं ।।८।। ટકાથે–આ સૂત્રમાં “બવ' પદ સંભાવનાના અર્થમાં વપરાયું છે. કોઈ કઈ વાર એવું પણ બને છે કે--ભિક્ષાને માટે ભ્રમણ કરતા સાધુને કોઈ દૂર કૂતરા આદિ જાનવર કરડે છે-સાધુના ચરણ આદિ અંગમાં તેની તીણું દાહે ભેંકી દે છે. તે સમયે અલપસત્વ અને ધહીન સાધુ વિષાદને અનુભવ કરે છે. જેવી રીતે અગ્નિથી દાઝેલું પ્રાણ વેદનાથી આત્ત થઈ જાય છે અને આર્તધ્યાનથી યુક્ત થઈને પિતાનાં અંગોને સંકેચી લે છે, એ જ પ્રમાણે કર પ્રાણી દ્વારા ઉપદ્રવ થવાથી સત્વહીન સાધુ પણ સંયમના માર્ગેથી ભ્રષ્ટ થઈ જાય છે, કારણ કે ગ્રામ કંટક-ઈન્દ્રિયોને પ્રતિકૂળ સ્પર્શ આદિ-સહન કરવાનું કાર્ય ઘણું જ દુષ્કર ગણાય છે. ગાથા ૮ For Private And Personal Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २० सूत्रकृताङ्गसूत्रे छाया--अर के प्रनिभाषन्ते प्रातिपथिकतामागताः । प्रतिकारगता एते य एते एवं जीविनः ॥९॥ अन्वयार्थः- (पडिपंथियमागया) प्रातिपथिकतामागताः प्रतिपथः पतिक्ल त्वं तेन चरन्तीति प्रातिपथिकाः साधुविद्वेपिणस्तद्भावमागताः (अप्पेगे) अपि एके-धर्मरहिताः (पडि भासंति) प्रतिभाषते (जे एए) ये एते यतयः (एवं जीविणो) एवं जीविनः (एए) एते (पडियारगया) प्रतिकारगाः प्रतिकारः-पूर्वकृतकर्मगोऽनुभवस्तं गताः माता इति ॥९॥ टीका--'पडिपंथियमागया' प्रातिपथिकतामागताः, पतिकूलतां भाषन्ते ये ते मातिपथिकाः साधूनां विद्वेषकारकाः, तद्भातमागताः इति प्रातिपथिकता शब्दार्थ-'पडिपंधियमागया-प्रतिपधिकतामागताः साधुजन के द्वेषी 'अप्पेगे-अपिए के कोई कोई 'पडिभासंति-प्रतिभाषन्ते' कहते हैं कि "जे एए-ये एते' जो ये लोग 'एवं जीविणो-एवं जीविनः' इस प्रकार भिक्षावृत्ति से जीवन धारण करते हैं 'एए-एते' ये लोग परियारगताप्रतिकारगताः' अपने पूर्वकृत पापका फल भोग रहे हैं ॥९॥ ____ अन्वयार्थ-कोई कोई अधर्मी और साधु भो से वेष रखने वाले लोग कहते हैं, इस प्रकार जीवनयापन करनेवाले ये साधु अपना बदला चुका रहे हैं अर्थात् पूर्वकृत कर्मों का फल भुगत रहे हैं ॥९॥ टीकार्य--जो साधुओं के विरोधी है', प्रतिकूल वचन बोलते हैं, साधुओं के प्रति द्वेषभाव रखते हैं वे अनार्यों के समान लोग साधु को शा-'पडिपंथियमागया-प्रातिपथिकतामागताः' साधु नना देषी 'अपेगे-अपिएके' 5 'पडिभासंति-प्रतिभाषन्ते' ४३ छ । 'जे एए-ये एते' २ मा साधु एवंजीविणा-एवं जीविनः' मा ४३ मिक्षावृत्तिथी वन धारण २ छ. 'एए-एते' मा मायुसे। 'परियारगता-प्रतिकारगवाः' बोताना पूर्व कृत पापर्नु सामवी २छा छ. ।।८।। સૂત્રાર્થકઈ કઈ અધમ અને સાધુઓને દ્વેષ કરનારા લોકો કહે છે કે આ પ્રકારે જીવન વ્યતીત કરતાં આ સાધુએ પૂર્વકૃત કર્મોને બદલે ચુકવી રહ્યા છે–ફળ ભેગવી રહ્યા છે.” ૯ ટીકાઈ–સાધુએના વિરોધીઓ-સાધુઓ પ્રત્યે દ્વેષભાવ રાખનારા અનાર્ય કે જેવાં માણસે સાધુઓને જોઈને આ પ્રકારનાં પ્રતિકૂળ વચને બોલે છે For Private And Personal Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. १ वधपरीषहनिरूपणम् मागताः कथंचित् प्रतिपथाच द्रष्टारः 'अप्पेगे' अपि एके, अनार्यकल्पाः 'पडिभासंति' परिभाषन्ते, एवं बुबते । किं ब्रुस्ते-तबाह-'जे एए' ये एते साधवः । 'एवं जीविणो' एवम् अनेन प्रकारेण भिक्षावृत्या जीवनयात्रा निवर्तयन्तः इमे यतयः । 'पडियारगग' प्रतिकारगता कीवपूर्वकृत कर्मणां फलमुप जन्ते । केविन साधुविद्वेपकारिणो भिक्षार्थ साधुं दृष्ट्वा इत्थं वदन्नि, थे एते साधको लुचितशिरसोऽदत्तदानाः परगृहाणि परिभ्रमन्ति । इमे सर्वभोगचिताः दुखितं जीवन जीवन्ति । सर्वथा इमे भाग्यरहिताः परजन्मनि कृतमशुभकर्माऽनुष्ठानं तस्यैवं फलं परगृहादौ मिक्षावृत्या जीवनं संपादयन्तीति ॥९॥ मूलम्-अध्येगे वइ जुजइ नगिणा पिंडलगाहमा । मुंडा कडू विणटुंगा उजल्ला असमाहिया ॥१०॥ छाया--अपये के वचो युनन्ति नग्नाः पिण्डोलगा अधमाः। मुण्डाः कण्डू विनष्टाङ्गा उज्जल्ला असमाहिताः ॥१०॥ देखकर इस प्रकार भाषण करते हैं-'भीख मांग कर जीवन व्यतीत करने वाले ये साधु अपने पूर्वकृत अशुभ कर्म का फल भोग रहे हैं !' कोई साधुढेषी भिक्षार्थ निकले साधु को देखकर कहता है-'इन सिर नोचने वाले साधुओं ने पहले दान नहीं दिया है, इसी कारण ये घर घर भीख के लिए भटकते फिरते हैं । ये समस्त भोगों से वंचित हैं और दुःखमयजीवन व्यतीत कर रहे हैं । ये भाग्यहीन हैं । पूर्वजन्म में अशुभ कर्म करके आए हैं, उसी का यह फल है कि पराए घरों में भीख मांग कर इन्हें प्राणों का निर्वाह करना पडता है ॥९॥ शब्दार्थ-'अप्पेगे-अप्येके कोई कोई पुरुष 'वइ जुजंति-वचो युंजंति' कहते हैं कि 'नगिणा-नग्न' ये लोग नंगे हैं 'पिंडोलगा'-ભીખ માગીને જીવન વ્યતીત કરનારા આ સાધુએ તેમના પૂર્વકૃત અશુભ કર્મોનું ફળ ભોગવી રહ્યા છે.” ભિક્ષા પ્રાપ્તિ માટે નીકળેલા સાધુને જોઈને કઈ સાધુ શ્વેષી માણસે એવું કહે છે કે-“આ કેશવુંચન કરનારા સાધુઓએ પૂર્વભવમાં દાન દીધાં નથી, તે કારણે તેમને ભિક્ષા માટે ઘેર ઘેર ભટકવું પડે છે. તેઓ સઘળા ભેગોથી વંચિત છે અને દુઃખી જીવન વ્યતીત કરી રહ્યા છે. તેઓ ભાગ્યહીન છે. પૂર્વજન્મના અશુભ કર્મોના કારણે તેમને પારકાં ઘરોમાં ભ્રમણ કરીને ભીખ માંગીને ગુજરાન ચલાવવું પડે છે. ગાથા લા --'अप्पेगे-अप्येके' । ५३५ 'वह जुंजंति-वचो युजति' ४३ छ, 'नगिणा-नग्नाः' मा नाम छ. "पिंडोलगा-पण्डोलगा' मीना For Private And Personal Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे अन्वयार्थः--(अप्पेगे) अप्येके केचन पुरुषाः (व:जुनइ) वचो युजति वाचं भाषन्ते तद्यथा (नगिणा) नग्ना एते जिनकरियकादयः तथा (पिंडोलगा) पिण्डोलकाः परपिण्डपार्थकाः (अहमा) अधमा मलमलिनदेहाः (मुंडा) मुण्डाः लुंचित शिरसः (कंडविणलंगा) कंडुविनष्टांगा: कण्डूकृतक्षतैः विकृतशरीराः (उजल्ला) उज्जल्लाः उद्गतः जल्लः मलं शुष्कास्वेदो वा येषां से उज्जलाः कठिनमलयुक्तशरीरका यथा तथा (असमाहिया) असमाहिताः अशोभना वीभत्सा वा इत्थं कथयन्तीति ॥१०॥ ___टीका-'अप्पेगे' अप्येके एके अनार्यतुल्याः पुरुषाः साधूनधिकृत्य 'वइझुंजई' वचो युञ्जन्ति वाचमुदीरयन्ति, कीदृशीं वाचमुदीरयन्ति, तत्राह-'नगिणा' पिण्डोलगाः' पर पिंडके इच्छुक हैं 'अहमा-अधमाः' अधम हैं 'मुंडामुण्डाः' मुण्डित हैं 'कंदविणटुंगा-कंदविनष्टांगाः' कंदरोगसे इनके अङ्ग नष्ट होगये हैं 'उज्जल्ला-उजल्लाः' ये शुष्क पसीने युक्त और 'असमाहिया-असमाहिता: अशोभन अर्थात् बीभत्स हैं ऐसा कहते हैं ॥१०॥ ____ अन्वयार्थ-साधु को देखकर कोई कोई कहते हैं, ये नग्न हैं (जिनका ल्पिक आदि) पराये पिण्ड की प्रार्थना करने वाले हैं, अधम हैं मलीन शरीरवाले हैं, मुडित हैं, खुजली के कारण इनका शरीर क्षत विक्षत हो रहो है, मैल जमा हुआ है, ये पसीने से तर हो रहे हैं या इनका शरीर कठिन मल से युक्त है, ये केसे अशोभन या बीभत्स दिखाई देते हैं ? ॥१०॥ टीकार्थ-अनार्यों के सदृश कोई कोई पुरुष साधुओं के सम्बन्ध में इस पिंड २ छ. 'अहमा-अधमाः' मधम छे, मुंडा- मुण्डाः' ते मु९ित, 'कंडूविणटुंगा-कंडूविनष्टांगाः' ४ थी तमना नष्ट गया छ. 'उज्जल्ला-उउजल्लाः' माशु ५२से पाथी युक्त अन 'असमाहिया-असमा. हिताः' अशोमन अर्थात् मानस छे भाई ४ छे. ॥१०॥ સૂવાર્થ-જિનકલ્પિક આદિ સાધુઓને જોઈને કઈ કઈ માણસે એવું કહે છે કે-“આ લેકે નગ્ન છે, પરાયા પિંડને (આહારને) માટે પ્રાર્થના કરનારા છે, અધમ છે, મલીન શરીરવાળા મુંડિત છે, ખુજલીને કારણે તેમનું શરીર ક્ષત વિક્ષત થઈ ગયું છે, તેમના શરીર પર મેલને થર જામી ગયે છે, તેમનું શરીર પરસેવાથી તરબળ છે, અથવા તેમનું શરીર કઠણું મેલથી યુક્ત છે. તેઓ કેવાં કેળ અને બીભત્સ દેખાય છે!” ૧૧ ટીકાઈ– અનાર્યોના જેવા સ્વભાવવાળા લેકે સાધુએ ને અનુલક્ષીને આ For Private And Personal Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. १ वधपरीषहनिरूपणम् २३ नग्ना एते जिनकल्पिकादयः वस्त्ररहिताः । 'परपिंडोलगा' परपिण्डोलका:-परपिण्डमार्थकाः सन्ति । तथा 'अहमा' अधमाः, मलमलिनत्वात् निन्दिताः । तथा (मुंडा) मुण्डा: लुंचित केशाः तथा 'कंडूविणटुंगा' कण्डूविनष्टाङ्गाः कण्डूभिः खर्जनः विनष्टानि अङ्गानि येषां ते कण्डूविनष्टाङ्गाः, कण्ट्रकृतरेखाभिः विकृतशरीराः । करकण्डुवत् सनत्कुमारवत् विनष्टशररीराः। तथा 'उज्जल्ला' उज्जल्ला:उद्तः संलग्न: जल्ला कठिनमल येषां ते उज्जल्लाः । तथा 'असमाहिया' अस. माहिता: अशोभनाः दुष्टा वा माणिनामसमाधिमुत्पादयन्ति । कदाचित् कुपुरुषा जिनकल्पिसाधुं दृष्ट्वा एवं वदन्ति यदीमे परपिण्डोपभोक्तारः नग्ना अधमाश्च तथा इमे मुण्डिताः कंडूरोगादिना विनष्टाङ्गा मलयुक्तबीभत्सवेषयुक्ताः सन्तीति भावः ॥१०॥ प्रकार के वचनों का प्रयोग किया करते हैं ये जिनकल्पिक आदि नग्न हैं, ये पराये आहार की प्रार्थना करते हैं, मलीन होने के कारण ये अधम निन्दित हैं। ये मुण्डिन है खुजलों के कारण इन के अंग खराब हो रहे हैं खाज को रेखाओंने इनके शरीर को विकृत कर दिया है ? करकण्डू या सनत्कुमार के समान विनष्ट शरीर वाले हैं ? इनके शरीर पर जमा हुआ मैल चिपका है ? ये अशोभन हैं दुष्ट हैं, प्राणियों को असमाधि उत्पन्न करते हैं। तात्पर्य यह है कि कभी कभी कुपुरुष जिनकल्ली साधु को देख कर कहते हैं, ये परान्नजीवी हैं, नग्न हैं, अधम हैं, सिरमुंडे हैं, खुजली आदि से इनके अंग खराब हो रहे हैं मलीन बीभत्स वेष वाले हैं ॥१०॥ પ્રકારનાં વચનને પ્રયોગ કરે છે-આ જિનકલ્પિક આદિ સાધુઓ નગ્નાવસ્થામાં રહે છે. તેઓ અન્યની પાસે આહાદિની ભીખ માગે છે! મઢીનતાને કારણે તેઓ અધમ-અપ્રીતિકર લાગે છે ! તેમને માથે મુડે છે. ખુજલીને કારણે તેમનાં અંગો ખરાબ થઈ ગયાં છે-શરીર પર વારંવાર ખંજવાળવાને લીધે તેમનું શરીર ક્ષતવિક્ષત થઈ જવાને લીધે વિકૃત થઈ ગયું છે. તેઓ કર અથવા સનત્કમરના સમાન વિનછ શરીરવાળા (ક્ષત વિક્ષત યુક્ત શરીરવાળા થઈ ગયા છે. તેમના શરીર પર મેલના પિપડા જામ્યા છે. તેમને દેખાવ मशालन (सुदरता २हित) भने मालस ( ममा प्रेरे ते२१) अथप! અસમાધેિ જનક છે. આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે ક્યારેક કેઈ કેઈ કપુરુષે જિનકલ્પિક સાધુઓને જોઈને એવું કહે છે કે-આ સાધુઓ પરાજજીવી, નગ્ન અને અધમ છે, તેઓ માથે મુંડાવાળા અને ખુજલીને કારણે ખરાબ અંગોવાળા છે, તથા તેઓ મલીન અને બીભત્સ દેખાવવાળા છે. ગાથા ૧૦ For Private And Personal Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे १० म्लम्-एवं विपडिबन्नेगे अपणा उ अजायणा । तमाओ ते तमं जति मंदा मोहेण पाउडा ॥११॥ छाया--एवं विपतिपन्ना एके आत्मना तु अज्ञाः। तमस्ते तमसो यान्ति मन्दा मोहेन पावताः ॥११॥ अन्वयार्थः---(एवं) एवमनेन पकारेण (विडिवन्ना) विपतिपन्नाः साधु सन्मार्गद्वेषिणः (एके) एके केचन-अनार्याः (अप्पणा उ) आत्मना तु (अजायणा) अज्ञाः विवेकाविज्ञा: (मोहेन पाउडा) मोहेन प्रावृताः मोहेन मिथ्यादर्शनरूपेण माता आच्छादितमतयः (ते) ते (तमाओ) तमस: अज्ञानरूपान्धकारात् (तम) तमा उत्कृष्टमज्ञानान्धकार जति) यान्ति गच्छन्तीति ॥११॥ शब्दार्थ-~-एवं-एवम्' इस प्रकार विपडियन्ना-विप्रतिपन्नाः' साधु और सन्मार्ग के द्रोही 'एगे-एगे' कोई कोई 'अप्पणा उ-आत्मना तु' स्वयं 'अजायणा-अज्ञाः' अज्ञ जीव 'मोहेण पाउडा-मोहेन प्रवृताः' मोह से ढके हुए अर्थात् मिथ्यादर्शन से ढकी हुइ मतियाले हैं 'ते-ते' वे 'तमाओ-तमसः' अज्ञान रूप अंधकारसे तमं-तामः' उत्कृष्ट अज्ञान ही अन्धकार को 'जंति-यान्ति' प्रवेश करते हैं ।।११॥ अन्वयार्थ-जो लोग इस प्रकार साधु ओं के विरोधी हैं, अनार्य हैं, विवेकविकल हैं, मोह से अच्छादितमति वाले हैं, ते वे अज्ञान से अज्ञान की ओर जाते हैं अर्थात् अज्ञानान्धकार से उत्कृष्ट अन्धकार की दिशा में अग्रसर होते हैं ॥११॥ था- 'पव-एवम्' मा प्रमाणे 'विप्पडियन्ना-विप्रतिपन्नाः' साधु भने सन्माना 'एके -एके' । । 'अप्पणा उ-आत्मना तु' पोते ०५ श्रजःयणा-अज्ञाः' म 'मोहेण पाउडा मोहेन प्रवृतः' मा यी ढ अर्थात मिथ्या शनी disी मतिबा छे, 'ते-ते' ते 'तमाओ-तमसे:' अज्ञान ३५ ५४।२थी 'तमं-तमः' उत्कृष्ट मज्ञान ३५ी २२ 'जति-यन्ति' प्राप्त ४२ छे. ॥११॥ सूत्रा-२ मा प्ररे साधुयाना विधी हेय छ, गनाये અને વિવેકથી વિહીન હોય છે, અને તેથી અચ્છાદિત મતિવાળા હોય છે, તેઓ એક અજ્ઞાનમાંથી બીજા અજ્ઞાન તરફ જાય છે એટલે કે અજ્ઞાન રૂપ અંધકારમાં ડૂબેલા તે લેકે નરક આદિ રૂપ ઉત્કૃષ્ટ અંધકારની દિશામાં અસર થાય છે. ગાથા ૧૧ For Private And Personal Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्र. अ. ३ उ. १ वधपरीषहनिरूपणम् २५ टीका--(एवं) एवम् उपयुक्तरीत्या 'एगे' एके-अपुण्यकर्मागः धर्ममर्म विवनिता अनार्याः 'विपडियन्ना' विप्रतिपन्ना:-पाधूनां मोक्षमार्गस्य च प्रद्वेष कारकाः, साधुद्वेषकारकाः कीदृशास्तत्राह-'अप्पणा' आत्मना स्यम् 'उ' तु 'अजायणा' अजानन्तोऽज्ञा: धर्मावरणवर्जिताः, 'तमाश्रो तमसः अज्ञानरूपात् अन्धकारात् । 'तम' तर कटान्धकारमज्ञानम् 'जति' यानि प्राप्नुमन्ति, नीचादपि नीचां गति पाप्नु पन्तीत्यर्थः । कथं ते अधां गति प्राप्नुवन्ति तत्राहमंदा इति । मन्दा यतो ज्ञान बरणीयादिकर्मणा व्याप्ताः। अतोऽधो गति गच्छन्ति । हेवन्तरमप्याह-'मोहे ग पाउड।' इति मोहेन मिथ्यादर्शनरूपेग पाताः आच्छादिताः, आएवाऽधायाः साधुविद्वेवकारिण: कुमार्गमाश्रयन्ति । एकं चक्षुविवेकः द्वितीयं चक्षुर्विवेकिना सह सहवासः एतद्वयं यस्य नास्ति स एव तस्बोध: एमादृशस्य यदि कुमार्गे प्रवृत्तिभवेत्तदा तस्य कोपराध टीकार्थ-इस प्रकार जो लोग पापकर्मी हैं, धर्म के मर्म से अनभिज्ञ हैं अनार्य हैं साधुओं के और मोक्षमार्ग के द्वेषी हैं, स्वयं अज्ञान हैं और धर्माचरण से रहित हैं, वे अज्ञान रूप अन्धकार से उत्कृष्ट अज्ञान को प्राप्त होते हैं अर्थात् नीच से नीच तर गति प्राप्त करते हैं । उन्हें अधम गति की प्राप्ति क्यों होती है, इसका उत्तर यह है कि वे मन्द हैं,ज्ञाना वरणीय आदि कर्मों से ग्रस्त हैं, इसी कारण अधोगति प्राप्त करते हैं। अधोगति प्राप्त करने का दूसरा कारण यह है कि वे मिथ्यादर्शन रूप मोह के द्वारा आच्छादित है । इस कारण वे अन्धे के समान है साधुओं से द्वेष करते हैं कुमार्ग का अवलम्बन करते हैं। एक चक्षु विवेक है और दूसरी चक्षु विवेकी जन के साथ सहवास 1 ટકાઈ—આ પ્રકારે જે લેકે પાપકર્મ છે, ધર્મના મર્મથી અનભિજ્ઞ છે, અનાર્ય છે, સાધુઓના અને મોક્ષમાર્ગના હેવી છે. સ્વયં અજ્ઞાન છે. અને ધર્માચરણથી રહિત હોય છે, તેઓ અજ્ઞાનરૂપી અંધકારમાંથી ઉત્કૃષ્ટ અંધકારમાં જાય છે એટલે કે નીચ ગતિમાંથી નીચતર ગતિમાં જાય છે. શા કારણે તેમને અધમ ગતિની પ્રાપ્તિ થાય છે? તેઓ મન્ટ છે, જ્ઞાનાવરણીય આદિ કર્મોથી ગ્રસ્ત છે, તે કારણે તેમને અધોગતિની પ્રાપ્તિ થાય છે. અધોગતિ પ્રાપ્ત થવાનું બીજું કારણ એ છે કે તેઓ મિથ્યાદર્શન રૂપ મેહ વડે આચ્છાદિત છે. તે કારણે તેઓ આંધળા જેવાં હોવાને કારણે સાધુઓ પ્રત્યે તેષભાવ રાખે છે અને કુમાર્ગનું અવલંબન કરે છે. વિવેક એક ચક્ષુ સમાન છે અને વિવેકીજનેને સહવાસ બીજા ચક્ષુ For Private And Personal Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे इति तदुक्तम्-- "एक हि चक्षुरपलं सहनो विवेकः तद्वद्भिरेत सह संवसतिद्वितीयम् । पतवयं भुवि न यस्य स तत्सतोऽन्यः तस्याप्पमार्गचलने खलु कोऽपराधः ॥१॥" ___ एवं साधुभिः सह विद्वेषं कुर्वन्तः सन्मार्गादपि छैद्यन्तेऽज्ञानिनः मोहाच्छा. दिताः अनार्या एकस्मादज्ञानाभिर्गत्याऽज्ञानाऽन्तरं नरकादिरूपां दुर्गतिं गच्छन्ति, विवेकशून्यत्वादिति भावः ॥११॥ करना है । जिसके यह दोनों ही चक्षु नहीं है वही वास्तव में अन्धा है। ऐसा मनुष्य यदि कुमार्ग में प्रवृत्त हो तो उसका क्या अपराध है ? कहा भी है-'एकं हि चक्षुरमलं सहजो विवेकः' इत्यादि। ___ 'सहज स्वाभाविक विवेक एक निर्मल नेत्र है और विवेकी जनों का सहवास (समागम) दसरा नेत्र है। यह दोनों ही नेत्र जिसे प्राप्त नहीं है, वास्तव में वही इस भूतल पर अंधा है। वह अगर कुपथगामी होता है तो उस बेचारे का क्या अपराध है ? अर्थात् उसका कुमार्गगामी होना तो स्वभाविक ही है। __ इस प्रकार साधुओं के प्रति द्वेष रखने वाले, सन्मार्ग से द्रोह करने वाले, अज्ञानी, मोह से घिरे हुए अनार्य जन एक अज्ञान से निकल कर नरकगति आदि रूप दूसरे अज्ञान को प्राप्त करते हैं, क्योंकि वे विवेक रहित होते हैं ॥११॥ સમાન છે જેમને આ બન્ને ચક્ષુ હતાં નથી, તે જ ખરી રીતે આંધળા છે. એ માણસ જે કુમાર્ગે પ્રવૃત્ત થાય, તે તેને શે અપરાધ ! હું પણ छ -'एक हि चक्षुरमल महजो विवेकः' त्याह સાભાવિક વિવેક એક નિબળ નેત્ર રૂપ છે. અને વિવેકી જનેને સહવાસ બીજા નેત્ર રૂપ છે. આ સંસારમાં જેને આ બે નેત્રની પ્રાપ્તિ થઈ નથી તેને જ વાસ્તવિક રૂપે તે અંધ કહી શકાય છે. જે આ બને પ્રકારના નેત્રોના અભાવવાળે માણસ કુમાર્ગગામી બને, તે તેને શે અપરાધ! એટલે કે એ માણસ કુમાર્ગગામી બને તે સ્વાભાવિક જ છે. આ પ્રકારે સાધુઓ પ્રત્યે દ્વેષ રાખનાર સન્માગને દ્રહ કરનાર અજ્ઞાની. મેહથી ઘેરાયેલા અજ્ઞાન માણસો એક અજ્ઞાનમાંથી નીકળીને નરકગતિ આદિ રૂપ બીજા અજ્ઞાનને પ્રાપ્ત કરે છે, કારણ કે તેઓ વિવેકરહિત होय छे. माथा ११॥ For Private And Personal Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. १ दंशमशकादिपरीषहनिरूपणम् २७ देशमश कादि परीपहमाह-'पुट्ठो य' इत्यादि । मूलम्-पुट्ठो य देसमसएहिं तणफासमचाइया। न मे दिट्टे परे लोए जेइ परं मरणं सिया ॥१२॥ छाया--स्पृष्टश्च दसमशकैस्तुणस्पर्शमशक्नुवन् । न मया दृष्टः परलोको यदि परं मरणं स्यात् ॥१२॥ अध्याय :--(दसमसएदि) देशमशकः (पुट्ठो) स्पृष्टश्च भक्षितः तथा (तणफासमचाइया) तृणस्पर्शमशक्नुवन् निकिचनत्वात् तणेषु शयानः तत्स्पर्शमशक्नुवन् कदाचिदेवं चिन्तयेत् (मे) मया (परे लोए) परो लोकः स्वर्गादिरूपः (न दि) दंश मशक आदि परीषहों का कथन करते हैं-'पुट्टो य' शब्दार्थ-'दंसमसएहि-दंशमशकै.' दंश और मशकों द्वारा 'पुटोस्पृष्टः' स्पर्श किया गया अर्थात् काटा गया तथा 'तणफासमचाइयातृणस्पर्शमशक्नुवन्' तृणस्पर्श को नहीं महसकता हुआ साधु ऐसा भी विचार कर सकता है कि 'मे-मया' मैंने 'परलोए-परलोकः' स्वर्गादि रूप परलोक को तो 'न दिढे-न दृष्ट:' प्रत्यक्ष रूप से देखा नहीं है 'परंपरंतु' तथापि 'जइ-यदि' कदाचित् 'मरणं सिया-मरणं स्यात्' इस कष्ट से मरणतो स्पष्ट दिखता है और कोई फल दीखता नहीं है ॥१२॥ अन्वयार्थ-दंशमशक परीषह अर्थात् डांस मच्छरों के डंसने पर तथा त गस्पर्श परीषह को सहन न करसकने के कारण अर्थात् अकिंचन होने से घाम पर शयन करते हुए उसके कठिन स्पर्श को महन न कर सकने से साधु कदाचिन इसप्रकार विचार करे परलोक तो मैंने देखा - હવે સૂત્રકાર ડાંસ, મચ્છર આદિ દ્વારા આવી પડતાં પરીષહેનું ४थन छ- 'पुट्ठो य' त्यहि साथ-दसमसपहि-दशमशकैः' श भने भश । द्वारा 'पुटो-स्पृष्टः' २५ ४२वाभा मावेल अर्थात् ३२७वामी मावेस तथा 'तण फासमचाइयातृणस्पर्शमशक्नुवन्' तृपना २५श ने सहन न री शाकाको साधु मेवा विया२३ 'मे-मया में "परे लोए-परो लोकः' वगेरे ३५ ५सानता 'न दिवे-न दृष्टः' प्रत्यक्ष ३५थी नयी नयी 'परं-परं' त५ 'जह-यदि हाय 'मरण सिया-मरणं स्यात्' । टया मिरयत। २५९८ नेवाय छ भने ४३॥ हेमातु नथी. ॥१२॥ સૂત્રાર્થ–દંશમશક પરીષહ એટલે કે ડાંસ, મચ્છર અદિ જંતુઓ કરડવાથી જે ત્રાસ સહન કરવું પડે છે તે ત્રાસ સહન કરવાને પ્રસંગ આવે ત્યારે તથા તૃણસ્પર્શ પરીષહને સહન ન કરી શકવાને કારણે (અકિંચન હેવાને કારણે ઘાસ પર શયન કરતી વખતે તેના કઠિન પર્શ સહન ન કરી શકવાને કારણે) For Private And Personal Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २८ सूत्रकृताङ्गसूत्रे न दृष्टः प्रत्यक्षेण नोपलब्धः (परं) परन्तु (जइ) यदि कदाचित् (मरणं सिया) मरणं स्यात् अनेन क्लेशेन मरणमेव स्थात् नान्यत्फलं किमपीति ॥१२॥ ___टीका--'दंशमसएहि' दंशमशकः 'पुट्ठो' स्पृष्टः कदाविदंशमशकादिबहुले कोकणादिप्रदेशे विहरन साधुः दंशमशकैर्दष्टो भवेत् । तथा-'तणफासमचाइवा' तृणस्पर्शमशक्नुवन् तृणादौ शयनं कुर्वन् तदीयं कटोरं स्पर्श सोढुमशक्नुवन् । आर्ताः सन् एवं विचिन्तये परलोकमाये मश प्रत्रज्या गृहीता, तथा एतानि दंशमशकादि जनितदुःखानि अपि सोहानि । परन्तु स परलोकः 'न मे दिटे' मया न दृष्टः प्रत्यक्षेण, न वा परलो के अनुमानाद्यपि विद्यते । अव्यभिचरितहेतोरभावात् । अतः परं केवलम् । 'जई' यदि 'मरणं' मृत्युरे। 'सिया' स्यात् । नहीं है, परन्तु कदाचित् इस क्लेश से मेरा मरण हो जाएगा । इस कष्ट को सहन करने का अन्य कोई फल नहीं है' ॥१२॥ टीकार्थ--जहां डांस और मच्छर बहुप्रमाण से होते हैं, ऐसे कोंकण आदि प्रदेशों में विचरते हुए साधु को डांस मच्छर डंसते हैं। कभी कभी घास आदि पर शयन करना पडता है तो उसका कठोर स्पर्श सहा नहीं जाता, ऐसी स्थिति में पीडा का अनुभव करते हुए साधु कदाचित् ऐसा विचार करे-परलोक में सुख की प्राप्ति के लिए मैंने दीक्षा अंगीकार की और डांस मच्छरों के काटने के कष्ट भी सहन किये । मगर वह परलोक मैंने प्रत्यक्ष से देखा नहीं । उसके विषय में अनुमान प्रमाण भी विद्यमान नहीं है, क्योंकि अव्यभिचारी (निदोष) हेतु का अभाव है । अतः मरना ही पडेगा । કઈ અલપસવ સાધુ કયારેક આ પ્રકારને વિચાર કરે છે-પરલોક તે મેં જોયો નથી, પરંતુ આ કલેશથી મારું મૃત્યુ થઈ જશે. આ કષ્ટને સહન કરવાનું બીજુ કઈ પણ ફળ મને દેખાતું નથી.” ૧૨ા ટકાથ– જ્યાં ડાંસ, મચ્છર આદિ જતુઓ વિશેષ પ્રમાણમાં હોય છે. એવાં કાંકણ આદિ પ્રદેશમાં વિચરતા સાધુઓને ડાંસ, મચ્છર આદિ કરડે છે. ક્યારેક તેને ઘાસ આદિ પર શયન કરવું પડે છે, એવું બને ત્યારે તેનો કઠેર સ્પર્શ તે સહન કરી શકતા નથી. આ પ્રકારની પરિસ્થિતિમાં પીડાને અનુભવ કરતે તે સાધુ ક્યારેક આ પ્રકારને વિચાર કરે છે–પરલોકના સુખની પ્રાપ્તિને માટે મેં દીક્ષા ગ્રહણ કરી છે, અને તે માટે હું ડાંસ, મચ્છર આદિને ત્રાસ પણ સહન કરી રહ્યો છું. પરંતુ તે પરલેક મેં પ્રત્યક્ષ તે જે નથી. પરલેકના વિષયમાં અનુમાન પ્રમાણ પણ વિદ્યમાન નથી, કારણ કે તે વિષયમાં નિર્દોષ હેતુને અભાવ છે. પરંતુ આ ત્રાસને કારણે મરવું પડશે, એ વાત તે નિશ્ચિત છે. For Private And Personal Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. १ केशलुचनाऽसहत्वनिरूपणम् २२ अयं भावः-परलोकस्तु प्रत्यक्षतो नाऽवगम्यते, अनुमानादिकमपि नास्ति, एवं च परलोकस्तु नैव प्राप्तः । केवल मेतादृशदुःखसहनेन मरणमेव फलम् । नान्यत् , मरणाऽतिरिक्तं फलमेव न स्यादित्यगि चिन्तयेत्, कोऽपि साधुः देशकालादिपीडितः सन्निति ॥१२॥ मूलम्--संतत्ता केसलोएणं बंभचेरपराइया। तत्थ मंदा विसीयंति मच्छा विट्ठा व केयणे ॥१३॥ छाया-संतप्ताः केशलंचनेन ब्रह्मवर्यपराजिताः। ____ तत्र मन्दा विषादन्ति मत्स्या विद्धा इव केतने ॥१३॥ आशय यह है-परलोक प्रत्यक्ष से प्रतीत नहीं होता और न उसका साधक कोई अनुमान आदि प्रमाण है । इसप्रकार परलोक तो प्राप्त नहीं है, इस दुःख को सहन करने का फल मृत्यु ही है, अन्य कुछ भी नहीं । देशकाल आदि से पीडित कोई साधु इस प्रकार विचार करता है ॥ १२॥ शब्दार्थ --- 'केसलोएणं-केशल चनेन' केशलुश्चन से 'संतत्ता-सन्त. प्ता' पीडित बभचेरपराइया-ब्रह्मचर्यपराजिता' और ब्रह्मचर्य से परा जित होकर 'तत्थ-तत्र' केशलुचन में दुर्वल 'मंदा-मन्दाः' भूख पुरुष 'केयणे-केतने' जाल में 'विट्ठा-विद्धाः' फसी हुई 'मच्छा व-मत्स्याइव' मछली के जैसे 'विसी यति-विषीदंति' क्लेश का अनुभव करते हैं ॥१३॥ આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે પરલકનું અસ્તિત્વ પ્રત્યક્ષ તે દેખાતું નથી, અને તેનું અસ્તિત્વ સિદ્ધ કરનાર કોઈ અનુમાન આદિ પ્રમાણ પણ મજદ નથી. આ રીતે પરલેક સુખની પ્રાપ્તિ થવાની વાત તે દૂર રહી પણ આ દુઃખ સડન કરવાના ફળ રૂપે મૃત્યુને તે ચોક્કસ ભેરવું પડશે ! મિત સિવાય બીજું કોઈ પણ ફળ મળવાનું નથી ! દેશ, કાળ આદિધી પીડિત કોઈ સાધુ આ પ્રકારને વિચાર પણ કરે છે. ગાથા ૧રા Avati'-'केस कोण-केशढुंचनेन' ३श युयनथी 'संतत्ता-सन्तप्ताः' हुमा अर्थात पडायमान 'बंभचेरपराइया- ब्रह्मचर्घ्यपराजिताः' मने ब्रह्मय था ५. छत ने तत्य-तत्र' शयनमा 'मंदा-मन्दाः' भूम ५३५ 'केयणेकेतने' मा 'विद्वा--विद्धाः' याये । 'मच्छा व-मत्स्या- इव' भा७eीनी कम 'विसीयंति-विषोदेति' २५ मति मनो मनुल ४२ छ. ॥१३॥ For Private And Personal Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे ___ अन्वयार्थः--(केसलोरणं) केशलुंचनेन (संतत्ता) संतप्ताः पीडिताः (बंभचेरपराइया) ब्रह्मवर्यपराजिताः ब्रह्मचर्ये भग्नाः सन्तः (तत्थ) तत्र केशोत्पाटने दुर्जयकामोद्रे के वा (मंदा) मन्दा अल्पसत्वाः कातराः (केयणे) केतने जाले (विट्ठा) विद्धाः (मच्छा व) मत्स्या इव (विसोयंति) विषादंति क्लेशमनुभवति नियन्ते वा इति ॥१३॥ ___टीका-'केसलोएणं' के शलु बनेन 'संतत्ता' सन्तप्ता: पीडिताः केशोत्पाटनेन महती खलु पीडा समुत्पद्यते देहिनाम् । तादृश पीडयाऽल्पसत्वो दीनतामुपगच्छति । तथा 'बंभवेरपराइया' ब्रह्मचर्यपराजिता ब्रह्मचर्यभग्नाः सन्तः । 'तस्थ' तत्र केशकोचने प्रवककामोद्रेके सति 'मंदा' मन्दा: जडाः पुरुषः । 'विसीयंति' विषीदन्ति संयमानुष्ठानं प्रति शिथिली भवन्ति । यद्वा-सर्वथा संयमानुष्ठानात् परिभ्रष्टा एव भवन्ति । तत्र दृष्टान्तमुदाहरति-मच्छा इत्यादि । 'केयणे' केतने जाले 'पिट्ठा' विद्धाः 'मच्छा' मस्पाः 'व' इव-यथा मत्स्यो ___ अन्वयार्थ--केशलोच से पीडित होकर तथा ब्रह्मचर्य से पराजित होकर अर्थात् कामवासना का दुर्जय उद्रेक (कामवासना में अत्यन्त आतुर होकर) होने पर कायर साधु जाल में फंसे हुए मच्छों के जैसा क्लेश को अनुभव करते हैं या मर जाते हैं ॥१३॥ टीकार्थ--केशों का लुचन करने में प्राणियों को बहुत पीडा होती है और उस पीडा से कायरजन दीनता को प्राप्त होते हैं अतएव केशलोंच से संतप्त होकर तथा ब्रह्म वर्य का पालन करने में असमर्थ होकर मन्द अर्थात् धैर्यहीन पुरुष विवाद करते हैं-संयम के अनुष्ठान में शिथिल हो जाते हैं । अथवा संघमानुष्ठान से सर्वथा भ्रष्ट हो जाते हैं। इस विषय में दृष्टान्त कहते हैं-जैसे मत्स्य जाल में फंस कर और સૂત્રાર્થ-કેશલેશનથી પીડા અનુભવતે તથા બ્રહ્મચર્ય વ્રતનું પાલન કરવાને અસમર્થ એ કાયર સાધુ -કામવાસનાને દુર્જય ઉદ્રક થાય ત્યારે જાળમાં ફસાયેલી માછલીની જેમ કલેશને અનુભવ કરે છે, અને સંયમના માર્ગેથી ભ્રષ્ટ થઈ જાય છે. ટકાથ-કેશને લેચ કરતી વખતે સાધુઓને ખૂબ જ પીડા થાય છે, તે પીડાને કારણે કાયર (અપસવ) સાધુને વિષાદને અનુભવ કરે છે, એ જ પ્રમાણે બ્રહ્મચર્યનું પાલન કરવાને અસમર્થ હોય એ સાધુ કામવાસનાને ઉક થાય ત્યારે સંયમના અનુષ્ઠાનમાં શિથિલ થઈ જાય છે, અથવા સંયમને પરિત્યાગ કરી નાખે છે. આ વાતને વધુ સ્પષ્ટ કરવા માટે સૂત્રકારે નીચેનું टा-1 मास्यु छ. For Private And Personal Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. १ परतीथिकैः पीडोत्पादनम् ३१ जालेन बद्धो निःसरणोपायमनवाप्य तत्रैव जाले म्रियते तथा प्रयलकामेन परा. भूताः केऽपि साधवः सयमानुष्ठानमेव त्यति । यद्वा तादृश संयमानुष्ठाने शिथिला भवंति ॥१३॥ मूळम्-आयदंडसमोयारे मिच्छासंठियमावणा। हरिसप्पओसमावन्ना केइ लूसंतिऽनारिया ॥१४॥ छाया-आत्मदण्डसमाचारा मिथ्यासंस्थितभावना । हर्षद्वेषं समापन्नाः केपि लूपयंत्यनार्याः ॥१४॥ अन्वयार्थः--(आयदंडसमायारे) आत्मदडसमाचारा=आत्मा दण्डयते उससे बाहर निकलने का उपाय न पाकर उसी में मर जाता है, उसी प्रकार प्रपल काम से पराजित होकर कोई कोई साधु संयम का ही श्याग कर देते हैं या संयम में शिथिल पड जाते हैं ॥१३॥ शब्दार्थ-'आयदंडसमायारे-आत्मदंडसमाचाराः' जिससे भात्मा कल्याण से भ्रष्ट हो जाता है ऐसा आचार अनुष्ठान करनेवाले 'मिच्छा संठियभावणा-मिथ्यासंस्थितभावनाः' जिनकी चित्तवृति मिथ्यात्व से व्याप्त हैं अर्थात् हिंसादि में तत्पर है तथा 'हरिसप्पोसमावण्णाहर्षपद्वषमापनाः' जो राग और द्वेष से युक्त हैं ऐसे 'के ई-केपि कोई 'अणारिया-अनार्याः' अनार्य पुरुष 'लूसन्ति-लूषयन्ति' साधुको पीडा पहुँचाते हैं ॥१४॥ __ अन्वयार्थ-जिससे आत्मा दण्डित होता है या हित से रहित होता જેવી રીતે જાળમાં ફસાયેલી માછલી તેમાંથી છુટવાને માટે વલખાં મારે છે, પણ છુટવાને કોઈ ઉપાય નહીં જડવાથી તેમાં જ મરી જાય છે, એ જ પ્રમાણે પ્રબળ કામવાસનાથી પરાજિત થઈને કઈ કઈ કાયર સાધુઓ સંયમને ત્યાગ કરે છે અથવા શિથિલાચારી બની જાય છે. ગાથા ૧૩ शा-'आयदंडसमायारे-आत्मद डसमाचाराः' नाथी भामा याणथा भू थ य छ, सो मायार-मनुहान ४२वावा! 'मिच्छासंठियभावणा-मिथ्यासंस्थितभावना भनी चित्तवृत्ति मिथ्या थी व्याछ अर्थात् डिसा को३भा त५२ छ तथा 'हरिसप्पोसमावण्णा-हर्षप्रद्वेषमापन्न:' । रागद्वेषामा छ. शेवा केई-केपि' 5 'अणारिया-अनार्याः' मनाय ५२५ 'लूसंति-लूप यन्ति' साधुने ५ि१ ५डांया छ. ।।१४। સૂવાથં–જે આચારને કારણે આત્મા દંડિત થાય છે. અથવા આત્મ For Private And Personal Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे हितात् खण्ड यते येन स आत्मदण्डः एतादृशः आचारः अनुष्ठानं येषां ते तथा 'मिच्छासंठियभाषणा' मिथ्यासंस्थितभावना मिथ्यात्वोपहतदृष्टयः' (हरिसपभोसमावन्ना) हपंपद्वेषमान्नाः रागद्वेष समाकुलाः (केइ) केपि (प्रणारिया) अनार्याः (लूमंति) लूपयन्ति कर्थियति दण्डादिभिः ताडयंति साधूनिति ॥१४॥ टीका--'भायदंडसमाचारे' आत्मदण्डसमाचारः, दण्डयते खण्डयते मोक्षादधः पात्यते आस्मा येन स आत्मदण्डः साधुनिन्दाताडनादिप्राणातिपातादि. लक्षणः । समाचारः अनुष्ठानम् , एतादृश आचारो विद्यते .येषां ते आत्मदण्डसमाचाराः। तथा-'मिच्छासंठियभाषणा' मिथ्यासंस्थितभावनाः, मिथ्या-विपरीता संस्थिता कदाग्रहाभिरूढा भावना येषां ते मिथ्यासंस्थितभावनाः मिथ्यात्वोपहतबुद्धयः हिंसादिपरायणाः इति यावत् । 'हरिसप्पोसमावन्ना' इपद्वेषसमापन्नाः= हर्षश्व प्रद्वेषश्चेति हर्षपद्वेषं तदापन्नाः पापाचरणे हर्षवन्तः धर्माचरणे द्वेष वन्तः है, ऐमा आचार कहलाता है । जिनका ऐसा आचार है और जिनकी दृष्टि मिथ्यात्व के कारण उपहत हो गई है, जो हर्ष और द्वेष अर्थात् रागद्वेष से युक्त है, ऐसे कोई कोई अनार्य पुरुष साधुओं को दण्ड आदि से ताडन करते हैं ॥१४॥ टोकार्थ--साधु की निन्दा, ताडना या हत्या करना आदि कार्य, जो आत्मा को दण्डित करने वाले हैं, 'आत्मदण्ड समाचार' कहे गए हैं। मिथ्या अर्थात् विपरीत कदाग्रह रूप भावना वाले को मिथ्या संस्थित भावना' कहते हैं अर्थात् जिनकी बुद्धि मिथ्यात्व के कारण नष्ट हो गई है, जो हिंसादिपापों में तत्पर रहते हैं। जो हर्ष और હિતનું જેના દ્વારા ખંડન થાય છે, એવા આચારને “આત્મદંડ સમાચાર' કહે છે. જેમને એ અચાર છે અને જેમની દષ્ટિ મિથ્યાવને કારણે ઉપહત થઈ ગઈ છે, જેઓ રાગ અને દ્વેષથી યુક્ત છે, એવા કેઈ કેઈ અનાર્ય सो साधुमान ass 8 मारे है. ।।१४। । ટીકાથ–- સાધુ ની નિંદા, સાધુને મારપીટ, સાધુની હત્યા આદિ કૃત્ય આત્માને દંડિત કરનાર–આત્માના હિતનું ખંડન કરનાર છે. તેથી એવાં કૃત્યને “આત્મદંડ સમાચાર' કહે છે. મિદષ્ટિ જીવોને, એટલે કે વિપરીત કદાગ્રહ રૂપ ભાવનાવાળા માણસે ને મિથ્યા સંસ્થિત ભાવનાવાળા' કહે છે. આ બન્ને વિશેષથી યુક્ત લે-એટલે કે જેમની બુદ્ધિ મિથ્યાત્વને કારણે નષ્ટ થઈ ગઈ છે, જેઓ હિંસાદિ પાપમાં પ્રવૃત્ત રહે છે, જેઓ રાગ અને દ્વેષથી યુક્ત છે-એટલે કે જે એ પાપનું આચરણ કરવામાં હર્ષને અનુભવ For Private And Personal Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org समयार्थबोधिनी टीका प्र. थु. अ. ३ उ. १ परतीर्थिकैः पीडोत्पादनम् ३३ रागद्वेषाऽधीनाः । 'केई' के पि इत्यंभूताः 'अनारिया' अनार्या:-अहिंसा धर्ममनभिज्ञाः सदाचारे वर्त्तमानं साधु क्रीडामद्वेषाभ्याम् 'लसंति' ऌपर्यंति पीडयन्ति दण्डादिप्रहारैः कटुशन्देर्वा । केचित् अनार्याः आत्मदण्डसमाचाराः तथा विपरीतमतयः रागद्वेषाभ्यां साधु पीडयन्ति इति ||१४|| मूल - अप्पे पलियंते चारो चोरो ति सुवयं । " Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बंधति भिक्खु बाला सायवयण हि य ॥१५॥ छाया - अप्येके पर्यन्ते चारवर इति सुव्रतम् । बध्नन्ति भिक्षुकं बालाः कषायवचनैश्व ||१५|| द्वेष से आपन हैं अर्थात् पाप का आचरण करने में अनुरागी और धर्म का आचरण करने में देवचार हैं-रागी और द्वेषी हैं, ऐसे कोई कोई अनार्य, अहिंसा धर्म के मर्म से अनभिज्ञ लोग सदाचारपरायण साधु को क्रीडा या देव से प्रेरित होकर दण्ड आदि का प्रहार करके अथवा कटुक शब्द कहकर पीडा पहुंचाते हैं । तात्पर्य यह है कि कोई कोई आत्मा के लिए अहितकर आचरण करने वाले और विपरीत बुद्धि वाले लोंग रागद्वेष से प्रेरित होकर साधु को कष्ट देते हैं || १४ || शब्दार्थ- 'अप्पे - अप्येके' कोई 'बाला- बालाः' अज्ञानी पुरुष 'पलि यंसि - पर्यन्ते अनाये इसके आसपास विचरते हुए 'सुब्वयं सुव्रतम्' साधु को 'भिकाgi - भिक्षुकम' भिक्षुक को 'चारो चोगेसि - चारचोर इति' यह गुसचर है अथवा चोर है ऐसा करते हुए 'बर्धति - बध्नन्ति' रस्सी आदि से बचते है तथा 'कापणेहिय कषायवचनैः' कटुवचन कहकर साधुको पीडित करते हैं ||१५| કરે છે અને ધર્માચરણ કરવામાં દ્વેષ યુક્ત છે એવાં રાગ દ્વેષ યુક્ત, અને અહિંસા ધર્મોથી અનભિજ્ઞ કઇ કઇ અનાય લેકે। સદાચાર પરાયણ સાધુને પેાતાના આનંદને ખાતર અથવા દ્વેષભાવથી પ્રેરાઇને લાકડી આદિના પ્રહાર વડે અથવા કટુ શબ્દો વડે પીડા પહોંચાડે છે. આ સમસ્ત કથનને ભાવા એ છે કે કોઈ કેઈ આમહિતના ઘાતક અને વિપરીત બુદ્ધિવ ળા રાગદ્વેષથી પ્રેરાઈને સાધુને કષ્ટ દે છે. ગાથા ૧૪મા शब्दार्थ - 'अपेगे - अप्येके' अर्ध 'बाला- बालाः' अज्ञानी ५३५ 'पलियंतेसिं - पर्यन्ते' अनार्य देशना आश्रयासमा 'मुव्वयं सुव्रतम्' साधुने 'भिक्खुयं -विक्षुकम्' भिक्षुउने 'चारो-चोरोत्ति चारचौर इति' या गुप्तयरे हे अथवा और छेउता 'बंधंति - बध्नन्त' होदरी वगेरेशी मांघे छे तथा 'कसायवयणेहियकषायवचनेः' टु वयन म्हीने साधुने पांडित अर्थात् हुयी रे छे. ||१५|| सू० ५ - For Private And Personal Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे ___ अन्वयार्थ:--(अप्पेगे) अप्ये के (बाला) बालाः अज्ञानिनः पुरुषाः (पलियं. तेति' पर्यन्तेऽनार्यदेशसमीपे विचरन्तं (सुव्वयं) सुत्रत-साधुम् (भिक्खुयं) भिक्षु. कम् (चारो ,चोरो त्ति) चारचौर इति ब्रान्तः (बंधंति) बध्नन्ति रज्वादिना तथा (कसायायणेहि य) करायनैः कटुवाकौः पीडयन्ति चेति ।।१५।। टीका--'अप्पेगे' अपि एके अनार्याः पुरुषाः 'बाला' बाला अज्ञानिनासदसद्विवेकविकलाः 'पलियंतेसिं' पर्यनमसीमासु परिभ्रमन्तम् 'सुवयं' सुव्रतं साधुम् , मुष्ठु सम्यगहिंसादिवतं यस्य स तम् 'भिक्खुये' भिक्षुकं भिक्षाचरणशीलम् 'चारो चोरो त्ति' चारोऽयं चौरोऽयं स्यचिद्रूपतेर्दूतोऽयं चौरोऽयं तस्कर कर्मशीलोऽयं चेति ब्रुवन्तः । सुवतं षट्कायरक्षकं निरवधभिक्षाचरणशीलमपि मुनि चौर इति मत्वा तं क्लेशयन्ति दण्डादिना । तथा-बंधंति' बध्नन्ति रज्यादिना 'य' च पुनः 'कसायवयणेहि कषायवचनैर्भसंपन्ति । ते ऽनार्य पुरुषाः, ____ अन्वयार्थ--कोई कोई अज्ञानी पुरुष अनार्य देश के आस पास विचरते हुए साधु को चार या चोर कहते हुए रस्सी आदि से बांध देते हैं तथा कटुक वचनों द्वारा पीडा पहुंचाते हैं ॥१५॥ टोकार्थ-कोई कोई अनार्य पुरुष, जो सत् असत् के विवेक से हीन हैं, सीमा पर विचरते हुए और अहिंसा आदि व्रतों का सम्धक प्रकार से पालन करने वाले भिक्षु को यह किसी राजा का जासूस (दून) है, यह चोर है, इत्यादि कहते हुए एवं षट् माघ के रक्षक, निर्दोष भिक्षा ग्रहण करने वाले मुनि को भी बोर मान कर उसे दण्ड आदि से पीडा पहुं. चाते हैं, रस्सी आदि से बांध देते हैं और कषापयुक्त वचनों से भसना करते है। સૂવાર્થ--કઈ કે ઈ અજ્ઞાની પુરુષે અજ્ઞાની પુરુષ અનાર્ય દેશમાં વિચરતા સાધુઓને ચર, જાસૂસ આદિ માની લઈને, તેમને દોરડા આદિ વડે બાંધીને કટુ વચને દ્વારા પીડા પહોંચાડે છે. ૧પ ટીકાઈ–- સ રા નરસાંને વિવેકથી રહિત અનાર્ય પ્રદેશની સીમા પર વિચરતા, અહિંસા આદિ તેનું સમ્યક્ પ્રકારે પાલન કરનારા સાધુને કંઈ રાજાને જાસૂસ માની લઈને આ પ્રકારના કટુ વચને બોલે છે-“આ ચોર છે, આ ચાર (જાસૂસ) છે, એટલું જ નહીં પણ તેઓ તેને દેરડા વડે બાંધીને લાકડી આદિ વડે માર મારે છે તથા કષાયુક્ત વચને દ્વારા તેને તિરસ્કાર કરે છે. છ કાયના જીના રક્ષક અને નિર્દોષ ભિક્ષા ગ્રહણ કરનારા મુનિઓને પણ તેમના દ્વારા આ પ્રકારનાં કષ્ટ સહન કરવા પડે છે, For Private And Personal Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थवोधिनी टीका प्र. श्र. अ. ३ उ. १ परतीथिकैः पीडोत्पादनम् ३५ सुव्रतमपि अनार्यपरिसरे भ्रान्तम् , अां चोर इति मत्वा कदर्थयन्ति, रज्वा. दिना वध्नन्ति, क्रोधप्रधानकटुवचन भत्स यन्ति चेति ॥१५॥ पुनरप्याह 'तत्थ दंडेग' मित्यादि। मूलम्-तत्थ दंडेग संवीते मुट्टिणा अदु फलेण वा। नातीणं सरई वाले इत्थी वा कुद्धगामिणी ॥१६॥ छाया-तत्र दण्डेन संवीतो मुष्टिनाऽथ फलेन वा । ज्ञातीनां स्मरति बाला स्त्रीवत् क्रुद्धगामिनी ॥१६॥ __ अभिप्राय यह है कि अनार्य लोग देश की सीमा में विहार करने वाले सुव्रत साधु को भी चोर समझकर कष्ट पहुंचाते हैं, रस्सी आदि से बांधते हैं और क्रोधप्रधान कटुक वचन कहकर उसकी भर्सना करते हैं ॥१५॥ पुनः कहते हैं-'तत्थ दंडेन' इत्यादि। शब्दार्थ--'तत्थ-तत्र' वहां अर्थात् अनार्य क्षेत्रकी सीमा में विचरते हुए उन मुनिको 'दंडेण-दण्डेन' लाठी से 'मुट्टिणा-मुष्टिना' मुक्कासे अदुवा-अथवा' अथवा 'फलेण-फलेन' फलसे 'संबीते-संवीतः' ताडित किया हुआ 'घाले बालः' अज्ञानी पुरुष 'कुद्धगामिणी क्रुद्धगामिनी' क्रोधित होकर घरसे निकलकर भागने वाली इत्थीव-स्त्रीव' स्त्री के जैसे 'नातीणंनातीनां अपने स्वजन वर्ग को 'सरई-स्मरति' स्मरण करता है ॥१६॥ આ કથનનો ભાવાર્થ એ છે કે અનાર્ય લેકેના પ્રદેશની સીમા પાસેથી વિહાર કરનારા સુવ્રતધારી સાધુને પણ ચોર આદિ સમજીને અનાય લેકે દેરડા વડે બાંધીને મારે છે તથા કટુ શબ્દો બેલીને તેમની ભટ્સના કરે છે. ગાથા ૧પ આ પ્રકારના પરીષહે આવી પડે ત્યારે અલ્પસર્વ સાધુ પર તેની કેવી अस२ थाय छे, ते सूत्रा२ ५४८ ४२ छ.-'तत्थ दंडेन' त्या शाय--'तत्थ-तत्र' या मर्थात् मनाय क्षेत्रनी सीमामi () तां ते भुनाने 'दंडेण-दण्डेन' 1872ी 'मुट्ठिणा-मुष्ट ना' मुहाथी 'अदुवा-अथवा' अथवा फलेण-फलेन' थी 'संवीते. संवीतः' भाकामां आवेत 'बाले-बालः' मज्ञानी ५३५ 'कुद्धगामिणी-क्रुद्धगामिनी' धित थने घरेयी नितीन लागवाणी 'इत्थीव-स्त्रीव' श्रीनाम 'न तीणं-ज्ञातीनां पाताना २२४ , 'सरइ-स्मरति' २०२५ छ. ।।१६। For Private And Personal Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ३६ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे अन्वयार्थ : - - (तत्य ) तत्रानार्यक्षेत्र सीमासु विचरतं मुनिं (दंडेण) दण्डेन यष्टयादिना ( मुडिणा) मुष्टिना ( अदुवा ) अथवा ( फलेग) फोन = मातुलिंगादिना (संगीत) संत्रीतः महृतः कश्विदपरिणतः (वाले) वालो मुनिः बाल इव (कुदगामिणी) द्वगामिनी ( इत्थोव) स्त्री व (नाती) ज्ञातीनां (सरई) स्मरतीति ॥१६॥ टीका- ' तत्थ' तत्र=स्मिन्ननार्थ देशपरिसरे निःसाधुः तादृशानायैः पुरुषैः । 'दंडे' दण्डेन = यष्टचादिना 'अदु' अथवा 'मुट्टिणा' मुष्टिना 'वा' अथवा 'फलेग' फलेन = मातुलिंगादिना फळेन 'संगीत' संवीतस्ताडितः 'वाले' वाळा= अपकमतिः कवित्साधुः तत्र ताडनादिसनये 'नातीणं सरई' ज्ञातीनां स्मरति " अत्र कर्मणि षष्टी' स्ववान्धादिकं स्मरति । यत्र एकोऽपि बान्धवो अन्वयार्थ - अनार्य क्षेत्र की सीमा पर विचरते हुए साधु को डंडे से, मुड्डी से या फल से प्रहार किया जाता है तो कोई कोई बाल जैसा साधु अपने ज्ञातिजनों को उसी प्रकार स्मरण करता है जैसे क्रोध करके घर से बाहर निकली स्त्री उन्हें स्मरण करती है ॥ १६ ॥ टीकार्थ --अनार्य देश के समीप विचरता हुआ साधु उन अनार्य पुरुषों के द्वारा डंडे से अथवा मुट्ठी (घूसे) से अथवा विजोरा आदि फलों से ताडना पाकर, अपरिपक्व वुद्धि वाला होने के कारण ताडना के समय अपने बन्धु बान्धव आदि ज्ञातिजनों का स्मरण करता है । वह सोचता है अगर यहां मेरा कोई एक भी बन्धु (सहायक) होता तो ऐसी पीडा का अनुभव न करना पडता । मेरा कोई आत्मीयजन रक्षक સૂત્રા-અના ક્ષેત્રની સીમા પર વિચરતા સાધુએને લાકડીએના પ્રહાર, મૂળના પ્રહાર ઘુમ્મા તથા લાતાના પ્રહર સહન કરવા પડે છે. આ પ્રકારની પરિસ્થિતિ ઉત્પન્ન થાય ત્યારે કોઈ કોઈ ખાલ (અજ્ઞાની) અને અલ્પસવ સાધુ અસહાય દશાને અનુભવ કરે છે, અને જેવી રીતે ધવેશમાં ગૃહત્યાગ કર નારી શ્રી મુશ્કેલી આવી પડતાં કુટુંબીએ અને જ્ઞાતિજનાને યાદ કરે છે, એજ પ્રમાણે એવા સાધુ પણ પેાતાના કુટુબીઓ અને જ્ઞાતિજનોને યાદ કરે છે. !૧૬૬ ટીકા--કાઈ કોઈ વાર અનાય દેશેશની સરહદ પાસેથી વિહાર કરતા સાધુઓને અનાર્યો લાકડીએ મારે છે, ધુમ્મા મારે છે અને બીજોરા આદિ ફળાને તેમના પર ઘા કરે છે. આ પ્રકારની પરિસ્થિતિ ઉદ્ભવે ત્યારે ક્રાઇ કાઇ અપરિપકવ બુદ્ધિવાળા સાધુએ પેાતાના બન્ધુએ માદિ જ્ઞાતિજનાનું સ્મરણુ કરે છે. તેએ વિચાર કરે છે કે જો અહી મારા એક પણ મધુ આદિ For Private And Personal Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ___www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थवोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. १ सूत्रकृतोपसंहारः ३७ भवेत, तदा मे-एमिरेताहशी पीडा नो भवेत् । यस्मानास्ति कोऽप्यात्मीयो रक्षकोऽतएवेमे मामित्वं कर्थयन्ति । तत्र दृष्टान्त दर्शयति-'इत्थी वा कुद्धगामिणी' स्त्रीवत् क्रुद्धगामिनी । यथा काचित् अविवेकवती स्त्री क्रोधात् स्वगृह परित्यज्य निर्गता मार्गे असभ्यपुरुषः कदाथिता, नत्र निराश्रया सती ज्ञातीन् (ज्ञातीनाम्) स्मरति । तथा-अयमपि अकमतिः साधुः ज्ञातीन् स्मरति ॥१६॥ -- अथ उपसंहरनाह सूत्रकारः- एते भो कसिणा' इत्यादि । मूलम्-एए भो कसिणा फासा फरुमा दुरहियालया। हत्थी वा सरसं वित्ता कीवावासा गया गिहं ॥१७॥ तिबेमि॥ छाया--एते भोः कृत्स्ना स्पर्शः परुषा दुरधिसह्याः । हस्तिन इव शरसंबीला क्लीना अवशा गता गृहम् ॥१७'इति ब्रवीमि ।। नहीं है, इसी कारण ये मुझे सता रहे हैं। इसी विषय में दृष्टान्त प्रद. शित किया गया है-जैसे कोई विवेकविहीन स्त्री क्रोध में आकर घर को त्याग कर बाहर निकल पडी, मार्ग में असभ्य पुरुषों ने उसे सताया। तब वह निराधार होकर अपने ज्ञातिजनों को स्मरण करती है । उसी प्रकार अपरिपक्व बुद्धि वाला साधु भी ज्ञातिजनों को स्मरण करता है ॥१६॥ सूत्रकार उपसंहार करते हुए कहते हैं-'एए भो कसिणा' इत्यादि । शब्दार्थ--'भो-भोः' हे शिष्यो! 'एए-एते' पूर्वोक्त दंडादि रूप परीषहोपसर्ग 'कसिणा फासा-कृत्स्नाः स्पर्शाः' समस्त स्पर्श-'फरसा સહાયક હેત તે માટે આવી પીડાનો અનુભવ કરે ન પડત. અત્યારે મારી રક્ષા કરનાર કઈ પણ આત્મીયજન મારી સાથે નથી, તે કારણે આ લેકો મને હેરાન કરે છે. આ વાતને સ્પષ્ટ કરવા માટે નીચેનું દષ્ટાન આપવામાં આવ્યું છે-કોઈ સ્ત્રી ક્રોધાવેશમાં ઘર છેડીને નીકળી ગઈ માર્ગમાં કઈ અસભ્ય પુરુષ તેની પજવણી કરવા લાગ્યા. ત્યારે તે પિતાની નિરાધાર દશા જોઈને પિતાના આત્મીયજનને યાદ કરવા લાગી. એ જ પ્રમાણે અપરિપકવ બુદ્ધિવાળે સાધુ પણ આ પ્રસંગ આવી પડે ત્યારે પિતાના સંસારી સગાં १४ावाने या ४२ छ. ॥ १६॥ डवे सूत्रने। 3५ .२ ७२ता सू४.२ ४ छ- एए भो करिणा' या श:--भो-भोः' शिष्य! ! 'एए-एते 40 पूछित ३५ परिष३.५स कमिणाफामा-कृत्स्नाः स्पर्शाः' सर ४ २५५ 'फरुसा-परुषाः' For Private And Personal Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे ___ अन्वयार्थः--(भो) भोः भोः शिष्याः (एए) एते पूर्वोक्ताः दण्डादिघात रूपाः परीषहोपसर्गाः (कसिणा फासा) कृत्स्नाः स्पर्शाः (फरुसा) परुषाः कठिनाः (दुरहियासया) दुरधिसह्याः दुःखेन सोढुं योग्याः एतानसहमानाः केचनलघुपतयः, (सरसंविता) शरसंवीताः-रणशिरसि शरताडिताः (हत्थी व) हस्तिन इच (कीवा) कळीवाः कातराः पुरुषाः (अवसा) अवशाः परायत्ताः कर्माधीनाः गुरुकर्माणः (गिह) गृहं (गया) गताः गच्छंति परित्यज्य साधुवेशम् । (त्ति बेमि) इति ब्रवीमि अहमिति ॥१७॥ ____टीका-गुरुरुपदिशति शिष्यान् 'भी' भोः भोः शिष्याः। एते पूर्वोक्ताः दण्डादिधातादिरूपाः परीपहोपसर्गाः, 'कसिणा' कृत्स्ना =निखिला अपि परुषाः' कठिन 'दुरहियासा-दुरधिसह्याः' और दुःसह हैं 'सरसंवित्तीशरसंवीताः' बाणों से पीडित 'हस्थी व-हस्तिन इव' हाथी के जैसे 'कीया-लोवाः' नपुंसक पुरुष 'अवसा-अयशाः' घबराकर 'गिह-गृहम्' करको ‘गया-गताः' चले जाते हैं अर्थात् साधु वेश को छोडकर चले जाते हैं ॥१७॥ ___अन्वयार्थ--हे शिष्यो ! ये पूगेत सब स्पर्श अर्थात् परीषह और उपसर्ग कठोर हैं, दुस्सह हैं, इनको सहन न करते हुये कोई कोई लघु बुद्धि साधु, संग्राम के शीर्ष भाग में स्थित हस्ती के समान कायर एवं विवश होकर साधुवेश त्याग कर घरचले जाते हैं । ऐसा मैं कहता हूं ॥१७॥ टीकार्थ-गुरु शिष्यों को सम्बोधन करके उपदेश करते हैं-हे अन्तेवासियो ? ये पूर्वोक्त दण्ड का आघात आदि परीषह और उपसर्ग रूप - 'दुरहियासा-दुरधिसह्याः' मने दुमा छ. 'सरसंपित्ता- शरसंवीताः' । थी पी.डत 'हत्यी व-हस्तिन इव' हथीनी म 'कीबा क्लीबाः' नपुस ५३५ 'अवसा-अवशा.' आमराईने 'गिह-गृहम्' धे२ 'गया-गताः' याय य छ, सत् साधुवेशने छ। ३२ ता २९ छ. । १७॥ सूत्राथ-3 शिष्य ! पूर्वरित सघणा-२५i-परीष भने ७५सीઘણા જ કઠેર-સ્સહ છે. તેમને સહન ન કરી શકનારા કઈ કઈ અપરિ. પકવ બુદ્ધિવાળા સાધુએ સંગ્રામને એ ખરે ઊભેલા હાથીની જેમ કાયર અને વિવશ થઈને સાધુવેશને ત્યાગ કરીને ફરી સંસારમાં ચાલ્યા જાય છે, એવું (सुषमा स्वाभी) हुँछुः ।१७। ટીકાર્થ–સુધર્મા સ્વામી પિતાના સિબેને આ પ્રમાણે ઉપદેશ આપે છે હે અંતેવાસીઓ! લાકડીના પ્રહાર આદિ પૂર્વોક્ત પરીષહ અને ઉપસર્ગ રૂપ સમસ્ત સ્પર્શી (અનુભવે) ઘણા જ દુસહ હોય છે. એવાં પરીષહે. For Private And Personal Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. भ. ३ उ. १ सूत्रकृतोपसंहारः 'फासा' स्पीः जाडनादिरूपाः सर्वेऽपि 'फरुमा' परुषाः रूक्षाः अनाय्य कृतस्वात् पीडाकारिणः इति यावत् । 'दुरहिया' दुरधिसह्याः दुःखेनापि सोहुम. शक्या भवन्ति, 'सरसंघीता' शरसंत्रीता:रणशिरसि तीक्ष्णशरेण ताडिता: 'हत्थी व हस्तिनः इस 'कीचा' कहीवाः कातराः 'अवमा' अवशाः गुरुकर्माणः 'गि' गृहं गया' गताः गच्छन्ति । इमे ऽल्पप्रकृतयः साधवोऽपि, प्रतिकूलोप. सगैः पूर्वप्रदर्शितदंशमशकादिभिः बाधिताः सोढतान् असमर्थाः पुनरपि परित्यक्तमपि गृहबासमाश्रयन्ति । तमेव शरणं मन्यमानाः इति ब्रीमि । सुधर्मस्वामी शिष्येभ्यः कथयतीति भावः ॥१७॥ इति श्री विश्वविख्यातजगबल्लभादिपदभूपितबालब्रह्मचारि 'जैनाचार्य पूज्यश्री घासीलाल व्रतिविरचितायां श्री "समयार्थ कोधिन्याख्याया" व्याख्यायां तृतीयमध्ययनस्य प्रथमोदेशकः समाप्तः ॥३-१॥ समस्त स्पर्श वडे कठोर होते हैं अर्थात् अनार्य पुरुषों द्वारा दिये हुए यह उपसर्ग पीड़ा जनक होते हैं। इनको सहन करना अतीव कठिन है। इन उपमर्गों के आने पर कोई कोई साधु युद के अग्रभाग में स्थित हाथियों के समान कातर हो जाते हैं, और साधुवृत्ति त्याग कर घर का रास्ता पकड़ लेते हैं। __ अभिप्राय यह हैं कि धैर्य होन साधु पूर्वप्रदर्शित दंशमशा दंडप्रहार आदि प्रतिकूल उपसर्गों से बाधित होकर उन्हें सहन करने में जब अस मर्थ हो जाते हैं तो त्यागे हुए गृहवास को पुनः स्वीकार कर लेते हैं। वे गृहवास को ही शरणभून मान बैठते हैं । ऐमा में कहता हूँ, यह सुधर्मा स्वामी अपने शिष्यों से कहते हैं ॥१७॥ तृतीय अध्ययन का प्रथम उद्देशक समाप्त ॥ અને ઉપસર્ગો આવી પડે ત્યારે કઈ કઈ કઈ અપસ, કાયર સાધુએ સમરાંગણના અગ્રભાગમાં સ્થિત હાથીની જેમ ડરી જઈને અથવા વિવશ થઈ જઈને સાધવૃત્તિને ત્યાગ કરીને ઘરનો રસ્તે પકડી લે છે– સંસારમાં પાછાં ફરી જાય છે આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે પૂર્વ પ્રદશિત શત પરીષહ. ઉષ્ણુ પરીષ, ડાંસ અને મચ્છર કરડવા રૂપ પરી પહ, લાકડીના પ્રહાર આદિ પ્રતિફળ ઉપસર્ગોથી ત્રાસી જઈને કોઈ ધૈર્યહીન સાધુ જ્યારે તેમને સહન કરવાને અસમર્થ બની જાય છે, ત્યારે એક વાર ત્યાગ કરેલા ગૃહવાસને ફરી સ્વીકાર કરી લે છે. તેઓ ગૃહવાસને જ શરણભૂત માને છે, એવું હું કહું છું. આ પ્રમાણે સુધર્મા સ્વામી પોતાના શિષ્યોને કહે છે. ગાથા ૧છા ત્રીજા અધ્યયનને પડેલે ઉદ્દેશક સમાપ્ત For Private And Personal Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे द्वितीयोदेशकः मारभ्यतेतृतीयाध्ययनस्य प्रथमोद्देशकः समाप्तः । अधुना द्वितीयोदेशकस्याऽऽरंभः क्रियते । इहोपमर्गपतिपादनपरके तृतीयाऽश्यने उपसर्गाः प्रतिपिपादयिपिताः । ते उपसर्गाः पतिकूला अनुकूलाच, तत्र प्रतिकूलोपसर्गाणां प्रतिपादनं तृतीयाध्ययनस्य प्रथमोद्देशके संवृत्तम् । प्रकृतोद्देशकेऽनुकूला उपसर्गाः प्रतिपादनीयाः, इत्यनेन संबन्धेन माप्तस्य द्वितीयोदेशकस्येदं प्रथमं सूत्रमाह-'अहिमे सुहुमासंगा' इत्यादि। मूलम्-अहिमे सुहुमा संगा भिक्खुणं जे दुरुत्तराः। तत्थ एगे विसीयंति ण चयंति जवित्तये ॥१॥ छाया--प्रथेमे सूक्ष्माः संगाः भिगो ये दुरुत्तराः । तत्र एके विषीदन्ति न सक्नुवन्ति यापयितुम् ॥१॥ दूसरे उद्देशे का प्रारंभतीसरे अध्ययन का प्रथम उद्देशक समाप्त हुआ। अब दूसरा उद्दे शक आरम्भ किया जाना है। तीसरा अध्ययन उपसर्गों का प्रतिपादन करने वाला है। इसमें उन्हीं का प्रतिपादन करना अभीष्ट है। उपसर्ग दो प्रकार के होते हैं प्रतिकूल और अनुक्क। प्रतिकल उपसर्गो का पतिपदन तीसरे अध्ययन के प्रथम उद्देशक में हो चुका है। इस उद्देशक में अनुकूल उपसर्गों का प्ररूपण करना है। इस सम्बन्ध से प्रास दूसरे उद्देशक का प्रथम सूत्र यह है 'अहिमे सुद्धमा' इत्यादि । બીજા ઉદ્દેશાનો પ્રારંભત્રીજા અધ્યયનનો ઉદ્દેશક પૂરો થયો. હવે બીજા ઉદ્દેશકની શરૂઆત થાય છે. ત્રીજા અધ્યયનમાં ઉપસર્ગોનું પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું છે. S५सी मे २-डाय छे-(१) प्रतिष माने (२) अनु. alon यથનના પહેલા ઉદ્દેશકમાં પ્રતિકૂળ ઉપસર્ગોનું પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું છે. હવે આ બીજા ઉદ્દેશકમાં અનુકુળ ઉપસર્ગોનું પ્રરૂપણ કરવામાં આવશે. પહેલાં ઉદ્દેશક સાથે આ પ્રકરને સંબંધ ધરાવતા બીજા ઉદ્દેશકનું पडेडसूत्र मा प्रभा छ – 'अहिमे सुहुमा' For Private And Personal Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. म. ३ उ. २ अनुकूलोपसर्गनिरूपणम् ४१ अन्वयार्थ:--(अह) अथ अतिकूलोपसर्गकथनानन्तरम् (इमे) इमे=अनन्तरं वक्ष्यमाणाः (मुहुमा) सूक्ष्मा-परैरलक्ष्यत्वात् (संगा) संगा मातापित्रादिसंबन्धाः (जे) ये संगाः (मिक्खूर्ण) भिक्षूणांसाधूनामपि (दुरुत्तरा) दुरुत्तरादुर्लध्याः (एगे) एके-केचन पुरुषाः (तस्य) तत्रतस्मिन्ननुकूलोपसर्गे (विसीयंति) विषीदन्ति शिथिलाचारिणो भवन्ति संयम वा त्यजन्ति अथवा (जवित्तये) यापयितुम् = संयमे स्वात्मानं व्यवस्थापयितुं (ण चयंति) न शक्नुवन्तिन समर्थाः भवन्तीति ॥१॥ ____ शब्दार्थ-'अह-अध' प्रतिकूल उपसर्ग के कथनानन्तर 'इमे-इमे' ये अनन्तर कहे जाने वाले 'सुहुमा-सूक्षमाः' सूक्ष्म बहार नहीं दिखने वाले 'संगा-संगा' मातापित्रादि एवं बांधव आदि के साथ का संबंधरूप उपसर्ग होते हैं 'जे-ये ये संग 'भिक्खूण-भिक्षूगां साधुओं के द्वारा 'दुरुत्तरा-दुरुत्सरा' दुरुत्तर-अर्थात् दुस्तर हैं' 'एगे-एके' कोई पुरुष 'तस्थ-तत्र' उस संयंवरूप उपसर्ग में 'विसीयंति-विषीदन्ति' विषाद को प्राप्त होते हैं अर्थात् शिथिलाचारी होते हैं अथवा 'जवित्तये-यापयितुम्' संयमपूर्वक अपना निर्वाह करने में 'न चयंति-न शक्नुवन्ति' समर्थ नहीं होते हैं ॥१॥ ___ अन्वयार्थ-यह जो सूक्ष्म अर्थात् दूसरों को प्रतीत न होने वाले संग माता पिता आदि के सम्बन्ध हैं, वे साधुओं के लिए भी दुर्जेय हैं। कोई कोई साधुजन अनुकूल उपसर्गों के आने पर विषाद युक्त हो जाते हैं-शिथलाचारी बन जाते हैं अथवा संयम का त्याग कर बैठते हैं। वे अपनी आत्मा को संयम में स्थिर रखने में समर्थ नहीं होते हैं।१। शहा - 'अह-अथ' प्रतिम ५सना यनानन्तर 'इमे-इमे' मा मानन्त२ ४७वामां मा 'सुहुमा-सूक्ष्माः' सूक्ष्म मार नही मापापासंगा-संगा' भाता पासव' मा वगैरेनी साना स ५३५ ५सयाय छ 'जे-ये' मा स 'भिक्खूण-भिक्षणां' साधुयाना द्वा२। 'दुरुत्तरा-दुरुत्तराः' इत्त२ अर्थात् स्तर छ. 'एगे-एके' ७५३५ 'तत्थ-तत्र' ते ३५ पसभा विसीयति -विषीदन्ति' विषाहने प्राप्त थाय छ, अर्थात् शिथियारी मनी नय. भया 'जवित्तये-यापयितुम्' संयमपूर याताना निवाल ३२वामा 'न चयंति-न शक्नुवति' समय यता नथी. । १॥ સૂત્રાર્થ-આ જે આ સૂફમ-અન્યના દ્વારા જાણવામાં આવનારો-સંગ છેમાતાપિતા આદિને સંબંધ છે, તે સાધુઓને માટે પણ દુર્જાય છે. અનુકૂળ ઉપસર્ગો આવી પડે ત્યારે કોઈ કઈ સાધુઓ વિષાદને અનુભવ કરે છે– -શિથિલાચારી બની જાય છે, અથવા સંયમને ત્યાગ કરી નાખે છે. તેઓ પિતાના આત્માને સંયમમાં સ્થિર રાખી શકવાને સમર્થ હોતા નથી. ૧૫ For Private And Personal Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४२ सूत्रकृतास्त्रे टीका-'अहिमे' अथ इमे, अत्राऽथशब्द आनन्तर्येऽर्थे विद्यते । तथा च पतिकूलोपसर्गानन्तरमनुकूलोफ्सा निरूप्यन्ते । तेऽनुकूलोपसर्गाः के ? कयंभूताः तत्राह-'सुहमा' सूक्ष्माः प्रायशः इमे प्रतिपायमानाः अनुकूलोपसश्चेितोविकारकारितया सक्षमा आन्तराः । न तुः प्रतिकूलोपसर्गा इव प्राचुर्येण देहादिविकारकारित्वेनाऽतिपकटतया बादरा एते भवन्ति । ...ते के तबाह--- संगा' संगा:-मातापित कलत्रपुत्रादिसंबन्धाः । एते संगाः 'भिक्खूण' भिक्षूणामपि । दुरुत्तरा' दुरुत्तरा: दुरस्क्रिमणीया इति । मायशः मरणान्तिकैरपि दुःवै कननक' प्रस्कूिलोपसमें:' कदाचिन्माध्यस्थगवृत्तिमासाध महापुरुषास्तानधिसहित क्षमन्ते । परन्तु एते तु अनुकूलोपसर्गाः महा. टीका-'अर्थ' यहां अनन्तर अर्थ में हैं। इसका अभिप्राय । इसका अभिप्राय यह है कि प्रतिकूल उपनगों का प्रतिपादन करने के अनन्तर अनुकूल उपसगों का निरूपण किया जाता है। अनुकूल उपसर्ग क्या है और कैसे होते हैं? यह स्पष्ट करने के लिए कहा गया है वे 'सूक्ष्म होते हैं, अर्थात् चित्त में विकार उत्पन्न करने वाले होने से आन्तरिक होते हैं। प्रतिकूल, उपसगों की भांति प्रचुरता से देह आदि में विकार जनक होने के कारण प्रकट रूप से स्थूल नहीं होते हैं। । वे संग अर्थात् अनुकूल उपसर्ग माता, पिता, पत्नी, पुत्र आदि के सम्बन्ध रूप हैं । इनको जीतना कठिन होता है । मारणान्तिक अथवा अत्यन्त दुःख जनक प्रतिकूल उपतों के आने पर महापुरुष कदाचित् मध्यस्थभाव धारण करके उनको मान कर लेते हैं, परन्तु ये अनुकूल ... टी -डी 'अथ' मा ५६ जन्तर' (त्या२माह)नी मनु वाय છે. તેને આશય એ છે કે પ્રતિકૂળ ઉપસનું પ્રતિપાદન કરીને હવે સૂત્રકાર અનુકૂળ ઉપસર્ગોનું નિરૂપણ કરે છે. અનુકૂળ ઉપસર્ગો કેવાં હોય છે, તેનું હવે સૂત્રકાર સ્પષ્ટીકરણ કરે છે–તેઓ સૂફમ હેય છે, એટલે કે ચિત્તમાં વિકાર ઉત્પન્ન કરનારા હોવાથી તેઓ આતરિક હોય છે. પ્રતિકુળ ઉપસની જેમ તેઓએ શરીર આદિમાં વિશેષ પ્રમાણમાં વિકારજનક નહી હેવાને કારણે સ્થૂલ હોતા નથી. - मनु॥ ५सगे माता, पिता, पुत्र, पत्नी महिना स॥ (समय) રૂપ હોય છે. તેમને જીતવાનું કાર્ય ઘણું જ મુશ્કેલ છે. કદાચ મારણાનિક અથવા અત્યંત દુઃખજનક પ્રતિકૂળ ઉપસર્ગો આવી પડે ત્યારે મહાપુરુષો મધ્યરથ ભાવ ધારણ કરીને તેમને સહન કરી લે છે, પરંતુ આ અનુકૂળ For Private And Personal Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समार्थबोधिनी टीका म. शु. अ. ३ उ. २ अनुकूलोपसर्गनिरूपणम् त्मनां महतामपि मनोरावनात् मन्यावयन्ति । अत इमेऽनुकूलोपसगी' दुरु तरा इति । 'जत्थ' यस्मिन् यस्मिन्ननुक्लोपसर्गे संपाप्ते सति । 'गे' एके= अल्पसत्याः पावनः' सदनुष्ठानं प्रति । विसीतिः विपीदन्ति विहारादिषु साधुकृत्येषु शिथिलप्रयत्ना भवन्ति । यद्वा-सर्वस्वजन्ति प्राप्तमपि संयमादिकम् । 'जवित्तये' यापयितुं = संयमं पारवितुम् | 'ण चयंति' नैव शक्नुवन्ति कथमपि संयमानुष्ठाने आत्मानं व्यवस्थापयितुं समर्था न भवन्ति । पतिकूलोपस:, गस्तु कदाचित्सामा सोढा भवन्त्यपि, किन्तु अनुकूलोपसहने महतामपि.. धैर्य स्खलति ||१|| तानेव अनुकूलोपसर्गानाह - 'अप्पे नायओ' इत्यादि । 9 3 मूत्रम्-अप्पेगे नायओ दिस्सा रोयति परिवारिया । ११ १० 93 १२ पोसताय पुट्रोस करसताय जहासि जी ॥ २ ॥ उपसर्ग बडे बडे महात्माओं के मन को भी धराधना से विचलित कर देते हैं । इस कारण इनको जीतना बडा ही कठिन है । इन उप" सर्गों के प्राप्त होने पर कोई कोई अल्पसत्व साधु सदनुष्ठानों के प्रतिविषण्ण हो जाते हैं अर्थात् बिहार आदि साधुकृत्यों में शिथिल बन जाते हैं अथवा प्राप्त हुए संयम का पूरी तरह स्याग कर देते हैं । वे संयम का पालन करने में असमर्थ हो जाते हैं । अभिप्राय यह है कि प्रतिकूल उपसर्ग तो कदाचित् साहस वीरत्व का अवलम्बन करके सह लिए जाते हैं परन्तु अनुकूल उपसर्ग सहने में बड़ों बडों का भी धैर्य छूट जाता है ॥ १ ॥ ઉપસર્યાં તે મેટા મોટા મહાત્માઓના મનને પણ ધર્મારાધનામાંથી વિચલિત કરી દે છે. તે કારણે અનુકૂળ ઉપસર્ગો પર વિજય પ્રાપ્ત કરવાનું કાર્ય અતિ દુષ્કર ગણાય છે. આ પ્રકારના ઉપસગેર્યાં આવી પડે ત્યારે કોઇ કોઈ અલ્પ સવ સાધુ સહનુષ્કાનાના પાલનમાં શિથિલ બની જાય છે, એટલે કે વિહાર આદિ સાધુ કૃત્યામાં શિથિલ બની જાય છે. અથવા તેએ સંયમનું પાલન કરવાને એટલા બધાં અસમર્થ થઇ જાય છે કે સંયમના (સાધુવ્રુત્તિને) પણુ પૂરેપૂર ત્યાગ કરી નાખે છે.. या उथननो भावार्थ : छे है अति उपसर्गो तो म्हारा साहसवसमत वर्धने सड़न पुरी लेवामां आवे छे, परन्तु अनुज उपसर्गो साउन કરવાના પ્રસંગ આવે ત્યારે ભલ ભલાંનું Üય એગળી જાય છે. ગાથા ૧ For Private And Personal Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे छाया--अप्ये के ज्ञातयो दृष्ट्वा रुदन्ति परिवार्य च । पोषय नस्तात पोषितोऽसि कस्य तात जहासि नः ॥२॥ अन्वयार्थ:-(अप्पेगे) अप्येके (नायओ) ज्ञातयो-मातापित्रादिस्वजनाः (दिस्सा) दृष्ट्वा साधु (परिवारिया) परिवार्य वेष्टयित्वा (रोयंति) रुदंति (ताय) हे तात (णे पोस) नः अस्मान पोषय-पालय (पुट्ठोसि) पोषितोसि अस्मामिस्त्वं पालितोसि (ताय) हे तात (कस्स) कस्य हेतो (गो) नः अस्मान (जहासि) जहासि-त्यजसीति ॥२॥ अब उन्हीं अनुकूल उपसर्गों को कहते हैं-'अप्पेगे नायओ' इत्यादि । शब्दार्थ-'अप्पेगे-अप्येको' कोई 'नायो-ज्ञातयः' ज्ञातिषाले अर्थात् मातापित्रादि स्वजन एवं संघधिजन 'दिस्सा-दृष्ट्वा' साधु को देखकर 'परिवारिया-परिवार्य' उसे घेरकर 'रोयंति-रुदंति' रोते हैं 'ताय-तात' वे कहते हैं कि हे तात ! 'णे पोस-नः पोषय' तुम हमारा पालन करो 'पुट्ठोसि-पोषितोसि' हमने तुम्हारा पालन किया है 'तायतात' हे तात ! 'कस्स-कस्य' किसलिये तू 'णो-न' हम लोगों को 'जहासि-त्यजसि' छोड देते हो ॥२॥ ____ अन्वयार्थ-कोई कोई ज्ञाति जन साधु को देखकर और उसे घेरकर रोदन करने लगते हैं-हे तात ! हमारा पालन पोषन करो। हमने तुम्हारा लालन पालन किया है। हे तात! किस कारण से हमें त्यागते हो?॥२॥ હવે સૂત્રકાર એજ અનુકૂળ ઉપસર્ગોનું વર્ણન કરે છે. – 'अप्पेगे नायओ' त्याह wal-अप्पेगे-अध्येके' 'नायओ--ज्ञातयः' शातिवाणा अर्थात् मातापिता १५ समधी - 'दिस्सा-दृष्ट्रा' साधुन निधन परिवारियापरिवार्य त धेरीत 'रोयति-रुदति' २४ छ 'ताय-तात' तमा छ । तात! 'णे पोस-नः पोषय' तमे भा३ पासन ४२। 'पुद्रोनि-पोषितोसि' समे ३ पास यु छ 'ताय-तात' है तात 'कस्म-कस्य' । माटणो -नः' अमन 'जहासि-त्य बसि छोडी है. ॥२॥ સૂત્રાર્થ –કઈ કઈ જ્ઞાતિજને સાધુને જોઈને તેને ફરતાં વીટળાઈ વળીને કરુણાજનક શબ્દ બોલવા લાગે છે-“હે પુત્ર! અમે તારું પાલનપિષણ કર્યું છે, હવે તું અમારું પાલન-પોષણ કર. તું શા કારણે અમારે ત્યાગ કરીને ચાલી નીકળ્યો છે? પારા For Private And Personal Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टोका प्र. श्रु. अ. ३ उ. २ अनुकूलोपसर्गनिरूपणम् ४५ टीका-'अप्पेगे' अपि एके, अपि शब्दः संभावनायाम् । एके केचित् 'नायो' ज्ञातयः, मातापितृत्व जनप्रभृतयः । 'दिस्स' दृष्ट्वा साधु 'परिवारिया' परिवार्य, सर्वतो वेष्टयित्वा 'रोयंति' रुदन्ति शिरस्ताडनवक्षःस्थलताडनपुर:सरं रुदन्ति रुदन्तश्व दीनवचनं वदन्ति 'ताय' हे तात । इति कोमलामंत्रणे हे कुलतिला हे मातृपितृकुटुंबरक्षक ! बाल्यात्मभृति त्वमस्माभिः पालितोऽसि, यत् अयम् वृद्धावस्थायां मां पालयिष्यतीति मत्वा, तस्मादधुना 'गो' नः अस्मान 'वाय' तात ! पुत्र ! 'पोस' पोषय, त्वमस्माभिः बाल्याद्रक्षितः पोषितश्च, अत: परं वाक्येऽस्मान् त्वं पालय, पोषय च । 'ताय' हे तात ! 'कस्य' कस्य कृते 'ण' न:-अस्मान् 'जहासि' त्यजसि-मादृशानां दीनानां वृद्धानां पालनपोषण टीकार्थ-यहां 'अपि' शब्द संभावना के अर्थ में है। कोई कोई माता पिता आदि स्त्रजन मुनि को देख कर और उसको चारों ओर से घेरकर, मस्तक कूटकूटकर और छाती पीट पीट कर रोते हैं और रोते हुए दीनतापूर्ण वचन कहते हैं-हे तात ! 'तात' शब्द कोमल सम्बोधन के अर्थ में है, हे कुलतिलक ! हे मातापिता और कुटुम्ब के रक्षक ! हमने बचपन से तेरा लालन, पालन पोषण किया है सो यही समझकर किया है कि यह वृद्धावस्था में हमारा पालन करेगा। इस कारण हे तात! तू अब हमारा पालन कर । हमारे जैसे दीन, बूढे और पालन पोषण करने योग्य जनों का तू किस कारण से त्याग कर रहा है ? तेरे सिवाय हमारा कोई पालन पोषण करने वाला नहीं है, टी -मी'अपि' ५६ समापन अथे १५२॥यु छ. ६ ४ માતા, પિતા, આદિ મુનિના સંસારી સગાઓ મુનિને જોઈને તેને ઘેરી લઈને માથું અને છાતી ફુટતાં ફરતાં એને આકંદ કરતાં કરતાં આ પ્રકારનાં દીનતા भूपयनी मा छ-'तात ! (मही 'ता' ५६ मत समाधनना भां વપરાયેલું હોવાથી તેને અર્થ કુલતિલક સમજવો) હે માતા-પિતા અને કુટુંબના રક્ષક! અમે બચપણથી તારું લાલન-પાલન કર્યું છે. અમારી વૃદ્ધાવસ્થામાં તુ અમારું પાલન-પોષણ કરશે એવી આશા સેવીને અમે તારું લાલન-પાલન કર્યું છે. તે હે પુત્ર ! તું હવે પાલનપોષણ કર. અમારા જેવાં દીન, વૃદ્ધ અને પાલન-પોષણ કરવા યોગ્ય જનેને ત્યાગ તું શા કારણે કરે છે? તારા સિવાય અમારું પાલન-પોષણ કરનાર એવું કે છે કે જેને માથે એ જવાબદારી નાખી દઈને તું સાધુ બની ગયા છે ! તું અમારે નેધારાને For Private And Personal Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org सूत्रकृताङ्गसूत्रे योग्यानां केन हेतुना त्यागं करोषि । नहि भवन्वमन्तरा कश्चित् अस्माकं पोषको रक्षको वा विद्यते यस्मिन् मां न्यस्येहाऽऽगतोऽसि मचल स्वगृहमित्यादि ॥ २ ॥ 3 १ . मूलम् - पिया ते थेरओ ताय ससा ते खुड्डिया इमा । 6 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११ १० १२ १२ 93 94 १४ भायरो ते सगा ताय सोयरा किं जहासि णो ॥ ३ ॥ छाया - पिता ते स्थविरस्तात ! स्वसा ते झुल्किका इयम् । भ्रातरस्ते स्वकारतात ! सोदराः किं जहासि नः ॥ ३॥ अन्वयार्थ:-- ( तात) हे तात पुत्र (ते पिया) ते तव पिता (येरओ) स्थविरो वृद्धो विद्यते (इमा) इयं (ते) ते तव (सा) स्वसा भगिनी (खुड्डिया) क्षुल्लिकालवी विद्यते (ते सगा ) ते स्वकाः (सोयरा) सोदरा: (भायरो) भ्रातरः (णो किं जहासि) नः अस्मान् कि कथं जहासि त्यजसीति ॥ ३ ॥ जिसे सौंपकर तू यहां आया है ! अतएव तू अपने घर लौट चल वे इस प्रकार कहते हैं ॥२॥ शब्दार्थ- 'ताय-तात' हे तात! ते पिया ते पिता' तुम्हारे पिता 'थेरभ - स्थविर:' वृद्ध है 'हमा-इये' और यह 'ते ससा तव श्वसा तुम्हारी बहिन 'खुड़िया क्षुल्लिका' छोटी है' 'ते सगा'ते' स्त्रका' ये' तुम्हारे 'सोधरा-सोदरा:' सहोदर 'भागो भ्रातरः" भाई है 'णो किं जहासि नः किम्. स्पजसि' तू हमें क्यों छोड़ रहा है ? || ३ || अन्वपार्थ- हे लाल । तेरा पिता वृद्ध है; तेरी यह बहिन छोटी है। तेरे सहोदर भाई हैं । फिर क्यों हमें स्वागता है ? ॥ ३ ॥ પ્રકારના યાજનક વચના તે આધાર છે, તે તુ' ઘેર પાછો ફર.' આ तेने सजावे छे. गाथा २॥ 'वे शब्दार्थ- 'ताय-तात' हे तात! 'वे पिया ते बिता' तभारी' पिता 'थेरओ' - स्थविर:' वृद्ध छे 'इमा इयं' भने या सगा - तव धसा' 'तभारी मंडेन 'खुड्डिया - क्षुल्लिका' नानी के 'ते खगा-ते का' मा तमाश 'सोया सोदरा: ' सडेाहर 'भायरो - भ्रातरः' लाई छे 'णे किं जहासि नः किम् त्यजसि तु समने डेम छोडी रह्यो छे. ॥३॥ : सूत्रार्थ - डे पुत्र ! तारा पिता वृद्ध छे तारी आमडेत हुनु नानी (हाथी भरना) अव छे मातारी सोहर (गोलाई छे, छवां था भाटे तें भारी त्या यो छे ? ॥आ For Private And Personal Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. २ अनुकूलोपसर्गनिरूपणम् ४७ टीका--'तात' हे तात ! हे पुत्र ! ते पिया' ते पिता-ते तव पिता. जनकः 'थेरो' स्थविर स्थविरो विद्यते-शतवर्षवयस्कः प्रशिथिलसर्वांगः कासश्वासादिरोगपीडितो मंदजठरो नोत्थानोपवेशनसमर्थों नहि अधुना किमपि कत्तुं समर्थः । 'इमा' इयम् , प्रत्यक्षे उपस्थिता । 'ते ससा ते-सव स्वसा भगिनी 'खुड्डिया' क्षुल्लिका, कनीयसी विद्यते । एतस्या विवाहादिकमपि त्वामन्तरा का करिष्यति । हे तात : 'ते सगा' खकाः ते त्वदीयाः स्वकाः ‘सोयरा' सोदरा समानोदरमवाः भायरो' भ्रातरः-संति एते बालवयस्का मृदुस्वभावा मुग्ध घुद्धयः को त्वामन्तरा उद्धारका 'ण' ना=अस्मान् हीनदीनानशरणानत्राणान् किं कथम् केन हेतुना कं वा शरणं मम दृष्ट्वा 'जहासि' परित्यजसि । पारिषारिकाः पुरुषाः समागत्य साधु प्रति कथयन्ति एवम्-यत् हे पुत्र ! पिता से वृद्धः भगिनी कनीयसी प्राता तेऽसहायोः विद्यते । कथमेतान् परित्यजसीत्यर्थः ॥३॥ टीकार्थ--हे पुत्र! तुम्हारा पिता बुढा हो गया है । यह सौ वर्ष का है, उसके अंग अङ्ग शिथिल पड गए है, खांसी और श्वास आदि रोगों से पीडित हैं, उसकी जठराग्नि मंद पड गई है, उठने बैठने में भी असमर्थ है। अब उससे कुंछ भी करते धरते नहीं घनता । और सामने खडी हुई तुम्हारी यह बहिन अभी छोटी है। तुम्हारे विना कौन इसका विवाह आदि करेगा ? हे पुत्र ! तुम्हारे सहोदर भाई हैं। वे अल्पवयस्क हैं, मृदु स्वभाव वाले हैं, नासमझ हैं। तुम्हारे सिवाय कौन इनका उद्धार कर्ता है ? हम दीन हीनों को, शरण और त्राण से रहितों को किम कारण से त्याग रहे हो ? हमारे लिए क्या शरण देख कर हमारा परित्याग करते हो? ' ટીકાર્થ –કુટુંબીઓ સાધુ પાસે આવીને તેને આ પ્રમાણે સમજાવે છેહે પુત્ર! તારા પિતા વૃદ્ધ થઈ ગયા છે. તેમના અંગે શિથિલ થઈ ગયાં છે. ઉધરસ, દમ આદિ ગેથી તેઓ પીડાઈ રહ્યા છે. તેમની પાચનશક્તિ મંદ પડી ગઈ છે. હવે તેમનાથી કંઈ પણ કાર્ય કરી શકાતું નથી. આ તમારી સામે ઊભેલી તમારી બેનની સામે જરા નજર કરે? તે હજી ઘણુ નાની ઉંમરની છે તમારા સિવાય તેને વિવાહ કેણું કરશે? હે પુત્ર તારા નાના ભાઈઓને જરા વિચાર કર ! તેઓ હજી કાચી ઉંમરના હોવાને કારણે ઘરને તથા દુકાન આદિને ભાર વહન કરવાને અસમર્થ છે. તારા સિવાય તેની સંભાળ લેનારું બીજું કેણ છે? શું તાશ ભાઈ-બહેનની પણ તને દયા આવતી નથી? અમારા જેવા દીન, હીન અને નિરાધાર કુટુંબીજનેને શા કારણે તું ત્યાગ કરી રહ્યો છે? અમને તેના આધારે છોડીને તું સંસાર છોડી રહ્યો છે?’ આ પ્રકારના દીનતાપૂર્ણ વચનો દ્વારા સાધુના સંસારી સગાં-વહાલાઓ તેને For Private And Personal Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे -- मूल-मायरं पियरं पोस एवं लोगो भविस्सइ । एवं खु लोइयं ताय जे पालतिय मायरं ॥४॥ छाया-मातरं पितरं पोषय एवं लोको भविष्यति । एवं खलु लौकिकं तात ! ये पालयन्ति मातरम् ॥ ४॥ अन्वयार्थः--(ताय) हे तात (मायरं पियर) मातरं पितरंजननीजनको 'पोस' पोषय पालयेत्यर्थः ‘एवं' एवं मातापितृपोषणेन 'लोगो' लोकः परलोकः (मविस्सइ) भविष्यति (ताय) हे तात (एवं) एवमेतदेव (खु) खल-निश्चयतः (लोय) लौकिकं लोकाचारः (जे) ये (मायर) मातरम् (पालंति) पालयंतीति । तस्य लोको भातीति ॥४॥ आशय यह है कुटुम्बीजन आकर साधु से कहते हैं हे पुत्र तुम्हारा पिता वृद्ध है, भगिनी छोटी है और भ्राता असहाय है। इन तप को तुम कैसे स्थागते हो ? ॥३॥ शब्दार्थ-'ताय तात' हे तात! 'मायरं पियरं-मातरं पितरं माता और पिता का पोस-पोषय' पोषण करो 'एवं-एवम्' माता पिता का पोषण करने से ही लोगो-लोको' परलोक 'भविस्सइ-भविष्यति' होगा 'ताय-तात' हे तात ! 'एवं-एवम्' यही 'खु-खलु' निश्चय से 'लोइयंलौकिक' लोकाचार है कि 'जे-ये' जो 'मायरं-मातरम्' माता को 'पालंति -पालयन्ति' पालन करते हैं उनको परलोक की प्राप्ति होती है ॥४॥ अन्वयार्थ-हे पुत्र! माता पिता का पालन करो। ऐसा करने से तुम्हारा परलोक सुधरेगा। हे पुत्र ! निश्चय ही यही लोक में उत्तम आचार સંયમના માર્ગેથી વિચલિત કરવા પ્રયત્ન કરે છે. આ પ્રકારના અનુકૂળ ઉપસર્ગો આવી પડે ત્યારે અહ૫સાવ સાધુએ સંયમના માર્ગને પરિત્યાગ કરીને ફરી ગૃહવાસને સ્વીકાર કરી લે છે. ગાથા ૩ हाथ-'ताय-तात' तात! 'मायरं पियरं-मातरं पितरं माता मन पितान 'पोस-पोषय' पोषण ४२। 'एवं-एवम्' माता पितातुं पोषः ४२वाथी १ 'लोगो-छोकः' ५२ 'भविस्सइ-भविष्यति' सुधरशे 'ताय-तातः' इतात ! 'एवं-एवम्' मा 'खु-खलु' निश्चययी 'लोइयं-लौकिक' सोयार छ है जे -ये २ 'मायरं-मातरम्' भाताने 'पालंति-पालयन्ति' पासन ४२ छ, तभने परसाउनी प्राति थाय छे. ॥ ४॥ સૂત્રાર્થ–હે પુત્ર! તું માતાપિતાનું પાલન કર. એવું કરવાથી તારે પરલેક સુધરી જશે. હે પુત્ર! લેકમાં તેને જ ઉત્તમ આચાર ગણવામાં For Private And Personal Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. २ अनुकूलोपसर्गनिरूपणम् ४९ टीका-'ताय' हे तात ! 'मायरं पियर' मातरं पितर-मातर-जननीं पितरं जनकम् 'पोस' पोषय अन्नादिभिः सेवय शुश्रूषया च सेवां कुरु । एवं कृते सति, तब 'लोए' लोकः इह लोकः (एष लोकः) परलोकश्च सम्यक साधितः 'भविस्सई' भविष्यति । इह परत्र उभयस्मिन् लोके विशिष्ट स्थानं तव भविष्यति । 'एवं' एवम् इदमेव 'खु' खलु-निश्चयेन 'लोइयं' लौकिकं लोकाचारो विद्यते, यदुत 'मायरं' मातरं पितरं च 'पालंति' पालयति । अयमेव च लौकिको मार्गः यदुतमातापित्रोः वृद्धयोः परिपालनमिति ॥४॥ मूलम्-उत्तरा महुरुल्लावा पुत्ता ते ताय खुड्डुया। भारिया ते णवा ताय मा सा अन्नंजणं गमे।।५।। छाया-उत्तरा मधुरालापाः पुत्रास्ते तात ! क्षुद्रकाः । भार्या तेहि नवा तात ! मा सा ऽन्यं जनं गच्छेत् ॥५॥ है। जो माता पिता का पालन सेवा शुश्रूषा करते हैं, उन्हीं का लोक सुधरता है॥४॥ ___टीकार्थ-हे पुत्र! माता और पिता को अन्न आदि के द्वारा पाले और उनकी सेवा करो। ऐसा करने से तुम्हारा इह लोक भी सुधरेगा और परलोक भी सुधरेगा ! तुम्हारा इस लोक में और परलोक में विशिष्ट स्थान होगा। यही निश्चय से लोक की रीति है कि वृद्ध जननी और जनक की सेवा की जाय ॥४॥ शब्दार्थ-'ताय-तात' हे तात ! 'ते पुत्ता-ते पुत्राः' तुम्हारे पुत्र 'उत्सरा-उत्तरा:' उत्तरोत्तर जन्में हुये 'महुरुल्लावा-मधुरालपाः' मधुर આવે છે. જે પુત્ર માતા-પિતાનું પાલન-પોષણ અને સેવા શુશ્રષા કરે છે, તેને જ આ લેક અને પરલોક સુધરી જાય છે. - સંયમના માર્ગેથી સાધુને વિચલિત કરવા માટે તેના માતા-પિતા આદિ સંસારી સગાંઓ તેને આ પ્રમાણે કહે છે-હે પુત્ર ! માતા અને પિતાનું પાલન-પોષણ અને સેવા કરવાનું તારું કર્તવ્ય છે. એવું કરવાથી તારે આ લેક પણ સુધરી જશે અને પરલોક પણ સુધરશે, આ લોક અને પરલોકમાં તને વિશિષ્ટ સ્થાન પ્રાપ્ત થશે. સંસારને એજ સાચો વહેવાર છે કે વૃદ્ધ માતા-પિતાની સેવા કરવામાં આવે. આ પ્રકારની તારી ફરજ અદા નહી કરવાથી તારે–આ લેક અને પરલેક, અને બગડશે” ગાથા ૪ शहाथ-'ताय-तात' हे तात! 'ते पुत्ता-पुत्राः' तमास पुत्र 'उत्तरा -उत्तराः' उत्तरोत्तर मे छ 'महुरुल्लावा-मधुरालपाः' मधुर मासा. For Private And Personal Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतसूत्रे अन्वयार्थः - - ( ताय) तात - ( ते पुत्ता) ते पुत्राः (उत्तर) उत्तराः = उत्तरोत्तर जाता: ( महुरुल्लावा) मधुरालापाः = मधुरभाषिणः (खुड्डया) क्षुल्लका: =अल्पवयस्काः सन्ति (ता) हे तात ! (ते भारिया) ते भार्या = पत्नी (वा) नवा= नवीना नवयौवनेत्यर्थः (सा) सा तव भार्या (अन्न) अभ्यम् (जणं) जनम् परपुरुष प्रति (मागमे ) मागच्छेदेवं कुरु ॥५॥ टीका- 'वाय' तात हे पुत्र ! 'ते पुत्ता' ते तव पुत्राः 'उत्तरा' उत्तराः= उत्तरोत्तरं समुत्पद्यमानाः क्रमेण जाता अनेके 'महरुल्लावा' मधुरालाषाः, मधुरः मनोहारी आलापो वचनपचारो येषान्ते मधुराळापा: मिष्टभाषिणः सन्ति । अमृततुल्यं वचनं समुच्चारयन्ति एतादृशमनोज्ञपुत्राणां त्यागोऽनुचितो भवति । अतः एवं साधुवेशं विहाय गृहं चल इति । तथा - 'ते भारिया' ते तव भार्या बोलने वाले 'खुड्ड्या क्षुल्लका:' और छोटे हैं 'ताय-तात' हे तात ! 'ते भारिया - ते भार्या' तुम्हारी पत्नी 'णवा-नवा' नव यौवना है अर्थात् युवावस्था वाली है 'सा-सा' वह तुम्हारी पत्नी 'अन्नं- अन्यम्' दूसरे 'जण - जनम्' जन के पास अर्थात् परपुरुष के पास 'मागमे - मानच्छेत्' न जाने ऐसा करो ॥५॥ अन्वयार्थ - हे पुत्र ! एक दूसरे के पश्चात् उत्पन्न हुए, मीठी मीठी बोली बोलने वाले तुम्हारे पुत्र अभी छोटे हैं। तुम्हारी पत्नी नव युवती है । ऐसा करो जिससे वह दूसरे पुरुष के पास न जाय ॥५॥ टीकार्थ - हे पुत्र ! तुम्हारे कन से जन्मे अनेक पुत्र, हुए जो मधुर . आलाप करने वाले अर्थात् मिष्ट भाषी हैं, अमृत के समान वचन बोलते हैं, ऐसे पुत्रों का त्याग करना उचित नहीं है। अतएव साधु वेश त्याग वाणा 'खुड्डिया - क्षुल्लकाः' [मने नाना छे. 'ताय- तात' हे तात! 'ते भारिया - ते भार्या' तमारी पत्नी 'णवा नवा' नवयौवना छे. अर्थात् युवावस्था वाणी छे. 'प्रा - सा' ते तमारी पत्नी 'अन्नं- अन्यम्' मीन जणं जनम्' भाषसनी पासे अर्थात् २३षनी पा'मा गमे मा गच्छेत्' न लय तेवु रे ||५|| --- સૂત્રા-હે પુત્ર! તારા પુત્ર-પરિવાર, કે જે મીઠી મીઠી ખેલી ખેલનારા છે, તે હજી કાચી ઉંમરના છે. હે પુત્ર! તારી પત્ની હજી નવયૌવના છે. તુ. એવુ કર કે જેથી તે અન્ય પુરુષના સાથ ન શેાધે. પા ટીકા—માતા સાધુ બનેલા પુત્રને એવુ કહે છે કે હે પુત્ર! ક્રમેક્રમે તારે ત્યાં અનેક પુત્ર!ના જન્મ થયા છે. તારા તે પુત્રની વાણી અમૃતના જેવી મીઠી છે. એવાં લાડીલા પુત્રાના ત્યાગ કરવા ઉચિત નથી, તે સાધુને For Private And Personal Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. २ अनुकूलोपसर्गनिरूपणम् ५५ पत्नी 'णवा' नवा-नवयौवनोन्मत्ता विद्यते । त्वया परित्यक्ता सती 'अन्नं' अन्यम् 'जणं' जनम् ‘मा सा' माऽसौ 'गमे गच्छेत् , यदि त्वं तां त्यक्ष्यसि, तदा अस्थोचितमदविकारेणऽसन्मार्ग कदाचिदाश्रयेत् । अयन्ते महान् जना ऽपवाद उत्पधेत भार्यापदप्रयोगात् त्वथा पोषणीया सेति धनिः । तथा पुत्रस्य यतस्त्वं पिता, भार्यायाश्च पतिरसि, अत इमौ त्वयैव रक्षणीयौ । अन्यथा दुनिवारो जनापवादः स्यादेवेति त्यज साधुवेपं चल गृहमिति ॥५॥ मूलम्-शहि ताय घरं जामो माय कम्मसहा वयम्। वितियपि ताय पासामो जामु ताव सयं गिह ॥६॥ छाया-एहि तात ! गृहं यामो मा त्वं कर्मसहावयम् । द्वितीयमपि ताल पश्यामो यामस्तावत्स्वकं गृहम् ॥६॥ कर घर चलो। इसके अतिरिक्त तुम्हारी पत्नी अभी नवयौवना है। तुम्हारे त्याग देने पर वह परपुरुष के पास न चली जाय ! तुम उसका त्याग कर दोगे तो तरुणावस्था के योग्य कामविकार के कारण कदाचित् वह असन्मार्ग का अवलम्बन करेगी ! इससे तुम्हारा घोर लोकापबाद होगा। मूत्र में 'भार्या' शब्द का प्रयोग करके यह सूचित किया गया है कि वह तुम्हारे द्वारा भरण पोषण करने योग्य हैं । चुंकि तुम पुत्रों के 'पिता' और भार्या के पति हो अतएव तुम्हें ही उनकी रक्षा करनी चाहिए। ऐसा न किया तो लोकापवाद अनिवार्य होगा। अतएव छोहो इस वेश को और चलो अपने घर ॥५॥ વિશ છેડી દઈને આપણે ઘેર આવતા રહે. વળી તારી પત્ની પણ હજી નવ. યૌવના છે તે મુનિવેષ છેડીને ઘેર પાછો આવે નહીં તે કદાચ તે પર પુરૂષનું ઘર માંડશે જે તું તેને ત્યાગ કરીશ તો કદાચ તે કુમાર્ગે ચડી જશે. કારણ કે નવયૌવના નારીની કામવાસના નહીં સંતોષાય તે એવા માર્ગનું અવલંબન લેવાની પરિસ્થિતિ તેને માટે ઉત્પન્ન થશે. જે એવું બનશે તે લેકમાં આપણી નિંદા થશે અને આપણા કુળને કલંક લાગશે સુત્રમાં “ભાય પદને પ્રયોગ કરીને સૂત્રકારે એ વાત પ્રગટ કરી છે કે પત્નીના ભરણપોષણની જવાબદારી પતિ ઉપર હોય છે, તું પુત્રને પિતા ભાયને પતિ હોવાથી તેમના પાલનપોષણ અને રક્ષણની જવાબદારી તારી છે. જે તું તેમના પ્રત્યેની તારી જવાબદારી અદા કરવામાં નિષ્ફળ જશે, તે તેમાં જરૂર તારી નિંદા થશે. માટે કાપવાદથી બચવા માટે પણ તારે સાધુને વેષ છેડી દઈને આપણુ ઘેર આવી જવું જોઈએ. ગાથા પણ For Private And Personal Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ५२ सूत्रकृताङ्गसूत्रे अन्वयार्थ : - ( ताय ) हे तात (एहि) एहि आगच्छ ( घरं जामो ) गृहं यामः गच्छामः (माय) मा त्वं किमपि कार्यं करिष्यसि ( वयं ) वयं (कम्म सहा ) कर्म - सहाः सर्वकार्य तत्र करिष्यामः (ताय) हे तात (वितीयं पि) द्वितीयमपि द्वितीयवारम् (पासामो) पश्यामः सर्व कार्यम् (ताब) तावत् (सयं) स्त्रम् (गि) गृहस् (जामु) याम: - गच्छाम इति ॥ ६ ॥ टीका -- ताय' हे तात! त्वमसि कार्येऽतिभीरुरिति जानामि, तथापि 'एहि' आगच्छ 'घरं जामो' गृहं यामः, 'माय' मा स्वम् । पुत्र ! चल गृहम् । गृहकर्मत्वया किमपि न कर्त्तव्यम्, वयमेव सकलकार्य करिष्यामः, कार्यभया Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शब्दार्थ - - ' ताय - तात' हे तात! 'एहि एहि आवो 'घरं जामोगृहं यामः' घर जावें 'माघ- मा त्वम्' अब तू कोई काम मत करना 'वयं-वयम्' हम लोग 'कम्म सहा- कर्म सहा: ' तुम्हारा सब काम करेंगे 'ताय - तात' हे तात! 'वित्तीयपि द्वितीयमपि' दूसरी बार 'पासामोपश्यामः' घरका कार्य हम देखेंगे 'ताव - तावत्' इसलिये 'सयं-स्वकम् ' अपने 'हिं गृहम् ' घर 'जामु- याम:' जावें ॥६॥ अन्वयार्थ - हे पुत्र ! आओ घर चलें तुम कुछ भी काम मत करना हम तुम्हारा सब काम करदेंगे हे पुत्र ! अबकी बार हम सब काम कर दिया करेंगे। चलो, अपने घर चलें ॥ ६ ॥ टीकार्थ- हे पुत्र ! में जानता हूँ कि तुम काम करने से बहुत डरते । फिर भी चलो, घर चले । तुम घर का काम बिल्कुल मत करना । शब्दार्थ' – 'ताय - तात' हे तात! 'एहि एहि भाव घरंजामो गृहं यामः' 'वयं-वयम्' अमे घे२ ४६र्धये 'माय मा त्वम हुवे तु अर्थ अमन हरीश बो। 'कम्म सहा- कर्मग्रहाः " तमा३ मधु ४ अमरीशु' 'ताय - तात' तात ! ' वितीयंति - द्वितीयमपि भीलवार 'पाखामो - पश्यामः ' तमा३ अर्थ अमे शु' 'ताव - तावन्' भेटला भाटे 'सयं स्वकम्' पोताना 'गिहं गृहम् ' धेरै 'जामु - यामः ' ४६ ॥ ॥ सूत्रार्थ-डे पुत्र ! यास, घेर यायो भाव तारे हैं। शुभ ४२ પડશે નહી'. અમે તારુ' સઘળું કામ કરી દઈશું' હે પુત્ર ! હવેથી તારુ’બધું કામ અમે જ કરી દઇશુ. માટે સાધુના વેષ છેાડી દઇને આપણે ઘેર પાછા કુ. રા ટીકાય—પિતા સ્ત્રાદિ સ્વજને તે મુનિને કહે છે કે હે પુત્ર! તને કામ કરતાં બહુ ડર લાગે છે, તે હું જાણુ છું. તું ઘેર ચાલ, તારે ઘરનું કામ For Private And Personal Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. १ अनुकूलोपसर्गनिरूपणम् ५३ सरित्यक्तगृहोऽसि, तन्माभव । गृहमागच्छ । 'ताय' हे तात ! 'वितियंपि' द्वितीयमपि (कारणम्) । एकबारं पुराऽपि त्वं गृहकार्यकारणादुद्विग्नो भूत्वा पलायितोसि । द्वितीयं वारं पुनश्चल । वयमेव ततत्सर्व कार्य करिष्यामः । 'पायामो' पश्यामः, वयमेव सर्व कार्य पश्यामः । तस्मात् 'ताव सयं गिह जामु' तस्मात् स्वकं गृहं यामः सर्वे वयमपि । हे तात ! गृहकार्यात् त्वमुद्विग्नोमा भूः त्वदीयं सर्वमेव कार्यजातं वयमेव संपादयिष्यामः । गत्वा मत्ययं कुरु, न मनोऽनागतं प्रत्येति। आसवै गन्तव्यमेव गृहम् , माऽत्र किंचिदपि प्रयोजनविशेष परामः ।.६॥ मूलम्-गंतुं ताय पुणो गच्छे ण तेणासमणो सिया। अकामगं परिकम को ते वारेउ मरिहति ॥७॥ छाया--गत्वा तात पुनरागच्छे न तेनाऽश्रमणस्याः । ___ अकामगं पराक्रान्तं कस्त्वां वारयितुमर्हति ॥७॥ हम ही सब काम कर लेंगें । तुमने काम के भय से घर त्यागा है, ऐसा मत करो। घर चलो। एक बार तुम गृहकार्य से घबरा कर भाग आये हो, अब दुवारा चलो। अब हम ही सब कार्य कर लिया करेंगे ।हमी सब काम देख लेते हैं । हे पुत्र ! चलो घर चलें। ___ आशय यह है हे पुत्र ! घर के कामकाज से मन घबराओ। तुम्हारे सभी कार्य हम ही कर दिया करेंगे। घर चल कर खातरी कर लो। भविष्य की बात पर विश्वास नहीं करना, अतः सब को घर ही चलना चाहिए । यहां कोई विशेष प्रयोजन दिखाई नहीं देता। બિલકુલ કરવું નહીં પડે. અમે જ બધું જ કામ કરી લઈશું. કામને ભયથી તારે ઘર છોડવાની જરૂર નથી. ઘરના કામથી ત્રાસીને તુ સાધુ બની ગયે છે, પણ અમે તને ખાતરી આપીએ છીએ કે હવે તારે ઘરનું કામકાજ કરવાની જરૂર જ નહીં રહે. અમે અમારી જાતે જ બધું કામ કરી લઈશ. માટે હે પુત્ર! સાધુને વેષ ઉતારી નાખીને ઘેર પાછા ફર.. આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે-પુત્ર ઘરના કામકાજથી તારે ગભરાવું નહીં, કારણ કે અમે તારું બધું કાર્ય પતાવી દઈશું. ઘેર પાછા ફરીને તું તેની ખાતરી કરી લે. મન ભવિષ્યની વાત પર વિશ્વાસ કરતું નથી, માટે તારે ઘેર જ પાછા ફરવું એઈએ. અહીં કેઈ ખાસ પ્રયોજન દેખાતું નથી. દા For Private And Personal Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे __ अन्वयार्थ:---(ताय) हे तात ! प्रियपुत्र ! (गंतु) गन्तुमेकवारं गत्वा (पुणो गच्छे) पुनरागच्छेः (तेण) तेन गृहगमनेन (ण असमणोसिया) न अश्रमणः स्यात् साधुत्वं न व्यपैव्यतीत्यर्थः । (अकामगं) अकामकं कार्ये इच्छारहितम् (परिकम) पराक्रमन्तं स्वामिल पितानुष्ठानं कुर्वागम् (ते) त्वाम् (को) कः (वारेउमरिहति) वारयितुमर्हति नो कोपीत्यर्थः ॥७॥ शब्दार्थ-'ताय-तात' हे प्रिय पुत्र ! 'गंतु-गन्तुम्' एकयार घर जाकर 'पुणो गच्छे-पुनरागच्छे' फिर आ जाना 'तेण-तेन' जिससे 'ण असमणो सिया-न अश्रमणः स्यात्' तुं अश्रमण नहीं हो सकता अर्थात इससे तेरा साधुपन चला नहीं जायमा 'अकामग-अकामकम्' घर के कामकाज में रहित होकर परिकम-पराकान्तम्' अपनी इच्छानुसार संयम का अनुष्ठान करते हुए 'ते-त्वाम्' तुमको 'को-क' कौन 'वारे उमरिहति-वारयितुमर्हति' पीछे हटाने के लिये समर्थ हो सकता है अर्थात् कोई समर्थ नहीं है ॥७॥ ___ अन्वार्थ-हे पुत्र ! एक वार घर आकर फिर पीछे चले आना ऐसा करने से साधुता चली नहीं जाएगी अगर तुम्हारी इच्छा कार्य करने की न हो या तुम्हें अपनी इच्छानुसार कोई काम करना हो तो कौन रोकेगा? अर्थात् कोई उसमें रुकावट नहीं डालेगा ॥७॥ शहा---'ताय-तात' ३ तात! 'गंतुं-गन्तुम्' मेवा२ घरे ने 'पुणोगच्छे-पुनरागच्छेः' या भावी ने 'वेण-तेन' नाथा 'ण असयणो-न अश्रमणः स्यात्' तुं समय यता नथी, अर्थात् मानायी तासाधुप तु नही २3. 'अकामग-अकामकम्' ५२न। म २२हित थ ने परिक्कम-पराक्रान्तम्' पातानी ४२७ नुसा२ सयमर्नु अनुहान ४२i - त्वाम्' तमन “को-कः' । 'वारे उ मरिहति-चारयितुमर्हति' ५। .११.ना માટે સમર્થ થઈ શકે છે? અર્થાત્ કઈ પણ સમર્થ નથી. છા સૂવાર્થ-હે પુત્ર! એક વાર ઘેર આવીને તને ન ફાવે તે પાછા ચાલે જજે. એવું કરવાથી તારી સાધુતા નષ્ટ નહીં થઈ જાય. જે તારી કામ કરવાની ઈચ્છા ન હોય અથવા તારે તારી ઈચ્છાનુસાર કેઈ કામ કરવું હોય તે તને કોણ રોકવાનું છે? એટલે કે તારી ઈચ્છાનુસાર કામ કરવામાં અમે કેઈ નડતરરૂપ બનશું નહી. છા For Private And Personal Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ fadhana kendra www.kobatirth.org Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri - - - समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. २ अनुकूलोपसर्गनिरूपणम् ५५ ___टीका--'ताय' हे तात !=हे पियपुत्र ! गंतु' गत्वैकवारम् । राहमिति शेषः । 'पुणो' पुनः 'गच्छे' आगच्छेः 'तेण' तेनैकवारगृहगमनेन । 'णअसमणो सिया' न अश्रमणः स्या-न स्वमसाधुभविष्यसि, किमेकवारं गृहगमनेन कोऽप्यश्रमणो भवति । यदि गृहं नो रोचते तदा पुनरप्यागन्तव्यमिहैव । 'अकामगं' अकाम अनिच्छन्तं गृहकार्यम् , गृहकार्येच्छाविरहित भवन्तम् । 'परिकम्म' पराक्रान्तम्-स्वेच्छानुसारसंयमानुष्ठान कुंवन्तम् । अथवा-वृद्धावस्थायाम् । अकामर्ग' अकामक-मदनेच्छारहितं संयमानुष्ठान पति पराक्रमन्तं 'को ते' कस्ते त्वाम् 'वारेउमरिहति' वारयितुं संयमानुष्ठानानिषेधुमईति, तदाऽवसरमाप्ते संयमा. नुष्ठानाख्ये कर्मणि वां वारयितु न भविष्यति कोऽपि । 'वार्धक्ये मुनिवृत्तीना' मिति कोकोक्तेः । अधुना तु गृहमेव गन्तव्यम् , नायमवसरः संयमाऽनुष्ठानस्य । सति समयेऽवाषितेन सयाजश्यानुठेयः संयम इति भावः जा कार्थ-हे प्रिय पुत्र ! एक बार घर चल कर फिर लौट आना। एक चार घर चलने से तुम असाधु नहीं हो जाओगे । एक बार घर जाने से ही क्या कोई असाधु हो जाता है ? अगर घर में रहना रुचिकर न हो तो पुन: यहीं आ जाना । यदि तुम्हारी इच्छा गृहकार्य करने कीन हो या अपनी इच्छा के अनुसार संयम का अनुष्ठान करना हो अथवा वृद्धा वस्था में कामेच्छा से रहित और संयम का अनुष्ठान करते हुए तुम्हें कौन रोक सकता है ? संघमानुष्ठान के योग्य उस अवसर पर तुम्हें संयम साधन से कोई नहीं रोक सकेगा? लोक में भी कहा जाता है कि वृद्धावस्था में मुनि वृत्ति अंगीकार करनी चाहिए । परन्तु इस समय तो ટીકાથં-માતા, પિતા આદિ સ્વજને મુનિને આ પ્રમાણે સમજાવે છેહે પ્રિય પુત્ર તું! એક વાર તે ઘેર પાછા ફર પછી તને ઠીક લાગે તે પાછા ફરજે. એક વાર ઘેર આવવામાં તું અસાધુ નહીં બની જાય. શું એક વાર ઘેર આવવાથી સાધુતાનું ખંડન થાય છે ખરું ! જે તને ઘરમાં રહેવાનું ન ગમે, તે તું અહીં પાછા આવી જજે, જે તું ઘરકામ કરવા ન માગતો હોય અને ધર્મની આરાધના કરવા માગે , તે અમે તને તેમ કરતે કશું નહી. અથવા વૃદ્ધાવસ્થામાં કામેચ્છાને પરિત્યાગ કરીને જે તે સંયમની આરાધના કરીશ, તે તને કણ રેકવાનું છેવૃદ્ધાવસ્થા જ સંયમની આરાધના કરવા માટેનો ગ્ય સમય છે. ત્યારે તું ખુશીથી સંયમની આરાધના કરજે. લોકોમાં પણ એવી જ માન્યતા પ્રચલિત છે કે વૃદ્ધાવસ્થામાં જ પ્રવજ્યા અંગીકાર કરવી જોઈએ સ યમ સાધનાને આ અવસર નથી, માટે અત્યારે તે તારે ઘેર જ ચાલ્યા આવવું જોઈએ. જ્યારે અવસર આવે For Private And Personal Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे मूलम्-जं किं च अणगं तात तपि सव्वं समीकतम्। हिरण्णं ववहाराइ तेपि दाहासु ते वयं ॥८॥ छाया-यत्किचिच्च ऋणं तात! तत्सर्व हि समीकृतम् । हिरण्यं व्यवहारादि तहास्यामो वयं वसु ॥८॥ अन्वयार्थ-(तात) हे तात हे कुडुम्बरक्षकपुत्र (जं किंचि) यत् किंचित् (अणगं) ऋरणं (तं वि सम्ब) तदपि सर्वम् अस्माभिविभज्य (समीकत) समीकृतम् समभागेन व्यवस्थापितम् (चवहाराइ) व्यवहारादिः (हिरण) हिरण्यसुवर्णादिकं (तंपि) तदपि (ते) तुभ्यम् (वयं) वयम् (दाहामु) दास्यामा- त्वदीयव्यवहारोपयोगिसुवर्णादिक दास्याम इति भावः ॥ घर पर ही पलो । संयम साधना का यह अवसर नहीं है। जव अवसर आवेतो बिना किसी बाधा के तुम संयम का अवश्य अनुष्ठान करना li७॥ शब्दार्थ--'तात-तात' हे पुत्र ! 'जं किंचि अणगं-यत् किंचित् कणम्' जो कुछ ऋण था 'तं वि सवं-तदपि सर्वम्' वह भी सब 'समीकतं-समीकृतम्' हमने विभाग कर बराबर कर दिया है 'यवहाराइव्यवहारादिः' व्यवहार के योग्य जो 'हिरणं-हिरण्यम्' सुवर्णादिक है 'तं पि-तदपि' वह भी ते-तुभ्यम्' तुझको 'वयं-वयम्' हम लोग 'दाहायु-दास्थामः' देंगे अतः तुमको घर ही चलना उचित है ॥८॥ अन्वयार्थ-हे पुत्र ! हे कुटुम्ब के रक्षक ! जो ऋण चढाथा, उस सब को हम लोगों ने बांट कर बराबर कर लिया है। व्या हार के लिए तुम्हें जो हिरण्य (चांदी) सुवर्ण आदि चालिए वह हम तुम्हें देंगे॥८॥ ત્યારે કેઈ પણ પ્રકારના અવરોધ વિના તું અવશ્ય સંયમની આરાધના ४२२१. ॥॥॥ ७॥ साथ-'तात-तात' 3 पुत्र! ‘ज किंचिअणगं-यत् किंचित्ऋणम्' रे ४. तु तं वि सव्वं-तदपि सर्वम्' ते ५ मधु 'समीकतं-समीकृतम्' अमे विनासरीने ५२४२ ४१ वधु छ ‘ववहाराइ-व्यवहारादिः' ०५१७(२ना योग्य २ हिरण-हिरण्यम्' सुqfles . 'तपि-तदपि' ते ५५ ते-तुभ्यम्' तर 'वयं-वयम्' मा 'दाहामु-दास्य मः' मापी थी तमारे धेर આવવું જ યોગ્ય છે, ૫૮ સૂત્રાર્થ-હે પુત્ર! હે કુટુંબના આધાર! તારે માથે જે ઋણ (દેવ). વધી ગયું હતું, તે અમે સૌ કુટુંબીઓએ ભાગે પડતું ચુકવી દીધું છે તારે વ્યવહાર ચલાવવા માટે તારે જે સુવર્ણ, ચાંદી આદિની જરૂર હોય તે અમે तन माशु गाथा ८॥ ... For Private And Personal Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. २ अनुकूलोपसर्गनिरूपणम् ५७ टीका-'तात' हे पुत्र ! हे कुटुम्बरक्षकपुत्र ! जं किंच अणगं' यत् किंचित् अगादिकमासीत्। 'तं पि सव्वं' तत्सर्वमपि 'समीकतं' समीकुलम् अस्माभिरेव समं विभज्य ऋणं दत्तम्, नास्ति ते ऋगभारः। यदि कदाचित् ऋणमारागीत इहागतोऽसि, तदा तद्भयं त्यज । अस्माभिरेव तत्सर्व समीकृतम् । 'वबहाराइ' व्यवहारयोग्यं व्यापारादिप्रयोजनोभूतं यदपि विद्यते। 'हिरण' हिरण्यं सुवर्णादि धनं गृहेऽवशेषितम् । 'तं वि' तदपि 'ते' तुभ्यम् 'वयं' वयम् 'दाहासु' दास्यामः । हे पुत्र ! तवोपरि यद् ऋणमासोत् तदस्माभिरेव विभज्य स्त्र स्वशिरसि न्यस्तम् । अथ च गृहे यत् व्यवहारयोग्यं स्वर्णादिरूपं धनं विद्यते, तदपि तुभ्यं दास्यामि, अतस्त्वयाऽवश्यमेव गन्तव्यं गृहम् । यद्भयास्यक्ताः , तत् दूरं गतं तदर्थ शोको न करणीयः। अतः परं गृहसेवा व्यापारे नास्ति प्रवाधितस्य ते वाधाव्याधिरिति भावः।। टीकार्य-हे कुटुम्ब के रक्षक पुत्र ! तुम्हारे ऊपर जो भी ऋण आदि था वह हमने बराबर कर दिया है-घंटवारा करके चुका दिया है। अब तुम्हारे ऊपर ऋण का भार नहीं रहा है। ऋण के भय से भयभीत हो कर यहां आए हो तो उस भय को दूर कर दो। वह ऋण तो हमने ही उतार दिया है । व्यवहार अर्थात व्यापार आदि के योग्य जो हिरण्य चांदी स्वर्ण आदि घर में है, वह भी हम तुम्हे देंगे। अभिप्राय यह है-हे पुत्र ! तुम्हारे ऊपर जो ऋण चहा था, उसका षटवारा करके हम लोगों ने अपने अपने माथे ले लिया है। इसके अति रिक्त घर में व्यवहार योग्य जो भी सोना चांदी आदि है, वह भी तुम्हे देंगे। अतएव तुम अवश्य घर चलो। जिस डरसे तुमने घर छोडा है, वह दर होगया है। उसके लिए चिन्ता मत करो। इसके पश्चात् घर पर रहने में तुम्हारे लिए कोई विघ्नबाधा नहीं है । ટીકાઈ–હે કુટુંબના રક્ષક પુત્ર! તારે માથે ઋણને જે બે હતા, તે અમે ભરપાઈ કરી દીધું છે. કુટુંબીઓએ અંદર અંદર વહેચણું કરીને તે ઋણ ચુકવી દીધું છે. હવે માથે ત્રણને ભાર રહ્યો નથી જે અણુના ભયથી તે સાધુ જીવન અંગીકાર કર્યું હોય, તે તે ભય હવે દૂર થઈ ગયા છે. વળી વ્યવહાર (વેપાર) આદિને માટે તારે જે સુવર્ણ, ચાંદી, ધન આદિની જરૂર હાય, તે અમે તને ઘરમાંથી આપશુ. આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે અણના ભયથી જે તે ઘર છોડયું હોય, તે હવે તે ભય દૂર થઈ શકે છે. વળી વેપાર આદિને માટે જરૂરી ધન અમે તને આપશું, એટલે તેને કોઈ પણ પ્રકારની વ્યવહારિક મુશ્કેલી પણ નહીં પડે. હવે તમારે ઘેર પાછા ફરવામાં શી મુશ્કેલી છે? માટે છોડે આ સાધુપર્યાય અને ફરી ઘેર ચાલ્યા આ. ગાથા દ્રા सू०८ For Private And Personal Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतामसूत्रे - प्रकरणमुपसंहरमाइ-सूत्रकारः-'इच्चे वणं सुसेहंति' इत्यादि । म्लम्-इच्छेवणं सुसेहंति कालुगीये समुटिया। विवद्धो नाइसंगेहि तोऽगार पहावइ ॥९॥ छाया-इत्येव सुशिक्षयन्ति कारुण्यं समुपस्थिताः। विवद्वो ज्ञातिसंगेन ततोऽगारं प्रधावति ॥९॥ अन्वयार्थ:-(ण) ग्वलु (कालणीये समुठिया) कारुण्ये समुपस्थिताकारुण्यमुत्पादयंतः (इच्चे३) इत्येवं पूर्वोक्तरीत्या (सुसेहति) मुशिक्षयंति स चापरिणतधर्मा, नवपत्रजितः (नाइसंगेहि) ज्ञातिसंगैः (विवद्धो) विवद्धा-मातापितपुत्रकलादिमोहितः (तो) ततस्तदनन्तरं (भगारं) अगारं गृहं (पहावा) प्रधावति गच्छतीत्यर्थः ॥९॥ प्रकरण का उपसंहार करते हुए सूत्रकार कहते हैं 'इच्चेव ण' इत्यादि । शब्दार्थ-'णं-खलु' निश्चय 'कालुणिये समुष्टिया-कारुण्ये समु. पस्थिताः' करुणाजनक बन्धुवर्ग के 'इच्थेव-इत्येवम्' इस प्रकार के पूर्वोक्त रीति से 'सुसे हंति-सुशिक्षपन्ति' साधु को शिक्षा देते है अर्थात् समझाने पर 'नाइसंगेहि-ज्ञातिसंगैः' ज्ञातिसंग से 'विवद्धोविवद्धः बंधा हुआ अर्थात् मातापिता पुत्र कलत्रादि में मोहित होकर 'तभो-ततः उस समय अगारं-अगारम्' घर की ओर 'पहावा-प्रधा. वति' जाता है ॥९॥ ___ अन्वयार्थ-करुणा से परिपू में ज्ञातिजन इस प्रकार साधु को सिख लाते हैं । वह नवदीक्षित और अपरिणतधर्मा साधु ज्ञातिजनों के मोह में फंस कर घर चला जाता है ॥९॥ ३ मा ४४२७ने। ७५स!२ 11 सूत्र २ ४ छ-'इच्चेषण' त्याह शण्टा - -खलु' निश्च५ क लुमिये समुद्रिया-कामण्ये समुपस्थिताः' ३६. स.धु ना इचव-इत्येवम्' मा ५२ पूरित शतथी 'सुसेहति-सुशिक्षयन्ति' साधुने शिक्षा है छे १ मथात् समयी 'नाइ. संगेहि-ज्ञातिसंगैः' शातिसगी विवद्धो-विबद्धः' मायेला अर्थात् माता, पिता, पुत्र, सत्र, पमा माहित ने 'त मो-ततः' ते समये अगारं-अगारम' घरनी त२६ 'पहावइ-प्रधावति' लय छे. ८ સૂત્રાર્થ–કુટુંબીઓ અને સગાં-સંબંધીઓ આગળ વર્ણવ્યા પ્રમાણેના કરુણાજનક વચને વડે તે નવદીક્ષિત સાધુને સંસારમાં પાછા ફરવા માટે સમજાવે છે. તેને પરિણામે નવદીક્ષિત અને અપરિણતધર્મા સાધુ જ્ઞાતિજનોના For Private And Personal Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थयोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. २ अनुकूलोपसर्गनिरूपणम् ५९ टीका--'कालुणीय समुहिगा' कारुण्य समुपस्थिताः, दीनदीनवचनेन करु. णया युक्ता मोहजालं पसार्य संपमप्रासादशिवरात् पातकाः बन्धुवान्धवाः । इच्चेत्र' इत्येवंरूपेण, पूर्वी तरकारेण 'सुसेहंति' सुशिक्षयन्ति, सम्यग् रूपेण प्रार्थियन्ते। यद्यपि वान्धवकथितवचनजातस्य संसारे प्रवर्तकतया न सुशिक्षार्थ-वं संभवति । अपि तु अनिष्टोत्पादकनया विपरीत मेव, तथापि इह शिक्षादेन गृहस्याभिमतशिक्षाया एव कथनात् । बान्धव वनैः शिक्षितो नवदीक्षितः साधुः तेषां बान्ध वानां मोहपाशैर्बद्धः। 'नाइसंगेहि' ज्ञातिसंगैः ज्ञातीनां संगेन 'विवद्धो' विबद्धः दृढ विवाधितः अल्पसमा गुरुकर्मा साधुः । 'तओ' तनुस्तदनन्तरम् । 'अगा' अगारं-पूर्वगृहमेव 'पहावई' प्रधावति । यया रज्जुबद्धः पशुः सरज्जुपुरुषेण यथाः कामं नीयते, तथा बान्धवविलपितमोहगाशैबेलादल्पसत्यः साधुहं नीयते । टीकार्य-करुणा से युक्त अर्थात् दीनता हीनता से परिपूर्ण वचनों का प्रयोग करके और मोहजाल फैला कर संयम रूपी महल के शिखर से नीचे गिराने वाले बन्धु पान्धव साधु को पूर्वोक्त प्रकार से सिखलाते हैं प्रार्थना करते हैं। यद्यपि बन्धु पान्धवों के वे वचन संसार में प्रवृत्ति कराने वाले हैं, अनिष्ट कारक होने से विपरीत हैं,अतएव उन्हें सुशिक्षा नहीं कहा जा सकता, तथापि यहां 'शिक्षा' पद से गृहाभिमत शिक्षा का ही आशय समझना चाहिए । अपने बान्धवों के वचनों से शिक्षित नवदीक्षित साधु मोहपाश में बंध जाता है। ज्ञातिजनों के मोह में फंसा हुआ अल्प सत्व वाला और भारी कर्मों वाला साधु तत्पश्चात् घर चल देता है । जैसे મોહમાં ફસાઈને દીક્ષા પર્યાયને ત્યાગ કરીને પુનઃ ગૃહસ્થાવસ્થાને સ્વીકાર કરી લે છે. શા ટીકા-કરુણાજનક એટકે કે દીનતા હિનતાથી પરિપૂર્ણ વચનેને ગ કરીને અને મોહજાળ ફેલાવીને સંયમરૂપી મહેલને શિખરેથી સાધુને નીચે પછાડનારા સગાં-સ્નેહીઓ સાધુને પૂર્વોક્ત પ્રકાર સમજાવે છે, અને સાધુપર્યાયને ત્યાગ કરવાની વિનંતિ કરે છે. જો કે સગાં-સ્નેહીઓનાં આ વચને સંસારમાં પ્રવૃત્તિ કરાવનારાં હેવાને કારણે અને તેનું અનિષ્ટ કરનારાં હોવાને કારણે વિપરીત શિખામણ રૂપ હોવાને કારણે તે વચનેને સુશિક્ષા કહી શકાય નહીં, છતાં પણ અહીં “શિક્ષા પદને ગૃહાભિમત શિક્ષાનું જ-ઘેર પાછા ફરવાના બેધનું જ–વાચક સમજવું જોઈએ. તેમનાં આ પ્રકારનાં વચનેથી નવદીક્ષિત, અ૫સત્વ સાધુ મોહપાશમાં જકડાઈ જાય છે અને પ્રવજ્યાને ત્યાગ કરીને ઘેર પાછા ફરી જાય છે. જેવી રીતે દોરડા For Private And Personal Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३ सूत्रकृताङ्गस्त्रे मोहपाशकूपपातकाः बान्धवाः पूर्वोक्तरीत्या साधुं तमामुशिक्षयंति, यथा तेषां संगेन बद्ध इव विभ्रान्तः गुरुकर्मा साधुः मोक्षदायिनीमपि पव्रज्यां परित्यज्य गृहपाशे एवाऽनुबध्नात्यात्मानम् । इति भावः ॥९॥ मूलम्-जहां रुक्खं वणे जायं मालुया पडिबंधई। एवं णं पडिबंधति णातओ असमाहिणा ॥१०॥ ... छाया-यथा वृक्षं वने जातं मालुका प्रतिबध्नाति । एवं ते प्रतिबध्नन्ति ज्ञातयो असमाधिना ॥१०॥ रस्सी से बंधे पशु को रस्सी पकडने वाला पुरुष इच्छानुसार ले जाता है, उसी प्रकार बन्धुषान्धवों के विलापरूपी मोहपाश में आयद्ध सत्व हीन साधु घर ले जाया जाता है। ... आशय यह है कि मोह के कूप में पटकने वाले धान्धवजन पूर्वोक्त प्रकार से साधु को इस प्रकार सीख देते हैं जिससे उनके संग से बद्ध जैसा भ्रान्त गुरुकर्मा साधु मोक्षदायिनी दीक्षा को भी त्याग कर गृह के बन्धन में बंध जाता है ।।९॥ शब्दार्थ-'जहा-यथा' जैसे 'वणे जायं-बने जातम्' वन में उत्पन्न हुवा 'रुक्खं-वृक्षम्' वृक्ष को 'मालुया-मालुका' लता-वेल 'पडिबंधा-प्रतिबध्नाति' वेष्टित हो जाती है 'ण-खलु' निश्चय एवं-एवम्' इसी प्रकार 'णातयो ज्ञातयः ज्ञातियाले अर्थात् कुटुंबिजन 'असमाहिणा-असमाधिना' अल्प सत्व वाले उस साधु को 'पडिबंधति-प्रतिबध्नति' बांध लेते हैं।॥१०॥ વડે બાંધેલા પશુને દેરડું પકડનાર માણસ પોતાની ઈચ્છાનુસાર દેરી જાય છે, એ જ પ્રમાણે સમાં-સ્નેહીઓના વિલાપ રૂપ મોહપાશથી જકડાયેલા સવહીન સાધુને, તેઓ ઘેર લઈ જવામાં સફળ થાય છે. આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે મોહરૂપ કૂવામાં હડસેલનારા બધુજને તે નવદીક્ષિત સાધુને એવી રીતે સમજાવે છે કે તે બ્રાન, ગુરુકમ સાધુને મોક્ષદાયિની પ્રવજ્યાને પણ ત્યાગ કરીને ગૃડના બન્ધનમાં બંધાઈ જાય છે. છેલ્લા Avai --'जहा-यथा' वी शते 'वणे जायं-वने जातम्' Twi S५-न यये 'रुक्ख-वृक्षम्' उने 'मालुया-मालुका' सा- 'पडिबंधइ-प्रतिबध्नाति' पी25. Mय छे. 'णं-खलु' निश्चय एवं-एवम्' 20 प्रभार 'णातयो-ज्ञातयः' शातिवा! अर्थातू मिशन 'असमाहिणा-असमाधिना' असrain ते साधुने 'पडिबंधंति-प्रतिबध्नन्ति' गांधी से . ॥१०॥ For Private And Personal Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्र. अ. ३ उ.२ अनुकूलोपसर्गनिरूपणम् ६१ अन्वयार्थ:-(जडा) यथा (रणे जायं) बने जातं (रुक्ख) वृक्षम् (मालुया) मालकालता (पडिबंबइ) पतिवध्नाति-परिवेष्टयति (ण) खलु (ए) एवमनेनैव प्रकारेण णातयो) ज्ञातयो-मातापितृस्व ननाः (असमाहिणा) असमाधिना (पडिबंधंति) प्रतिबध्नति, येनास्यासमाधिरुत्पद्यते इति ॥१०॥ ___टीका-'अहा' यथा- येन प्रकारेण 'वणे जाय' वने जातम्म ने समुत्पन्न बने वदितं पुष्पफलान्वितम् ‘रुक्ख' वृक्षम् , 'मालया' मालकामाला, लता इति यात् 'पडिबंबई प्रतिबध्नाति, यथा वने समुत्पन्ना लता बने समुत्पन्नं स्वसमीपवर्तिनं वृक्षादिकं परिवेष्टयति 'ग' खलु ‘एवं' एवमेव ‘णातओ' ज्ञातयः परिवारिकाः कुटुमकदम्बकानि । 'असमाहिणा' असमाधिना तं नवदीक्षितं साधुम् , यद्वा-अल्पसत्चमसमाराधितचित्तं गुरुकर्माण साधुम् । 'पडिबंधति प्रतिवघ्नन्ति, तथा ते व्यवस्यन्ति यथाऽस्याऽसमाधिरुपयेत । असमाहितः स प्रवज्यां परित्यज्यगृहं गच्छति। ___ अन्वयार्थ --जैसे वन में उत्पन्न वृक्ष को मालुका-लता घेर लेती है इसी प्रकार माता पिता स्वजन आदि उस साधु को ऐसा घेर लेते हैं जिससे उसे असमाधि उत्पन्न होती है ॥१॥ टीकार्थ--जैसे वन में उत्पन्न, वन में वृद्धि को प्राप्त तथा पुष्पों और फलों से सम्पन्न वृक्ष को समीपवर्ती मालुका लता परिवेष्टित कर लेती है, उसी प्रकार कुटुम्बीजन असमाधि से उस नवदीक्षित साधु को अथवा सत्वहीन, असमाराधित चित्तवाले एवं भारी कर्मों वाले साधु को घेर लेते हैं । वे ऐसा करते हैं जिससे उसे असमाधि उत्पन्न हो । समाधि से रहित होकर यह साधु दीक्षा त्याग कर घर चला जाता है। સૂત્રાર્થ-જેવી રીતે વનમાં ઉત્પન્ન થતાં વૃક્ષને માલુકા લતા વીંટળાઈ વળે છે, એજ પ્રમાણે માતા, પિતા, સ્વજનો આદિ તે નવદીક્ષિત સાધુને એવાં તે ઘેરી લે છે કે તેમને કારણે તે સાધુના ચિત્તમાં અસમાધિભાવ ઉત્પન્ન થાય છે. ૧૦ ટીકાર્થ-જેવી રીતે વનમાં જ ઉગતા અને વનમાં જ વૃદ્ધિ પામતાં, પુ અને ફળોથી યુક્ત વૃક્ષને સમી પવત માલુકા લતા વીટળાઈ જાય છે, એ જ પ્રમાણે સાધુના કુટુંબીઓ અસમાધિભાવથી–મેહને વશવત થઈને તે સાધુને ઘેરી લે છે. અથવા તેઓ સવહીન, ગુરુકર્મા, અને અમારાધિત ચિત્તવાળા તે સાધુને ઘેરી લે છે તેઓ એવાં વચને બેલે છે કે જે વચનેને કારણે તે સાધુમાં અસમ ધિભાવ ઉત્પન્ન થાય છે અને તેનું ચિત્ત ડામાડોળ થઈ જાય છે. તેથી તે દીક્ષાને ત્યાગ કરીને ફરી ગૃહસ્થાવસ્થાને સ્વીકાર કરી લે છે. For Private And Personal Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे अमित्ररूपा अपि कुटुम्बिनः साधु परिवेष्टय कथयन्ति हे तात ! यादृशस्थाने द्वयोरावयो न गमनं तत्रैकाकिना गमनेन किम् आग मिलित्वा एकत्रैव स्थास्यावः कदाचिदुर्गति वा गच्छावः । तथा चोक्तम्-- "अमित्तो मित्तवेसेणं कंठे घेत्तुण रोयइ । मा मित्ता सोग्ग जाहि दो वि गच्छामु दुग्गई ॥१॥ छाया--अमित्रं मित्रवेषेण कण्ठे गृहीत्वा रोदिति ।। मा मित्र मुगति याहि द्वावपि गच्छावो दुर्गतिम् ॥१॥ इति ॥१०॥ मूलम्-विवंद्धो नाइसंगहि हत्थी वावी नवगहे। पिटुओ परिसप्पंति सुयगोव्व अदूरए ॥११॥ छाया--विवद्धो ज्ञातिसंगैहस्ती वापि नवग्रहे । पृष्ठतः परिसर्पन्ति मूतगौरिष अदूरगा ॥११॥ __ अमित्र रूप वे कुटुम्बीजन साधु को घेरकर कहते हैं हे पुत्र ! जिस जगह हम दोनों (हम सय) नहीं पहुंच सकते वहां तुम्हारे अकेले जाने से क्या लाभ! हम तुम मिलकर एक ही जगह रहे, भले ही दुर्गति में जाएँ परन्तु साथ रहें । कहा भी है-'अमित्तो मित्तवेसेणं' इत्यादि । वास्तव में जो मित्र नहीं है, वह मित्र होने का ढोंग करके और गले से लगाकर रोता है। कहता है हे मित्र ! तुम अकेले सुगति में मत जाओ। हम दोनों साथ साथ दुर्गति में ही चले गे ॥१॥ અમિત્રરૂપ તે કુટુંબીજને તે સાધુને ઘેરી લઈને તેને એવું કહે છે કે આપણે બધાં એક સાથે જ્યાં પહોંચી ન શકીએ, ત્યાં તમારે એકલા શા માટે જવું જોઈએ ! દુતિ કે સદ્ગતિ, જે ગતિ મળવી હોય તે મળે, પણ આપણે એકબીજાને સાથે છેડો જોઈએ નહીં. તમે સદ્ગતિમાં જાઓ અને અમે દુર્ગતિમાં જઈએ, એવું શા માટે કરવું જોઈએ ! કહ્યું પણ છે કે 'अमित्तो मित्तवेसेणं' त्याह જેઓ સાધુના સાચા મિત્ર નથી તેને તેના મિત્ર હોવાનો ઢગ કરીને તેને ભેટી પડીને વિલાપ કરવા લાગી જાય છે અને તેને કહે છે કે- હે મિત્રા તઃ એકલે સુગતિમાં જવાને વિચાર ન કર આપણે બધાં દુર્ગતિમાં સાથે સાથે જ ચાલયા જઈશું.' ગાથા ૧ભા For Private And Personal Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनो टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. २ अनुकूलोपसर्गनिरूपणम् . १३ अन्वयार्थः--(नाइसंगेहि) ज्ञातिसगैः-मातापितसम्बन्धैः (विवद्धो) विवद्धः (पिट्टओ) पृष्टाः (परिसप्पंति) परिसर्पन्ति साधोरनुकूळमाचरन्ति स्वजनाः (अवि) अपि (नवगहे) नवग्रहे (हत्थी व) हस्ती इव (सुयगोचरए) सूतिगौरिवा द्रगा यथा नवपम्रता गौः स्ववत्ससमीपे एव तिष्ठति तथैवतस्य परिवारा एतस्य समीपे एव तिष्ठन्तीति भावः ॥११॥ टीका-'नाइसंगेहि ज्ञातिसंगैः, मातापितृ कलत्रमित्रादिस्वजनवौँ । 'विबद्धो' शब्दार्थ-'नाइ संगेहि-ज्ञातिसंगैः' माता पिता आदि स्वजनवर्ग के संबंध द्वारा 'विपद्धो-विबद्धः' बंधे हुए साधु के 'पिट्ठो पृष्टतः' पीछे पीछे 'परिसप्पति-परिसर्पन्ति' उनके स्वजनवर्ग चलते हैं 'अविअपि' और 'नवगहे-नवग्रहे नवीन पकडे हुए 'हस्थीव-हस्ती इव' हाथी के समान उसके अनुकूल आचरण करते हैं तथा 'सुधगोव्ध अदाएसूत गौरिवादरगा' नई व्याई हुई गाय जैसे अपने बछडे के पास ही रहती है उसी प्रकार उनका परिवारवर्ग उसके पास ही रहते हैं ॥११॥ ___अन्वयार्थ-मातापिता आदि के संबंधो से बंधे हुए साधु के पीछे पीछे स्वजन चलते हैं और नवीन पकडे हुए हाथी के समान उसके अनुकूल व्यवहार करते हैं जैसे नवीन पाई हुई गाय अपने बछडे के समीप ही रहती है उसी प्रकार वे भी उसी के पास रहते हैं ।११।। टीकार्थ--मातापिता कलत्र मित्र आदि स्वजनों के सम्बन्ध से At - 'नाइसंगेहि-ज्ञ तिसंगैः' माता-पिता को३ २१४ नाना समय द्वारा विबद्धो वियद्धः' मचाये साधुना पिटु श्रो-पृष्ठतः ॥१५॥४॥ 'परिमपंति -परिसर्पन्ति' तमना सन यावे छे. 'अवि-अपि' भने 'नवग्गहे-नवग्रहे ना ५४ये 'हत्थीव-हस्ती इव' हथीनी रे तेभने अनु. कुण माय२५१ ४२ छ तथा 'सुयगोच अदूरए-सूतगौरिवादूरगा' नवी पी यायेस ગાય જેમ પિતાના વાછરડાની પાસે જ રહે છે તેજ પ્રકારે તેમને પરિવાર १ तेनी पासे । २९ छ. ११॥ સૂત્રાર્થ–જેવી રીતે નવી વિયાયેલી ગાય પિતાના વાછડાની સમીપમાં જ રહે છે, એ જ પ્રમાણે માતા-પિતા આદિના સંબંધથી બંધાયેલા સાધુની પાછળ પાછળ તેના સંસારી સ્વજને ચાલે છે, ને નવા પકડી લાવેલા હાથીની સાથે જે વ્યવહાર કરવામાં આવે છે, એ તેને અનુકૂળ વ્યવહાર તેની સાથે કરે છે. ૧૧ ટીકાર્થ–માતા-પિતા, પત્ની, મિત્ર આદિ સ્વજનેના સંબંધથી બંધાયેલા For Private And Personal Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे विवद्धः साधुरल्पमत्यो भाति यस्य 'पिट्टो' पृष्ठतः पश्चात् 'परिसपंति' परिसर्पन्ति चलन्ति बान्धवाः, 'नवग्गहे हस्थीव नवग्रहः हस्तीव, नवीनगृहीतो हस्तीव विवद्धो भवति, यथा ग्रहणकर्तारः पश्चात् तमनुवर्तमानाः भवंति चलन्ति । तथाऽस्यापि साधोस्ते अनुकूलनामेव चरंति, तेषां पश्चात्यनलंति, तथा 'सुयगोच्च अदए' सनागौरिव अगा, यथा नवममता गौः स्ववत्सस्य पार्श्वे एव तिष्ठति, तं परित्यज्य न कुत्रापि गच्छति तथा नानातसाधोः परिवाराः बान्धवादयः साधु परित्यज्य न कुत्रापि गच्छन्ति, साधोः सामीप्यमेवानुतिष्ठन्ति । एवं स्वजनाऽऽहितमोहमापन्नः साधुः प्रवज्यां परित्यज्य गृहं विशति, तत्रापारमोहजालपरिवृतः परिवार परिवेष्टित एवं विष्ट नीति भावार्थः ॥११॥ मलम्-रऐ संगो मणुस्साणं पायर्याला इवे अतारिमा। कीवा जत्थ य किस्तांति नाइसंगहि मुंच्छिया॥१२॥ बंधे हुए साधु के पीछे पीछे उसके बान्धव चलते हैं। जैसे नवीन हाथी को पकड़ने वाले उसी के अनुकूल वर्ताव करते हैं, उसी प्रकार वे भी उसी के अनुसार चलते हैं । जैसे नवीन ब्याई हुई गाय अपने बछडे के पास ही रहती है, उसे छोड कर अन्यत्र नहीं जाती, उसी प्रकार उस साधु के बान्धव आदि परिजन उसके पास ही रहते हैं। उसे छोड़कर अन्यत्र नहीं जाते। आशय यह है कि इस प्रकार स्वजनों के सम्पर्क से मोह को प्राप्त वह साधु प्रव्रज्या का परित्याग करके घर चला जाता है। वहां अपार मोहजाल में फंसकर और परिवार से घिर कर रहता है ॥११॥ સાધુની પાછળ પાછળ તેના સંસારી સ્વજને ચાલે છે–ગ્રહવાસનો ત્યાગ કરવા છતાં તેઓ તે સાધુનો સાથ છેડતા નથી જેવી રીતે જંગલમાંથી હાથીને પકડી લાવનાર માણસે હાથીને અનુકૂળ વર્તાવ કરીને હાથીને પોતાને વશ કરી લે છે, એ જ પ્રમાણે સંસારી સ્વજને પણ તે સાધુને અનુકૂળ થઈ પડે એવે વર્તાવ રાખીને તેને વશ કરી લે છે. જેમ તાજી વિવાયેલી ગાય પિતાના વાછડાની પાસે જ રહે છે. તેને છોડીને બીજે જતી નથી, એજ પ્રમાણે તે સાધુના સ્વજને તેની પાસે જ રહે છે–તેને પિતાની નજરથી દૂર થવા દેતા નથી. આ પ્રકારે સ્વજનેને સંપર્ક ચાલ રહેવાથી તે નવદીક્ષિત, અપસવ સાધુ મેહને વશ થઈને સાધુ પ્રત્રને ત્યાગ કરીને ઘેર ચાલ્યા જાય છે. ત્યાં તે અપાર હજાળમાં ફસાઈ જઈને સંસારમાં અટવાયા કરે છે. ૧૧ For Private And Personal Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. २ अनुकूलोपसीनरूपणम् ६५ छाया-एते संगा मनुष्याणां पाताला इवाऽवार्थाः। क्लीवा यत्र क्लिश्यन्ति ज्ञाति संगैश्चमूच्छिताः ।।१२।। अन्वयार्थ:--(एए) एते पूर्वोक्ताः (संगा) सङ्गाः-मातृपितृस्वजनसंबन्धाः (मणुस्साण) मनुष्याणाम् (पायाला इथ) पाताला इस समुद्रवत (अतारिमा) अतार्याः दुस्तराः (जत्थ) यत्र येषु संगेषु (नाइसंगेहि) ज्ञातिसंगैः (मुच्छिया) मुग्छितागृद्धिभावमुपागताः (कोवा) क्लीबाः कातराः असमर्थाः (किस्संति) क्लिश्यंति क्लेशमनुमति संसारान्तत्तिनो भवन्तीति ॥१२॥ टीका--'एए संगा' एते पूर्वोक्ताः संगा: सज्यन्ते इति संगाः पितृभात. प्रभृतीनां मोहपाशपातका तात्कालिकाऽजुकूलवेदनीयाः संबन्धाः, नवीनकों शब्दार्थ-- 'एए-एते' यह पूर्वोक्त 'संगा-सङ्गा' मातापिता स्वजन आदि का संबन्ध 'मणूसाणं-मनुष्याणाम्' मनुष्यों के लिए 'पायाला. इव-पाताला इव' समुद्र के समान 'अतारिमा-अतार्या:' दुस्तर है 'जत्थ-यन्त्र' जिस संग में 'नाइसंगेहि-ज्ञातिसंगः' ज्ञातिसंसर्ग में 'मुच्छिया-मूच्छिताः' आसक्त हुए 'कीवा-क्लीवाः' असमर्थ पुरुष किस्संति-क्लिश्यन्ति' दुःखित होते हैं ॥१२॥ ___अन्वयार्थ--ये पूर्वोक्त मंग अर्थात् मातापिता आदि स्वजनों के सम्बन्ध मनुष्यों के लिए समुद्र के समान दुस्तर हैं जिनमें स्वजन संसर्ग से मूर्छित हुए कायर जन क्लेश का अनुभव करते हैं या संसार में परिभ्रमण करते हैं ॥१२॥ टीकार्थ-ये पूर्वोक्त संग अर्थात् माता पिता आदि, स्वजनों के सम्बन्ध Aval – 'एए-ए।' 0 पूxिt 'संगा-सङ्गाः' माता-पिता १४ पोरन समय 'मणूमाणं-मनुष्याणाम्' भनु याना माटे पायाला इव-पाताला इव' समुद्र समान 'अतारिमा-अतार्याः' हुस्तर छ. 'जत्थ-यत्र' २ मा 'नाइ संगठि-ज्ञातिसंगैः' ज्ञातिस सभा 'मुच्छिया-मूर्छिताः' यासरत थये कीवा-- क्लीवाः' असमय ५३५ 'किस्संति क्लिश्यन्ति भी थाय छे. ॥१२॥ સૂત્રાર્થ–માતા-પિતા આદિ સ્વજનેના સંબંધરૂપ પૂકતસંગ માણસોને માટે સમુદ્રના સમાન દુસ્તર છે. સ્વજનના મોહમાં આસક્ત થયેલા મૂછભાવને કારણે તેમને સંસર્ગ નહી છેડી શકનારા- કાયર માણસે આ સંસારમાં પરિ. ભ્રમણ કર્યા જ કરે છે અને જન્મ, જરા અને મરણનાં દુઃખનો અનુભવ કર્યા જ કરે છે. if૧૨મા ટીકા–આ પહેલાં કહેલ માતા-પિતા વિગેરે સ્વજન સંબંધીજનેને મેહ For Private And Personal Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ६६ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गस्त्रे 1 पादानस्वरूपा: । 'मनुस्साणं' मनुष्याणाम् 'पाताला' पातालाः समुद्राः वव 'अरिमा' अतार्याः अतीव दुस्तराः यथाऽल्लसत्त्वानां समुद्रो न लंघनीयः भवति, तथाऽल्पसत्वानां मातृपितृस्त्रजनादीनां पारस्परिकाः सम्बन्धाः अनुल्लंघनीयाः भवन्ति । ' जत्थ' यत्र यस्मिन संगे 'कीवा' क्लीवा असमर्थाः कातराः पुरुषाः 'किस्संति' क्लिश्यन्ति = क्लेशमनुभवन्ति विविधमभेदभिन्नसंसारचक्रे एवाऽऽवि - शन्ति । कथं भूतास्ते पुरुषाः - ये संसारमेव विशन्ति तत्राह - 'नाइसंगेहि मुच्छिया ' ज्ञातिसंगैः पुत्रकलत्रादिसंवन्धैः मूच्छिता आसक्ताः सन्तः स्वजनसंसर्गस्नेहो मनुष्याणामतिदुस्तरः समुद्र इव । अस्मिन् स्नेहे संसक्तोऽसमर्थः पुरुषार्थचतुर्थ परमपुरुषः पतिपुरुषोऽतीव क्लिश्यतीति महतां विमर्शः ॥ १२ ॥ मूलम् - तं च भिक्खू परिन्नाय सर्वत्रे संगो महासंवा । जीवीयं नावकखिज्जा सोच्चा धम्ममणुत्तरं ॥ १३ ॥ छाया -- तं च भिक्षुः परिज्ञाय सर्वे संगा महास्रवाः । जीवितं नावकांक्षेत श्रुत्वा धर्ममनुत्तरम् ॥ १३ ॥ मनुष्यों के लिये तात्कालिक अनुकूल वेदनीय है, न कि परिणाम के लिये, परिणाम में तो ये सम्बन्ध अल्प जीवों के लिये समुद्र के जैसे दुस्तर हैं जिनमें स्वजन संसर्ग से प्रेमवशात् आसक्त होकर कायरजन नाना प्रकार के क्लेश का अनुभव करते हैं या संसार चक्र में परिभ्रमण करते हैं ||१२|| शब्दार्थ - ' भिक्खू - भिक्षुः' साधु 'तं च-तं च' उस ज्ञाति सम्बन्ध को 'परिन्नाय - परिज्ञाय' ज्ञपरिज्ञा से अनर्थकारक जानकर प्रत्याख्यानपरिज्ञासे' छोड देवें क्योंकि 'सव्वे संगा-सर्वे संगाः सभी सम्बन्ध પાશ રૂપસ’'ધ સમુદ્રની માફક અતિ દુસ્તર હોય છે. જેમ અલ્પ પરાક્રમી સમુદ્રને પાર કરી શકતા નથી તેજ રીતે અલ્પ પરાક્રમવાળા પુરૂષને માતા-પિતા વિગેરે સ્વજનાદીઓના સંબધ છેડવે તે ઘણું! જ મુશ્કેલી ભર્યાં છે કે જે સરંગમાં કાયર પુરૂષ! દુઃખ ભાગવ્યા જ કરે છે. તે કાયર પુરૂષ! કેવા ડે.ય છે ? તે માટે કહે છે કે તેઓ પુત્રકલત્રાદિ સબન્ધમાં ઘણા જ આસક્ત થઈને તેમાં જ રચ્યાપચ્યા હ।વાથી પરમ પુરૂષારૂપ મેક્ષ મેળવવા પ્રયત્ન કરી શકતા નથી. અને સ`સારરૂપી સમુદ્રમાં જ ભ્રહણ કર્યા કરે છે. ૧૨૫ સૂત્રકાર સાધુને ઉપદેશ આપતાં આ પ્રમાણે વિશેષ કથન કરે છે शब्दार्थ' - 'भिक्खू - भिक्षुः' सधु 'तं च-तंत्र' ते ज्ञाति संमंधने 'परि न्नाय - परिज्ञाय' ज्ञपरिज्ञाथी अनर्थ ।२९ लागीने प्रत्याभ्यान परिज्ञाथी छोड़ी संबंध 'महाचवा - महास्रवाः' [महान 'सव्वे संगा - सर्वे संगा' मधा For Private And Personal Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. २ अनुकुलोपसर्गनिरूपणम् ६७ अन्वयार्थ:--(भिक्खू) भिक्षुः साधुः (तं च) त च ज्ञातिसंवन्धं (परिन्नाय) परिज्ञाय ज्ञात्वा स्यजेन (सव्वे संगा) सर्वे पि संगाः संबन्धाः (महासवा) महास्रा कर्मणामास्रबद्वाररूपा भवंति अतः (अणुत्तरं) अनुत्तरं सर्वत उत्तमं (धम्म) धर्ममहिंसादिलक्षणं (सोच।) श्रुत्वा (जीविय) जीवितम् असंयमजीवनम् (नामिकखेज्जा) नामिकांक्षेत् जीवनेच्छां न कुर्यादिति ॥१३॥ टीका--'भिक्खू' भिक्षुः साधुः 'तं च तं च तादृशं परिजनसंबन्धम् । 'परिनाय परिज्ञायज्ञपरिज्ञया अनर्थस्वरूां परिज्ञाय प्रत्याख्यानपरिज्ञया यजेत् । यतः-'सव्वे संगा' सर्वे एव संगा आसक्तयः 'महासका' महास्रवाः महतां कर्मणाम् आत्रा द्वारभूताः, उत्पादका भवन्ति कर्मणाम् , इति विमृश्याऽनुकूलस्योप. 'महासवा-महाश्रवाः' महान् कर्म के आस्रवद्वार होते हैं अत: 'अणुत्तरं--अनुत्तरम्' सर्वसे उत्तम 'धम्म-धर्मम्' अहिंसादिलक्षणवाले धर्म को 'सोच्चा-श्रुत्वा' सुनकर 'साधुनीवियं-साधुजीवितम्' असंयम जीवन की 'नाभिकंखिज्जा नाभिकांक्षेत्' इच्छा न करे ॥१३॥ __ अन्वयार्थ-साधु उस ज्ञातिसंबंध को ज्ञ परिज्ञा से अनर्थमूलक जानकर प्रत्याख्यान प्रतिज्ञा से उनका स्योग करें, क्योंकि ये सभी सम्बन्ध कर्म के आश्रवद्वाररूप होते हैं अतः सर्व से उत्तम अहिंसादि लक्षणधाले धर्म को सुनकर साधु असंयमी जीवन की इच्छा न करें ॥१३॥ टीकार्थ--साधु स्वजन सम्बन्ध को ज्ञारिज्ञा से अनर्थ का कारण जान कर प्रत्याख्यान परिज्ञा से उसका त्याग कर दे। क्योंकि समस्त संग महान् आश्रय का कारण है-कर्मों के बन्ध का कारण है। इस मना पासप वार ३५ छ, मत: 'अणुत्तरं-अनुत्तरम्' माथी उत्तम 'धम्म -धर्म' असा वगेरे क्षण मन सेचा-श्रुत्वा सामजीने साधु 'जीवियं -जीवितम्' असयम अपनानी 'नाभिकखिज्जा-नाभिकांक्षेत् २७न 32. १३। સવાથ–સાધુ એ જ્ઞાતિસંબંધને જ્ઞપરિજ્ઞાથી અનર્થનું મૂળ સમજીને પ્રત્યાખ્યાન પરિણાથી તેને ત્યાગ કરે કેમ કે આ બધા જ સંબંધે કર્મના આસ્રવ દ્વાર રૂપ હોય છે. તેથી બધાથી શ્રેષ્ઠ અહિંસાદિલક્ષણવાળા ધર્મને સાંભળીને સાધુ અસંયમી જીવન ધારણ કરવા ન ઇચ્છે ૧૩ ટીકાથે-સાધુએ પરિજ્ઞાથી એવું સમજવું જોઈએ કે સ્વજનેના સંસર્ગ અનર્થનું કારણ છે. તેને અનર્થનું કારણ સમજીને તેણે પ્રત્યાખ્યાન પરિજ્ઞા વડે તેને ત્યાગ કરે જોઈએ કારણ કે સમસ્ત સંગ મહાન આશ્વવનું કારણ For Private And Personal Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ચૂંટ सूत्रकृताङ्ग सूत्रे सर्गस्योपस्थित संयमविरहितम्, 'जीवियं' जीवनं गृद्दाऽऽवासपाशकल्पम् 'नाभिकंखिज्जा' नाभिकक्षेित् । नैवाऽभिलषेदिति प्रतिकूलोपसर्गेरुपस्थितैस्तु सद्भिर्जीविताभिलाप न भवेत् । दुःखजनकतया सांसारिकजीवनं नैवाऽभिलषेत् । कं वस्तुविशेषमवाप्य ज्ञात्वा तादृशं जीवनं नाऽभिलषेत्तत्राह - सोध्चेत्यादि । 'अणुत्तरं ' अनुत्तरम् नास्मादुत्तरोऽस्तीत्यनुत्तरम् सर्वतः श्रेष्ठम् । 'धम्मं' धर्मं = श्रुतचारिव्याख्यं 'सोच' श्रुत्वा - निशम्येति-तीर्थंकरगणधर संयतानां समीपे ज्ञातिसंबन्धः संसारकारणमिति मत्वा साधुः स्वजनासक्ति परिहरेत् । यतः सर्वेऽपि संबन्धाः कर्मणां समुत्पादाः | अतः साधुमिः सर्वोत्तमः श्रुतचारित्र्याः धर्म एव परि प्रकार विचार करके साधु को अनुकूल उपसर्ग उपस्थित होने पर संयमहीन जीवन की आकांक्षा नहीं करनी चाहिए । प्रतिकूल उपसर्ग उपस्थित होने पर जीवन की ही इच्छा नहीं करनी चाहिए। सांसारिक जीवन की, जोकि दुःखजनक है, इच्छा करना उचित नहीं। किस वस्तु को प्राप्त करके और जानकर के असंयममय जीवन की अभिलाषा नहीं करना चाहिये। इसका उत्तर देते हैं जिससे उत्तर अर्थात् श्रेष्ठ कोई और न हो, वह अनुत्तर कहलाता है। ऐसे अनुत्तर अर्थात् सर्वश्रेष्ठ श्रुतचारित्ररूप धर्म को तीर्थंकर, गणधर या अनगारों के मुखारविन्द से श्रवण कर और स्वजन सम्बन्ध संसार का कारण है, ऐसा मानकर साधु स्वजन संबंधी आसक्ति का परित्याग करे । -प्रमेना अन्धनुः ४२णु-छे. आ प्रहारनो विचार पुरीने, न्यारे अनुज उपસગે આવી પડે ત્યારે સાધુએ સયમહીન જીવનની આકાંક્ષા કરવી જોઈ એ. નહી. પ્રતિકૂળ ઉપસર્ગી આવી પડે ત્યારે છત્રનની આકાંક્ષા રાખ્યા વિના મધ્યસ્થભાવે ઉપસર્ગાને સહન કરવા જોઇએ. આ પ્રકારના ઉપસર્ગો અને પરીષહે! આવી પડે ત્યારે તેણે પ્રત્રજ્યાને ત્યાગ કરીને સાંસારિકજીવન સ્વીકાર વાના વિચાર પણ કરવા જોઈએ નહીં, કારણ કે સાંસારિક જીવન તે દુઃખ જનક જ છે. તેના દ્વારા આત્મહિત સાધી શકાતું નથી. તે। આત્મહિત સાધવાના કયે રાહુ છે, તે હવે સૂત્રકાર પ્રકટ કરે છે - અનુત્તર (સશ્રેષ્ડ) શ્રુતચારિત્ર રૂપ ધર્મનું તીથ કર, ગણધર અથવા અણુગારના મુખારવિન્દેથી શ્રવણુ કરવુ અને માતા-પિતા આદિ સ્ત્રજનાના સંસગ સંસારનું કારણ છે, એવું માનીને સાધુએ એ સ્વજના પ્રત્યેની આસક્તિના પરિત્યાગ કરવા જોઇ એ. For Private And Personal Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. २ अनुकूलोपसर्गनिरूपणम् पालनीयः । एतादृशस्याऽस्य धर्मविशेषस्य सर्वश्रेष्टतां श्रुत्वा असवतजीवनमपि नाऽभिलषेत् । तादृशधर्मस्य समुपस्थिते त्यागकारणे जीवनत्यागो वरम् न पुनः संयमत्यागः श्रेयानिति भावार्थः ||१३|| उपदेशान्तरमाह - 'अहिमे' इत्यादि । मूलम् - अहि सांत आवट्टा कासवेणं पवईया | बुद्धा जत्थावसर्पति सीयंति अहा जहिं ॥ १४॥ १२ ११ १० छाया - अथेमे सन्ति आवर्त्ताः काश्यपेन प्रवेदिताः । वृद्धा यत्राऽपसर्पन्ति सीदन्ति अबुधा यत्र || १४ || आशय यह है कि सभी सम्बन्ध कर्मजनक हैं अतएव उनका त्याग करके साधु को श्रुतचारित्र धर्म का पालन करना चाहिये । इस प्रकार के धर्म की सर्वश्रेष्ठता को सुनकर असंग्रमजीवन की भी अभिलाषा नहीं करनी चाहिए । इस धर्म के त्याग का कारण उपस्थित होने पर जीवन का त्याग कर देना अच्छा किन्तु संयम का त्याग करना श्रेयस्कर नहीं है ॥ १३॥ शब्दार्थ - 'अह - अर्थ' इसके पश्चात् 'कासवेणं-काश्यपेन' काश्यपगोत्री भगवान् वर्धमान महावीरस्वामी के द्वारा 'पवेश्या - प्रवेदिताः' कहे हुए 'हमे आबा इमे आवर्ताः' ये आवर्त अर्थात् कौटुम्बिक सम्बन्ध जलचक्र की भ्रमरूप 'संनि-सन्ति' है ' जत्थ-पत्र' जिनके आने पर આ કથનના ભાવાથ એ છે કે સાંસારિક સમસ્ત સ'ખ'ધા કરેંજનક છે, તેથી તે પ્રકારના સંબધાને ત્યાગ કરીને સાધુએ શ્રુતચારિત્રરૂપ ધર્મનું પાલન કરવું જોઇએ. આ પ્રકારના ધર્મોને સશ્રેષ્ઠ ગણીને તેણે સ'યમવિહીન જીવન જીવવાની અભિલાષા પણ કરવી જોઈએ નહીં. આ ધમનું પાલન કરતાં કરતાં કદાચ જાનનું જોખમ આવી પડે તે પણ તેણે સયમના ત્યાગ કરવા જોઇએ નહીં પાતાનાં પ્રાણાનું ખલિદાન આપીને પણ તેણે સયમના માગે અડગ રહેવુ' જોઈએ. નાગાથા ૧૩૫ 'अहिमे संति' शब्दार्थ-‘अह-अथ' खाना पछी 'कासवेणं - काश्यपेन' अश्यपगोत्री भगवान् वर्षमान भहावीर स्वामीना द्वारा 'पवेइया - प्रवेदिना: ' उडेल 'इमे आवट्टा - इमे आवर्त्ताः' मा भावत' अर्थात् दुम्सि संबंध जयनी अमीर३५ 'संति For Private And Personal Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७० सूत्रकृताङ्गसूत्रे ____ अन्वयार्थ:- (अह) अथ (कासवेणं) काश्यपेन वर्द्धमानस्वामिना (पवेइया) प्रवेदिताः कथिताः (इमे आटा) इमे आवा:=ल वक्रभ्रमिरूपाः (संति) संति भवंति (जत्थ) यत्र (बुद्धा) वृद्धा तत्त्वज्ञाः (अवसप्पंति) दूरीभवन्ति, परन्तु (अवुहा) अबुधाः अज्ञानि पुरुषाः (जहि) यत्र (सीयंति) सीदन्ति दुःखिनो भवन्तीति ॥१४॥ ___टीका--'अह' अथ अनन्तरम् 'कासवेण' काश्यपेन भगवता तीर्थ करेण महावीरेण काश्यपगोत्रोद्भवेन 'पवेइया' प्रवेदिताः कथिताः 'इमे आवट्ठा संति' इमे बुदद्या संनिहिताः कुटुम्बसम्बन्धाः आवर्ताः सन्ति । 'जय' यत्र यस्मिन्नावर्ते समागते संपाप्ते सति । 'बुद्धा' वृद्धाः विवेकिनः । 'अवसप्पंति' अपसर्पन्ति, 'बुद्धा-वृद्धा' ज्ञानी पुरुष 'अवसपंति-अपसर्पन्ति' उनसे दूर हट जाते हैं परन्तु 'अवुहा-अबुधा' अज्ञानि पुरुष 'जहि-यत्र' जिसमें 'सीयंतिसीदन्ति' दुःखित हो जाते हैं ॥१४॥ और भी उपदेश करते हैं-'अहिमे संति' इत्यादि। अन्वयार्थ-काश्यप बर्द्धमान भगवान के द्वारा प्ररूपित ये (कुटुम्ब सम्पन्धरूप) आवर्त-भंवर हैं, तत्वज्ञ पुरुष जिनसे दूर रहते हैं और अज्ञानी पुरुष जिनमें फंस जाते हैं ॥१४॥ ___टीकार्थ-काश्यपगोत्रीय भगवान महावीर स्वामी के द्वारा कथित यह अर्थात् बुद्धि के समीप कौटुम्बिक सम्बन्धरूप भावत हैं । इस आवर्त के प्राप्त होने पर तत्वज्ञानी पुरुष उससे दूर हट जाते हैं। आवर्त दो प्रकार के होते हैं उसमें नदी आदि के जल भ्रमीरूप आवर्त सन्ति' छे. 'जत्थ-यत्र' रेमन मा११५२ 'युद्धा-वृद्धाः' ज्ञानी ५३५ 'अक्सप्पंतिअपसर्पन्ति' तमनाथ ६२ टी Mय छे ५५तु 'अदुड़ा-अबुधाः' अज्ञानी ५३५ 'जहि-यत्र' मा सीयंति-सीदन्ति' मित 25 orय छे. ।।१४।। સૂત્રાર્થ–કાશ્યપ ગોત્રીય વર્ધમાન ભગવાને એવી પ્રરૂપણ કરી છે કે આ કુટુમ્બ સંબંધ રૂપ સંગ આવર્ત (વમળ) સમાન છે. તત્વજ્ઞ પુરુષે આ આ આવર્તાથી દૂર રહે છે અને અજ્ઞાની પુરુષ તેમાં ફસાઈ જાય છે. ૧૪ ટીકાઈ–કાશ્યપ ગોત્રય મહાવીર પ્રભુએ આ ટુંબિક સંબંધને આવર્ત–પાણીના વમળ સમાન કહ્યો છે તેવજ્ઞ પુરુષે તે આ આવર્તધી ધર જ રહે છે. જેવી રીતે નદી અથવા સાગરના ઘેર આવર્તમાં ફસાયે For Private And Personal Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. २ अनुकूलोपसर्गनिरूपणम् ७५ तारशावत विलोक्य, आवर्तात् परावृत्ता भवन्ति, तत्र द्रव्यावर्ताः नद्यादीनां जलभ्रमिरूपाः, भावावर्तास्तु उत्कटमोहोदयापादितविषयाभिलाषसंपादकपनादि. पार्थनाविशेषाः, 'हि' यत्र आवर्ते 'अवुहा' अबुधाज्ञानिनः 'सीयंति' सीदन्ति-आसक्तिं कृत्वा क्लिश्यन्ति । तादृशावर्त विलोक्याऽपि न ततो विनिवर्तन्ते । किन्तु साग्रह तमेवाऽऽवः पविश्य अतिदुःखिनो भवन्ति ॥१४॥ ताने शवधिदर्शयितुं सूत्रकारः प्रक्रमते-'रायाणों' इत्यादि । मलम्-रायाणो रायमचा य माहणा अदुव खत्तिया। निमंतयति भोगेहि भिस्वयं साहुजीविणं ॥१५॥ छाया-राजानो राजा मात्याश्च ब्राह्मणा अथ क्षत्रियाः। निमंत्रयन्ति भोगेन भिक्षुकं साधु नीविनम् द्रव्यावर्त कर लाते हैं और उत्कट मोह के उदय से उत्पन्न होने वाली विषयों की अभिलाषा की पूर्ति करने वाली धन आदि की प्रार्थना भावावर्स है। अज्ञानी जीव इस आवर्त में फंसकर अर्थात् आसक्ति धारण करके क्लेशों के पात्र बनते हैं। वे आवर्त को देख करके भी उससे निवृत्त नहीं होते हैं, प्रत्युत हठपूर्वक उसी आवर्स में प्रवेश करके उत्पन्न दुःखी होते हैं ॥१४॥ उन आवतों को दिखलाने के लिए सूत्रकार कहते हैं-'रायाणो' इत्यादि। शब्दार्थ-रायागो-राजानः' चक्रवादि राजा महाराजा 'य-च' और रायमच्चा-राजामात्या' राजमंत्री, राजपुरोहित आदि 'माहणाब्राह्मणाः' ब्राह्मण 'अदुवा-अथवा' अगर 'खत्तिया-क्षत्रिया' क्षत्रिय મનુષ્ય તેમાંથી બહાર નીકળી શકતું નથી એ જ પ્રમાણે સ્વજનના મોહરૂપ આવર્તમાં ફસાયેલે માણસ પણ તેમાંથી બહાર નીકળી શકતો નથી. આવ7 में प्रारना ४ा -(१) द्रव्यापत्त, (२) सावायत्त नही, समुद्र महिना પાણીમાં જે વમળો ઉત્પન્ન થાય છે. તેને દ્રવ્ય.વ કહે છે ઉતકૃષ્ટ મહિના ઉદયને કારણે ઉત્પન્ન થનારી, વિષયેની અભિલાષાની પૂર્તિ કરનારી ધન આદિની પ્રાર્થનાને ભાવાવ કહે છે. અજ્ઞાની છે આ આવર્તામાં ફસાઈ જઈને–એટલે કે આસક્તિ ધારણ કરીને કલેશને અનુભવ કરે છે. તેઓ આવર્તાને જેવા છતાં પણ તેનાથી નિવૃત્ત થતા નથી, ઊલટા હઠપૂર્વક તેમાં પ્રવેશ કરીને હાથે કરીને દુઃખ વહોરી લે છે. ગા. ૧૪ वे सूत्र.२ ते आपत्तो नु १५३५ सभी -'रायाणो' त्याहशहाथ----'सयाणो राजानः' यती पणे २in महाराn 'य-च' अने रायमच्चा-राजामात्याः' भत्री, राम शहित मेरे 'माहणा-ब्राह्मणाः' प्राझए 'अहुवा-अथवा' भ२ खत्तिया-क्षत्रियाः' क्षत्रिय साहुजीविण-माधु. For Private And Personal Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra હી www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे अन्वयार्थः -- (रायाणो) राजानः = चक्रवदियः (य) च पुनः (रायमा) राजामात्याः मंत्रिपुरोहितप्रभृतयः (माहणा) ब्राह्मणा: (अदुवा ) अथवा (खतिया) क्षत्रियाः=६क्ष्वाकुवंशजमभृतयः ( साहुजीविर्ण) साधुजीविनं निरवद्यभिक्षाजीवनशीलम् (भिक्खुर्य) भिक्षुकं साधुं (भोगेहिं) भोगैः शब्दादिविषयभोगैः (निमंतयंति) निमन्त्रयन्ति भोगेष्वासक्ति फारयन्तीत्यर्थः ||१५|| टीका- 'रायाणी' राजानः = चक्रवच्यदयः 'रायमच्चा' राजामात्यादयः मन्त्रिपुरोहितसामन्तादयः 'माहणा' ब्राह्मणाः = ब्राह्मगत्वजातिमन्तो वेदपारगाः 'अदुवा' अथवा 'खत्तिया' क्षत्रियाः क्ष्वाकुवंशप्रभृतयः, एते सर्वे राजादिपभृतयः, 'भोगेहिं' भोगैश्शब्दादिविषयभोगं भोक्तुम्, 'निमंतयंति' निमन्त्रयन्ति आमन्त्रयन्ति भोगं स्वीकारयन्ति । कं निमन्त्रयन्ति तत्रः ह - 'साहुजीवणं' 'साहुजीविर्ण- साधु जीवितम्' उत्तम आधार से जीवन निर्वाह करने वाले 'भिक्खुयं भिक्षुक' साधु को 'भोगेहि भोगेः' शब्दादि विषयभोगों को भोगने के लिए 'निमंतयंति-निमन्त्रयन्ति' आकर्षित करते हैं ||१५|| अन्वयार्थ - राजा, राजमंत्री ब्राह्मग और इक्ष्वाकुवंशीय आदि क्षत्रीय साधु जीवी अर्थात् निरवद्य भिक्षा से जीवन निर्वाह करने वाले भिक्षु को भोगों के लिए आमंत्रित करते हैं, भोगों में आसक्ति उत्पन्न करते हैं ॥ १५ ॥ टीकार्य - चक्रवर्ती आदि राजा, राजमंत्री - पुरोहित, सामन्त आदि, ब्राह्मण अर्थात् ब्राह्मणस्व जाति वाले तथा वेद के पारगामी तथा क्षत्रिय अर्थात् इक्ष्वाकुवंशीय आदि, यह मथ, शब्द आदि विषयों का उपभोग करने के लिए आमंत्रित करते हैं । किसे आमंत्रित करते हैं ? साधु जीवी को अर्थात् जो सम्पम् चारित्र का पालन करके जीवित रहना चाहता है । } जोविनम्' उत्तम आयारने लवन निर्वाह ठरवावा भिक्खुयं - भिक्षुकम्' साधुने 'भोगेहि - भोगेः' शब्द वगेरे विषय लोगोने लोगवना भाटे निमंतयंतिनिमन्त्रयन्ति' माठवित १२ ॥१५॥ ટીકા”—ચક્રવર્તી આદિ રાજા, રાજમંત્રી, પુરાહિત અને સામન્ત આદિ આગેવાન વેદના પારગામી બ્રાહ્મણા તથા ઈક્ષ્વાકુ આદિ ઉત્તમ કુળમાં ઉત્પન્ન થયેલા ક્ષત્રિયે સાધુ જીવને (સમ્યક્ ચારિત્રનું પાલન કરવા માગતા સાધુને –સયમને માર્ગે જ જીવન વ્યતીત કરવા માગતા સાધુને) શબ્દાદિ વિષયે ના ઉપભાગ કરવાને માટે આમત્રિત કરે છે તેએ તેને ભાગા પ્રત્યે આ વાના For Private And Personal Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थवोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. २ अनुकूलोपसर्गनिरूपणम् ७३ साधु नीविनम् , साधु शोभनाचारेण जीवितु शीलं विद्यने यस्य तं साधुनोविनम् । श्रूयते हि ब्रह्मदतनामा चक्राी नानाविधभोगोपायः चित्रकनामानं साधु भोग भोक्तुं निमन्त्रित मानिति । राजादिनाम गान्ताः साधुजीवने व्यवस्थित मुनि भोगाय निमन्त्रयन्तीति भावः ॥१५॥ अधुना-आवर्तस्वरूपविशेष माह-'इत्थऽस' इत्यादि। मूलम्-हत्थऽस्सरहजाणेहि विहारंगभणेहि य । मुंजे भोगे इमे सग्घे महरिसी पूजयामु तं ॥१६॥ छाया--हस्त्यश्वरथयाने विहारगमनेन च । सुंश्व भोगान् इमान् श्लाध्यान् महर्षे पूजयायस्त्वाम् ॥१६॥ भावार्थ यह है सुना जाता है कि ब्रह्मदस नामक चक्रवर्ती ने नानाप्रकार के भोगों को भोगने के लिए चित्तनामक मुनि को निमंत्रित किया था। इस प्रकार राजा से लेकर माधारण क्षत्रियपर्यन्त, पूर्वोक्त सभी साधुजीवन में अवस्थित मुनि को भोगों के लिए आमंत्रित करते हैं ॥१५॥ अब आवर्त का स्वरूप कहते हैं-'हस्थऽस्स' इत्यादि। शब्दार्थ--'महरिसी-हे महर्षे' हे महर्षि ! 'तं-त्वाम्' हम तुम्हारी 'पूजयामु-पूजयामो' पूजा करते हैं 'इमे-इमान्' इन 'सग्धे-श्लाघ्यान्' उत्तम मनोरम 'भोगे-भोगान्' शब्दादि भोगों को 'भुजे-भुक्ष्व' भोगो 'हत्थस्सरह जाणेदि-हस्त्यश्वरथयान हाथी, घोडा, रथ, और पालखी आदि 'य-च' और 'विहारगमणेनि-विहारगमन' विज्ञार गमन के लिए अर्थात् चित्तविनोद के लिए बगीचे आदि में विचरण को॥१६॥ પ્રયત્ન કરે છે. જેમ કે- બ્રઘદત્ત નામના ચકવર્તીએ ચિત્ત નામના મુનિને વિવિધ પ્રકારના ભેગો ભેગવવા માટે નિયંત્રિત કર્યો હતો. એ જ પ્રમાણે રાજાથી લઈને ક્ષત્રિય પર્યંતના પૂર્વોકત સઘળા લેકે સંયમની આરાધના કરતા સાધુને ભેગે પ્રત્યે આકર્ષવાનો પ્રયત્ન કરે છે. પા આવર્તાના સ્વરૂપનું વિશેષ નિરૂપણ કરતા સૂત્રકાર કહે છે કે – 'इत्यऽस्स' त्याह शा--'महरिसी-हे महर्षे' 3 महब ! 'तं-त्वाम्' समे तमारी 'पुजयामु-पुजय मे।' on शो 'इने-इमान्' मा 'सम्धे-श्लाध्यान्' उत्तम भनाम 'भोगे-भोगान्' शबोरे लेगाने मुंजे-भुक्षा लेने हत्थस्सरहजाणेहिं -हस्त्यश्वरथयानः' थी, घोडा २०, भने पाभी मेरे ७५२ 'य-च' भने 'विहारगमगेहि-विहारगमनैः विहागमनना भाटे अर्थात् वित्तदिनाना मादे मनाया परेमा २ ॥१६॥ For Private And Personal Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ક www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्ग सूत्रे अन्वयार्थः -- (महरिसी ) हे महर्षे (तं) स्वाम् (पूजयामु) पूजयामो वयम् (इमे) इमान् (धे) लध्यान मनोरमान् (भोगे) भोगान शब्दादीन (भुंजे) भुंक्ष्व=भोगं कुरु (हत्थस्सरह जाणेहि ) हस्त्यश्वरथयानैः (य) च= पुनः ( विहारगम) विहारगमनैः उपवाटिकादिषु इत्यर्थः ॥ १६ ॥ टीका - 'महरिसी ' हे महर्षे' 'तं' वाम् 'पूजयामु' पूजयामो वयम् 'इमेसग्धे' इमान श्लाघमान् 'भोगे' भोगान् 'भुंज' भुक्षा=भोग्य वस्तुजातं भक्षय भोगक्रियामयोजकं पदार्थजातं दर्शयति-' इत्थे' त्यादि । 'हत्य' हस्ती 'अस्स' अश्वः 'रह' रथः 'जाणेहिं' यानम् - यानं मनुष्यबाह्य शिविकादिः एमिर्हस्त्यश्वरथयाः, तथा 'विहारगणेहि य' विहारगमनैः, विहरणं क्रीडनं विहारः तेन गमनानि इति विदारगमनानि, उद्यानवाटिकादौ क्रीडार्थ गमनानीति यावत्, एमिग्यपदार्थ : 'पूजयामु' पूजयामः सत्कारयामः वयं विषयोपभोगकरणमदान भवन्तं सत्कारयामः । पूत्रोक्ताश्वक्रयः साधुसमीपमागत्य एवं कथयन्ति । " अन्वयार्थ - हे महर्षे ! हम आप का सत्कार करते हैं। आप इन प्रशंसनीय मनोरम भोगों को भोगिए । हाथी, घौडा, रथ तथा पान पर आरूढ होइए और बाग बगीची में बिहार कीजिए ||१६|| w टीकार्थ - राजा आदि साधु से निवेदन करते हैं हे महर्षे ! आप इन श्लाघनीय भोगों को भोगिए । भोग में काम आने वाले पदार्थो को सूत्रकार दिखलाते हैं-हती, अभ्य, रथ, यान अर्थात् मनुष्यों द्वारा वहन करने योग्य पालखी आदि तथा उद्यान एवं वाटिका आदि में क्रीडा विहार के लिए गमन, इत्यादि भोग्य पदार्थों के द्वारा हम आप का सत्कार करते हैं । सूत्रार्थ-डे महर्षि ! पधारो, अमे आपने सत्र मे छीये. आप या प्रशंसनीय भनोरम लोगे तो उपलोग मेरो हाथी, घोडा २थ. पासणी, આદિ પર વિરાજમાન થઈને અ.પ બગ-બગીચામાં વિહાર કરેા. ૧૬૫ ટીકા—રાજા માદિ ઉપર્યુક્ત લેકે સાધુને આ પ્રમાશે વિન ંતિ કરે છે. હું મર્ષિ ! આપ આ અનુપમ ભેગેને ભેગવે। ભોગના ઉપયાગમાં भावती वस्तुओ। सूत्रार गणाचे हे - हाथी, घोडा, रथ, य:न (पासणी) भट्ठि વસ્તુઓના આપ ઉપભાગ કરેા હાથી, ઘેાડા આદિ પર આરૂઢ થઈને આપ આનંદ પૂર્વક ઉદ્યાન, વાટિકા આદિ સુ ંદર સ્થાનામાં વિચરણ કરે અમે આ ભાગ્ય પદાર્થો દ્વારા આપના સત્કાર કરીએ છીએ આ કન દ્વારા સુત્રકાર એ વાત પ્રકટ કરવા માગે છે કે આ પ્રકારની ભાગ્ય સામગ્રીએ સાધુએને અણુ For Private And Personal Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. २ अनुकूलोपसर्गनिरूपणम् ७५ यत् हे महर्षे ! इस्त्यश्वादावुपविश्य क्रीडनार्थ वाटिकां गच्छ, सर्वत उत्तपं भोगं स्वीकुरु । अनेनोपायेन भवन्तं वयं पूजयाम इति भावः ॥१६॥ पुनरप्पाह--'वस्थे' त्यादि। मूलम्-वस्थगंधमलंकारं इत्थाओ सयणाणि य । भुंजाहिमाइं भोगाइं आउसो पूजयामु तं ॥१७॥ छाया--वस्त्रगंधमलं कारं त्रियः शयनानि च । ___ मुंश्वेमान् भोगानायुष्मन् ! पूजयामस्त्वाम् ॥१७॥ अन्वयार्थः--(आउसो) हे आयुष्मन् ! (वस्थगंधमलंकारं) वस्त्रगंधमलंकारम् आशय यह हैं कि-पूर्वोक्त चक्रवर्ती राजा आदि साधु के समीप पहुंचकर इस प्रकार कहते हैं-हे महर्षे ! हाथी घोडा आदि पर सबार होकर क्रीडा करने के हेतु वाटिका में पधारिए । उत्तमोत्तम भोगों को स्वीकार कीजिए । इस उपाय से हम आप की पूजा करते हैं ॥१६॥ पुनः कहते हैं-'वस्थ' इत्यादि । शब्दार्थ--'आउसो-आयुष्मन्' हे आयुष्मन् 'वत्थं-वस्त्रम्' उत्तम वस्त्र 'गंध-गन्धम्' गन्ध और 'अलंकार-अलङ्कारम्' अलंकार आभूषण 'इथिओ-स्त्रिया' स्त्रियां 'य-च' और 'सयणाणि-शयनानि' शय्या आसन उपवेशन-बैठने के योग्य वस्तु 'इमाई भोगाई-इमान् भोगान्' इन्द्रिय और मन के अनुकूल इन भोगों को 'भुज-भुक्ष्य' आप भोगे 'तं-स्वाम् आप को 'पूजयामु-पूजयामः' पूजा करते हैं ॥१७॥ ___ अन्वयार्थ-आयुष्मन् ! वस्त्र, गंध, आभूषण, स्त्री शय्या और કરીને રાજા, રાજમંત્રી, આદિ પૂર્વોકત લેકે સાધુને સંયમના માર્ગેથી ચલાયમાન કરીને ભેગે પ્રત્યે આસકત કરે છે, ગાથા ૧દા 'वत्थ' त्याह शा-'आउसो-आयुष्मन्' मायु मन् 'वत्थं-वस्त्रम्' उत्तम पर गंध -गन्यम्' ग भने 'अलंकारं-अलङ्कारम्' म २-माभूषय 'इथिओ-स्त्रियः' लियो य-च' मने 'सयणाणि - शयनानि' शया मर्थात् पथारी मासन 6५. वेशन अर्थात् साना याय १२तु 'इमाई भोगाई-इमान् भोगान्' धन्द्रिय भने भनन भनु मालागाने 'भुंज-मुंव' मा५ लोगो 'तं-त्वाम्' सापनी 'पुजयामु-पुजयामः' भी पू री छीओ. ॥१७॥ . For Private And Personal Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७६ सूत्रकृताङ्गसूत्रे (इत्थिओ) त्रियः = मनोरमाः ( 4 ) च पुनः 'सयणाणि' शयनानि - शयनं शय्याम् उपलक्षणत्वात् आसनमुपवेशनयोग्यं च वस्तु (इमाई भोगाई) इमान पूर्वोक्तान भोगान् विषयान् (भुंज) भुंक्ष्व = (तं) त्वां ( पूजयामु) पूजयाम :- सत्कारयामः इति ॥ १७ ॥ टीका- 'आउसो' हे आयुष्मन् ! 'वत्थं' वस्त्रप्=चीनांशुकादिकम् 'गंध' गन्धं-कोषपुटपाकादिकं, वस्त्राणि च गन्धाश्वेति समाहारे वस्त्रगंधमिति, 'अलंकारं ' अलंकारम् = अलंकरणम् = कटककेयूरादिकं सौवर्णरात्नं च भूषणम् । 'इत्थिओ' स्त्रियः =पनेकरूपाः पातयौवना 'सवणाणि य' शयनानि च पर्यवळ मच्छरोपधान्युक्तानि, 'इमाई भोगाई' इमान् भोगान - इमान अस्माभिः मदतान इन्द्रियमनोनुकूलान् भोगान् 'झुंज', एतेषामुपभोगेन जन्मली. कुरु । 'ते' त्वाम् वयम् 'पूजयामु' पूजयामः = सत्कारयामः व्यथा विंशतितमेऽध्यने उत्तराध्ययनस्य श्रेणिकेन विविधभोगैरनाथी मुनिः प्रातिः ॥१७॥ उपलक्षण से आसन तथा बैठने के योग्य अन्य वस्तु इन सब भोगों को भोगिए हम आप की पूजा सत्कार करते हैं ॥ १७ ॥ टीकार्थ- (पूर्वोक्त राजा आदि ऐसा भी कहते हैं) हे आयुष्मन् ! atris (चाइना सिल्क) आदि वस्त्र, कोष पुटपाक आदि गंध, स्वर्ण और रत्नों के बने हुए कटक केयूर आदि आभूषण, तरुणी स्त्रियां, कोमल गई, चद्दर एवं तकिया से युक्त सेज, इन सब हमारे द्वारा प्रदत्त तथा इन्द्रियों को और मन को अनुकूल प्रतीत होने वाले भोगों को भोगिये । इनका उपभोग करके अपने जीवन को सफल कीजिए । हम आप का सत्कार करते हैं । जैसे उत्तराध्ययन सूत्र के बीसवें अध्ययन सूत्रार्थ - डे आयुष्यमतू ! वस्त्र, गंध, माभूषयो, रखी, शय्या भने આસન આદિ વસ્તુઓના અપ ઉપપ્લેગ કરો. આ બધી વસ્તુ દ્વારા અમે આપના પૂજા સત્કાર કરીએ છીએ. ૫૧મા ટીકા”—પૂર્વોક્ત રાજા, રાજમંત્રી આદિ તે સાધુને એવું પણ કહે છે કેહું આયુષ્મન્! ચીનાંશુક (ચાઈના સિલ્ક) આદિ વસ્ર, કેષ પુટપાક આદિ ગધ, સેાનાં અને રત્નાનાં કટક, કેયૂર આદિ આભૂષા, નવયુવતીએ, કમળ ગાદલાં, ચાદર અને તકિયાથી યુક્ત સેજ-શષ્ય ઈ.યાદિ વસ્તુએ અમે આપને આપણુ કરવા તૈયાર છીએ, તેા ઇન્દ્રિયા અને મનને અનુકૂળ થઈ પડે એવાં ભાગોને આપ ભગવા. તે ભાગોના ઉપભોગ કરીને આપ આપનું જીવન સફેળ કરા. અમે આ વસ્તુઓ વડે આપને સત્કાર કરીએ છીએ. ઉત્તાધ્યયન સૂત્રના For Private And Personal Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थवोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. २ अनुकुलोपसर्गनिरूपणम् ७७ मळम्-जो तुमे नियमो चिष्णो भिक्खुमामि सुव्वया । आगारमावसंतस्स सव्वो संविजए तहा ॥१८॥ छाया--यस्त्वया नियमश्वी! भिक्षुभावे सुव्रत ?। आगारमाविशतस्तव सर्वः संविधते तथा ॥१८॥ अन्वयार्थ:--(सुव्यया) हे मुव्रत ! शोभनवतशील ! (तुमे) स्वया (भिक्खु. भावमि) भिक्षुभावे-पत्रज्यानसरे (जो) यः (नियमो) नियमः व्रतविशेषः (चिण्णो) चीर्णोऽनुष्ठितः (भागारमावसंतस्ल) आगारमावसतोपि तब (पो) सर्वोऽपि महावतादिः (तहः) तथा तेनैवरूपेण (संविज्जए) संविद्यते तथैव सर्व स्यात् न किंचिदपि हियतेति ॥१८॥ में वर्णन है कि श्रेणिक राजा ने अनाथी मुनि को विविध प्रकार के भोग भोगने के लिए निवेदन किया था !॥१७॥ शब्दार्थ-'सुव्वया-सुव्रत' हे सुन्दर व्रत वाले मुनिवर 'तुमे-स्वया' तुमने 'भिक्खुभावंमि-भिक्षुभावे' प्रव्रज्या के समय 'जो-यः' जो 'नियमो-नियमः' नियम 'चिण्णो-चीर्णः' अनुष्ठान किया है अगारमाव. संतस्स-अगारमाविशत:' घर में निवास करने पर भी 'सव्वो-सर्वः' वह सब तहा-तथा' उसी प्रकार संविज्जए-संविद्यते' बने रहेंगे॥१८॥ अन्वयार्थ--हे सुव्रत ! तुमने दीक्षा के अवसर पर जो नियम पाला था, गृहवास में रहने पर भी वही सब नियम उसी रूप में बने रहेंगे ॥१८॥ વીસમાં અધ્યયનમાં આ પ્રકારને એક પ્રસંગ પ્રકટ કરવામાં આવ્યા છે–શ્રેણિક રાજાએ અનાથી મુનિને વિવિધ પ્રકારના ભોગ ભેગવવાને માટે વિનતિ કરી હતી. ગાથા ના Avai-'सुव्वया-सुव्रत' 3 सु४२ प्रतवाणा भुनि१२ 'तुमे त्वया' तमे 'भिक्षुभावंमि-भिनुभावे' याना समये 'जो-यः' २ 'नियमो-नियमः' नियम चियो-चीर्णः' भायल छ, 'अगारमावसंतस्स-अगारमाविशतः' घरमा निवास ४२१। छतi ५४ 'सयो-सर्वः' ते मधु 'तहा-तथा' ते मारे 'संविजएसंविद्यते' ते प्रमाणे मनी २२. । १८॥ સૂત્રાર્થ છે સુવત! તમે સાધુ અવસ્થામાં જે નિયમો પાળી રહ્યા છે, તે નિયમનું ઘરમાં રહીને પણ એજ પ્રમાણે પાલન કરજે. ૧૮ For Private And Personal Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे टीका---'सुव्वया' हे सुत्रत ! शोभनं प्राणातिपातविरमणलक्षणवतं नियमानुष्ठानं यत्य तत्संबोधने हे सुबा ! 'तुमे' त्या 'विवखु मामि' भिक्षुमावे संयमे 'जे' या 'निययो' नियमः पंचमहाव्रतादिरूपः प्रवज्यावसरे 'विष्णो' चीर्णः अनुष्ठितः 'आगारमावसंतस्स' आगारमावसतस्तव-गृहवासम् अधिवसतस्तव 'सव्वे' सर्व: पंचमहाव्रतादि; । 'तहा' तथैव 'संविज्जए' संविद्यते । हे सुन्दरव्रतधारिन् ! प्रवज्याग्रहणसमये यो हि पंचमहाब्रतादिरूपो नियमस्त्वया स्वीकृतः, स सोऽपि यथैवपूर्वमासीत् तथैव गृहनासेऽपि रक्षितो भविष्यतीति तबतभंगभयेन सूखोपमोगे मा शिथिलीभवेदिति भावः ॥१८॥ पुनरप्याह--'चिर' मित्यादि। मूलम्-चिरं दूइज्जमाणस्त दोसो दाणिं कुतो तव । इच्छेव णं निमंतेति नीवारेण व सूयरं ॥१९॥ छाया--चिरं विहरतो दोष इदानीं स कुतस्तव । __इत्येव निमन्त्रयन्ति नीवारेणेव सूकरम् ॥१९॥ टीकार्थ-प्राणातिपात विरमण आदि व्रत जिसके समीचीन हो, वह सुव्रत कहलाता है। यहाँ उसे संबोधन करके कहा गया है-हे सुबम ! तुमने साधु अवस्था में पंचमहावन आदि जो नियम पाले हैं गृहस्थी में रहते हुए भी वही सब ज्यों के त्यों बने रहेंगे। ___ आशय यह है कि साधु पर्याय में तुमने जिन नियमों को पालन किया है, उन नियमों का गृहवास में भंग नहीं होगा। वे ज्यों के त्यों रहेंगे । अतएव नियम भंग के भय से सुखों का उपभोग करने में शिथिल मत बनों ॥१८॥ ટીકાથ–પ્રાણાતિપાત વિરમણ આદિ વતનું જે સમ્યફ પ્રકારે પાલન કરે છે, તેને સુવ્રત કહે છે. અહીં સાધુને “સુવત' પદ દ્વારા સંબોધન કરીને રાજા આદિ પૂર્વોક્ત લેકે આ પ્રમાણે કહે છે કે - હે સુવત ! પ્રવજ્યા અંગીકાર કર્યા બાદ આપે પ્રાણાતિપાત વિરમણ આદિ પાંચ મહાવ્રતની જે પ્રકારે આરાધના કરી એ જ પ્રકારે ગૃહવાસમાં રહીને પણ આપ તે વ્રતની આરાધના કર્યા કરજે. તે નિયમનું પાલન કરવા માટે સાધુપર્યાયમાં રહેવાની શી આવશ્યકતા છે ગૃહવાસમાં રહીને પણું આપ તે નિયમનું પાલન કરી શકે છે ગૃહવાઅને સ્વીકાર કરવાથી તે નિયમેને ભંગ થશે, એ ભય રાખીને સંસારના અને ઉપભેગ કરવાથી વંચિત રહેવાની શી જરૂર છે! ગાથા ૧૮ For Private And Personal Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. २ अनुकूलोपसर्गनिरूपणम् । ७९ अन्वयार्थः--(चिर) चिरचिरकाल (दुःजमाणस्स) विहरतः प्रामानुग्राम गच्छतः (१३) स्व (दाणि) इदानीं (दोसो) दोषः (को) कुतः नैवास्तिदोषः (इच्चेवं) इत्येवं क्रमेण (नीवारेण) नीवारेण ब्रीहिविशेषकणदानेन (सूयरंव) करमिच (निमंते ति) निमंत्रयंति-भोगबुद्धि कारयन्तीति ॥१९॥ ___टीका-हे मुनिश्रेष्ठ ! 'चिर' चिरं बहुकालम् 'दुइज्जमाणस्स' विहरतःसंयमानुष्ठानपूर्वकं ग्रामानुग्रामं विहरतस्तव 'दाणि' इदानीमेतस्मिन् समये (कुतो) पुनः कहते हैं-'चिरं दुइजनमाणस्म' इत्यादि। शब्दार्थ-हे मुनि श्रेष्ठ चिरं-चिरम्' बहुत काल से 'दइज्जमा जस्त-विहरत: संयम का अनुष्ठानपूर्वक ग्रामानुग्राम विहार करते हुए 'तब-तब आप को 'दाणि-इदानों इस समय 'दोसो-दोषा' दोष 'कओ-कुना कैसे हो सकता है 'इच्चे-इत्येवम्' इस प्रकार 'निवारेण-नीवारेण' चावल के दानों का लोभ दिखाकर 'सूयरंव-सूकरमिय' सूकर को जैसे लोग फसाते हैं इसी प्रकार मुनि को 'निमंतेति-निमंप्रयन्ति' भोग भोगने के लिए निमंत्रित करते हैं ॥१९॥ ___ अन्वयार्थ-चिरकाल तक संयम विहार करने वाले तुम्हें अब दोष कैसे लग सकता है ? इस प्रकार भोगों के लिए आमंत्रित करके वे लोग साधु को उसी प्रकार लुभाते हैं, जैसे चावल के कणों से शूकर को लुभाया जाता है ॥१९॥ qणी तेयो तने 3 छ ?-'चिरं दूइज्जमाणस्स' त्या शाय- मुनिश्रेष्ठ 'चिरं-चिरम्' म ein mथी 'दूइज्जमाणस्स -विहरतः' यमन अनुष्ठान : श्राभानुश्राम विहार ४२i Rai 'व-तव' मापने दाणि-इदानों' मा समये 'दोसो-दोषः' ५ 'कओ- कुतः वी शते या छ १ 'इच्व- इत्येवम्' मा परे 'नीशरेण-नीवारेण' योमाना हाया माना सोस हेमान 'सूयरंव-सूकरमित्र' सूने थी शत माणुसे। सावछतेवा मारे मुनिन निमंति-निमंत्रयन्ति' मे-पाना भाट निभत्रित ४२ छ.११८ - સૂવાર્થ –દી કાળથી આપ સંયમની આરાધના કરી રહ્યા છે, તે હવે આપને કેઈ પણ દોષ પશી શકે તેમ નથી ! જેવી રીતે ચાખાના દાણા પાથરી દઈને શૂકરને (સૂવરને) લલચાવવામાં આવે છે, એ જ પ્રમાણે લેકે દ્વારા સાધુને ભેગોમાં આસક્ત કરવા પ્રયત્ન કરાય છે. ૧લા ટીકાઈ– તેઓ તેને કહે છે) હે મુનિશ્રેષ્ઠ ! આપે ચિરકાળ પર્યા, For Private And Personal Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे कुता-कस्मात्कारणात् ते 'दोसो' दोषः, संस्मारपालनपूर्वकं विहारकारिणः सर्वमपि पापं विनष्टम् । तपसा क्षीगक्लेशस्य भवतोऽतः परं नैव पापं संभवति । तपाममात्रादेव अतो वस्त्रालंकारादिभिः कृतेऽप्युपभोगे न ते पापसंभावनेति भावः । इच्चे' इत्येवै प्रकारेण साधु ते नक्रवत्योदया । 'निमंतेति' निमन्त्रयन्ति । नीगरेग मूयर व नीवारेग मुकरमित्र । यथा नीवारादि धान्यविशेपाणां प्रलोभनं दया बधिकस्तं मुकर गर्ने पातयति । तद्वदिमे राजानो मुनि प्रलोभ्य यातनाय प्रयतन्ते । हे साधो ! भाता चिरकालं संयमानुष्ठानं कृतम् , अतः परं स्त्रीवस्त्रादिभोगेनापि भवतो दोषो न भविष्यति । एवं प्रलोभनकमा. मन्य साधुमपि लोकाः पातयन्ति, सकर धान्यदाने ने वेति भावः ॥१९॥ टीकार्थ--(वे कहते हैं) हे मुनिश्रेष्ठ ! आपने चिरकालपर्यन्त संयम विहार किया है अर्थात् संगम का पालन करते हुए ग्रामानुग्राम विष रण किया है, अब आप को पाप का स्पर्श कैसे हो सकता है ? संयम पालनपूर्वक विहार करने वाले के सभी पाप नष्ट हो चुके हैं । तपस्या के द्वारा आप के सभी क्लेश क्षीण हो चुके हैं। आप को अब पाप कैसा ! उस तप के प्रभाव से अब आप को पाप का स्पर्श नहीं होगा, भले ही आप बत्र गंध अलंकार आदि का भोग करें। इस प्रकार कह कर वे चक्रवर्ती आदि साधु को भोगोपभोग के लिए आमंत्रित करते हैं । जैसे चावल आदि के दानों का प्रलोभन देकर व (शिकारी) शुकर को गड्ढे में गिराता है, उसी प्रकार वे लोग मुनि को परित करने के लिये प्रयत्न करते हैं। સંયમવિહાર કર્યો છે, એટલે કે સંયમનું પાલન કરતા થકા આપે પ્રામાનુગ્રામમાં વિચરણ કર્યું છે. સંયમની દીર્ઘકાળ પતિ આરાધના કરવાને લીધે આપના સઘળાં પાપ નષ્ટ થઈ ચૂક્યાં છે. તપસ્યા દ્વારા આપના સઘળાં પાપે ક્ષીણ થઈ ચુકયાં છે હવે આપને પાપને સ્પર્શ જ કેવી રીતે થઈ શકે? આપના તે તપના પ્રભાવથી આપને પાપને સ્પર્શ જ નહીં થઈ શકે! –વસ્ત્ર, ગંધ, અલંકાર આદિને ઉપભોગ કરવા છતાં આપને પાપ સ્પર્શી શકે તેમ નથી?” તે આપ તેને ઉપભોગ શા માટે કરતા નથી આ પ્રમાણે રાજ, રાજમંત્રી, પુરોહિત આઢિ જને સાધુને ભેગીપભેગ પ્રત્યે આકર્ષે છે. જેવી રીતે ચોખા આદિનું પ્રલોભન દઈને શિકારી ભૂકરને ખાડામાં પાડી નાખે છે, એજ પ્રમાણે લોકે મુનિને સંયમના માર્ગથી ચલાયમાન કરીને સંસારરૂપ ખાડામાં તેનું પતન કરાવવા પ્રયત્ન કરે છે. For Private And Personal Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatith.org www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Acharya Shri Kailassagarsuri ।ए' इत्यादि। समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. २ अनुकूलोपसर्गनिरूपणम् १ मूलम्-चोइया भिक्खुचरियाए अचयंतो जवित्तये। ' तत्थ मंदा विसीयंति उजाणसि व दुब्बला॥२०॥ छाया--नोदिता भिक्षुचर्ययाऽशक्नुवन्तो यापयितुम् । ___ तत्र मन्दा विषीदन्ति उद्यान इव दुर्बलाः ॥२०॥ अन्वयार्थः--(भिक्खुचरियाए) भिक्षावर्यया (चोइया) नोदिताः (जवित्तए) यापयितुम् (अचयंता) अशक्नुवन्तः (तःथ) तत्र-तस्मिन् संयमे (मंदा) मन्दाः अभिप्राय यह है-हे साधो ! आपने दीर्घकालपर्यन्त संयम का अनुष्ठान किया है, अतएव अब स्त्री वस्त्र आदि का उपभोग करने पर भी आप को दोष नहीं लगेगा। इस प्रकार प्रलोभन देकर और विषयभोगों के लिए आमंत्रित करके राजा आदि लोग साधु को पतित करते हैं, जैसे वधक-शिकारी अन्न के कणों से लु भाकर शकर को फंसाते हैं ।।१९। 'चोइया भिक्खुचरियाए' इत्यादि । शब्दार्थ--'भिक्खुचरियाए-भिक्षाचर्यया' साधुओं की मामाचरी को पालन करने के लिए 'चोइया-नोदिताः' आचार्य आदि के द्वारा प्रेरित किए हुए 'जवित्तए-यापयितुम् एवं उस सामाचारी के पालनपूर्वक अपना निर्वाह 'अचयंता-अशक्नुवन्तः' नहीं कर सकते हुए 'मंदा-मन्दाः' अज्ञानिजन 'तत्थ-तन्त्र' उस संयम में 'विसीयंति-विषी. આ કથનને ભાવાર્થ એવો છે કે- સાધે! આપે દીર્ઘકાળ પર્યન્ત સંયમની આરાધના કરી છે, તેથી હવે સ્ત્રી, વસ્ત્ર, આદિને ઉપભોગ કરવા છતાં પણ આપને દોષ લાગશે નહીં! આ પ્રકારના પ્રલોભને દ્વારા રાજા આદિ પૂર્વોક્ત લેકે સાધુને વિષયભેગો પ્રત્યે આકપીને તેનું પતન કરે છે. જેવી રીતે શિકારી રેખાના કણ બતાવીને કરને ફસાવે છે, એ જ પ્રમાણે લેક ગોપભેગની સામગ્રી દ્વારા સાધુને લલચાવીને તેને સંયમના માર્ગથી ચલાયમાન કરે છે. છેલલા 'चोइया भिक्खुचरियाए' त्या शाय-- भिक्खुचरियाए-भिक्षाचर्यया' साधुमानी समायारीने पासन ४२१ना भाट चोइया-नोदित्ताः' माया बगेरेना द्वारा प्रेरित ४२ 'जवित्तए -यापयितुम्' ते साभायारीना पावन पू' पाताने। निर्वाड 'अचयंताअशक्नुवन्तः' ना ४२N Asdi 'मंदा-मन्दाः' भूभ माणूस 'तत्थ-तत्र' समयमा स० ११ For Private And Personal Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे जडाः (विसीयंति) विषीदन्ति शिथिला भवंति, (उज्जाणंसि) उद्याने उच्चमार्गे (दुबला व) दुर्बला वृषमा इव असमर्थाः भवन्तीति ॥२०॥ टीका--इहाऽऽनन्तर्येऽर्थे समुपन्यस्तस्तस्योपसंहारार्थमाह-'भिक्खुचरियाए' भिक्षुर्यायाम् भिक्षूणां साधूनामुद्युक्तविहारिणां, चरिया-चर्या दशविध-चक्रवाल, सामाचारी, इच्छा, मिथ्येत्यादिका । तादृशचर्यया-'चोइया' नोदिताः आचार्यादिमिः प्रेरिताः, साधूनामाचारपरिपालनाय 'जवित्तये' यापयितुम् साधुसमाचारे अशक्तिमन्तः । स्वनिर्वाह करणे-'अच यंता' अशक्नुवन्तः । 'मंदा' मंदा: कातराः अल्पसत्वाः जीवाः, 'तत्थ' तस्मिन् संयमपरिपालने । 'विसीयंति' विषी. दन्ति' शिथिल हो जाते हैं 'उज्ज्ञआणसि-उद्याने' उचे मार्ग में 'दुन्छलाय-दुर्वला।' इव दुर्बल बैल जैसे गिर जाते हैं अर्थात् मूर्ख जन संयम से चलित हो जाते हैं ।२०। अन्वयार्थ--भिक्षुचर्या अर्थात् साधु की समाचारी का पालन करने के लिए प्रेरित किये हुए और उसका पालन करने में समर्थ न होते हुए मन्द साधु संयम में शिथिल हो जाते हैं उसका परित्याग कर देते हैं, जैसे उच्च मार्ग में अर्थात् चढाव में दुर्बल बैल असमर्थ हो जाते है॥२०॥ __टीकार्थ-जो विषय पहले प्रतिपादन किया गया है, उसका उपसंहार करने के लिए कहते हैं-शास्त्रानुसार विहार करने वाले मुनियों की इच्छाकार मिपाकार आदि दस प्रकार की सामाचारी कही गई है। उस सामाचारी का पालन करने के लिये जय आचार्य आदि के द्वारा प्रेरणा की जाती है और साधु उसका पालन करने में समर्थ नहीं होते 'विसीयति-विषीदन्ति' शिथित नय छ, 'उजाणसि-उद्याने' या भागभां 'दुब्बलाव-दुर्बलाः इव' हु An वी रीत पडी जय मथात् य२ માણસ સંયમથી ચલિત થઈ જાય છે. ૨૦ સૂત્રાર્થ-જેવી રીતે દુર્બળ બળ સીધું ચઢાણ ચડવાને અસમર્થ હોય છે, એજ પ્રમાણે સાધુની સમાચારીનું પાલન કરવા માટે ગમે તેટલે પ્રેરિત કરવામાં આવે, તે પણ તેનું પાલન કરવાનું સામર્થ્ય જે સાધુમાં ન હોય, તે સાધુ સંયમના પાલનમાં શિથિલ થઈ જાય છે અને સંયમને પરિત્યાગ પણ કરી નાખે છે. પારો ટીકાર્થ –આ ઉદ્દેશાના પહેલાના સૂત્રમાં જે વિષયનું પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું છે, તે વિષયનો ઉપસંહાર કરતા સૂત્રકાર કહે છે કે-સાધુઓએ ઈચ્છાકાર, મિથ્યાકાર આદિ દસ પ્રકારની સમાચારોનું પાલન કરવું પડે છે, આચાર્ય દ્વારા આ સાધુ સમાચારીનું પાલન કરવાની સાધુઓને વારંવાર પ્રેરણા આપવામાં આવતી હોય છે. પરંતુ કઈ કઈ અલ્પસત્વ, મન્દમતિ અને કાયર સાધુ તેનું For Private And Personal Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मार्थबोधिनी टीका प्र. थु. अ. ३ उ. २ अनुकूलोपसर्गनिरूपणम् == ફૅ दन्ति, विषण्णाः शिथिलयत्नाः संयमरहिताः भवन्ति । दृष्टान्तं दर्शयति- 'उज्जासि' उद्याने, ऊर्ध्वानमुद्यानम्, मार्गस्य उच्चभागः, तस्मिन उद्यानाग्रभागे पृष्ठे धृतमहाभारा 'दुबला' दुर्बयाः वृषभाः । 'व' इव यथा दुर्बला वृषभाः पृष्ठे धृतमहाभारा मार्गस्य कचिन्नतोन्नतभागमासाद्य तमतिक्रमितुमसमर्थाः भारं परित्यजन्ति । तथा संयमे मोक्षमार्गे धृतपंचमहाव्रतभारं वोढुमसमर्थाः शिथिलविहारिणो भवन्ति । यद्वा महापुरुषैः सेवितं संयमं परित्यजन्ति ते कातराः इति भावः ॥ २० ॥ २ मूलम् - अवयंता व ऌहेणं उपहाणेण तजिया । तत्थ मंदा विसीति उाणसि जररंगवा ॥२१॥ छाया - अशक्नुवन्तो रूक्षेण उपवानेन वर्जिताः । - तत्र गंदा विषीदन्ति उद्याने हि जगद्रवाः ||२१|| अन्वयार्थ : - - (लहेणं) रूक्षेग = संयमेन (अचयंता) अशक्नुवन्तः तथा ( उबहाणेण उपधानो तपसा ( वज्जिया) तर्जिताः पीडिताः (मंदा) मन्दाः = कातराः हैं, तब वे अल्पसत्व मंद काघर संघम में विषण्ण हो जाते हैं अर्थात् संयम का परित्याग कर देते हैं । इस विषय में दृष्टान्त दिखलाते हैंजैसे ऊंचे अर्थात् चढाव वाले मार्ग में, भार से लदे दुर्बल बैल असमर्थ हो जाते हैं, उसे पार नहीं कर पाते हैं। उसी प्रकार संयम या मोक्षमार्ग में, धारण किए हुए पंचमहातों के भार को वहन करने में असमर्थ होकर वे संयम को त्याग देते हैं या वे कायर महापुरुषों द्वारा सेवित संगम का परित्याग कर देते हैं ||२०॥ 'अचयंता व लहेणं' इत्यादि । शब्दार्थ -- 'लहेणं-रुक्षेण' विषयास्वादरहित रूक्ष संयम को पालने में 'अचयंता - अशक्नुवन्तः' असमर्थ तथा उवहाणेण उपधानेन' પાલન કરવાને સમર્થ હાતા નથી, તેથી તેએ સયમના પરિત્યાગ કરીને ફ્રી ગૃહવાસને સ્વીકાર કરે છે. જેવી રીતે નિ`ળ ખળદો સીધા ચઢાણવાળા માર્ગ પર ભારે બેજાનું વહન કરવાને અસમર્થ હાય છે, એજ પ્રમાણે સયમના માગે-મોક્ષમાર્ગે પ્રયાણુ કરનારા અલ્પસત્ત્વ સાધુએ પણ પાંચ મહ'ત્રતા તથા સાધુના આચારાનું પાલન કરવાને અસમર્થ હોવાને કારણે સયમના પરિત્યાગ કરી દે છે. દૃઢ આત્મબળવાળા પુરુષે જ સયમનું પાલન કરી શકે છે. ગાથા ૨ના 'अचयता व लुहे ' शब्दार्थ –'लूहेणं-रूक्षेम' विषयास्वाद रहित ३५ सयभने ाणवामां 'अवयंता-मशवन्तः' अर्थ तथा 'अगं उपधानेन' अनशन वगेरे For Private And Personal Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - सूत्रकृताङ्गसूत्रे 'तस्थ' तत्र संयमे (विसीयंति) विषीदंति दुःखिनो भवन्ति (उजाणंसि) उद्याने उच्चमार्गे (जरग्गवा व) जरद्वा इस जीर्णवलीवर्दवत् दुःखिता भवन्तीति ॥२१॥ टीका--'लूहेणं' रूक्षेण=विषयास्वादरहितेन संयमेनाऽऽत्मानं पालयितुम् । (अचयंता) अशक्नुवन्तः, तथा 'उहाणेग' उपधानेन अनशनादिना बाह्याऽभ्य. न्तरेणोग्रतपसा । 'तज्जिया' तर्निता:-बाधिताः सन्तः, 'तत्थ' तत्र संयमे 'मंदा' मन्दा:-कातराः 'विसीयंति विषीदन्ति, 'उज्जाणसि' उद्याने उद्यानाप्रोन्नतभागे, 'जरग्गवा' जरद्वा 'द' इव जीर्णशीगाः अतिदुर्बलाः वृद्धा वलीवर्दा इव, अर्धावस्थितविकटभूभागे-मार्गे यौवनसंपन्नानां सशक्तानामपि महावलीवर्दानामवसादनं अनशन आदि बाह्य और आभ्यन्तर उग्रतप से 'तज्जिया-तर्जिताः' पीडित 'मंदा-मन्दाः' मन्द बुद्धिवाले 'तत्थ-तत्र' उस संयम में 'विसी. यंति-विषीदेति' दुःखित होते हैं 'उजाणंसि-उद्याने' ऊंचे मार्ग में 'जरग्गवा व-जरद्वा इव' बढे बैल के जैसा दुःखित होते हैं ॥२१॥ : अन्वयार्थ--संयम पालन में असमर्थ होते हुये तथा तपश्चरण से पीडित होकर कायरजन संयम में विषाद का अनुभव करते हैं, जैसे चढाव वाले मार्ग में बूढे बैल दुखी होते हैं ॥२१॥ टीकार्थ-रूक्ष का अर्थ है संयम, क्योंकि उसमें विषयों का स्वाद नहीं होता। जो उसका पालन करने में असमर्थ होते हैं संयमपूर्वक आत्मा का पालन नहीं कर सकते, तथा अनशन आदि बाह्य तथा आ पन्तर उग्र तपश्चरण में पीड़ा का अनुभव करते हैं, ऐसे मंद मा भने माझ्यन्त२ तथा 'तविजया-तर्जिताः' पारित अर्थात भी 'मंदा-मन्दा' भन्। मुद्धिा 'तत्थ-तत्र' ते सयममा 'विसीयनि-विषीदंति' मित थाय छ, 'उज्जाणसि-उद्याने' या मागमा 'जरग्गवाव-जरद्गवा इव' ५२७. महनी सममित थाय छे. ॥२१॥ સત્રાર્થ–જેવી રીતે સીધા ચઢાણવાળા માર્ગ પર ભારે બેજાનું વહન કરતાં વૃદ્ધ બળદ પીડા અનુભવે છે, એજ પ્રમાણે સંયમનું પાલન કરવાને અસમર્થ હોય એવા સાધુઓ અનશન આદિ તપસ્યાની આરાધના કરતાં દુઃખને અનુભવ કરીને સંયમ પાલન કરવામાં વિષાદ અનુભવે છે. પારા ટીકાથ-રૂક્ષ આ પદ સંયમનું વાચક છે, કારણ કે તેમાં વિષયોનું આસ્વાદન થતું નથી. જેઓ તેનું (સંયમનું) પાલન કરવાને અસમર્થ હોય છેઆત્માને સંયમમાં દઢ કરવાને જેઓ શક્તિમાન હતા નથી, એવાં કાયર અને અલપસર મુનિઓ અનશન આદિ બાહ્ય તથા આભન્તર તપસ્યાઓમાં પીડાને અનુભવ કરે છે. એવાં મંદ, કાયર સાધુને વૃદ્ધ બળદ સાથે સરખાવવામાં For Private And Personal Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थवोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. २ अनुकूलोपसर्गनिरूपणम् ८५ संभाव्यते । तत्र का कथाऽतिदुवैलानां वृद्धवलीवर्दानाम् । एवमावर्त्तरहितस्य धैर्यशालिनो विवेकिनोऽपि यदाऽवसादनं संभाव्यते तदा का कथा जगदुपद्रवोपद्रुतानां मन्दानामिति भावः । संयमपरिपालनेऽसमर्थास्तथा तपसा भीतभीता मन्दमज्ञाः साधनः संयममागें तथा क्लेशमनुभवन्ति, यथा अत्युच्चमार्गे वृद्धा दुर्बला वृषमा इति ॥२१॥ उपसंहरन्नाह-मूत्रकारः-एवं' इत्यादि। मूलम्-एवं निमंतणं लद्धं मुच्छिया गिद्धा इत्थीसु। अज्झोववन्ना कामेहिं चोइजंता गयागिहं ॥२२॥त्ति बेमि।। छाया--एवं निमन्त्रणं लब्ध्या मूच्छिता गृद्धाः स्त्रीषु । ___अध्युपपन्नाः कामेषु नोद्यमाना गता गृहम् ॥२२॥ इति ब्रवीमि॥ अर्थात् कायर लोग उसी प्रकार दुःखी होते हैं जिस प्रकार बूढे एवं दुर्वल बैल सीधे चढाव वाले विकट मार्ग में असमर्थ हो जाते हैं ? ऐसे मार्ग में यौवनसम्पन्न और शक्तिशाली बडे बडे बैल भी हार मान सकते हैं जो बूढे एवं निबल बैलों की तो बात ही क्या है। आवर्ती से रहित धैर्यवान् और विवेकशाली मुनि भी हार मान सकते हैं तो दूसरों का उपद्रव होने पर अधीर लोग क्यों नहीं हार मानेगे ? आशय यह है कि संयमपालन में असमर्थ और तपस्या से पीडित हुए अधैर्यवान साधु संयम के मार्ग में क्लेश का अनुभव करते हैं, जैसे बूढे एवं दुर्बल बैल चढाव वाले मार्ग में दुःखी होते है ॥२१॥ આવેલ છે. જેવી રીતે વૃદ્ધ, નિર્બળ બળદે સીધા ચઢાણવાળા વિટ માગ પર બેજાનું વહન કરતા પીડા અનુભવે છે, એ જ પ્રમાણે અપસવ, કાયર પુરુષો પણ સંયમભારનું વહન કરતા પીડા અનુભવે છે. સીધા ચઢાણવાળા માર્ગ પર બેજાનું વહન કરવામાં યૌવન અને શક્તિસંપન્ન બળદે પણ જે પાછાં પડે છે, તે વૃદ્ધ અને નિર્બળ બળદની તે વાત જ શી કરવી? એ જ પ્રમાણે ઉગ્ર ઉપસર્ગો અને પરીષહે આવી પડે ત્યારે ભલભલા ધૈર્યવાનું અને વિવેકશાળી મુનિએ પણ સંયમના માર્ગેથી ચલાયમાન થઈ જાય છે, તે અધીર અને કાયર મુનિજનેની તે વાત જ શી કરવી? આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે જેવી રીતે વૃદ્ધ અને કમજોર બળદ ચઢાણવાળ માર્ગ કાપતાં દુઃખી થાય છે, એ જ પ્રમાણે અલપસત્વ અને અબૈર્યવાન સાધુએ સંયમન્નારનું વહન કરવામાં કલેશને અનુભવ કરે છે, કારણ કે તેઓ પાંચ મહાવ્રત, સાધુ સામાચારી અને તપસ્યા આદિનું પાલન કરવાને અસમર્થ હોય છે. ૨૧ For Private And Personal Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे अन्वयार्थः - (एवं) एवमुक्तपकारेण (निमंतण) निमंत्रणमामंत्रणं (लधु) लब्ध्वा (मुच्छिया) मूञ्छिताः (इस्थीसु गिद्धा) स्त्रीषु गृद्धा-गृद्धिभावमागताः (कामेहिं) कामैः (अन्झोपवना) अध्युपपन्नाः (चोइज्जता) नोद्यमानाः (गिह) गृहं (गया) गता इति ॥२२॥ टीका--'एवं' एवम् पूर्वोक्ताकारेण, राजाऽमात्यब्राह्मणादिभिः । निमतणं' निमन्त्रणम् अनुकू लपरीपहरूपभोग भोगाय 'ल ' लब्ध्वा पाप्य 'मुच्छिया' 'एवं निमंतणं ल ' इत्यादि । शब्दार्थ--एवं-एवम्' पूर्वोक्त प्रकार से 'निमंतणं-निमंत्रणम्' अनुकूल परीषहरूपी भोग भोगने के लिए आमंत्रण 'लढुं-लब्ध्वा' पाकर 'मुच्छिया-मूच्छिताः' काम भोगों में आसक्त 'इत्थीसु-गिद्धा' स्त्रिषु गृद्धाः स्त्रियों में आसक्ति वाले और 'कामेहि-कामैः' काम भोगों में अज्झोववन्ना-अध्युपपन्नाः' दत्तचित्त पुरुष 'चोइज्जंता-नोद्यमानाः' संयम पालने के लिये आचार्य आदि के छोरा प्रेरित करने पर भी 'गहगृहम्' घर को 'गया-गताः' चले जाते हैं ॥२२॥ ____ अन्वयार्थ-इस प्रकार आमंत्रण पाकर मोहग्रस्त होकर स्त्रियों में एवं कामभोगों में आसक्त घने हुए कई कायर साधक संयम पालन की प्रेरणा पाकर भी पुनः घर लौट गए हैं ॥२२॥ - टीकार्थ-पूर्वोक्त प्रकार से राजा, अमात्य, ब्राह्मण आदि के द्वारा अनुकूल परीषहरू भोग भोगने का निमन्त्रण पाकर मोहग्रस्त बन ‘एवं निमंतणं लटुं' त्य. शहा-एवं-एवम्' पूति २थी 'निमंतण-निमंत्रणम्' मनु परीष ३पी लोग सागवाना भाट भाभत्र 'लढुं-लब्ध्वा' पाभीक 'मच्छिया -मूर्छिताः' मागोमा भासत 'इत्थीसु गिद्धा' स्त्रिषु गृद्धाः नियोमा मासतिर भने 'कामेहि-कामः' मलेगोमा 'अझोववन्ना-अध्युपपन्नाः' इत्तयित्त ५३५ 'चोइज्जंता-नोद्यमानाः' संयम पायाना भाटे माया मेरे द्वारा प्रेरित ४२३॥ छ । ५५ 'गिह-गृहम्' घरे 'गया--गताः' पाछा 14 . ॥२२॥ સૂત્રાર્થ પ્રકારે રાજા આદિ દ્વારા આમંત્રણ મળવાને કારણે, કાયર સાધુઓ મેહગ્રસ્ત થઈને, તથા સ્ત્રીઓ અને કામગોમાં આસક્ત થઈને, અ ય ય આદિ દ્વારા સંયમમાં અવિચલ રહેવાની પ્રેરણા મળવા છતાં પણ સંયમને ત્યાગ કરીને ગુડવાસમાં આવી ગયાતા ઘણા દાખલાઓ મેજુદ છે. ૨૨ા ટીકાથ–પૂર્વોક્ત પ્રકારે રાજા, અમાત્ય, બ્રાહ્મણ, ક્ષત્રિયે આદિ દ્વારા અનુકૂળ પરીષહે રૂ૫ ભેગ ભેગવવાનું નિમંત્રણ મળવાને કારણે, કેટલાય કાયર For Private And Personal Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. २ अनुकूलोपसर्गनिरूपणम् ८७ मूच्छिताः आसक्ताः कामभोगेषु 'इत्थी' स्त्रीषु गिद्धा' गृद्धाः मूञ्छिता!= 'कामेहिं' कामैः कामभोगेषु 'अन्झो ववन्ना' अध्युपपन्नाः दत्तचेतसः समासक्ता इति यावत् । 'चोइज्जंता' नोद्यमानाः संयमपालनाय प्रेरिताः आचार्यादिभिः । 'गिहं गया' गृहं गताः, प्रेरितास्तु संयमपालनाय, किन्तु समूलमवहत्य संयम गृहं गताः । विषयोपभोगकरणभूतं वस्त्रहस्त्यादिदानपूर्वकं विप्रलोमिता विषयोपभोगं प्रति राजादिमिनिमन्त्रणं संमाप्य गुरुकर्माणः संयमपालने कातराः जीवाः स्थादिषु समासक्तचित्ताः प्रव्रज्यां परित्यज्य गृहवासिनो भवन्ति । इति शब्दः उद्देशकपरिप्समाप्ति बोधकः । सुधर्मस्वामी कथयति जंबुस्वामिनं पति तीर्थकरोदितं वचनाहं ब्रवीमि ॥इति ॥२२॥ इति श्री विश्वविख्यातजगद्वल्लभादिपदभूपितबालब्रह्मचारि ‘जैनाचार्य पूज्यश्री घासीलाल व्रतिविरचितायां श्री "समयार्थबोधिन्याख्यागं" .. व्याख्यायां तृतीयाध्ययनस्य द्वितीयोदेशकः समाप्तः ॥३-२॥ कर तथा कामभोगों में गृद्ध होकर तथा स्त्रियों में आसक्त होकर आचार्य आदि के द्वारा संयम का पालन करने की प्रेरणा होने पर भी संयम को नष्ट करके घर लौट गये हैं। ___ अभिप्राय यह है कि विषयभोग के साधन वस्त्र हाथी आदि के दान द्वारा विषयोपभोग के लिए लुभाए हुए, राजा आदि का निम. न्त्रण पाकर गुरुकर्मी एवं संयम के पालन में कायर जीव स्त्रियों आदि में आसक्त चित्त होकर दीक्षा को त्याग देते हैं और गृहस्थ बन जाते हैं। ___"इति" शब्द उद्देशक की समाप्ति का सूचक है। सुधर्मास्वामी जम्बूस्वामी से कहते हैं-मैं तीर्थंकरोत वचन ही तुम्हें कहता हूँ ॥२२॥ સાધુએ સંયમને ત્યાગ કરીને ઘેર પાછાં ફરી ગયાના દાખલાઓ મળી આવે છે. એવાં સાધુઓને આચાર્યો દ્વારા સંયમના માર્ગે સ્થિર રહીને આત્મકલ્યાણ સાધવાની પ્રેરણા તે મળતી જ હોય છે, પરંતુ રાજા આદિ પૂર્વોક્ત સંસારી લેકે તેમને કામગો પ્રત્યે આકર્ષવા પ્રયત્ન કરતા હોય છે. તે કારણે સ્ત્રીઓમાં તથા કામગોમાં આસક્ત થઈને તે કાયર, ગુરુકમ સાધુઓ સંયમને માર્ગ છેડી દઈને સંસારમાં પુનઃ પ્રવેશ કરે છે. ___ 'इति' मा ५६ उद्देशानी समातिनुसूय छे. सुधर्मा स्वामी पोताना શિષ્યોને કહે છે–મેં આપને જે ઉપદેશ આપે છે, તે તીર્થકર દ્વારા પ્રરૂપિત હેવાથી પ્રમાણભૂત છે.” રા For Private And Personal Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir % 3READ सूत्रकृताङ्गसूत्रे ॥ अथ तृतीयोद्देशकः मारभ्यते ॥ उपसर्गपरिज्ञायां कथितो द्वितीयोद्देशकः । अधुना तृतीयोद्देशकः प्रारभ्यते । इहानन्तरोद्देशकद्वयेऽनुकूलपतिकूलोपसर्गयोनिरूपणं कृतम् । तैरुपस स्तपासंयमविराधना भवतीति तृतीयोदेश के प्रतिपादयिष्यति । अनेन संबन्धेनाऽऽगतस्य तृतीयोद्देशकस्येदमादिमं सूत्रं-'जहा संगाम' इत्यादि। मूलम् -जहा संगामकालंमि पिटुओ भीरु वेहइ। वलयं गहणं मं कोइ जाणइ पराजयं ॥१॥ छाया-यथा संग्रामकाले पृष्ठतो भीरुः प्रेक्षते । वलयं गहनमाच्छादकं को जानाति पराजयम् ॥१॥ तीसरा उद्देशक उपसर्गपरिज्ञा अध्ययन के दूसरा उद्देशे का व्याख्यान हो चुका । अध तीसरा उद्देशक का प्रारम्भ किया जाता है। पूर्व के दो उद्देशकों में प्रतिकूल और अनुकूल उपसर्गों का निरूपण किया गया है । उन उपसर्गों से तप और संयम की विराधना होती है, यह विषय तृतीय उद्देशक में प्रतिपादन किया जाएगा। इस सम्बन्ध से आए हुए इस उद्देशे का यह आदि सूत्र है-'जहा संगाम०' इत्यादि । शब्दार्थ-'जहा-यथा' जैसे 'संगामकालंमि-संग्रामकाले' शत्रु के साथ युद्ध के अवसर में 'भीरु-भीरुः' कायर पुरुष 'पिटुमो-पृष्टतः' पीछे की ओर 'वलयं-वलयम्' गर्तादिक 'गहणं-गहनम्' गहन स्थान 'णूम-आच्छादकम्' वलयाकार छिपा हुआ स्थान पर्वत के गुहादिक त्री शानो पारઉપસર્ગ પરિજ્ઞા અધ્યયનને બીજો ઉદ્દેશક પૂરે થશે. હવે ત્રીજા ઉદ્દેશકને પ્રારંભ થાય છે. પહેલા બે ઉદ્દેશકમાં પ્રતિકૂળ અને અનુકૂળ ઉપસર્ગોની પ્રરૂપણ કરવામાં આવી છે. તે ઉપસર્ગો વડે તપ અને સંયમની વિરાધના થાય છે, આ વિષયનું આ ત્રીજા ઉદ્દેશકમાં પ્રતિપાદન કરવામાં આવશે. આગલા ઉદેશક સાથે આ પ્રકારને સંબંધ ધરાવતા આ ઉદ્દેશકનું પહેલું સૂત્ર આ प्रमाणे छे.-'जहा संगाम०' त्याह शहाथ-'जहा-यथा' २वीशत 'संगामकालंमि-संग्रामकाले शत्रुनी साथेन। युद्धना अवसरमा 'भीरु-भीरः' आय२ ५३५ "पिटू ओ-पृष्टतः' पानी मा 'वलय-वलयम्' या॥२ गताहि 'गहणं-गहनम्' गठन स्थान ‘णूम-आच्छादकम्' ७५ स्थान, ५'तनी शुशवाणु कोरे स्थान 'वेहइ-प्रेक्षते' ने छ For Private And Personal Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समथार्थवोधिनी टीका प्र.श्रु. अ.३ उ.२ उपसर्गजन्यतपःसंयमविराधनानि० ८९ अन्वयार्थ (जहा) यथा (पंगामकालंमि) संग्रामकाले रिपुयुद्धावसरे प्राप्ते सति (भीरु) भीरुः कातरः (पिट्ठभो) पृष्ठतः प्रथमतः (वलय) वलयम् वलयाकार गर्तादिकं (गहणं) धवादिवृक्षादिगहनस्थानम् (णूम) आच्छादकं पच्छनं गिरिगुहादिकं (वेहइ) प्रेक्षते (पराजयं) पराजयं (को जाणइ) को जानाति इति ॥१॥ ____टीका-कठिनार्थाऽवबोधो मन्दमतीनां न दृष्टान्तमन्तरेण संभवति । सति च दृष्टान्ते कठिनार्थोप्यवबुध्यते । इति अन्वयव्यतिरेकाभ्यां मन्दमतीनाम् अर्थाऽवबोधे दृशान्तस्य कारणता समधिगता. इति प्रथमतो दृष्टान्तमेव दर्शयतिप्रतिपाद्यार्थाऽअबोधे-'जहे' इत्यादि । 'जहा' यथा 'संगामकालंमि' संग्रामकाले, स्थान 'वेहइ-प्रेक्षते' देवता है 'पराजय-पराजयम्' किसका पराजय होगा 'को जागाइ को जानाति' कौन जानता है ॥१॥ ___ अन्वयार्थ जैसे संग्राम का अवसर आने पर भीरू पुरुष प्रारंभ में ही पीछे की तरफ गोलाकार खडा, गहन अर्थात् वृक्षवेल आदि से आच्छादित गहन स्थान एवं पर्वत की गुफा आदि देखता है (और सोचता है कि) कौन जाने पराजय हो जाए ॥१॥ टीकार्थ--मन्दबुद्धिशिष्य दृष्टान्त के विना कठिन अर्थ को नहीं समझ सकते । दृष्टान्त हो तो कठिन अर्थ भी समझ में आ जाता है। इस प्रकार अन्वय और व्यतिरेक के द्वारा मन्द मतियों के लिये अर्थ समझने में दृष्टान्त कारण है, यह बात सिद्ध है। अतएव यहां जो अर्थ कहा जाने वाला है, उसको समझाने के लिए सर्वप्रथम दृष्टान्त ही प्रदशित किया जाता है। वह इस प्रकार से है जैसे युद्ध का अवसर उपस्थित 'पराजयं-पराजयम्' । ५२०४५ थरी १ 'को जाणा-को जानाति' है। के ? ॥१॥ સૂત્રાર્થ-યુદ્ધને પ્રસંગ આવી પડે ત્યારે ભીરુ પુરુષ યુદ્ધના પ્રારંભે જ, પાછળની બાજુએ ગોળાકાર ખાઈ, વૃક્ષો અને લતાઓથી આચ્છાદિત ગહન સ્થાન અને પર્વતની ગુફા આદિ છૂપાઈ જવા લાયક સ્થાનેની જ તપાસ કરતો રહે છે, કારણ કે તેને એ ડર રહે છે કે યુદ્ધમાં કદાચ પરાજય પણ થાય ! ના ટીકાઈ–મદ બુદ્ધિવાળો શિષ્ય દાન દ્વારા કઠણમાં કઠણમાં અર્થને પણ સમજી શકે છે. આ પ્રકારે અન્વય અને વ્યતિરેક દ્વારા અર્થ સમજવાના કાર્યમાં મન્દીમતિ શિષ્યને માટે દષ્ટાન્ત મદદ રૂપ થઈ પડે છે, આ વાત તે સિદ્ધ જ છે. તેથી પિતે જે વિષય સમજાવવા માગે છે. તેનું સૂત્રકારે દષ્ટાન્ત सू०१२ For Private And Personal Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसने संग्रामसमये उपस्थिते सति 'भीरु' भीमा प्रबलशत्रुपरसतीक्ष्णासिकुन्तशक्ति प्रभृतिशस्त्राघातेन बिभेति यः स भीरुः कातरः पुरुषः 'पिट्टो' पृष्ठता-प्रथमत एव 'वलयं' वल पम्-परिखाम् , यत्र जलं वलयाकारेण व्यवदिशतं भवति, तादृशं दुर्गस्थानम् । तथा गहणं' गहनम् , कठिनस्थानं दुःखनिदेशगादिकं स्थानम् । तथा-'म' आच्छादकं वृक्षादिभिराकीर्ण गिरिग्रहादिस्थानम् 'वेहइ' प्रेक्षते-पश्यति आत्मनस्त्राणाय भीरूः पुरुष ए चिन्तयति-परानयं' पराजयम् फोकः 'जाणई' जानाति, कदाचिदल्पबलोऽपि जयति, बहुबलोऽपि पराजयम् आसादयति । प्रथमत एमाऽऽस्मनो रक्षणाय स्थानमन्वेषयति । यतः 'जीवन् नरो भदशतानि पश्येत्' इति । तस्मात् प्रथमत एव स्वप्राणत्राणस्थानमवलोकयति । होने पर, सपल शत्रु के द्वारा अत्यन्त तीक्ष्ण तलवार, भाला शक्ति आदि शस्त्रों के आघात से डरने वाला भीरु अर्थात् कायर पुरुष पहले से ही, पीछे की ओर वलय या परिखा को, जिसमें जल गोलाकार रूप में रहता है, देखता है । अथवा वह गहन अर्थात् ऐसे कठिन स्थान को देखता है, जहां बड़ी कठिनाई से प्रवेश किया जाय या निकला जाय । या वह वृक्ष आदि से आच्छादित गिरि गुफा आदि स्थानों को अन्वेषण करता है। वह भीरु सोचता है पराजय को कौन जानता है। कभी कभी निर्बल भी जीत जाता है और बलबान भी हार जाता है। ऐसा सोचकर वह अपने प्राण बचाने के लिए पहले से ही स्थान की तलाश करता है। क्योंकि कहा है-'जीवन नरो भद्र शतानि पश्येत्' इत्यादि। દ્વારા જ અહીં પ્રતિપાદન કર્યું છે-જેવી રીતે યુદ્ધને પ્રસંગ આવી પડે ત્યારે સબળ શત્રુના અત્યંત તીણ તલવાર, તીર, ભાલા આદિ શસ્ત્રોના ઘાથી ડરના કાયર પુરુષ પહેલેથી જ છૂપાઈ જવા લાયક સ્થાનેની શોધ કરતા રહે છે. એવા સ્થાને અહીં ગણાવવામાં આવ્યાં છે–ચારે બાજુ પાણીથી ઘેરાયેલું દુશ્મન પ્રવેશ ન કરી શકે એવું સ્થળ, જ્યાં પ્રવેશ કરવામાં ઘણી મુશ્કેલી પડે એવું ગહન સ્થાન, વૃક્ષો અને લતાઓથી આચ્છાદિત ગિરિગુફા આદિ સ્થાનની તે શોધ કરતે રહે છે. તેને એવો વિચાર થાય છે કે યુદ્ધમાં જ્ય થશે કે પરાજય થશે તે કોણ જાણે છે? ક્યારેક નિર્બળ દુશ્મને વિજય મેળવે છે અને શુરવીરો હારી જાય છે. આ પ્રમાણે વિચાર કરીને તે પોતાનાં પ્રાણ બચાવવાને માટે પહેલેથી જ આશ્રયસ્થાનની શોધ કરે છે. કહ્યું પણ छ -'जीवन् नरो भद्रशतानि पश्येत्' 'पते। न२ सद्र। -भास पते For Private And Personal Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संबोधिती टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. २ उपसर्गजन्यतपः संयम विराधनानि० ९१ यथा कातरः पुरुषः संग्रामात्मामेव यदि कदाचिन्मम पराजयः उपस्थितो भवेत्तदा मया किं करणीयं कथं वाऽऽत्मा रक्षगीय इत्यादिविवार्य स्वरक्षणाय आदित एव दुर्गादीनामन्वेषणं करोति ॥ १ ॥ १ २ मूलम्-मुहुत्ताणं मुहुत्तस्स मुहुत्तो होइ तारिसी । ' पराजियाऽवसप्पामो इति भीरु उवह ॥२॥ छाया - मुहूर्तानां मुहूर्तस्य मुहूर्ती भवति तादृशः । पराजिता अपमः इति भीरुरुपेक्षते ॥२॥ 'मनुष्य जीवित रहे तो सैंकडो कल्याण देखता है।' अतः वह अपने प्राणों के रक्षण के लिए पहले से ही स्थान की खोज करता है । आशय यह है कि कायर पुरुष संग्राम से पहले ही, पीछे की ओर दुर्ग आदि स्थानों को देखता है कि कदाचित् पराजय का सामना करना पडा तो मैं पीछे भागकर कहां छिपूंगा और अपने प्राण बचाऊंगा ॥ १ ॥ शब्दार्थ --- 'मुद्दताणं- मुहर्त्तानाम्' बहुत मुहतों का 'मुद्दतस्समुहत्स्य' अथवा एक मुहूर्त्त का 'तारिसो- तादृशः ' कोई ऐसा 'मुहुसो होड़ मुर्ती भवति' अवसर होता है 'पराजिया - पराजिताः' शत्रु से पराजित हम 'अवसप्पामो अवसर्पामः' जहां छिप सके 'इति इति ' ऐसे स्थान को 'भी:- भीरुः ' कायर पुरुष 'उवे हद्द उपेक्षते' सोचता है ॥२॥ રહે તેા સેંકડો કલ્યાણકારી પ્રસગે! દેખે છે”. આ પ્રકારના વિચાર કરીને કાયર પુરુષ પહેલેથી જ પેાતાના પ્રાણુનુ રક્ષણ કરી શકાય એવા સ્થાનની શેષ કરતા જ રહે છે. આ કથનના ભાવાથ એ છે કે કાયર પુરુષ સબામની શરૂઆત થયા પહેલાં જ પેાતાનાં પ્રાદુની રક્ષાના વિચાર કર્યો કરે છે. કદાચ યુદ્ધમાં પરાજય થાય તે પીડડ કરીને કત્યાં છૂપાઈ જવાથી પોતાના પ્રાણાની રક્ષા થઇ શકશે, તેના વિચાર તે પહેલેથી જ કરી રાખે છે. કેાઈ કિલ્લા, પર્વતની શુક્ા આદિ આશ્રયસ્થાના તે ધ્યાનમાં રાખી લે છે. ગાથા ૧૫ शब्दार्थ --- 'गुहूताणं- मुहूर्तानाम्' मडु भुतनु' 'मुत्तरस मुहुर्त्तस्य' अथवा ऊ भुहूर्त नुं 'तारिखे वाश:' । 'मुहुतो होइ - मुहूर्त्तो भवति' अवसर होय छे 'पराजिया पर जिताः शत्रुर्थीी पशक्ति अभे 'अवखप्पामोअवसर्गमः' यां छुपाई शडीयो ' इति - इति' सेवा स्थानने 'भीरु भीरुः' डायर ५३ष 'उबेहइ - उपेक्षते' नियारे हे ॥२॥ For Private And Personal Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे .. अन्वयार्थः- (मुहुत्ताणं) मुहुर्तानाम् (मुहुत्तस्स) मुहूर्तस्यैकस्य (तारिसो) तादृशः (मुहुत्तो होइ) मुहतोऽवसरः भवति (पराजिया) पराजिताः शत्रुभिः (अवसप्पामो) अवसामः (इति) इति (भीरु) भीरुः कातरः (उवेहइ) उपेक्षते-शरणमिति ॥२॥ टीका-'मुहुत्ताणं' मुहूर्तानां क्षणानाम् अनेकेषाम् , अथवा 'मुहुत्तस्स' मुहूर्तस्यैकस्यैव 'तारिसो' तादृशः 'मुहुतो' मुहूर्तः कालविशेषलक्षणोऽवसरः 'होइ' भवति, न सर्वस्मिन् एव काले जयः पराजयो वा संभवति । तत्रैवं व्यवस्थिते यदि वयं पराजिया अवसप्पामो' पराजिताः सन्तः असमः। इति एवं रूपेण 'भीरु' भीरु:-कायरः पुरुषः 'उवेहइ उपेक्षापत्प्रतीकाराय दुर्गादीनां शरणं प्रथमतः एव प्रेक्षते, मनसि चिन्मयनि स्थानादिकम् । यदि मादृशस्य मरणनिमित्तं युद्रे उपस्थितं भवे तदा आत्मरक्षणार्थ स्थानमवलोकयति इति ॥२॥ अन्वयार्थ--अनेक मुहर्मों में या एक मुहूर्त में ऐसा अवसर होता है जबकि जय पराजय होती है । शत्रु से पराजित होकर हम कहां भागेंगे? ऐसा सोच कर कापर पुरुष शरणभून स्थान का अन्वेषण करता है ॥२॥ टीकार्थ--बहुत से मुहूर्तों में अक्षया एक ही मुहूर्त में ऐसा एक अवसर रूप क्षण होता है जब कि जय पराजय का निश्चय होता है। सभी कालों में जय पराजय नहीं हुआ करते । कदाचित् पराजय का अवसर आ जाय तो हम पीछे भाग सके, ऐसा मोचकर कायर पुरुष आपत्ति के प्रतीकार के लिए दुर्ग-किल्ला आदि को पहले से ही देख रखना है। तात्पर्य यह है कि युद्ध में यदि मृत्यु का कोई निमित्त उपस्थित हो जाय तो आत्मरक्षा के लिए स्थान की खोज करता है ॥२। સૂત્રાર્થ—અનેક મુહૂર્તોમાં અથવા એક મુહૂર્તમાં એ અવસર આવે છે કે જ્યારે જય પર.જય નકકી થાય છે. કદાચ યુદ્ધમાં પરાજિત થઈને ભાગવું પડે. તે ક્યાં ભાગી જવાથી આશ્રય મળી શકશે, તેને કાયર પુરુષે પહેલેથી જ વિચાર કરી લે છે. કેરા ટીકાર્થઘણું મુહૂર્તોમાં અથવા એક જ મુહૂર્તમાં, જયપરાજયને નિશ્ચય કરાવનાર તે એક જ અવસરરૂપ ક્ષણ પ્રાપ્ત થાય છે. જીવનમાં જય પરાજયનો પ્રસંગ કાયમ પ્રાપ્ત થતું નથી. કયારેક જયને પ્રસંગ પ્રાપ્ત થાય છે અને ક્યારેક પરાજયને પ્રસંગ પણ પ્રાપ્ત થાય છે. કદાચ યુદ્ધમાં પરાજય થાય તે દુમનના હાથે મરવા કરતાં ભાગી જઈને જાન બચવવાનું કાયર પુરુષને વધુ ગમે છે. તેથી આશ્રય મળી રહે એવાં દુર્ગ આદિ સ્થાને તે ધ્યાનમાં રાખી લે છે. યુદ્ધમાં પરાજિત થઈને મૃત્યુને ભેટવાને બદલે તે કાયર પુરુષ તે દુર્ગાદિમાં નાસી જઈને પિતાનાં પ્રાણ બચાવે છે. ગાથા રા. For Private And Personal Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ.३ उ.१ उपसर्गजन्यतपःसंयमविरराधनानि० ९३ मूत्रम्-एवं तु समणा एगे अवलं नञ्चा ण अप्पगं । अणागयं भयं दिस्स अविकप्पतिमं सुयं ॥३॥ छाया-एवं तु श्रमणा एके अवलं ज्ञात्वा खेल्वात्मानम् । ___ अनागतं भयं दृष्ट्वाऽजकल्पन्तीदं श्रुतम् ॥३॥ अन्वयार्थः-(एवं तु) एवं तु (एगे समणा) एके श्रमणा:-अल्पमतयः (अप्पगं) आत्मानम् (अवलं) अबलं-यावज्जीवसंघमभारवहनासमर्थम् (णचा ण) ज्ञात्वा खल (अणागयं) अनागतं (भयं दिस्स) भयं दृष्ट्वा (इमं सुयं) इदं व्याकरण गणितादिश्रुतम् (अविकप्पंति) अवकल्पयन्ति इति ॥३॥ टोका--'एवं एवम् पूर्वोक्तदृष्टान्तेन-'एगे समणा' एके श्रमणाः=एके शब्दार्थ--'एवं तु-एवं तु इस प्रकार 'एगे समणा-एके श्रमणः' कोई अल्प मतिवाले श्रमण 'अप्पा-आत्मानम्' अपने को 'अवलं-अघलम्' जीवनपर्यन्त संयम पालन करने में असमर्थ 'णच्वा ण-ज्ञावा खलु' जानकर 'अणागयं-अनागतम्' भविष्यकाल के 'भयं दिस्स-भयं दृष्ट्वा' भय को देखकर 'इम-सुयं-इदं श्रुतम्' व्याकरण एवं ज्योतिष आदि को 'अधिकपंति-अविकल्पयन्ति' अपने निर्वाह का साधन बनाते हैं ॥३॥ __अन्वयार्थ--इसी प्रकार कोई कोई अल्पमति श्रमण अपने को निर्षल अर्थात् जीवनपर्यन्त संयम का भार वहन करने में असमर्थ जानकर भावी भय को देखकर व्याकरण गणित आदि श्रुत की कल्पना करते हैं ॥३॥ टीकार्थ--पूर्वोक्त दृष्टान्त के अनुसार कोई कोई अल्पसत्व कायर शा --'एवं तु-एवं-तु' । १२ 'एगे-समणा-एके श्रमणाः' अध भ६५शुद्धिवाणा श्रम 'अप्पां-आत्मानम्' पाताने 'अबलं-अबलम्' 41 पयत सयम पालन ४२पामा असमर्थ 'णच्चा ण- ज्ञात्वा खलु' oneीने 'अणागयं-अनागतम्' भविष्य11 "भयं दिस्स-भयं दृष्ट्वा ' मयने नन 'इमं सुयं-इदं श्रुतम्' व्या३२६] सवयोतिष वगैरेने 'अविकपति-अविकल्पयन्ति' पोताना निवडन साधन नाव छे. ॥3॥ સૂત્રાર્થ_એજ પ્રમાણે કઈ કઈ અલ્પમતિ સાધુ સંયમ રૂપ ભારનું જીવનપર્યત વહન કરવાને પોતાની જાતને અસમર્થ માનીને, ભાવી ભયને ઈને વ્યાકરણ, ગણિત, આદિ શ્રતની કલ્પના કરે છે. સા. For Private And Personal Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्र अल्पसत्त्वाः कातराः साधवः 'अप्पगं' आत्मानं-स्वात्मानम् 'अवलं' आलं-बलरहिम् , यावज्जीवनं संपमभारं वोढुमशक्यम् 'नचा ण' ज्ञात्वा खलु अत्रमृश्य, यावज्जीवन संयमस्य पालन करणे अस्मदात्मबलं नास्तीति विचार्य । तथा 'अणागयं' अनागतम्, भविष्यत्कालिकम् 'भयं' भयम्-शीतोष्णादिपरीषदोपसर्गजनितंभयम् 'दिस्स' दृष्ट्वा 'इमं सुगम्' इदं श्रुतम्- व्याकरणगणितवैद्यकमंत्रादिशास्त्रादिकं जीविकासाधकमेव । 'अविकप्पंति अविकल्पयन्ति जीविकायाः साधनं मन्यते । यथा-कातरः पुरुषो युद्धे आत्मत्राणाय दुर्गादिकं साधनमन्वेषयति । तथाये के विसाधयोऽपि समपरिपालनसामर्थामा विमृश्य. स्वकीयत्राणाय जीविकासाधनाय च व्याकरणायुवेदज्योतिःशास्त्रादिकमेव निर्णयन्ति इति ॥३॥ साधु अपने आप को यावज्जीवन संयमभार वहन करने में असमर्थ समझकर अर्थात् जीवनपर्यन्त संयम का पालन करने में आत्मबल का अभाव जानकर तथा भविष्यत् कालीन शीत उष्ण आदि परीषहों एवं उपसर्गों से उत्पन्न होने वाले भय को देखकर व्याकरण गणित वैद्यकमंत्र आदि शास्त्रों को आजीविका का साधन पनाते हैं। तात्पर्य यह है कि जैसे कायर पुरुष युद्ध में आत्मरक्षण के लिए दुर्ग आदि साधनों का अन्वेषण करता है, उसी प्रकार कोई कोई साधु संयम का परिपालन करने में अपनी असमर्थता जानकर अपनी रक्षा के लिये एवं आजीविका के लिये व्याकरण आयुर्वेद, ज्योतिष आदि शास्त्रों का अवलम्बन लेते हैं ॥३॥ ટીકાર્ય–આગળ બતાવેલા દાનમાંના કાયર પુરુષની જેમ કઈ કઈ અલ્પસર્વ કાયર સાધુ પણ એ વિચાર કરે છે કે હું જીવનપર્યત સંયમ ભારનું વહન કરી શકીશ નહીં. તેનામાં આત્મબળને અભાવ હોવાને કારણે તેને એ વિચાર થયા કરે છે કે શીત, ઉષ્ણ આદિ ઉગ્ર પરીષહેને હું જીવનપર્યત સહન કરી શકીશ નહીં. મારે ગમે ત્યારે સંયમન માગ છોડીને ગૃહવાસ સ્વીકાર પડશે. આ પ્રકારના વિચારથી પ્રેરાઈને તે વ્યાકરણ, ગણિત, વૈદક, તિષ આદિ શાથેનું અધ્યયન કરીને ભવિષ્યમાં તેના દ્વારા પિતાની આજીવિકા ચલાવવાને વિચાર કરે છે. જેવી રીતે કાયર પુરુષ યુદ્ધના ભયથી દુર્ગ કિલા આદિ આશ્રયસ્થાનનું અનવેષણ કરે છે, એ જ પ્રમાણે કઈ કઈ સ ધુ સંયમનું પરિપાલન કરવાને પિતે અસમર્થ છે એવું સમજીને, પિતાવી રક્ષા માટે તથા આજીવિકાને માટે વ્યાકરણ, આયુર્વેદ તિષ, આદિ શસેને આધાર લે છે–ભવિષ્યમાં તેના દ્વારા પિતાનું ગુજરાન ચલાવવાને વિચાર કરે છે. ગાથા ૩ For Private And Personal Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org further. थु. अ. ३ ल. २ उपसर्गजन्यतपः संयम विराधनानि० ९५ अल्पसत्वो जीव इत्थमपि विकल्पयति, तदिह सूत्रकारो दर्शयति 'को जाण' इत्यादि । २ मूलम् - को जानइ विऊवातं इत्थीओ उदगाउ वा । 99 ७ aisin aratni णो अस्थि पकप्पियं ॥ ४ ॥ ण छाया - को जानाति व्यापातं स्त्रीतो उदकादना । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नोद्यमाना मक्ष्यामो न नोऽस्ति मकल्पितम् ॥ ४॥ अन्वयार्थः -- (इत्थी भो) स्त्रीतः (उदगाउवा) उदकात् वा (विवा) व्यापात संयमजीवितात् भ्रंशं ( को जागर) को जानाति (नो) नः अस्माकम् (पकनियं) अल्पसत्य जीव ऐसा भी विचार करता है यह दिखलाते हुए सूत्र - कार कहते हैं-' को जाणई' इत्यादि । - शब्दार्थ - 'इथिओ - स्त्रीतः' स्त्री से 'उदगाउ बा - उदकात्वा' अथवा उदक नाम कच्चे जल से 'विऊवातं व्यापातम् ' मेरा संयम भ्रष्ट हो जायगा 'को जागइ - को जानाति' यह कौन जानता है ? 'णो-नो' मेरे पास 'पकप्पियं प्रकल्पितम्' पहले का उपार्जित द्रव्य भी 'ण अस्थिनास्ति' नही है इसलिये 'चेइज्जंता-नोद्यमानः' किसी के पूछने पर हम हस्तशिक्षा और धनुर्वेद आदि को 'पक्खामो प्रवक्ष्यामः' बतावे गे । ४ ॥ - अन्वयार्थ - - कौन जाने स्त्री या जल के निमित्त से संघम से भ्रष्ट होना पडे ? पहले उपार्जन किया हुआ द्रव्य है नहीं । अतः दूसरों के पूछने पर धनुर्विद्या आदि का उपदेश करेंगे || ४ | તે અપસત્ત્વ કાયર સધુ કેવા કેવા વિચાર કરે છે, તે ત્રકાર હવે २४८ ४रे छे - ' को जाणइ' त्याहि शब्दार्थ - - ' इत्थिओ - स्त्रीतः ' स्त्रीथी 'उदगाउमा - उदकात्वा' अथवा ७६४ नाम अया पाणीथी 'विकात - व्यापातम् ' भारी संयम अष्ट यह नशे 'को जाणइ को जानाति सा है लगी राडे हे ? 'णो-नो' भारी पासे 'पकप्पियं - प्रकल्पितम्' पदानु उति धन पशु 'ण अस्थि - नास्ति' नथी भेटला भाटे 'चेइज्जता - नोद्यमानाः' डोईना पूछवाथी अभे इस्तशिक्षा भने धनुर्वेह वगेरेने 'पवक्खामो - प्रवक्ष्यामः ' तावीशु ॥४॥ સૂત્રા-કેને ખબર છે કે શ્રી અથવા જલ દિને કારણે સયમના માગેથી કયાર ભ્રષ્ટ થવું પડશે! પહેલાં ઉપાર્જન કરેલુ' દ્રવ્ય તેા છે નહી, For Private And Personal Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे प्रकशितं समुपाणिम् द्रव्यमपि (ण अस्थि) नास्ति, अतः (चोइज्जता) नोद्यमानाः परपृष्टाः सन्तः (पवक्खामो) प्रवक्ष्यामः-धनुविधादिकं कथयिष्याम इति ॥४॥ टीका--'इत्थीमो' स्त्रियः सकाशात् 'उदकाउ वा' अथवा-उदकात् जलात् स्त्रीपरीषहात दृष्टयुपद्रवाद्वा, इत्येवं ते ऽल्पसत्याः विवेचयन्ति, पाणिनोऽल्पलत्या भवन्ति, कर्मणां च विचित्रा गतिविद्यते, अनेकानि प्रमादस्थानानि विद्यन्ते । अतः क ऋते सर्वज्ञात् जानाति, मम संयमात् पतनं केन हेतुना स्यात् । किं स्त्री परीषदात् जलोपवाद्वा इति ते कातराः शोचन्ति । तथा 'णो' नः अस्माकं किमपि । 'पकप्षिय' प्रकल्पितम् , पूर्शयानितं द्रव्यमपि । 'ण अस्थि' न अस्ति, अतः 'चोइज्जंता' नोद्यमानः परेण पृच्छयमानाः । 'पविवस्वाम' प्रवक्ष्यामः, धनुर्वेदाऽऽयुर्वेदज्योतिःशास्त्रादिकं दा क य यामः । इत्येवं रूपेण ते मन्द टीकार्थ-वे अल्पमस्व प्राणी इस प्रकार विचार करते हैं-प्राणियों की शक्ति अल्प होती है और कर्मों की गति विचित्र होती है । प्रमाद के अनेक स्थान हैं। अतएव सर्वज्ञ के सिवाय कौन जान सकता है कि किस कारण से मैं संयम से पतित हो जाऊं? संभव है स्त्री के परीषह से अथवा जल के उपद्रव से मेरा पतन हो जाय ! कायर पुरुष इस प्रकार का विचार करते हैं । वे यह भी सोचते हैं कि हमारे पास पूर्वोपार्जित कुछ भी द्रव्य नहीं है। उसे उपार्जित करने के लिए दूसरों के प्रश्न करने पर धनुर्वेद (धनुष चलाने की विद्या) आयुर्वेद, ज्योतिष आदि का कथन करेंगे। ऐसा विचार कर वे मन्दमति व्याकતેથી જતિષ, આર્યુવેદ, ધનુર્વિદ્યા આદિ મારા જ્ઞાનને દ્રવ્યોપાર્જનને માટે ઉપગ કરીશ, i૪ ટકાથું–તે અપસર્વ સાધુ એ વિચાર કરે છે કે આપણી શક્તિ મર્યાદિત હોય છે અને કર્મોની ગતિ વિચિત્ર હોય છે. પ્રમાદનાં અનેક સ્થાન જ છે. તેથી સર્વજ્ઞ ભગવાન સિવાય એવું કોણ જાણી શકવાને સમર્થ છે કે હું ક્યારે સંયમના માર્ગેથી ભ્રષ્ટ થઈશ? સ્ત્રીના પરીષહથી અથવા જળના ઉપદ્રવથી પણ મારું પતન થઈ શકવાને સંભવ છે. સંયમને પરિત્યાગ કર્યા બાદ મારે માટે આજીવિકાનો પ્રશ્ન ઉપસ્થિત થશે મારી પાસે પૂર્વોપાર્જિત ધન તે છે નહીં, તે મારું ગુજરાન કેવી રીતે ચલાવીશ? આ સાધુજીવનમાં વ્યાકરણ, જતિષ. ધનુર્વિદ્યા, આયુર્વેદ આદિનું અધ્યયન કર્યું હશે, તે તેના દ્વારા મારી આજીવિકા ચલાવી શકાશે આ પ્રકારના વિચારથી પ્રેરાઈને તે ધનુર્વેદ, તિષ, આયુર્વેદ આદિ લૌકિક ના For Private And Personal Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टोका प्र. श्रु. अ.३ उ.२ उपसर्गजन्यतपःसंयमविराधनानि० ९७ मतयो विचार्य व्याकरणादिलौकिकशास्त्रे प्रयत्नं कुर्वन्ति । किन्तु प्रयतमाना अपि ते मन्दभागाः अभिलपितार्थ नै प्राप्नुन्ति । ____ मोक्षविद्यारूपं बीजं शांतिरूपं फलमुत्वादयति, तेन विद्यावी जेन यदि कश्चिद् धनमभिलपेत् तथा तस्य परिश्रमो यदि विफलो भवेत्तदा किमाश्चर्यम् वस्तूनां फलं नियतं भवति, अतो यस्य यत् फलम् तदतिरिक्तं फलम् नैव ददाति यया शाल्यंकुरम् न जनयति यावीजमिति । तथा चोक्तम् उपशमफलाद विद्या बीजात्फलं धनमिच्छताम् । भवति विफलो यद्यायामस्तदत्र किमद्भुतम् ॥१॥" रण आदि लौकिक शास्त्र में उद्यान करते हैं परन्तु प्रयत्न करने पर भी वे अभागे अपना अभीष्ट नहीं प्राह कर पाते । ___ मोक्षविद्यारूप बीज शान्ति रूरी फल को उत्पन्न करता है। उस विद्यायीज में यदि कोई धन की अभिलाषा करता है और उसका परिश्रम निष्फल होता है तो इसमें क्या आश्चर्य है ? प्रत्येक वस्तु का फल नियत होता है । जिस वस्तु का जो फल है वह उसके अतिरिक्त फल नहीं देती, जैसे शालि (आपल) के अंकुर पक्ष का पीज को उत्पन्न नहीं करता। कहा भी है-'उपशमफलाद् विद्या बोजा' इत्यादि । 'उपशम रूप फल को उत्पन करने वाले विद्यारीज से धन प्राप्त करने की अभिलाषा करने वालों का मान यदि निष्कल होता है तो यह कोई अनोखी यात नहीं ॥१॥ અધ્યયનમાં પ્રવૃત્ત થાય છે. પરંતુ પ્રયત્ન કરવા છતાં પણ તે દુર્ભાગી માણસે અભિલષિત વસ્તુની પ્રાપ્તિ કરી શકતા નથી. ક્ષવિદ્યા રૂપ બીજ શાન્તિ રૂપી ફળને ઉત્પન્ન કરે છે. તે વિદ્યાબીજ દ્વારા જે કઈ ધનની અભિલાષા સે, તે તેને પરિશ્રમ નિષ્ફળ જ જાય છે, તેમાં આશ્ચર્ય પામવા જેવું શું છે? પ્રત્યેક શસ્તુ નિયત ફળ આપનારી હોય છે. કઈ પણ વસ્તુ પાસેથી નિયત ફળને બદલે અન્ય ફળની આશા રાખવાથી નિરાશ જ થવું પડે છે. જેવી રીતે ચોખાનું બીજ વાવીને થવા ઉત્પન્ન કરી શકાતા નથી, એજ પ્રમાણે ઉપશમ રૂપ ફલ ઉત્પન્ન કરનારી विद्या बाघननी प्रति 1 ती नयी. प्रयु ५९ -'उपशम फलाद् विद्या बीजातू त्याहि *ઉપશમાપ ફલને ઉત્પન્ન કરનારા વિદ્યાબીજ વડે ઘન પ્રાપ્ત કરવાની ઈચ્છા રાખનારા લેકોનો પરિશ્રમ જે નિષ્ફળ જાય, તે તેમાં આશ્ચર્ય પામવા જેવું શું છે? सु० १३ For Private And Personal Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे न नियतफलाः कत्तुंर्भागः फलान्तरमीशते । जनयति खल ब्रीहेर्वीजं न जातु यवांकुरमिति ॥२॥गा. ४॥ उपसंहारमाह-'इच्चेवपडिलेहंति' इत्यादि । मूलम्-इच्चेर्वे पंडिलेहंति वलया पडिलेहिणो । वितिगिच्छ समापना पंथाणं अकोविया ॥५॥ छाया--इत्येवं पतिले सन्ति वलयपतिलेखिनः । विचिकित्सासमापन्नाः पन्यानं च अकोविदाः ॥५।। समस्त पदार्थ नियत फल वाले होते हैं । वे अन्यफल को उत्पन्न नहीं कर सकते। शालि का बोन धव के अंकुर को उत्पन्न नहीं कर सकता ॥४॥ उपसंहार-'इच्चेव पडिलेहंति' इत्यादि । शब्दार्थ-'वितिगिच्छसमापन्ना-विचिकित्ता समापन्नाः' इस संघम का पालन में कर सकूँगा अगर नहीं कर सकूँगा ? इस प्रकार का संदेह करने वाले 'पंथाणं च अकोविया-पन्धानं च अकोविदः' मार्ग को नहीं जानने वाले 'वल या पडिले हिशो-घलयप्रतिलेखिनः' संग्राम में गड्डा आदि का अन्वेषण करने वाले कायर पुरुषों के समान 'इच्चेव पडिलेहंति-इत्येवं प्रतिलेखन्ति' इस प्रकार का पूर्वोक्त रीति से संयम में कायर पुरुष विचार करता है ॥५॥ જેવી રીતે ચેખાનું બીજ વવના અંકુર ઉત્પન્ન કરી શકતું નથી પણ ચેખાજ ઉત્પન્ન કરી શકે છે–તે જેમ જ ઉપન્ન કરી શકતું નથી. એ જ પ્રમાણે પ્રત્યેક પદાર્થ નિયત ફલ જ દેનાર હોય છે–નિયત ફળ સિવાયના અન્ય ફળની આશા રાખનારને નિરાશા જ સાંપડે છે. ગાથા કા G५९२-'इच्चेष पडिलेहंति' त्या शहा–'वितिगिच्छसमावन्ना-विचिकित्सा समापन्नाः' मा सयभनु પાલન હું કરી શકીશ અથવા કરી શકીશ નહિં? આ પ્રકારનો સંદેહ ४२वावा पंथाण-च अकोविया-पन्थानं च अकोविदा.' भागने नपा १ 'वलया पडिलेहिणो-वलयप्रति लेखिनः सयामा परेनु' मन्वषय ४२११॥ य२ ५३षाना समान 'इच्येव पडिलेहंति-इत्वेव प्रतिलेखन्ति' આ પ્રકારને પૂર્વોક્ત રીતથી સંયમમાં કાયર પુરૂષ વિચાર કરે છે. પણ For Private And Personal Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थयोधिनी टीका प्र. श्रु. अ.३ ३.२ उपसर्गजन्यतपःसंयमविराधनानि० ९९ ___ अन्वयार्थः-(वितिमिच्छसमावन्ना) विचिकित्सा समापनाः संयम पालयितुं समर्था भविष्यामो न वेति संशयापनाः (पंथाणं च अकोविया) पन्थानं च अकोविदा: मोक्ष पन्थानं प्रत्यपंडिताः (वलयापडिलेहिणो) क्लयप्रति लेखिनः= संग्रामे दुर्गमस्थानान्वेषककातरा इस (इच्चेवाडिले हे ति) इत्येवं पूर्वोक्तक्रमेण संयमकातरा विचारयन्तीति ॥५॥ ____टीका--'वितिगिच्छसमावन्ना' विचिकित्सा समापनाः, संयमस्य परिपा. लने समर्थाः भविष्यामो नवेति सन्देहं कुर्वाणा, तथा 'पंथाणं च अकोविया' पन्थानं मार्गम्-सम्पयू ज्ञानदर्शनचारित्रलक्षणमोक्षपति, अकोविदा प्रनिपुणाः= अयं ज्ञानदर्शनचारित्रलक्षणो मार्गों मोक्षं नेष्यति न वेति संशयजालाकुलमानसा, 'वलयापडिलेहिणो' वलयमतिलेखिनः-निर्वाहार्थमटांगादिनिमित्तं बलयरूपमन्वेषयन्तः, वळयं गादिकमन्वेषयत्पुरुषात् , 'इच्चेन पडिलेहंति' इत्येवं पतिले अन्वयार्थ-हम संयम का पालन कर सकेंगे या नहीं इस प्रकार शंकाशील तथा मोक्षमार्ग में अकुशल, संग्राम के समय दुर्गम स्थानों की गवेषणा करने वाले कायरों के समान संयम कातर लोग पूर्वोक्त प्रकार से विचार करते हैं ॥५॥ टीकार्थ-जो विचिकित्सा से युक्त है अर्थात् हम संयम पालन में समर्थ हो सकेंगे या नहीं, इस प्रकार के संशय से ग्रस्त हैं, तथा जो सम्यग्ज्ञान, दर्शन और चारित्र तप रूप मोक्षमार्ग के विषय में कुशल नहीं है अर्थात् जिन्हे ऐसी शंका है कि सम्पम् दर्शन आदि से मोक्ष प्राप्त होगा या नहीं, जो जीवन निर्वाह के लिये अष्टांग निमित्तरूप रक्षास्थान की खोज करते हैं, वे इस प्रकार विचार करते हैं। સૂત્રાર્થ—અમે સંયમનું પાલન કરી શકશું કે નહીં, આ પ્રકારને સંદેહ રાખનાર, તથા મે ક્ષના માર્ગે આગળ વધવાને કુશલ કાયર લેકે, સંગ્રામને સમયે પિતાની રક્ષા નિમિત્તે દુર્ગમ સ્થાનની ગવેષણ (ધ) કરનારા કાયરાની જેમ, પૂર્વોક્ત પ્રકારે વિચાર કરે છે. પા ટીકાઈ–જેઓ વિચિકિત્સથી યુક્ત હોય છે એટલે કે અમે સંયમનું પાલન કરી શકશે કે નહીં, આ પ્રકારના સંશયથી ન લેકે, તથા સમ્યગૂજ્ઞાન, દર્શન અને ચારિત્રતપરૂપ મોક્ષમાર્ગના વિષયમાં અકુશલ લેકે, એટલે કે સમગ્રદર્શન આદિથી મોક્ષની પ્રાપ્તિ થશે કે નહીં, એવી શંકા સેવનારા અજ્ઞાની લેકે જિવન નિર્વાહને નિમિત્ત, અષ્ટાંગ નિમિત્તરૂપ રફ સ્થાનની २५ ३३ छे. For Private And Personal Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०० सूत्रकृताङ्गसूत्रे खन्ति । यथा भीरवः संग्रामं प्रविशन्त एव वलयादिकं प्रत्यपेक्षमाणा भवन्ति । एवं प्रव्रज्यां जिघृक्षवः अल सत्वा मन्दभाग्याः संयमो यदि पालितो न स्यात्तदा व्याकरणादिकमेव जीवनोपायतया कल्पयिष्याम इति विचारयन्तीति भावः ॥५॥ संप्रति संयमपतिपालनशूराणां महापुरुषाणां कीदृशो व्यापारो भवति, तत्र हान्तं प्रतिपादयति सूत्रकारः--'जे उ संगामकालंमि' इत्यादि । म्लम्-जे उ संगामकालंमि नाया सूरपुरंगमा । - णो ते पिडमुवेहिति किं परं मरणं सिया ॥६॥ छाया--ये तु संघामकाले ज्ञाताः शूरपुरोगमाः । नो ते पृष्ठमुत्प्रेक्षन्ते किं परं मरणं स्यात् ॥६॥ तात्पर्य यह है कि जैसे और जन संग्राम में प्रवेश करते ही छिपने का स्थान खडा आदि बोजते हैं, उसी प्रकार दीक्षा अंगीकार करने वाले सत्वहीन अभागे लोग विचार करते हैं कि यदि संयम न पाला गया तो जीविकानिर्वाह के लिए व्याकरण आदि से काम चलाएंगे ॥५॥ अब सूत्रकार प्रतिपादन करते हैं कि संघन का पालन करने में शूर महापुरुषों का व्यापार किस प्रकार का होता है'जे उ संगामकालंमि' इत्यादि। शब्दार्थ--'उ-तु' परन्तु 'जे-2' जो पुरुष 'नाया-ज्ञाताः' जगत् प्रसिद्ध 'सूर पुरंगमा-शा पुरोमा' वीरों में अग्रगण्य हैं। 'ते-ते' वे पुरुष 'संगामकालंमि-संग्रामकाले' युद्ध का समय आने पर 'णो पिट्ठ मुवेहंति-नो पृष्ठमुपेक्षन्ते' आपत्ति से रक्षण के लिए दुर्गादिकों को આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે જેવી રીતે ભીરુ માણસે સંગ્રામમાં પ્રવેશ કરતા પહેલાં જ છુપાઈ જવાનાં દુધ, ગુફા, ખાઈએ આદિ સ્થાનોની શોધ કરે છે, એજ પ્રમાણે દીક્ષા ગ્રહણ કરનારા સત્વહીન લેકે એ વિચાર કરે છે કે જે સંયમનું પાલન નહીં કરી શકાય, તે વ્યાકરણ, તિષ આદિ જે વિદ્યાઓ પ્રાપ્ત કરાશે તેના દ્વારા જીવનનિર્વાહ તે જરૂર ચલાવી શકાશે. પણ - હવે સૂત્રકાર એવું પ્રતિપાદન કરે છે કે સંયમનું પાલન કરવાને માટે शूर, महापुरुषा ३३ प्रयत्न ४३ छ.--'जे उ संगामकालंमि' छत्याह शहाथ-'3 •तु' ५२'तु 'जे-ये' २ ५३५ 'नाया-ज्ञाताः' गत प्रसिद्ध सूरपुरंगमा-शूरपुरोगमाः' वारेमा समय छ 'ते-ते' त ५३५ 'संगामकालमि-संग्रामकाले' युद्धनी समय भावी ५3थी ‘णो पिद्रमुवेहंति-नो For Private And Personal Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सार्थबोधनो टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. २ उपसर्गजन्य तपःसंयमविराधनानि० १०१ अन्वयार्थः - ( उ ) तु परंतु (जे) ये - महासत्वाः (नाया) ज्ञाताः - जगप्रसिद्धाः (सूरपुरंगमा) शूरपुरोगमाः- शूरणामग्रगामिनः (ते) ते पुरुषा : ( संगामकालं मि) संग्रामकाले समुपस्थिते सति (गोपिमुवे हिंति नो पृष्ठमुत्प्रेक्षन्ते पश्यति दुर्गादिकमापत्त्राणाय न पर्यालोचयंति 'किं परं मरणं सिया' किं परं मरणं स्यात् = मरणादन्यत् किं स्यादिति ॥ ६ ॥ टीका भीरवस्तु पूर्वोपदर्शितप्रकारेण संग्रामं परित्यज्य स्वत्राणाय दुर्गादिकमपेक्षते । 'उ' परन्तु 'जे' ये पुरुषाः वलवन्तः वस्तुतः शूराः । 'माया' ज्ञाताः लोके स्वकीयशूरतायाः रूपाति लब्धवन्तः 'सूरपुरंगमा' शुरेषु वीरेषु अग्रे गणनीयाः 'ते' ते वीराः पुनः 'संगामकालंमि' संग्रामकाले युद्धशीर्ष समा विचारते नहीं है 'किं परं मरणं सिया- किं परं मरणं स्यात् ' मरण से भिन्न और क्या हो सकता है | ६ || अन्वयार्थ - किन्तु जो महान् सत्वशाली होते हैं, जगत्प्रसिद्ध और शूरवीरों में अग्रगामी होते हैं, वे पुरुष संग्राम का अवसर आने पर पीछे की ओर नहीं देखते-आपत्ति से बचने के लिये दुर्ग आदि का गवेषण नहीं करते। वे तो यही विचार करते हैं कि मृत्यु से अधिक और क्या होगा ? || ६ || टीकार्थ- पूर्वोक्त कथन के अनुसार भीरुजन संग्राम का त्याग करके अपने रक्षण के लिए दुर्ग आदि की अपेक्षा रखते हैं, किन्तु जो पुरुष सबल एवं वस्तुतः शूरवीर होते हैं जिन्हों ने शुरवीर के रूप में जगत् में रूपाति प्राप्त की है, जो शुरों में अग्रगण्य होते हैं, वे संग्राम के समय, युद्ध के पृष्ठमुपेक्षन्ते' आपत्तिश्री रक्षबुना भाटे हुर्ग वगेरेने विचारता नथी. 'कि परं मरणं लिया - किं परं मरणं स्यात् ' भरथी लिन्न मित्र शु श छे. ॥६॥ સૂત્રાપરન્તુ જેઓ ખૂબ જ સત્ત્વશાળી હાય છે, જગવિખ્યાત શૂરવીરામાં જેમણે અગ્રસ્થાન પ્રાપ્ત કર્યું... હોય છે, એવા લેાકા યુદ્ધને પ્રસ’ગ આવે ત્યરે ભવિષ્યને વિચાર કરતા નથી. આપત્તિથી બચવાને માટે દુ માદિની તેએ ગવેષણા કરતા નથી. તેએ એવા વિચાર કરે છે કે યુદ્ધમાં અધિકમાં અધિક મૃત્યુ પ્રાપ્ત કરવાના પ્રસંગ આવશે, એથી અધિક અન્ય કોઇ ભયને! તે સંભવ જ નથી! ય ટીકા આગળ જેમનું વન કરવામાં આવ્યુ છે એવા કયો યુદ્ધમાંથી નાસી જઈને દુ` આદિમાં રક્ષણને માટે આશ્રય લેવાના વિચાર કરે છે; પરન્તુ જે પુરુષા સમળ અને ખરેખરા શૂરવીરામાં અગ્રગણ્ય હાય છે, તેઓ યુદ્ધના પ્રસંગ આવે ત્યારે સમરાંગણને મેખરે પાતની સેના For Private And Personal Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे रूढाः सेनापतित्वं मजमानाः। 'यो विट्टमुवेहिति' नो पृष्ठमुत्प्रेक्षन्ते=पृष्ठं नोत्मे क्षन्ते, आपत्राणाय दुर्गादिकं न शोधयन्ति । ते इत्थं विचारयन्ति, 'किं परं मरणं सिया' किं परम् अन्यत् , यदि मरण स्यात् । किमपरं युद्धयमानानामस्माकम् , यदि मरगं स्थात् । यदि अस्माकं जयः तदा लोके यशः यदि वा मरणं भवेत् तदापि लोके ख्यातिः । नश्वरशरीरपातेनापि यदि स्थिरं यशालभ्यते तदा का क्षतिः संग्राममरणे तदुक्तंविशरारुभिरविनश्वरमपि वपलः स्थास्नु वाञ्छतां विशदम् । प्राणैयदि शराणां भवति यशः किन्नपर्याप्तम् ॥१॥ नश्वाशरीरनिधनेनाऽनश्वरं यशः पाप्यते इति विचिन्त्य संग्रामाद्विमुखा नैव भान्ति शूराः कदाचिदपीति भावः ॥६॥ शीर्षभाग में उपस्थित होकर सेना का अधिपतित्व करते हुये पीछे की ओर नहीं देखते । आपत्ति से बचने के लिए दुर्ग आदि स्थानों का अन्वेषण नहीं करते । वे तो यही सोचते हैं कि अधिक से अधिक होगा तो मरण ही होगा-उससे अधिक और क्या होगा? युद्ध करते हुये यदि विजय प्राप्त हो गई तो लोक में यश मिलेगा और यदि मरण हो गया तो भी लोक में ख्याति होगी। यदि नाशशील शरीर के नष्ट होने से स्थापी यश की प्राप्ति होती है तो संग्राम में मर जाने में क्या हानि है ? कहा है-'विशरारुभिरविनश्वर' इत्यादि । _ 'प्राण विनाशशील है और चपल है। इनके द्वारा अगर अविनश्वर और स्थायी निर्मल घश की प्राप्ति होती है तो क्या शूरवीर पुरुषों के के लिए यह पर्याप्त नहीं है ? ॥१॥ સાથે ઉપસ્થિત થઈ જાય છે. તેઓ સમરાંગણમાંથી નાસી જઈને દુર્ગ આદિમાં આશ્રય લેવાનો વિચાર પણ કરતા નથી. તેઓ એ વિચાર કરે છે કે યુદ્ધમાં કદાચ મે.તને ભેટવું પડશે મતથી અધિક અન્ય ભયને તે ત્યાં અવકાશ જ નથી! જે યુદ્ધમાં વિજય મળશે, તે લેકમાં મારી કીતિ ગવાશે અને કદાચ લડતાં પ્રાણ ગુમાવવા પડશે તે પણ લેકમાં મારે યશ ફેલાશે. જે આ નાશવંત શરીરને નાશ થવાથી સ્થાયી યશની પ્રાપ્તિ થવાની હેય તે આ સંગ્રામમાં પ્રાણની આહુતિ દેવામાં પણ શી હાનિ થવાની छ ? ४ ५४ छ है-'विशरारूभिरविनश्वर' याति પ્રાણ વિન શશીલ અને ચંચળ છે. જે તેના દ્વારા અવિનશ્વર અને સ્થાયી યશની પ્રાપ્તિ થતી હોય, તે શૂરવીર પુરુષને માટે એ શું પૂરતું નથી ?' For Private And Personal Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -- समयार्थबोधिनी टीका प्र.श्रु. अ.३ उ.२ उपसर्गजन्यतपःसंयमविराधनानि० १०३ तदेवं शूरामसरस्य दृष्टान्तं पदर्य दानिक प्रदर्शयति - ‘एवं इत्यादि । मूलम्-एवं समुट्ठिए भिवरवू वोसिजोऽगारंवंधणं । आरंभ तिरिय कट्ट अत्तत्तए परिवए ॥७॥ छाया--एवं सास्थितो भिक्षुः एज्यागारबन्धनम् । आरंभ तिर्यक कृत्वा आत्मत्वाय परिव्रजेत् ॥७॥ अवधार्थ:--(एवं) एवं (अपारवंधण) आगारवंधनं गृपाशम् (सोसिज्जा) पुत्सृज्य-त्यक्तमा (आरंभी आरंभ सावधानुष्ठानं (तिरियं कटु) तिर्यक कृत्वा अपहत्य तात्पर्य यह है कि वीर पुरुष नश्वर शरीर के विनाश से अदि. नश्वर यश की प्राप्ति होती है, इस प्रकार विचार करके कदापि संग्राम से विमुख नहीं होते हैं ॥६॥ शब्दार्थ--एवं-एवम्' इस प्रकार 'अगार बंधण-अगारबंधनम् गृहबन्धन को 'वोसिज्जा-व्युत्सृज' त्यागकर तथा 'आरंभ-आरंभम्' आरंभ का अर्थात् सायद्य अनुष्ठान को 'तिरियं कटु-निर्यक कृत्वा' छोडकर 'समुट्टिए-समुत्थितः' संयम के पालन में तत्पर घना हुआ 'भिक्खू-भिक्षुः साधु 'अतत्साए-आत्मत्वाय' मोक्ष प्राप्ति के लिये परिव्यए-परिव्रजेत्' संयम के अनुष्ठान में दत्तचित्त बने । अन्वयार्थ--इसी प्रकार गृहबन्धन को स्थासकार तथा आरंभ को दूर करके संयमपालन के लिए उद्यत हुआ भिक्षु संयमानुष्ठान में ही दत्तचित्त हो ॥७॥ આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે “આ નશ્વર શરીરના વિનાશથી અવિ. નશ્વર યશની જે પ્રાપ્તિ થતી હોય, તે શૂરવીર પુરુષોએ સંગ્રામમાંથી પીછે હઠ શા માટે કરવી જોઈએ આ પ્રકારને વિચાર કરીને શુરવીર પુરુષે રણસંગ્રામમાંથી ભાગી જઈને પ્રાણુરક્ષા કરવાને વિચાર કરતા નથી કાં -एवं-एवम्' मा रे ‘अगारबंधण-अगारबंधनम्' मधनने 'वोसिज्जा-व्युत्सृज्य' छोडी छने तथा 'आरंभ-आरंभम् मा भने अर्थात् सावध अनुष्ठानने 'तिरिय कटु-तिर्यकृत्वा' छ। 'समुट्टिए-समुत्थितः' सयमना पासनमा तत्५२ अनेस 'भिक्खू-भिक्षुः' साधु 'अत्तत्ताए-आत्मत्वाय' मोक्ष प्रातिना भाटे परिव्वए-परिव्रजेत्' सयमना मनुहानमा हुत्तचित्त भने. ॥७॥ સૂત્રાર્થ–એજ પ્રમાણે ગૃહબન્ધનને ત્યાગ કરીને તથા આરંભને દૂર કરીને સંયમનું પાલન કરવાને કૃતનિશ્ચયી થયેલે સાધુ સંયમાનુષ્ઠાનમાં જ सीन लय छे. ॥७॥ For Private And Personal Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०४ सूत्रकृताङ्गसूत्रे (स) समुत्थितः संयमपालनाय (भक्खू ) भिक्षुः = साधुः (अत्तत्ताप) आत्मवाय- संयमानुष्ठनाय (परिव्वए) परिव्रजेत् संयमानुष्ठाने दत्तचित्तो भवेदिति ॥७॥ टीका -- एवं' एवं यथा संग्रामे शूराः कुलेन, वलेन, शिक्षण व लोके प्रसिद्धाः समद्भवद्धपरिकराः पाणी शस्त्रमुत्थाप्य शमां पराभवाय पयमानाः कदापि पृष्ठावलोकनो न भवन्ति । तथा 'अगारबन्धगं' आगारबन्धनम् = गृहबन्धनम् 'वोसिज्जा' व्युत्सृज्य = विविधानित्यादि वैभव उत्पादन परित्यज्य । तथा आरंभ तिरियं क आरं तिर्यक कृत्या आरम्भंधानु ष्ठानं परित्यज्य 'समृद्धि' समुत्थितः संयमपरिपालनाप सिद्ध इति यात्रत् । 'भिक्खू' भिक्षुः =साधुः 'अततः ए' आस्मत्वाय आत्मनः पातये, मोक्षाय संयमाय वेति यावत् । 'परिए' परित्रजे=संयमं गृह्णीयादिति । गृहबन्धनं सवकर्मानुष्ठानं च परित्यज्य मोक्षप्रासिमुद्दिश्व तपश्वरणादिभिः सन्नद्धः साधुः संयमानुष्ठाने संलग्नो मवेदिति भावः ||७|| टीकार्थ-जैसे संग्राम में शूर, कुल बल और शिक्षा के द्वारा लोक में प्रसिद्ध, कमर कसकर तैयार एवं हाथमें शस्त्र उठा कर शत्रुओं का पराभव करने में उद्यत होते हैं, कभी पीछे की ओर नहीं देखते, उमी प्रकार गृह संबंधी धनों को विविध प्रकार की अनिश्पता आदि वैराग्य भावनाओं के द्वारा त्याग कर तथा सावध अनुष्ठान का त्याग करके संयम पालन के लिए मन्नद्ध हुआ साधु आत्मस्वरूप की प्राप्ति के लिए संयम को ही ग्रहण करें। आशय यह है कि गृह संबंधी बन्धन को और सावद्य कर्म के अनुष्ठान को त्याग कर, मोक्ष प्राप्ति के उद्देश्य से तपश्चरण आदि के द्वारा उचत हुआ साधु संयम का आचरण करने में संलग्न हो ||७|| ટીકા”—જેવી રીતે સગ્રામમાં શૂર અને કુળ, બળ અને શિક્ષા દ્વારા લાકમાં પ્રસિદ્ધ પુરુષ હાથમાં શસ્ત્ર ઉપાડીને શત્રુઓના પરાભવ કરવાને માટે કમર કસીને તૈયાર થઈ જાય છે કી ભાગી જવાના વિચાર પણ કરત નથી, એજ પ્રમાણે વિવધ પ્રકારની અનિત્યતા આદિ વૈરાગ્ય ભાવનાઓથી પ્રેરાઈને ગૃડધનના ત્યાગ કરનાર તથા સાવદ્ય અનુષ્ઠાનેાને પરિત્યાગ કરીને સયમના પાલનને માટે કટિબદ્ધ થયેલે સાધુ આત્મસ્વરૂપની પ્રાપ્તિને માટે સયમની આરાધનામાં જ લીન રહે છે. આ કથનના ભાવાર્થ એ છે કે ગૃહબન્ધનના અને સાદ્ય કર્માંના ત્યાગ કરીને સયમના માળ ગ્રુણુ કરનાર સાધુએ માક્ષપ્રાપ્તિને માટે તપરયા આદિદ્વારા સયમની આરાધનામાં જ લીન રહેવુ જોઈ એ. પ્પા For Private And Personal Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र.श्रु. अ.३ उ.३ उपसर्गजन्यतपःसंयमविराधनानि० १०५ मूलम्-तमेगे परिभातति भिवयं साहजीविणं। जे एवं परिभासंति अंतएँ ते समाहिएं ॥८॥ छाया--तप्रेके परिभाषन्ते भिक्षुकं साधुजीविनम् । य एवं परिभाषन्ते अन्तके ते समाधेः॥८॥ अन्वयार्थः---(साहुजीविणं) साधुजीविनम् उत्तमाचरेण जीवन्तं (तं) तम् (भिक्खुयं) भिक्षुकं (एगे) एके-केचन (परिभासंति) परिभाषन्ते आक्षेपवचनं कथयन्ति (जे एवं परिमासंति) ये एवं परिभाषन्ते (ते) ते (समाहिए) समाधे समभावतः (अंतए) अंके-दुर वसन्तीति ।८॥ टीका--'साहुजीविण' साधुनीविनम् साधुः सम्यक परोपकारकरणादिरूपमाचरणं यस्य स साधु नीयो तं साधु जीविनम् । 'त' अत्युत्तमजीविनम् 'भिक्खूर्य' शब्दार्थ--'साहुजीयणं-साधुजीविनम्' उत्तम प्रकार के आचार से जीवन निर्वाह करने वाले 'तं-तम्' उस 'भिक्खु-भिक्षुकम्' साधु के विषय में 'एगे-एके' कोई अन्य दर्शनवाले 'परिभासंति-परिभाषन्ते' आगे कहे जाने वाले आक्षेप वचन कहते हैं 'जे एवं परिभासंति-ये एवं परिभाषन्ते' परन्तु जो इस प्रकार के आक्षेपवचन कहते हैं 'ते-ते' वे पुरुष 'समाहिए-समाधेः' समभाव से 'अंतए-अन्तिके' दूर ही हैं॥८॥ ____ अन्वयार्थ -साधु जीवन जीने वाले उस भिक्षुक के प्रति कोई भाक्षेपवचनों का प्रयोग करते हैं । जो ऐसा करते है वे समाधि से दूर ही रहते हैं ॥८॥ टीकार्थ-जो साधु जीवी से है अर्थात् जो परोपकार आदि रूप सम्यक् आचरण करता है, ऐसे उत्तम जीवन वाले भिक्षु पर भी कोई Avat--'साहुजीविणं-साधुजीविनम्' उत्तम न मायारथी - नि: ४२१:१॥ 'त-तम्' ते 'भिक्खू-भिक्षुकम्' साधुना विषयमा 'एगे-एके' 5 भात शनणा 'परिभासति-परिभाषन्ते' मा अपामा भावना२ मा२५ वय ४९ छ, 'जे एवं परिभासंति-ये एवं परिभाषन्ते' २॥ २ना मा५ पयन ४ छ 'ते-ते' ते ५३५ 'समाहिए-समाधेः' समसाथी 'अंतए-अन्तके' ६२ ॥ छ. ॥८ સૂત્રાર્થ–સાધુજીવન જીવનારા તે સાધુને માટે કઈ કોઈ માણસે આક્ષેપ વચનને પ્રયોગ કરે છે. એવાં લેકે સમાધિથી દૂર જ રહે છે. ૮ ટીકા_જેઓ સાધુજીવી છે એટલે કે સાધુના આચારોનું પાલન કરનારા છે, પરોપકાર આદિ રૂપ સમ્યક્ આચરણથી જેઓ યુક્ત છે, એવા For Private And Personal Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे भिक्षुकं भिक्षाचरणशीलम् 'एगे' एके केचनाऽन्यकुदर्शनमतानुमारिणः। 'परिभासंति' परिभाषन्ते आक्षेपयुक्तं वचनं ब्रुवन्ति । 'जे एवं परिभासंति' ये एवं परिभाषन्ते ये एवमित्थं साक्षेपाचनं कथयन्ति, ते गोशाकमतानुसारिणः 'समाहिए' समावे-मोक्षरूपात् समाधेः संगमानुष्ठानद्वा । 'अनिए' अन्तिके दूरे एव तिष्ठन्ति । निरवद्याचारेण संयमानुष्ठानं कुर्वतोऽपि भिक्षस्थ निन्दावचनं ये कथयन्ति ते गोशालकमतानुसारिणोऽन्यदर्शनिलो वा मोक्षासंयमानुष्ठानाद्वा दरे स्थिता एव भवन्ति । 'परीवादात खरो भवति श्वा वै भवति निन्दकः' इतिलोकोक्त्या तस्य निन्दाकारिणोऽधमलोकगमनस्य श्रवणात् संयममाप्तिनव कथमपि भवतीति ॥८॥ कोई कुमतानुसारी लोग आक्षेप करते हैं। किन्तु जो इस प्रकार आक्षेप वचन कहते हैं, वे गोशालक के अनुयायी मोक्षरूप अथवा संयमानुष्ठानरूप समाधि से दूर ही रहते हैं अर्थात् उन्हें न तो संयमरूप समाधि की प्राप्ति होती है और न मोक्षरूप समाधि ही प्राप्त होती है। __ अभिप्राय यह है कि निष्पाप आचरण के द्वारा संयम का अनुष्ठान करने वाले भिक्षु के प्रति जो निन्दामय वचनों का प्रयोग करते हैं, वे गोशालकमत के अनुयायी अथवा अन्यमतावलम्बी मोक्ष से या संयमानुष्ठान से दूर ही रहते हैं। दूसरे का परिवाद करने वाला गर्दभ के रूप में और निन्दा करने वाला कुत्ते के रूप में उत्पन्न होता है। इस लोकोक्ति के अनुसार निन्दक को अधोगति में जाना पड़ता है। उसे संयम की प्राप्ति किसी भी प्रकार नहीं हो सकती ॥८॥ ઉત્તમ જીવન જીવનારા શિશુને માટે પણ કઈ કઈ કુમતાનુસારી. અવિચારી લો આક્ષેપ કરે છે. પરંતુ આ પ્રકારના આક્ષેપ કરનારા આજીવિકે (ગશાલકના અનુયાયીઓ) આદિ લેકે મોક્ષરૂપ અથવા સંયમાનુષ્ઠાન રૂપ સમાધિની દૂર જ રહે છે. એટલે કે તેમને સંયમરૂપ સમાધિની પ્રાપ્તિ પણ થતી નથી અને મોક્ષરૂપ સમાધિની પણ પ્રાપ્તિ નથી. આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે નિષ્પા૫ આચરણ દ્વારા સંયમની આરાધના કરનારા ભિક્ષુની વિરુદ્ધમાં જેએ નિન્દા વચનને પ્રવેશ કરે છે, એવા લેકે–ગશાલકના અનુયાયીઓ તથા અન્ય મતવાદીઓ–મિક્ષથી અથવા સંયમનુષ્ઠાનથી દૂર જ રહે છે. “પરંપરિવાદ કરનારા લે કે ગધેડારૂપે અને નિન્દા કરનાર લેકે કૂતરા રૂપે ઉત્પન્ન થાય છે, આ લેકેકિત અનુસાર નિન્દકને અગતિમાં જવું પડે છે. એવા નિર્જકને કઈ પણ પ્રકારે સંયમની પ્રાપ્તિ થઈ શકતી નથી. ૮ For Private And Personal Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थवोधिनी टीका प्र. श्र. अ. ३ उ.३ अन्यतिथिकोक्ताक्षेपवचननि०१०७ यादृशमाक्षेपवचनं ते परदर्शिनः समुच्चारयन्ति तानि वचनानि सूत्रकारः प्रतिपाइयति-'संबद्ध' इत्यादि। मूलम्-संवद्धसमकप्पा उ अन्नमन्नेसु मुच्छिया । पिंडवायं गिलाणस्स जं सारेह दलाह य ॥९॥ छाया-सम्बद्धसप्रकलास्तु अन्योऽन्येषु छिताः । पिण्डपातं हि म्लानस्य यत्सारयत ददध्वं च ॥९॥ अन्वयार्थ-(संवद्धसमझापा) संबद्धसमकल्याः (अन्नमन्नेसु) अन्योन्यम् परस्परम् (समुच्छिया) संमृच्छिता गृदाः (पिंडवाय) पिण्डपातम् भैयम् (गिलाणस्स) ग्लानस्य (सारेह) सारयतः अन्वेषयतः (दलाह य) दवध्वं च इति ॥ टीका~संबद्धसमकप्पा' संबद्धप्तम कल्पाः सम्-एकीभावेन परस्परोप अन्यनतावलम्बी जिस प्रकार के आक्षेपवचनों का प्रयोग करते हैं, सूत्रकार उन्हें दिखलाते हैं-'संबद्ध' इत्यादि। शब्दार्थ-'संयद्धसमकप्पा-संबद्धसमकल्पा' ये लोग गृहस्थ के समान व्यवहार करते हैं 'अन्नमन्नेप्लु-अन्योन्यम्' ये परस्पर एक दूसरे में 'समुच्छिया-संमूञ्छिताः' आसक्त रहते हैं 'पिंडवायं-पिण्डपातम्' आहार 'गिलाणस्स-ग्लानस्य' रोगी साधु का 'सारेह-सारयतः' अन्वेषण करके 'दलाह य-दध्वं च' देते हैं ॥९॥ अन्वयार्थ-धे साधु गृहस्थों के समान व्यवहार करते हैं, परस्परमें अनुरागी है, ग्लान तथा रोगी साधु को भिक्षा लाकर देते हैं ॥९॥ હવે સૂત્રકાર એ વાત પ્રકટ કરે છે કે અન્ય મતવાદીઓ જેનશ્રમણના विरुद्धमiqi aai भा३५३याने प्रयारे 2-'संबद्ध' त्या २५- 'संबद्धसमकप्पा'-संबद्धसमकल्पाः' Lal स्थाना समान व्यवहार रे छ 'अन्नमन्ने-अन्यान्यम्' तेस। ५२२५२ सेमीमां 'समुच्छिया-संमूर्छता.' मासात २९ छ, पिंडवायं-पिण्डपातम्' माडार 'गिला. णःख-ग्लानस्य' २०॥ साधुन 'सारेह-सारयतः' अन्वेष प्रशने 'दलाह य-ददध्वं च' सापी मा छ । સૂવાથ-આ સાધુઓને વ્યવહાર ગૃહસ્થના જેવું જ છે. તેઓ પર સ્પરના અનુરાગથી યુક્ત છે. તેઓ ગ્લાન (બીમાર), વૃદ્ધ આદિ સાધુઓને ' માટે ભિક્ષા વહેરી લાવે છે, પેલા For Private And Personal Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०८ सूत्रकृताङ्गसूत्रे कारितया च बद्धाः मातापित कलत्रादिरागपाशः ये ते संबद्धाः गृहवासिनः पामराः पुरुषाः, तादृशैः पुरुषैः समस्तुल्यः कल्पो व्यवहारोऽनुष्ठानं येषां ते संबद्धसमकल्याः, गृहस्थाऽनुष्ठानतुल्याऽनुष्ठानवन्तः । 'अन्नमन्ने समुच्छिया' अन्योऽन्येषु मूञ्छिताः, यथा गृहस्थ पिता पुत्रेषु आसक्तः, कलत्रं पत्यौ, पतिश्च कलत्रादौ आसक्तो भवति । तथा साधुरपि-गुरुः शिष्येऽनुरज्यति, शिष्यश्च स्वगुरौ, दृश्यते हि इदानीमपि गुरु यः कश्चित् सशिष्यं यथा सम्मानयति स्निग्धसालसनेत्री सस्नेहं पश्यति न तथा परकीयं शिष्यम् , न वा शिष्यो यथा स्वगुरुं समानदृष्टया पश्यति तथाऽन्यं साधुम् । अतः कथं न गृहस्थव्यवहारस्य समानतां न करोति । टीकार्य-जैसे गृहस्थ मातापिताकलत्र आदि के रागबन्धन में बंधे होते हैं और परस्पर एक दूसरे के सहायक होते हैं, उसी प्रकार ये साधु भी आपस में बंधे हैं, अतएव इनका आचार गृहस्थी में पिता पुत्रों पर आसक्त होता है, परस्त्री पति पर अनुराम करती है, और पति पत्नी में आसक्त होता है, उसी प्रकार इनमें गुरु का शिष्य पर और शिष्य का गुरु पर अनुराग है। आजकल भी ऐसा देखा जाता है कि गुरु अपने शिष्य का जैसा सन्मान करता है, स्नेहपूर्ण नेत्रों से जिस प्रकार देखता है, पैसा परकीय साधु को नहीं देखता। इसी प्रकार शिष्य जिस प्रकार अपने गुरु के प्रति सम्मान की दृष्टि रखता है, वैसी दृष्टि अन्य साधु के प्रति नहीं रखता। तो फिर इनका व्यवहार गृहस्थों के समान क्यों नहीं ટીકાથ—અન્ય મતવાદીઓ જૈન સાધુની આ પ્રકારની ટીકા કરે છેગૃવસ્થ માતા-પિતા, પત્ની આદિના રાગ બધમાં બંધાયેલા હોય છે, તે પ્રમાણે શ્રમણે પણ પરસ્પરના રાગ બન્ધનમાં બંધાયેલા હોય છે. જેવી રીતે ગૃહસ્થે એક બીજાના સહાયક બને છે, એ જ પ્રમાણે સાધુએ પણ એક બીજા પ્રત્યેના અનુરાગને કારણે એક બીજાને સહાય કરતા હોય છે. આ પ્રકારે તેમને આચા૨ ગૃહસ્થના જે જ છે. જેવી રીતે ઘરમાં माता, पिता, पुत्र, पत्नी, पति, माहि ४ wlon प्रत्ये मनु२॥ २॥. – એક બીજામાં આસક્ત હોય છે, એ જ પ્રમાણે સાધુઓમાં ગુરુ-શિષ્ય પ્રત્યે અને શિષ્ય-ગુરુ પ્રત્યે અનુરાગ રાખતા હોય છે. એવું જોવામાં આવે છે કે ગુરુ પિતાના શિષ્યો પ્રત્યે જેવા સન્માનભાવથી જોવે છેતેમની સામે જેવી નેહપૂર્ણ દષ્ટિ વડે દેખે છે, એવી સનેહપૂર્ણ નજરે અન્ય સાધુઓ તરફ જોતા નથી. એ જ પ્રમાણે શિષ્ય પિતાના ગુરુ પ્રત્યે જે સન્માનભાવ રાખે છે. એ સન્માનભાવ અન્ય સાધુઓ પ્રત્યે રાખતા નથી. આ પ્રકારે For Private And Personal Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. ३ अन्यतिथिकोक्ताक्षेपवचननि० १०९ किन्तु तत्तुल्य एवाऽयमपि । अन्योऽन्यम् उपकार्योपकारकत्वमेव दर्शयति'गिलाणस्स' ग्लानस्य, पीडायुक्तस्य रोगिणः साधो कृते-यद्भोजनमनुकूलं तदेवानीयते, अन्विष्यान्विष्य । 'विंडवाय' भोजनम् 'सारेह दलाह 4' सारयत ददध्वं च । अनुकूलं भोजनमन्विष्यत, आनीय ददध्वं । अतः कथं न गृहस्थस्य तुल्या साधुरपि तु तत्तुल्य एव भवति ॥९॥ पुनरप्याह सूत्रकार:-'एवं तुम्भे सरागत्था' इत्यादि। म्लम्-एवं तुब्भे सरागत्था अन्नमन्नमणुवसा। नंट्सप्पहसब्भावा संसारस्स अपारंगा ॥१०॥ छाया-एवं यूयं सरागस्था अन्योऽन्यमनुवशाः । नष्टसत्पथसद्भावाः संसारस्य अपारगाः ॥१०॥ है ? वास्तव में इनका व्यवहार गृहस्थों जैसा ही है। इसके अतिरिक्त ये परस्पर में एक दूसरे का उपकार करते हैं। जब कोई साधु रोगी हो जाता है तो उसके लिए अनुकूल अन्न आदि आहार अन्वेषण कर करके उसे देते हैं। ऐसी स्थिति में ये साधु गृहस्थ के समान क्यों नहीं है ? अपि तु उनके समान ही हैं ॥५॥ सूत्रकार पुनः कहते हैं-'एवं तुम्भे सरागत्या' इत्यादि। शब्दार्थ--एवं-एवम्' इस प्रकार 'तुब्भे-यूयं आप लोग 'सरा. गत्था-सरागस्था' रागसहित है 'अन्नमन्नमणुब्धया-अन्योन्यमनुयशाः' और परस्पर एक दूसरे के वश में रहते हैं, अतः 'नट्ठसप्पह सम्मावा-नष्ट सत्पथसद्भावाः' आप लोग सत्पथ और सद्भाव से તેમને વ્યવહાર ગૃહસ્થના જેવો જ લાગે છે. જેવી રીતે ગૃહસ્થ એક બી જાને મદદ કરે છે. કેઈ સ ધુ બીમાર પડી જાય અથવા વૃદ્ધાવસ્થાને કારણે ગેરી કરવા જઈ શકે તેમ ન હોય, તે અન્ય સાધુઓ તેમને માટે અનુકૂળ આહાર વહેરી લાવીને તેમને આપે છે. આ પ્રકારની પરિસ્થિતિમાં તેમને વ્યવહાર ગૃહસ્થના જેવું જ લાગે છે. અમને તે સાધુ અને ગુહસ્થના વ્યવહારમાં કઈ અન્તર દેખાતું નથી.” પલા વળી અન્ય મતવાદીઓ એ આક્ષેપ પણ કરે છે કે– 'एवं तुब्भे सरागत्था' २०७४-एवं-एवम्' ॥ ५४॥रे 'तुब्भे-यूयं' मा५ । 'सरागत्थासरागस्थाः' रागयुत छ। 'अन्नमन्नमणुव्यया-अन्योन्यमनुक्शाः' भने ५२९५२ sion 11 शमा २४ छ।, अत: 'नटसपहसभावा-नष्टसत्पथसद्भावाः' मा५ For Private And Personal Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गमने अन्वयार्थ-(एवं) एवम् (तुम्भे) यूयं (सरागत्था) सरागस्था: रागेग युक्ताः (अन्नमन्नमणुब्बसा)अन्योन्यमनुवशाः परस्पराधीना (नट्ठसपहसन्भावा) नष्ट सत्पथसद्भावा-पत्पथ सद्भावरहिताः। (संसारस्स) संसारस्य चातुर्गतिकस्य (अपारगा) अपारगाः।१०।। टीका--'एवं' एवम् अनेन प्रकारेण 'तुम्भे' यूयम् 'सरागत्था' सरागस्थाः , रागेण सह वर्तन्ते ये ते सरागाः तस्मिन सरागे तिष्ठन्ति, इति (सरागस्था:). 'अन्नमन्नमणुव्यसा' अन्योऽन्यवशवर्तिनः, सर्वे हि परस्पराधीनाः, न केऽपि निस्संगाः । साधो हि स्वाधीना भवन्ति, न तु परवशवर्तिनः। एपा रीतिस्तु गृहस्थानाम् , यत् परस्पराऽनुवर्तित्वमिति । 'नट्ठसप्पहसब्भावा' नष्टसत्पथसद्भावाः, नष्टोपगतस्सत्पथः सन्मार्गों ये स्ते तथा। 'संसारस्स अपारगा' संसारस्य चतुर्गतिकस्य मध्ये एव भवन्तः परिणमन्ति । न तस्य पारगामिनो भवन्तः। हीन हैं 'संसारस्स-संसारस्य' चार गति वाला इस संसार से 'अपारगाअपारगा:' पार जाने वाला नहीं है॥१०॥ अन्वयार्थ-अन्य मतावलम्बी यह आक्षेप भी करते हैं कि इस प्रकार तुम राग से युक्त हो, एक दूसरे के वशीवर्ती हो, सन्मार्ग से रहित ही और संसार से पारगामी नहीं हो ॥१०॥ पूर्वोक्त प्रकार से तुम लोग सराग हो, परस्पर सभी एक दूसरे के अधीन हो निस्संग नहीं हो । साधु स्वाधीन होते हैं, पराधीन नहीं होते । पराधीन रहना तो गृहस्थों की नीति है। तुम सत्पथ (मोक्षमार्ग) से भी रहित हो । इन सब कारणों मे तुम लोग चतुर्गति संसार के पारगामी नहीं हो संसार में ही भटकने वाले हो । अर्थात् जैसे गृहस्थ जन पूर्वोक्त कर्मों को करने के कारण चतुर्गतिक संसारसागर से पार बस सत्५५ भने समाथी डीन छी, 'संसारस्स-संसारस्य' यार तिवाणा भ। सारनी 'अपारगा-अपारगाः' ५२ पायी पापाणी नथी. ॥१०॥ સૂત્રાર્થ–(અન્ય મતવાદીઓ જૈન સાધુઓ સામે આક્ષેપ કરે છે કે, આ પ્રકારે તમે રાગથી યુક્ત છે, એક બીજા પર આધાર રાખનારા છે, સન્માર્ગથી રહિત છે અને સંસાર પાર કરનારા નથી. ૧૧૦ ટીકાઈ–કેટલાક લેકે સાધુએ સામે એવા આક્ષેપ કરે છે કેતમે સરાગ છે, તમે એક બીજા પર આધાર રાખનારા હેવાથી નિઃસંગ નથી. સ ધ વધીન હોય છે–પરાધીન હોતા નથી. ગૃહસ્થો જ પરાધીનતા ભગવે છે. તમે સપથ (મેક્ષમાર્ગ)થી પણ રહિત છે, તે કારણે તમે શતગતિરૂપ સંસારને પાર જવાને બદલે સંસારમાં જ ભટકવાના છે. એટલે કે જેવી રીતે ગૃહસ્થ પૂર્વોક્ત કર્મો કરવાને કારણે ચાર ગતિવાળા સંસાર For Private And Personal Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir AAAAAAS समयार्थोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. २ अन्यतीर्थिकोक्ताक्षेपोत्तरम् १११ यथा गृहस्थाः, यथोक्तकर्माऽनुष्ठानात् चार्षिधकसंसारसागरस्य पारगा न भवन्ति । तथा भवन्तोऽपि साधुकल्पाः-गृहस्थतुल्यतया संसारातिक्रमणेऽसमर्था एवेति आक्षेपकर्तु (भिपायः इति ॥१०॥ मूलम्-अह ते परिभातेजा भिक्खू मोक्खविसारए। एवं तुम्भे पभासंता दुपक्वं चेव सेवह ॥११॥ छाया--अथ तान् परिभाषेत भिक्षुर्मोक्षविशारदः । एवं यूयं प्रभाषमाणा दुःपक्षं चैव सेवध्वम् ॥११॥ अन्वयार्थ--(अह) अथ अनन्तरं (ते) तान् प्रतिकूलत्वेनोपस्थितान् पुरुपान (भिक्खू) भिक्षुः साधुः (मोक्व विसारए) मोक्षविशारदा मोक्षमार्गनहीं होते, उसी प्रकार आप साधु के समान रहते हुए भी गृहस्थों के सदृश अनुष्ठान करने के कारण संसार को पार करने में समर्थ नहीं हैं। ऐसा आक्षेप करने वालों का अभिप्राय है ॥१०॥ __ शब्दार्थ-'अह-अर्थ' इसके पश्चात् 'ते-तान्' उस अन्य तीथिकों से 'भिक्खू-भिक्षुः साधु 'मोक्खविसारए-मोक्षविशारदः' मोक्षविशारद-अर्थात्-ज्ञानदर्शन और चारित्र की प्ररूपणा करने वाला परिभासेज्जा-परिभाषेत' कहे कि 'एवं-एवम्' इस प्रकार 'पन्मासंता-प्रभाषमाणा" कहते हुए 'तुम्भे-यूयं' आप लोग 'दुपक्खंचेव-दुष्पक्ष चैव' दो पक्ष का राग और हेयात्मक 'सेवह-सेवध्वम् सेवन करते हैं ॥११॥ ___अन्वयार्थ-मोक्षमार्ग में कुशल भिक्षु उपर्युक्त प्रकार से भाषण करने वालों से इस प्रकार कहे-इस प्रकार भाषण करते हुए तुम लोग સાગર તરી જવાને અસમર્થ હોય છે, એ જ પ્રમાણે સાધુ રૂપે રહેવા છતા તમે ગૃહસ્થના જેવું જ આચરણ કરનારા હોવાને કારણે સંસાર સાગરને તરી જવાને અસમર્થ છે.” ૧૧ ___शाय- 'अहं-अध' माना छी ते-तान्' ते मन्य ताने 'भिक्खू -भिक्षुः साधु 'मोक्खविमारए-मोक्षविशारदः' भाक्ष विशा२४-मात् शान BAन भने यात्रिनी ५३५९। ४२१:'परिभासेज्ज-परिभाषेत' ४३ है एवं-एवम्' मा ४२ पन्भासंता-प्रभाषमाणाः' तो 'तुम्भे-यूयं' मा५ । दुपक्वं चेव-दुष्पवं चैव' में पक्षन। ७५ मने 684 मे पक्षने 'सेबह-सेवध्वम्' सेवन ४२पावणा छ । ११॥ સૂવાથં–મોક્ષને માર્ગે આગળ વધવામાં કુશળ સાધુએ પૂર્વોક્ત આક્ષેપ કરનાર કોને આ પ્રમાણે જવાબ આપે જોઈએ– For Private And Personal Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११२ सूत्रकृताङ्गसूत्रे ज्ञानदर्शनचारित्रस्य मरूपकः (परिमासेजा) परिभाषेत ब्रूयात् (एवं) एवं अनन्तरोक्तं (मासंता) प्रभाषमाणाः (तुब्भे) यूयं (दुपक्खं चेव) दुष्पक्षं दुष्टः पक्षो दुष्पक्षः तम् अथवा रागहेयात्मकं पक्षद्वयं (सेवह) सेवधमिति ॥११॥ टीका:--'ह' अब पूर्वपक्ष समाप्त्यनन्तरम् 'मोकवविसारए' मोक्षविशारदः मरूपका, मोक्षस्य तत्कारणस्य ज्ञानदर्शनचारित्रात्यस्य विशारदः मरूपका 'भिक्खू' भिक्षु भिक्षणशीलः, 'ते' तान् पतिकूलोपस्थितान् अन्यदर्शिनः । 'एवं' अनन्तरोदीरितमार्गेण 'पभासंता' प्रभाषमाणाः सन्तः अन्यदर्श निना साधुस्वरूपधारिणो गृहस्थाश्च 'दुपक्वं दुष्पक्षम् , दुष्टः पक्षो दुष्पक्षः तमेव । 'तुम्भे' यूयम् ‘से वह' सेवनम् । अावा-रागद्वेषात्मक पक्षद्वयं सेवचम् । सद्पण स्यापि स्वपक्षस्य समर्थनात् रागः । तथा-निदुष्टस्याऽपि संयममार्गप्रतिक्षेपकरणात पद्वेषः। यद्वा-आधानिकोदेशिकान्नादिमोजियाद् गृहस्थपक्षस्याऽसेवनम् । दुष्पक्ष अर्थात् दूषित पक्ष या द्विपक्ष (रागद्वेषरूप पक्ष) का सेवन कर रहे हो ॥११॥ टीकार्थ-यहां 'अर्थ' शब्द पूर्वपक्ष की समाप्ति का सूचक है। मोक्ष में विशारद अर्थात् म.क्ष के कारणभूत ज्ञान, दर्शन और चारित्र तप का निरूपण करने में कुशल भिक्षु प्रतिकूल रूप से उपस्थित उन अन्य दर्शनियों से इस प्रकार कहे हमारे ऊपर असमीचीन आक्षेप करते हुए तुम साधुवेषधारी या गृहस्थ दूषित पक्ष का सेवन करते हो या रागद्वेष रूप द्विपक्ष का सेवन करते हो। अपने सदोष पक्ष का समर्थन करने के कारण राग और निर्दोष संयममार्ग पर भी आक्षेप करने के कारण द्वेषरूप पक्ष है । अथवा आधाकर्मी तथा औद्देशिक अन्न “આ પ્રકારના આક્ષેપ કરનારા તમે લેકો દુપક્ષ (દૂષિત પક્ષ)નું અથવા દ્વિપક્ષનું (રાગદ્વેષ રૂપ પક્ષનું) સેવન કરી રહ્યા છે.” ૧૧ ટીકાર્થ—અહીં અથ પદ પૂર્વપક્ષની સમાપ્તિનું સૂચક છે. મોક્ષમાર્ગના વિશારદ મિક્ષ સાધવામાં કારણભૂત જ્ઞાન, દર્શન, ચારિત્ર અને તપનું નિરૂપણ કરવામાં સાધુએ અન્ય મતવાદિઓના પૂર્વોક્ત આક્ષેપોને જવાબ આ પ્રમાણે આપ જોઈએ—અમારા ઉપર અનુચિત આક્ષેપ કરનારા તમે સાધુવેષ. ધારી અથવા ગુડ દૂષિત પક્ષનું સેવન કરે છે–અથવા રાગદ્વેષ દ્વિપક્ષનું સેવન કરે છે. એટલે કે તમારા સદેષ પક્ષનું સમર્થન કરવાને કારણે તમે રાગ રૂપ પક્ષનું સેવન કરે છે અને નિર્દોષ સંયમમાર્ગ સામે આક્ષેપ કરવાથી વૈષ રૂપ પક્ષનું સેવન કરે છે, અથવા આધાકર્મ આદિ દેષયુક્ત તથા ઔદેશિક અન્ન આદિને આહાર કરવાને કારણે આ૫ ગૃહરથ પક્ષનું For Private And Personal Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. ३ अन्यतीथिकोक्ताक्षेपोत्तरम् ११३ तथा-साधुस्वरूपधारणात प्रव्रजिताश्चेति उभयपक्ष सेविस्वम् । यद्वा-स्वतोऽसदनु ष्ठानम् , सदनुष्ठानकर्तृणां निन्दनमिति पक्षद्वयं सेवध्वम् । एवं रूपेण- परिभासेज्जा' परिभाषेत, भिक्षुस्तानिति भावः ॥११॥ पुनरन्तरमाह-'तुम्भे' इत्यादि। मूलम्-तुब्भे भुंजह पाएसु गिलाणो अभिहडंमि या। तं च वीओदंगं भोच्चा तमुदिस्तादि ज कंडं ॥१२॥ छाया--यूयं भुय पात्रेषु ग्लानस्य अभ्याहृते च यत् । तं च वीजोदकं भुक्त्वा तमुदिश्यादि यत्कृतम् ॥१२॥ आदि आहार करने के कारण गृहस्थपक्ष का सेवन कर रहे हो और साधु का रूप धारण करने तथा दीक्षित होने के कारण साधु पक्ष का सेवन करते हो, इस प्रकार द्विपक्ष सेवी हो । अथवा स्वयं तो असत् आचरण करते हो और सत् आचरण करने वालों की निन्दा करते हो, इस कारण भी दोनों पक्षों के सेवन करने वाले हो । इस प्रकार साधु उन आक्षेपकर्ताओं को उत्तर देवें ॥११॥ पुनः कहते हैं-'तुब्भे' इत्यादि । शब्दार्थ--'तुम्भे-यूयम्' आपलोग 'पारसु-पात्रेषु' कांसे आदि के पात्रों में 'भुंजह-भुध्वम्' भोजन करते हैं तथा 'गिलाणो-ग्लानस्य' रोगी साधु के लिए . अभिडंमिया-अभ्याहृते यत्' गृहस्थों द्वारा जो भोजन मंगवाते हैं 'तं च बीओद्गं-तं च धीजोदकम्' सो आप बीज और कच्चे जल का 'भोचना-भुक्त्वा' उपभोग करके तथा 'तमुस्लिादि. સેવન કરી રહ્યા છે, અને સાધુને વેષ ધારણ કરેલ હોવાથી તથા દીક્ષિત હોવાને કારણે આપ સાધુ પક્ષનું સેવન કરી રહ્યા છો–આ પ્રકારે આપ દ્વિપક્ષનું સેવન કરનાર છે. અને સત્ આચરણની નિંદા કરી છે, તે કારણે તમે બન્ને પક્ષનું સેવન કરનાર છે. તે આક્ષેપ કરનારાઓને સાધુએ આ પ્રકારને ઉત્તર આપ જોઈએ, ૧૧ जी तमने मेवो पाम मा५ है-'तुभे' या 14-'तुन्भे-यूयम्' भा५ 'पाएसु-पात्रेसु' xit वगैरेना पात्रोमा 'भुजह-भुम्' मा ४३। छौ, तथा 'गिलाणो-ग्लानस्य' शशी साधुना भाटे लेन 'अभिहडंमि या-अभ्याहृते यत्' स्याना । रे भगवा छे. 'तंच बीओदगं-तंच बीजोदकम्' मा५ ते मी अने या el सू० १५ For Private And Personal Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे 1 अन्वयार्थ:-(तुम्भे) यूयं (पाएसु) पात्रेषु कांस्यादि भाजनेषु (भुंनह) भुवं भोजनं कुरुत (गिलाणो) ग्लानस्य (अभिहडंमिया) अभ्याहते यत् गृहस्थद्वारा आनाप्यते (तं च बीओदयं) तं च बीजोदकं (भोच्चा) भुक्ता (नमुद्दिस्सादियं कडं) तमुद्दिश्य यत् कृतम् ग्लानसाधुमुद्दिश्य यदाहारादिकं कृतं तापमुं नानाः यूयम् उद्देशिकादिकृतभोजिन इति ॥१२.! । टीका-'तुम्भे' यूयम् 'पाएम' पात्रेषु-जतकांस्यादिपात्रेषु यत्रस्य अकिंचनस्वम्, परिग्रहराहित्यं च स्वीकुर्वाणा अपि शुंबई' भोजनं कुरुध्वम् , गृहस्थस्य पात्रेषु भोजनकरणात् तत्परिग्रहोऽवश्यमेव भवति तथा-माहाशदिषु रागोऽपि भवत्येव, तत्कथं रामपरिग्रहामा रहिता भान्तः इति विवारयत । एतावना एवं यं कडं-तमुद्दिश्य यत् कृतम्' उस ग्लान साधु को देश करके जो आहार बनाया गया है उसका उपभोग करते हो ॥१२॥ • अन्वयार्थ--तुम लोग काले आदि के भाजनों में भोजन करते हो रुग्ण साधु के लिए गृहरथ के द्वारा आहार मंगवाते हो और बीज तथा सचित्त जल का उपभोग करते हो तथा रुग्ण साधु को उद्देश्य करके पनाये हुए आहार का भोजन करते हो ॥१२॥ टीकार्थ--(भिक्षु उन आक्षेप कर्ताओं को इस प्रकार उत्तर दे) तुम लोग अपने आप को आकिंचन और अपरिग्रह कहते हुए भी रजत (चाँदी) एवं कांमे आदि के पात्रों में भोजन करते हो । गृहस्थ के पात्र में भोजन करने से उसका परिग्रह अवश्य होता है और आहार आदि में राग भी होता ही है। ऐसी स्थिति में तुम राग और 'भोच्चा-भुक्त्वा' असे प्रशन तथा 'तमुहिस्सादि य -तमुद्दिश्य यत् कृतम् લાન સ ધુને ઉદ્દેશીને જે આહાર બનાવેલ છે તેને ઉપભેગ કરે છે. I૧૨ા. " સૂત્રાર્થ-તમે લે કે કાંસા આદિ ધાતુઓનાં પાત્રમાં જન્મે છે. બીબાર સાધુને માટે ગૃડી દ્વારા આડાર મંગાવે છે. તમે બીજ તથા સચિત્ત પાણીને ઉ ોગ કરે છે અને બીમાર સાધુને નિમિત્તે તૈયાર उरे मेसिन भी छ।. ॥१२॥ ટીકાર્થ--તે આક્ષેપ કર્તાઓને જૈન સાધુએ આ પ્રમાણે જવાબ દેવ એઈએ તમે તમારી જાતને અકિંચન અને અપરિગ્રહી રૂપે ઓળખાવે છે, છતાં પણ તમે ચંદી, કાંસુ આદિ ધાતુના પાત્રમાં ભેજન કરે છે, ગૃહથના પાત્રમાં ભેજન કરવાને કારણે આપ તેને પરિગ્રહ અવશ્ય કરે છે અને આહાર આદિમાં રાગ પણ અવશ્ય રાખે જ છે. આ પ્રકારની પરિક For Private And Personal Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. ३ अन्यतीथिकोक्ताक्षेपोत्तरम् ११५ दोषा इति न, किन्तु दोषान्तरमपि ते भवत्येवेति-अन आह-'गिलाणो' ग्लानस्य व्याध्यादि पीडितस्य भिक्षाऽऽनयनेऽसमर्थस्य गृहस्थद्वारा आनाय्यते। 'तंच वीओदकं तं च बोनोदकम् , बोजोदकम् , बीनोदकादि विनशनपूर्वकमेव गृहस्थै भोजनं संपाद्यते तदाहारम् । 'भोच्चा' भुक्ता तथा-'तमुदिप यत् भोजनादिकं संपादितं तस्यापि भोक्ता भवान् भवति, एवं च गृहस्थगृहेषु गृहस्थरात्रेषु साध्वर्थ पाचितान्नभोजिस्वात् तदीयपापकर्मगा अवश्यमेव संबन्धो भविष्यतीति ॥१२॥ पुनरप्याह-लित्ता तिव्वाभितावेणे' इत्यादि । मूलम्-लित्ता तिवामितावणं उज्झियो असमाहिया। नातिकंड्राइयं सेयं अरुस्सावरज्झइ ॥३॥ द्वेष से रहित किस प्रकार हो सकते हो ? इस बात पर विचार करो। इतने ही दोष नहीं, तुम लोग इनके अतिरिक्त अन्य दोषों का भी सेवन करते हो । जो व्याधि से पीडित हैं और भिक्षा लाने में अस. मर्थ हैं, उसके लिए तुम गृहस्थ के द्वारा मिक्षा मंगवाते हो। ऐसा करने में भी दोष लगता है। गृहस्थों द्वारा लाया हुआ भोजन अभ्याहृत कहलाता है । बीजों का तथा जल का विनाश करके ही गृहस्थ भोजन बनाते हैं । उसकातुम उपभोग करते हो। इसके अतिः रिक्त रोगी साधु के उद्देश्य से बनाये हुए आहार को भी तुम भोगते हो । इस प्रकार गृहस्थ के घर में तथा गृहस्थ के पात्रों में साधु के निमित्त पकाये हुए अन्न का सेवन करने के कारण उसके पाप कर्म के साथ अवश्य ही तुम्हारा सम्बन्ध होगा ॥१२॥ સ્થિતિમાં તમે રાગદ્વેષથી રહિત કેવી રીતે રહી શકે? આ દેનું પણ તમે સેવન કરે છે. રોગને કારણે જેઓ ભિક્ષાચર્યા કરવાને અસમર્થ હેય છે એવા સાધુઓને માટે તમે ગૃહસ્થ દ્વારા ભોજનની સામગ્રીઓ મંગાવે છે. એવું કરવામાં પણ દેષ લાગે છે. ગૃહસ્થા દ્વારા લાવવામાં આવેલા ભેજનને અભ્યાફત કહે છે. બીજેને તથા જળનો વિનાશ કરીને જ ગૃહસ્થ જે જન બનાવે છે. એવાં ભેજનને તમે ઉગ કરો છે રેગી સાધુને નિમિત્તે બનાવેલું ભોજન પણ તમે જમો છે. આ પ્રકારે ગૃહસ્થના ઘરમાં તથા ગૃહસ્થનાં પાત્રોમાં તમારે નિમિત્તે રાંધવામાં આવેલા ભોજનને ઉપભોગ કરવાને કારણે તેના કર્મની સાથે તમારે પણ અવશ્ય સંબંધ થશે. એટલે કે તમે પણ તે પાપકર્મના ભાગીદાર જ બને છે. આગાથા ૧ર For Private And Personal Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११६ छाया - लिप्तास्तीवाभितापेन उज्झिता असमाहिताः । नाsतिकण्डूयतं श्रेयो अरुपोऽपराध्यति ॥१३॥ अन्वयार्थ - (तिनाभितावेणं) तीव्राभितापेन = कर्मबन्धनेन (लित्ता) लिप्ता:= उपलिस): ( उज्झिना) : उज्झिताः = पद्विवेकरहिताः (असमाहिया) असमाहिताः= शु माध्यवसाय रहिताः (अरुबा) अरुषो =गस्य (अतिकंडूइयं ) अतिकण्डूयितं (न सेयं) न श्रेयः यतः (अरज्झ ) अपराध्यति दोषमुत्पादयतीत्यर्थः ||१३|| टीका- 'तिमिवावे' तीव्राभितापेन पनीवनिकायोपमर्दनपुरःसरसंपादिताघाकमदिष्ट भोजनेन तथा मिध्यादृष्टचा साधुनिन्दया च संजाता सूत्रकृताङ्गसूत्रे पुनः कहते हैं - 'लिता तिषाभितावेणं' इत्यादि । शब्दार्थ -- 'तिब्बाभितावेण - तीव्राभितापेन' आप लोग तीव्र अभिताप अर्थात् कर्मबन्ध से 'लिसा-लिसा' उपलिस 'उज्झिया - उज्झिताः' सदसद्विवेक से रहित 'असमाहिया असमाहिताः' शुभ अध्यवसाय से रहित हैं। 'अरुवस्स- अरुषः' - घावके 'अतिकंडूइप-अतिकंडुयितम्' अत्यन्त खुजलाना 'न सेयं न श्रेषः' अच्छा नहीं हैं 'अवरज्जइ-अपराध्यति? क्योंकि वह कण्डूयन दोषावह ही है ॥ १३ ॥ - अन्वयार्थ -- तुम लोग तीव्र कर्मबन्ध से लिप्स हो सम्यग् विवेक से हीन हो और शुभ अध्यवसाय से रहित हो। घाव को बहुत खुजलाना ठीक नही, क्योंकि ऐसा करने से दोष की उत्पत्ति होती है ॥ १३ ॥ टीकार्थ- - तीव्र कर्मबन्ध से अर्थात् पट्का की हिंसापूर्वक सम्पा दिन आधाकर्मी एवं उद्दिष्ट आहार का उपभोग करने के कारण तथा वजी सूत्र हे छे - 'हित्ता विद्याभिचावेणं' हत्याहि शार्थ - 'तिब्बाभितावेणं- तीव्रमित पेन' मा सो तीव्र खलिताय अर्थात् कर्म थी 'लित्ता-लिखा' उपनि 'उझिया - उज्झित्ताः' सद्दविवेऽथी पति ने 'असमाहिया - असमता हिताः शुल अध्यवसायथी रहित छो. 'अरुरस- अरुषः ' थुधाने अतिकंडूइयं अतिकण्डूयितम्' अत्यंत माजवु' 'न सेयं न श्रेयः' सा३ नथी 'अवरज्जइ- अपराध्यति' भ है ते उडूयन होषावर ४ छे. ॥१३॥ સૂત્રા સાધુએ તે આક્ષેપકર્તાને કહેવુ' જોઇએ કે-તમે તીવ્ર કમ અન્યથી લિપ્ત છે, સમ્યગ્ વિવેકથી રહિત છે અને શુભ અધ્યવસાયથી પણ રહિત છે! ઘાવને ખડ઼ે ખજવાળવા તે ઉચિત ન ગણાય, કારણ કે એવું કરવાથી દોષની ઉત્પત્તિ થાય છે. ૫૧૩૫ For Private And Personal Use Only ટીકા”—છકાયની હિંસાપૂર્વક પ્રાપ્ત આધાકમ, ઉષ્ટિ આદિ દોષયુક્ત !હારના ઉપભાગ કરવાને કારણે તથા મિથ્યાષ્ટિ અને સાધુની નિંદા દ્વારા Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. ३ अन्यतीथिकोक्ताक्षेपोत्तरम् ११७ शुभकर्मरूपाऽमितापेन 'लित्ता' लिप्ताः 'उज्झिया' उज्झिताः सदसद्विवेकरहिताः । तथा-'असमाहिया' असमाहिताः साधूनां विद्वेषकरणात् शुभाऽध्यवसायवर्जिता भवन्तो विद्यन्ते । यथा 'अरुयस्स' अरुषः अरुषोन्नणस्य 'अतिकडूइयं' अतिकण्डू. यितम्-खर्जनम् । 'न सेयं' न श्रेयः यथा-व्रणस्याऽतिखर्जनं न श्रेयो भवति । अपि तु 'अवरज्झई' अपराध्यति, तस्कण्डूयनं दोपमेवाऽऽवहति । ____ अयं भावः-वयं निष्किचनाः परिग्रहरहिता इति कृत्वा पडूजीवनिकायानां रक्षासाधनं पात्राघुपकरणमपि परित्यज्याऽशुद्धाहारादिकानामुपभोगेनाऽवश्यं भावी, अशुभकर्मलेपः। द्रव्यक्षेत्रकालभावानपेक्षणेन संयमोपकरणानामपि पात्रादीनां त्यागो न शुमाय । अपि तु व्रणादिकण्डूयनवत् दोषाय एव भवतीति ॥१३॥ मिथ्यादृष्टि एवं साधुनिन्दा के द्वारा उत्पन्न अशुभ कर्मरूप अभिताप से लिप्त हो, मत् असत् के विवेक से रहित हो तथा साधुओं पर द्वेष रखने के कारण शुभ अध्यवसाय से रहित हो । याद रक्खो घाव को बहुत खुजलाना श्रेयस्कर नहीं है । उसे खुजलाने से दोष की ही उत्पत्ति होती है। ____ तात्पर्य यह है-'हम अकिंचन हैं, अपरिग्रही है। ऐसा मान कर षट् जीवनिकायों की रक्षा के साधन पात्र आदि उपकरणों को भी त्यागकर यदि अशुभ आहार का उपभोग करें तो दोषों से बचाव नहीं हो सकता । ऐसा करने से अशुभ कर्मों का लेप अवश्य होगा। द्रव्य, क्षेत्र काल और भाव की अपेक्षा न करके संयम के उपकरण पात्र आदि ઉપ જિંત અશુમ કમરૂપ અભિતાપથી તમે લિપ્ત છે, તમે સત અસતા વિવેકથી વિહીન છે, તથા સાધુઓ પર દ્વેષ રાખવાને કારણે શુભ અધ્યવસયથી પણ રહિત છે, ઘને બહુ ખંજવાળ શ્રેયસ્કર નથી ! જેમ ઘાને વધારે ને વધારે ખંજવાળવાથી ઘા વકરે છે, એ જ પ્રમાણે પોતાના દે સામે જેવાને બદલે અન્યના ગુણોને દેષરૂપે બતાવવાથી પિોતે જ તીવ્ર કર્મને બન્ધ કરે છે. તાત્પર્ય એ છે કે અમે અકિંચન અને અપરિગ્રહી છીએ. એવું માનીને છરાયના જીવોની રક્ષાને માટે પાત્ર આદિ ઉપકરણને ત્યાગ કરવામાં આવે અને ગૃહસ્થના પાત્રમાં અશુદ્ધ (દેષયુક્ત) આહારને ઉપગ કરવામાં આવે, તે સાધુ તે દેથી બચી શકતા નથી, એવું કરવાથી અશુભ કર્મોને લેપ અવશ્ય લાગે છે. દ્રવ્ય, ક્ષેત્ર, કાળ અને ભાવની દષ્ટિએ વિચાર For Private And Personal Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्र पुनरप्याह-'तत्तेण' इत्यादि। मूलम्-तत्तेर्ण अणुसिहा ते अपडिन्नेन जाणेया। ण एस णियएं मग्गे असमिक्खं वइ किई ॥१४॥ छाया--तत्त्वेन अनुशिष्टास्ते अप्रतिज्ञेन जानता। न एप नियतो मार्गोऽसमीक्ष्य वाक् कृतिः ॥१४॥ अन्वयार्थ--(अपडिन्नेण) अप्रतिक्षेन रागद्वेषरहितेन (जाणया) जानता हेयोपादेयपरिच्छेदकेन (ते) तेऽन्यदर्शनावलंबिनः (तत्तेण अणुसिट्ठा) तत्त्वेनानुका भी त्याग कर देना श्रेयस्कर नहीं है, किन्तु व्रण (घोव) का खुजलाने के समान दोषजनक ही है ॥१३॥ और भी कहते हैं-'तत्तेण' इत्यादि । शब्दार्थ-'अपडिन्नेन-अप्रतिज्ञेन' राग द्वेष से राहत ऐसे तथा 'जायणा-जानता' जो हेप एवं उपादेय पदार्थों को जानता हैं यह साधु पुरुष 'ते-ते' अन्य दर्शन वालों को 'तत्तेग अणुसिहा-तत्वेनानुशिष्टाः' यथावस्थित अर्थ की शिक्षा देते हैं कि 'एसमग्गे-एषो मार्गो' आप लोगों ने जिस मार्ग का अनुसरण किया है वह मार्ग 'ण नियए-न नियतः' युक्तियुक्त नहीं हैं 'वई-वाक' तथा आप ने जो सम्यक दृष्टि साधुओं के प्रति आक्षेप वचन कहा है वह भी 'असमिक्ख-असमीक्ष्य' विना विचारे ही कहा है किइ-कृतिः' तथो आप लोग जो कार्य करते हैं वह भी विवेकशून्य है ॥१४॥ . अन्वयार्थ--रागद्वेष से रहित तथा हेय और उपादेय का ज्ञाता કર્યા વિના સંયમનાં ઉપકરણને પાત્ર આદિને પણ ત્યાગ કરે શ્રેયસ્કર નથી, પણ ત્રણને (ગુમડાને) ખંજવાળવા સમાન દેષજનક છે. ગાથા ૧૩ uी सू२ ४ छ -'तत्तेग इत्याहि शा-'अपडिन्नेन-अप्रतिज्ञेन' राषथी २डित सेवा तथा 'जायणाजानता'२ रुय भने उपाध्य पान न छे, म साधुपु३५ 'हे-ते' मlan अन्य शनवामाने 'तत्तण अणुसिट्रा- तत्वेनानुशिष्टाः' यथास्थित माना शिक्षा छ 'एस मग्गे-एषो मार्गो' A५ ले भागनु अनुस२७] यु छ त भाग 'ण नियर-न नियतः' युतियुत नथी, 'वई-वाक्' qयन से हैत ५५ 'असमिक्ख-असमीक्ष्य' २ पियायु ह्यु छ किइ-कृतिः ' તથા આપ લેકે જે કાર્ય કરે છે તે પણ વિવેક શૂન્ય છે. ૧૪ સૂવા–રાગદ્વેષથી રહિત અને હેય તથા ઉપાદેયના જાણકાર મુનિઓએ For Private And Personal Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. ३ अन्यतीथिकोक्ताक्षेपोत्तरम् ११९ शिष्टाः यथावस्थितार्थपरूपणया तु शासिताः (एस मग्गे) एषो मागों पापपरिगृहीतः (ण नियए) न नियतः न युक्तिसंगतः (बई) वाक् ये पिण्डपातं ग्लानस्था. नीय ददाति ते गृहस्थकल्या इत्यादिरूपा सा (असमिक्षा) असमीक्ष्यापर्यालोच्य कार्यता तथा (किइ) कृतिः करणमपि भवदीयमसमीक्षितमेवेति ॥१४॥ टीका--'अपडिन्नेन' अमतिज्ञेन-प्रतिज्ञारहितेन, इदमहमवश्यं करिष्यामीस्ये प्रतिज्ञा न विद्यते यस्य सः अप्रतिज्ञः, तेन रागद्वेपर हितेन साधुना 'जाणया' जानता, इदं हेयमिदमुपादेयमितिज्ञानवता 'तत्तेग' तत्त्वेन, परमार्थ तया-जिनाभिप्रायेण यथास्थिताऽर्थप्ररूपणाद्वारा 'ते' ते गोशालकमतानुप्तारिणः अन्य दर्शनिनश्च 'अणुसिट्ठा' अनुशिष्टा: बोधिता भवंति, किंबोधिताः भवन्ति तत्राह'एसमग्गे' इत्येपमार्गः-गृहस्थ-पात्रादिषु भोजनम् ग्लानार्थं गृहस्थद्वारा आनय मुनि उन अन्यदर्शनियों को तत्व की शिक्षा दे कि तुम्हारा यह मार्ग पाप से युक्त है, युक्तिसंगत नहीं है और 'रुग्ण मुनि को आहार लाकर जो देते हैं वे गृहस्थ के समान हैं यह तुम्हारा वचन विचारशून्य है। तुम्हारा आचार भी विचारविकल है अर्थात् तुम विना विचारे योलते और क्रिया करते हो ॥१४॥ टीकार्थ--'मैं यह कार्य अवश्य करूंगा' इस प्रकार की प्रतिज्ञा से रहित अर्थात् राग और द्वेष से रहित तथा हेय और उपादेय को जानने वाले साधु के द्वारा उन आक्षेप करने वाले गोशालक के अनु. यायियों को तथा अन्यदर्शनियों को जिन भगवान के मत के अनुसार यथार्थ वस्तुस्वरूप की शिक्षा दी जाती है। साधु उन्हें इस તે અન્ય મતવાદીઓને તવની આ પ્રમાણે શિક્ષા દેવી જોઈએ. તમારે આ માર્ગ પાપથી યુક્ત છે અને યુક્તિસંગત નથી. “બિમાર સાધુઓને માટે આહાર વહેરી લાવનારા સાધુઓ ગૃહસ્થના સમાન છે, આ તમારો આક્ષેપ વિચારશૂન્ય છે. તમારો આચાર જ વિચાર વિહીન છે. એટલે કે તમે વગર વિચાચે ગમે તેમ બોલે છે અને મન ફાવે તેમ કરે છે. ૧૪ ટીકાર્થ– હું આ કાર્ય અવશ્ય કરીશ, આ પ્રકારની પ્રતિજ્ઞાથી રહિત એટલે કે રાગદ્વેષથી રહિત તથા હેય અને ઉપાદેયને જાણનારા મુનિએ દ્વારા તે આક્ષેપ કર્તા ગોશાલકના અનુયાયીઓ તથા અન્ય મતવાદીઓને જિનેન્દ્ર ભગવાનના મત અનુસારનું યથાર્થ તત્વ (વસ્તુ સ્વરૂ૫) સમજાવવામાં આવે છે. તેમને આ પ્રમાણે કહેવામાં આવે છે-“ગૃહસ્થના પાત્રમાં જમવું For Private And Personal Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२० सूत्रकृताङ्गसूत्रे नम् आधाकर्मिकोद्देशिकादिभोजनं तथा शुद्धसंग मिनामाक्षेपकरणम् एष तत्र मार्गः 'न जियए' न नियतः, न नियतो न युक्तिसंगतः । 'वह' वचनं तद् साधुमुद्दिश्य यदाक्षेपवचनं मत्रद्भिः प्रतिपादितम् । तदपि - 'असमिक्व' असमीक्ष्य, विचारमन्तरेणैव कथितम् । तथा 'क' कृतिः भवतामाचरणमपि न समीचीनमिति ॥ १४ ॥ मूलम् - एरिसी जो वंई एसी अग्गवेणुव्व करिसिता । ७ गिहिणो अभिह से भुजिउ ण उ भिक्खुणं ॥ १५ ॥ छाया - ईदृशी या वागेषा अग्रवेणुरिव कर्षिता । गृहिणोऽपहृतं श्रेयः भोक्तुं न तु मिक्षूण. म् | १५ || प्रकार कहे गृहस्थ के पात्र में भोजन करना और बिमार साधु के लिए गृहस्थ द्वारा भोजन मंगवाना, आधाकर्मी एवं औदेशिक आहार करना और शुद्ध संयम का पालन करने वालों पर आक्षेप करना, यह आप का मार्ग युक्तिसंगत नहीं है। साधु के विषय में आप ने जो आक्षेप वचन कहे हैं, वह आप के बचन विना विचारे ही कहे गए हैं। इसके अतिरक्त आप का आचार भी समीचीन नहीं है' ॥ १४॥ शब्दार्थ - 'एरिसा - ईदृशी' इस प्रकार की 'जा-या ' जो 'बई - वागू' कथन है कि 'गिहिणो अभिहडं-गृहिणोऽभ्याहृतम्' गृहस्थ के द्वारा लाया हुआ आहार 'भुंजिरं सेयं भोक्तुं श्रेयः' साधु को ग्रहण करना कल्याणकार क है 'ण उ भिक्खु न तु भिक्षूणाम्, परन्तु साधु के द्वारा लाया हुआ आहारादिक लेना ठीक नहीं है 'एसा - एषा' यह बात 'अग्गवेणुग्ध करिसिता अग्रवेणुरिव कर्षिताः' बांस के अग्रभाग के जैसा कृश दुर्बल है | १५|| અને ખિસાર સાધુને માટે ગૃહુસ્થ દ્વારા ભાજન મગાવવું-આધાકમ દોષ યુક્ત તથા ઔદ્દેશિક દેષયુક્ત આહાર કરવા, તથા શુદ્ધ સંયમનું પાલન કરનારા જૈન સાધુએ પર આક્ષેપ કરવેા. આ તમારી રીત યુક્તિસંગત નથી જૈન સાધુઓ સામે તમે જે આક્ષેપ વચને ઉચ્ચાર્યાં છે તે વગર વિચાર્ય જ ઉચ્ચાર્યાં છે. સાધુએ સામે આ પ્રકારના આક્ષેપ કરનારા આપ લેકાના आयार पशु ये.ज्य (शुद्ध-होषरहित) नथी. गाथा १४॥ शब्दार्थ - 'एरिमा - ईदृशी' मा प्रश्नी 'जा-या' ने 'बई व ग्' स्थन छे 'गिहिणो अभिड्ड- गृहिणोऽभ्याहृनम्' गृहस्थना द्वारा साववामां आवेल आहार वगेरे देवे। ही नथी 'एसा - एषा' मा वात 'अग्गवेणुव्वक रिसिता - अप्र बेणुरिव कर्षिताः' वांसना आगणना लगना प्रेम देश हु . १५ For Private And Personal Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir --- समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. ३ अन्यतीथिकोक्ताक्षेपोत्तरम् १२१ अन्धयार्थ-(एरिसा) ईदशी (जा) या (बइ) व गाणी कयनं (गिहिणो. अभिहडं) गृहिणोऽध्याहृतम् गृहस्थैरानीतम् (भुंजिउ सेय) मोक्तुं श्रेयः-कल्याण करम् (ण उ भिक्खुणं) न तु भिक्षुणाम् परन्तु साधुभिरानीतमाहारादिकं ग्लानसाघवे न श्रेयः (एसा) एषा वाक् (भाग घेणुत्र करिसिता) अग्रवेणुरिव कर्षिता वंशाग्रभागवत् दुर्बलेत्यर्थः ॥१५॥ ___टीका--'एरिसा' ईदृशी 'जा' या 'बई' वाक् 'गिहिणो अभिहर्ड' गृहस्थ द्वारा आनीतमाहारादिकं 'भुजिउं सेयं भोक्तुं श्रेय साधुभि भोक्तुं श्रेयः प्रश. स्तम् ‘ण उ' न तु-भिक्षुभिरानी तमाहारादिकं मोक्तुं श्रेयः-प्रशस्तम्, 'एसा' एषा वाक् 'अग्गवेणु अग्रवेणुरिव वंशस्याऽग्रइव 'करिसिता' कर्षिता दुबला विद्यते युक्त्यक्षमत्वात् । गृहस्थद्वारा आनीतमाहारादिकं साधुना भोक्तव्यमिति ____ अन्वयार्थ--गृहस्थ के द्वारा लाया हुआ आहार करना श्रेयस्कर है किन्तु भिक्षु के द्वारा लाये आहार का उपभोग करना श्रेयस्कर नहीं है, आप का यह कथन दाल के अग्रभाग के समान दुर्बल है ।।१५।। टीकार्थ--आप का यह जो कथन है कि गृहस्थ के द्वारा लाया हुआ आहारादि भोगना साधुओं के लिए कल्याणकर है परन्तु साधुओं के द्वारा लाये आहार का उपभोग करना श्रेयस्कर नहीं है, यह कथन पांस के अग्रभाग के समान दुर्बल है। वह युक्ति को सहन नहीं करता। तात्पर्य यह है कि साधु यदि गृहस्थ के द्वारा लाये आहार आदि का उपभोग करे तो अच्छा परन्तु साधु के द्वारा लाये आहार को भोगना अच्छा नहीं है, यह आप का कथन युक्तिहीन है । जैसे बांस का अग्रभाग दुर्बल होता है, उसी प्रकार यह कथन भी दुर्बल है। સૂત્રાર્થ_ગૃહસ્થના દ્વારા લાવવામાં આવેલ આહાર શ્રેયસ્કર છે, પરંતુ સાધુ કારા લાવવામાં આવેલા આહાર ઉપગ કરે શ્રેયસ્કર નથી, આપનું આ કથન વાંસના અગ્રભાગ સમાન કમજોર છે. ૧પ ટીકાર્થ– અન્ય મતવાદીઓના આક્ષેપને ઉત્તર આપતા સૂત્રકાર કહે છે કે “ગૃહસ્થના દ્વારા લાવવામાં આલે આહાર સાધુઓને માટે કલ્યાણકારી છે, પ૨તુ સાધુઓ દ્વારા લાવેલા આહારને ઉપભેગા કર સાધુને માટે શ્રેયસ્કર નથી.” આ પ્રકારની આપની દલીલ વાંસના અગ્રભાગ જેવી નિર્બળ છે-તેનું ખંડન સહેલાઈથી થઈ શકે તેમ છે. જેવી રીતે વાંસનો અગ્રભાગ એટલે કમજોર હોય છે કે તેને સહેલાઈથી તેડી શકાય છે, એ જ પ્રમાણે તમારા આ આક્ષેપને જવાબ પણ ઘણે સરળ છે-ગૃહસ્થા દ્વારા લાવવામાં For Private And Personal Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे प्रशस्तम् । परन्तु साधुभिरानीतमाहारादिकं भोक्तव्यमिति न श्रेयस्करम्, इति कथनं भवो युक्तिर देतम् । यथा वंशस्याग्रभागो दुबलो भवति तद्वदेव युक्तिरहितं, गृहस्थैरानीतं जीवोपमर्दनसहितेन सायम् भिक्षुभिरानीतं तद्गमादिदोषरहितम् अतो गृहस्थानीतमाहारादिकं-श्रेय इति कथनं युक्तिशास्त्रविरुद्ध मिति भावः ॥१५॥ यथा गृहस्थैर्दानं दीयते तथा साधुभिरपि दानादिकं देयं दानस्य सामान्यधर्मत्वेन सर्वसमानत्वादित्याशंकामपनेतुमाह-'धम्मपन्नवणा' इत्यादि । मूलम्-धम्मपन्नवणा जा सौ सारंभाण विसोहियो । ण उ एयाहि दिहिहि पुंठवासी पंगप्पियं ॥१६॥ छाया--धर्मपज्ञापना या सा सारंभाणां विशोधिका । न त्वे ताभिदृष्टिभिः पूर्वमासीत् प्रकल्पितम् ॥१६ । गृहस्थों के द्वारा जो लाया जाएगा वह छकायों की जीवविराधना से युक्त होने के कारण सावध होगा। इसके विपरीत साधुओं के द्वारा लाया आहार उद्गम आदि दोषों से रहित होगा। अल एव गृहस्थों द्वारा लाये आहार को भोगना श्रेयस्कर है, यह आप का कथन युक्ति से और शास्त्र से भी प्रतिकूल है ॥१५॥ जैसे गृहस्थों के द्वारा दान दिया जाता है. उसी प्रकार साधुओं को भी दान देना चाहिये । दान सामान्य धर्म होने के कारण सभी के लिये समान है । इस प्रकार की आशंका का निवारण करने के लिये सूत्रकार कहते हैं-"धम्मपण्णवणा" इत्यादि। આવેલ આહાર છકાયની વિરાધના યુક્ત હોવાને કારણે દોષયુક્ત હોય છે, પરંતુ સાધુઓ દ્વારા લાવવામાં આવેલ આહાર ઉદ્ગમ આદિ દેથી રહિત હોય છે તેથી ગૃહસ્થા દ્વારા લાવેલા આહારને શ્રેયસ્કર માને તે વાત યુક્તિ સંગત પણ લાગતી નથી અને શાસ્ત્રકા કથનથી પણ વિરૂદ્ધ જાય છે. માટે આપની તે દલીલ બિલકુલ ટકી શકે તેમ નથી. ગાથા ૧૫ અન્ય મતવાદીઓ એવું કહે છે કે “જેવી રીતે ગૃહસ્થ દ્વારા દાન અપાય છે એ જ પ્રમાણે સાધુઓએ પણ દાન દેવું જોઈએ દાન સામાન્ય ધર્મ હોવાને કારણે સૌને માટે સમાન છે.” આ પ્રકારની અન્ય મતવાદીઓની દલીલનું નિરાકરણ કરવા માટે સૂત્રકાર કહે છે કે – 'धम्मपण्णवणा' इत्यादि For Private And Personal Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. थ. अ. ३ उ. ३ अन्यतीथिकोक्ताक्षेपोत्तरम् १२३ % 3DDA अन्वयार्थः--(जा) या (धम्मपन्नवणा) धर्मप्रज्ञापना यतीनां दानादिनोपकर्तव्यमित्यादिका धर्मदेशना (सा) सा धर्मदेशना (सारंभाण) सारंभाणां गृहस्थानाम् (विसोहिया) विशोधिका-शुद्धिकरिणी, यतयस्तु संयमानुष्ठानेनैव विशुध्यंति (एयाहि दिहिहि) एतामि दृष्टभिः (पुर्व) पूर्वम् (ण उ) न तु (पगप्पियं आसी) पकल्पितमासीत् नैतादृशी भवत्कथितादेशना सर्वज्ञैः पूर्व कृतेति ॥१६॥ ___टीका--'जा धम्मपन्नपणा' या धर्मप्रज्ञापना-सावे दानादिकं गृहस्थैर्देय मित्याकारिका या धर्मदेशना सा 'सा सारंमाण विसोहिया' सा सारंभाणां गृह शब्दार्थ-'जा धम्मपनवणा-या धर्मज्ञाना' साधुओं को दान आदि देकर उपकार करना चाहिये यह जो धर्म की देशना हैं 'सा-सा' वह धर्मदेशना 'सारंभाण-सारंभाणां' गृहस्थों को 'विसोहिया-विशोधिका' शुद्ध करने वाली है, माधुओं को नहीं 'एयाहिं दिद्विहि-एताभिदृष्टिभिः' इस दृष्टि से 'पुव्व-पूर्वम् ' पहले 'ण उ-न तु' नहीं 'पगप्पियं आसीप्रकल्पितमासीत्' ऐसी देशना सर्वज्ञों ने पहले की गई थी ॥१६॥ अन्वयार्थ--यह जो धर्मदेशना है कि साधुओं को दान देकर उपकार करना चाहिये, यह गृहस्थों की ही शुद्धि करने वाली है-साधु तो संयम का आचरण करके ही शुद्ध होते हैं । धर्मदेशना इस अभिप्राय से पहले सर्वज्ञों ने नहीं की है ।।१६।।। टीकार्थ---साधु दानादि करे, यह धर्मदेशना गृहस्थों को ही पवित्र करने वाली उनकी विशुद्धि करने वाली है। यह धर्मदेशना साधुओं सहाय-'जा धम्मपन्नवणा-या धर्मप्रज्ञापना.' धुमाये होन पगे દઈને ઉપકાર કરે જોઈએ જે આ ધર્મની દેશના છે “-” તે घमशना 'सारंभाण-सारंभाणां' गृहस्थाने 'विमोहिया-विशोधिकाः' शुद्ध ४२१॥ पाणी छे. साधुमाने नाड'एयाहिं दिद्विहि-एताभिदृष्टिभिः' मरथी पुर्वपूर्वम्' पडेai 'ण उ-न तु' ना पगप्पियं आसी-प्रकल्पितमासीत्' मेवी देशना स. जोगे पडे। रीती. ॥१६॥ सूत्रार्थ - 'साधुमारे हान हे ,' मा ४२नी महेशना गृह. સ્થાને સાટે જ કરવામાં આવી છે, કારણ કે સાધુઓએ દાન દેવાથી ગૃહસ્થની શુદ્ધિ થાય છે અને સાધુ પિતાના સંયમને નિર્વાહ કરી શકે છે. સાધુઓ તે સંયમનું પાલન કરીને શુદ્ધ થતાં જ હોય છે, તેથી સર્વજ્ઞોએ દાન દેવાની જે ધર્મદેશના કરી છે, તે ગૃહસ્થોને અનુલક્ષીને કરી છે, સાધુને અનુલક્ષીને કરી નથી ૧દા ટીકાથ–સાધને દાનાદિ દેવાની જે ધર્મદેશના છે, તે ગૃહસ્થને જ પવિત્ર કરનારી તેમની વિશુદ્ધિ કરનારી છે. તે ધર્મદેશના સાધુઓની શુદ્ધિ For Private And Personal Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२४ सूत्रकृताङ्गसूत्रे स्थानां विशोधिका कल्याणकारिणी, न तु साधूनां सा देशना कल्याणकारिणी । 'एहियाहिं दिद्विहिं' एताभि दृष्टिभिः 'पुवं' पूर्वम् ‘ण उ पग्गप्पियं' न तु प्रकल्पितम् । 'आसी' आसीत् न तु एतादृशी देशना पूर्व सर्वज्ञैः कथिताऽऽसीत् । साधुभिर्दानादिकं दवा उपकर्तव्यमित्येपा या धर्मदेशना, सा गृहस्थस्यैव पवित्रकारिणी, न तु साधूनां कल्याणक रिणी । अनेनाऽभिप्रायेण न पूर्व सर्वज्ञैर्देशना दत्तेति । अयं भावः भान्ति हि साधनो धनधान्यादिवित्तराहित्येनाकिंचनाः सन्तः यतस्ततो निरवध आहारादिमात्रमेवादाय संयमं निर्वहन्ति यदि कदाचित्साधुभिरपि दानं दीयेत तदा दानार्थ सावधाहारादीनामपि स्वीकरणेन संयमव्याघातो भवेदतः साधनो दानादिकं न कुर्वन्तीति शास्त्रमर्यादेति, तथा यदि साधुर्दानं दद्यात् तदा अधको याचकः समागतः परदिने द्वौ ततः परमने के समागमिष्यन्तीति तेभ्यः सर्वेभ्यो दानं ददतः साधोभिक्षेत्र दुर्लभा स्यादिति, तथा यदि साधुर्दानकी शुद्धि करने वाली नहीं है । सर्वज्ञों ने ऐसा उपदेश पहले नहीं दिया है। ____ तात्पर्य यह है कि साधुओं के पास धन-धान्य नहीं होता। वे अकिंचन होते हैं । निर्दोष भिक्षा करके ही वे अपने संयम का निर्वाह करते हैं। यदि वे भी दान देने लगें तो उन्हें सावध आहार आदि भी स्वीकार करना पडेगा और ऐसा करने से संयम में बाधा उत्पन्न होगी। इस कारण साधु दान नहीं देते। यह शास्त्र की मर्यादा है । इसके अतिरिक्त साधु यदि दान देने लगे तो प्रथम दिन एक याचक आएगा तो दूसरे दिन दो आ जाएँगे और फिर उनकी भीड़ लग जाएगी। परि. णाम यह होगा कि सबको दान देते देते साधु के लिए भिक्षा ही दुर्लभ કરનારી નથી.” સર્વજ્ઞોએ એ ઉપદેશ–સાધુએાએ દાન દેવું જોઈએ એ ઉપદેશ આપ્યું નથી. આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે સાધુઓની પાસે ધન, ધાન્ય હેતું નથી. તેઓ અકિંચન હોય છે. નિર્દોષ ભિક્ષા ગ્રહણ કરીને તેઓ પિતાના સંયમને નિર્વાહ કરે છે. જો તેઓ પણ દાન દેવા માંડે, તે તેમણે પણ સાવદ્ય આહાર આ દિને પણ સ્વીકાર કરે પડે અને એમ કરવાથી સંયમની વિશુદ્ધિ જાળવી શકાય નહીં. તે કારણે સાધુ દાન દેતા નથી. શા એજ આ મર્યાદા મૂકી છે. જો સાધુ દાન દેવાનું શરૂ કરે, તે પહેલે દિવસે એક યાચક આવે, બીજે દિવસે બે યાચક આવે, અને દિનપ્રતિદિન તેમની સંખ્યા વધતી જ જાય. તેથી તેમને દાન દેતાં દેત સાધુને પિતાને માટે તે કોઈ પણ ભજન સામગ્રી વધે જ નહીં! સાધુ સંયમયાત્રાના નિર્વાહ માટે આહારની યાચના For Private And Personal Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir % - - - समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ.३ उ.३ वादपराजितान्यतीथिकधृष्टता० १२५ दधात तदा संयमयात्रानिर्वाहार्थं याचिताहारादेव दानेन अदत्तादानमृषामापिस्वदोषों स्याताम् यतः दात्रा साधुभ्य एव दत्तं न तु अन्यस्मै दातुमाहारादिकं दत्तमत इमौ दोषौ भवतः इति ॥१६॥ मूलम्-सव्वाहि अणुजुत्तीहि अयंता जवित्तये । तओ वायं णिराकिच्चा (जो वि पग्गन्भिया ॥१७॥ छाया--सर्वाभिरनुयुक्तिभिरशक्नुवन्तो यापयितुम् । ततो वादं निराकृत्य ते भूयोऽपि प्रगल्भिताः ॥१७॥ अन्वयार्थः-(सव्वाहि अणुजुत्तोहि) सर्वाभिरनुयुक्तिभिः सर्वेरेव प्रमाणभूत हैतु. दृष्टान्तः (जवित ये अचयंता) यापयितुमशक्नुवन्तः स्वकीयपक्ष-स्थापयितुमसमर्था हो जाएगी। साधु संयम यात्रा के निर्वाह के लिए आहार की याचना करता है। उसमें से यदि दान दे तो उसे अदत्तादान और मृषावाद दोष होंगे। दाता साधु के उपभोग के लिए आहार आदि देता है, दूसरों को दान देने के लिये नहीं देता दूसरों को तो वह अपने हाथ से स्वयं दे सकता है। ऐसी स्थिति में साधु यदि अन्य याचकों को दान देने लगे तो उसे पूर्वोक्त दोनों दोषों का भागी होना पडेगा॥१६॥ शब्दार्थ--'सब्याहिं अणुजुत्तीहिं-सर्वाभिरनुयुक्तिभिः सप युक्तियों द्वारा 'जवित्तये अचयंता-धापयितुमशक्नुवन्तः' अपने पक्ष की सिद्धि न कर सकते हुये 'ते-ते' वे अन्य तीर्थी 'वायं णिराकिच्चा-वादं निराकृत्य' वाद को छोड़कर 'भुजो वि-भूयोपि'फिर से 'पगम्भियाप्रगल्भिताः' स्वपक्ष की स्थापना करने की धृष्टता करते हैं ॥१७॥ ___ अन्वयार्थ-सभी युक्तियों से अपने पक्ष को सिद्ध करने में असકરે છે. જે તે આહારનું દાન દે, તે તેને અદત્તાદાન અને મૃષાવાદ દેશે લાગે. સાધુના ઉપભેગને માટે દાતા આહારાદિ દે છે, અન્યને દાન આપવાને માટે દેતે નથી. જે અન્યને આપવું હોય તે તે પોતાને હાથે જ આપી શકે છે. આ પ્રકારની પરિસ્થિતિમાં દાતાએ પિતાને અર્પણ કરેલું દાન, જો સાધુ બીજા કેઈને આપી દે તે તેને અદત્તાદાનદેવ અને મૃષાવાદદોષના Hil२ मा ५३ छे. गाथा १६॥ _eli-'सव्वाहि अणुजुत्तीहिं-सर्वाभिरनुयुक्तिभिः' मधी युतियां दी। 'जवित्तये अचयंता-यापयितुमशक्नुवन्तः' याताना पक्षनी सिद्धिनरी शsai 'ते-ते ते अन्यतीथी' 'वायं णिराकिच्चा-वाई निराकृत्य' पाहन छोडीने 'भुज्जोवि -भयोपि' रीने 'पगभिया-प्रगस्मिताः' पोताना पक्षनी स्थापना ४२वानी ધષ્ટતા કરે છે. ૧૭ના સૂવાથ–સઘળી દલિલેને ઉપગ કરવા છતાં પણ જ્યારે તે અન્ય For Private And Personal Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे गोशालकान्यतीथिकादयः, (ते) ते अन्यदर्शनिनः (वायं णिराकिच्चा) वादं निरा. कृत्य सम्यग् हेतुदृष्टान्तपूर्वकवादं परित्यज्य (भुज्जो वि) भूयोपि पुनरपि (पगपिया) प्रालिमता आक्रोशादिना धृतां गता इति ।।१७। टीका-'सवाहि अणुजुत्तीहि' सर्वाभिरनुयुक्तिभिः शास्त्रममाणहेतुदृष्टान्तः 'जवित्तए' यापयितुम् अवयंता' अशक्नुवन्तः स्वपक्षं हेतुदृष्टान्तसत्पमाणैः स्थापयितुम् अशक्नुवन्तः परतीथिकाः, स्वपक्षं हेतु दृष्टान्तः समर्थयितुम् ते गोशालकादि मतानुसारिणः प्रमाणभूतैः सहेतुयुक्तिदृष्टान्तादिभिरास्मानं स्वपक्षे संस्थापयितुमसमर्थाः, युक्त्यादिभिरपि स्वपक्षस्य साधने सामर्थ्याऽभावात् । ते अन्यमतानुयायिनः, 'वायं णिराकिच्चा' वादं निराकृत्य समीचीनयुक्तितर्कादिद्वारा प्रवर्तः मानवाद परित्यज्य, 'भुज्जो वि पग्गभिया' भूयोपि प्रगलिभताः पुनरपि अशुभवचनोच्चारणयष्टिमुष्टयादिभिः प्रहरन्तो धाष्टर्यमासादिताः सन्नः एवं कथयन्ति । तथाहि-'अष्टांगनिमित्तं ज्ञेयं सर्वलोकोपकारकम् । स एव धर्मो मन्तव्यो लोककल्याणकारकः ॥१॥ मर्थ होकर वे अन्य दर्शनी वाद का परित्याग करके पुन: आक्रोश करने लगते हैं ॥१७॥ टीकार्थ--जब पूर्वोक्त अन्यमतानुयायी शास्त्रप्रमाण, हेतु और दृष्टान्त के द्वारा अपने पक्ष की पुष्टि करने में असमर्थ हो जाते हैं, उस समय वे वाद का त्याग कर देते हैं अर्थात् समीचीन युक्तियों एवं तर्को के अभाव में चालूवाद से किनारा काट लेते हैं और धृष्टता का आश्रय लेते हैं। वे अप्रशस्त वचनों का प्रयोग करते हैं, यष्टि (लकड़ी) या मुष्टि से प्रहार करते हैं और इस प्रकार कहने लगते हैं सम्पूर्ण लोक का उपकार करने वाला अष्टांग निमित्त ही जानने योग्य है । उसी को धर्म मानना चाहिये ।' वे यह भी कहते हैं-'अष्टांगनिमित्तं ज्ञेयं" इत्यादि।। મતવાદીએ પિતાના પક્ષનું સમર્થન કરી શકવાને અસમર્થ બને છે, ત્યારે તેઓ વાદવિવાદને પરિત્યાગ કરીને આક્રોશ (ક્રોધ) કરવાને લાગી જાય છે. ૧૭ ટીકાર્થ-જ્યારે પૂર્વોક્ત અન્ય મતવાદી શાસ્ત્ર પ્રમાણે, હેતુ અને દષ્ટો દ્વારા પિતાના પક્ષનું (મતનું) સમર્થન કરવાને અસમર્થ થઈ જાય છે, ત્યારે તેઓ વાદને ત્યાગ કરીને ધૃષ્ટતાને આશ્રય લે છે. એટલે કે તેમના મતનું પ્રતિપાદન કરવા માટે ચોગ્ય દષ્ટ અને દલીલેનો આશ્રય લેવાને બદલે અપ્રશસ્ત વચનેને આશ્રય લે છે અને કોઈ કોઈ વાર કોધાવેશમાં આવીને લાકડી અથવા મુષ્ટિ પ્રહરનો આશ્રય લે છે અને આ પ્રમાણે કહે છે 'अष्टांग निमित्तं ज्ञेयं' इत्यादि For Private And Personal Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रयार्थबोधिनी टीका प्र. थु. अ. ३ उ. ३ वादपराजितान्यतीर्थिक धृष्टताप्र० १२७ अत्र धर्मविचारे सादिद्वारेण निर्णयो न विधेयः किन्तु प्रत्यक्ष एव बहुजनसंगततया तथा राजाद्याश्रयतया 'अयमेव मदीयो धर्मः' श्रेयसे, न तु धर्मान्तरमिति विवदन्ते । अत्रोत्तरम् - यदि बहवोपि - अन्धा रूपं न पश्यन्ति घटादौ, किन्तु -एकोऽपि - अनन्धः पश्यति रूपम् । किं तावता घटे रूपाभावम् उत्प्रेक्षितुं शक्नोति कोऽपि तथैव बालः बहवोऽपि सर्वज्ञमतिपादितं धर्म न जानन्ति । किं तावता'न स धर्म:' इति प्रतिपादयितुं शक्ष्यन्ति ? केऽपि ? इति । तथोक्तं 'एरंडकgरासी जहा य गोसीसचंदणपलस्स । मोल्ले न होज्ज सरिसो कित्तियमेत्तो गणितो ॥ १ ॥ धर्म के विषय में हेतु आदि के द्वारा निर्णय नहीं करना चाहिये । हमारा धर्म बहुसंख्यक लोगों द्वारा मान्य है और उसे राजादि का आश्रय प्राप्त है, अतएव वही कल्याणकारी है ।' इसका उत्तर यह है बहुतेरे अन्धे घट आदि में रहे हुए रूप को नहीं देख पाते किन्तु एक ही सूझता मनुष्य उस रूप को देखता है। इतने मात्र से क्या कोई घट में रूप के अभाव की कल्पना कर सकता है ? इसी प्रकार अज्ञानी होने के कारण अधिकांश लोग सर्वज्ञ प्रतिपादित धर्म को नहीं जान पाते। क्या इसी से यह कहा जा सकता है कि वह धर्म ही नहीं है ? कहा भी है- " एरण्डकदुरासी" इत्यादि । एरंड की लकड़ियों का ढेर होने पर भी वह एक पल प्रमाण गोशीर्ष चन्दन के मूल्य की बराबरी नहीं कर सकना, चाहे उसे कितना ही क्यों न गिना जाय ॥ १ ॥ *આખા સંસારનુ' હિત કરનાર અષ્ટાંગ નિમિત્ત જ જાણવા ચેાગ્ય છે. તેને જ ધમ માનવા જોઈએ.’ વળી તેઓ એવુ કહે છે કે-ધર્મની બાબતમાં હેતુ આદિ દ્વારા નિશ્ ય કરવા જોઇએ નહીં. અમારા ધર્મને લેાકેાની માટી સખ્યાએ સ્વી કાર્યું છે અને તેને રાજ્યાશ્રય પણ મળ્યા છે, તેથી તેને જ કલ્યાણકારી માનવે એઇએ.’ આ પ્રકારના તેમના કથનનો આ પ્રમાણે ઉત્તર આપવા જોઇએ-ઘણા આંધળાંએ ઘડા આદિના રૂપને જોઇ શકતા નથી, પરન્તુ એક જ દુખત માણસ તે રૂપને જોઇ શકે છે. શું તે કારણે ઘટ આદિમાં રૂપને અભાવ હાવાની કલ્પના કરવી વ્યાજબી છે ખરી? એજ પ્રમાણે અધિકાંશ લેક અજ્ઞાની હેવાને કારણે સત્રજ્ઞ પ્રતિપાદિત ધમને જાણી શકતા નથી. શુ તેથી એવું કહી શકાય છે કે તે ધમ જ નથી ? કહ્યું પણ છે કે 'एरण्डकटूरासी' इत्याहि એરડાના લાકડાનો એક ઢગલે હાય તે પણ તે એક પલપ્રમાણ For Private And Personal Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२८ ... सूत्रकृताङ्गरो तहवि गणणातिरेगो जह रासी सो न चंदणसरिच्छो । तह निविण्णाण महाजणो वि मोल्ले विसंवयति ॥२॥ एको सचक्खुगो जह अंधलयाणं सरहिं बहुएहि । होइ वरं दट्टयो णहु ते बहुगा अपेच्छंता ।।३।। एवं बहुगावि मूढा ण पमाणं जे गई ण याणंति । संसारगमणगुविल णिउगस्स य बंधमोक्खस्स ॥४। छाया-एरण्डकाष्ठराशियथा च गोशीर्षचन्दनपलस्य । मूल्ये न भवेत् सदृशः कियन्मात्री गण्यमानः ॥१॥ तथापि गणनातिरेको यथा राशिः स न चन्दनसहशः। तथा निविज्ञानमहाजनोऽपि मूल्ये विसंवदते ॥२॥ एकः सचक्षुष्को यथा अन्धानां शतैर्बहुभि भवति वरं द्रष्टव्यो नैव ते बहुका अप्रेक्षमाणाः ॥३॥ एवं बहुका अपि मुढा न प्रमाणं ये गति न जानन्ति । संसारगमन गुपिलं निपुणस्य च बन्धमोक्षस्य ॥४॥१७॥ "तह वि गणणातिरेगो' इत्यादि । गणना में अधिक बह ढेर जैले चन्दन के समान नहीं हो सकता, उसी प्रकार ज्ञानहीन बहुसंख्यक लोग भी ज्ञानवान् अल्पसंख्यको की घरापरी नहीं कर सकते। वे लोग उसके मूल्य में विसंवाद करते हैं ॥२॥ "एको सचक्खुको जह" इत्यादि। एक नेत्रवान् पुरुष अनेक सैकड़ों अंगों से अच्छा समझना चाहिए। न देखने वाले बहुत से लोग अच्छे नहीं कहे जाते ॥३॥ ગશીર્ષ ચન્દનના મૂલ્યની બરાબરી કરી શકતા નથી, પછી ભલે તેની ગમે તેટલી કિંમત આંકવામાં આવતી હોય. આવા 'तह वि गणणातिरेगो' त्याह પ્રમાણમાં માટે હોવા છતાં પણ તે એરંડાના લાકડાઓને ઢગલે જેવી રીતે ચન્દનના મૂલ્યની બરાબરી કરી શકતું નથી, એજ પ્રમાણે જ્ઞાનહીન ઘણા લોકો પણ જ્ઞાનવાનું થડા લેકેની બરાબરી કરી શકતા નથી તે અન્ય મતવાદીઓ અનુયાયીઓની સંખ્યાને આધારે કોઈપણ મતનું મૂલ્ય આંકવામાં ભૂલ કરે છે. કેરા ___ 'एकको सचखुगो जह' या - આંધળા ઘણા માગુ કરતા દેખતે એક પુરુષ વધુ મહત્વ ધરાવે છે. સેંકડે આંધળાઓ દેખ્યા વિના વસ્તુના રૂપનું જે વર્ણન કરે તેના કરતાં એ જ દેખતા માણસ દ્વારા વસ્તુના રૂપનું જે વર્ણન કરવામાં આવે, તે અધિક માનવા ગ્ય ગણાય છે. For Private And Personal Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ.३ ३.३ वादपराजितान्यतीर्थिकधृष्टताप्र० १२९ मूलम् - रागदोसाभिभूयप्पा मिच्छतेण अभिदुता। आउस्ते सरणं जति टणा ईर पायं ॥१८॥ छाया--रागद्वेषाभिभूतात्मानः मिथ्यात्वेन अभिद्रुताः । ____ आक्रोशान् शरणं यान्ति टंकणा इत्र पर्वतम् ।। १८॥ अन्वयार्थ:-(रागदोसामिभूयप्पा) रागद्वेषाभिभूतात्मानः येषामात्मानो रागद्वेषाभ्यामाच्छादिताः (निक उत्तेण अभिदुना) मिथ्यात्वेनाभिद्रुताः विपरीत "एवं बहुगावि मूढा" इत्यादि। इसी प्रकार बडुसंख्यक भी मूढ पुरुष प्रमाणभूत नहीं होते जो संसारगमन में वक्रगति को तथा बन्ध और मोक्ष की गति को नहीं जानते है ॥४॥१७॥ शब्दार्थ--'रागदोसाभिभूयप्पा-रागद्वेषाभिभूतात्मानः' राग और द्वेष से जिनका आत्मा छिपा हुआ है ऐसे तथा 'मिच्छत्तण अभिदुता' मिथ्यात्वेन अभिद्रुताः' मिथ्यात्व से भरे हुए अन्यतीर्थी 'आउसेआक्रोशान्' शास्त्रार्थ से पराजित होने पर असभ्यवचनरूप गाली आदि का 'सरणं जंति-शरण यान्ति' आश्रय ग्रहण करते हैं 'टंकणा- टणा' पहाड़ में रहने वाली म्छेच्छ जाती के लोग युद्ध में हार जाने पर 'पवयं इव-पर्वतम् इव' जैसे पर्वत का आश्रय लेते हैं ।१८।। ___ अन्वयार्थ-जो राग और द्वेष से युक्त हैं, मिथ्यात्व से व्याप्त हैं, वे बाद में पराजित होकर असभ्य भाषणरूप आक्रोश (क्रोध) की _ 'एवं बहुगावि मूढः' त्या એજ પ્રમ ણે જે માણસે સંસારમાં પરિભ્રમ કરાવનાર કર્મબન્ધના સ્વરૂપને જાણતા નથી અને મેશપ્રાપ્તિનો માર્ગ જાણતા નથી એવાં અનેક મૂઢ માણસોનાં વચનને પ્રમાણભૂત માની શકાય નહી (૪) ૧૭ awai - रामदासाभिभूयप्पा-रागद्वेपाभिभूतात्मानः' २२ अने द्वेषयी भना भामा छुपाये छे सेवा तथा 'मिच्छत्तण अभिदता-मिथ्यात्वेन अभिट्टता:' मिथ्यापथी लस ी अन्य तथा 'आउसे-आक्रोशान्' शाखा यथा पति पाथी असल्ययन३५ १७ वगेरेना 'सरणं जंति-शःणंयान्ति' माश्रय ४२ छ 'टंकणा-टणा' ५४ामा २डेवावाणी देनछ तानसी युद्धमा हारी जय त्यारे 'पायं दव-पर्वतम् इव' २वी शत પર્વતને અશ્રય લે છે૧૮ સૂત્રાર્થ—જે લોકો રાગ અને દ્વેષથી યુક્ત હોય છે અને મિથ્યાત્વથી ભરેલા હોય છે, તેઓ વાદમાં પર જિત થવાથી અસભ્ય વચને રૂપ આક્રોશ सू० १७ For Private And Personal Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३०. सूत्रकृताङ्गसूत्रे बोधव्याप्ताः वादे पराजिताः सन्तः (आउसे) आक्रोशान् असभ्यवचनरूपान् (सरण अंति) शरणं यान्ति (टंकणा इव) टंकण पर्वतनिवासिनो म्लेच्छ जातीयाः (पव्वयं इ) पर्व मित्र - यथा युद्धे पराजिता म्लेच्छाः पर्वतमाश्रयन्ति तथा वादे पराजिताः परतीर्थिका आक्रोशवचनमाश्रयन्तीति ॥ १८ ॥ टीका -- 'रागदोसाभिभूयप्पा' रागद्वेषाभिभूतात्मानः = रागः - प्रीत्यात्मकः द्वेषः - अभीतिः, ताभ्याम् अभिभूतः आच्छादित आत्मा येषां ते रागद्वेषाभिभूतात्मानः । तथा - 'मिच्छत्ते अभिदुता' मिथ्यात्वेनाभिद्रुताः मिध्यात्वेन विपर्य स्तमत्या अभिद्रुताः व्याप्ताः, अन्यवादिनः युक्तितर्कप्रमाणादिभिः स्वपक्षस्थापनेSसमर्थाः सन्तः । ' आउस्से' आक्रोशान = असभ्यवचनरूपान् दण्डादिभिश्व 'सरणं' शरणम् 'जंति' यान्ति, तानेवाश्रयन्ते । "इव' यथा 'टंकणा' पर्वते विद्यमानाः म्लेच्छजातीयाः युद्धादौ पराजिताः सन्तः 'पायं' पर्वतमेव आश्रयन्ते । रागद्वेषाभिभूतात्मानो मिथ्यात्वोपहतमानसाः मंदा वादिनोऽसभ्यवचनान्येव भाश्र: यन्ते युक्त्या मिजेतुमसमर्थाः सन्तः, यथा म्लेच्छजातीया युद्धे पराभूताः पर्वत शरणमंगीकुर्वन्ति तद्वदिमेपीऽति भावः ॥ १८ ॥ शरण लेते हैं, जैसे टंकण पर्वत के निवासी म्लेच्छ युद्ध में पराजित होकर पर्वत का आश्रय लेते हैं || १८ || टीकार्थ- - प्रीतिरूप राग और अप्रीतिरूप द्वेष से जिनकी आत्मा अभिभूत हो गई है तथा जो मिथ्यात्व से युक्त हैं, ऐसे अन्यमतावलम्बी जय युक्ति, तर्क और प्रमाण आदि के द्वारा अपने पक्ष की सिद्धि करने में असमर्थ हो जाते हैं तब वे आक्रोश का आश्रय लेते हैं अर्थात् असभ्य वचनों का प्रयोग करते हैं अथवा दण्ड आदि का प्रहार करने पर उतारू हो जाते हैं । जैसे पर्वत के निवासी म्लेच्छ जातीय पुरुष युद्ध में पराजित होकर पर्वत का ही सहारा देते हैं । I (ક્રોધ)ના આશ્રય લે છે. જેવી રીતે પતનિવાસી મ્હે યુદ્ધમાં પરાજય થવાથી પર્યંતના આશ્રય લે છે, એજ પ્રમાણે તે પરમતવાદીએ વાદમાં પરાજિત થવાથી આક્રોશને આશ્રય લે છે. ટીકાથ—જેવી રીતે પર્વતમાં રહેનારા સ્વેછે. યુદ્ધમાં હારી જવાથી પર્વતના આશ્રય લે છે, એજ પ્રમાથે પ્રીતિરૂપ રાગ અને અપ્રીતિ રૂપ દ્વેષથી યુક્ત અને મિથ્યાત્વ રૂપ અધકારે જેમની વિવેકબુદ્ધિને આચ્છાદિત કરી નાખી છે એવા અન્ય મતવાદીએ જ્યારે દલીલે, તર્ક અને પ્રમાણ આદિ દ્વારા પેાતાના પક્ષનું સમર્થન કરવાને અસમર્થ થાય છે, ત્યારે આક્રોશને આશ્રય લે છે, એટલે કે અસભ્ય વચનાના પ્રયેળ કરે છે અથવા For Private And Personal Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. ३ वादिशास्त्रार्थे समभावोपदेशः १३१ मूलम्ब हुँ युगप्पगपाईं कुंना असमाहिए । isar विरुझेजा ते तं तं समायरे ॥ १९ ॥ .५ छाया - बहुगुणकल्पानि कुर्यादात्मसमाधिकः । येनाsन्यो न विरुद्धेत तेन तत्तत्समाचरेत् ॥ १९ ॥ अन्वयार्थः -- ( अत्तसमाहिए) आत्मसमाधिकः = सन्नमनाः मुनिः (बहुगुणप्प पर्य यह है कि जिनकी आत्मा रागद्वेष से मलीन हो चुकी है और जिनका मानस मिध्यात्व से मलीन है, ऐसे मन्दवादी अन्त में असभ्य वचनों का आश्रय लेते हैं, क्योंकि वे युक्ति के बल से विजयी नहीं हो सकते। जैसे मलेच्छ लोग युद्ध में पराजित होकर पर्वत की शरण ग्रहण करते हैं ॥ १८ ॥ शब्दार्थ - 'अत्तसमाहिए- आत्मसमाहितः' प्रसन्न चित्त वाला मुनि बहुगुणप्पगप्पाई बहुगुणप्रकल्पानि' परतीर्थि जनों के साथ शास्त्रार्थ के समय जिनसे बहुत गुण उत्पन्न होते हैं ऐसे अनुष्ठानों को 'कुज्जाकुर्यात् ' करे 'जेण येन' जिससे 'अन्ने- अन्ये' दूसरा मनुष्य ' णो विरु'ज्झेज्जा - न विरुध्येत' अपना विरोध न करे 'ते-तेन' इस कारण से 'तं तं तत् तत् ' उस उस अनुष्ठान का 'समायरे - समाचरेत्' आचरण करे ॥ १९ ॥ अन्वयार्थ - अन्यतीर्थिकों के साथ वाद करते समय प्रसन्न मन પ્રતિપક્ષીને લાકડી આદિ વડે મારવા પણ દાડે છે. આ કથનના ભાવાથ એ છે કે જેમના આત્મા રાગદ્વેષથી અને મિથ્યાત્વથી મલીન થઇ ચુકયે છે, એવા મન્દબુદ્ધિ અન્ય મતવાદી જ્યારે તક આદિ દ્વારા પેાતાની માન્યતાને સિદ્ધ કરી શકતા નથી, ત્યારે અસભ્ય વચના તથા મારામારીને આશ્રય લે છે, એજ પ્રમાણે તે મન્દમતિ અન્યમતવાદીએ અસભ્ય વચનાદિના આશ્રય લે છે. ાગાથા ૧૮૫ शब्दार्थ——अत्तसमाहिए- आत्मसमाहितः प्रसन्न शित्तवाजा भुनि 'बहु•गुणःपगप्पा - बहुगुणनकल्पानि' परतीर्थ भाष सोनी साथै शाखार्थना सभये नाथी जडु शु उत्पन्न थाय छे, सेवा अनुष्ठानाने 'कुना-कुर्यात्' रे 'जेण येन' भेनाथी 'अन्ने - अन्ये' मील भाधुसे। 'णो विरुज्झेज्जा - न विरुध्येत ' पोताना विरोध ना रे ' वेणं हेन' या अरधी तंतं तत् तत्' ते ते अनुष्ठा 'ननुं 'समायरे - समाचरेत्' आयर अरे. ॥१७॥ - સૂત્રા અન્યતીથિકા સાથે વાદ (વિવાદ) કરતી વખતે મુનિએ For Private And Personal Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३२ सूत्रकृताङ्गसूत्रे गप्पाई) बहुगुणप्रकल्पानि-परतीथिकैः सह वादसमये येन हेतुदृष्टान्तादिना बहवो. गुणा उत्पद्यन्ते तादृशानुष्ठानम् (कुजा) कुर्शत् (जेग) येन (अन्ने) अन्यपरतीथिका (णो विरुज्झेजा) न विरुद्वयेत-विरोधं न कुर्यात् (तेण) तेन कारणेन (तं ते) तत् तत् अनुष्ठान (समायरे) समाचरेत् कुर्यादिति ।।१९।। ___टीका-'अत्तसमाहिए' आत्मसमाधिका, आत्मनः चित्तस्य समाधिः एकाम्यं यस्य सः आत्मसमाधिकः प्रशान्तहृदयः साधुः 'बहुगुगप्प नपाई बहुगुणप्रकल्पानि, बहवो गुणाः स्वपक्षसिद्धिपरमतदूषणोद्भावनादयो माध्यस्थ्यादयो वा प्रकल्पते, भादुर्भवन्ति आत्मनि यादृशानुष्ठानेषु तानि बहुगुणपाल्पानि, प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयनिगमनानि मध्यस्थश्चनपकाणि वा अनुष्ठानानि साधुदिकाले 'कुजा' कुर्यात् 'जेग' येनाऽनुष्ठितेन भाषितेन वा परतीथिको धर्मश्रवणादौ प्रवृत्तः । वाला मुनि ऐसे हेतु तथा दृष्टान्त आदि का प्रयोग करे जिससे अनेक गुणों की प्राप्ति हो अर्थात् स्वपक्ष की सिद्धि और परपक्ष का निराकरण हो । मुनि ऐसाआचरण करें जिससे अन्य तीर्थी विरोध न करें ।।१९।। टीकार्थ--जिसके चित्त में समाधि अर्थात् एकाग्रता हो, वह आत्म. समाधिक कहलाता है। इसका अर्थ है प्रशान्त हृदय साधु । ऐसा साधु इस प्रकार के वचनों का प्रयोग करे जिनसे अनेक गुणों की प्राप्ति हो, अर्थात् अपने पक्ष की सिद्धि हो, परमत में दूषणों का उद्. भावन हो और मध्यस्थता का भाव प्रकट हो । ऐसे ही प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन आदि का प्रयोग करें। उसे ऐसे वचनों का भी प्रयोग करना चाहिए जिससे अन्यतीर्थिक धर्मश्रवण में प्रवृत्त ધ બિલકુલ ભ પામ્યા વિના પ્રસન્નચિત્તે વિવાદ કરવું જોઈએ. તેણે એવાં દૃષ્ટાન્ત, તર્ક અને પ્રમાણેને પ્રયોગ કરે જોઈએ કે જેથી પિતાના પક્ષની સિદ્ધિ અને પરપક્ષનું નિરાકરણ થઈ જાય, વાદ કરતી વખતે મુનિએ એવું આચરણ કરવું જોઈએ કે જેથી અન્ય તીથિકે પણ તેને વિરોધ ન કરે ના ટીકર્થ–જેના ચિત્તમાં સમાધિ હોય એટલે કે જે જેનામાં ચિત્તની એકાગ્રતા હોય છે, તેને આત્મસમાધિ કહે છે. અત્મસમાધિ એટલે પ્રશાન્ત હૃદયવાળે સાધુ એવા સાધુ એ અન્ય મતવાદીઓ સાથે વિવાદ કરતી વખતે એવાં વચનને પ્રયોગ કરવો જોઈએ કે જેના દ્વારા અનેક ગુની પ્રાપ્તિ થાય. એટલે કે તેણે એવી પ્રતિજ્ઞા, હેતુ, ઉદાહરણ, ઉપનય અને નિગમન આદિને પ્રયોગ કરે જોઈએ કે જેથી પિતાના પક્ષને સિદ્ધ કરી શકાય અને પરમતના દૂષણે પ્રકટ થવાને કારણે પરમતનું ખંડન થઈ For Private And Personal Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ.३ वादिशास्त्राथे समभावोपदेशः १३३ 'अण्णे' अन्यः 'गो विरुग्झेज्जा' नो विरुद्धयेत-स्त्रविरोधी न भवेत् । 'तं तं समा यरे' सूत्तत्समाचरेत् तादृशं तादृशं पराविरोध करणेन तत्तविरुद्धमनुष्ठानमविरुद्धवचनं वा समाचरेत् , कुर्यादिति । परतीथिकैः सह विवादं कुर्वन् समाहितान्तः करणः साधुर्येन स्त्रपक्षसिद्धिः परपक्षनिराकरणं भवेत् तापतिज्ञा हेतृदृष्टान्तोष. नयनिगमनानि प्रतिपादयेत् । तथा याशकार्यकरणेनाऽन्यो विरोधी न भवेत् , अपि तु स्वपक्षाश्रितो भवेत् , तादृशाऽनुष्ठानं वचनं प्रतिपादयेदिति भावः ॥१९॥ तदित्थं परमतं व्युदस्योपसंहारे स्वमतं व्यवस्थापयितुं सूत्रकारः आह। 'इमं धम्ममादाय' इत्यादि। मूलम्-इमं च धर्मममादाय कासवेण पंवेइयं । कुंजा भिकर्षु गिलाणस्त अगिलाए समाहिए ॥२०॥ छाया--इमं च धर्ममादाय काश्यपेन प्रवेदितम् ।। - कुर्याद भिक्षुः ग्लानस्य अग्लान श्च समाहितः ॥२०॥ हो और अन्य लोग अपने विरोधी न बन जाएँ । ऐसा ही व्यवहार करना चाहिए। आशय यह है कि परतीर्थिकों के साथ विवाद करते समय समाधियुक्त चित्तवाला साधु ऐसे प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन का प्रयोग करे जिससे अपने पक्ष की स्थापना हो और विरोधी पक्ष का निराकरण हो । साथ ही उस साधु को ऐसा व्यवहार और वचनप्रयोग करना चाहिए जिससे प्रतिपक्षी विरोधी न बने किन्तु अपने पक्ष को स्वीकार कर ले । १९॥ જાય અને પરમતવાદીઓને પણ તેમના મનમાં રહેલી ભૂલનું ભાન થઈ જાય, તેણે એવાં વચનોને પ્રવેશ કરે જોઈએ કે જેથી અન્ય મતવાદીઓ તેના વિરોધી બનવાને બદલે તત્વને સમજવાને પ્રવૃત્ત બને. આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે પરતીથિકની સાથે વિવાદ કરતી વખતે સમાધિયુંક્ત ચિત્તવાળા સાધુએ એવાં તર્ક, હેતુ, ઉદાહરણ આદિને પ્રયોગ કરે જોઈએ કે જેથી પોતાના પક્ષનું સમર્થન થાય અને વિધી. એના પક્ષનું નિરાકરણ થઈ જાય. વળી સાધુનું વર્તન એવું હોવું જોઇએ કે જેથી પ્રતિપક્ષી વિરોધી ન બની જાય પણ પિતાના (સાધુના) પક્ષને વીકાર કરી લે. પાલા For Private And Personal Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३४ सूत्रकृताङ्गसूत्रे - अन्वयार्थ:--(कासवेणं) काश्यपेन बद्धर्मानस्वामिना (पवेइयं) पवेदितं प्रकर्षेण वेदितं कथितम् द्वादशपरिषदि (इमं च धम्ममादाय) इमं धर्ममादाय इस वक्ष्यमाणं पाणातिपातविरमणादिरूपं धर्म गृहीत्वा (समाहिए) समाहितः प्रसन्नचेताः (भिक्खु) भिक्षुः (गिलागस्स) ग्लानस्यापटोरपरस्य (अगिलाए) अग्लान: सन् (कुज्जा) कुर्यात् वैयावृत्त्यं कुर्यादिति ॥२०॥ - टीका--'कासवेणं' काश्यपेन-काश्यपगोत्रोत्पन्नेन समुत्पन्न केवलज्ञानवता महावीरस्वामिना 'पवेइयं' प्रवेदित प्रकर्षेण वेदितं कथितं द्वादशपरिषदि 'इमं च इस प्रकार परपक्ष का निराकरण करके सूत्रकार उपसंहार में अपने मत की सिद्धि करने के लिये कहते हैं 'इमं च धम्प्रमादाय' इत्यादि। शब्दार्थ--'कासवेणं-काश्यपेन' काश्यप गोत्र वाले वर्धमान महावीर स्वामी ने 'पवेडयं-प्रवेदितम्' कहा हुआ 'इमं च धम्ममादाय-इम धर्ममादाय' यह वक्ष्यमाण धर्म को स्वीकार करके 'समाहिए-समाहितः' प्रसन्नचित्त 'भिक्खू-भिक्षुः साधु 'गिलाणस्स-ग्लानस्य' रोगी साधु का 'अगिलाए-अग्लानः सन्' ग्लानिरहित होकर 'कुज्जा-कुर्यात्' वैयावृत्य करे ॥२०॥ . अन्वयार्थ--काश्यप भगवान बर्द्धमान के द्वारा प्रतिपादित इस धर्म को अंगीकार करके समाधियुक्त भिक्षु ग्लान (रुग्ण) मुनि कीग्लानि हीन होकर वैयावृत्त करे ॥२०॥ टीकार्थ--काश्यप गोत्र में उत्पन्न तथा केवलज्ञान से सम्पन्न श्री महावीरस्वामी ने बारह प्रकार की परीषद् में इस धर्म का निरूपण આ પ્રકારે પરપક્ષનું નિરાકરણ કરીને સૂત્રકાર આ ઉદ્દેશાને ઉપસંહાર કરતા પોતાના મતનું સમર્થન કરવા માટે આ પ્રમાણે કહે છે___ 'इमं च धम्ममादाय' याह शहाथ-'कासवेणं-काश्यपेन' श्य५ गोत्र १६ भान महावीर १५ भासे 'पवेइयं-प्रवेदितम्' ४३४ 'इमं च धम्ममादाय-इमं धर्ममादाय' मा १६५मार यमन २२ ४रीने 'समाहिए-समाहितः' प्रसन्नचित्त 'भिक्खू-भिक्षुः' साधु 'गिलागस-ग्लानस्य' भी साधुनी 'अगिलाए-अग्लानः सन् निहित २२ 'कुज्जा-कुर्यात्' वैय..य ४२. ॥२०॥ સૂત્રાર્થ-કાશ્યપ શેત્રીય ભગવાન વર્ધમાન દ્વારા પ્રતિપાદિત આ ધર્મ અંગીકાર કરીને સમાધિયુક્ત સાધુએ શ્વાન (બીમાર) મુનિની ગ્લાનિ હિત ચિત્ત (પ્રસન્ન ચિત્તે) સેવા કરવી જોઈએ. મારા 1 ટીકાઈ–કાશ્યપ ગેત્રમાં ઉત્પન્ન થયેલા, કેવળજ્ઞાન સંપન્ન મહાવીર સ્વામીએ બાર પ્રકારની પરિષદમાં જે ધર્મનું નિરૂપણ કર્યું છે, તેને જ ધર્મ કહેવાય For Private And Personal Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र.श्र. अ. ३ उ.२ वादिशास्त्रार्थे समभावोपदेशः १३५ इमं वक्ष्यमाणम् 'धम्म धर्मम्-धरतिदुर्गतौ प्रपततः प्राणिनः शुभस्थाने च पत्ते इति धर्मस्तम् । अथवा-अभ्युदयनिःश्रेयससाधको धर्मः तादृशम्-धर्मम् श्रुतचारित्राख्यम् 'आदाय' आदायगृहीत्या 'समाहिए' समाहितचित्तः 'भिक्खु भिक्षु:साधुः 'गिलाणस्स' ग्लानस्य-ज्वरादि पीडितस्य साधोः 'अगिलाए' अग्लान ग्लानिरहितो भूत्वा 'कुज्जा' कुर्यात् वैयावत्यादिकम् ॥२०॥ मूळम्-संखोय पेसलं धम्म दिढिमें परिनिव्वुडे । उसंग्गे नियामित्ता आमोक्खाय परिवएजासि ॥२॥ ॥ ततीय अज्झयणस्स तइओ उद्देसो समतो॥ तिबेमि ॥ ___ छाया--संख्याय पेजलं धर्म दृष्टिमान् परिनिर्वृतः।। उपसर्गान् सनियम्य आमोक्षाय परिव्रजेत् ॥२१॥इति ब्रवीमि॥ किया है वह 'धर्म' कहलाता है । अथवा जिससे अभ्युदय अर्थात् स्वर्ग और निःश्रेयस अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति होती है, वह धर्म कहलाता है। ऐसा धर्म श्रुतरूप और चारित्ररूप है। इस धर्म को धारण करके समाधियुक्त चित्तवाला मुनि ज्वर आदि से ग्रस्त दूसरे मुनि की ग्लानि से रहित होकर वैयावृत्य आदि करें ॥२०॥ शब्दार्थ--'दिट्ठिमं-दृष्टिमान्' जीवाजीवादि पदार्थ के स्वरूप को यथार्थ रूप से जानने वाला 'परिनिव्वुडे-परिनिर्वृतः'राग द्वेषवजित शांत मुनि 'पेसलं धम्म-पेशलं धर्मम्' उत्तम श्रुतचारित्ररूप धर्म को संखायसंख्याय' जानकर' उवलग्गे-उपसान' अनुकूल प्रतिकूल उपसगों को 'नियामित्ता-नियम्य' अपने वश में करके 'आमोक्खाय-आमोक्षाय' मोक्षपातिपर्यन्त परिचए-परिव्रजेत्' संयम का अनुष्ठान करें ॥२१॥ છે. અથવા જેના દ્વારા અભ્યદય (વર્ગ અને નિઃશ્રેયસની-મોક્ષની પ્રાપ્તિ થાય છે, તેને ધર્મ કહે છે. એ ધર્મ શ્રત ચારિત્ર રૂપ ધર્મ છે. આ ધર્મને ધારણ કરીને સમાવિયુક્ત ચિત્તવાળા મુનિએ ગ્લાનિનો ત્યાગ કરીને - પ્રસન્ન ચિત્તે, તાવ આદિ બીમારીથી પીડાતા મુનિની સેવા કરવી જોઈએ ૨૦ शा- विट्रिम-दृष्टिमान्' वा मेरे हाथ ना २१३५ने यथाय ३५था on Jalatणा 'परिनिव्वुडे-परिनिर्वृतः' रागद्वेष त शांतमुनि पेसलं धम्म-पेशलं धर्मम्' इत्तम श्रन थारित्र३५ धमन संखाय-संख्याय' जीने 'उअसगे--उपसर्गान्' अनुण प्रति पनि 'नियामित्ता-नियम्य' पोतान. पशमा परीने 'आमोक्वाय-आमोक्षाय' भीक्षप्राप्ति ५यत (सुधि) 'परिवए-. परिव्रजेत्' सयभनु २४न ४२. ॥२१॥ For Private And Personal Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra १३६· www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे अन्वयार्थः -- (दिट्टिम) दृष्टिमान् यथावस्थितपदार्थपरिच्छेदवान् (परिनिब्युडे) परिनिर्वृतः = रागद्वेषरा हिस्यात् शान्तो मुनिः (पेसलं धम्मं ) पेशलं धर्मम् = सुश्लिष्टं श्रुतचारित्ररूपं धर्मम् (संवाय) संख्याय = ज्ञात्वा ( उवसग्गे) उपसर्गान = अनुकूलप्रतिकूलान् (नियामित्ता) नियम्य= स्ववशे कृत्वा (आमोक्खाय) आमोक्षाय = मोक्षमाप्तिपर्यन्त (परिवर) परिव्रजेत् = संयमानुष्ठानं कुर्यात् । 'त्तिवेमि' इत्यहं ब्रवीमि = कथयामीति ॥ २१ ॥ टीका- 'दिट्टियं' दृष्टिमान्= जीवाजीवादिपदार्थानां यथावस्थितस्वरूपविषज्ञानवान् । 'परिनिब्बुडे' परिनिर्वृतः = रागद्वेवरहितः सन् 'पेसलं धम्मं' पेशलं धर्मम् = मनोज्ञम् प्राणिनामहिंसादिमवृत्या मीतिकारणं धर्म सर्वज्ञमणीतं श्रुतचारित्रप्रभेदभिन्नम् | 'संखाय' संख्याय = ज्ञात्वा 'आमोक्खाय' आमोक्षाय, निःशेष कर्मक्षयपर्यन्तम् | 'परिव्वर' परिव्रजेत् परि सर्वतः संयमानुष्ठानरतो भवेत् । 'सि 9 अन्वयार्थ -- पदार्थों के यथार्थ स्वरूप को जानने वाला अर्थात् सम्यग् दृष्टि तथा रागद्वेष से रहित होने के कारण शान्त मुनि इस सुन्दर धर्म को जानकर एवं उपसर्गों पर विजयी होकर मोक्षप्राप्ति पर्यन्त संयम का अनुष्ठान करें । सि बेमि ऐसा मैं कहता हूं ॥ २१ ॥ टोकार्थ--जो मुनि दृष्टिसम्पन्न है अर्थात् जीव अजीव आदि पदार्थो के वास्तविक स्वरूप का ज्ञाता है और राग द्वेष से रहित होने के कारण प्रशान्त है, वह प्राणियों की अहिंसा आदि में प्रवृत्ति कराने के कारण प्रीतिकर, सर्वज्ञप्रणीन, श्रुनचरित्र के भेद से भिन्न धर्म को जानकर समस्त कर्मों का क्षय होने तक संगम के परिपालन में निरत रहे । સૂત્રા”—પદાર્થાના યથાય સ્વરૂપને જાણનારા એટલે કે સમ્યગ્દષ્ટિ તથા રાગદ્વેષથી રહિત હવાને કારણે શાન્ત અને સમભાવયુક્ત મુનિએ આ શ્રુતચારિત્ર રૂપ ધર્માંને જાણીને અને પરીષહે અને ઉપસગેİ પર વિજય પ્રાપ્ત કરીને, જયાં સુધી મેક્ષની પ્રાપ્તિ થાય ત્યાં સુધી સયમની આરાધના ४२वीले थे, 'सि बेमि' मे हुं (सुधर्मा स्वाभी) उडु छु ॥२१॥ ટીકા જે મુનિ સદૃષ્ટિવાળો છે-એટલે કે જીવ, અજીવ આફ્રિ પદાર્થાંના વાસ્તવિક રવરૂપને જાણકાર છે, અને રાગ અને દ્વેષથી રહિત હવાને કારણે પ્રશાન્ત છે, તેણે અહિંસા આદિમાં પ્રવૃત્તિ કરાવનાર હાવાને લીધે પ્રીતિકર, સજ્ઞ પ્રરૂપિત શ્રુત ચારિત્ર રૂપ ધને જાણીને, સમસ્ત કુર્માને ક્ષય થાય ત્યાં સુધી, સયમના પાલનમાં લીન રહેવુ જોઈએ. For Private And Personal Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ.३ उ.३ वादिशास्त्रार्थे समभावोपदेशः २३ बेमि' इति ब्रवीमि इति भन्दः समाप्त्यर्थकः सुधर्मास्वामी जंबुस्वामिनं कथयतिसर्वज्ञमुखात् श्रुत्वा प्रतिपादयामि, न तु स्वकपोलकल्पनया कथयामि ॥२१॥ इति श्री विश्वविख्यातजगवल्लभादिपदभूषितवालब्रह्मचारि 'जैनाचार्य पूज्यश्री घासीलालवतिविरचितायां श्री "समयार्थबोधिन्याख्यायां" व्याख्यायां तृतीयाध्ययनस्य तृतीयोद्देशकः समाप्तः ॥३-३॥ 'त्ति बेमि' यह शब्द समाप्ति का सूचक है । सुधर्मा स्वामी जम्धू स्वामी से कहते हैं-हे जम्बू ! भगवान् के मुख से सुनकर मैं यह प्रतिपादन कर रहा हूं, अपनी बुद्धि से नहीं कहता हूं ॥२१॥ जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजी महाराजकृत 'सूत्रकृताङ्गसूत्र' की समयार्थयोधिनी व्याख्या के तीसरे अध्ययन का तृतीय उद्देशक समाप्त ३-३ ॥ 'त्ति बेमि' मा Ava! उद्देशनी समातिना सूय छे. सुधार का જંબૂ સ્વામીને કહે છે કે હે જબ્બ! આ બધી વાત મેં ભગવાનનાં શ્રીમ સાંભળેલી છે. સર્વજ્ઞ પ્રતિપાદિત તત્વનું જ હું તમારી પાસે કથન ફરી રહ્યો છું. મારા પિતાની બુદ્ધિથી ઉપજાવી કાઢેલી આ વાત નથી.” ૨૧, જૈનાચાર્ય જૈનધર્મદિવાકર પૂજ્યશ્રી ઘાસલાલજી મહારાજ કૃત “સૂત્રકતાંગસૂત્રની સમયાર્થાધિની વ્યાખ્યાના ત્રીજા અધ્યયનને ત્રીજો ઉદ્દેશક સમાપ્ત ૩-૩ For Private And Personal Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra २३८ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे ॥ अथ तृतीयोपसर्गाऽध्ययने चतुर्थोद्देशकः प्रारभ्यते ॥ प्रक्रान्त तृतीयोदेश केऽनुकूलपतिकूला चोपसर्गाः कथिताः । तादृशोपसगैः कदाचित् साधोः स्वमार्गात् स्खलनमपि संभाव्यते । स्खलितस्य तस्य साधोः यादृश उपदेशो भवति, तादृशोपदेश मकारश्चतुर्थो देश के प्रतिपाद्यते । अनेन संबन्धेन प्राप्तस्य चतुर्थीदेशकस्येदमादिमं सूत्रं - 'आहंसु' इत्यादि । मूलम् - आहंसुं महापुरिसा पुचि तत्ततवोधणा । उदपेण सिद्धिंमावन्ना तत्थं मंदो विसीयंइ ॥ १ ॥ छाया - आहुर्महापुरुषाः पूर्वं तप्ततपोधनाः । उदकेन सिद्धिमापन्नास्तत्र मन्दो विषीदति ॥ १ ॥ ॥ चौथा उद्देशेका प्रारम्भ ॥ तीसरे उद्देशे में अनुकूल और प्रतिकूल उपसर्गों का कथन किया गया है। इस प्रकार के उपसर्गों से कोई साधु कदाचित् अपने मार्ग से स्खलित भी हो सकता है। अगर कोई साधु स्खलित हो जाय तो उसे जिस प्रकार का उपदेश सन्मार्ग पर आरूढ होने के लिए दिया जाता है, वह इस चौथे उद्देशे में प्रतिपादन किया जा रहा है। इस सम्बन्ध से प्राप्त चौथे उद्देशेका यह प्रथम सूत्र है 'हंस' इत्यादि । शब्दार्थ- 'अहं - आहु:' कोई अज्ञानी पुरुष कहते है कि 'पुर्विचपूर्व' पूर्वकालमें 'तततबोधणा- तप्ततपोधनाः' तपे हुए तप ही जिनका धन है ऐसे 'महापुरिसा - महापुरुषाः ' महापुरुष 'उद्रण- उदकेन' For Private And Personal Use Only ચેાથા ઉદ્દેશાના પ્રાર’ભ ત્રીજા ઉદ્દેશકમાં સૂત્રકારે અનુકૂળ અને પ્રતિકૂળ ઉપસગેાંનું કથન કર્યું” છે. આ પ્રકારના ઉપસર્વાં સહન નહીં કરી શકવાને કારણે કાઇ કાઈ સાધુ સંયમના માના પરિત્યાગ પણ કરી દે છે. એવા સ’યમથી ભ્રષ્ટ થયેલા સાધુને સન્માગે પાછે વાળવા માટે કેવા ઉપદેશ આપવા જોઇએ તે આ ઉદ્દેશકમાં પ્રકટ કરવામાં આવેલ છે. ત્રીજા અધ્યયન સાથે આ પ્રકારના સબધ धरावता मा थोथा उद्देशअनु' डेलु' सूत्र या प्रमाछे छे – 'आहंसु' इत्याहिशब्दार्थ-- आहंसु-- आहुः' अज्ञानी पुरुष उडे 'पुव्वि-पूर्व' पूर्व - डेझाना अणमा 'तत्ततवोषणा - तप्ततपाधनाः ' तपे तय भेयोनु धन 'महापुरिसा - महापुरुषाः ' भा३ष 'उद्रण - उदकेन' छाया चालीनु Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र.श्रु. अ.३ उ.४ मार्गस्खलित साधुमुद्दिश्योपदेशः १३४ ___ अन्वयार्थः--(आहेसु) आहुः केचन मन्दबुद्धयो बालाः (पुब्धि) पूर्व (तक तबोधणा) तप्ततपोधना-तप्तं तप एव धनं येषां ते तथा (महापुरिसा) महापुरुषा (उदयेण) उदकेन-शीतजलसेवनेन (सिद्धिमावन्ना) सिद्धिमापन्ना-मोक्ष पासा, (मंदा) मन्दा-अहानी साधुः इत्थं श्रुत्वा (तस्य) तत्र-शीतनलादिसेवने (विसीयह) विषीदति-प्रवृत्तो भवतीत्यर्थः ॥१॥ - टीका--'आहेसु' आहुः केचन धर्मतत्वमजानाना मन्दबुद्धयः एवं प्रतिपादयन्ति, किमित्याह-'महापुरिसा' महापुरुषा=नारायणप्रभृतयः प्रधामपुरुषा, 'पुट्वि' पूर्व-पुराकाले 'तत्ततबोधणा' तप्ततपोधना: तसं तप एव धनं येषां ते तप्ततपोधनाः पंचामितपोविशेषे संतप्तशरीराः, इत्थं भूतास्ते महापुरुषाः । 'उदएण' उदकेन-शीतमलेन जलोपभोगकन्दमूलफलादीनामुपभोगेन च । 'सिदिकच्चाजलका सेवन करके 'सिद्धिमावन्ना-सिद्धिमापन्ना' मुक्ति को प्राप्त हुवे थे 'मंदो-मन्दो' अज्ञानी पुरुष यह सुनकर 'तस्थ-तन्त्र' शीतल जलके सेवन आदि में 'विसीयइ-विषीदति' प्रवृत्त हो जाता है। अन्वयार्थ-कोई अज्ञानी कहते हैं कि प्राचीन काल में तपोधन महापुरुष कच्चे जलका सेवन करके मोक्ष को प्राप्त हुए है । इस प्रकार के कथन को सुनकर अज्ञानी साधु शीतलजलके सेवन में प्रवास हो जाता है ॥१॥ टीकार्थ--धर्म के रहस्य से अनभिज्ञ कोई मन्दमति ऐसा कहते कि नारायण आदि प्रधान पुरुष प्राचीन कालमें तसतपोधन हुए है, अर्थात् तपा हुआ तप ही उनका धन था-उन्होंने पंचाग्नि तप करके सेवन शने 'सिद्धिमावन्ना-सिद्धिमापन्नाः' भुमितने प्राप्त थय। ता मंदोमन्दो' अज्ञानी पु३५ २मा सामान 'तत्थ-तत्र' शीत पाना सेवन शे. रेमा विसीयइ-विषीदति' प्रवृत्त थ य छे. ॥१॥ સૂત્રાર્થ –કઈ કઈ અજ્ઞાની લેક એવું પ્રતિપાદન કરે છે કે પ્રાચીન કાળમાં કેટલાક તપોધન મહાપુરુષોએ કાચા પાણીને (સચિત્ત જળને) ઉપયોગ કરવા છતાં પણ મેક્ષની પ્રાપ્તિ કરી છે. આ પ્રકારનું કથન સાંભ. ળીને અજ્ઞાની સાધુ શીતળ જળનું સેવન કરવા લાગી જાય છે. ૧૫ ટીકાઈ--ધર્મના રહસ્યથી અનભિજ્ઞ એવાં કઈ કંઈ મંદમતિ લે એવું કહે છે કે નારાયણ આદિ પ્રખ્યાત પુરુષે પ્રાચીન કાળમાં થઈ ગયા હતા. તેઓ તપ્ત તપોધન હતા, એટલે કે જે તપ તેઓ તપતા-જે તપની આરાધના તેઓ કરતા તે તપ જ તેમનું ધન હતું. તેમણે પંચાગ્નિ તપ For Private And Personal Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे माना' सिद्धिमापन्नाः - सिद्धिं मोक्षं प्राप्तवन्तः । ' तत्थ' तत्र एवं भूतार्थश्रवणेन I क सद्भावावेशात् 'मंदो' मन्दः = तपः संयमाराधने असमर्थ : 'विसीय ' विषीदति, दुःखं प्राप्नोति । परन्तु हमे सावद्यधर्मप्रतिपादकाः बालाः नैवं जानन्ति - यत तेषां पूर्वऋषीणां न शीतलजलसेवनेन मुक्तिरभूत्, किन्तु तापसत्रतमनु-तिष्ठवां जातिस्मरणादिकारणवशात् प्रादुर्भूत केवलज्ञानात् सकलकर्मक्षये सत्येव मोक्षप्राप्तिता | भरतादिवत् न तु कन्दमूलफलाद्युपभोगेन मुक्तिरभूदिति ॥ १ ॥ अपने शरीर को तपा डाला था । सचित्त जल का उपभोग करके तथा कन्दमूल फल आदि का उपभोग करके मुक्ति प्राप्त की थी। इस प्रकार का कथन सुनकर मनमें यही बात बैठ जाने के कारण संयम पालन में असमर्थ कोई कोई साधु विषाद को प्राप्त होते हैं । किन्तु सावध कर्म की प्ररूपणा करनेवाले ये अज्ञानी नहीं जानते कि उन पूर्वकालीन ऋषियों ने सचित्त जलके सेवन से मुक्ति प्राप्त नहीं की है। उन्होंने पहले तापस के व्रतों का आचरण किया । उससे उन्हें जाति स्मरण आदि विशेषज्ञान उत्पन्न हो गया । उनके प्रभाव से भावसंयम प्राप्त करके ही वे केवलज्ञानी हुए और समस्त कर्मों का क्षय होने पर ही मोक्ष प्राप्त करने में समर्थ हो सके, जैसे भरत चक्रवर्त्ती । सचित्त जल या कन्दमूल के खाने से उन्हें मुक्तिप्राप्त नहीं हुई ॥ १ ॥ * તપીને પેાતાના શરીરને ક્ષીણુ કરી નાખ્યાં હતાં. તેમણે સચિત્ત જળ તથા કન્દમૂળ, ફળ આદિના ઉપભેાગ કરીને મુકિત પ્રાપ્ત કરી હતી. આ પ્રકારની વાત સાંભળીને કોઈ કેઇ મદમતિ સાધુર્ભે સયમથી ભ્રષ્ટ થઈ જાય છે. મધ્યમનુ` પાલન કરવાને અસમર્થ સાધુએ આ પ્રકારની તેમની વાત સાચી માની લઈને સચિત્ત જળ આદિના ઉપભેગ કરતા થઈ જાય છે. પરન્તુ સાવધ ક્રમની પ્રરૂપણા કરનાશ તે અજ્ઞાની પુરૂષા એ વાત જાણતા નથી કે નાશયણ આદિ પ્રાચીન ઋષિએએ સચિત્ત જળ આદિનું સેવન કરીને મુક્તિ પ્રાપ્ત કરી નથી. તેમણે પહેલાં તાપસાનાં વ્રતનું સેવન કર્યુ હતુ. તે કારણે તેમને જાતિસ્મરણ આદિ વિશિષ્ટ જ્ઞાન ઉત્પન્ન થયાં હતાં. તેના પ્રભાવથી ભાવસથમ પ્રાપ્ત કરીને જ તે કેવળજ્ઞાની થયા હતા અને સમસ્ત કર્માંના સૂય થયા બાદ જ તેઓ મેક્ષ પ્રાપ્ત કરવાને શક્તિમાન થયા હતા. જેમ કે ભરત ચક્રવતી. સચિત્ત જલનું સેવન કરવાથી અથવા કન્દમૂળના આહાર કરવાથી તેમને મુક્તિ પ્રાપ્ત થઇ નથી. ૫૧૫ For Private And Personal Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. ४ मार्गस्खलित साधुमुद्दिश्योपदेशः १४१ तदेव स्पष्टयति- 'अभुंजिया' इत्यादि । मूलम् - अभुंजिया नेमी विदेही रामगुत्ते ये भुंजिया । बाहुए उदगं भोच्चा तहा नारायणे रिसी ॥२॥ छाया -- अभुक्त्वा नमिवैदेही रामगुप्तश्च भुक्त्वा । वाहू उदकं भुक्त्वा तथा नारायण ऋषिः ॥ २ ॥ अन्वयार्थः - ( नमी विदेही अभुंजिया) नमिवैदेही अभुक्त्वा विदेहराजानमिराहारं परित्यज्य (य) च (रामगुत्ते भुंजिया) रामगुप्तो भुक्त्वा (बाहुए) बाहुकः एतन्नामा कथित् ( उदगं ) उदकं - शीतं जलं (भोच्चा) भुक्त्वा = शीतजलं ital (ant) तथा (नारायणे रिसी) नारायणः ऋषिः शीतं जलं पीत्वा मोक्षं प्राप्तवानिति कथयति ॥ २ ॥ इसी तथ्य का स्पष्टीकरण करते हैं- 'अभुंजिया' इत्यादि । शब्दार्थ - 'नमी विदेही अभुंजिया नमिवैदेही अभुक्त्वा' विदेह देशका अधिपति नमि राजाने आहार छोडकर 'य-च' और 'रामगुत्ते भुजिया - रामगुप्तो भुक्त्वा' रामगुप्तने आहार करके 'बाहुए - बाहुकः ' बाहुकने 'उदगं - उदकम् ' शीतल जलका 'भोच्चा-भुक्त्वा' सेवन करके 'तहा - तथा' इसी प्रकार 'नारायणे रिसी - नारायण ऋषिः' नारायण ऋषिने 'उदयं भोच्चा- उदकं भुक्त्वा' शीतल जलका पान करके मोक्ष प्राप्त किया था ऐसा कहते हैं ॥ २ ॥ अन्वयार्थ -- विदेह जनपद के राजा नमि आहार का त्याग करके रामगुप्त आहार का उपभोग करके, बाहुक सचित्त जलका सेवन करके तथा नारायण ऋषि भी शीतल जल पीकर मोक्ष को प्राप्त हुए हैं ॥ २ ॥ मेन वातनु वधु स्पष्टता तेथे छे है- 'अभुंजिया' इत्याहिशब्दार्थ' - 'नमी विदेही अभुंजिया - नमिवैदेही अभुक्त्वा' विहेड देशना अधिपती नभी शमये भाडार छोडीने 'य-च' भने 'रामगुत्ते भुजिया - राम तो क्रामते आहार ने 'बाहुए- बाहुक:' माहुडे 'उदगं-उदकम्' शीत पाणीनु भोच्चा-भुक्त्वा सेवन ने 'तहा - तथा' या प्र 'मारायणें - नारायण ऋषि:' नाराय ऋषि 'उदयं भोच्चा- उदकं भुक्त्वा' शीतज પાણીનું પાન કરીને માક્ષ પ્રાપ્ત કર્યાં હતા. એવુ' કહે છે. રા સૂત્રા——વિદેહ જનપદના રાજા નિમે આહારના ત્યાગ કરીને, રામ‘ગુપ્ત આહારના ઉપભાગ કરીને, બાહુક ચિત્ત જલનુ સેવન કરીને તથા નારાયણ ઋષિ પણ સચિત્ત જળનું સેવન કરીને મુક્તિ પામેલ છે. ારા For Private And Personal Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir . सूत्रताशस्त्रे टीका--केचन परतीथिकाः साधूनां व्यामोहाय-एवमुक्तवन्तः, तद् यथा'नमी' नमि: राजा विदेही, विदेहदेशविशेषः तत्र भवाः वैदेहा: तमिवासिनो लोकाः ते सन्ति अस्येति वैदेही नमी राजा । 'अमुंजिया' अभुक्त्वा भोजनादिकमकृस्वै। 'य' च 'रामगुत्ते' रामगुप्तनामकः । 'भुंजिया' भुक्त्वा आहारं भुक्त्या, तथा 'बाहुए बाहुका बाहुकनामकः 'उदगं मोचा' उदकं शीतोदकमेव भुक्त्वा, तथा 'नारायणे रिसी' नारायणः ऋषिः नारायण नामा महर्षिः प्रणीतोदकर्मचिज्जलं भुक्दैव सिद्धिं गताः ॥२॥ __ अपि च-'आसिले देविले' इत्यादि । मूलम्-आसिले देवि चैव दीवायणमहारिसी । पारासरे दंगं भोच्चा बीयाणि हरियाणि यं ॥३॥ छाया- असिलो देवलश्चैव द्वैपायनमहाऋषिः । पाराशर उदकं भुक्त्वा बीमानि हरितानि च ॥३॥ टीकार्य-किन्हीं किन्हीं परतीथिकोंने साधुओं को भ्रम में डालने के लिए इस प्रकार कहा है कि-वैदेही अर्थात् विदेह देश के राजा नमि ने भोजन आदि त्याग करके ही मोक्ष प्राप्त किया, रामगुप्त ने भोजन करके मोक्ष प्राप्त किया। बाहुक नामक किसीने सचित्त जल का उप. भोग करके तथा नारायण नामक ऋषिने अचित्त जल का उपभोग करके मुक्ति प्राप्त की ॥२॥ और भी कहते हैं--'आसिले देविले' इत्यादि । शब्दार्थ---'आसिले-असिलो ऋषिः' असिलऋषि देविलेचेव-देव. लश्च' और देवल ऋषि 'दीवायणमहारिसी-द्वैपायनो महाऋषिः' तथा ટીકાર્ય–કઈ કઈ પરતીથિકે સાધુઓને ભ્રમમાં નાખવા માટે એવી દલીલ કરે છે કે-વૈદેહીઓ-વિદેહ દેશના રાજા નમિએ ભજનને ત્યાગ કરીને જ મોક્ષ મેળવે છે, રામગુપ્ત ભેજનને ત્યાગ કર્યા વિના-ભજનને ઉપલેગ ચાલુ રાખીને મોક્ષ પ્રાપ્ત કરેલ છે. બાહુક નામના કેઈ પુરૂષે સચિત્ત જળનો ઉપભોગ કરીને તથા નારાયણ નામના વ્યષિએ શીતળ જળને ઉપ ભંગ કરીને મુક્તિ પ્રાપ્ત કરેલી છે. મારા 4जी ५२ती । मे ४ छ --'आसिले देविले' त्याह-- शाय-'आसिले-अमिलो ऋषि.' मसिमऋषि देविले चेव-देवला भने पनि 'दीवायणमहारिसी-द्वैपायनो महाऋषिः' तथा भबि द्वैपायन For Private And Personal Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ.३ उ.४ मार्गस्खलित साधुमुद्दिश्योपदेशः १४३ ___ अन्वयार्थः-(आसिले) असिलो ऋषिः (देविले चेव) देवलश्च ऋषिः (दीवायणमहारिसी) द्वैपायनो महाऋषिः (पारासरे) पराशरः (दगं) उदकं शीतजलं पीत्वा (य) च (हरियाणि बीयाणि) हरितानि बीजानि (भोच्चा) भुक्त्वा मोक्षं प्राप्तवानिति कथयन्तीति ॥३॥ टीका--'आसिछे' असिलः असिलो नाम ऋषिः 'चेव' अपि च 'देविले" देवल नामा ऋषिः दीवायण महारिसी' द्वैपायनो महर्षिः, अथ च 'पारासरे' पराशरः पाराशरश्च, इत्येते ऋषयः 'दगं' उदकं 'य' च 'हरियाणि बीयाणि' हरितानि बीजानि-शीतोदकवीनहरितादिकं 'भेचाः' भुक्त्वा सिद्धि प्राप्ताः। एतेहि महाऋषय आसन् एभिर्यत् कृतम् येन च पथा मोक्षं लब्धवन्तः इमे, माद्द. शैरपि तथैव कर्त्तव्यम् , न तु तद्विपरीतमार्गे ॥३॥ महर्षि द्वैपायन 'पारासरे-पराशरः' एवं पराशर ऋषि इन लोगोंने 'उदगं-उदकम् ' शीतल जलका पान करके 'य-च' और 'हरियाणि षीयाणि-हरितानि बीजानि' हरित वनस्पतियों को 'भोच्चा-भुक्त्वा' आहार करके मोक्ष प्राप्त किया था ऐसा कहते हैं ॥ ३॥ ___अन्वयार्थ--असिल, देवल, द्वैपायन और पराशर नामक ऋषियों ने शीत जल पीकर और हरित तथा बीजों का भोजन करके मोक्ष प्राप्त किया है । ऐसा वे कहते हैं ॥ ३॥ .. टीकार्य--असिल नामक ऋषि, देविलनामक ऋषि द्वैपायन महर्षि, और पराशर ऋषिने शीतल जल, हरितकाय और बीजों का उपभोग करके सिद्धि प्राप्त की। ये सब महान् ऋषि थे । इन्होंने जो किया और पारासरे-पाराशरः' १५ ५२२२२ ऋषि मा सामे 'उदगं-उदकम्' शीतल पाहानु सेवन ४शन 'य-च' मने 'हरियाणि बीयाणि-हरितानि बीजानि' हरित वनस्पतिमान 'भोच्चा-मुक्त्वा'माहा२ अरीन भाक्ष प्रा यों . मे ४ छे. ॥3॥ सूत्राथ:--मासिस, देवर, द्वैपायन, म पाराश२ नामना बियाणे શીતળ જળનું પાન કરીને તથા હરિત (લીલોતરી) તથા બીજેનું ભોજન કરીને મોક્ષ પ્રાપ્ત કરેલ છે, એવું તેઓ કહે છે, આવા ટીકાર્થ––અસિલ નામના ઋષિ, દેવિલ નામના અષિ વૈપાયન મહર્ષિ અને પારાશર ઋષિએ સૂચિત્ત જલ, હરિતકાય (લીલેરી) અને બીજાને ઉપભોગ કરીને સિદ્ધિ પ્રાપ્ત કરી છે. તેઓ મહાન ઋષિઓ હતા. તેમણે જે કર્યું, અને જે માગે મેક્ષ પ્રાપ્ત કર્યો તે માગને આપણે પણ આશય For Private And Personal Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे मूलम्-एए पुवं महापुरिसा आहिता इहे संमता । भोच्चा बीओद्गं सिद्धा इंइ मेयमर्गुस्सुयं ॥४॥ छाया--एते पूर्व महापुरुषा आख्याता इह समताः । भुक्त्या बीजोदकं सिद्धा इति एतत् अनुश्रुतम् ॥४॥ अन्वयार्थ:--(पुर्व) पूर्व =पूर्वकाले (एए महापुरिसा) एते महापुरुषा: (आहिया) आर पाता:-जगत्मसिद्धाः, तथा (इह) इहास्मिन जैनागमेपि (संपता) सम्मताः मान्याः, (बीभोदगं) बीजोदकं (भोच्चा) भुक्त्वा (सिद्धा) सिद्धा-मोक्षं माता: (इइमेयं) इत्येतत् (अणुस्सुयं) मयाऽनुश्रुनं महाभारतादि ग्रन्थत इति ॥४॥ जिस मार्ग से मोक्ष प्राप्त किया, हमें भी वैसा ही करना चाहिये। उनसे विपरीत मार्ग का आश्रय नहीं लेना चाहिए ॥ ३ ॥ ... . शब्दार्थ-'पुव्वं-पूर्व' पूर्व काल में 'एए महापुरिसा-एते महापुरुषा' ये महापुरुष 'आहिया-आख्याता:' जगत्प्रसिद्ध थे, तथा 'इह-इह' इस जैन आगम में भी 'संपता-सम्नताः' मान्यपुरुष थे 'बीमोदगधीजोदकम्' इन महापुरुषोंने बीज-कन्दमूलादिक और उदक-शीतल जल्ल का 'भोच्चा-भुक्त्वा' उपभोग करके सिद्धा सिद्धा' मोक्ष प्राप्त किया था 'इइमेयं-इत्येतत्' यह 'अणुस्सुयं मया अनुश्रुतम् ' मैंने (महाभारत आदिमें सुना है ।। ४ ।। ___ अन्वयार्थ--प्राचीन काल में यह महापुरुष जगत्प्रसिद्ध थे और जैनागममें भी ये मान्य हैं। ये बीज और सचिस जलको उपभोग करके सिद्ध हुए हैं, ऐसा मैने महाभारत आदि ग्रन्थों से सुना है ॥ ४ ॥ લે જોઈએ તેમના તે માર્ગને અનુસરવાથી જ મોક્ષ પ્રાપ્ત થશે-વિપરીત માર્ગે ચાલવાથી આત્મકલ્યાણ સાધી શકીએ નહીં. આ પ્રકારનું તેઓ પ્રતિપાદન કરે છે. ૩ शा---'पुव्वं-पूर्व' नुन समयमा n 'एए महापुरिसा-एते महापुरुषाः' या महापु३५ 'आहिया-आख्याताः' गत् प्रसिद्ध तर, तथा "इह-इह' 241 जैन आगममा ५५ 'समता-सम्मताः' मान्य ५३१ ता 'बीओदगं-बीजोदकम्' આ મહાપુરૂએ બીજ-કન્દ, મૂલ વગેરે અને ઉદક-શીતળ પાણીને “મોઝાभक्त्वा प रीने 'सिद्धा-सिद्धाः' भाक्ष प्रा डा. इइमेयं-इत्येतत्' मा प्रभार 'अणुस्सुयं-मयाअनुश्रुतम्' में (महाभारत विरेभा) सामन्यु छ. १४॥ સૂત્રાર્થ–-પ્રાચીત કાળમાં આ પુરૂષે જગવિખ્યાત હતા. જૈન આગમામાં પણ આ પુરૂષને માન્ય ગણવામાં આવેલ છે. તેમણે બીજ અને For Private And Personal Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ.३ उ.४ मार्गस्खलित साधुमुद्दिश्योपदेशः १४५ टीका--'पुवं' पूर्वम् त्रेतायुगादौ 'एए महापुरिसा' एते पूर्वोक्ता महापुरुषाः द्वैयापनपराशरमभृतयः स्वयूथ्या वा । 'ह' इह जैनमतेऽपि प्रसिद्धा, बहुमानदृष्टया दृष्टाः। ते च सर्वे वीभोदगं' बोनोदकं बीजकन्दमूलादिकम् , उदकं-शीतं जलं च । 'भोच्चा' भुक्त्वा सिद्धा' सिद्धाः संजाताः मोक्षं प्राप्ताः । 'इइमेयं-इत्येतत्' एवं रूपेण 'अणुस्सुयं मया अनुश्रुतम् । महाभारतादि इतिहासे स्कन्दादि पुराणेषु च ! शीतजलादिना शौचादिकं कृतवन्तः मूलफलादिकं चाs. भ्यवहरन्तः सिद्धिं गता इति श्रूयते शास्त्रे महाभारतस्मृतिपुराणादिषु अन्यतीथिका वदन्तीति भावः ॥४॥ टीकार्य--पहले वेता आदि युग में यह द्वैपायन, पराशर आदि महापुरुष हुए हैं। यह जैनागमों में भी प्रसिद्ध हैं और बहुमान की दृष्टि से देखे गए हैं । ये सभी कन्दमूल आदि तथा शीतल जल का उपभोग करके सिद्ध हुए हैं । इस प्रकार मैंने सुना है। महाभारत आदि इतिहास में तथा स्कंद पुराण आदि में इनका कथन उपलब्ध है। तात्पर्य यह है कि अन्यताविक इस प्रकार कहते हैं कि सचिन अल आदि से शौच आदि करते हुए और मूल फल आदि का भोजन करते हुए भी उन्होंने मुक्ति प्राप्त की है । यह पात महाभारत, स्मृति और पुराण आदि में सुनी जाती है॥ ४ ॥ અચિત્ત જલને ઉપભોગ કરીને મુકિત પ્રાપ્ત કરી છે, એવું મેં મહાભારત આદિ ગ્રન્થ દ્વારા સાંભળ્યું છે. શા ટીકાથ–પહેલાં ત્રેતા આદિ યુગમાં પૂર્વોક્ત પાયન, પરાશર આદિ મહાપુરુષે થઈ ગયા છે. જૈન આ મોમાં પણ તે મહાપુરુષનાં નામને ઉલ્લેખ થયેલ છે અને તેમના પ્રત્યે ખૂબ જ માનની દષ્ટિએ જોવામાં આવેલ છે. તે મહાપુરુષે કદમૂળ આદિને આહાર કરીને તથા શીતલ જળનું पान ४रीने सिद्ध थया छे, मे' में सन्यु छे. मामात माह ति. હાસમાં, સ્કન્દ પુરાણ આદિમાં તેમની વાત ઉપલબ્ધ છે. આ કથનનું તાત્પર્ય નીચે પ્રમાણે છે-અન્યતીથિંક એવું પ્રતિપાદન કરે છે કે સચિત્ત જલ આદિ વડે સ્નાન આદિ કરવા છતાં અને કન્દમૂળ આદિનું ભજન કરવા છતાં પણું તૈપાયન, પરાશર આદિ ઋષિએ મુકિત પ્રાપ્ત કરેલી છે. મહાભારત, પુરાણ, મૃતિ આદિ ધર્મગ્રન્થ પણ એ વાતનું સમર્થન કરે છે. પાકા सु०१९ For Private And Personal Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे एतदुत्तरं सूत्रकारः प्राह--'तत्थ मंदा' इत्यादि । मूलम्-तस्थ मंदा विसीयंति वाहच्छिन्ना व गंदभा। . पि ओ परिसंप्पंति पिट्सप्पी य संभमे ॥५॥ छाया--तत्र मन्दा विषीदन्ति वाहच्छिन्ना इव गर्दभः । पृष्ठतः परिसर्पन्ति पृष्ठसपी च संभ्रमे ॥५॥ अन्वयार्थः--(तत्थ) तत्र-तस्मिन् कुश्रुन्युपसर्गे (मंदा) मन्दाः बालाः (वाहच्छिन्ना) वाहच्छिन्नाः भाराक्रान्ताः (गद्दभाव) गर्दभाइच (विसीयंति) विषीदन्ति: संयमपालने दुःखमनुभवन्ति (संभमे) संभ्रमे अग्न्यादिदाई (पिट्ठसप्पी) पृष्ठस इसके अनन्तर सूत्रकार कहते हैं--'तत्थ मंदा' इत्यादि । शब्दार्थ-'तस्थ-तत्र' उसकुश्रुतिका उपसर्ग होने पर 'मंदा-मन्दाः' अज्ञानी पुरुष 'वाहच्छिन्ना-वाहच्छिन्नाः' भारसे पीडित 'गदभावगर्दभा इव' गदहे के जैसा 'विसीयंति-विषीदन्ति' संयम पालन करने में दुःख का अनुभव करते हैं 'संभमे-संभ्रमे' जैसे अग्नि आदिका उप. द्रव होने पर 'पिट्ठसप्पी-पृष्ठसर्पिण' लकडे की सहायतासे चलनेवाला हाथ पैर रहित पुरुष 'पिट्टो-पृष्ठतः' भागनेवाले पुरुषों के पीछे पीछे 'परिसप्पंति-परिसपैन्ति' चलता है उसी प्रकार ये अज्ञानी जन संयम पालने में सबसे पीछे ही हो जाते हैं ॥५॥ ____ अन्वयार्थ--कुशास्त्र का उपसर्ग होने पर अज्ञानी साधु उसी प्रकार संयम पालन में दुःख का अनुभव करते हैं, जिस प्रकार भारा त्या२ मा सूत्र४२ ४३ छ -'तत्थ मंदा' इत्याहि-- शहाथ-'तत्थ-तत्र' ते श्रितिन। ७५स थाय त्यारे 'मंदा-मन्दाः' मज्ञानी ५३१ 'वाहच्छिन्ना-वाहच्छिन्नाः' माथी पीडित 'गद्धमा व-गर्दभा इव' गधेडानी नेम 'विसीयंति-विषीदन्ति' संयम पालन ४२वामां मना मनु११ ४३ . 'सभमे-संभ्रमे' २वी रीत मन परेन। ७५द्रय थाय त्यारे 'पिट्रसपी-पृष्ठसर्पिणः' १४ानी सहायताथी यसवावाणे। 12, ५१ । ५३५ ‘पिटू ओ-पृष्ठतः' भावावा॥ ५३योनी ५७॥ ५४१ ‘परिसपंति-परिसर्पन्ति' या छे ते मारे ! अज्ञानी माणुसे। सयम पालन ४२वामा બધાથી પાછળ જ થઈ જાય છે. પા સુત્રાર્થ–જેવી રીતે ભારનું વહન કરવાને અસમર્થ ગર્દભ વિષાદને અનુભવ કરે છે, અથવા જેવી રીતે ચાલવાને અસમર્થ પુરુષ અગ્નિને ભય For Private And Personal Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - - - - - समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ.३ ३.४ मार्गस्खलित साधुमुद्दिश्योपदेशः १४७ पिणः काष्ठपादुकया चलनकर्तारः हस्तपादरहिताः पुरुषाः (पिट्टओ) पृष्ठतः पश्चात् (परिसप्पंति) परिसर्पन्ति चलन्ति तथैव इमे संपमपाल ने सर्वेभ्यः न्यूनाः भवन्तीति ॥५॥ टीका--'तत्थ' तत्र-तस्मिन् कुत्सि शास्त्रोपदेशाख्योपसोदये सति "मंदा' मन्दाः विवेकविकलाः, न केवलज्ञानादिनैव मोक्षोऽपि तु शीतोदकादिनापि भवतीति निर्णयं कृत्वा 'वाहच्छिन्ना बाहच्छिन्नाः बहनं वाइः भारः तस्योद्वहनम् तेन छिन्नाः आक्रान्ताः गहमा' गर्दभा इव रासभा इव 'विसीयंति' विषीदंति, यथा गर्दभाः भाराकान्ताः मार्गे व दु:खभाजो भवन्ति तथा-इमे कुशास्त्रोपदर्शितक्रमेण शिक्षिताः संघममा संयमभारं परित्यज्य शिथिलाचाराः सन्तो क्रान्त गर्दभ दुःख का अनुभव करते हैं । अधवा जैसे चलने में अस. मर्थ पुरुष अग्नि का भय उपस्थित होने पर पिछड जाता है उसी प्रकार वे भी संयम पालने में पीछे रह जाते हैं ।। ५ ॥ ___टीकार्थ--कुत्सित शास्त्रों के उपदेशरूप उपसर्ग के उपस्थित होने पर विवेकविहीन साधक, केवलज्ञान आदि से ही मोक्ष नहीं होता वरन शीत जल आदि के सेवन से भी होता है, इस प्रकार का निर्णय करके भारवहन से दुर्बल बने हुए गधे के समान विषाद के पात्र होते हैं। अर्थात जसे घोझ से लदे हुए गर्दभ मार्ग में ही दुःख का अनुभव ઉપસ્થિત થાય ત્યારે બીજા લેકે કરતાં પાછળ રહી જાય છે, એ જ પ્રમાણે કુશાસ્ત્રને ઉપસર્ગ થાય ત્યારે અજ્ઞાની સાધુ સંયમનું પાલન કરવામાં વિષાદ અનુભવે છે અને સંયમના માર્ગે આગળ વધવાને બદલે સંયમના પાલનમાં શિથિલ બની જાય છે. પાન ટીકાથે--જ્યારે કુશાઓના ઉપદેશ રૂપ ઉપસર્ગ ઉપસ્થિત થાય છે ત્યારે વિવેકહીન સાધક સંયમના માર્ગેથી ભ્રષ્ટ થઈ જાય છે. તે એવું માનતે થાય છે કે કેવળજ્ઞાન આદિ દ્વારા જ મોક્ષ પ્રાપ્ત થતી નથી, પરંતુ શીતલા જળ, કન્દમૂળ આદિના સેવનથી પણ મોક્ષ પ્રાપ્ત થાય છે. આ પ્રકારનો નિર્ણય કરવાને કારણે તે ભારવહન કરવાને અસમર્થ ગધેડાની જેમ વિષાદને પાત્ર બને છે. એટલે કે ભારે બોજો વહન કરતે ગધેડે જેવી રીતે માર્ગમાં જ વિષાદને અનુભવ કરે છે, એજ પ્રમાણે વિપરીત ઉપદેશ સાંભળીને For Private And Personal Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे मोक्षमनवाप्य संसारे एव दुःखायन्ति। दृष्टान्तान्तरं दर्शयति-संभमे इति। 'संभमे' संभ्रमे अग्न्यादिभये समुपस्थिते सति उद्भ्रान्ताः 'पिट्ठसप्पी' पृष्ठसर्पिणः पंगवः प्रणष्टजनस्य-'पिट्ठो परिसप्पंति' पृष्ठतः परिसर्पन्ति-पृष्ठतो गच्छन्ति, नाऽप्रगामिनो भवन्ति । तथैव-इमे ज्ञान क्रियाभ्यां मोक्षो भवतीति अजानानाः नेम्यादिमार्गानुसारिणः शीतोदकबीजभोजकाः मोक्ष प्रति प्रवृत्ता अपि मोक्षगतयो न भवन्ति । किन्तु तस्मिन्नेव संसारे अनन्तकालं परिभ्रमन्ति, येषामपि सिद्धिगमनमभूत् न तेषां शीतोदकादि सेवनात् किन्तु कुतश्चित् जातजातिस्मरणादिप्रत्ययावाप्त करते हैं उसी प्रकार खोटे शास्त्रों से विपरीत शिक्षा पाये हुए वे साधु भी संयममार्ग में संघम के भारको त्याग करके शिथिलाचार परायण धन जाते हैं। वे मोक्ष न प्राप्त करके संसार में ही दुःश्वका अनुभव करते हैं। इसी विषय में दूसरा दृष्टान्त दिखलाते हैं-अग्नि आदि का भय उपस्थित होने पर घबराए हुए लँगडा पुरुष भागनेवाले दूसरे लोगों के पीछे पीछे चलते हैं-उनसे पिछड जाते हैं। वे आगे नहीं बढ़ पाते। इसी प्रकार ज्ञान और क्रिया से मोक्ष होता है, इस तथ्य को न जानने वाले और नमि आदि के मार्ग का अनुसरण करनेवाले, सचित्त जल और बीजों का उपभोग करनेवाले मोक्षमार्ग में प्रवृत्त होकर भी मोक्ष गमन नहीं कर सकते। वे अनन्तकाल तक संसार में ही परिभ्रमण करते हैं। जिन्होंने भी मोक्ष प्राप्त किया है, उन्हें शीतोदक के सेवन से नहीं प्राप्त हुमा। उन्हें जानिस्मरण आदि किसी कारण से सम्यगસંયમના માર્ગેથી ચલાયમાન થનાર સંયમના ભારને ત્યાગ કરીને શિથિલાચારી બનનાર-સાધુને પણ વિષાદ જ અનુભવો પડે છે. તેઓ મિક્ષ પ્રાપ્ત કરવાને બદલે સંસારમાં જ અટવાયા કરે છે અને દુઃખને અનુભવ કર્યા કરે છે. આ વિષયને અનુલક્ષીને એક બીજું દષ્ટાન્ત આપવામાં આવે છેઅગ્નિ આદિને ભય ઉપસ્થિત થાય ત્યારે લગડે પુરૂષ દેડી ના શકવાને કારણે બીજા ભાગનારા લોકેની પાછળ રહી જાય છે, એ જ પ્રમાણે “જ્ઞાન અને ક્યિાથી મોક્ષ મળે છે. આ તથ્યને નહીં જાણનાર અને નમિ આદિના માગને અનુસરનારા, સચિત્ત જળ અને બીજેને ઉપભોગ કરનારા લોકો મોક્ષમાર્ગમાં પ્રવૃત્ત થવા છતાં પણ મેક્ષગમન કરી શકતા નથી. તેઓ અનંત કાળ સુધી સંસારમાં જ પરિભ્રમણ કર્યા કરે છે. એ વાત તે નિશ્ચિત્ત છે કે જેમણે મોક્ષ પ્રાપ્ત કર્યો છે તેમણે શીતેદક (શીતળ જલ) ના સેવનથી જ મિક્ષપ્રાપ્ત કરેલ નથી. તેમને કોઈ પણ કારણે જાતિસ્મરણ આદિ જ્ઞાનની, For Private And Personal Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र.श्रु. अ.३ उ.४ मार्गस्खलित साधुमुद्दिश्योपदेशः १४२ सम्यग्ज्ञानचारित्रवतामेव वल्कलचीरमभृतीनामिव सिद्धिगमनमभूत् न पुनः कदाचिदपि सर्वविरतिपरिणामभावकारणभावमन्तरेण शीतोदकबीजाद्युपभोगेन जीवोपमर्दसावधकर्मणेति ॥५॥ ___ प्रकृतविषये मतान्तरमपि दर्शयति खण्डनाय-'इहमेगे' इत्यादि । मूलम्-इहमेगे उ भासंति सायं सायेण विजइ । जे तस्थ आरियं मंग्गं परमं च समाहिए ॥६॥ छाया-इह एके तु भाषन्ते सातं सातेन विद्यते । ये तत्र आर्य मार्गन्तु परमं च समाधिकम् ॥६॥ ज्ञान दर्शन और चारित्र की प्राप्ति हुई। तभी वे बल्कल चीरी आदि की तरह सिद्धि प्राप्त करने में समर्थ हो सके। सर्वविरतिरूप भाष चारित्र मोक्ष का कारण है । उस के अभाव में शीतोदक और बीज का उपभोग करने रूप जीवहिंसामय सावद्यकर्म से कदापि मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती ॥५॥ प्रस्तुत विषय में मतान्तर का खण्डन करने के लिए उसे दिखलाते हैं--'इह मेगे' इत्यादि। शब्दार्थ--'इह-इह' इस मोक्ष प्राप्ति के विषय में 'एगे-एके' कोई शाक्यादि मतवाले 'भासंति-भाषन्ते' कहते हैं कि 'सात-सातम्' सुख 'सातेन-सोतेन' सुखसे ही 'विजा-विद्यते' प्राप्त होता है 'तस्थतत्र' इस मोक्ष के विषय में 'आरियं-आर्यम्' समस्त हेय धर्म से दर તથા સમ્યગ્ર જ્ઞાન, દર્શન અને ચારિત્રની પ્રાપ્તિ થઈ હતી. ત્યારે જ તેઓ વલ્કલ, ચીરી આદિની જેમ સિદ્ધિ પ્રાપ્ત કરી શકવાને સમર્થ થયા સર્વવિરતિ રૂપ ભાવચારિત્ર મોક્ષનું કારણ ગણાય છે. જે તેને અભાવ હોય તો શીતદક અને બીજને ઉપભોગ કરવા રૂપ જીવહિંસામય સાવદ્ય કર્મ વડે મેક્ષની પ્રાપ્તિ કદી પણ થઈ શકતી નથી પા પ્રસ્તુત વિષય સંબંધી જે અન્ય માને છે તે પ્રકટ કરીને તેમનું સૂત્રકાર मन छ--'इह मेगे' त्या: Avatथ-'इह-इह' मोक्ष प्रास्ता विषयमा 'एके-एके' ईशय वगैरे मना 'भासंति-भाषन्ते' ४३ छ 'सात-सातम् ' सुभ 'सातेन-सातेन' सुमयी ४ 'विज्जइ-विद्यते' प्राप्त थाय छ, 'तत्थ-तत्र' २५ भाक्षना वि५. 4wi ‘ारिय-आर्यम् ' समरत उय यथा २ २३वावा ताय ४२ प्रति For Private And Personal Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - सूत्रकृताङ्गसूत्रे अन्वयार्थः-(ह) इहास्मिन् मोक्षगमनाधिकारे (एगे) एके-केचन शाक्यादय (भासंति) भाषन्ते-कथयन्ति, (सात) सात-मुख (सातेन) सातेन सुखेनैव (विनइ) विद्यते प्राप्यते (तत्थ) तत्र=मोक्षविषये (आरियं) आर्यम् समस्त हेय धर्मतो दूरं तीर्थकरपतिपादितम् (मग्गं) मार्ग ज्ञानदर्शनचारित्ररूपं (परम समा. हिए) परमं च समाधिकं ज्ञानदर्शनचारित्ररूपम् एनं धर्म (जे) ये जना त्यजन्ति ते स्वार्थभ्रष्टा भवन्तीति ।।६॥ ____टीका--'इह' इह मोक्षगमनविचारमवाहे 'एगे' एक शाक्यमतानुयायिनः लोचादिनोपनप्ता: दंडिप्रभृतयः 'उ' तु शब्दः शीतोदकादिभोजिभ्योऽस्य पार्थक्यं दर्शयति-'भासंति' माप-ते-ब्रुवन्ति । 'सायं सायेण विज्नई' सात सातेन विद्यते, रहनेवाला तीर्थकर प्रतिपादित 'मगं-मार्गम् ' ज्ञानदर्शनचारित्ररूप मार्ग 'परमं समाहिए-परमं सनाधिकम् ' परम शांतिको देनेवाला है इस धर्म को 'जे-ये' जो पुरुष छोडते हैं वे अज्ञानी जन स्वार्थ से पतित होते हैं ॥ ६ ॥ ___ अन्वयार्थ--कोइ शाक्य आदि कहते हैं कि साता से ही साता की प्राप्ति होती है अर्थात सुख भोगने से ही सुख मिलता है, किन्तु जो लोग तीर्थ करप्रतिपादित आर्षमार्ग को, जो सम्यग्ज्ञानदर्शन चारित्र रूप है, त्याग देते हैं वे स्वार्थ से भ्रष्ट होते हैं ॥ ६ ॥ टीकार्थ--मोक्ष के प्रकरण में शास्य आदि तथा केशलुचन आदि में कष्ट माननेवाले दंडी आदि इस प्रकार कहते हैं-मोक्ष का सर्वोत्कृष्ट पाहत 'मगं-मार्गम् ' शानदशन यरित्र३५ भाग 'परमं समाहिए-परमं समांविकम् । ५२ शांति ५भवापाणे! छे 24 घमन 'जे-ये' २ पुरुष छ । અજ્ઞાની માણસે સ્વાર્થથી પતિત થાય છે. દા સૂત્રાર્થ કઈ શાક્ય દિ મતવાદીઓ એવું પ્રતિપાદન કરે છે કેસાતા દ્વારા જ સાતાની પ્રાપ્તિ થાય છે, એટલે કે સુખ ભોગવવાથી જ સુખ મળે છે, પરંતુ જે લેક તીર્થંકર પ્રતિપાદિત, સમ્યગૂ જ્ઞાન, દર્શન અને ચારિત્રરૂપ ઉત્તમ માર્ગને ત્યાગ કરે છે, તેઓ કદીપણુ આત્મકલ્યાણ સાધી શકતા નથી, પણ દુઃખ જ ભોગવ્યા કરે છે. દા ટીકાર્ય–-શાક્ય આદિ પરતીર્થિક તથા કેશકુંચન અ.દિને કદજનક માનનારા દંડી આદિ લેકે મોક્ષપ્રાપ્તિ વિષે એવું મંતવ્ય ધરાવે છે કે વિષય જનક સુખ વડે જ મોક્ષનું સર્વોત્કૃષ્ટ અને અનંત સુખ ઉત્પન્ન થાય છે. For Private And Personal Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिमी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. ४ स्खलितस्य साधोरुपदेशः १५१ सात-मोक्षसुखं निरतिशयाऽपरिच्छिन्नम् । सातेन-विषयजनितमुखेनैव जायते । तथा च वचारो वदन्ति-- 'सर्वाणि सत्वानि सुखेरतानि सर्वाणि दुःखाच समुद्विजन्ते । ___ तस्मात्सुखार्थी च सुखाय दद्यात् सुखपदाता लमते मुखानि ॥१॥ न केवलं सुखादेव, सुखमित्यत्र वचनमेव प्रमाणम् , किन्तु युक्तयोऽपि भवन्ति । तथाहि-कारणमनुसरति कार्यम् , यादृशं कारणं नाहगेव भवति कार्यम् , न तु तद्विपरीतम् , यथा वटवीजात् वटांकुरमेव जायते, न तु अस्मादन्यस्य विजातीयस्य । एवमैहलौकिक वादेव मोक्षसुख स्यानतु लोचादि दुःखात् कथमपि तद्विजातीएवं अनन्त सुख विषय जनित सुख से ही उत्पन्न होता है। कहने वाले कहते भी हैं--'सर्वाणि सत्त्वानि सुखेरतानि' इत्यादि। संसार के समस्त प्राणी सुख में रत हैं, सब दुःख से घबराते हैं, अतएव जो सुख का अभिलाषी है वह दूसरों को सुख पहुँचावे । जो दूसरों को सुख देता है वह स्वयं सुख प्राप्त करता है ॥१॥ __ सुख से सुख की प्राप्ति होती है, इस विषय में केवल वचन ही प्रमाण नहीं है बल्कि युक्तियां भी विद्यमान हैं । वह इस प्रकार हैंकार्य कारण का अनुसार करता है । जैसा कारण होता है वैसा ही कार्य होता है उससे विपरीत नहीं होता। जैसे वट के बीज से वट का ही अंकुर उत्पन्न होता है । अन्य वीज से अन्य विजातीय अंकुर उत्पन्न नहीं होता । इसी प्रकार लौकिक सुख से ही मोक्ष का सुख हो सकता है, लोच आदि के दुःख को सहन करने से नहीं । दुःख मेnath 3 –'सर्वाणि सत्त्वानि सुखेरतानि' त्या-- 'ससारमा समस्त प्राgी। सुममा २त (प्रवृत्त) छे. पाहुयथा ગભરાય છે, તેથી એવું કહી શકાય કે જે સુખની અભિલાષા રાખતા હોય તેણે સૌને સુખ આપવું જોઈએ. જે બીજાને દુઃખ દે છે તે પોતે જ भी थाय छे. ॥१॥ સુખ દ્વારા જ સુખની પ્રાપ્તિ થાય છે, આ કથનનું માત્ર વચન દ્વારા જ પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું નથી, પણ તક, દલીલ આદિ દ્વારા પણ તેઓ તેનું સમર્થન કરે છે-કાર્ય કારણનું અનુસરણ કરે છે. જેનું કારણ હોય છે, તેવું જ કાર્ય થાય છે-કારણથી વિપરીત કાર્ય સંભવી શકતું નથી. વડના બીજમાંથી વડનું જ બીજ ઉત્પન્ન થઈ શકે છે. કોઈ પણ બીજ વિજાતીય અંકુરની ઉત્પત્તિ કરી શકતું નથી. એ જ પ્રમાણે લૌકિક સુખ વડે જ For Private And Personal Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्र यस्य मोक्षस्योद्भवाशा । आगमोऽप्यमुमेवार्थ पुष्णाति । 'मणुण भोयणं भोचा मणुणं सयणासणम् । मणुणंसि अगारंसि मणुण्णं झायर मुणी ॥१॥ छाया-मनोज्ञ भोजनं भुक्त्या मनोज्ञे शयनासने। __ मनोज्ञे आगारे मनोझं ध्यायेत् मुनिरिति ॥१॥ तथा-'मृद्वाशय्या प्रातरुत्थाय पेयाः भक्तं मध्ये पानकं चापर ह्वे । द्राक्षाखण्डं शर्करा चार्द्धरात्रे मोक्षशान्ते शाक्यपुत्रेण दृष्टः ॥१॥ अतः स्थित यत् सुखेनैव सुखावाप्तिः । न तु लोचादिना कायक्लेशसहनेन । प्रत्युतः तेनाऽऽत्तध्यानसमुद्भवात् एवं मोहमुग्धमतयः 'जे' ये केचन शाक्यादयः कथको भुगतने से उससे विजातीय मोक्षसुख की प्राप्ति की आशा नहीं की जा सकती। आगम भी इसी बात का समर्थन करता है-'मगुण्णं भोयणं भोच्चा' इत्यादि । __ 'मनोज्ञ भोजन करके, मनोज्ञशय्या और आसन का उपभोग करके और मनोज्ञ गृह में निवास करके मुनि मनोज्ञ ध्यान करता है ।। और भी कहा है-'मृद्धीशय्या प्रातरुत्थाय पेया: इत्यादि । कोमल शय्या, प्रातःकाल उठते ही पेय का पान, मध्याह्न में भोजन, अपराह में पान, अर्धरात्रि में द्राक्षा खांड और शर्करा का उपभोग और अन्त में मोक्ष ! ऐसा शाक्यपुत्र (बुद्ध) ने देखा है। तात्पर्य यह है कि सुखपूर्वक रहने से ही आगे मोक्ष का सुख प्राप्त होता है ॥ १ ॥ अतएव यह सिद्ध हुआ कि सुख से ही सुख की प्राप्ति होती है, लोच મોક્ષનું સુખ પ્રાપ્ત થઈ શકે છે, લેચ આદિનું દુઃખ સહન કરવાથી મોક્ષનું સુખ મળી શકતું નથી દુઃખને ભેગવવાથી તેના કરતાં વિજાતીય મેક્ષના સુખની પ્રાપ્તિ થઈ શકતી નથી. તેમના આગમમાં પણ એજ વાતનું સમર્થન ४२पामा माव्यु छ -'मणुण्णं भोयणं भोच्चा' त्याह મનો ભજન કરીને, મનેz શમ્યા અને આસનને ઉપભોગ કરીને અને મનેઝ ઘરમાં નિવાસ કરીને મુનિ ધ્યાન ધરી શકે છે.” पणी मे ह्यु छ –'मृद्वीशय्या शतरुत्थाय पेयाः' त्या કમળ શય્યા, પ્રાત:કાળે ઉઠતાં જ પેયનું પાન, મધ્યાહન ભોજન, બપોર પછી પિયનું પાન, મધ્યરાત્રે દ્રાક્ષ, ખાંડ અને સાકરનો ઉપભેગ અને અને મેક્ષ! એવું શાક્યપુત્રે (બ) જેવું છે. તાત્પર્ય એ છે કે સુખપૂર્વક રહેવાથી જ આ બરે મોક્ષનું સુખ પ્રાપ્ત થાય છે. Ir૧ તેઓ આ પ્રકારની દલીલે દ્વારા એવું સિદ્ધ કરવાનો પ્રયત્ન કરે છે For Private And Personal Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. थु. अ. ३ उ. ४ स्खलितस्य साधोरुपदेश: १५३ यन्ति ते तस्थ' तत्र = तस्मिन् मोक्षमार्गविचारप्रवाहे समु स्थिते सति - 'आरि ari' आर्यमार्गम् आरात् दूरं जातः सर्वहेयधर्मेभ्यः इति आर्यः स चासौ मार्ग इति आर्यमार्गः । भगवता सर्वज्ञेन महावीरेण प्रदर्शितो मोक्षमार्गः तादृशमार्य मार्ग ते परित्यजन्ति । तथा 'प मं समाहिए' परमं च समाधि = सम्यक्दर्शनज्ञानचारित्रयात्मकं रनत्रयं च परिहरन्ति ते सर्वथैव मन्द्रः चातुर्गतिक संसारकान्तारमेव सर्वदा परिभ्रमन्ति । तथाहि यत्तैरभिहितम् - 'कारणानुरूपमेव कार्य जायते' तत्र युक्तम् । कदाचिदन्यथाभावस्यापि दर्शनात् यथा दृश्यते-गर्दनमुत्र योगेन गोमयात् वृश्चिकस्य आदि कायक्लेश सहन करने से नहीं । कायक्लेश से तो उलटा आर्त्तिध्यान उत्पन्न होता है । मूढमति शाक्य आदिकों का यह कथन है । इस कथन को मान्य करके जो अज्ञानी आर्य अर्थात् समस्त हेय । (त्यागने योग्य) धर्मों से दूर एवं श्रमण भगवान महावीर के द्वारा उपदिष्ट मोक्षमार्ग का परित्याग कर देते हैं तथा परमसमाधि अर्थात् सम्यग्दर्शन आदि को त्याग देते हैं, वे सर्वथा मन्द प्राणी चातुर्गतिक संसाररूपी अटवी में भटकते हैं । कारण के अनुरूप ही कार्य होता है, उनका यह कथन एकान्त रूपसे समीचीन नहीं है । कभी कभी इस नियम का भंग भी देखा जाता है, अर्थात् कारण से विलक्षण भी कार्य होता है । जैसे गर्दभ કે સુખ વડે જ સુખની પ્રાપ્તિ થાય છે, લેચ આદિ કાયદ્દેશ સહન કરવાથી સુખની પ્રાપ્તિ થતી નથી. કાયલેશ દ્વારા તા ઊલટુ'આન્ત ધ્યાન થાય છે. મૂઢમતિ શાકય આદિ પરતીવિકાની ઉપયુક્ત માન્યતા છે. આ માન્યતાને માન્ય કરીને એ સમરત હેય (ત્યાગ કરવા ચૈાગ્ય) ધર્મથી ભિન્ન એવા શ્રમણુ ભગવાન્ મહુવીર દ્વારા પ્રરૂપિત સર્વત્કૃષ્ટ મેક્ષમા'ના પરિયાગ કરે છે તથા પરમ સમાધિના-સમ્યગ્દર્શન આદિના ત્યાગ કરે છે, એવા મન્દમતિ લુકો ચાર ગતિવાળા સંસારરૂપી કાનનમાં ભટકથા કરે છે. ‘કારણને અનુરૂપ જ કાય થાય છે,' રૂપે (સ‘પૂર્ણત:) ચૈગ્ય નથી, કાઇ કેઇ વાર જોવામાં આવે છે. એટલે કે કારણથી જુદા જ शडे छे. प्रेम - આ પ્રકારનું તેમનુ કથન એકાન્ત આ નિયમમાં ભોંગ પણ થતા પ્રકારનું કાર્ય પશુ સ‘ભવી ગધેડાના મૂત્ર સાથે છાણુના ચૈાગ થવાથી વીછીની ઉત્પત્તિ થાય છે, દાવાનળ વડે બળી ગયેલા નેતરના મૂળમાંથી કદલી વૃક્ષની ઉત્પત્તિ થાય છે, सू० २० For Private And Personal Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५४ सूत्रकृताङ्गसूत्रे समुद्भवः, वनाग्निदग्ध क्षेत्रमूलात् कदलीवृक्षस्योत्पत्तिः, आमतण्डुल जलसंसिक्तः भूतलात् रक्तवर्ण विशेषितशाकस्य समुत्पत्तिभवति, तथा गोलोमतो दुर्वा जायते । तथा-यदपि मनोज्ञाहारादिकं सुखकारणतया-उपक्षिप्तम् , तदपि न सम्यक् । मनोज्ञाहारसेवनेनापि रोगादिसंभवात् । किं च-वैषयिकन्तु दुःखपतीकारकारणतया मुखं भवितुं नाईति । विषय. जनितसुखस्य सर्वदेव दुःखमिलितत्वात् दुःखरूपतेव विद्यते । योऽयन्तत्र मूढानां सुखाऽऽभासः सोऽपि दुःखरूप एव । तदुक्तम् दुःखात्मकेषु विषयेषु मुखाऽभिमानः, सौख्यात्मकेषु नियमादिषु दुःखबुद्धिः। उत्कीर्णवर्णपदपंक्तिरिवाऽन्यरूपा, सारूप्यमेति विपरीतगतिप्रयोगात् ।। के मूत्र का योग होने पर गोबर से विच्छू की उत्पत्ति हो जाती है, दावानल से दग्ध वेत के भूल से कदली वृक्ष की उत्पत्ति होती है, कच्चे तन्दुल एवं जल से सिक्त भूतल से लाल रंग का एक विशेष शाक उत्पन्न होता है तथा गोरोम से दूब की उत्पत्ति देखी जाती है। __ मनोज्ञ आहार आदि को सुख का कारण कहना भी ठीक नहीं क्योंकि उसके सेवन से भी रोगादि की उत्पत्ति देखी जाती है। इसके अतिरिक्त वैषयिक सुख वास्तव में सुख ही नहीं है, वह तो दुःख का ही कारण होता है । वैषयिक मुख में दुःखों का सम्मिश्रण रहता है, अतएव वह विषमिश्रित भोजन के समान वस्तुतः दुःख ही है કાચા તન્દુલ (ખા) અને પાણી વડે સિક્ત ભૂતલમાંથી લાલ રંગનું એક વિશિષ્ટ શાક ઉત્પન્ન થાય છે, તથા ગોરમ (ગાયની રુવાંટી) વડે દબ (41) अपत्ति ५ छे. મનોજ્ઞ આહાર આદિને સુખના કારણરૂપ ગણવા તે પણ ઉચિત નથી, કારણ કે તેના સેવનથી પણ રેગાદિની ઉત્પત્તિ થતી જોવામાં આવે છે. વળી વૈષયિક સુખ વાસ્તવિક દૃષ્ટિએ જોતાં સુખ રૂપ જ નથી, તે તે દુઃખના પ્રતીકારના જ કારણ રૂપ હોય છે. વૈષયિક સુખમાં દુખે નું મિશ્રણ રહે છે. તેથી વિષમિશ્રિત ભેજનની જેમ તે ખરી રીતે તે દુઃખ રૂપ જ હોય છે. મૂઢ માણસ જ તેને સુખરૂપ માને છે, પરંતુ ખરી રીતે તે તે સુખાભાસ રૂપ હેવાને કારણે દુઃખ રૂપ જ છે. કહ્યું પણ છે કે – For Private And Personal Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थवोधिनो टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. ४ स्खलितस्य साधोरुपदेशः १५५ सिक्केतिभाषाप्रसिद्धवर्णवत् दर्शने विपरीतं दृश्यते मुद्रणे च सम्यगाकारेण दृश्यते इति । एतादृशं सुखं परमानन्दमोक्षसुखस्य कारणं कथं स्यात् , कथमपि कारणभावं नाश्रयन्ते इति । यदपि केशलोचादिकं दुःखकारणतया भवद्भिः प्रतिपादितम्, मूढ पुरुष ही उसे सुख मानते हैं किन्तु असल में सुखाभास होने के कारण वह दुःख है । कहा भी है 'दुःखात्मकेषु विषयेषु' इत्यादि । अज्ञानी जीवों की गति कैसी विपरीत होती है। जो विषय दुःखरूप हैं उन्हें वे सुखरूप मानते हैं और जो यमनियमसंयम आदि सुखरूप हैं उन्हें दुःखरूप समझते हैं ! किसी धातु पर जो अक्षर या वर्ण अंकित किये जाते हैं, बे देखने पर उलटे दिखाई देते हैं, परन्तु जब उन्हें मुद्रित किया जाता-छापा जाता है, तब सीधे हो जाते हैं। संसारी जीवों की सुखदुःख के विषय में ऐसी ही उलटी समझ होती है। इस प्रकार पर पदार्थो पर अवलम्बित, इन्द्रियों ग्राह्य, कर्मषध का कारण, दुःखका मूल, क्षगविनश्वर और अनैकान्तिक विषय सुख स्वावलम्बी, इन्द्रियागोचर दुःख से अस्पृष्ट शाश्वत और ऐकान्तिक मुक्तिसुख का कारण किस प्रकार हो सकता है ? इनमें कोई अनुरू पता नहीं है, अतएव आपके कथनानुसार भी विषयसुख मोक्षसुख का कारण नहीं हो सकता। 'दुःखात्मकेषु विषयेषु' त्याह અજ્ઞાની મનુષ્યોને સ્વભાવ કે વિચિત્ર હોય છે. વિષયે કે જે દુઃખ રૂપ છે તેમને તેઓ સુખરૂપ માને છે, અને યમ, નિયમ, સંયમ આદિ જે સુખરૂપ વસ્તુઓ છે તેમને તેઓ દુઃખરૂપ સમજે છે. કઈ ધાતુના સિક્કા પર જે અક્ષરે અથવા વ અંકિત કરવામાં આવે છે, તેમને જોવામાં આવે તે ઉલટા દેખાય છે, પરંતુ જ્યારે તેમને મુદ્રિત કરવામાં-છાપવામાં આવે છે, ત્યારે તેઓ સવળા દેખાય છે. સંસારી જીની સુખદુઃખના વિષયમાં એવી જ ઊલટી સમજ હોય છે. આ પ્રકારનું પર પદાર્થો પર અવલંબિત, ઇન્દ્રિય દ્વારા ગ્રાહ્ય કર્મબન્ધના કારણરૂપ, દુઃખનું મૂળ, ક્ષણવિનશ્વર અને અનેકતિક વિષયસુખ સ્વાવ લંબી, ઈન્દ્રિયાગાચર, દુઃખથી આપૃષ્ઠ, શાશ્વત અને એકાન્તિક મુક્તિ સુખનું કારણ કેવી રીતે હોઈ શકે ? તેમની વચ્ચે કઈ પણ પ્રકારની અનુરૂપતા (સમાનતા) જ જણાતી નથી, તેથી આપના કથનાનુસાર પણ વિષયસુખ મોક્ષ સુખનું કારણ હોઈ શકતું નથી. For Private And Personal Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५६ सूत्रकृताङ्गसूत्रे तदपि अल्पसत्वानामेव दुःखकारणं केसलोचादिकम् । महापुरुषाणां परमार्थचिन्तापरायणानां महत्वता सर्वमेवैतत् सुखायैव भवति । अपगतमयरागभेदोमुनिः तृणादि संस्ठारकेऽपि शयानो यादृशं सुखं लभते तादृशं सुखं चक्रवर्तिनामपि न भवति । तथोक्तम् - 'तणसंधारनिसष्णो वि मुणिवरी भट्टरागमयमोहो । जं पावई मुतिसुहं को तं चकाही वि ॥ १ ॥ ' छाया - तृणसंस्तारनिषण्णोऽपि मुनिवरो भ्रष्टरागमदमोहः । यत्प्राप्नोति मुक्तिसुखं कुतस्तत् चक्रवर्त्त्यपि ॥ १ ॥ आपने केशलोच आदि को दुःख का कारण कहा है किन्तु वह कायर पुरुषों को ही दुःख का कारण होता है । परमार्थ के चिन्तन में परायण महापुरुष महान् सत्त्रशाली होते हैं । उनको वह सुखावह ही होता है । रागद्वेष मदमोह आदि विकारों से रहित मुनि घास की शय्या पर शयन करता हुआ भी जिस अनिर्वचनीय सुख का अनुभव करता है, वह सुख तो चकवर्तियों के नसीब में भी नहीं होता। कहा भी है- 'तण संधारनिण्णो वि' इत्यादि । तों के संस्तारक पर आसीन मुनि रागद्वेष मदमोह से रहित होने के कारण जिस निवृत्ति सुख की अनुभूति करता है, वह सुख चक्रवर्ती को कहां प्राप्त हो सकता है ? આપે કેશલુ'ચન આદિને દુ:ખતુ કારણ કહ્યું છે, પરન્તુ તે માત્ર કાયર પુરુષોને માટે જ દુઃખતુ' કારણુ અને છે. પરમાના (આમહિતના-માક્ષના) ચિત્ત્વતમાં પરાયણુ મહાપુરુષા ખૂબ જ સત્ત્વશાળી હાય છે તેમને માટે તે તે સુખાવડુ જ હાય છે. રાગદ્વેષ, મદ, મેહ આદિ વિકારાથી રહિત મુનિને ઘાસની શય્યા પર શયત કરતાં જે અવનીય સુખને અનુભવ થાય છે, તે સુખ તે ચક્રવતી - એને સુંદર, મુલાયમ શય્યામાં શયન કરવા છતાં પ્રાપ્ત થતું નથી पछे -- तणसंभारनिसण्णो वि' इत्याह ભૃગુના સંસ્તારક (બિછાના) પર શયન કરતા અથવા બેસતા મુનિ રાગ, દ્વેષ, મદ અને મેહથી રહિત નિવૃત્તિ સુખના અનુભવ કરે છે, તે જે સુખના અનુભવ કરે છે, તે સુખ તે ચક્રવતી એને પશુ કયાં પ્રાપ્ત થઈ શકે છે ?? For Private And Personal Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir % 3D समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. ४ स्खलितस्य साधोरुपदेशः १५७ महतां घोरपरी महोपसर्ग ननितदुख दुःखनाशायैव भवति, क्षमया निः शत्रुवर्तते शरीरमालिन्यं वैराग्यमाों वृद्धता वैराग्यकारणं भवति समस्तवस्तुपरित्यागरूपं. मरणं महोत्सवाय भवतीति संपूर्णमेव जगन् संपत्त्यैव पूरितं न कुत्रापि दुःखस्थान विद्यते। तथोक्तम् 'दुःखं दुष्कृतसंक्षयाय महतां क्षान्तेः पदं वैरिणः, कायस्याऽसुचिता विरागपदवी संवेगहेतुर्जरा। सर्वत्यागमहोत्सवाय मरण जातिः सुहृत् पीतये, संपद्भिः परिपूरितं जगदिदं स्थानं विपत्तेः कुतः ॥१॥ घर परीषहों और उपसर्गों से उत्पन्न होनेवाला दुःख महा. पुरुषों के लिए दुःखविनाश का ही कारण होता है। क्षमा से उनके शत्रु मिट जाते हैं। उनके लिए शरीर की मलीनता वैराग्य का मार्ग है, वृद्धता वैरोग्य का कारण है और समस्त वस्तुओं का त्याग रूप मरण महोत्सव होता है। इस प्रकार उन माहात्माओं के लिए सम्पूर्ण जगत् सम्पत्ति से परिपूर्ण होता है। उनकी दृष्टि में दुःख का कहीं कोई स्थान ही नहीं है । कहा भी है-'दुःखं दुष्कृतसंक्षयाय महता' इत्यादि। महान् पुरुषों के लिये दुःख पापकर्मों के क्षय के लिए होता है, शत्र क्षमा के पात्र होते हैं, शरीर की अशुचिता वैराग्य का कारण होती है, वृद्धावस्था वैराग्य का कारण बन जाती है, मृत्यु महोत्सव का रूप धारण करती है, जन्म सजनों की पीति का कारण होता है। इस ઘેર પરીષહ અને ઉપસર્ગોને કારણે મહાપુરુષ પર જે દુઃખ આવી પડે છે, તે દુઃખે તેમના દુ:ખવિનાશમાં જ કારણભૂત બને છે. ક્ષમાગુણને કારણે તેમના શત્રુઓને અભાવ થઈ જાય છે. તેમને માટે શરીરની મલીનતા રાગ્યનો માર્ગ છે, વૃદ્ધતા વૈમનું કારણ છે અને સમસ્ત વસ્તુઓના ત્યાગરૂપ મરણ મહેસવરૂપ બની જાય છે. આ પ્રકારે તે મહાત્માઓને માટે તે સંપૂર્ણ જગત સંપત્તિથી પરિપૂર્ણ હોય છે. તેમની દષ્ટિમાં તે કયાંય પણ દુઃખનું કે ઈ સ્થાન જ હેતું નથી. કહ્યું પણ છે કે – 'दुःखं दुष्कृतसंक्षयाय महता त्याह મહાન પુરુ પર આવી પડતાં દુખે કર્મક્ષય કરનારા થઈ પડે છે, તેઓ શત્રુઓને પણ ક્ષમાને પાત્ર ગણે છે, તેમના શરીરની અશુચિતા ઘરાચમાં કારણભૂત થાય છે, તેમની વૃદ્ધાવસ્થા તેમનામાં વૈરાગ્યભાવની વૃદ્ધિ કરનારી થઈ પડે છે, તેમને મન મૃત્યુ તે મહોત્સવરૂપ થઈ પડે છે. (સંસાર For Private And Personal Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५८ सूत्रकृताङ्गसूत्रे " किं च यदि एकान्ततः सुखेनैव सुखं मन्यते चेत् तदा संसारे विचित्रता न स्यात् । स्वर्गस्थाः सर्वदा स्वर्गस्था एव भवेयुः नारका नारकाएव, नत्वेवं संभ afa | कदाचित नारकोsपि विहाय नरकं सुखमनुभवति, सुखिनोऽपि दुःखम् । न च दृष्टविरोधः कल्प्यमानः पण्डितपरिषदि शोभेत इति ॥ ६ ॥ अस्यैवोत्तरं प्राह-'मा एयं' इत्यादि । मूलम् - मो एयं अवमन्नंता अप्पेणं लुपहा बहु | एयस्स उ अमोक्खाय अओहारिव्व जूरे ॥ ७॥ छाया - मा एतमवमन्यमाना अल्पेन लुम्पथ बहु । एतस्य तु अमोक्षे अयोहारीव जूरयथ ||७|| प्रकार यह अखिल जगत् उनके लिए सम्पत्ति से परिपूर्ण है । उनके लिए विपत्ति कहां ॥ १ ॥ यदि यह एकान्त मान लिया जाय कि सुख से ही सुख की प्राप्ति होती है तो संसार में विचित्रता नहीं होनी चाहिए। स्वर्ग के देव सदा स्वर्ग में ही रहने चाहिए और नारक नरक में ही सडते रहने चाहिए | किन्तु ऐसा होता नहीं है । नारक जीव भी नरक से उद्वसैन (निकलकर ) करके सुख का पात्र बनता है और सुखी भी कदाचित् दुःख का अनुभव करते हैं । प्रत्यक्ष का विशेष करना पण्डितों के समूह में शोभा नहीं देता ||६|| માંથી છૂટીને માક્ષપ્રાપ્તિ થવાને કારણે) અને તેમના જન્મ સજજનાની પ્રીતિનું કારણ અને છે. આ પ્રકારે આ અખિન્ન જતુ તેમને માટે તે સંપત્તિથી પરિપૂર્ણ હોય છે. આ પ્રકારે તેમને વિપત્તિ સહન કરવાને અવકાશ रहेता नथी. ॥१॥ For Private And Personal Use Only or જો એકાન્તતઃ એવુ માની લેવામાં આવે કે સુખ વડે જ સુખની ઉત્પત્તિ થાય છે, તેા સ`સારમાં સુખદુખ રૂપ વિચિત્રતા હોવી જોઈએ. જ ની. સ્વાઁના દેવે સદા સ્ત્રમાં જ રહેવા જોઇએ અને નારકે એ સદા નરકમાં જ પીડા સહુન કરતા રહેવું પડે. પરન્તુ એવુ તે બનતું નથી. નારક જીવે પશુ નરકમાંથી ઉત્તના કરીને-નીકળીને-સુખને પાત્ર ખની શકે છે, અને સુખી જીવા પણ કયારેક દુઃખને અનુભવ કરે છે. આ પ્રકારના જે પ્રત્યક્ષ અનુભવ થાય છે તેને વિશેષ કરવા તે પડનેાના સમૂહમાં शोभतु वथी ॥६॥ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. शु. अ. ३ उ. ४ स्खलितस्य साधोरुपदेशः १५९ ___ अन्वयार्थः-(एयं) एनं सर्वज्ञ पतिपादितमार्गम् (अवमन्नंता) अवमन्यमानास्तिरस्कुर्वाणाः (अप्पेणं) अल्पेनापि शब्दादिकभोगलो भेन (बहु) बहु-अत्यधिक (मा लुपहा) मा लुम्पथमा विध्वंसथ (एयस्म) एतस्य सुखादेव सुखमितिपक्षस्य (अमोक्खाय) अमोक्षेऽपरित्यागे (अओहारिय) अयोहारीव सुवर्ण परित्यज्य लोह गृह्णन वणिम् इव (जूरह) जूरयथ-पश्चात्तापं करिष्यथ इति ॥७॥ इसीका उत्सर देते हैं--'मा एयं' इत्यादि । शब्दार्थ--'एयं-एनम् ' यह सर्वज्ञ प्रतिपादित जिन मार्गको 'अव. मन्नंता-अवमन्यमानाः' तिरस्कार करनेवाले तुम लोग 'अप्पेणंअल्पेन' अल्प-अर्थात् तुच्छ ऐसे शब्दादि विषय भोगके लोभसे पहुंबहु' अत्यधिक मुल्यवान् मोक्षसुखको 'मा लुपहा-मा लुम्पथ' खराय न करो 'एयस्स-एतस्य, सुखसे ही सुख होता है ऐसा यह असत्पक्ष को 'अमोक्खाय-आमोक्षे नहीं छोड़ने पर 'अओहारिव्य-अयोहारीव' सुवर्ण को छोड़कर लोहे को ग्रहण करनेवाला वणिक् पुरुष के जैसा 'जूरह-जूरयर्थ' पश्चात्ताप करना पडेगा ॥७॥ ___ अन्वयार्थ-इस प्रकार सर्वज्ञप्रतिपादित मार्ग की अवगणना करते हुए थोडे के लिए बहुत को नष्ट मत करो । सुख से ही सुख होता है, इस पक्षका त्याग न करने पर आपको उसी प्रकार पश्चात्ताप करना શાક્ય આદિ પરતીર્થિકોની ઉપર્યુક્ત માન્યતાને સૂત્રકાર ઉત્તર આપે છે. 'मा एयं' त्या श – 'एयं-एनम्' मा सज्ञ प्रतिपाहित भाग २ 'अवमन्नंता -अवमन्यमानाः' ति२२४१२ ३२वावा तमे वा 'अप्पेणं-अल्पेन' सय -અર્થાત્ તુરછ એવા શબ્દ વગેરે વિષય ભોગના લોભથી “વહું– અત્યધિક भुवान् मोक्षसुमने ‘मा लुपहा-मा लुम्पथ' ५२०५ ना ४२। 'एयस्स-एतस्य' सुपथी ४ सुम थाय छे मावु ा असत्यपक्षने 'अमोक्खाय-आमोक्षे' न छोडवाथी 'अओहारिय-अयोहारीव' सोना ने सोमने प्रय ४२वावा पण ५३५ना २॥ 'जूरह-जूरयथ' पश्चात्ता५ ४२३। ५७. ॥७॥ સૂવા–આ પ્રમાણે સર્વજ્ઞ પ્રતિપાદિત માર્ગની અવગણના કરીને થડા (સુખ)ને માટે વધારે (સુખ)ને નષ્ટ કરવું જોઈએ નહીં. સુખ દ્વારા જ સુખ પ્રાપ્ત થાય છે, આ પ્રકારની માન્યતાને ત્યાગ ન કરવાથી આપને સુખ પ્રાપ્ત થાય છે, આ પ્રકારની માન્યતાને ત્યાગ ન કરવાથી આપને એવો For Private And Personal Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir E २६१ सूत्रकृतामसवे . टीका--भो भो अभ्यतीथिकाः बीजोदकाग्रुपभोगेन मोक्षो भवतीति मन्यमानाः । तथा सावधपूजा मोक्षकारणं मन्यमानाः पूजापतिष्ठापरायणा दण्डिनः शीथिळाचारिपार्श्वस्थादयः 'ए' एनम् सर्वज्ञपतिपादितमोक्षमार्गम् , सुखेनैव सुखं जायते इत्यादि असदायहे न व्यामोहिता भवथ, 'अवमन्नता' अवमन्यमाना:-तिरस्कुर्वाणा: 'अप्पेणं' अल्पेन वैषयिकसुखेन 'बहु' बहु=अधिकं सर्वता श्रेष्ठं मोक्षसुखं, 'मा लुहा' मा लुम्पथ अत्यल्पवैषयिकसुखेच्छया सातागारवादि सुखलिप्सया वा निरतिशयं मोक्षं सुखं मा तिरस्कुरुत । विषयसुखप्राप्त्या कामोद्रेक एव स्यात् । ततश्च चित्तास्वास्थ्यं न पुनः समाधेरुद्भवः, तदभावात कुतो मोक्षाशा। अपि च-'एयरस' एतस्य मोक्षविपरीतपक्षस्य 'अमोक्खाय' पड़ेगा जैसे स्वर्ण की उपेक्षा करके लोह के भार को वहन करनेवाले को करना पड़ता है ॥७॥ _____टोकार्थ--हे अन्यतीथिको ! बीज और सचित्त जल आदि के उप. भोग से मोक्ष प्राप्ति माननेवालो! सावध पूजा को मोक्ष का कारण माननेवालो! पूजा प्रतिष्ठा में परायणो! दण्डियो! शिथिलाचारी पार्श्वस्थो! सुख से ही सुख की प्राप्ति होती है, इस प्रकार के दुराग्रह से भ्रान्ति के शिकार होकर आप लोग सर्वज्ञ प्ररूपित मोक्षमार्ग की अवगणना करते हैं । परन्तु अल्प तुच्छ वैषयिक सुख के लिए अधिक अर्थात् श्रेष्ठ मोक्षसुख को मत गंमाओ ! अत्यन्त अल्पविषय सुख की इच्छासे निरतिशय मोक्षसुख का तिरस्कार न करो। विषयसुख की प्राप्ति से काम का उद्रेक ही होगा । उस से चित्त अस्वस्थ बनेगा પશ્ચાત્તાપ કર પડશે કે જેઓ પશ્ચાત્તાપ સેનાની ઉપેક્ષા કરીને લે ઢીને ભાર વહન કરનારને કરે પડે છે. છા ટીકાર્યું–હે અન્યતીથિંક ! બીજ અને સચિત્ત જલ આદિના ઉપગથી મોક્ષ પ્રાપ્ત થાય છે, એવું માનનારા હે પૂજા પ્રતિષ્ઠામાં લીન રહેનારા અજ્ઞાની લેકે ! હે દંડીએ ! હે શિથિલાચારી એ ! સુખ દ્વારા જ સુખની પ્રાપ્તિ થાય છે, એવા દુરાગ્રહ તથા ભ્રામક ખ્યાલને ભોગ બનીને તમે સર્વજ્ઞ પ્રરૂપિત મેક્ષમાર્ગની અવગણના કરી રહ્યા છે પરંતુ અપ (છ) વૈષયિક સુખને ખાતર અધિક સુખને સર્વોત્તમ મોક્ષસુખને -ત્યાગ કરવો જોઈએ નહીં. અત્યન્ત અ૯પ વિષયસુખ ભેગવવાને માટે નિરતિશય ક્ષસુખને તિરસ્કાર કરે ઉચિત નથી. વિષયસુખની પ્રાપ્તિ દ્વારા કામને હક જ થાય છેમાણસ વાસનાઓને અધિકને અધિક ગુલામ બનતું જાય છે. તેથી ચિત્તની For Private And Personal Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - समयार्थबोधिनी टीका प्र. शु. अ. ३ उ, ४ स्खलितस्य साधोरुपदेशः १६१ अमोक्षे-अपरित्यागे 'अमोहारिव्व जूरह' अयोहारीव जूझ्यथ, आत्मानं पीडयय एक केवलम् । यथा कश्चिद् अयोहारी लोहवणिक् गृहमागच्छन् मार्गे स्वर्णादिक परित्यज्यायोभारमपरित्यजन तारेणाऽऽक्रान्तो दुःखमात्रमनुभवन्नासीत् । तथैव भवान् अमदाग्रहेण ग्रहेण रत्नत्रयसाध्यं मोक्षमुपेक्ष्य ताशकुतर्कभारेण पीडितो भविष्यति-इति ॥७॥ और समाधि की उपलब्धि नहीं होगी । समाधि के अभाव में मोक्ष की आशा ही कैसे की जा सकती है। इसके अतिरिक्त मोक्ष संबंधी इस विपरीत पक्ष का त्याग न करोगे तो लोह का भार उठानेवाले पुरुष के समान झुरना पडेगा। जैसे लोह के भार को वहन करनेवाला लोह वणिक अपने घर की ओर लौट रहा था, मार्ग में उसे स्वर्ण आदि की खान मिली, किन्तु लोह मोह के कारण उसने लोह का परित्याग न करके स्वर्ण को ग्रहण नहीं किया । लोह के भार से पीडित होता हुआ वह अपने घर पहुंचा और दुःखमय दिन व्यतीत करने लगा। इसी प्रकार आप लोग कदा. ग्रह के वशीभूत होकर रत्नत्रय से प्राप्त होनेवाले मोक्षसुख की उपेक्षा. करके कुतर्क के भार से पीडित होओगे । अतएव स्वर्ण के समान मोक्षसुख को त्याग कर लोक के समान विषयसुख को मत ग्रहण करो।७। સ્વસ્થતા રહેતી નથી અને સમાધિ માટે અવકાશ જ રહેતે નથી સમાધિને જ અભાવ હોય તે દેશની આશા જ કેવી રીતે રાખી શકાય ? જે મોક્ષપ્રાપ્તિના સાચા માને ગ્રહણ કરવાને બદલે તમે ઉપયક્ત બેટા માર્ગનો આધાર લેશો તે તમારે લેઢાનો ભાર વહન કરનાર માણસની જેમ પસ્તાવું પડશે લેઢાનો ભાર વહન કરનારા પુરુષનું દષ્ટાન્ત નીચે પ્રમાણે છે-કેઈ એક વણિક લેઢાના ભારને વહન કરતે પોતાને ગામ પા છે ફરતે હો માર્ગમાં તેણે એક સેનાની ખાણ જોઈ. પરતુ લેઢા પ્રત્યેના મેહને કારણે તેણે લેઢાને ત્યાગ કરીને તે સેનું ગ્રહણ કર્યું નહીં. લેટાને ભાર વહન કરીને ખૂબ જ થાક્યો પાક્યો તે પિતાને ગામ પાછે. ફર્યો, અને સેનાને ગ્રહણ ન કરવા માટે ખૂબ જ પસ્તાવા લાગ્યો. એ જ પ્રમાણે આપ પણ કદાગ્રહને ત્યાગ કરીને જે સર્વજ્ઞ પ્રરૂપિત માર્ગનું અવલંબન નહી લે, તે આપને પણ પસ્તાવું પડશે નત્રય વડે પ્રાપ્ત થનારા મોક્ષસુખની ઉપેક્ષા કરીને જે આપ સુખદ્વારા સુખ પ્રાપ્ત કરવાના કુતર્કને આધાર લેશે, તે તે કુતકને ભારથી દુઃખી થવું પડશે. તે સુવર્ણના સમાન મેક્ષસુખને ત્યાગ કરીને લેહના સમાન વિષયસુખની અભિલાષા २२वी से नही ॥७॥, स० २१ For Private And Personal Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्र मूलम्-पाणाइवाए वहता मुसावाए असंजता । अदिनादाणे वटुंता मेहूणे य परिग्गहे ॥८॥ छाया-प्राणातिपाते वर्तमाना मृपावादे असंयताः । __अदत्तादाने वर्तमाना मैथुने च परिग्रहे ॥८॥ अन्वयार्थः-(पाणाइवाए) प्राणातिपाते-जीयहिंसायां षट् जीवनिकायमदनरूपायां (मुसावाए) मृपावादे (अदिन्नादाणे) अदत्तादाने (मेहुणे) मैथुने (परिग्गहे) परिग्रहे (वता) वर्तमानाः यूयम् (असंजता) असंयताः सन्तीति । ८॥ टीका-मुखादेव सुखं जायते इति मिथ्यासिद्धान्तं दुषयितुं सूत्रकारः अन्यतीथिकान् माह-पाणाइवाए' प्राणातिपाते-गजीवनिकाय हिंसने, 'मुसा. वाएं' मृषावादे, मिथ्यावचनप्रयोगे । 'अदिन्नादाणे' अदत्तादाने 'मेहुणे' मैथुने - शब्दार्थ-'पाणाइवाए-प्राणातिपाते' षड्जीवनिकायके मर्दनरूप जीवहिंसा में 'मुसावाए-मृषावादे' मिथ्याभाषण में 'अदिन्नादाणे-अदत्तादाने' अदत्तादान में 'मेहुणे-मैथुने' मैथुन में 'परिग्गहेपरिग्रहे' परिग्रह में 'वहता-वर्तमानाः' प्रवृत्त रहनेवाले आप लोक 'असं जता-असंयताः' असंगमी है ॥८॥ ___ अन्वयार्थ--माणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन और परि. ग्रह में प्रवृत्ति करते हुए आप लोक असंयमी हैं ॥८॥ टीकार्य-सुख से ही सुख की उत्पत्ति होती है, इस मिथ्या सिद्धान्त को दूषित करने के लिए सूत्रकार अन्यतीथिकों के प्रति कहते हैं-प्राणातिपात अर्थात् षटू जीवनिकाय की हिंसा में भृषावाद मिथ्या. शा-पाणाइवाए-प्राणातिपा३' ५३ नियना भन३५ १ डिंमा 'मुनाबाए-मृषावादे' मि५ शुभा 'अदिन्नादाणे-अदत्तादाने' महत्ता हम 'मेहुणे-मैथुने' भैथुनमा परिग्गहे-परिग्रहे' परिप्रभा वटुंता-वर्तमानाः' प्रवृत्त २२वामा मापस 'असंजता-असंयताः' असयभी छ। ॥८॥ સૂત્રાર્થ–પ્રાણાતિપાત, મૃષાવાદ, અદત્તાદાન, મિથુન અને પરિગ્રહમાં પ્રવૃત્ત એવાં આપ લેકે અસંયમી છે. ટીકાથ–સુખ દ્વારા જ સુખ ઉત્પન્ન થાય છે, આ પ્રકારના મિથ્યા સિદ્ધાંતમાં રહેલા બે પ્રકટ કરવાને માટે સૂત્રકાર પરતીર્થિકોને આ પ્રમાણે કહે છે–તમે પ્રાણુતિપાત-કાયના જીવોની હિંસામાં પ્રવૃત્ત રહે છે, For Private And Personal Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. ४ स्खलितस्य साधोरुपदेशः १६३ तथा-'परिग्गहे' परिग्रहे, 'वटुंता' वर्तमानाः सन्तो यूयम् 'असंजता' असंयताः, संयमरहिता भवन्तः, न तु साधवः। प्राणातिपातमृपावादाऽदत्तादानमैथुनपरिग्रहेषु विद्यमाना भवन्तः संयमरहिताः वर्तमानसुखमात्रलिप्सवः वैषयिकमुखलालसया ऐकान्तिकमोक्षसुखं नाशयन्तो मोक्षमार्गबहिर्भूता यूयम् । प्रतिवादी पृच्छति-कथं मया माणातिपातादिकं सेव्यते-तत्रोत्तरमाह-पचनपाचनादि सावधकर्मानुष्ठानेन हिंसा जायत एव । तथा वयं संन्यासिनः साधरश्चेति स्वीकृत्यापि गृहस्थाचार-कुर्वन्ति ततो मृषावादः प्राप्नोति, तथा-यज्जीवनिकायानां शरीरेण वचनों के प्रयोग में, अदत्तादान चौरी में मैथुन में तथा परिग्रह में प्रवृत्ति करते हुए आप संघम से रहित हैं, साधु नहीं हैं। आशय यह है-प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह इन पापों में प्रवृत्ति करनेवाले आप संयम से रहित हैं और केवल वर्तमानकालीन सुख के अभिलाषी हैं । आप वैषयिक सुखकी लालसा से प्रेरित होकर ऐकान्तिक मोक्षसुख को विनष्ट कर रहे हैं, इस कारण आप मोक्षमार्ग से बहिर्भूत हैं। प्रतिवादी का प्रश्न-हम प्राणातिपात आदि का सेवन कैसे करते हैं ? उत्तर-पचन पाचन आदि सापद्य कर्मों को करने से हिंसा होती ही है। तथा अपने आपको संन्यासी और साधु कहते हुए भी गृहस्थों जैसा आचरण करने के कारण मृषावाद की भी प्राप्ति होती है। जिन અસત્ય વચનોને પ્રવેગ કરે છે, અદત્તાદાન (ચેર), મૈથુન અને પરિગ્રહમાં પણ તમે પ્રવૃત્ત રહે છે. આ પ્રકારની પા૫પ્રવૃત્તિ કરનારા તમે સંયમથી રહિત છે તમે સાધુ જ નથી. આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે પ્રાણાતિપાત, મૃષાવાદ, અદત્તાદાન, મૈથુન અને પરિગ્રહ રૂપ પાપકર્મોમાં પ્રવૃત્ત રહેનારા આપ સંયમથી રહિત છે, અને આપ માત્ર વર્તમાન કાલીન સુખની જ અભિલાષા રાખનારા છે, આપ વૈિષયિક સુખની લાલસા વડે પ્રેરાઈને સર્વોત્તમ મોક્ષસુખને વિનાશ કરી રહ્યા છે. તે કારણે આપ મેક્ષમાર્ગની બહાર જ પડેલા છે. પ્રતિવાદીને પ્રશ્ન–અમે પ્રાણાતિપાત આદિનું સેવન કેવી રીતે કરી રહ્યા છીએ? ઉત્તર—તમે તમારે માટે ભજન રહે છે અથવા બીજા પાસે રંધાવે છે. આ પ્રકારના સાવદ્ય કર્મો કરવા-કરાવવાથી હિંસા થાય છે વળી આપ આપને સાધુ તરીકે ઓળખાવે છે. છતાં પણ ગૃહસ્થના જેવું આચરણ ખે છે, તેથી આપ મૃષાવાદથી થતાં પાપકર્મના પણ બન્યક બને છે. For Private And Personal Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६४ सूत्रकृताङ्गसूत्रे भवन्त उपभोगं कुर्वन्ति, तत् शरीरं तत्स्वामिना नैव दत्तं भवद्भिश्वोपमुक्तमिति अदत्तादानमपि भवति । तथा-गवादीनां मैथुनस्याऽनुमोदनादब्रह्मेति । धनधान्य द्विपदचतुष्पदादीनां परिग्रहोऽपि भवत्येवेति भावः ॥८॥ मतान्तरं दृषयितुं पूर्व तन्मतं प्रदर्शयति मूत्रकारः-'एवमेगे उ' इत्यादि । मूलम्-एवमेगे उ पासत्था पनवति अारिया। इत्थी वसं गया बाला जिणसासणपरंमुहा ॥९॥ छाया-एवमेके तु पार्श्वस्थाः प्रज्ञापनपनार्याः । स्त्रीवशं गता बाला जिनशासनपराङ्मुखाः ॥९॥ जीवों के शरीर से आप उपभोग करते हैं, वह शरीर उनके स्वामियों ने आपको भोगने के लिए प्रदान नहीं किया है, अतएव अदत्तादान भी होता है । गौ आदि के मैथुन की अनुमोदना करने के कारण अब्र. मचर्य का दोष लगता है । धन धान्य, द्विपद चतुष्पद आदि का परि. ग्रहतो होता है ।।८॥ मतान्तर को दृषित करने के लिए सूत्रकार उसे पहले दिखलाते है-'एवमेगे उ' इत्यादि। शब्दार्थ-'इत्थी वसं गया-स्त्रीवशं गताः' स्त्रीके वश में रहनेवाले 'वाला-बाला' अज्ञानी 'जिणसासगपरंमुहा-जिनशासनपराङ्मुखाः' जैनेन्द्र के शासनसे पराङ्मुख-अर्थात् विपरीत चलनेवाले 'अणारिया જે જીવના શરીર વડે આપ ઉપભેગ કરો છો, તે શરીર તેમના સ્વામીઓએ આપને ભોગને માટે પ્રદાન કર્યા હતાં નથી, તેથી આપ અદત્તાદાનનું પણ સેવન કરનાર છે. આપ ગાય આદિના મૈથુનની અનુમોદના કરે છે તેથી આ૫ અબ્રહ્મચર્યના દોષના પણ ભાગીદાર બને છે. આપ ધન, ધાન્ય, દ્વિપદ, ચતુષ્પદ આદિને પરિગ્રહ પણ રાખે છે, તેથી આપ પરિગ્રહજન્ય પાપકર્મના પણ બન્ધક બને છે. પાટા મતાન્તરો (અન્ય મતવાદીઓના મત)નું સ્વરૂપ પ્રકટ કરીને સૂત્રકાર तमा २७सा हो। ४८ ४२ छे--'एवमेगे 3' त्यादि-- शा---'इस्थीवसं गया-स्त्रीवशं गताः' मीना राम २२वापा 'बाला -पाळाः' अज्ञानी 'जिणसासणपरंमुहा-जिनशासनपरा मुखाः' नेन्द्र शासना ५ भुम-मर्थात् विपरीत यासावर 'अणारिया-अनार्याः' मनाय' 'एगे For Private And Personal Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समार्थबोधिनी टीका प्र. थु. अ. ३ उ. ४ स्खलितस्य साधोरुपदेश: अन्वयार्थ :- (इत्थी व संगया) स्त्रीवशं गताः (बाला) बालाऽज्ञानिनः (जिणसासणपरं मुद्दा ) जिनशासनपरांमुखाः=जैनमार्गलज्जयितार : ( अणारिया ) अनार्याः ( एगे पासथा) एके पार्श्वस्थादयः (९) एवं = त्रक्ष्यमाणम् (पन्नवंति ) प्रज्ञापयन्ति कथयन्तीति ॥९॥ टीका- 'इत्थीवसंगया' खीवशंगताः = स्त्रीणामाज्ञायां विद्यमानाः 'बाळा' बाला :- अज्ञानिनो रागद्वेषोपहतमानसाः जीवाः 'जीणसासनपरंमुद्दा' जिनशासनपराङ्मुखाः = जिनपतिपादितकप । यमोहोपघात हेतुभूतामाज्ञामननुवर्त्तमानाः तत्पराङ्मुखा: । 'अणारिया' अनार्याः- आर्यकुलोत्पन्नश्वेपि अनार्यकर्मकारिणः । ' एगे उ पासस्था' एके तु पार्श्वस्थाः शाक्यविशेषाः, सत्कर्माननुष्ठानात् पार्श्वे समीपे विद्यमानाः उपलक्षणात् अवसन्नकुशीळयथाच्छन्दादयः ' एवं ' एवं = वक्ष्यमाणप्रकारेण अनार्याः' अनार्य 'एगे पासस्था - एके पार्श्वस्थाः कोई पार्श्वस्थ एवंएवम्' इस प्रकार 'पन्न वंति - मज्ञापयन्ति' कहते हैं ॥१९॥ अन्वयार्थ - स्त्रियों के अधीन, विवेक से हीन जिन शासन से विमुख कोई कोई अनार्य पार्श्वस्थ आदि इस प्रकार आगे कही जाने. वाली प्ररूपणा करते हैं ||९|| टीकार्थ--त्रियों की आज्ञा के अनुसार चलनेवाले, राग और द्वेष से मोहितमतिवाले, जिनशासन से विमुख अर्थात् जिनेन्द्र द्वारा प्रतिपादिकषाय और मोह के उपशम के कारणभूत आज्ञा का अनुस रण न करनेवाले और आर्यकुल में जन्म लेकर भी अनार्य कर्म करने वाले कोई कोई पार्श्वस्थ अर्थात् शिथिलाचारी और उपलक्षण से अबपाखत्था - एके पार्श्वस्थाः' पार्श्वस्थ एवं - एवम्' मा अक्षरे 'पन्नवंति - प्रज्ञापयन्ति' से छे સુત્રા—સ્ત્રીઓને આધીન, વિવેકશૂન્ય, અને જિનશાસનથી વિમુખ એવા કાઇ કઈ અનાર્ય (પાર્શ્વસ્થ આદિ લેાકેા) નીચે પ્રમાણે પ્રરૂપણા कुरे छे - ॥ ॥ ટીકા સ્ત્રીઓની આજ્ઞાનુસાર ચાલનારા, રાગ અને દ્વેષથી માહિત મતિવાળા, જિનશાસનનું અનુસરણ ન કરનારા-જિનેન્દ્રો દ્વારા પ્રતિપાદિત, કષાય અને મેહના ઉપશમ કરવામાં કારણભૂત એવી આજ્ઞાનું અનુસરણુ ન કરનારા અને કુળમાં જન્મ લેવા છતાં પણ અનાર્યાંનાં જેવાં માં કરનારા ઢાઈ કઈ પાર્શ્વયા-શિચિલાચારી લાકે (તથા આ પદ દ્વારા ઉપલક્ષિત આવસન, કુશીલ અને સ્વછંદી લાકે) આ પ્રકારની પ્રરૂપણા કરે છે, કારણ For Private And Personal Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - सूत्रकृताङ्गसूत्रे 'पनवंति' प्रज्ञापयन्ति कथयन्ति । ललनाललामाऽपांगविद्धान्तःकरणाः। तथाहि तेषां कथनम् 'मियादर्शनमेवास्तु किमन्यैर्दर्शनान्तरैः । प्राप्यते येन निर्वाणं सरागेणापि चेतसा ॥१॥' कमनीयकान्तासंगजनितसुखमेव सुखमिति मन्यन्ते ते । वस्तुतस्तु एगे इति पदेन शाक्तविशेषाणामेव ग्रहणम् समीचीनम् । तेषामागमे व्यवहारे च स्त्रीणां पधा. नतया उपादानात् । स्त्रीसंबन्धेनैव मोक्षस्यापि प्रतिपादनात् ॥९॥ मुम्-जहा गंडं पिलांग वा परिपीलेज-मुहत्तगं। एवं विन्नवणित्थीसु दोसो तथं ओसिया ॥१०॥ सन्न, कुशील तथा यथाच्छन्दक इस प्रकार प्ररूपणा करते हैं, क्योंकि उनका अन्तःकरण स्त्रियों के कटाक्ष से विद्ध होता है । वे कहते है-- 'प्रियादर्शनमेवास्तु' इत्यादि। .... 'प्रिया का दर्शन ही बस है, अन्यदर्शनों से क्या लाभ है ? राग. युक्तचित्त होने पर भी प्रियदर्शन से निर्वाण की प्राप्ति हो जाती है।' . वे ऐसा मानते हैं कि कान्ता के संसर्ग से उत्पन्न हुआ सुख ही वास्तव में सुख है। वास्तव में 'एगे' इस पद से शाक्तों का ग्रहण करना ही उचित है। उनके आराम में और व्यवहार में भी स्त्रियों को प्रधानरूप से ग्रहण किया जाता है। उन्होंने स्त्रियों के संबंध से ही मोक्ष की प्राप्ति भी कही है ॥९॥ કે તેમનાં અંતઃકરણ સ્ત્રિઓનાં મોહક કટાક્ષેથી વિધાઈ જતાં હોય છે. તેઓ मेवा बीस रे छे ४-'विवादर्शनमेवास्तु' त्या પ્રિયાનાં દર્શન જ બસ છે અન્ય દર્શનેથી શું લાભ થાય છે? વાગયુક્ત ચિત્ત થવા છતાં પણ પ્રિયદર્શનથી નિર્વાણની પ્રાપ્તિ થઈ જાય છે.' તેઓ એવું માને છે કે કાન્તાના સંસર્ગથી ઉત્પન્ન થતું સુખ જ વાસ્તવિક સુખ છે. . 'एगे' या पह! २श्रीसमगन पारतविर सुम भानपानी માન્યતા ખાસ કરીને શાકત ધરાવે છે. તેમનાં આરામ સ્થાનમાં તથા વ્યવહારમાં પણ સ્ત્રિયોને પ્રાધાન્ય આપવામાં આવેલું છે. તેઓ એવું મતિપાદન કરે છે કે સ્ત્રિઓના સંસર્ગથી જ મોક્ષ પ્રાપ્ત થાય છે. For Private And Personal Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयाबोधिनो टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ.४ स्खलितस्य साधोरुपदेशः छाया--यथा गण्डं पिटकं वा परिपीडयेत मुहूर्त्तकम् । एवं विज्ञापनोस्त्रीषु दोषस्तत्रकृतो भवेत् ॥१०॥ अन्वयार्थः- (जहा) यथा (गंड) गण्डलघुविस्फोटकः (पिलागं वा) फ्टिकं वा=गुरुविस्फोटकः (मुहुनगं) मुहूर्तकं क्षणमात्रम् (परिपीछेज्ज) परिपीडघेत (एवं विनवणित्यीसु) एवं विज्ञापनीस्त्रीषु सकामप्रार्थितासु (तत्थ) तत्र-ली. संमोगे (दोसो) दोषः (को सिया) कुतः स्नान्नैव भवेत् यथा विस्फोटकजनितपीडा विस्फोटकमर्दनेनापयाति क्षणमात्रेण सुखी भवति न तत्र कोपि दोष स्तथैव खीसमागमेपि न दोष इति ॥१०॥ टीका-ते यत् प्रतिपादयन्ति तदेव सूत्रकारः प्रतिपादयति । 'जहा' यथा 'गंड' गण्डं अल्पं स्फोटकं 'पिलागं' पिटकं महास्फोटं वा 'मुहुत्तग' मुहूर्तकं शब्दार्थ-'जहा-यथा' जैसे 'गंडं-गण्ड' छोटे फुन्शी को अथवा 'पिलागं वा-पिटकं वा' बडे फोडेको 'मुहुत्तर्ग-मुहर्तकम्' क्षणमात्र 'परिपीछेज्जा-परिपीडयेत' दया देना चाहिये 'एवं विनवणिस्थीसु-एवं विज्ञापनी स्त्रीषु' इसी प्रकार समागमकी प्रार्थना करनेवाली स्त्रीसे समागम करना चाहिये 'तस्थ-तत्र' इस कार्य में 'दोसो-दोष' दोष 'कओसिया-कुतः स्यात्' कहां से हो सकता है ? अर्थात् नहीं होता है।१०॥ __अन्वयार्थ--घे कहते हैं-जैसे फुसिया-फोडे को थोडी देर दवाया जाता है तो (पीव निकल जाने से शान्ति हो जाती है ) इसी प्रकार कामभोग की प्रार्थना करनेवाली स्त्री के साथ संभोग करने से शान्ति हो जाती है। इसमें दोष कैसे हो सकता है ? ॥१०॥ टीकार्थ-वे अन्यदर्शनी जिस प्रकार प्रतिपादन करते हैं, वह सूत्रकार साथ-'जहा-यथा' २वी शत 'गंडं-हम्' नानी ने मया 'पिलागं वा-पिटकं वा' मारी ३॥ीन 'मुहुत्तगं-मुहुर्त्तकम्' क्षमात्रमा परि पिलेजा-परिपीहथेत' ४ावी हे न मे एवं बिन्नव णित्थीसु-एवं विज्ञापनीस्त्रीषु' मा २ सभामनी प्रार्थना ४२वावाणी स्त्री साथे समागम १२व। नय. 'तत्थ-तत्र' । यभा 'दासो-दोषः' होष 'कओ सिया-कुतः स्यात्' ક્યાંથી થઈ શકે છે? અર્થાત્ દેષ લાગતું નથી. ૧ળા સૂત્રાર્થ–તેઓ એવું પ્રતિપાદન કરે છે કે-જેમ ખીલ અથવા ગુમડાને ડીવાર દબાવવાથી તેમાંથી દાણે અને પરુ નીકળી જવાથી શાન્તિ થાય છે, એજ પ્રમાણે કામની પ્રાર્થના કરનારી કામિની સાથે સંગ કરવાથી શાન્તિ થઈ જાય છે. તેમાં દેષ જ કેવી રીતે સંભવી શકે છે૧૧ For Private And Personal Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११८ सूत्रकृतास्त्रे सहूर्तमात्रम् 'परिपीलेज्ज' परिपीड येत, यथा व्रणवान् कश्चित् क्षणमात्रं निष्पीडय ततः पूयादिकं निस्सारयंति, तत्र च मुखमुत्पद्यते-न तु कोऽपि दोषो भवति । तथा 'विभवणित्थीसु' विज्ञापनीस्त्रीषु समागमाशया कृतमार्थनासु स्त्रीषु समागमेन न कश्चिद् दोषः। 'तत्थ तस्मिन् स्वीमसङ्गे 'दोसो' दोषः 'कओ' कुतः 'सिया' स्यात् । अर्थात् नैव दोषसंभावनेति तेषां घालानां कथनमिति ॥१०॥ मूकम्-जहा मंधादणे नाम थिमियं भुजइ देंगे। एवं विनवणित्थीसु दोसी तत्थ कंओ सिया॥११॥ छाया-यथा मन्धादनो नाम तिमितं भुङ्क्त दकम् । एवं विज्ञापनी स्त्रीषु दोषस्तत्र कुतः स्यात् ।।११॥ दिखलाते हैं-जैसे गण्ड (छोटे फोडे) और पिलाग (घडे फोडे) को थोडी देर दया दिया जाता है अर्थात् फोडेवाला कोई फोडे को क्षण भर के लिए दवा कर मवाद बाहर निकाल देता है तो उससे सुख की प्राप्ति होती है। ऐसा करने में कोई दोष-पाप नहीं हैं। इसी प्रकार समागम की प्रार्थना करनेवाली स्त्रीके साथ समागम करने से भी कोई दोष नहीं होगा। इस प्रकार स्त्री प्रसंग करने से कैसे दोष हो सकता है ? अर्थात् नहीं हो सकता। ऐसा अज्ञानियों का कथन है ॥१०॥ शब्दार्थ-'जहा-यथा' जैसे 'मंधादणे नाम-मन्धादनो नाम' भेडिया 'थिमिय-स्तिमितं' विना हिलाये 'दगं-उदकम्' जल 'भुजा-भुक्ते' - ટીકાથ–શાકત આદિ અન્ય મતવાદીએ પિતાની ઉપર્યુક્ત માન્યતાનું સમર્થન કરવાને માટે કેવી કેવી દલીલ કરે છે, તે સૂત્રકાર હવે પ્રકટ કરે છે–જેવી રીતે નાની ફેડકીઓ તથા મેટા ખીલ અથવા ગુમડાંને છેડી વાર દબાવીને તેમાંથી પરુ કાઢી નાખવામાં આવે તે પીડા ઓછી થઈ જવાથી સુખની પ્રાપ્તિ થાય છે, એ જ પ્રમાણે સમાગમની પ્રાર્થના કરનારી શ્રી સાથે રતિસુખ સેવવાથી સુખની પ્રાપ્તિ થાય છે. જેવી રીતે ફેડકી અથવા ખીલને દબાવીને સુખ પ્રાપ્ત કરવામાં કઈ નથી, એજ પ્રમાણે સ્ત્રીઓ સાથે રતિસુખ ભેળવવામાં પણ કેઈ દેષની સંભાવના રહેતી નથી. તે અજ્ઞાની લોકો આ પ્રકારની વિચિત્ર દલીલ કરે છે. ૧૦ . शहाथ--'जहा-यथा' वीरीत 'मधादए नाम-मन्धादनो नाम' घेटु 'थिमियं-स्तिमित' वा०या २ 'दगं-उदकम्' पाए। 'भुजइ-भुक्ते पाव छे. For Private And Personal Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir __ यार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. ४ स्खलितस्य साधोरुपदेशः १६९ अध्यार्थः-(जहा) यथा (मंशदए नाम) मन्धादनो नाम-मेषः (थिमिय) स्तिमितमनाले यमानमेव (दगं) उदकम् (भुंनइ) मुंक्ते पिबति तत्रान्येषां जीवानामुपमर्दनाभावान्न दोपः (एवं) एवं तथैव (विनवणिस्थी मु) विज्ञापनीस्त्रीषु (तत्थ) तत्र-ताशसमागमे (दोसो को सिया) दोषः कुतः स्यात् नैव कोऽपि दोष इति ॥११॥ टीका-- स्यादपि मेथुने दोषो यदि कश्चित् तत्र पीडादिकमुत्पद्येत, न तु तथा प्रकृतेऽस्तीति दृष्टान्तद्वारा पुनदर्शयति-'जहा' यथा-'मंधादणे नाम' पीता है उसमें अन्यजीवों के उपमर्दन का अभाव होने से दोष नहीं है 'एवं-एवम्' इसी प्रकार विन्नविणिस्थीसु-विज्ञापनीस्त्रीषु' समागम की प्रार्थना करनेवाली स्त्रीके साथ समागम करने से 'तत्थ-तत्र' इसमें 'दोसो को सिया-दोषः कुतः स्यात्' दोष कैसे हो सकता है ? अर्थात् कोई दोष नहीं है ॥११॥ अन्वयार्थ-जैसे मेढा बिलोडे विना ही जल को पीता है, इसमें जीवों का उपमर्दन न होने से दोष नहीं है, उसी प्रकार संभोग की प्रार्थना. करनेवाली स्त्रीके साथ समागम करने से भी कैसे दोष हो सकता है ? अर्थात् कोई दोष नहीं है ॥११॥ टीकार्थ-यदि किसी जीव को पीडा उत्पन्न होती तो मैथुन सेवन में दोष माना जा सकता था। मगर किसी की पीडा तो होती नहीं हैं। यही बात दृष्टान्त के द्वारा प्रदर्शित करते हैं-जैसे मेष मेढा हिलाये तमा मन्य मोm ना ५मना ARIA पाथी दोष नथी. 'एवं-एवम्' ॥ ५४॥२ 'विन्नविणित्थीसु-विज्ञापनीस्त्रीपु' समागमनी प्रार्थना ४२वापानी श्रीना साथे सभागम ४२वाथी 'तत्थ-तत्र' मामा दोस्रो को सिया-दोषः कुतः ચાત્' દેષ કેવી રીતે થઈ શકે છે? અર્થાત્ કેઈપણ દોષ નથી. ૧૧ સૂત્રાર્થ–જેવી રીતે ઘેટું પાણીને ડન્યા વિના જ તેનું પાન કરે છે, અને તે પ્રકારે તેના દ્વારા જીવોનું” ઉપમર્દન ન થવાને કારણે તેને દેષ લાગતું નથી, એ જ પ્રમાણે સંગની પ્રાર્થના કરનારી સ્ત્રી સાથે સંભોગ કરવાથી કેવી રીતે દેષ લાગી શકે? એટલે કે એમાં કોઈ દેષ સંભવી शsator नथी! ॥१९॥ ટીકાર્ય–શુ સેવન કરવાથી જે કોઈ જીવને પીડા ઉત્પન્ન થતી હોય, તે તે તેને દેષ માની શકાય, પરંતુ તેના દ્વારા સ્ત્રી કે પુરુષને પીડા ઉત્પન્ન થતી નથી. ઊલટા સુખ પ્રાપ્ત થાય છે. તે મિથુન સેવનમાં શા માટે દોષ सू० २२ For Private And Personal Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - सूत्रकृताङ्गसूत्रे मन्धादनो नाम-मेषः, 'थिमियं स्तिमितमेव । 'दगं' उदकम् 'मुंबई' भुक्त पिबति एवं' एवम् 'विन्नवाणित्थीसु' विज्ञापनीस्त्रीषु समागमनप्रार्थनया आग. तपतीषु स्त्रीषु समागमकरणेन । 'तत्य' तत्र-ताह समागमे 'दोसो दोषः 'कओ' कुतः 'सिया' स्यात् नैव तत्र कोऽपि दोष इति भावः ॥११॥ मूलम्-जहा विहंगमा पिंगा थिमियं भुंजइ देगं । एवं विनवणित्थीसु दोसो तत्थ केओ सिया ॥१२॥ छाया-यथा विहङ्गमा पिङ्गा स्तिमितं भुक्ते दवम् । एवं विज्ञापनीस्त्रीषु दोषस्तत्र कुतो भवेत् ॥१२॥ विना ही जलको पीता है, इसी प्रकार समागम की प्रार्थना के लिए आई स्त्रीके साथ समागम करने से क्या दोष हो सकता है ? तात्पर्य यह है कि ऐसा करने में कोई भी दोष नहीं है ॥११॥ शब्दार्थ-'जहा-यथा' जैसे 'पिंगा विहंगमा-पिङ्गा विहङ्गमा पिङ्ग नामक पक्षिणी 'थिमियं-स्तिमितम्' विनाहिलाये' दर्ग-उदकम्' जल 'भुजइ-भुक्ते' पान करती है, उसमें दोष नहीं है 'एवंएवम्' इसी प्रकार 'विनर्वाणधीसु-विज्ञापनीस्त्रीषु' समागम की प्रार्थना करनेवाली स्त्रीके साथ समागम करने पर 'सत्य-तत्र' उसमें 'दोसो को सिया-दोषः कुन: स्पात् ' दोष कहां से हो सकता है ? अर्थात् कोई भी दोष नहीं है ।।१२।। માન જોઈએ? જેવી રીતે જળાશયમાંથી ડયા વિના પાણી પીનાર (ઘેટું પાણીમાં ઉતરીને ડબોળીને બગાડતું નથી) ને કઈ દોષ લાગતું નથી, એજ પ્રમાણે સમાગમની પ્રાર્થના કરનાર સ્ત્રી સાથે સમાગમ કરનારને પણ કેવી રીતે દેષ લાગી શકે ? આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે સ્ત્રી ની ઈચ્છા સંતોષવા માટે તેની સાથે સંભોગ કરવામાં કઈ જ નથી, આ પ્રકારનું તે અજ્ઞાનીએ પ્રતિપાદન કરે છે. ૧૧ शा---'जहा-यथा' वा रीते "पिंगा विहंगमा-पिङ्गः विहङ्गमा पिं नाम माह। पक्षी 'थिमियं-स्तिमितम्' या ११२ 'दगं-उदकम्' पाए 'भुजइ-भुक्ते' पान २ छ, तमा होष नथी. 'एवं-एवम्' । प्रारे 'विन्न. वणित्थीसु-विज्ञापनीस्त्रीषु' सभाममनी प्रार्थना ३२वाजी सीनी साथै सभाआम ४२वाथी 'तत्थ-तत्र' मा 'दोसो को सिया-दोषः कुतः स्यात्' होष यांची હોઈ શકે? અર્થાત્ કોઈપણ દેશ નથી. ૧રા For Private And Personal Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. ४ स्खलितस्य साधोरुपदेशः १७५ ___अन्वयार्थ:-- (महा) यथा (पिंगा विहंगमा) पिङ्गा विहङ्गमा-पिंगनामकपक्षिणी (थिमिय) स्तिमित-निश्चलं (दग) उदकं जलम् भुंजइ) भुंक्त पिबति तत्र न कोपि दोषः, (एवं) एवं तथैव (विन्नवाणित्थी सु) विज्ञापनीस्त्रीषु (तत्थ) तत्र तादृशोपभोगे (दोसो) दोषः (कओ सिया) कुतः स्यात-न तत्र कोपि दोष इति ।१२॥ ___टीका- अस्मिन्नर्थे दृष्टान्तबहुत्वख्यापनाय दृष्टान्तान्तरं पुनदर्शयति । 'जहा' यथा 'पिंगा विहंगमा' पिङ्गो विहङ्गमा कपिजलपिङ्गनामकपक्षी आकाशे विपरिवर्तमानः, 'थिमिय' स्तिमितं निभृतस्थिरमेवोदकम् ' नई' भुक्ते-पिबति 'एवं' एवम् "विन्नवणित्थीसु' विज्ञापनीत्रीषु । एवमत्रापि दर्भमदानपूर्विकयाक्रियया अरक्तद्विष्ठपुरुषस्य पुत्रोत्पादमात्रप्रयोजनाय स्त्रीपरिभोगं कुर्वतोऽपि कर्पिजलस्य इव न भवति दोषः । तथा च ते कथयन्ति। अन्वयार्थ जैसे पिंग नामक पक्षी निश्चल जल को पीते हैं, उसमें कोई दोष नहीं है, इसी प्रकार समागम की प्रार्थना करनेवाली स्त्रीके साथ समागम करने में क्या दोष है ? अर्थात् कुछ भी दोष नहीं है ।१२। टीकार्थ--प्रस्तुत विषय में उदाहरणों की बहुलता प्रदर्शित करने के लिए दूसरा दृष्टान्त दिखलाया जाता है जैसे पिंग (कपिजल) पक्षी आकाश में रहते हुए स्थिर जल को ही पीते हैं, इसी प्रकार कामप्रार्थिनी स्त्री के साथ समागम करने में कोई दोष नहीं है। स्त्रीके शरीर को दर्भ से ढंक कर, नगदेष से रहित होकर, केवल पुत्र उत्पन्न करने के उद्देश्य से स्त्री का परिभोग करनेवाले को, कपिजल पक्षी के समान कोई दोष नहीं होता। वे कहते हैं--'धर्मार्थ पुत्रकामस्य' इत्यादि । સૂત્રાર્થ—જેવી રીતે હિંગ નામનું પક્ષી નિશ્ચલ જલનું પાન કરે છે, તેમાં કોઈ દેષ નથી, એજ પ્રમાણે સમાગમની પ્રાર્થના કરનારી સ્ત્રી સાથે સંગ કરવામાં કઈ દોષ નથી. ૧૨ ટકાથ-ઉદાહરણે દ્વારા પ્રસ્તુત વિષયનું સમર્થન કરવા માટે તે શાકત આદિ મંતવાદીએ પિંગ પક્ષીનું દષ્ટાંત આપે છે – જેવી રીતે આકાશમાં રહેતાં પિગ (કપિંજલ) પક્ષીઓ સ્થિર જલનું જ પાન કરતા હોવાથી તેમને જીનું ઉપમર્દન કરવાના ઈષને પાત્ર બનવું પડતું નથી, એ જ પ્રમાણે કામપ્રાર્થિની સ્ત્રીની સાથે કામગ સેવવાથી કોઈ દેષ લાગતું નથી. સ્ત્રીના શરીરને દર્ભ (ડાભ નામના ઘાસ) વડે આચ્છાદિત રાગદ્વેષથી રહિત ભાવે, કેવળ પુત્પત્તિની અભિલાષાથી સ્ત્રીને પરિભેગ કરનારને કપિલ પક્ષીના સમાન કોઈ દોષ લાગતું નથી. તેઓ એનું प्रतिपाहन ४२ छ-'धमार्थ पुत्रकामस्य' त्याह For Private And Personal Use Only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७२ सूत्रकृताङ्गसूत्रे 'धर्मार्थ पुत्रकामस्य स्वदारेवधिकारिणः।। ऋतुकालविधानेन दोषस्तत्र न विद्यते ।।१।। एवमुदासीनतया व्यवस्थितानां वादिनां दोषो भवति । कि यदि कोऽपि कस्यचिच्छिरः खण्डयित्वा, उदासीनतया पराङ्मुखस्तिष्ठेत् । तारता कि राजदण्डाद्वि. मुखः स्यात् । तत्किं स राजपुरुषे ने निबद्धया । यथा वा कचिद् द्विषन् अन्येनाऽदृष्टो विषं पीत्वोदासीनः उपविशेत , तावता किं तस्य मरणं न भवेत् । यथा वा-कश्चिद्राजकुलात रत्लान्यादाय मूक उदासीनतया उपविशन् चौराऽपराधादपगतो भविष्यति? तथैव यथा कथंचित्कृतः स्त्रीभोगो न कथमपि अदोपाय । अपि तु दोषोत्या. दकः स्यादेव । तथोक्तम् धर्म का पालन करने के लिए पुत्रोत्पत्ति के निमित्त अपनी स्त्री पर अधिकार रखनेवाला पुरुष यदि ऋतुकाल में स्त्री से समागम करता है तो इसमें कोई दोष नहीं है ॥१॥ __इस प्रकार उदासीन होकर रहे हुए वादियों को दोष होता है। अगर कोई किसी का मस्तक काटकर और उदासीन होकर विमुख हो जाय तो क्या राजकीय दण्ड से छुटकारा पा जाएगा? क्या राजपुरुष उसे गिरफ्तार नहीं करेंगे ? अथवा जैसे कोई दूसरों के देखे विना विषका पान करके उदासीन होकर बैठ जाएँ तो उसका मरण नहीं होगा क्या कोई राजमहल से चुरा कर कोई वस्तु ले आवे और उदासीन हो कर चुपचाप बैठ जाएँ तो चोरी के अपराध से मुक्त हो जाएगा। इसी प्रकार स्त्री के साथ समागम किसी भी प्रकार क्यों न किया ધર્મનું પાલન કરવાને માટે પુત્રે ૫ત્તિને નિમિત્તે, પિતાની પત્ની પર અધિકાર રાખનાર જે હતુકાળમાં પોતાની પત્ની સાથે સંભોગનું સેવન કરે, તે તેમાં કઈ દોષ લાગતું નથી. ૧ આ પ્રકારે ઉદાસીનવૃત્તિ ધારણ કરીને સ્ત્રીઓ સાથે કામગ સેવનારને છેષ અવશ્ય લાગે જ છે. જે કોઈ માણસ કેઇનું મસ્તક કાપી નાંખીને ઉદાસીનતા ધારણ કરીને ત્યાંથી હટી જાય તે શું રાજ્યદંડમાંથી બચી શકે છે ખરે? કેઈ ન જાણે એવી રીતે વિષપાન કરી લઈને ઉદાસીનભાવ ધારણ કરનાર વ્યક્તિ શું વિષની અસરથી મુક્ત રહી શકે છે ખરી? રાજમહેલમાં ચોરી કરીને કોઈ માણસ ઉદાસીનવૃત્તિ ધારણ કરીને ચુપચાપ બેસી જાય તે શું અપરાધથી મુક્ત થઈ જાય છે ખરો? એજ પ્રમાણે કઈ પણ પ્રકારે અથવા કઈ પણ નિમિત્તે સ્ત્રીની સાથે For Private And Personal Use Only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समार्थबोधिनी टीका प्र. शु. अ. ३ उ. ४ स्खलितस्य साधोरुपदेशः . १७३ 'प्राणिनां बाधकं तच्छास्त्रे गीतं महर्षिभिः । नलिका तप्तकर्णस्य प्रवेशज्ञानतस्तथा ॥ मूलं चैतदधर्मस्य भावप्रवर्द्धनम् ॥१॥ तस्माद्विपान्नवत् त्याज्य मिदं पाप मनिच्छता । अच्छा संपृष्टो दहत्येव हि पावकः || २ || तस्मात् स्त्री सम्पर्के दोषः स्यादेवेति भावः || १२ | अधुना उपसंहरन् सूत्रकारः गण्डपीडादि दृष्टान्तवादीनां दोषदानाय आह'एवमे उ' इत्यादि । मूलम् - एवमेगे उपासत्था मिच्छेदिट्टी अणोरिया | अज्झोवन्ना की मेहिं पूर्वणा इव तरुणए ॥१३॥ जाय, वह दोष रहित नहीं हो सकता । वह तो दोषजनक ही है । कहा भी है--' प्राणिनां बाधकं चैनत्' इत्यादि । महर्षियों ने मैथुन को शास्त्र में प्राणियों का घातक कहा है। जैसे नली में अग्नि डालने से उसके भीतर की रुई आदि का विनाश हो जाता है, इसी प्रकार समागम करने से जीवों का विनाश होता है । मैथुन अधर्म का मूल है और भय के भाव को बढानेवाला है । अतएव जो पाप से बचने की इच्छा करता है, उसे विषमिश्रित अन्न के समान मैथुन का त्याग करना ही चाहिए। क्योंकि इच्छा न होने पर भी अगर अग्नि का स्पर्श हो जाय तो भी वह जलाये विना नहीं रहती | पर्य यह है कि सम्पर्क करने से दोष होता ही है ॥ १२ ॥ સભાગ કરનાર માસ દેખને પાત્ર અવશ્ય મને જ છે. તેને દોષરહિત ગણી शाय ? नहीं, उछु' 'छे है -- 'प्राणिनां बाधकं चैततू' त्याहि મહિષ માએ મૈથુનને શાસ્ત્રામાં પ્રાણીઆનું ઘાતક કહ્યુ છે, જેવી રીતે નળીમાં અગ્નિના તણખા નાખવાથી તેની અંદર રહેલ રૂ આદિને નાશ થઈ થઈ જાય છે, એજ પ્રમાણે મૈથુનનુ સેવન કરવાથી જીવને વિનાશ થાય છે, મૈથુન મધનુ મૂળ છે અને ભયના ભાવની વૃદ્ધિ કરનારું છે. તેથી જેએ પાપથી બચવા માગતાં હોય, તેમણે વિષમિશ્રિત અન્નની જેમ મૈથુનના ત્યાગ કરવા જોઇએ. આવી ર ય છા વગર અથવા અજાણતા પણ અગ્નિના સ્પા થઈ જાય તા અગ્નિ દઝાડયા વિના રહેતી નથી, એજ પ્રમાણે રાગદ્વેષથી રહિત બનીને પણ મૈથુનનુ' સેવન કરનારને દેષ અવશ્ય લાગે છે ।૧૨। For Private And Personal Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra १७४ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे छाया - एवमेके व पार्श्वस्था मिध्याध्योऽनार्याः । तु अध्युपपन्नाः कामेषु पूतना इव तरुणके । १३ ॥ अन्वयार्थः – ( एवं ) एवम् पूर्वोक्तप्रकारेण मैथुनं निरवद्यं मन्यमानाः, (गे) एके तु - केचन (पासत्या पार्श्वस्थाः (मिच्छादिडी) मिध्यायः विपरीतावोध : (अणारिया ) अनार्या: ( कामेदि) कामैरिच्छामदनरूपैः कामेषु वा शब्दादिषु (झोवचन्ना) अध्युपपन्नाः = वृद्धिभावमुपगताः (तरुणए) तरुण केस्त्रीपत्ये (पूणा इव) पूतना इव = पूतना उरभ्रीवेति || १३ || अब सूत्रकार उपसंहार करते हुए गण्ड पीडा (फोडे को दबाने) आदि दृष्टान्त देनेवालों के कथन को दूषित करने के लिए कहते हैं-- 'एवमेगे उ' इत्यादि । शब्दार्थ - 'एवं - एवम् ' पूर्वोक्त प्रकार से मैथुन को निरवद्य मानने वाला 'एगे उ- एके तु' कोई 'पासत्या पार्श्वस्था:' पार्श्वस्थ 'मिच्छदिट्टीमिथ्यादृष्टयः' मिध्यादृष्टिवाले 'अणारिया-अनार्थ' अनार्य 'कामेहिकामैः कामभोगो में अथवा शब्दादिविषयों में 'अज्झोवबन्ना-अध्युपपन्नाः' अत्यन्त आसक्त होते हैं 'तरुण-तरुण के' अपने बालकों पर 'पूयणा इंव - पूतना इव' जैसे पूतना नामकी डाकिनी आसक्त रहती है | १३ | अन्वयार्थ - इस प्रकार मैथुन को निर्दोष मानने वाले कोई कोई पार्श्व - स्थ मिध्यादृष्टि हैं, अनार्य हैं, और कामभोगों में उसी प्रकार आसक्त हैं जैसे पूतना डाकिनी बालकों पर आसक्त होती है | १३|| હવે સૂત્રના ઉપસ'હાર કરતા સૂત્રકાર ઉપર્યુક્ત દૃષ્ટાન્તા દ્વારા (ખીલને દબાવવાના, સ્થિર જળ પીનાર પિંગ પક્ષી આદિના દૃષ્ટાન્તા દ્વારા) પેાતાના મતનુ’ समर्थन ४२नारा से अनी मान्यतानु' 'उन पुरे छे.- 'एव मेगे' इत्याहि For Private And Personal Use Only शब्दार्थ - 'एवं - एवम्' पूर्वेति प्रहारथी मैथुनने निरुद्य मानवात्राणा 'एगे उ- एके तु' 5 'पाखत्था - पार्श्वस्था:' पार्श्वस्थ 'मिच्छदिट्टी - मिध्यादृष्टयः' मिथ्यादृष्टिवाणा 'अणा रिया -अनार्याः' अनार्य 'कामेहिं - कामैः' अमलगमां अथवा शब्द वगेरे विषयोभां 'अञ्ज्ञोवबन्ना - अध्युपपन्ना' अत्यन्त वधारे आसक्त होय छे, 'तरुण-तरुणके' पोताना है। अगर 'पूरणा इव - पूतना इव' જેવી રીતે પૂતના નામની ડાકણુ આસક્ત રહે છે. ૫૧૩૫ સૂત્રા—આ પ્રકારે કામÀાગાને નિર્દોષ માનનારા કાઈ કઇ પાર્શ્વ સ્થા (શિથિલાચારીએ) મિથ્યાષ્ટિ છે અને અનાય છે. તેઓ કામભાગેામાં એટલાં બંધાં આસક્ત છે કે જેટલી પૂતના ડાકણ માલકા પર આસક્ત હાય છે. ૧૩ા Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मयार्थबोधिती टीका प्र. भु. अ. ३ उ. ४ स्खलितस्य साधोरुपदेशः १७५ टीका - एवमिति एवं व्रणं स्फोटयित्वा ततः पूयादिकमपनीयते तत्र न भवति कोपि दोष, एवं मैथुन सेवनेऽपि नास्ति दोष इति मन्यमानाः ' ' एवं ' एवं 'एगे' एके= ललनासक्ताः पार्श्वस्थादयः सदननुष्ठानात् स्वपार्श्वे तिष्ठन्तः नाथवादिकमंडलचारिणः स्वयूथ्या वा केचन । तथा 'मिच्छदिट्ठी' मिथ्यादृष्टयः = मिथ्याविपरीतातत्त्रग्राहिणीदृष्टिर्दर्शनं येषां तथाभूताः 'अणारिया' अनार्याः- धर्म विरुद्धानुष्ठानकर्तारः सर्वपरित्याज्यधर्मेभ्यो दूरं वर्त्तमानाः आर्याः, न आर्याः इति अनार्याः विरुद्धधर्मानुष्ठानात् 'कामेहिं' कामेषु = कामभोगादौ 'अज्झोववन्ना' अध्युपपन्नाः= यृद्धिभावमुपगताः । अथवा - रागेरसदनुष्ठाने आसक्ताः टीकार्थ-- जो लोग ऐसा मानते हैं कि फोडे को फोडकर उसमें से यदि मवाद निकाल दिया जाता है तो ऐसा करने में कोई दोष नहीं है, वे वास्तव में स्त्रियों में आसक्त पार्श्वस्थ हैं । वे प्रशस्त आचार से दूर रहनेवाले हैं। अपने आपको 'नाथ' कहते हैं और मण्डल में विचरण करते हैं। कोई कोई स्वयूधिक भी ऐसे हैं जो इस प्रकार मानते हैं। वे वास्तव में मिध्यादृष्टि हैं अर्थात् तत्र को विपरीत ग्रहण करनेवाले हैं । जो धर्म विरुद्ध अनुष्ठान नहीं करते और समस्त हेय धर्मों से दूर रहते हैं, वे आर्य कहलाते हैं और जो आर्य न हों वे अनार्य कहे जाते हैं। धर्मविरुद्ध अनुष्ठान करने के कारण ऐसा कहनेवाले अनार्य है। कामभोगों में गृद्ध हैं अथवा राग के कारण असत् आचरण में आसक्त ટીકા--જે લેકે એમ માને છે કે ખીલ ગુમડાં આદિને દખાવીને તેમાંથી પરુ આદિ કાઢી નાખવામાં જેમ કાઇ દોષ નથી, એજ પ્રમાણે કામ પ્રાર્થિની સ્ત્રી સાથે કામલેગ સેત્રવામાં પણ કોઈ દોષ નથી. તે ખરી રીતે તે સ્ત્રીએમાં આસક્ત પાશ્વસ્થા જ હાય છે. તેઓ પ્રશસ્ત આચારાના ત્યાગ કરીને શિથિલાચારી બની ગયા હોય છે. તેએ પેાતાને નથ કહે છે. અને મડળમાં વિચરણ કરે છે. કાઈ કાઈ સ્વયૂથિકા પશુ આ પ્રકારની માન્યતાના આધાર લઈને શિથિલાચારી અની ગયા હૈાય છે. તેઓ ખરી રીતે મિથ્યાદૃષ્ટિ જ છે, એટલે કે તત્ત્વને વિપરીત રૂપે ગ્રહણ કરનારા છે. જેએ ધમના આદેશનું પાલન કરનારા અને ડેય ધર્મોથી દૂર રહેનારા છે, તેમને જ આય કહેવાય છે, પરન્તુ ધર્મ વિરૂદ્ધનું આચરણ કરનારા લેાકેા આ કુળમાં જન્મ ધારણ કરવા છતાં પણ અનાય જ છે. તેઓ કામભેણેમાં લેપ છે, અને રાગને કારણે અસત્ આચરણમાં આસક્ત છે. જેવી રીતે પૂતના ડાકણ For Private And Personal Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - सूत्रकृताङ्गसूत्र ते विद्यन्ते । अत्र दृष्टान्तं दर्शयति-तरुणए' तरुणके, स्तनंधयबालके इव-यथा 'पूयणा' पूतना उरभ्री आसक्ता भवति । तथैवेमेऽपि शाक्तादयो वादिनः मनोरमासु आसक्ताः। • यद्वा-तरुण के स्थापत्ये यथा, पूतना पशु जातिविशेषः मेषः अध्यासक्तः, तद्वदेव । मेषाणां स्थापत्येऽतीव स्नेहो भवति । एकदा सर्वपशूनामपत्यानि निर्जलकूपे पतितानि । तद् दृष्ट्वा सर्वे पशवः संजातदया अप यस्नेहात्तत्र समवेताः। किन्तु प्राप्तुमुपायमपश्यन्तः कूपतटे एव निषण्णाः । मेषस्तु तथाविधमपत्यं दृष्ट्वा कूपे पतितः । इति दृष्ट्वा मनिणीतं यत् मेषाणां सापत्ये स्नेहाधिक्यमिति । हैं। इस विषय में दृष्टान्त दिखलाते हैं-जैसे पूजना बालों में आसक्त होती है, उसी प्रकार यह शाक्त आदि भी महिलाओं में आसक्त है। . अथवा जैसे पूतना अर्थात् भेड अपने बालक में आमत होती है, उसी प्रकार यह वादी भी स्त्रियों में आसक्त हैं । भेडों को अपनी सन्तान पर अतीव अनुराग होता है। एक बार सब पशुओं के बच्चे कूप में गिर गए। यह देखकर सभी पशुओं को बडी करुणा उत्पन्न हुई और सन्तान प्रेम के कारण वे इकट्ठे हुए। किन्तु कुए में गिरे बच्चों को प्राप्त करने का कोई उपाय न सूझा। अतएव वे सब विषादयुक्त होकर कृपके किनारे ही खडे हो रहे मगर भेड अपने पच्चे को गिरा देख स्वयं भी कूप में गिर पडा । यह घटना देखकर सघने यह निर्णय किया कि भेडों को अपनी सन्तान पर अत्यधिक स्नेह होता है । तात्पर्य બાળકેમાં આસક્ત હોય છે, એ જ પ્રમાણે શાકત આદિ પરતીર્થિક લલનાઓમાં આસક્ત હોય છે. પૂતનાને બીજો અર્થ “ઘેટી થાય છે. જેવી રીતે ઘેટી પિતાના બચામાં ખૂબ જ આસક્ત હોય છે, એ જ પ્રમાણે શાકત આદિ પરતીચિ કે સ્ત્રીઓમાં આસક્ત હોય છે. ઘેટીને પોતાના બચ્ચાંઓ પર ઘણો અનુરાગ હોય છે, તે વાત નીચેની કથા દ્વારા સિદ્ધ થાય છે. એક વખત એવું બન્યું કે ઘણું પશુઓનાં બચ્ચાં કૂવામાં પડી ગયાં. તે વાતની ખબર પડતા તે પશુઓનાં દુ:ખનો પાર ન રહ્યો. તેઓ સતાના પ્રેમને કારણે કૂવાને કાંઠે એકઠાં થયાં. પરંતુ કૂવામાં પડી ગયેલાં પિતાનાં બચ્ચાંઓને બહાર કાઢવાનો કોઈ ઉપાય તેમને જડશે નહીં. તેથી તેઓ ખૂબ જ વિષાદને અનુભક કરતાં કૂવાને કાંઠે જ ઊભાં રહ્યાં. પરન્તુ મેઢી (ઘેટી) પિતાના બચ્ચાને પાણીમાં પડેલું દેખીને કુવામાં કૂદી પડી. આ ઘટના જોઈને સમરત પ્રાણીઓએ એવું કબૂલ કર્યું કે ઘેટીને પિતાનાં બચ્ચાં પર સૌથી વધારે અનુરાગ હોય છે. આ કથનને For Private And Personal Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. ४ स्खलितस्य साधोरुपदेशः १७७ एकमेव ते वादिनः स्त्रीषु नितरामेवापकाः । यतः सर्वज्ञ विनिन्दितमैथुन सेवनाय स्त्रियामासक्ताः इति ॥ १३ ॥ कामाssवक्तायां यद्भवति तदूषणं वदति सूत्रकारः - 'अजागय' इत्यादि मूलम् - अणीगयमपस्संता पच्चुंप्पन्नगवेसगा | ते पच्छा परितपति खीणे ओउंमि जोठणे ॥ १४ ॥ छाया -- अनागतमपश्यन्तः प्रत्युत्पन्नगवेषकाः | ते पश्चात् परितप्यन्ते क्षीणे आयुषि यौवने ॥ १४ ॥ अन्वयार्थः - ( अणागयमपस्संता) अनागतमपश्यन्तः = भविष्यद्दुःखमजायह है कि ये वादी स्त्रियों में अत्यन्त आसक्त हैं, 'क्योंकि सर्वज्ञों द्वारा अत्यन्त निन्दित मैथुन में आसक्त हैं ||१३|| काम में आसक्ति होने पर जो दोष होता है, सूत्रकार बसे दिखलाते हैं- 'अणागय' इत्यादि । शब्दार्थ - 'अणागयम पर संता - अनागतमपश्यन्तः' भविष्य में होने वाले दुःखको न देखने वाले 'पच्चु पन्नगवेसगा - प्रत्युत्पन्नगवेषकाः' जो लोक वर्तमान सुखकी खोज में लगे रहते हैं 'ते ते' वे शाक्यादि मतानुयायी 'पच्छा-पश्चात् पीछे 'आउमि - आयुषि' आयुष्य 'जोवणे -यौवने' और युवावस्था 'खीणे-क्षीणे' क्षीण होने पर 'परितपति-परितप्यन्ते' पश्चात्ताप करते हैं ॥१४॥ अन्वयार्थ - भविष्य की ओर आंख मीचनेवाले अर्थात भावी ભાવાર્થ એ છે કે ઉપયુક્ત શાકત આદિ મતવાદી આસક્ત છે કે તેએ સજ્ઞાના ઉપદેશની અવગણના પાપકૃત્યમાં આસક્ત રહે છે. ૧૩ કામમાં આસક્ત થવાથી જે દોષ લાગે છે, તે હવે સૂત્રકાર પ્રકટ કરે છે. 'अणामय' त्याहि સ્ત્રીઓમાં એટલાં બધાં કરીને મૈથુન જેવાં For Private And Personal Use Only शब्दार्थ-'अणागयमपस्लेता- अनागतमपश्यन्तः' भविष्यभां थवावाजा दुःमने नववा 'पपन्नगखगा- प्रत्युत्पन्नगवेषकाः ' ने माणुसो वर्तमान सुनी शोधमां साग्या रहे छे 'ते ते' ते शास्य वगेरे मतानुयायी 'पच्छा - पश्चात् ' पाछणथी 'आउंमि-आयुषि ' आयुष्य 'जोवणे - यौवने' मने युवावस्था 'खोणे क्षीणे' क्षीशु थया पछी 'परिवप्पति परितप्यन्ते' परतावे रे ॥१४॥ સૂત્રા—વિષ્યમાં આવી પડનારાં દુઃખેના વિચાર નહી. કરનારા અને सु० २३ - Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७८ सूत्रकृताङ्गसूत्रे नानाः (पच्चुप्पन्नगवेसगा) प्रत्युत्पन्नगवेषकाः वर्तमानसुखान्वेषकाः, (ते) तेशाक्यादयः (पच्छा) पश्चात् (आउंमि) आयुपि (जोनणे) यौवने (खीणे) क्षीणेविनष्टे सति (परितप्पंति) परितप्यन्ते पश्चात्तापं कुर्वन्ति इति ।।१४। टीका-'अगागयं' अनागतम् , कामासक्तानां पश्चान्नरकादिस्थाने महती यातना भवतीति तत्रत्यं दुःखम् 'अपस्संता' अपश्यन्तः 'पच्चुप्पन्नगवेसगा' प्रत्युत्पन्नगवेषकाः-प्रत्युत्पन्नं वर्तमानकालिकवैषयिकसुखम् अन्वेषयन्तः विविधप्रकारैः कामानामेव गवेषकाः 'ते' पुरुषाः शाक्यादयः पच्छा' पश्चात् 'आउंमि' आयुषि 'खीणे' क्षीणे सति अथवा-'जोधणे' यौरने नष्टे अति 'परितप्पंति' परितप्यन्ते पश्चात्तापं कुर्वन्ति । कामान्धतया पूर्वन्तु अविचाथै व स्त्रीषु समासक्ता अमवन् । पश्चादायुषः क्षये समुत्पन्नवैराग्याः युवावस्थाया अगमे वा शोचन्ति, आत्मानमेव निन्दन्ति । तदुक्तम्दुःखों को न देखनेवाले और वर्तमान कालीन सुख की गवेषणा करने वाले वे शाक्त आदि घाद में आयु और यौवन के क्षीण होने पर पश्चात्ताप करते हैं ॥१४।। . टीकार्य--कामभोगों में आसक्त पुरुषों को बाद में नरक आदि स्थानों में घोर यातना होती है। वे वादी यहां के दुःखों को नहीं देखते वे तो केवल वर्तमानकालीन विषयसुख की ही गवेषणा करते हैं। किन्तु जब आयु श्रीण होती है अपना यौवन व्यतीत हो जाता है, तब उन्हे परिताप होता है। - आशय यह है कि पहले तो कामान्ध होकर विना विचारे ही स्त्रियों में आसक्त हो गए, बाद में आयु क्षीण होने पर या युवावस्था व्यतीत हो जाने पर वैराग्य उत्पन्न होता है तो शोक करते हैं और अपने को कोसते हैं । कहा भी है---"हतं मुष्टिभिराकाश' इत्यादि। વર્તમાનકાલીન સુખની જ ખેવના કરનારા શાકત આદિ પરતીર્થિકોને આયુ અને યૌવન ક્ષીણ થાય ત્યારે પસ્તાવાને વારો આવે છે. ૧૪ ટીકાથ-કામમાં આસક્ત કોને મનુષ્યભાવનું આયુષ્ય પૂરું કરીને નરક આદિ દુર્ગતિઓમાં ઘોર યાતનાઓ વેઠવી પડે છે. તેઓ નરકાદિના દુઃખને વિચાર કરવાને બદલે વર્તમાનકાલીન વિષયસુખમાં જ આસક્ત રહે છે. પરંતુ જ્યારે આયુષ્ય ક્ષીણ થાય છે અથવા યુવાની ચાલી જાય છે, ત્યારે તેમને પસ્તાવાનો વખત આવે છે. આ કથનનો ભાવાર્થ એ છે કે તેઓ પહેલાં તે કામા થઈને વિના વિચાર્યે સ્ત્રીઓમાં આસક્ત થાય છે, પરંતુ જ્યારે યુવાવસ્થા પૂરી થઈ જાય છે અને આયુષ્ય પૂરૂ થવાનો સમય નજીક આવે છે, ત્યારે તેમનામાં વૈરાગ્ય ભાવ પેદા થવાને કારણે તેમને પસ્તા થાય છે. કહ્યું પણ છે કે– For Private And Personal Use Only Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. शु. अ. ३ उ. ४ स्खलितस्य साधोरुपदेशः हतं मुष्टिभिराकाशं पाक कण्डनं क्रुदम् । यन्मया प्राप्य मानुष्यं सदर्थे नादरः कृतः ॥ १ ॥ अपिच - मृत्कुम्भाल्लुकारन्त्र विधानपरमार्थिना । दक्षिणावर्त्तशंखोऽयं हन्त ! चूर्णीकृत मषा ||२|| तथा - 'विश्वावलेवनडिएहिं जाई कोरंति जोच्त्रणमरणं । वय परिणामे सरियाई ताई हियए खुडुकंति ॥३॥ छाया -- विभवावलेपनादितैर्यानि क्रियन्ते यौवनमदेन । वयः परिणामे स्मृतानि तानि हृदयं व्ययन्ते || ३ || १४ || १७९ मनुभवको प्राप्त करके भी मैंने उत्तम अर्थ का आदर नहीं किया, यह मानों ऐसा ही है जैसे मुट्टियों से आकाश में आधान किया और छिलकों को कूटा ! अर्थात् जैसे आकाश में आघात करना और तुषको खांड़ना fare प्रयास है, उसी प्रकार मनुष्य भव पाकर उत्तम अर्थ के लिए प्रयास न करने से मनुष्यमेव व्यर्थ हो जाता है । पुनः 'मृतकु ंभवालुकारन्ध्र' इत्यादि । और मनुष्यभव को उत्तम अर्थ मोक्ष में न लगाकर विषयभागों में लगाकर मैंने मानो मृत्तिका के घट में हुए छिद्र को मूंदने के लिए दक्षिणावर्त्त इखि जैसे अनमोल पदार्थ का चूरा कर दिया हो ! और भी कहा है- विहवावलेवन डिएहिं' इत्यादि । 'ga gfosfa Scala- ‘તે માણસને એવા પશ્ચાત્તાપ થાય છે કે મેં મનુષ્યભવ પ્રાપ્ત કરીને ઉત્તમ તત્ત્વની અવગણુના કરી. મેં તે આકાશમાં મુટ્ઠી વડે આઘાત કરવા જેવાં અથવા ફીફાં (ફાતરાં) ખાંડવા જેવાં નિક કાર્યોમાં જીવનને વેડફી નાખ્યુ એટલે કે આકાશમાં આઘાત કરવે અથવા ફાતરાં ખાંડવા, તે જેવી રીતે નિરક છે, એજ પ્રમાણે મનુષ્યભવ પ્રાપ્ત કરવા છતાં ઉત્તમ અને પ્રાપ્ત કરવાનો પ્રયાસ ન કરવાથી મારા મનુષ્યભવ મે વેડફી નાખ્યા છે. 'मृत्कुंभ वालु कारन्ध' धत्याहि For Private And Personal Use Only જેવી રીતે ટાઈ ભૂખ ચાણસ માટીના ઘડામાં પડેલા છિદ્રને સાંધવા માટે દક્ષિણાવત્ત શંખ જેવા અણુમેલ પદાર્થના ચૂરા કરી નાખે છે, એજ પ્રમાણે મે' આ અણુમેલ મનુષ્યભવને ઉત્તમ અર્થ (મેાક્ષ) ની સાધનામાં વ્યતીત કરવાને બદલે વિષય ભેગામાં વ્યય ગુમાવી નાખ્યા.' વળી તેને એવા पावा थाय छे - 'विषाव लेवनडिएहिं' इत्याहि- 'वैभवना भवभां छठी Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८० सूत्रकृताङ्गसूत्रे ये तूत्तममहापुरुषास्ते तु अनागतमुखजनकमेव तपः संयमाऽनुष्ठानं कुर्वन्ति । तेन वार्द के पश्चात्तापं न कुर्वन्तीति दर्शयितुमाह मूत्रकारः-'जेहिं काले' इत्यादि। मूलम्-जहिं कोले परितं न पच्छा परितप्पए। ते धीरों बंधणुम्मुक्का नविखंति जीवियं ॥१५॥ छाया-यैः काले पराक्रान्तं न पश्चात् परितप्यन्ते । ते धीरा बन्धनोन्मुक्ताः नाकांक्षन्ति जीवितम् ॥१५।। वैभव के अभिमान में आकर तथा यौवन के मद में चूर होकर जो कार्य किये जाते हैं, अवस्था बीत जाने पर अब उनका स्मरण हृदय में शल्य की तरह खटकता है ॥१४॥ किन्तु उच्चकोटि के महापुरुष भविष्यत् में सुख उत्पन्न करनेवाले तप एवं संयम का अनुष्ठान करते हैं। उन्हें वृद्धावस्था में पश्चात्ताप नहीं करना पड़ता। इस तथ्य को दिखलाते हुए सूत्रकार कहते हैं-'जेहिं काले' इत्यादि। शब्दार्थ- 'जेहि-यैः' जिन पुरुषोंने 'काले-काले' धर्मोपार्जन कालमें 'परिकत-पराक्रान्तम् ' धर्मोपार्जन किया है 'ते-ते' वे पुरुष 'पच्छापश्चात् ' पीछे से 'न परितप्पए-न परितप्यते' पश्चात्ताप नहीं करते हैं 'बंधणुम्मुक्का-बन्धनमुक्ताः' बन्धन से छूटे हुए 'धीरा-धीराः' वे धीर पुरुष 'जीवियं-जीवितम्' असंयमी जीवनकी 'नावकंखति-नावका क्षन्ति' इच्छा नहीं करते हैं ॥१५॥ જઈને તથા યૌવનના મદમાં ભાન ભૂલીને જે કાર્યો કર્યા છે, તેનું સ્મરણ હવે આ વૃદ્ધાવસ્થામાં હૃદયની અંદર કાંટાની જેમ ખટકે છે” ૧૪ અજ્ઞાની માણસેને પાછળથી પસ્તાવું પડે છે, પણ ઉચ્ચકેટિના મહાપુરુષે ભવિષ્યમાં સુખ ઉત્પન્ન કરનારા તપ અને સંયમની આરાધના કરે છે. તેમને વૃદ્ધાવસ્થામાં પશ્ચાત્તાપ કરવે પડતું નથી. આ તથ્યને હવે સૂત્ર ४२ ५४८ रे छ-'जेहिं काले' त्याह साथ-'जेहि-यैः' २ ५३थे। में काले-काले' धपान मा परिक्वंतंपराक्रान्तम्' ध पान यु छ 'ते-ते' ते ५३५ पच्छो-पश्चात्' पाछथी 'न परितप्पर-न परितप्यते' परताव।२di नथी. 'बंधणुम्मुक्का-बन्धनोन्मुक्ताः' नया टेस 'धीरा-धीराः' धी२ ५३५ 'जीवियं-जीवितम्' असभी पननी 'नाव कंखति-नावकांक्षन्ति' २७। ४२di नथी. ॥१५॥ For Private And Personal Use Only Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थवोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. ४ स्खलितस्य साधोरुपदेशः १८१ अन्वयार्थः--(जेहिं) यैः पुरुषैः (काले) काले धर्मोपार्जनकाले (परिकतं) पराक्रान्तं धो गर्जनं कृतम् (ते) ते पुरुषाः (पच्छा) पश्चात् (न परितप्पए) न परितप्यन्ते पश्चात्तापं न कुर्वन्ति (बंधणुम्मुक्का) बन्धनमुक्ताः (धीरा) धीरा:महासत्वाः (जीवियं) जीवितं असंयमजीवनं (नाक खंति) नावकांक्षन्ति नेच्छन्तीति ॥१५॥ टीका-'जेहिं' यैरात्महितकर्तृभिः 'काले' धर्मोपार्जनसमये 'परिवत' पराक्रान्तम् , इन्द्रियकषायाणां परानयाय समुद्योगः कृतः। ते ते तादृशाः 'धीरा' कर्मविदारणे शौर्यादिगुणोपपन्नाः। पश्चात् मरगकाले-अपगतयौवने वृद्धाव. स्थायाम् । 'न परितप्पंते' न परितप्यन्ते, पश्चात्तापं न कुर्वन्ति शोकाग्निना दग्धान भवन्ति । 'बंधणुम्मुका' बन्धनमुक्ताः स्यादिवन्धनरहिताः 'ते' ते 'धीराः महापुरुषाः 'जीवियं' जीवितमसंयमजीवनम् 'नावखंति' नावकांक्षन्तिनाभिलषन्ति । अन्वयार्थ--जिन्होंने समय पर पराक्रम किया अर्थात् धर्मसेवन किया है, वे बाद में पश्चात्ताप नहीं करते । बन्धन मुक्त धीर पुरुष असंयम-जीवन की आकांक्षा नहीं करते ॥१५॥ टीकार्थ--आत्मा का हित करनेवाले जिन विवेकशील दीर्घदर्शी पुरुषों ने धर्मोपार्जन के अवसर पर पराक्रम किया है अर्थात् इन्द्रियों और कषायों के निग्रह के लिए उद्योग किया है, वे कर्मविदारण में शरता आदि गुणों से सम्पन्न भीरपुरुष मरण के समय या यौवन व्यतीत हो जाने पर वृद्धावस्था में परिलाप नहीं करते। उन्हें शोक की अग्नि में दग्ध नहीं होना पडता । स्त्री आदि के बन्धन से रहित वे धीर पुरुष अ यममय जीवन की आकांक्षा नहीं करते। સૂત્રાર્થ–જેમણે યોગ્ય અવસરે પરાક્રમ કર્યું છે. એટલે કે ધર્મનું સેવન કર્યું છે, તેમને પાછળથી પસ્તાવું પડતું નથી. બધન મુક્ત ધીર પુરૂષ અસંયમી જીવનની આકાંક્ષા રાખતા નથી. મનપા ટીકાર્ય–આત્મહિતની ખેવના રાખનારા જે વિકશીલ પુરૂષો ભવિષ્ય. કાલીન સુખને વિચાર કરીને ધર્મોપાર્જનને અવસર આવે ધર્મકરણમાં પ્રવૃત્ત થાય છે-જેઓ ઈન્દ્રિયે અને કષાયેલના નિરહ માટે પ્રયત્નશીલ રહે છે–એવાં કર્મવિદારણમાં શૂરતા આદિ ગુણોથી સંપન્ન ધીર પુરૂને મરણને સમય નજીક આવે ત્યારે અથવા યૌવન વ્યતીત થઈને વૃદ્ધાવસ્થા આવે ત્યારે પસ્તાવું પડતું નથી. તેને શેકની અગ્નિમાં શેકાવું પડતું નથી. સ્ત્રી આદિ બંધનથી રહિત તે ધીરપુરૂષે સંયમરહિત જીવનની ઈચ્છા કરતા નથી, For Private And Personal Use Only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - सूत्रकृताङ्गसूत्र धर्मोपार्जनकालस्तु प्रायः सर्व एव भवति विवेकिनाम् । यतो धर्मस्यैव सर्वतः प्राधान्यात् पुरुषार्थाऽवसरे, प्रधानस्यैव उपार्जनं क्रियमाणं दृष्टम् । अत आ बाल्यात् ये संयमानुष्ठाने धर्मसाधने समुद्यतास्त एव धीराः। इत्थंभूता धीरा आशैशवादम मनुष्ठाय कर्मविनाशने समर्थाः। अत एव कर्मवन्धनरहिता असंयमसंबद्धं जीवनं नावकांक्षन्ति । जीविते मरणे वा निःस्पृहाः सर्वदा सर्वथा संयमोद्यममतय एव भवन्ति ॥१५॥ नारीपरीषहस्याऽतिदुरूहत्व दर्शयति मूत्रकारः-'जहा नई' इत्यादि । मूलम्-जहा नई वेयरणी दुतरा इंह संमंता। . एवं लोगंसि नारीओ दुरुत्तरी अमईमया ॥१६॥ छाया--यथा नदी वैतरणी दुस्तरेह मुसंमता। ___एवं लोके हि नार्यों दुस्तरा अमतिमता ॥१६॥ . आशय यह है विवेकवान् जनों के लिए सभी समय धर्माचरण के लिए होता है । धर्म ही सब में प्रधान है और पुरुषार्थ के अवसर पर प्रधान वस्तुका उपार्जन करना ही देखा जाता है । अतएव बाल्या. वस्था से ही जो संयम के अनुष्ठान या धर्म के साधन में उद्यत हैं, वही वास्तव में धीर कहलाते हैं। ऐसे धीर पुरुष शैशव (बालपन से) अवस्था से ही धर्म का अनुष्ठान करके कर्मविनाश करने में समर्थ होते हैं। अतएव जो कर्मबन्ध से रहित हैं वे असंयममय जीवन की अभिलाषा नहीं करते हैं । वे जीवन में और मरण में निस्पृह होते हैं । सदा सर्वक्ष संघमपालन के ही अभिलाषी होते हैं ॥१५॥ આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે વિવેકવાન પુરૂ પિતાની જીવનની ક્ષણે ક્ષણને ઉપગ ધર્માચરણમાં કરે છે. ધર્મ જ સૌથી ઉત્તમ છે. તે ઉત્તમ વસ્તુનું ઉપાર્જન કરવામાં જ વિવેકવાન પુરુષે પ્રયત્નશીલ રહે છે. તેથી જેઓ બાલ્યાવસ્થાથી જ સંયમના અનુષ્ઠાનમાં અથવા ધર્મના સાધનમાં પ્રવૃત્ત રહે છે, તેને જ ખરી રીતે ધીર કહી શકાય છે. એવાં ધીર પુષે બાલ્યાવસ્થાથી જે ધર્મનું પાલન કરીને કમને ક્ષય કરવા લાગી જાય છે. તેથી તેઓ કર્મને ક્ષય કરીને મોક્ષ પ્રાપ્ત કરવાને સમર્થ બને છે. એવા પુરુષે કર્મબન્ધથી રહિત હોય છે, તેઓ કદી પણ અસંયમી જીવનની અભિલાષા સેવતા નથી. તેઓ જીવન અને મરણના વિષયમાં નિઃસ્પૃહ હોય છે. સંયમનું પાલન કરતાં કદાચ મૃત્યુને ભેટવું પડે તે પણ તેઓ ગભરાતા નથી તેઓ સદા સંયમપાલનની જ અભિલાષાવાળા હોય છે. મનપા For Private And Personal Use Only Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ.३ ३.३ स्खलितस्य साधोरुपदेशः १८३ अन्वयार्थ:--(जहा) यथा (इह) इहास्मिन् लोके (वेयरणी नई) वैतरणी नदी (दुरुत्तरा समता) दुस्तरा संमता दुःखेन तर्तुं योग्या (एवं) एवम नेन प्रकारेण (लोगंसि) लोके (नारीभो) नार्यः स्त्रियः (अमहमया) अमतिमता-विवेकशून्यपुरुषेण (दुरुत्तरा) दुस्तरा भवतीति ॥१६॥ टीका--'जहा' यथा 'वेयरणी' वैतरणी 'नई' नदी 'दुत्तरा' दुस्तरा इहलोके संमता, अत्यन्तवेगवाहितया विषमतटबत्तया च वैतरणी नदी अनिष्णातैस्त मशक्या भवति । नदीसंतरणे कृतमतयः एव तां तरन्ति । 'एवं' एवं प्रकारेण __ स्त्री परीषह को सहन करना अत्यन्त कठिन है, सूत्रकार यह दिखलाते हुए कहते हैं--'जहा नई' इत्यादि। शब्दार्थ-'जहा-यथा' जैसे 'इह-इह' इस लोकमें 'वेयरणी नईवैतरणीनदी' वैतरणी नदी 'दुरुत्तरा संमता-दुस्तरा संमता' अनिष्णात जनोंसे दुस्तरमानी गई है 'एवं-एवम्' इसी प्रकार 'लोगसि-लोके' इस लोकमें 'नारीओ-नार्यः' स्त्रियां 'अमई मया-अमति मता' विवेक शून्य पुरुष से 'दुरुत्तरा-दुस्तरा' दुस्तर मानी गई है ॥१६॥ ___ अन्वयार्थ--जैसे लोक में वैतरणी नदी को पार करना कठिन है, उसी प्रकार विवेकहीनजनके लिए स्त्रियां दुस्तर हैं ॥१६॥ टीकार्थ-वैतरणी नदी को पार करना कठिन माना गया है। यह तीव्र वेगके साथ बहती है और उसके तट बडे विकट होते हैं। अतएव अनिपुणपुरुष उसे तिर नहीं सकते । उसे वही लोग पारकर હવે સૂત્રકાર એ વાત પ્રકટ કરે છે કે સ્ત્રી પરીષહને સહન કરે ઘણે भु छे-'जहा नई' छत्याह शहाथ-'जहा-यथा' २वी शते 'इह-इह' Amati वेयरणीनई -वैतरणीनदी' वैत२६ नही 'दुरुत्तरा समता-दुस्तरा संमता' मनात भासाथी हुस्तरभनाये। छ. 'एवं-एवम्' मारे 'लोगसि-लोके' मा 'नारीओ-नार्यः' श्री. 'अमईमया-अमतिमता' विवे शून्य ५३५थी 'दुरुत्तरा-दुस्तरा' स्तर માનવામાં આવેલ છે ૫૧દા સૂત્રાર્થ–જેવી રીતે લેકમાં વૈતરણી નદીને પાર કરવાનું કાર્ય અતિ કઠણ ગણાય છે, એ જ પ્રમાણે સ્ત્રી પરીષહને જીતવાનું કાર્ય વિવેકહીન પુરુષને માટે हु०७२ गाय है. ॥१६॥ ટકાઈ–વૈતરણ નદીને પાર કરવી તે ઘણું કઠણ ગણાય છે. તે તીવ્ર વેગે વહે છે અને તેના તટ ઘણા વિકટ છે. તેથી અનિપુણ પુરુષો તેને તરી શકતા નથી. તેને તે લેકે જ પાર કરી શકે છે કે જેઓ તેને પાર કરવાનો For Private And Personal Use Only Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतामसूत्रे 'लोगंसि' लोके अस्मिन् लोके 'नारीओ' नार्य: 'अभईमया' अमतिमता=अविवेकि पुरुषेण 'दुरुत्तरा' दुस्तरा दुःखेन तत्तुं योग्या । सा हि स्वकीयबल्गुवचनहावभावः विद्वांसमपि कर्षति, मार्गादधः पातयति । प्रमदा सर्वथा नरं पातयितु मिच्छति । तदुक्तम्."ममदा ह्युत्पथं नेतुं प्रयतन्ते शरीरिणाम् ।" सर्वा अपि स्त्रियः कलं कायैव भवति यथा स्वर्णमभवापि शृंखला बन्धनकारिका भवति । तदुक्तं 'काम कुलकलं काय कुल नातापि कामिनी । . श्रृंखला स्वर्णजाताऽपि बन्धनाय न संशयः ॥१॥ हे संसार ! तव पारगमनमशक्यं न भवेत् यदि मध्ये इयं स्त्री प्रतिबन्धिका न भवेत् तदुक्तंपाते हैं जो पार करने का सुदृढ संकल्प कर लेते हैं । इमी प्रकार इस लोक में स्त्री परिषह को जीतना अविवेकी पुरुषों के लिए अत्यन्त कठिन है। स्त्री अपने मधुरवचनों एवं हावभावों से विद्वान् पुरुषको भी माकर्षित कर लेती है और सन्मार्ग से स्खलिन कर देती है। वह पुरुष को सदैव गिराने की इच्छा करती है। कहा भी है-'प्रमदा [त्पथं नेतुं' इत्यादि । .. स्त्रियां पुरुषों को कुमार्ग पर ले जानेका ही प्रयत्न करती हैं।' .. सप स्त्रियां कलंक के लिए ही होती हैं जैसे सोने की सांकल भी बन्धनकारिणी ही होती है । कहा भी है--कामं कुलजलंकाय' इत्यादि। ___उच्चकुलीन कामिनी भी कुल के कलंक का ही कारण होती है, जैसे स्वर्ण की बनी सांकल भी बन्धन के लिए होती है । इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है ॥१॥ દઢ સંકલ્પ કરી લે છે. એ જ પ્રમાણે આ લેકમાં સ્ત્રી પરીષહને જીતવાનું કાર્ય અવિવેકી પુરુષોને માટે તે ઘણું જ મુશ્કેલ છે. સ્ત્રી તેનાં મધુર ચને અને હાવભાવથી વિદ્વાન પુરુષને પણ આકપીને સન્માર્ગથી ભ્રષ્ટ કરીને કુમાર્ગે દેરી જાય છે. તે પુરુષનું પતન કરવાને જ સદા ઉત્સુક રહે છે કહ્યું પણ છે કે “ીએ પુરુષને કુમાર્ગે ખેંચી જવાનો પ્રયત્ન કરે છે.' 'प्रमदा ह्युत्पथं नेतुं' त्या જેવી રીતે સેનાની સાંકળ પણ બંધનકારિણી જ હોય છે. એ જ પ્રમાણે સ્ત્રીઓ પણ પુરુષને કુમાર્ગે ચડાવીને સંસારબન્ધમાં કારણભૂત બને છે यु ५५ छ ?-कामं कुल कलंकाय' याहि For Private And Personal Use Only Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ रु. ४ स्खलितस्य साधोरुपदेशः १८५ 'संसार ! तव दुस्तारपदवी न दधीयसी। अन्तरा दुस्तरा न स्युर्यदिरे मदिरेक्षणाः ॥१॥ तावदेव पुरुषः सन्मार्गे तिष्ठति यावत् स्त्रीसंपर्को न भवेत् , तत्संपर्के जाते सर्वमपि विस्मृत्य तत्रैवासक्तो भवति । तदुक्तं-- सन्मार्गे तावदास्ते प्रभवति पुरुषस्तावदेवेन्द्रियाणां, लज्जां तावद्विधत्ते विनयमपि समालम्बते तावदेव । भूचापाऽऽकृष्टमुक्ताः श्रवणपथजुषो नीलपक्ष्माण एते, यारल्लीलावतीनां न हृदि धृतिमुषो दृष्टिवाणाः पतन्ति ॥१॥ तदेवं वैतरणीनदीवत् इमा दुस्तरा नार्यों भवन्तीति श्लोकाऽभिमायः ॥१६॥ हे संसार ! तुझे पार करना कठिन न होता यदि बीच में यह मारी आडी न आई होती ! कहा भी है-संसार ! तव दुस्तार' इत्यादि। ___ अरे संसार ! यदि बीच में ये दुस्तर नारियां न होती तो तेरी यह जो 'दुस्तार' पदवी है उसका कोई मूल्य न होता । अर्थात् जी स्प बाधा के कारण ही संसार दुस्तर है। यह बाधा नहीं होती तो सुतर हो जाता। .. पुरुष तभी तक सन्मार्ग पर स्थिर रहता है जब तक उसका सी के साथ सम्पर्क नहीं होता। स्त्री के साथ सम्पर्क होने पर सब कम भूलकर उसी में आसक्त हो जाता है। कहा है--सन्मागे तावदास्ते' इत्यादि। જેવી રીતે સેનાની સાંકળ પણ બન્ધનને માટે જ હોય છે, એ જ પ્રમાણે ઉચ્ચકલીન કામિની પણ કુળને કલંક લગાડવામાં કારણભૂત બને છે, તેમાં સહેજ પણ સંદેહ નથી. ૧ - જે આ નારી સંસારમાં ન હોત, તે આ સંસારને પાર કરવાનું કઠણ २४ ५त नही. यु ५५ छे -'संसार तव दुस्तार' त्याह હે સંસાર ! જે તું આ દુસ્તર નારીઓથી ચુકત ન હોત, તે તારી આ જે “દુસ્તર' પદવી છે તેનું કોઈ મહત્વ જ ન રહેત !” આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે સ્ત્રિઓ રૂપ અવરોધને કારણે જ આ સંસાર દુસ્તર છે. જે તે અવરોધનું અસ્તિત્વ જ ન હોત તે સંસારને પાર કરવાનું કાર્ય સરળ બની જાત. પુરુષ ત્યાં સુધી જ સન્માર્ગ પર સ્થિર રહી શકે છે કે જ્યાં સુધી તેનો સ્ત્રિની સાથે સંપર્ક થતું નથી. સ્ત્રીના સંપર્કમાં આવતાં જ તે સઘળું ભૂલી જઈને સ્ત્રીમાં આસક્ત થઈ જાય છે. કહ્યું પણ છે કે 'सन्मार्गे तावदास्ते' त्याहसू० २४ For Private And Personal Use Only Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रहतास्त्रे मूलम्-जेहि नारीण संजोगा पूर्यणा पिटुंओ कया। __ सवयं निराकिच्चा ते ठिया सुसमाहिए ॥१७॥ छाया--यनारीणां संयोगाः पूजना पृष्ठतः कृताः। सर्वमेतन्निराकृत्य ते स्थिताः सुसमाधिना ॥१७॥ पुरुष तभी तक सन्मार्ग पर आरूढ रहता है, तभी तक इन्द्रियों को काबू में रख पाता है, तभी तक लज्जाशील रहता है और तभी तक विनय का अवलम्बन (आधार) लेता है, जब तक भौहरूपी धनुष्य को खींच कर छोडे हुए, श्रवणपथ को प्राप्त हुए, नीले पंखवाले, धैर्य को नष्ट करनेवाले स्त्रियों के दृष्टिवाण हृदय में नहीं लगते हैं ॥१॥ इस प्रकार इस गाथा का अभिप्राय यही है कि नारियां वैतरणी नदी के समान दुस्तर हैं ॥१६॥ शब्दार्थ-'जेह-यैः' जिन पुरुषोंने 'नारीणसंजोगा-नारीणां संयोगा' स्त्रियोंका संबंध 'पूयणा-पूजना' और कामशृंगारको 'पिडओ कया-पृष्ठतः कृताः' छोड दिया है 'ते-ते' वे पुरुष 'एयं सव्वं निराकिच्चा-एतत् सर्व निराकृत्य' समस्त उपसर्गों को दूर करके 'सुस. माहिए-सुसमाधिना' प्रसन्न चित्त होकर 'ठिया-स्थिताः' रहते हैं।१७। પુરુષ ત્યાં સુધી જ સન્માર્ગ પર આરૂઢ રહે છે–ત્યાં સુધી જ ઇન્દ્રિ કાબૂમાં રાખી શકે છે, ત્યાં સુધી જ લજજાશીલ રહે છે અને ત્યાં સુધી જ વિનયનું અવલંબન (આધાર) લે છે કે જ્યાં સુધી ભવાં રૂપી ધનુષને ખેંચીને છેડેલાં, શ્રવણુપથ પર અગ્રેસર થતાં, નીલ પાંખવાળાં, ધૈર્યને નષ્ટ કરનારા એનાં દષ્ટિબાણે તેના હૃદયને ઘાયલ કરતાં નથી.” આ ગાથા દ્વારા સૂત્રકાર એ વાતનું સમર્થન કરે છે કે સ્ત્રિઓની આસક્તિને ત્યાગ કરવાનું કાર્ય વૈતરણી નદીને પાર કરવા જેવું દુષ્કર છે. ૧૨ शाय-जेहि-यः' रे ५३वास 'नारीणसंजोगा-नारीणां संयोगाः श्रियाना an५ 'पूयणा-पूजना' सरे मश्रृंगारने 'पिटुओ कया-पृष्ठतः कृताः' छोरा छ, 'वे-ते' ते ५३ष। 'एयं सव्व-निराकिच्चा-एतत्-सर्वे निराकृत्य' ५ ७५नि ६२ 3शन 'सुसमाहिए-सुसमाधिना' प्रसन्न वित्त थान 'ठिया-स्थिताः' २६ . ॥१७॥ For Private And Personal Use Only Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. ४ स्खलितस्य साधोरुपदेशः १७ अन्वयार्थ:--(जेहिं) यः पुरुषैः (नारीण संजोगा) नारीणां संयोगा। संबन्धाः 'पूयणा' पूजनाकामविभूषा (पिट्ठओ कया) पृष्ठतः कृताः परित्यक्ता (ते) ते पुरुषाः (एयं सव्वं निराकिच्चा) एतत् सर्व निराकृत्य (मुसमाहिए) सुस. माधिना (ठिया) स्थिता संपमिनः स्थिता भवन्तीति ॥१७॥ टीका--'जेहिं' यः विवेकिभिः स्त्रीसंबन्धो विषमफलकः इति विज्ञाव 'नारीण संजोगा' नारीणां संयोगा। 'पिट्टभो कया' पृष्ठतः कृताः परित्यक्ताः। तथा 'पूपणा' पूजना=स्त्रियमनुकूलयितु वस्त्रालंकारादिना स्त्रीणां पूजनमपि परि त्यक्तम् । 'सव्वमेयं निराकिच्या' सर्वम्-एतत् ललनासंबन्धम् , क्षुत्पिपासादिकप्रतिकूलोपसर्गनिवह च निराकृत्य महापुरुषैरनुष्ठित मार्गमाश्रित्य कृतगमनमतयः । ते ठिया सुसमाहिए' ते स्थिताः सुसमाधिना, ते स्वस्थचित्तवृत्तिरूपेण अन्वयार्थ--जो पुरुष नारियो के संयोगों का तथा कामविभूषा का परित्याग कर चुके, वही यह सब त्याग करके सुसमाधि में स्थित होते हैं ॥१७॥ टीकार्थ--जिन विवेकविभूषित. पुरुषोंने स्त्रियों के सम्बन्ध को विषम फलप्रद जानकर त्याग दिया है तथा जिन्होंने स्त्रीको अनुकूल बनाने के लिए वस्त्र अलंकार आदि से सस्कृत करने का त्याग कर दिया है, वे इन सब नारी संबंधों को तथा क्षुधा पिपासा आदि प्रतिकूल उपसर्गों को हटाकर महापुरुषों द्वारा आचीर्ण (स्वीकृत) मार्ग का आश्रय छेतें हैं और उसी पर चलने का संकल्प करते हैं, वही सुसमाधि में स्थित होते हैं। उनकी चित्तवृत्ति शुद्ध रहती है। अनुकूल उपसर्ग उपस्थित होने पर भी वे महाहूर के समान स्थिर સૂત્રાર્થ–જે પુરુષે નારીઓના સંગોને તથા કામવિભૂષાને પરિ ત્યાગ કરી ચૂક્યા છે, તેઓ સઘળી વસ્તુઓને ત્યાગ કરીને સુસમાધિમાં સ્થિર રહી શકે છે. એટલે કે તેમનું ચિત્ત જ વિશુદ્ધ રહી શકે છે. ૧ળા '' ટીકાર્ય–જે વિવેકવાન પુરુષેએ સ્ત્રિઓના સંબંધને વિષમ ફલપ્રદ જાણુને તેને પરિત્યાગ કર્યો હોય છે, તથા જેમણે સ્ત્રિઓને વશ કરવાને માટે વસ્ત્ર, અલંકાર આદિથી તેને સત્કાર કરવા અને તેને રિઝવવાને ત્યાગ કર્યો છે, તે પુરુષે જ સ્ત્રિ એ પ્રત્યેની આસક્તિનો ત્યાગ કરીને તથા ભૂખ. તૃષા આદિ ઉપસર્ગો પર વિજય પ્રાપ્ત કરીને મહાપુરુષે દ્વારા આશીર્ણ (સ્વીકૃતી પામેલા) માગેને આશ્રય લે છે, અને તે માર્ગે જ આગળ વધવાને સંકલ્પ કરે છે. તેઓ જ સુસમાધિમાં સ્થિત-રહી શકે છે. તેમની ચિત્તશત્તિ શુદ્ધ રહે છે. અનુકૂળ ઉપસર્ગો આવી પડે ત્યારે પણ તેઓ મહા હદ (સરોવરના For Private And Personal Use Only Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir L andutomania - - - सूत्रकृताङ्गमचे यवस्थिताः । ते हि अनुकूलोपसगैः महादयत् क्षोभरहिता भवन्ति । अन्ये तु विष याभिलाषिणो ललनादिपरीषहै जिताः संसारे अङ्गारपतितमीनवद् रागाग्निना देखमाना अवतिष्ठन्ते इति ॥१७॥ ये ललनापरीषहेण पराजिताः तेषां कीदृशं फलं भवतीति दर्शयितु सूत्रकार उपक्रमते-'एए ओघ' इत्यादि। मूलम्-एएं ओघंतरिस्तंति समुदं ववहारिणो। - जत्थ पाणा विसंन्नासि किंचती सर्यकम्मुणा॥१८॥ छाया-एते ओघं तरिष्यन्ति समुद्रं व्यवहारिणः । __यत्र पाणा विषण्णाः सन्तः कुत्यन्ते स्वकर्मणा ॥१८॥ रहते हैं । जो इनसे विपरीत वृत्तिवाले क्षुद्र पुरुष होते हैं विषयों के अभिलाषी और स्त्री परीषह आदि से पराजित होते हैं और परिणामतः भंगार में पडे हुए मीन की तरह संसाररूपी अंगार से जलते रहते हैं॥१७॥ जो स्त्री परीषह से पराजित होते हैं, उन्हें किस प्रकार का फल प्राप्त होता है, यह दिखलाने के लिए सूत्रकार कहते हैं-'एए ओघं' इत्यादि। - शब्दार्थ--'एए-एते' अनुकूल और प्रतिकूल उपसर्गों को जीतने वाले ये पूर्वोक्त संयमी पुरुष 'ओघ-ओघं' चातुर्गतिक संसार को सरिस्संति-तरिष्यन्ति' पार करेंगे जैसे 'समुदं-समुद्रम्' समुद्रको विवहारिणो-व्यवहारिणः' व्यापार करनेवाले वणिकूजन पार करते हैं जत्य-यत्र' जिस संसार में विसन्नासि-विषण्णाः सन्तः' पडे हुए 'पाणाआणा' प्राणी-जीव 'सयकम्मणा-स्वककर्मणा' अपने कर्मों के बलसे किषचंति--कृरयन्ते' पीडित किये जाते हैं ॥१८॥ સમાન સ્થિર રહે છે. પરંતુ જે પુરુષ તેના કરતાં વિપરીત વૃત્તિવાળા હોય છે. તેઓ વિષમાં આસક્ત રહે છે. એવા પુરુષ સ્ત્રી પરીષહ આદિ દ્વારા પરાજિત થાય છે. તેને પરિણામે તેઓ અંગારમાં પડેલ માછલાની માફક સંસારરૂપી અગારા વડે શેકાતા રહે છે. ૧ળા * જે ક્ષક પુરુષ સ્ત્રી પરીષ દ્વારા પરાજિત થાય છે તેમને કેવું ફલ बाग ५3 छ, त सूत्र४२ व ५४८ ४रे छे-.'एए ओघ' त्या हा-'एए-एते' अनुप भने प्रति पनि तपापाजामा yatsत सयभी पु३५ 'ओघं-ओघ' यार तिवाणा ससारने तरिस्संति-तरिष्यन्ति' पा२ ४२२ वी शत 'समुई-समुद्रम्' समुद्रने विवहारिणो-व्यवहारिणः' ध्यापार ४२imagen पा२४२ छ, 'जत्थ-यत्र' संसारमा 'विसन्नासिविषण्णाः सन्तः' ५ 'पाणा-प्राणाः' प्री-७१ 'सयकम्मुणा-स्वकर्मणा' पाताना मीना थी 'किच्चवि-कृत्यन्ते मि ४२१ामा मावे छे. ॥१८॥ For Private And Personal Use Only Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समपार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. ४ स्खलितस्य साधोरुपदेशः १८९ . अन्वयार्थः--(एए) एते अनुकूलमतिकूलोपसर्गविजेतारः, (ोघं) ओघचातुर्गतिकसंसारं (तरिस्संति) तरिष्यन्ति-पारं यास्यन्ति यथा (समुई) समुद्रम् (ववहारिणो) व्यवहारिणः (जत्य) यत्र यस्मिन् संसारे (विसन्नासि) विषण्णाः स्थिताः सन्तः (पाणा) माणा: जीवाः (सयकम्मुणा) स्वकर्मणा स्वकृतकर्मबळेन (किचंती) कृत्यन्ते-पीडयन्ते इत्यर्थः ॥१८॥ टीका-'एए' अनन्तरोदीरितललनादिपरीषहजेतारः ते सर्वेऽपि दुस्तारमपि 'ओघं' ओघं संसारौघम् 'तरिस्संति' तरिष्यन्ति तथा तीर्णा बहवः तरन्ति च । 'समुई' समुद्रम् 'ववहारिणो' व्यवहारिणो वणिजः। यथा-यानपात्रमारुन व्यवहारिणः समुद्रं तरन्ति । एवं भावौघं संसारसागरं स्यादिप्रतिकूलोपसर्गजेतारः संयमे कृतमतयः संयमात्मकंयानपात्रमालम्ब्य तरिष्यन्ति । भावौघं ___ अन्वयार्थ--अनुकूल और प्रतिकूल उपसर्गों को जीतनेवाले पुरुष संसार प्रवाह को पार कर जाएंगे जैसे व्यापारी सागर को पार कर जाते हैं। जिस संसार में स्थित जीव अपने कर्मों के कारण पीडित होते हैं ॥१८॥ टीकार्थ--जो पुरुष पूर्वोक्त स्त्री परीषह आदि को जीत लेते हैं, बे सभी इस दुस्तर संसार प्रवाह को पार कर जाएँगे। बहुतों ने इसे पार किया है और अब भी बहुत से पार कर रहे हैं। जिस प्रकार यणिक जहाज के सहारे समुद्र को पार करते हैं, इसी प्रकार स्त्री आदि के अनुकूल एवं प्रतिकूल उपसर्गों पर विजय प्राप्त करनेवाले, संयम में सुस्थिर बुद्धिवाले पुरुष संयमरूपी जहाजका अव. સૂવાર્થ—અનુકૂળ અને પ્રતિકૂળ ઉપસર્ગો પર વિજય મેળવનારા પુરુષ સંસારપ્રવાહને તરી જશે. જેવી રીતે સાહસિક વ્યાપારી પિતાના જહાજ વડે સમુદ્રને પેલે પાર જાય છે, એ જ પ્રમાણે તે મહાપુરુષે પણ સંસાર સાગરને પાર કરી જશે આ સંસારમાં રહેલા જ પિતાનાં કર્મોને કારણે દુઃખી થાય છે. ૧૮ 1 ટીકાર્ય–જેવી રીતે વેપારી જહાજની મદદથી સમુદ્રને પાર કરી શકે છે. જે પ્રમાણે પરીષહ આદિને જીતનારા મહાપુરૂષો આ સ્તર સંસાર પ્રવાહને પાર કરશે. આ પ્રકારે અનેક મહાપુરુષોએ તેને પાર કર્યો છે અને અનેક મહાપુરુષે વર્તમાનકાળે પણ તેને પાર કરી રહ્યા છે. જેમ વ્યાપારીઓ જહાજને આધાર લઈને સમુદ્રને પાર કરે છે, એ જ પ્રમાણે શ્રી આદિના અનુકૂળ અને પ્રતિકૂળ ઉપસર્ગો પર વિજય મેળવનારા, સંયમનું દઢતાપૂર્વક પાલન કરનારા વિવેકવાન લેકે સંયમરૂપી જહાજનું અવલંબન For Private And Personal Use Only Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतास्त्रे 'विशिनष्टि । 'जत्थे'त्यादि । 'जस्थ' यत्र संसारसागरे प्राणिनो विषण्णाः स्थिताः सन्तः ललनादिविषयासक्ताः स्वस्वकर्मणा पापेन कृत्यंते पीडयन्ते । एतादृशमतिदुस्तरमपि संसारसागरं प्रतिकूलाग्रुपसर्गत्यागेन संयमानुष्ठानादिना च करणेन संतरन्ति भावशुद्धा विद्वांस इति ॥१८॥ संप्रति प्रकृतोपसंहरन्नुपदेशान्तरमाह-'तं च भिक्खू परिणाय' इत्यादि। मूलम्-'च भिक्खू परिणाय सुब्बए समिए चरे। मुसावायं च वजिज्जा अदिनांदाणं च वोसिरे ॥१९॥ छाया-तं च भिक्षुः परिज्ञाय सुव्रतः समितश्चरेत् । ____ मृषावादं च वर्जयेददत्तादानं च व्युत्सृजेत् ॥१९॥ लम्बन लेकर संमार सागर को पार करते हैं। जिनका मन नारी आदि विषयों में आसक्त है, वे जिस संसार में अपने किये पापकर्मों के कारण पीडा पाते है, ऐसे दुस्तर संसारसागर को भी प्रतिकूल आदि उप. सों का त्याग करने से तथा संयम के अनुष्ठान आदि के द्वारा पार किया जा सकता है। किन्तु इसे वही पार कर पाते हैं जिनकी भावना विशुद्ध होती है और जो सम्यग्ज्ञान से सम्पन्न होते है ॥१८॥ ___ अब प्रस्तुत विषय का उपसंहार करते हुए सूत्रकार उपदेश करते है--'तं च मिक्खू' इत्यादि। शब्दार्थ--भिक्खू-भिक्षुः साधु 'तं च परिणाय-तं च परिज्ञाय' पूर्वोक्त कथन को जानकर अर्थात् वैतरणी नदी के जैसी स्त्रियां दुस्तर લઈને સંસારસાગરને પાર કરી શકે છે. પરંતુ જેમનું મન નારી આદિમાં આસક્ત હોય છે. તેઓ સંસારમાં જ અટવાયા કરે છે. આ સંસારમાં સઘળા છ અનંતકાળથી આવાગમન કર્યા કરે છે અને પિતાનાં પાપકર્મોને કારણે પીડા ભોગવે છે. એવા દુસ્તર સંસારસાગરને પણ ઉપસર્ગો અને પરીપ સામે વિજય મેળવનારા લેકે સંયમની આરાધના કરીને તરી શકે છે. જેમની ભાવના શુદ્ધ હોય છે અને જેઓ સમ્યજ્ઞાનથી યુક્ત હોય છે, તેઓ જ તેને તરી શકે છે. ૧૮ હવે પ્રસ્તુત વિષયને ઉપસંહાર કરતા સૂત્રકાર એ ઉપદેશ આપે છે કે 'तं च भिक्खू त्याह शा-'भिक्खू-भिक्षुः' साधु 'तं च परिण्णाय-तं च परिहाय' पूत કથનને જાણીને અર્થાત્ વૈતરણું નદીની જેમ સ્ત્રીઓ દુતર છે ઈત્યાદિ સમ્યક For Private And Personal Use Only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. शु. अ. ३ उ. ४ स्खलितस्य साधोरुपदेशः १९१ अन्वयार्थ:--(भिक्खू) भिक्षु-मुनिः (तं च परिनाय) तं च परिज्ञाय वैत. रणीव स्त्रियो दुरुत्तरा, नायर्योः यैः त्यक्तास्ते समाधिस्थाः संसारे तरंति स्त्रीसंगिनश्च स्वकृतकर्मणा कृस्यन्ते इति ज्ञात्वा (सुबओ) सुव्रतः शोभनव्रतवान (समिए) समितः पञ्चसमितिभिः (चरे) चरेत् संयमानुष्ठानं कुर्यात् तथा (मुसावायं) मृषावादम् (वज्जिज्जा) वर्जयेत् परित्यजेत् तथा (अदिन्नादाणं च) अदत्तादानं च (वोसिरे) व्युस्सजेन्=परित्यजेत् ॥ १९॥ टीका--नार्यों दुस्तरा भवन्ति वैतरणीवत् , ललनासक्ताः स्वकृतकर्मणा संसारकांतारं नातिक्रामन्ति । तदेतत्सर्वम्-'भिक्खू' भिक्षुः निरवद्यमिक्षामिहै इत्यादि सम्यक रूपसे समझकर 'सुब्बओ-सुव्रत' उत्तम व्रतोंवाला पुरुष 'समिए-समिता' पांच समितियों से युक्त होकर 'चरे-चरेत् । संयमका अनुष्ठान करे तथा 'मुसावायं मृषावादम्' असत्यवाद को 'वजिजजा-वर्जयेत्' छोड देवें और 'अदिनादाणं च-अदत्तादानं च' भदत्तादान को 'बोसिरे-व्युस्सृजेत्' त्याग देवें ॥१९॥ .. अन्वयार्थ-स्त्रियों वैतरणी नदी के समान दुस्तर हैं, जिन्होंने स्त्री का परित्याग कर दिया है, वे समाधिस्थ होकर संसार से तिर जाते हैं आर जो स्त्री के साथ संसर्ग रखते हैं वे अपने कर्मों के कारण पीडित होते हैं यह सब जानकर भिक्षु समीचीन व्रतवान् तथा समितियों से युक्त होकर संयम का अनुष्ठान करे। वह मृषावाद का त्याग करे भौर अदत्तादान का भी त्याग करे ॥१९॥ टीकार्थ--जैसे वैतरणी नदी को पार करना आसान नहीं है, उसी ३५थी सभडने 'सुवओ-सुव्रतः' उत्तम व्रतवाणे ५३५ 'समिए-समितः' पाय समितियाथी युक्त यन 'चरे-घरेत्' यिमतु मानुन ४२ तथा 'मुसावायमषावादम्' असत्यवाहन 'वज्जिजा-वर्जयेत्' छोडभने 'अदिन्नादाणं चअदत्तादानं च' महत्ताहाना 'वोसिरे-व्युत्सृजेन्' त्यास ४२. ॥१६॥ સૂત્રાર્થ_ચિઓ વૈતરણ નદીને સમાને દુર છે. જેમણે સ્ત્રીને પરિ ત્યાગ કર્યો છે, તેમાં સમાધિસ્થ થઈને સંસાસાગરને તરી જાય છે, પરંતુ જેઓ સિને સંસર્ગ છેડતા નથી, તેઓ પિતાનાં પાપકર્મોને કારણે પીડા અનુભવે છે. આ વાતને બરાબર સમજી લઈને સાધુએ પાંચ મહાવ્રત, સમિતિઓ આદિથી યુક્ત થઈને સંયમની આરાધના કરવી જોઈએ. તેણે મૃષાવાદ, અદત્તાદાન આદિને ત્યાગ કરવો જોઈએ છેલલા - ટીકાર્ય–જેવી રીતે વૈતરણી નદીના પ્રવાહને પાર કરવાનું કાર્ય સરળ . For Private And Personal Use Only Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे क्षणशीलो यतिः। 'परिणाय' परिज्ञाय-ज्ञपरिझया नारीसंग दुःखजनकं ज्ञात्वा 'मुध्वए' सुव्रता शोमनपंचमहावतादियुक्तः। 'समिए' समित: पंचभिः समितिभिर्युक्तः । चरेत्-विचरेत्-प्रत्याख्यानपरिक्षया स्त्रीसंग परित्यज्य सर्वदा समाहितः सन् संयमाऽनुष्ठाने तत्परो भवेत् । तथा-'मुसावाय' मृपावादम्-स्त्रीसेवनेपिमुक्तिर्भवतीत्याकारकासदर्थप्ररूपणं परिहरेत् । तथा 'अदिन्नादाणं च वोसिरे' अदत्तादानं च व्युत्सृजेत् । दन्तशोधनमात्रादिकमपि अदत्तं सब न गृह्णीयात् , प्रकार नारी के आकर्षण से कार उठना भी सरल नहीं हैं। किन्तु जो पुरुष ललनाओं में आसक्त होते हैं वे अपने पाप कर्म के फलस्वरूप पीटा. ओं का अनुभव करता हैं और संसारकान्तार (अटवी) में ही भटकते रहते हैं। यह बातें जानकर निदोष भिक्षा ग्रहण करनेवाला भिक्षु पांच महाव्रतों से युक्त तथा पांच समितियों से युक्त होकर विचरे । अर्थात् सपरिज्ञा से जानकर प्रत्याख्यान परिज्ञा से स्त्री संग का परित्याग कर दे तथा सर्वदा समाधि में स्थित रहकर संयम के अनुष्ठान में तत्पर रहे। स्त्री का सेवन करने से भी मुक्ति प्राप्त होती है, इस प्रकार के असत् मरूपणरूप मृषावाद का परित्याग करे और अदत्तादान को भी त्याग दे। दांत साफ करने के लिए एक तिनका भी अदसग्रहण न करे, अधिक परिग्रह की तो बात ही दूर रही। और मैथुन आदिका भी નથી, એજ પ્રમાણે સ્ત્રિઓના આકર્ષણથી બચવાનું કાર્ય પણ સરળ નથી. જે પુરુષો લલનાઓમાં આસક્ત થાય છે, તેઓ પોતાનાં પાપકર્મોના કલા વરૂપે પીડાઓને અનુભવ કરે છે, અને તેઓ સંસારરૂપી અટવીમાં પરિભ્રમણ કર્યા કરે છે. આ વાતને સમજી લઈને, નિર્દોષ ભિક્ષા ગ્રહણ કરનારા સાધુએ પાંચ મહાવ્રતનું પાલન કરવું જોઈએ અને પાંચ સમિતિઓથી યુક્ત થઈને વિચર જોઈએ. એટલે કે સ્ત્રી સમાગમને જ્ઞપરિજ્ઞા વડે દુઃખપ્રદ જાણીને પ્રત્યાખ્યાન પરિજ્ઞા વડે તેને પરિત્યાગ કરીને, તથા સદા સમાધિમાં (ચિત્તની વિશુદ્ધિમાં ચિત્તની એકાગ્રતામાં સ્થિત રહીને સંયમના અનુષ્ઠાનમાં પ્રવૃત્ત રહેવું જોઈએ. “સ્ત્રીના સેવનથી પણ મોક્ષ પ્રાપ્ત થાય છે, આ પ્રકારની અસત્ પ્રરૂપણારૂપ મૃષાવાદને તેણે પરિત્યાગ કર જોઈએ તથા અદત્તાદાનને પણ પરિત્યાગ કરવું જોઈએ. દાંત સાફ કરવા માટે પણ એક તિનકાને (તણખલાને-સળીને) તેણે અદત્ત (કેઈએ આપ્યા વિના) ગ્રહણ કરવું જોઈએ નહીં. અદત્ત સળીને ગ્રહણ કરવાને જ જ્યાં નિષેધ છે, ત્યાં અધિક પરિગ્રહની તે વાત જ શી કરવી ! For Private And Personal Use Only Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थवोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ, ४ स्खलितस्य साधोरुपदेशः १९३ किमधिकं परिग्रहणम् । तथा मैथुनाद्यपि सर्वथयोत्सृजेत् । एतेषां मोक्षविघातकतया एभ्यो दूरत एव चरेत् । एतान् परित्यजेदिति भावः ॥१९॥ ____ अहिंसावतं सर्वतः श्रेष्ठतरम् , तदन्यत्सर्वं तस्यैवाङ्गभूतमित्यहिंसाया सर्वतः श्रेष्ठत्वं दर्शयति सूत्रकार:-'उड्रमहे' इत्यादि। मूलम्-उडमहेतिरिय वा, जे केई तस-थावरा । सव्र्वत्थ विरतिं कुजा, "संतिनिध्वाणमाहियं ॥२०॥ छाश:----ऊर्ध्वस्तिर्यगवा ये केचित् त्रसस्थावराः । सर्वत्र निरति कुर्यात् शान्तिनिर्वाणमाख्यातम् ॥२०॥ सर्वथा त्याग कर दे। यह सब दुष्कृत्य मोक्ष के विघातक हैं, अतएप इनसे दूर ही रहे ॥१९॥ अहिंसा व्रत सब व्रतों में प्रधान है। अन्य व्रत उसी के अंग हैं। अतएव सूत्रकार अहिंसा की सर्वश्रेष्ठता को सूचित करते हुए कहते है--'उड्ढमहे' इत्यादि। शनार्थ--'उडूं-ऊर्ध्वम्' ऊपर 'अहे-अधः' नीचे 'तिरिय वातिर्यग् वा' अथवा तिरछा 'जे केई तसथावरा-ये केचन प्रसस्थावरा' जो कोई त्रस और स्थावर प्राणी है 'सव्वस्थ-सर्वत्र' सर्व कालमें विरति-विरतिम्' विरति अर्थात उनके नाशसे निवृत्ति 'कुज्जा-कुर्यात् करनी चाहिये 'संतिनिव्वाणमाहियं-शांतिनिर्वाणमाख्यातम्' ऐसा करने से शांतिरूपी निर्वाण पदकी प्राप्ति कही गई है ॥२०॥ તેણે મિથુન આદિ દુષ્કૃત્યોને પણ પરિત્યાગ કરે જોઈએ, કારણ કે આ દુષ્ક મોક્ષના વિઘાતક છે. તેથી સાધુએ સદા તેનાથી દૂર જ રહેવું જોઈએ ૧લ સઘળાં વતેમાં અહિંસાવ્રત પ્રધાન છે. અન્યત્રતા તેનાં અંગરૂપ છે. તેથી હવે સૂત્રકાર અહિંસાની સર્વશ્રેષ્ઠતાનું પ્રતિપાદન કરે છે. 'उड्ढमहे' त्या: शहा–'उड्द-ऊर्ध्वम्' 6५२ 'अहे-अधः' नीय 'तिरियं वा-तिर्यग वा' अथवा ति२७. 'जे केई तसथावरा-ये केचन त्रसस्थावरा जीवाः'२ । म भने था१२ : छ 'सव्वत्थ-सर्वत्र' सीमा ‘विरति-विरतिम्' पिरति अर्थात् तमना नाशयी निवृत्ति 'कुज्जा-कुर्यात्' ४२वी मे 'संतिनिव्याणमाहिय-शांतिनिर्वाणमाख्यातम्' मे ४२पाथी शांति३पी निकापनी प्राप्ति કહેલ છે. ૨૧ सु० २५ For Private And Personal Use Only Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे अन्वयार्थ:--(उड़) ऊर्ध्वम् (अहे) अधः (विरियं वा) तिर्यग् वा (जे केइ तसथावरा) ये केचन त्रसस्थावरा जीवाः (सम्बत्थ) सर्वत्र पर्वस्थानेषु (विरति) विरतिमाणातिपातनिवृत्ति (कुज्जा) कुर्यात् (संतिनिव्वाणमाहिय) शांतिनिर्वाणमाख्यासम् प्राणातिपातविरतस्य शांतिमोक्षौ अवश्यमेव भविष्यत इति ॥२०॥ ___टीका-'उर्ल्ड' ऊर्ध्वम्-ऊर्वदिशि स्थितान् 'अहे' अधः अघोदिशि स्थितान 'तिरियं वा तिर्यक् वा-तिर्यदिशि स्थितान् एतेन क्षेत्रमाणालिपातो गृहीतः। 'जे केई' ये केचन-तत्र ये केचन 'सथावरा' बसस्थावराः, सन्ति भयं प्राप्नुवन्ति गच्छन्ति वा इति प्रसाः द्वित्रिचतुःपंचेन्द्रियाः पर्याप्तकाऽपर्याप्तकमेदभिन्नाः। तथा-तिष्ठन्तीति स्थावराः पृथिव्यप्तेजोवायुबलस्पाया, सूक्ष्मपादरपर्याप्तकाऽपर्याप्तकभेदभिन्नाः । अनेन द्रव्यमाणातिपातो गृहीतः। तथा'सन्वत्थ' सर्वत्र सर्वस्थानेषु सर्वासु अवस्थामु जीवस्थानेषु अनेन कालभावपभेदभिन्नः पाणातिपातो गृहीतो भवति । तदेवं सर्वास्वप्यवस्थासु कृतकारितानुमतिभिर्मनो अन्वयार्थ--ऊर्ध्व, अधो या तिर्छि दिशाओं में जो भी बस और स्थावर प्राणी हैं, सर्वदा उनकी हिंसा से निवृत्ति करे । जो प्राणातिपात से निवृत्त होना है उसे शान्ति और मुक्ति की प्राप्ति अवश्य होती है।२०। टीकार्थ-ऊर्व दिशा में, अधोदिशा में तथा तिर्थी दिशाओं में बस और स्थावर प्राणी स्थित हैं । जो प्राणी भप से उद्विग्न होते हैं पा गमन करते हैं वे अस कहलाते हैं। बीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय जीव त्रस हैं वे पर्याप्त और अपर्याप्त भेदवाले होते हैं हो।जो स्थितिशील हैं वे पृथ्वी काय, अपकाय, तेजस्काय, धायुकाय और वनस्पतिकाय के जीव स्थावर कहलाते हैं । इनके सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त अपर्याप्त आदि अनेक भेद प्रभेद हैं । तथा सभी काल में और जीव સૂત્રાર્થ—ઊર્ધ્વ, અધે અને તિરકસ દિશાઓમાં જે રસ અને સ્થાવર જીવે છે. તેમની હિંસા સાધુ દ્વારા કદી થવી જોઈએ નહીં. જેમાં પ્રાણાતિપાતથી નિવૃત્ત હોય છે, તેમને શાન્તિ અને મુક્તિની પ્રાપ્તિ અવશ્ય થાય છે. ૨૦ ટકાથ–ઊર્વ દિશામાં, અધ દિશામાં તથા તિછી દિશાઓમાં વસ અને સ્થાવર જીવે રહેલા છે. જે જીવ ભયથી ઉદ્વિગ્ન હોય છે, અથવા જેઓ ગમન કરે છે, તેમને ત્રસ કહેવામાં આવે છે. હીન્દ્રિય, ત્રીન્દ્રિય, ચતુરિન્દ્રિય અને પંચેન્દ્રિય જીવે, તેઓ પર્યાપ્ત પણ અપર્યાપ્તક એ ભેદવાળા હોય છે. અને અને એ સ્થિતિશીલ છે તેવા પૃથ્વીકાય, અષ્કાય, તેજસકાય, વાયુકાય અને વનસ્પતિકાય જેને સ્થાવર જી કહે છે. તેમના સૂક્ષમ. બાદર, પર્યાપ્ત આદિ For Private And Personal Use Only Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. ४ स्खलितस्य साधोरुपदेशः १९५ वाकायैः । 'विरति' विरति माणातिपातनिवृत्तिम् 'कुन्जा' कुर्यात्-भावमाणातिपातो दर्शितः, कस्मिन्नपि काले कस्मिन्नपि देशे कस्यापि पाणिनः कस्याप्यवस्थायां विराधनं मनोवाकायैः कृतकारितानुमतिभि न कुर्यादिति । तदेवमुक्तरीत्या तपःसंयमाराधकस्य किं फलं भवतीति तदर्शयति। संति-निधाण' इत्यादि। 'संति' शान्तिः-सर्वकर्मोपशमः, तदेव 'निव्वाणं' निर्वाणं मोक्षपदम् । 'आहिय' आख्यातम्-कथितम् । एतादृशो मोक्षो यथोक्तसर्वविरतिमतः चरणकी अवस्थाओं में-जीवस्थानों में हिंसा का त्याग करे। इन सभी जीवों के विषय में कृत, कारित और अनुमोदना से तथा मनवचन और काय से हिंसा का त्याग कर देना चाहिये। ___ यहां ऊर्ध्व अधो और तिर्यक दिशा का उल्लेख करके क्षेत्र प्राणा. तिपात का ग्रहण किया है, बस स्थायर का उल्लेख करके द्रव्यप्राणा. तिपात को सूचित किया है, सर्वत्र अर्थात् सर्वकाल में इस उल्लेख से कालप्राणातिपात को सूचित किया है और 'निवृत्त करे' ऐसा कहकर भावप्राणातिपात को प्रकट किया गया है। ___ अभिप्राय यह है कि किसी भी काल में किसी भी देशमें किसी भी प्राणी की किसी भी अवस्था में, मन वचनकाय से और कृत, कारित तथा अनुमोदना से विराधना न करे । जो इस प्रकार से तप और संगम की आराधना करता है, उसे किस फल की प्राप्ति होती है ? इसका उत्तर देते हैं-उसे शान्ति और અનેક ભેદે અને પ્રભેદે છે. સાધુએ સઘળામાં અને જુદી જુદી અવસ્થાઓમાં જીગ્ન સ્થાનમાં ગિદ્યમાન જીવેની હિબ્રાને ત્યાગ કરવો જોઈએ. તેણે કૃત, કારિત અને અનુમોદના રૂપ ત્રણે કરણ અને મન, વચન અને કાયરૂપ ત્રણે ગદ્વારા હિંસાનો ત્યાગ કરે જોઈએ. અહી' ઊં, અધે અને તિર્યફ દિશાઓનો ઉલ્લેખ કરીને ક્ષેત્રમાણુ તિપાતને ગ્રહણ કરવામાં આવેલ છે. ત્રસ અને સ્થાવર જીવેને ઉલ્લેખ કરીને સૂત્રકારે દ્રવ્ય પ્રાણાતિપાતને સૂચિત કર્યું છે, સર્વત્ર પદને અથવા સર્વ કાળને ઉલ્લેખ કરીને કાલપ્રાણાતિપાતને સૂચિત કર્યું છે, અને “નિવૃત્તિ કરે આ પદના પ્રયોગ દ્વારા ભાવપ્રાણાતિપાતને પ્રકટ કરવામાં આવેલ છે. આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે કઈ પણ કાળે, કોઈ પણ દેશમાં (ક્ષેત્રમાં), કઈ પણ જીવની કઈ પણ અવસ્થામાં મન, વચન અને કાયાથી તથા કુત, કારિત અને અનુમોદના દ્વારા વિરાધના કરવી જોઈએ નહીં. આ પ્રકારે તપ અને સંયમની આરાધના કરનારા સાધુઓને કેવા ફળની પ્રાપ્તિ થાય છે, તે સૂત્રકાર હવે પ્રકટ કરે છે-તેને શાન્તિ અને મુક્તિની For Private And Personal Use Only Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १९६ सूत्रकृताङ्गसूत्रे • करणानुष्ठायिनः साधोः अवश्यमेव भवतीत्यहिंसाया मोक्ष एव फलं व्यवस्थितं भवतीति भावः ॥२०॥ संपूर्णस्य तृतीयाध्ययनार्थस्योपसंहारं कुर्वन्नाह सूत्रकारःमूलम् - इमं च धम्ममादाय कासवेण पैवेइयं । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुर्जा भिक्खू गिलास अगिलाए समाहिए ॥ २१॥ छाया - इमं च धर्ममादाय काश्यपेन मवेदितम् । कुर्याद्भक्षुग्लीनस्य ग्लानतया समाहितः ॥२१॥ मुक्ति प्राप्त होती है । समस्त कर्मों का उपशम हो जाना शान्ति और क्षय हो जाना मुक्ति है । आशय यह है कि पूर्वोक्त सर्वविरति का पालन करने वाले और चरणकरण क्रिया का अनुष्ठान करनेवाले साधु को अवश्य मोक्ष प्राप्त होता है। इस प्रकार यह सिद्ध हो जाता है कि अहिंसा की आराधना का फल मोक्ष है ॥ २० ॥ अब सम्पूर्ण तृतीय अध्ययन का उपसंहार करते हुए सूत्रकार कहते हैं--' इमं च धम्ममादाय' इत्यादि शब्दार्थ - 'कासवेण पवेइयं - काश्यपेन प्रवेदितम्' काश्यपगो श्रीभगवान् महावीर स्वामीके द्वारा कहे हुए 'इमं च धम्मपादाय - इम 'च धर्ममादाय' श्रुतचारित्र रूप इस धर्म को स्वीकार करके 'समाहिएसमाहितः' समाधियुक्त 'भिक्खू भिक्षु' साधु 'अगिला - अग्लानतया' પ્રાપ્તિ થાય છે. સમસ્ત કર્મોના ઉપશમ થઈ જવાથી તેને શાન્તિ પ્રાપ્ત થાય છે અને સમસ્ત કર્મના ક્ષય થઈ જવાથી તેને મુક્તિ પ્રાપ્ત થાય છે. આા સમસ્ત કથનને ભાવાથ એ છે કે સર્વવિરતિનું પાલન કરનારા અને ચરણકરણ ક્રિયાનું અનુષ્ઠાન કરનારા સાધુને અવશ્ય મેક્ષ પ્રાપ્ત થાય છે. આ રીતે એ વાત સિદ્ધ થાય છે કે અહિંસાની આરાધનાનું ફૂલ મેક્ષ છે. રા હવે ત્રીજા આખા અધ્યયનના ઉપસ'હાર કરતા સૂત્રકાર કહે છે કે 'इमं च धम्मादाय' इत्याह - शब्दार्थ –'कात्रवेणं पवेइयं - काश्यपेन प्रवेदितम्' अश्ययगोत्री भगवान् महावीर स्वामीना द्वारा उस 'इमंच धम्ममादाय - इमं च धर्ममादाय' श्रुतयारित्र३५ धमनस्वीर हरीने 'समाहिप समाहितः' समाधियुक्त 'भिक्खु - भिक्षुः ' - For Private And Personal Use Only Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संपार्थोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. ४ स्खलितस्य साधोरुपदेशः १९७ अन्वयार्थः-(कासवेण पवेइयं) काश्यपेन प्रवेदितं कथितम् (इमं च धम्म मादाय) इमं श्रुतचारित्रलक्षणधर्ममादाय सीकृत्य (समाहिए) समाहितः (मिक्ख्) भिक्षुः साधुः (अगिलाए) अग्लानतया-यथाशक्ति (गिलाणस्स) ग्लानस्य-रोगाघभिभूतस्य साधोः (कुज्जा) कुर्यात् सेवामिति ॥२१॥ टीका-'कासवेण' काश्यपेन श्रीमन्महावीरस्वामिना 'पवेइयं प्रवेदितं कथितम् किं कथितमित्याह 'इमंच' इमं च पूर्वोक्तं श्रुतचारित्र्याख्यम् 'धम्म' धर्मम् दुर्गविपततो धारणात् मुगतौ धत्ते च यः स धर्मस्तम् 'आदाय' आदाय-गृहीत्वा समधिगम्येति यावत् 'समाहिए' समाधियुक्तः। तथा स्वतः-'अगिलाए' ग्लानिरहितः। 'गिलाणस्य' ग्लानस्य साधोः कुर्यात् यथाशक्ति वैयारत्यादिकं कुर्यात् इति ॥२१॥ मूलम्-संखाय पेसलं धम्मं दिट्रिमं परिनिव्वुडे । उवसंग्गे नियामित्ता आमोक्खाय परिव्वएजासि ॥२२॥ त्तिबेमि॥ अग्लान भावसे 'गिलाणस्स-ग्लानस्य' ग्लान-रोगी साधुकी 'कुज्जाकुर्यात्' सेवा करे ॥२१॥ अन्वयार्थ--काश्या अर्थात् भगवान महावीर द्वारा प्ररूपित इस धर्म को स्वीकार करके समाधिमान् भिक्षु यथाशक्ति ग्लान साधु की सेवा करे ॥२१॥ टीकार्थ-श्री मन्महावीर स्वामी के द्वारा उपदिष्ट इस पूर्वोक्त श्रुतचारित्र धर्मको दुर्गति में पडते जीवों को बचाकर सुगति में धारण करनेवाले धर्म को-ग्रहण करके तथा समाधि से युक्त होकर, स्वयं ग्लानि रहित होकर ग्लान (रुग्ण) साधु की यथाशक्ति सेवा करे ॥२१॥ साधु 'अगिलाए-अग्लानतया' मानसाथी 'गिलाणस्स-ग्लानस्य' सान भी आधुनी 'कुज्जा-कुर्यात् सेवा ४३. ॥२१॥ સૂત્રાર્થ–કાશ્યપ ગેત્રીય મહાવીર પ્રભુ દ્વારા પ્રરૂપિત આ ધર્મની આરાધના કરનાર સમાધિમાનું સાધુ એ ગ્લાન (બિમાર) સાધુની બની શકે તેટલી સેવા કરવી જોઈએ. ૨૧ ટીકાઈ— સૂત્રકાર સાધુને એ ઉપદેશ આપે છે કે મહાવીર પ્રભુ દ્વારા ઉપદિષ્ટ પૂત કૃતચારિત્ર રૂપ ધર્મને-કોને દુર્ગતિમાં પડતાં બચાવીને સુગતિમાં દેરી જનાર ધર્મને-અપનાવીને સમાધિયુક્ત ચિત્તે-બિલકુલ વિષાદ (ગ્લાનિ) અનુભવ્યા વિના-ગ્લાન (બીમાર) સાધુઓની યથાશક્તિ સેવા કરતા રહે. મારા For Private And Personal Use Only Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra १९८ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir छाया -- संख्याय पेशलं धर्मं दृष्टिमान परिनिर्वृतः । उपसर्गान् नियम्य आमोक्षाय परिव्रजे ॥ २२॥ सूत्रकृतासूत्रे अन्वयार्थ:- (दिट्टिमं) दृष्टिमान् - सम्यग्रह ष्टिः (परिनिब्बु डे) परिनिर्वृतः = शान्तः पुरुषः (पेसलं धम्मं संखाय ) पेशलं - मोक्षानुकूलं धर्मं श्रुतचारित्रलक्षणं संख्यायज्ञावा (उवसग्गे) उपसर्गान् अनुकूल प्रतिकूलान् (नियामित्ता) नियम्य - अतिसय, (आमोक्खाय) आमोक्षाय- मोक्षपर्यन्तं (परिवए) परिव्रजेत् संयमानुष्ठानं कुर्यात्। २२ । टीकi-- 'दिट्टिमं' दृष्टिमान् सम्यग्दर्शनी 'परिनिष्युडे' परिनिहतः कषायोपशमाच्छान्तः 'पेसलं धम्मं संखाय' पेशलं - मनोज्ञ' मोक्षं प्रत्यनुकूलम् 'धम्मं ' धर्मम् श्रुतचारित्रारूपम् 'संखाय' सम्यक् = स्वबुद्ध्या ज्ञात्वा अन्यस्मादुपश्रुत्य वा शब्दार्थ:- दिट्टिमं दृष्टिमान्' सम्यग्दृष्टी 'परिनिष्युडे परिनिर्वृतः ' शांतपुरुष 'पेसलं धम्मं संखाय - पेशलं धर्म संख्याय' मुक्ति प्राप्त करने में अनुकूल ऐसा श्रुतचारित्ररूप इस धर्म को जान करके 'उवसग्गे - उपसर्गान' अनुकूल प्रतिकूल उपसर्गों को 'नियामित्ता- नियम्य' सहन करके 'आमोक्खाय - आमोक्षाय' मोक्ष प्राप्ति पर्यंत 'परिव्त्रए - परिव्रजेत्' संयम का पालन करे ||२२|| Kap अन्वयार्थ - - सम्यग्दृष्टि से सम्पन्न शान्त पुरुष मोक्ष के अनुकूल इस सुन्दर धर्मको जानकर तथा अनुकूल और प्रतिकूल उपसर्गों को सहन करके मोक्ष प्राप्ति पर्यन्न संयन का आचरण करे ॥२२॥ टीकार्थ - - सम्यग्दर्शन से युक्त तथा कषायों के उपशम से शान्त पुरुष इस मनोज्ञ एवं मोक्ष के अनुकूल श्रुतचारित्ररूप धर्म को सम्प For Private And Personal Use Only शब्दार्थ –'दिट्टिमं - दृष्टिमान्' सम्यदृष्टि 'परिनिच्युडे - परिनिघृत:' शांत ५३ष पेवलं धम्मं संखाय - पेशलं धर्म संख्याय' भुति प्राप्त अश्वामां अनुज शेवा श्रुतथास्त्रि३य या धर्म'ने लखीने 'उवसग्गे -उपसर्गान्' अनुज प्रतिज उपसर्गाने नियामित्ता-नियम्य' सडुन उरीने 'आमोक्खाय - आमोक्षाय' भोक्ष प्राप्ति सुधी 'परिजए - परिव्रजेत्' संयमतु पासन १२. ॥२२॥ સૂત્રા—સમ્યગ્દષ્ટિથી યુક્ત, શાન્ત પુરુષે મેાક્ષને અનુકૂળ આ સુંદર ધર્મ'નું સ્વરૂપ સમજી લઈને તથા અનુકૂળ અને પ્રતિકૂળ ઉપસર્ગોને સહુન કરીને માક્ષપ્રાપ્તિ થાય ત્યાં સુધી સંયમની આરાધના કરવી જોઈએ, રા ટીકા”—સમ્યગ્ દર્શનથી યુક્ત અને કષાયાના ઉપશમને લીધે જેનુ' ચિત્ત શાન્ત થઈ ગયું છે એવા પુરુષે મેક્ષ પ્રાપ્ત કરાવનારા શ્રુતચારિત્રરૂપ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थवोधिनी टीका प्र. भु. अ. ३ उ. ४ स्खलितस्य साधोरुपदेश: १९९ 'उवसग्गे' उपसर्गान - अनुकूल प्रतिकूलान 'नियामित्ता' नियभ्य उपसर्गे सहमानः । 'आमोक्खाय' आमोक्षाय = नोपाप्तिपर्यन्तम् 'परिव्वए' परिव्रजेत् = परि सर्वतः व्रजेत् संगमानुष्ठानेन गच्छे संयमं पालयेदिति यात्रत् । भगवता प्रतिपादितं धर्म सम्यगवबुध्य दृष्टिवान् समाहितः परिनि तथ मोक्षपर्यन्तं संयमानुष्ठानैकरतो भवेदिति भावः ॥ 'तिमि ' इति ब्रवीमि भगवन्मुखात् यथाश्रुतं तथा कथयामीति ॥ २२॥ इति श्री -- विश्वविख्यात जगद्वल्लभादिपद भूषित बालब्रह्मचारि -- 'जैनाचार्य ' पूज्यश्री - घासीलालवतिविरचितायां श्री सूत्रकृताङ्गस्य "समयार्थबोधिन्या रूपायां" व्यारूपायां तृतीयाध्ययनस्य चतुर्थीदेशकः समाप्तः ॥ ३-४ ॥ ॥ समाप्तं तृतीयाध्ययनम् ॥ प्रकार से अपनी बुद्धि द्वारा जानकर या दूसरों से सुनकर तथा अनुकूल प्रतिकूल उपसर्गों को सहन करता हुआ मोक्ष प्राप्ति होने तक संयम का ही अनुष्ठान करता रहे। आशय यह है कि भगवान् के द्वारा प्रतिपादित धर्म को भलिभांति समझकर सम्यग्दृष्टि, समाधिमान् और प्रशान्त पुरुष मोक्षप्राप्ति पर्यंत संयम के अनुष्ठान में ही रत रहे । 'सि बेमि' अर्थात् सुधर्मास्वामी जम्बूस्वामी से कहते हैं हे जम्बू ! भगवान् के मुख से जैसा सुना है, उसी प्रकार तुझे कहता हूँ । जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजी महाराजकृत 'सूत्रकृताङ्गसूत्र' की समयार्थबोधिनी व्याख्या के तीसरे अध्ययन का ॥ चौथा उद्देशक समाप्त ३-४ ॥ ॥ तृतीय अध्ययन समाप्त ॥ ધમને પેાતાની બુદ્ધિ દ્વારા અથવા જ્ઞાની પુરુષાના ઉપદેશના શ્રવણુ દ્વારા જાણી લઈને અનુકૂળ અને પ્રતિકૂળ ઉપસર્ગાને સહન કરતાં કરતાં, માસની પ્રાપ્તિ થાય ત્યાં સુધી સયમની આરાધના કર્યા કરવી જોઈએ. આ કથનના ભાવાર્થ એ છે કે ભગવાન દ્વારા પ્રતિપાદિત ધર્મના સ્વરૂપને ખરાખર સમજી લઈને સમ્યગ્દષ્ટિ, સમાધિયુક્ત અને પ્રશાન્ત પુરૂષે મેાક્ષપ્રાપ્તિ પર્યંત સયમની આરાધનામાં પ્રવૃત્ત રહેવુ જોઇએ. 'त्ति बेमि' सुधर्मा स्वाभी मंजू स्वाभीने हे छे ! ' भ्यु | भगवान् મહાવીરના શ્રી મુખે આ ઉપદેશ મે સાંભળ્યા છે, અને એ ઉપદેશ જ હુ તમારી સમક્ષ આપી રહ્યો છું.' ારરા જૈનાચાય જૈનધમ દિવાકર પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ કૃત ‘સૂત્રકૃતાંગસૂત્રની સમયા માધિની વ્યાખ્યાના ત્રીજા અયયનના ચેાથેા ઉદ્દેશક સમાપ્ત ।।૩-ફા ૫ ત્રીજું અધ્યયન સમાસ ॥ For Private And Personal Use Only Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २०० सूत्रकृतारसूत्रे अथ चतुर्थमध्ययनमारभ्यते। तृतीयाध्ययनं गतम् । अतः परं चतुर्थमारभमाणस्तृतीय चतुर्थयोः संबन्धं दर्शयति तृतीयाध्ययने उपसर्गाः प्ररूपिताः । तेषु चानुकूला उपसर्गाः पायो दुस्सहाः, तत्रापि ललनोपसर्गोऽतीव जेतुमसमर्थः, अतः स्वीपरीषहजयाय चतुर्थमध्ययनं प्रारभ्यते, अनेन संबन्धेनाऽऽगतस्य चतुर्याध्ययनस्य प्रथममिदं सूत्रम्-'जे मायरं च' इत्यादि । मूलम्-जे'मायरं च पियरं च विप्पजहाय पुर्वसंजोगं । एंगे सहिते चरिस्सामि आरतमेहुणो विवित्तंसु ॥१॥ .: छाया-यो मातरं च पितरं च विप्रहाय पूर्वसंयोगम् । . एकः सहितश्चरिष्यामि आरतमैथुनो विविक्तेसु ॥१॥ __चौथा अध्ययन का पहला उद्देशे का प्रारंभ तृतीय अध्ययन समाप्त हुआ। इसके पश्चात् चतुर्थ अध्ययन को प्रारंभ करते हुए तृतीय और चतुर्थ अध्ययन का सम्बन्ध दिखलाते हैं। तीसरे अध्ययन में उपसर्गों का निरूपण किया गया है। उनमें से अनुकूल उपसर्ग प्रायः दुस्सह होते हैं और उनमें भी स्त्री संबंधी उपसर्ग तो अतीव दुम्सह है । अतएव स्त्री परीषह को जीतने के लिए चतुर्थ अध्ययन प्रारंभ किया जाता है। इस सम्बन्ध से प्राप्त चतर्थ अध्ययन का यह आद्य सूत्र है-'जे मायरं च' इत्यादि। ચોથા અધ્યયનના પહેલા ઉદ્દેશાનો પ્રારંભ- ત્રીજ, અધ્યયન પૂરું થયું. હવે ચેથા અધ્યયનને પ્રારંભ કરતાં સૂત્રકાર ત્રીજા અધ્યયનને ચોથા અધ્યયન સાથે સંબંધ પ્રકટ કરે છે ત્રીજા અધ્યયનમાં ઉપસર્ગોનું નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું છે. ઉપસર્ગોના અનુકૂળ અને પ્રતિકૂળ ઉપસર્ગોરૂપ જે બે પ્રકારે કહ્યા છે, તેમના અનુકૂળ ઉપસર્ગો સામાન્યતઃ દુસહ હોય છે. તેમાં પણ સ્ત્રી-સંબધી અનુકૂળ ઉપસર્ગો તે ખૂબ જ દુસ્મહે છે. તેથી સ્ત્રી પરીષહેનું સ્વરૂપ અને તેમને જીતવાનું મહત્વ બતાવવા માટે આ ચતુર્થ અધ્યયનની શરૂઆત કરવામાં આવે છે. પૂર્વ અધ્યયન સાથે આ પ્રકારને સંબંધ ધરાવતા આ ચેથા અધ્યયનનું પહેલું સૂત્ર આ પ્રમાણે છે 'जे मायरं च' त्या For Private And Personal Use Only Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. म. ४ उ.१ स्त्रीपरीषहनिरूपणम् अन्वयार्थ:--(जे) यः (मायरं पियरं च) मातरं पितरं च (पुवसंजोगं) पूर्वसंयोगम् तथा श्वशुरादिकं परसंयोगम् (विप्पजहाय) विपहाय-त्यकुत्वा (भारतमेहुणो) आरतमैथुनः परित्यक्तमैथुनः (एगे सहिए) एकः सहितः एको ज्ञानदर्भग चारित्रयुक्तः (विवित्तेमु) विविक्तेषु त्रीपशुपण्डकवतिस्थानेषु (चरिस्साथि) चरिष्यामि-संयममार्गे विचरिष्यामि ॥१॥ टीका--'जे' यः कश्चित्पुरुषः 'मायरं' मातरम् 'पियर' पितरम् , जननीजनकं च 'पुनसंजोगं' पूर्वसंयोग-मातृप्रभृतिम् , तथा अपरसंयोग श्वशुरादि___ शब्दार्थ--'जे ये' जो पुरुष 'मायरं पियरं च-मातरं पितरं च' माता पिता का 'पुटवसंजोगं-पूर्वसंयोगम्' पूर्वसंयोग को और श्वसुरादिके पर संयोगको 'विप्पजहाय-विमहाय' छोडकर और 'आरतमेहुणो-भारतमैथुन" मैथुन से रहित होकर 'एगेसहिए-एक सहितः' अकेला ज्ञान, दर्शन, और चारित्र से युक्त रहता हुआ 'विवित्तेसु-विविक्तेषु' स्त्री पशु भौर नपुंसक वर्जित स्थानों में 'चरिस्सामि-चरिष्यामि'विचरूंगा ॥१॥ ___ अन्वयार्थ--जो पुरुष ऐसा संकल्प करता है कि मैं माता, पिता और सम्पूर्ण पूर्व संयोग को त्याग कर तथा मैथुन से विरत होकर, एकाकी ज्ञान दर्शन और चारित्र से युक्त होकर, स्त्रीपशु और पण्डक से वर्जित स्थान में रहकर संयम का पालन करूंगा ॥१॥ टीकार्थ-जो कोई पुरुष ऐसी प्रतिज्ञा करता है कि माता, पिता, का पूर्वसंयोग (माता आदि का) तथा अपरसंयोग (श्वशुर आदि का) त्याग शहाय-'जे-ये २ १३५ 'मायरं पियरं च-मातरं पितरं च मातापिताना 'पुव्वसंजोग-पूर्वसंयोगम्' पूस याने तथा सास। विरेना ५२ सयशन 'विप्पजहाय-विग्रहाय' छ।डीने 'आरतमेहुणो-आरतमैथुनः' तथा मथुन ना त्या ४शने 'एगे सहिए-एकः सहितः' मे र सानाशन भने यात्रि थी युत २हीने 'विवित्तेसु-विविक्तेषु' स्त्री पशु भने नपुस २क्षित स्थानमा 'चरिस्सामि-चरिष्यामि' वियरीश. ॥१॥ સૂત્રાર્થ–જે પુરુષ એ સંકલપ કરે છે કે હું માતા-પિતા વિગેરેના સંપૂર્ણ પૂર્વસંગેને ત્યાગ કરીને, મૈથુનસેવનમાંથી નિવૃત્ત થઈને, જ્ઞાનદર્શન અને ચારિત્રથી યુક્ત થઈને, સ્ત્રી, પશુ અને પંડક (નપુંસક)થી ૨હિત સ્થાનમાં એક રહીને સંયમનું પાલન કરીશ, તે પુરુષ જ સંયમની આરાધના કરી શકે છે. ૧ ટીકાર્થ-જે કઈ પુરુષ એવી પ્રતિજ્ઞા કરે છે કે હું માતા-પિતા આદિના સંગરૂપ પૂર્વસંગને તથા પત્ની, સાસુ, સસરાના સંગરૂપ અપરસંગને स. २६ For Private And Personal Use Only Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे कम् 'विष्पजहाय' विग्रहाय-परित्यज्य 'एगे' एका रागद्वेषरहितः । 'सहिते'. सहितः-ज्ञानदर्शनचारित्रैर्युक्तः परमार्थाऽनुष्ठानविधायो । 'आरतमेहुणो' आरत'मैथुनः आरतमुपरत मैथुनं कामाद्यभिलाषो यस्य स आरतमैथुनः । 'विवित्तेसु' विविक्तदेशेषु-स्त्रीपशुपण्डकपरिवर्जिवस्थानेषु 'चरिस्सामि' चरिष्यामि इति निश्चित्य संयममनुतिष्ठेन । आमोक्षाय परिव्रजेदिति तृतीयाध्ययनान्ते उक्तम् । वत्सर्वाभिषंगरहितस्यैव संभवति । आः सर्वसंमान्तर्गतमापितकलत्रादिरहित एकएव संयममार्गे चरिष्यामीति कृतसंकल्पः साधुभवेदिति ॥१॥ . एतादृशप्रतिज्ञापतिष्ठितस्य बद्भवति साधोरविवेकि स्त्रीजनसंपर्कात् तदर्श यति मूत्रकारः-'सुहुमेणं तं' इत्यादि । - मूलम्-सुहमेणं तं परिकम्म छन्नपएण इत्थेिओ मंदा। उवायपि ताउ जाणंसु जंहा लिस्तंति भिवखुणो एंगे॥२॥ कर, रागद्वेष से रहित होकर, ज्ञान दर्शन और चारित्र से युक्त होकर, मैथुन से उपरत होकर, स्त्री पशु और पण्डक से रहित स्थान में रहता हुआ विचरण करूंगा, वही संयम का अनुष्ठान करता है। . तीसरे अध्ययन के अन्त में कहा था-मोक्ष प्राप्ति पर्यन्त संयम का अनुष्ठान करना चाहिए। ऐसा वही कर सकता है जो सब प्रकार के संग से रहित हो । अतएव सघ प्रकार के संसर्गों के अन्तर्गत माता पिता पत्नी आदि का त्याग करके एकाकी ही संयममार्ग में विचरूंगा, इस प्रकार का मनोभाव जिसने किया है, वही साधु हो सकता है ॥१॥ ત્યાગ કરીને, રાગદ્વેષથી રહિત થઈને જ્ઞાનદર્શન અને ચારિત્રથી સંપન્ન થઈને મથુનસેવનને ત્યાગ કરીને તથા સ્ત્રી, પશુ અને નપુંસકથી રહિત સ્થાનમાં એકાકી વિચારીશ, તે પુરુષ જ સંયમનું પાલન કરી શકે છે. ત્રીજા અધ્યયનને અને સૂત્રકારે એવું કહ્યું છે કે-એક્ષપ્રાપ્તિ થાય ત્યાં સુધી સંયમની આરાધના કર્યા કરવી જોઈએ. જે પુરુષ બધા પ્રકારના સંગાથી (સંસારી સંપર્કોથી) રહિત હોય છે, એજ આ પ્રમાણે કરી શકે છે. તેથી જ સૂત્રકારે અહી એવું પ્રતિપાદન કર્યું છે કે “માતા-પિતા પત્ની આદિ બધા પ્રકારના સંસર્ગોને પરિત્યાગ કરીને હું એકલે સંયમમાર્ગે વિચરણ કરીશ, આ પ્રકારને સંકલ્પ જેણે કર્યો છે, એ પુરુષ જ સાધુ भनी छे: ॥ For Private And Personal Use Only Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ४ उ. १ स्त्रीपरीषहनिरूपणम् २०३ छाया-मूक्ष्मेण तं परिक्रम्य छन्नपदेन स्त्रियो मन्दाः । आयमपि ता जानंति यथा श्लिष्यन्ति भिक्षव एके ॥२॥ अन्वयार्थ:--(मंदा इत्यिो ) मन्दास्त्रिया=कामोद्रेकविधायितया विवेकवि. कलाः (तं परिक्कम्म) तं साधु परिक्रम्य तत् समीयमागत्य (छन्नपएण) छन्नपदेन कपटजालेन तं भ्रंशयन्ति (ता) ता:-स्त्रियः (उन्नायपि) उपायमपि (जाणंसु) जानंति (जहा एगे भिक्खुणो) यथा एके भिक्षा-साधवः (लिस्संति) श्लिष्यन्ति तथाविधकर्मोदयात् तासु संगमुपयान्तीति ॥२॥ ___ इस प्रकार के मनोभावों में स्थित साधु के समक्ष विवेकहीन स्त्री जनों के सम्पर्क से जो परिस्थिति उत्पन्न होती है, उसे सूत्रकार दिख. लाते हैं-'सुहुमेणं तं' इत्यादि । __ शब्दार्थ-'मंदा इस्थि मो-मन्दा स्त्रियः' अविवेकिनी स्त्रियां 'मुष्टुमेणं सूक्ष्मेण' कपटसे 'तं परिकम्म-तं परिक्रम्ब' साधुके पास आकर 'छन्नपएण-छन्नपदेन' कपटजालसे अथवा गूढार्थ शब्द से भ्रष्ट करने का प्रयत्न करती है 'ता-ताः' वे स्त्रियाँ 'उन्वायंपि-उपायमपि' उपाय भी जाणति-जानन्ति' जानती है 'जहा एगे भिक्खुणो-यथा एके भिक्षषा' जिससे कोई साधु 'लिस्संति-श्लिष्यन्ति' उनके साथ संग करते हैं ॥२॥ ____ अन्वयार्थ--कामोद्रेक उत्पन्न करने के कारण विवेकहीन स्त्रियाँ उस साधु के समीप आकर और कपट का जाल बिछाकर उसे भ्रष्ट करती है । वे उपाय को भी जानती हैं और समझती हैं कि कोई कोई આ પ્રકારના સંક૯પપૂર્વક સાધુપર્યાય સ્વીકારનાર સાધુની સાથે વિવેક હીન સ્ત્રીઓને સંપર્ક થવાથી જે પરિસ્થિતિ પેદા થાય છે, તેનું સૂત્રકાર वे नि३५९५ ४२ छ.-'सुटुमेणं तं' त्या शा-'मंदा इथिओ-गन्दा स्त्रियः' अविवाणी स्त्रिया 'सुहुमेणं-सूक्ष्मेण' ४५४थी 'तं परिका-तं परिक्रम्य' साधुनी पासे मापीने 'छन्नपएण- छम्नपदेन' કપટ જાળથી અથવા ગૂઢ અર્થવાળા શબ્દથી સાધુને ભ્રષ્ટ કરવાનો પ્રયત્ન કરે छे. 'ता-ताः' ते लियो ‘उन्यायषि-उपायमपि' पाय ५५ 'जाणंति-जानन्ति' नये छ. 'जहा एगे भिक्खुगो-यथा एके भिक्षा माथी / साधु 'लिस्संति-श्लिष्यन्ति' तनी साथै स ४0 से . ॥२॥ સૂત્રાર્થ_વિવેકહીને સ્ત્રીઓ તે સાધુની પાસે આવીને, કપટજાળ બિછાવીને કામે ઉત્પન્ન કરનારી પિતાની ચેષ્ટાઓ દ્વારા તે સાધુને સંયમ ભ્રષ્ટ કરે છે. તેઓ તેને ફસાવવાની યુક્તિઓ જાણતી હોય છે અને સમજતી For Private And Personal Use Only Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - सूत्रकृतागलो टीका--'मंदा इथिओ' मन्दा: काममचालकतया सदसद्विवेकरहिताः 'इस्थिो स्त्रिया 'त' तं महापुरुष साधुम् 'मुहुमेण' सूक्ष्मेण-दर्शनमांगलिकनिमित्तेन 'छमपएण' छमपदेन-कपटजालेन परिकाम्म' परिक्रम्य-साधुसमीपमागत्य, अथवा पराक्रम्य अभिभूय व्यामोहयन्ति साधुम् । शीलात् पासयन्ति इति यावत् । त्रियो हि मायापधानाः । ननु कथं ताः शीलवन्तं जागरुकमपि व्यामोहयन्ति-इत्यत आह-उवायपि । इत्यादि । 'उव्वायंपि' उपायमपि 'ताउ जाणंसु' ताः जानन्ति मायापधानाः भिक्षु राग के वशीभूत हो जाते हैं-कर्मोदय से स्त्री के साथ संसर्ग कर लेते हैं ॥२॥ . टीकार्थ--कामवासना को प्रज्वलित कर देने वाली होने के कारण जो सत् और असत् के विवेक से रहित है ऐसी मन्द स्त्रियां महापुरुष साधु के पास दर्शन या मांगलिक श्रवण के बहाने से कपट का जाल फैलाकर आती है या साधु को मोहित करती है अर्थात् शील से युत करती हैं। स्त्रियों में मायाचार की प्रधानता होती है । कहा भी हैगुस पदों द्वारा या गुप्त नाम के द्वारा या मधुर भाषण करके वे अपना जाल फैलाती हैं। . स्त्रियां शीलवान् और सावधान पुरुष को किस प्रकार मोहित कर होती है । इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा गया है वे स्त्रियां मोहित હોય છે કે કઈ કઈ ભિક્ષુ એ રાગને વશીભૂત થઈને સ્ત્રીની સાથે સંસર્ગ કરી લે છે. રક્ષા ટીકાર્યું–કામવાસનાને પ્રજવલિત કરનારી હોવાને કારણે જે સ્ત્રીએ સત અને અસત્ના વિવેકથી રહિત છે, એવી મમતિ સ્ત્રિઓ દર્શન કરવાને બહાને અથવા પ્રવચન કે માંગલિક શ્રવણ કરવાને બહાને સાધુની પાસે આવે છે, અને પિતાની કપટજાળ બિછાવીને સાધુને પિતાની તરફ આકર્ષવાને પ્રયત્ન કરે છે. તેને પરિણામે કઈ કઈ સાધુ સંયમના માર્ગેથી ભ્રષ્ટ થઈ જાય છે. ચિએ માયાચારમાં નિપુણ હોય છે. કહ્યું પણ છે કે – * “ીએ ગુપ્ત પદે દ્વારા ગુપ્ત નામ દ્વારા અથવા મધુર વાણુ કાશ પિતાની કપટજાળ ફેલાવે છે.” સ્ત્રીઓ શીલવાન અને સાવધાન પુરુષને કેવી રીતે મોહિત કરે છે? . આ પ્રશ્નનો ઉત્તર આપતા સૂત્રકાર કહે છે કે સિઓ પુરુષને માહિત કરવાના એવા ઉપાયે પણ જાણતી હોય છે કે જે ઉપાય અજમાવીને તે For Private And Personal Use Only Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी का प्र.श्रु. अ. ४ उ. १ स्त्रीपरीषहनिरूपणम् शियः व्यामोहोपायमपि । 'जहां यथा 'एगे' एके 'मिक्खुणो' भिक्षुकाः 'लिरसंति' लिष्यन्ति । विवेकिनोऽपि साधवः तथाविधकर्मोदयाव तस्याः संगं कुर्वन्तीति ॥२॥ मूलम्-पाले भिसं णिसीयति अभिक्खणं पोसवेत्थं परिहिति। कायं अहे वि दंसंति बाहू उद्ध, कखमणुवजे ॥३॥ छाया-पार्श्वे भृशं निषीदन्ति अभीषणं पोषवस्त्रं परिधाति । कायमधोपि दर्शयति बाहुमुद्धस्य कक्षामनुव्रजेत् ॥३॥ अन्वयार्थः-(पासे) पार्श्वे साधोः समीपे (भिसं) भृशमत्यर्थम् (निसीयंति) उपविशन्ति (अभिवावगे) अभीक्षण-निरन्तरं (पोसवत्थं ) पोषवस्त्रं कामोद्दीपककरने का ऐसा उपाय भी जानती है, जिससे विवेकशील साधु भी उनका संसर्ग करने को उद्यत हो जाते हैं ॥२॥ शब्दार्थ--'पासे-पाचे' साधुके निकट 'भिस-भृशम् ' अस्पन्त 'णिसीयंति-निषीदन्ति' बैठती है 'अभिक्खर्ण-अभीक्षणम्' निरन्तर 'पोसवत्थं-पोषवस्त्रम्' कामोत्तेजक सुन्दर वस्त्र परिहिती-परिदधति' पहिनती है 'अहे विकाय-अधोपि कायम्' शरीर के नीचे के भागको भी 'दसंति-दर्शयन्ति' दिखलाती है 'पाहू उद्धटु-बाहुमुद्धृत्य' तथा भुजा को उठाकर 'कक्खमणुव्यजे-कक्षामनुव्रजेयुः' काख दिखाकर साधुके सामने जाती है ॥ ३॥ ___ अन्वयार्थ--वे साधु के समीप में बार बार जंघा आदि उघाडकर उसे दिखलाती हुई बैठती हैं कामोद्दीपक वस्त्र पहनती हैं शरीर के વિકશીલ સાધુને પણ પિતાને સંસર્ગ કરવાને લલચાવી શકે છે. તેની કપટજાળમાં ફસાઈને ભલભલા સાધુઓ સંયમભ્રષ્ટ થઈ જાય છે. મારા તે સ્ટિએ સાધુને માહિત કરવા માટે શું શું કરે છે, તે હવે सूत्र॥२ मतावे - शाय---'पासे-पाश्वें' साधुनी सभी२ 'भिस-भृशम्' अत्यन्त 'णिसी यन्ति -निषीदन्ति' से छे. 'अभिक्खणं-अभीक्षणम्' मेश पोसवस्थ-पोषवस्त्रम्' मात सुंदर पर परिहिंती-परिदधति' ५९२ छ. 'अहे वि कायं-अधो पि कायम्' शरीरनी नायना मायने ५५ 'दंसंति दर्शयन्ति' मतावे छे. 'बाहूउद्धटु-बाहमुद्धृत्य' तथा य य ४शन 'कस्त्रमणुव्वजे-कक्षामनुव्रजेयुः' माखन ભાગ બતાવીને સાધુની સામે જાય છે. ૩ સૂત્રાર્થ તે પિતાની જાંધ આદિ કામોદ્ધિપક અંગે દબાય એવી રીતે બેસે છે, કામાદિપક વરે ધારણ કરે છે, શરીરના અધોભાગને દેખાડે છે, For Private And Personal Use Only Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २०६ सूत्रकृताङ्गसूत्र मधोवस्त्र (परिहिति) परिदधति धारयति (अहे वि कार्य) अधोपि कार्य -कायाधोभागमपि (दसति) दर्शयन्ति (बाहूउद्ध९) बाहुमुद्धृत्य बाहू ऊर्वीकृत्य (कक्खं) कक्षां च दर्शयन्ति (अणुब्बजे) अनुवजेयुः साध्वभिमुख व्रजेयुः गच्छेयुरिति ॥३॥ टीका--'पासे' पार्च-समीपमागत्य 'भिसं' भृशमस्यर्थम् , अतिस्नेहमाविकुत्यिः । 'णिसीयंति' निषीदन्ति-विश्वासमुत्पादयितुमुपविशन्ति । 'पोसवस्थ' पोषवस्त्रम् , कामोत्पादकं मनोज्ञप्रयो वस्त्रम् । 'अभिक्ख' अभीक्ष्णं, अनेकशः शिथिलादिव्याजेन । 'परिहिते' परिदधति, साधोयामोहनाय बद्धमपि वस्त्रं शिथिलीकृत्य पुनः पुनरपि बघ्नन्ति । तथा-'अहे विकायं' कायम' अधःकायं जघनादिक कामोद्दीपकम् । 'दसंति' दर्शयनित-प्रकटयनि । तथा-'बाहु उर्दु' बाहुमुद्धृत्यकक्षं दर्शयन्ति च 'अणुबजे' अनुव्रजेयु -अनुकूलं स्वाभिप्रेतस्थलं व्रजेयुः-तथा गच्छेयुरिति । खियाः साधूनां प्रतारणाय साधुसमीपमविश पेन तिष्ठन्ति । तथानिरन्तरं-हहमपि वस्त्रं शिथिलमिति कृत्वा पुनः पुनर्बध्नन्ति । शरीरस्याऽपरभागं साधवे अधोभाग को दिखलाती हैं भुजाएं ऊ ची करके, कांखों को दिखला. कर साधु के सामने जाती हैं ॥३॥ , टीकार्थ--स्त्रियां साधु के समीप आकर अत्यन्त गाढा प्रेम प्रकट करती हैं । विश्वास उत्पन्न करने के लिए पास में बैठ जाती हैं, काम वर्द्धक मनोज्ञ वस्त्र को बार बार ढोला करने के मित्र से ठीक करती हैं अर्थात् साधु को मोहित करने के लिए बंधे हुए वस्त्र को भी ढोला करके पुनः बांधती हैं । जंवा आदि शरीर के अधोभाग को दिखलाती हैं । कांखों को दिखलाती हुई चलती हैं । तात्पर्य यह है कि साधुओं को ठगने के लिए स्त्रियां उनके पास बार पार आती हैं । कसकर पहने वस्त्र को भी ढीला करके बार बार અને સાધુની સમક્ષ જઈને કોઈ પણ નિમિત્તે ભુજાઓ ઊંચી કરીને કારણે (Anal) प्रशन 3रे छ. ॥3॥ ટીકાર્થી–સ્ત્રિઓ સાધુની પાસે જઈને તેમના પ્રત્યેને પિતાને ગત પ્રેમ પ્રકટ કરે છે, વિશ્વ સ ઉત્પન્ન કરવાને માટે તે સાધુની પાસે જઈને બેસી જાય છે. સાધુની કામવાસનાને પ્રજલિત કરવા માટે તે શરીરને ચુસ્ત પણે બાંધેલા કે વીટેલા વસ્ત્રને ઢીલું કરીને ફરી બાંધે છે. જાંઘ આદિ શરીરના ભાગોને બતાવે છે, અને પિતાની કાનું પ્રદર્શન કરતી રહે છે. - આ સમસ્ત કથનનો ભાવાર્થ એ છે કે સાધુઓને ફસાવવાને માટે સ્ત્રિઓ વારંવાર તેમની પાસે જાય છે, શરીર પર ચુસ્ત પહેલાં વસ્ત્રોને વારં For Private And Personal Use Only Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir : समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ४ उ. १ स्त्रीपरीषह निरूपणम् २०७ दर्शयन्ति, किंबहुना बाहू ऊद्धवकृत्य स्वकमपि प्रदर्शयन्ति, ततोऽनुकूलं स्थान व्रजन्ति एते हि प्रकाराः पुरुषव्यामोहाय मवन्तीति कामशास्त्रे प्रसिद्धा, इति भात्रः | ३ | मूलम् - सयणासणेहिं जोगेहिं इत्थिंओ एगयां निमंतंति । ऍयाणि चेत्र से 'जांणे पासणि विरूवरुवाणि ॥ ४ ॥ छाया -- शयनासनेन योग्येन स्त्रिय एकदा निमंत्रयन्ति । एतानि चैव स जानीयात् पाशान् विरूपरूपान् ॥४॥ अन्वयार्थः -- ( एगया) एकदा-कदाचित् (इत्थीओ) खियः (जोग्गेहिं) योग्यैः उपभोगयोग्यैः (यासणे हिं) शयनाशनेन (निमंतंति) निमंत्रयन्ति साधुम् बांधने का बहाना करती हैं। शरीर के निम्न भाग को उन्हें दिख लाती हैं। भुजाएं ऊंची करके और अपनी कांखें दिखलाकर अनुकूल स्थान में जाती हैं ॥ ३ ॥ शब्दार्थ - ' एगया - एकदा ' किसी समय 'इरिथओ - स्त्रियः' स्त्रियां 'जोगे हिं- योग्येन' उपभोग करने योग्य 'सपणासणेहिं - शयनासनैः' पलंग और आसन आदिका उपभोग करने के लिये 'णिमंतति-निमंत्रयन्ति' साधुको आमंत्रण देती है परंतु 'से- सः' वह साधु 'एयाणिएतानि ' इन्हीं सब बातों को 'विरूवरूयाणि - विरूपरूपान्' अनेक प्रकार के 'पासाणि पाशान' पाशबन्धन 'जाणे - जानीयात् ' जाने ||४|| अन्वयार्थ - - कभी कभी खियां उपभोग के योग्य शय्या (बिछौना) और आसन के लिए साधु को आमंत्रित करती हैं, परन्तु साधु उन शय्या आसनों की विविध प्रकार के कर्मों का बन्धन समझे ||४॥ વાર દ્વીધુ' કરીને ફરી ઠીક કરવાના ઢોંગ કરે છે, પેાતાના શરીરના આધા ભાગેાને બતાવીને તથા કાઈ પણ બહાને ભુજાએ ઊંચી કરીને બન્ને પગલે બતાવીને સાધુની ઝામવાસનાને પ્રદ્દીપ્ત કરવાના પ્રયત્ન કરે છે. ઘણા शब्दार्थ' - ' एगया - एकदा ' । समये 'इत्थिओ - स्त्रियः' स्त्रियो 'जोगेहि -योग्येन' उपलोग ४२वा योग्य 'खपणासणेहिं - शयनासनैः' यस न्मने सन विगेरेना उपलोग ४२वा माटे 'णिमंतति - निमंत्रयन्ति' साधुने सांभत्र रे छे ५२'तु 'से - सः' ते साधु 'एयाणि - एतानि' या तमाम वाताने 'विरूवरूवाणि - विरूपरूपान्' ने अमरना 'पाखाणि पाशान्' पाश बन्धनाने 'जाणेजानीयात् सम से, ॥४॥ સૂત્રા—કાઇ કોઈ વખત સ્ત્રિઓ ઉપભાગને ચાગ્ય શય્યા અને શાસનના સ્વીકાર કરવાને માટે સાધુને આગ્રહ કરે છે, પરન્તુ તે શય્ય For Private And Personal Use Only Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परन्तु 'से' स साधुः (एयाणि) एतानि-शयनासनादीनि (विरूनरूवाणि) विरूपरूपाननेकपकारकान् (पासाणि) पाशाम् (जाणे) जानीयात् इति ॥४॥ टीका-'एगया' एकदा एकस्मिन् काले देशे च एकान्तदेशकालादौ । 'सयणासणेहि' शयनाऽऽसनः, शयनं शय्या पर्यकादिकम् । आसनं सपरिच्छदसोपधानसवितानमासनम् । ते:-पुनः पुनः, 'जोग्गेहि' योग्यैः तत्कालोचितो. पभोगयोग्ये 'दुग्धफेनसमा शय्या' इत्युक्तेः । इत्थीओ' स्त्रिया-कामिन्य: 'णिमंतंति' निमंत्रयन्ति-मार्थयन्ति साधुम् । 'से' स साधुः परमार्थदर्शी 'एयाणि' एतानि-शयनाऽऽसननिमंत्रणादीनि 'विरूवरूवाणि-विरूपरूपान्-अनेकपकारकान् 'पासाणि' पाशान् स्त्रीसंबंधकारिणः । 'जाणे' जानीयादिति । ____ अयं भावः-स्त्रियो हि प्रायः बासन्नवस्तुग्राहिण्यो भवन्ति, लतादिवत् । _टीकार्थ--किसी समय और किसी जगह या एकान्त देशकाल में त्रियां साधु को उपभोग के योग्य शय्या (विशैना) एवं आसन के लिये पार्थना करती हैं । पर्यङ्क पलंग आदि शय्या कहलाते हैं और आसन वह है जिस पर विस्तर विछा हो, तकिया लगा हो और ऊपर से चंदोबा लगा हो कहा जाता है कि शय्या दुग्धफेन के सदृश होती है। किन्तु साधु को समझ लेना चाहिए कि शयन आसन आदि के लिये जो निमंत्रण है सो साधु को फंसाने के लिए नानाप्रकार के जाल हैं। __ तात्पर्य यह है स्त्रियां प्रायः समीपवर्ती वस्तु को ही लता के समान ग्रहण करती हैं । जैसे लता आदि समीपवर्ती को ही परिवेष्टित करती તથા આસનને વિવિધ પ્રકારના કર્મોના બન્ધનરૂપ સમજીને સાધુએ તેમને અવીકાર કર જોઈએ, કા ઢીફાઈક્યારેક કોઈ એકાન્ત સ્થાનમાં સ્ત્રિઓ કોઈ સુંદર શમ્યા બિછાવીને અથવા આસન ગોઠવીને તેને ઉપગ કરવાને માટે સાધુને વિનવે છે. શયન કરવાને માટે પલંગ અથવા ખાટલા પર બિછાવેલ બિછાનાને શમ્મા કહે છે. બેસવાને માટે પાથરણું, ગાદી અદિ પાથરીને, પાછળ તકિય ગોઠવીને તથા ઉપર ચંદરે તાણને જે બેસવા માટેની વ્યવસ્થા કરાયા છે તેને આસન કહે છે. તે શા દૂધના ફીણ જેવી હોય છે. પરંતુ આ એ સમજી લેવું જોઈએ કે શય્યા, આસન આદિના ઉપલેગ માટેની સિઓની તે પ્રાર્થનાઓ તે તેમને સંયમના માર્ગેથી ભ્રષ્ટ કરવાની કપટ જાળ જ છે. જેમ લતા સમીપવર્તી વસ્તુને જ વીંટળાઈ જાય છે, એ જ પ્રમાણે For Private And Personal Use Only Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थवोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ४ उ. १ स्त्रीपरीषहनिरूपणम्र यथा लतादयः स्वसमीपवत्तिनमेव भजन्ते न दरवर्तिनः तथैव स्त्रियोपि । तदुक्तम् 'आसन्नमेव युवतिभनते मनुष्यं विद्याविहीनमकुलीनमसंस्कृतं वा । पायेण भूमिपतयः प्रमदा लताश्व यः पार्वतो वसति तं परिवेष्टयन्ति ॥१॥ अपि च--अंथ वा निवं वा अन्भासगुणेण आरहइ वल्ली । एवं इस्विभो वि य जं आसन्नं तमिच्छेति ॥१॥' छाया--आम्र वा निम्बं वा अभ्यासगुणेन आरोहति वल्ली। एवं स्त्रियोपि च य आसनस्तमिच्छन्ति ॥१॥ 'नता रूपं परीक्षन्ते नासां वयसि संस्थितिः। सुरूपं वा विरूपं वा पुमानित्येव भुज्यते ।।१।' हैं, दूरवर्ती को नहीं, उसी प्रकार स्त्रियां भी। कहा भी है-- ___ 'तरुणी स्त्री समीपवर्ती पुरुष को ही सेवन करती है, चाहे वह विद्याविहीन हो, कुलहीन हो या संस्कारहीन हो। यह ठीक ही है क्योंकि राजा, रमणी और लता उसी को घेरते हैं जो उनके पास में रहता है। और कहा भी है__'चाहे आम हो, चाहे नीम, वेल उसी का आश्रय लेती है जो उसके निकट हो। यही पात स्त्रियों के विषय में भी है। वे भी उसी की इच्छा करती हैं जो उनके समीप रहता हो। ____'ये त्रियां न तो रूप को देखनी हैं और न वय (अवस्था) का ही विचार करती हैं । पुरुष चाहे सुन्दर हो या असुन्दर, वे पुरुष होने के कारण ही उसका परिभोग करती हैं।' સિંએ પણ પિતાની કામવાસના સંતોષવા માટે સમીપવર્તી પુરૂષનું જ સેવન કરે છે. કહ્યું પણ છે કે- તરુણી સ્ત્રિય સમીપવતી પુરૂષનું જ સેવન કરે છે. તે વિદ્યાવિહીન, કુળહીન અથવા સંસ્કારહીન હોય તે પણ તેની પરવા કર્યા વિના તેની સાથે કામગ સેવે છે. કહ્યું પણ છે કેરમણી અને લતા તેમને જ ઘેરી લે છે કે જેઓ તેમની પાસે જ રહેતા હોય છે.” જેમ લતા પિતાની સમીપમાં રહેતા વૃક્ષનો આધાર લેતી વખતે તેની જાતિ આદિને વિચાર કર્યા વિના આંબે, લીમડે વગેરે કેઈપણ સમીપવર્તી વૃક્ષને આશ્રય લે છે, એ જ પ્રમાણે ખ્રિએ પણ પિતાની સમીપમાં રહેલા પુરુષની જ ઈચ્છા કરે છે. તેઓ તેના રૂપ, વય આદિને વિચાર કરતી નથી. ભલે તે સુંદર હોય કે અસુંદર હોય, પરંતુ પુરુષ હોવાને કારણે જ તેઓ તેને પરિગ કરે છે स० २७ For Private And Personal Use Only Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे ... गावस्तृणामिवारण्ये मार्थयन्ति नवं नवम् इत्यादि। तदेवंभूताः स्त्रियः इति सम्यग् ज्ञात्वा साधुः ताभिः सह संबन्धं नैव कुर्यात् । 'यतः स्त्रीणां संबन्धः सर्वथा दुष्परिहायों भवति । तदुक्तम् 'जं इच्छसि घेत्तुं जइ पुचि तं आमिसेण गिण्डाहि । आमिसपासनिबद्धो काहिह कज्ज अज्नं वा ॥१॥ छाया--यमिच्छसि ग्रहीतुं यदि पूर्व मामिषेण गृहाण । आमिषपाशनिबद्धः करिष्यति कार्यमकार्य वा ॥ यथा वधिकः सामिषडिशेन मत्स्शादिकं परिगृह्य तं व्यापादयति तथेमाः वामनयनाः वल्गुहाससेवादिभिः पुरुषं पाशचित्ता रक्तं नरं निष्पीडयन्ति । अतः स्वहितमिच्छता दूत एव त्याज्याः वामनयनाः इति ॥४॥ 'जैसे गाएँ नये नये घास की अभिलाषा करती हैं, उसी प्रकार स्त्रियां भी नये नये पुरुष की कामना करती हैं। . स्त्रियों की ऐसी प्रकृति को सम्यक् प्रकार से समझकर साधु उनके साथ सम्बन्ध स्थापित न करे, क्योंकि स्त्रियों के संसर्ग से बचना बहुत , कठिन होता है । कहा भी है.. यदि तुम स्त्रियों से कोई वस्तु ग्रहण करना चाहते हो तो उसे आमिष समझो अर्थात् लुभाने वाली वस्तु समझो उसके पाश में फंसा हुआ पुरुष कार्य और अकार्य सभी कुछ कर बैठता है। जैप्ले वधिक (मच्छीमार) मांसयुक्त घडिश से मत्स्य आदि को पकडकर उसे मार डालता है, उसी प्रकार ये स्त्रियां बिलास, हास सेवा आदि के द्वारा पुरुष को अपने पाश में फंसा कर अनुरक्त थने हुए उस જેવી રીતે ગાયો નવાં નવાં ઘાસની અભિલાષા કરે છે, એ જ પ્રમાણે ચિઓ પણ નવા નવા પુરુષની હામના કરે છે. સ્ત્રિઓને આ પ્રકારને સ્વભાવ હોય છે, એ વાતને સમજી લઈને સાધુએ તેમને સંપર્ક રાખવો જોઈએ નહીં, કારણ કે તેમના સંસર્ગથી સંયમનું પાલન કરવું કઠણ થઈ જાય છે. કહ્યું પણ છે કે – જે તમે સ્ત્રિઓની પાસેથી કોઈ વસ્તુને ગ્રહણ કરવા ઈચ્છતા હે, તે તેને આમિષ (માંસના જેવી ત્યાગ કરવા લાયક) લલચાવનારી સમજે. તેને પાશમાં ફસાયેલે માણસ કાર્ય અને અકાર્ય સમજવાને વિવેક ગુમાવી બેસે છે, જેવી રીતે માછીમાર માંસયુક્ત જાળ આદિ વડે મત્સ્ય આદિને પકડીને તેમને મારી નાખે છે, એ જ પ્રમાણે સિંએ વિલાસ, હાસ, સેવા આદિ For Private And Personal Use Only Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समार्थबोधिनी टीका प्र. शु. अ. ४ उ. १ स्त्रीपरीषहनिरूपणम् ર मूलम् - नो तासु क्खु संधेजी नौवि य साहस समभिजाणे । सहियां विहरेजा एवमेप्पा सुरक्खिंओ होई ॥५॥ छाया--न तासु चक्षुः संदध्यात् नापि च साहसं समभिजानीयात् । न सहितोपि विहरेत् एत्रमात्मा सुरक्षितो भवति ||५|| अन्वयार्थः - ( तासु ) तासु स्त्रीषु ( चक्खू ) चक्षुर्नेत्रं (नो) न ( संधेज्जा) संदध्यात् =न संयोजयेत् (नोचि य) नापि च ( साहसं समभिजाणे) साहसं समभिजानीयात् - साहसमकार्य करणं तत्पार्थनया प्रतिपद्येत नैव (सहियं त्रि) सहितोपि - तया ( णो विहरेज्ज () नो विहरेत्=यावाद्यामान्तरम् ( एवं ) एवमुपरोक्तप्रकारेण (अप्पा) आत्मा - स्वकीयः (सुरक्खियो होइ) सुरक्षितो भवति-असंयमेभ्य इति ॥५॥ पुरुष को चूम लेती है। अतएव जो अपना हित चाहता है उसे दूर से ही स्त्रियों का त्याग कर देना उचित है || ४ || शब्दार्थ - 'तासु तासु' उन स्त्रियों पर 'चक्खू चक्षुः' आंख 'नोसंघेज्जा- न संदध्यात्' न लगाये 'नो वि य-नापि च' तथा उनके साथ 'साहसं समभिजाणे - साहसं समभिजानीयात्' कुकर्म करने के लिये भी संमति न देवें' 'सहियं वि-सहितोऽपि उनके साथ 'णो विहरेज्जा-तो विहरेत्' ग्राम आदि जाने के लिये बिहार न करे 'एवं एवम्' इस प्रकार 'अप्पा - आत्मा' साधु का आत्मा ' सुरक्खियो होह - सुरक्षितो भवति' असंयम से सुरक्षित रहता है | ५|| अन्वयार्थ - साधु स्त्रियों पर दृष्टि न डाले या उनके नेत्र से अपने नेत्र न मिलावे न उसके कहने पर कोई अकार्य करे न उसके साथ बिहार करे । इसी प्रकार से आत्मा सुरक्षित होता है ||५|| દ્વારા પુરૂષને પેાતાના પાશમાં ફસાવીને અનુરક્ત અનેલા તે પુરૂષને ચૂસી લે છે-તેના શીલનુ` સ્ખલન કરાવે છે. તેથી જે કેાઇ પુરૂષ પેાતાનું હિત ચાહતા હાય તેણે સ્રીબેાથી દૂર જ રહેવું જોઇએ. ૫૪મા शब्दार्थ - ' तासु तासु' से खियो पर 'चक्खू - चक्षुः' मां 'नो संघेज्जा -न संदध्यात् सगावे नहीं 'नो वि य-नापि च' तथा तेजीनी साथै 'साहसं सम भिजाणे - बाइस समभिजानीयात् मानी संभती पशु न याचे 'सहिय वि- सहितोऽपि तेलीनी साथै 'णो त्रिइरेज्जा-नो विहरेत्' नाम विगेरे ना भाटे विहार नश्ये. 'एवं - एवम्' आ रीते 'अप्पा - आत्मा' साधुन आत्मा 'सुरक्खियो होई - सुरक्षितो भवति' असंयमयी सुरक्षित रहे छे. या r For Private And Personal Use Only Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतामसूत्र टीका--'तासु' तामु-स्त्रीषु 'नो' नैव कथमपि 'चक्खु' चक्षुः नेत्रम् 'संधेजा' संदध्यात्-संयोजयेत् कदाचिदपि स्त्रीचक्षुषि सानुराग स्वचक्षुर्न निवेशयेत् न पश्येदित्यर्थः । यदि कदाचित्ययोजनं भवेत् तदापि अवज्ञावदेव सा निरीक्षगीया । तदुक्तम्-- 'कार्येऽपीषन्मतिमान् निरीक्षते योषिदंगमस्थिरया । । अस्निग्धयादृशावज्ञया ह्यकुपितोऽपि कुपित इव॥१॥' 'नोवि य' नापि च 'साहसं समभिजाणे' साहसं कुकृत्यकरणम् तदीयमार्थनस समनुजानीयात् , स्वीकुर्यात् । यथा संग्रामावतरणमतीव दुःखदायि, तथा स्त्रीसको नरकादि दुःखानां कारणं भवति । 'यो सहियं विहरेज्जा' नो सहितो विहरेत् टीकार्थ--साधु को चाहिये कि वह किसी भी स्त्री की दृष्टि के साथ अपनी दृष्टि न मिलावे । कदाचित् कोई प्रयोजन हो और देखना ही पडे तो अवज्ञा की दृष्टि से ही देखे । कहा भी है-'कार्य' इत्यादि। _ 'बुद्धिमान् पुरुष प्रयोजन होने पर स्त्री के शरीर को देखता भी है तो. थोडी सी देर तक ही देखता है और वह भी अस्थिर तथा अनुमगहीन दृष्टि से । वह ऐसी अवज्ञापूर्ण दृष्टि से देखता है कि कुपित न होने पर भी कुपित सा प्रतीत होता है।' साधु स्त्री की प्रार्थना पर कोई कुकृत्य करना स्वीकार न करे । से संग्राम में उतरना अत्यन्त दुःखप्रद होता है, उसी प्रकार स्त्री का - સૂત્રાર્થ–સાધુએ સ્ત્રિઓ તરફ નજર પણ ફેકવી જોઈએ નહીં. તેણે. સીની દષ્ટિ સાથે પિતાની દષ્ટિ મેળવવી જોઈએ નહીં. તેણે તેના કહેવાથી કોઇ અકાર્ય કરવું નહીં અને તેની સાથે વિચારવું જોઈએ નહીં. આ પ્રમાણે કરવાથી જ તેને આત્મા સુરક્ષિત રહે છે. પણ ટીકાથે-સાધુએ કદી પણ કેઈ સ્ત્રીની દષ્ટિ સાથે પિતાની દષ્ટિ મેળવવી જોઈએ નહીં. કદાચ કઈ પ્રજનને કારણે સ્ત્રી સામે નજર કરવી પડે, તે पक्षानीष्टियन तनी सामनेऽन्ये. युं ५५ छ -'कार्य' त्याल વિવેકવાન્ પુરુષ કોઈ પ્રયજનને કારણે સ્ત્રીના શરીર પર નજર નાખે છે, ત્યારે પણ તેની સામે અસ્થિર અને અનુરાગહીન દષ્ટિથી જ દેખે છે. તે તેની સામે એવી અવજ્ઞાપૂર્ણ દષ્ટિએ દેખે છે કે કુપિત ન હોવા છતાં પણ કપિત જે લાગે છે.” * સી ગમે તેટલી વિનંતી કરે, તે પણ સાધુએ કઈ કુકૃત્ય કરવાનું સ્વીકારવું જોઈએ નહીં. જેવી રીતે સંગ્રામમાં ઉતરનારને અત્યન્ત દુખને For Private And Personal Use Only Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ४ उ. १ स्त्रीपरीषहनिरूपणम् २१३ तथा नैव कदाचिदपि स्त्रीभिः साकं ग्रामादौ विहरेत् । अपि शब्दात् एकासनस्थोऽपि तया सह न भवेत् । यतो महापापं साधूनां स्त्रीभिः सह संबन्ध इति। तदुक्तम् 'मात्रा स्वस्रा दुहित्रा वा न विविक्तासनो भवेत् । बलवानिन्द्रियग्रामो विद्वांसमपि कर्षति ॥१॥ तप्ताङ्गारसमा नारी घृतकुम्मसमः पुमान् । तस्मात् घृतं च बहिं च नैकत्र स्थापयेद्बुधः ॥१॥ इति । संग नरक आदि दुःखों का कारण होता है। इसके अतिरिक्त साधु स्त्री के साथ ग्राम आदि में विहार न करें। 'अपि' शब्द से यह सूचित होता है कि कभी स्त्री के साथ एक आसन पर भी न बैठे। साधुओं का स्त्रियों के साथ सम्पन्ध होना महापाप का कारण है। कहा भी है-'मात्रा स्वस्त्रा' इत्यादि । 'माता पहिन और पुत्री के साथ भी एकान्त में नहीं बैठना चाहिए, क्योंकि इन्द्रियाँ बलवान होती हैं और वे विधान पुरुष को भी आकर्षित कर लेती हैं ।' फिर भी 'तप्ताङ्गार समा' इत्यादि । ___'नारी तपे हुए अंगार के समान है और पुरुष घी के घडे के समान है । अतएव बुद्विमान् पुरुष अग्नि और घी को एक ही स्थान पर स्थापित न करे। અનુભવ કરવો પડે છે, એજ પ્રમાણે સ્ત્રીને સંગમાં અનુરક્ત થનાર પુરુષને નરકાદિના દુખે વેઠવા પડે છે. વળી સાધુએ સ્ત્રીની સાથે સાથે ગામ આદિમાં વિચારવું પણ જોઈએ નહીં તેણે સ્ત્રીની સાથે એક આસન પર બેસવું જોઈએ નહીં. સાધુઓને એની સાથેનો સંબંધ મહાપાપમાં કારણભૂત બને છે. કહ્યું પણ છે કે 'मात्रा स्वस्रा' त्याह “સાધુએ માતા, પુત્રી કે બેનની સાથે પણ એકાન્તમાં બેસવું જોઈએ નહીં, કારણ કે કામવાસના એવી બળવાન વસ્તુ છે કે તે વિદ્વાન પુરુષને પણું આકર્ષી શકે છે. વળી એવું પણ કહ્યું છે કે – 'तप्ताङ्गार समा' इत्याहि નારી પ્રજવલિત અંગારા સમાન છે અને પુરુષ ઘીના ઘડા સમાન છે. તેથી અગ્નિ અને ઘી સમાન નારી અને પુરુષને સમાગમ ભારે અનર્થકારી સમજવું જોઈએ. બુદ્ધિમાન પુરુષે આ કારણે સ્ત્રીને સમાગમ સેવા જોઈએ નહીં For Private And Personal Use Only Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २१४ सूत्रकृताङ्गसूत्रे 'एवमप्पा सुरक्खियो होइ' एषमात्मा सुरक्षितो भवति-एवम्-अनेन स्त्रीसम्मन्धेन विरहित आत्मा सर्वेभ्योऽयस्थानेभ्यः सुरक्षितो भवति । यतः सर्वेषां पापानां स्थानम् वनिता । अतः स्वहितमिच्छता नरेण आसां संवन्धो दूरादेव त्याज्यो विष. संबन्धवत् इति ५॥ मूलम्-आमंतिय उस्सविया भिक्खु आयसा निमंतंति। ... एयाणि चेव से जाणे सदाणि विरूंवरूवाणि ॥६॥ छाया--आमान्य उच्छ्राय्य भिक्षुमात्मना निमन्त्रयन्ति । एतांश्चैव स जानीयात् शब्दान विरूपरूपान् । ६॥ इस प्रकार जो आत्मा स्त्री के सम्पर्क से बचा रहता है, वही सब बुराइयों से बचा रहता है क्योंकि स्त्री समस्त पापों का स्थान है। अतएव अपना हित चाहने वाले पुरुष को इनका सम्बन्ध, विष सम्बन्ध की मांति दूर से ही त्याग देना चाहिए ॥५॥ - शब्दार्थ--'आमंतिय-आमन्य' स्त्रियां साधुको संकेत देकर अर्थात् मैं आपके पास अमुक समय आउंगी इत्यादि प्रकार से आमंत्रण देकर 'उस्सविया-उच्छ्रायय' और अनेक प्रकार के वार्तालाप से विश्वास देकर 'भिक्खु-भिक्षुम्' साधुको 'आयसा-आत्मना' अपने साथ भोग भोगने के लिये निमंतति-निमंत्रयन्ति' प्रार्थना करते हैं अतः 'से-सः' वह साधु 'एयाणि सहाणि-एतान् शब्दान्' स्त्री संबन्धी इन शब्दों को 'विरूवरूवाणि-विरूपरूपान्' अनेक प्रकार के पाशबन्धन के सामान 'जाणे-जानीयात् ' समजे ॥६॥ આ પ્રકારે જે આ-મા સ્ત્રીના સંપર્કથી બચી શકે છે, એ જ આત્મા બધા દેશોથી મુક્ત રહી શકે છે, કારણ કે સ્ત્રી સમસ્ત પાપોનું સ્થાન છે. તેથી આત્મકલ્યાણ ચાહતા પુરુષોએ સ્ત્રીના સમાગમને વિષ સમાન ગણીને તેનાથી દૂર જ રહેવું જોઈએ. પા शाय-- 'आमंतिय-आमन्त्र्य' रियो साधुने सतराने यात् આપની પાસે અમુક સમયે આવીશ વિગેરે પ્રકારથી આમંત્રણ આપીને કહ્યુંविया-उन्नय्य' तमा भने ५४२ qafatul विघास उगवीन भिम्खु -भिक्षुम्' साधुने 'आयसा-आत्मना' पातानी साधे ॥ ११॥ भाट 'निमंतंति-निमन्त्रयन्ति' प्रार्थना रे छे. 'से-सः' ते साधु 'एयाणि सदाणिएतान् शब्दान्' श्री सीमा शण्होने 'विरूवरूवाणि-विरूपरूपान्' भने। १२न! पाश चननी म 'जाणे-जानीयात्' समो. ॥६॥ For Private And Personal Use Only Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ४ उ. १ स्त्रीपरीषहनिरूपम् २१५ अन्वयार्थः--(आमंतिय) आमंत्र्य (उस्सविया) उच्छू,म्य-विश्वासमु पाद्य (आयसा) आत्मना-स्वकया भोगं कत्तुं (भिक्खु) भिक्षु साधु (निमंतंति) निम त्रयन्ति-प्रार्थयन्ति स्त्रियः । (से) सः-साधुः (एयाणि सदाणि) एतान शब्दान् (विरूवरूवाणि) विरूपरूपान्-अनेकप्रकारान् पाशबन्धानिव (जाणे) जानीयादिति ॥६॥ टीका-'आमंतिय' आमन्य, स्त्री साधु संकेतं दत्वा अर्थगत्याऽहमिदानीमयुकस्थानं गमिष्यामि, भवताऽपि तदानीन्तत्रैव आगन्तव्यमिति स्वाभिमायेणाऽऽमन्त्रणं दत्वा । 'उस्तविय' उच्छ्राग-विश्वासमुत्पाद्य विविधाक्यरचनादिना। 'आयसा' आत्मनासका सहोपभोगाय । 'निमंति' निमन्त्रयन्ति, निमन्त्रणं ददाति प्रार्थयंतीति यावत् । 'एयाणि सदाणि' एतान् शब्दान्-स्त्री संबन्धिनः शमान शब्दादीन् विषयान् । 'निरूवरूवाणि' विरूपरूहन्-विविध प्रकारान् 'से' सः साधुः यथा इने स्त्री संवद्धाः सर्वेऽपि शब्दादयो लिपाः नरकादिहेतुत्वादनर्थ___ अन्वयार्थ--स्त्रियां साधु को आमंत्रित करके विश्वास उत्पन्न करके अपने साथ भोग करने के लिए निमंत्रित करती है । साधु इस प्रकार के शब्दों को पाशयन्ध (जाल) समझे ॥६॥ टीकार्थ-स्त्री साधु को संकेत करके आमंत्रण देती है कि मैं अय अमुक स्थान पर जाऊंगी। आप भी वहीं पर आ जाना। इस प्रकार अपने अभिप्राय के अनुसार आमंत्रण देकर विविध प्रकार की वाक्य रचना द्वारा विश्वाश उत्पन्न करती है और फिर अपने साथ उपभोग करने के लिये प्रार्थना करती है । स्त्री संबंधी इन शब्दों को या शब्द आदि विषयों को साधु नाना प्रकार के पाशवन्धन समझे । साधु को समझना चाहिये कि स्त्री संबंधी सभी शब्दादि विषय नरकादि के સૂત્રાર્થ – સ્ત્રીએ સાધુને આમંત્રિત કરીને, વિશ્વાસ ઉત્પન્ન કરીને, પિતાની સાથે ભેગ ભેળવવાની વિનંતી કરે છે. સ્ત્રિનાં આ પ્રકારનાં વચનોને સાધુઓએ પાશબ (જાળ)રૂપ સમજવા. દા ટીકાથ–સ્ત્રી સાધુને સંકેત દ્વારા એવું સમજાવે છે કે હું અમુક થળે જઉં છું તમે પણ ત્યાં આવી પહોંચજો આ પ્રકારે આમંત્રણ દઈને તે વિવિધ પ્રકારની વાક્ય રચના દ્વારા સાધુને પિતાના પ્રત્યે વિશ્વાસ ઉત્પન્ન કરે છે. અને પોતાની સાથે ઉપભેગા કરવાને વિનવે છે. સ્ત્રીના આ શબ્દોને અથવા શબ્દ આદિ વિષયને સાધુએ વિવિધ પ્રકારના પાશબન્ધરૂપ સમજવા જોઈએ. તેણે એ વાત બરાબર સમજી લેવી જોઈએ કે સ્ત્રીસંબંધી સઘળા શબ્દાદિ વિષયે નરકાદિ દુર્ગતિના કારણભૂત હોવાથી અનર્થનાં મૂળ For Private And Personal Use Only Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतास्त्र मूलमिति ज्ञपरिज्ञया विजानीयात् । विज्ञाय तान शब्दादीन् स्त्रीसंवद्धान परिहरेत् । विषसंमिश्रितमिष्टान्न इत् इति । एते एव ललना संबद्धाः शब्दादयो नरकपाशरूपाः । यथा वधिकपाशविद्धो वन्यः पशुः क्लेशमद् भवति, तथा स्त्रीपाश यंत्रितः पुमान् दुःखमनुभवति इति ॥६॥ मूलम्-मणे बंधणेहि गेहिं कलुगविणीयमुवगसित्ताणं । अदु मंजुलाई भासंति आणंवयंति भिन्नकहाहि ॥७॥ छाया-मनो बन्धनैरनेकैः करुणविनीतमुपकस्य खलु । अथ मंजुलानि भाषन्ते आज्ञापयन्ति भिन्नकथाभिः ॥७॥ कारण होने से अनर्थ के मूल हैं, ऐसा ज्ञपरिज्ञा से जानकर प्रत्याख्यान परिज्ञा से विषमिले मोठे अन्न के समान उनका त्याग करे । यह स्त्री संधी शब्दादिविषय नरक पाशरूप हैं। जैसे वधिक के पाश में पद्ध पशु क्लेश का अनुभव करता है, उसी प्रकार स्त्री के फंदे में पडा हुआ पुरुष दुःख का अनुभव करता है ॥६॥ शब्दार्थ--'णेगेहि-अनेकैः' अनेक प्रकार के 'मणधणेहि-मनोय. न्धनः' मनको आकर्षीत् करनेवाले उपायों के द्वारा तथा 'कलुणविणीय. मुक्गसित्ता णं-करुणविनीतमुपकस्य खलु' करुणोत्पादक वाक्य से एवं विनीत भावसे साधुके पास आकर 'अदु मंजुलाई भासंति-अथ मंजुलानि भाषन्ते' मधुर भाषण करती है 'भिन्न कहाहि-भिम कथाभिः और कामसंबन्धी कथाओं के द्वारा 'आणवयंति-आज्ञापयन्ति' साधुको क्लिास करने के लिये आज्ञा देनी है ॥७॥ છે. આ વાત જ્ઞપરિજ્ઞાથી જાણીને પ્રત્યાખ્યાન પરિજ્ઞા વડે, વિષમિશ્રિત અન્ન સમાન તેમને ત્યાગ કરે જઈએ. આ સંબંધી શબ્દાદિ વિષયે નરકપાશ રૂપ છે. જેવી રીતે પારધીની જાળમાં બંધાયેલું પશુ કલેશ અનુભવે છે, એજ પ્રમાણે સ્ત્રીના ફંદામાં ફસાયેલે પુરુષ પણ દુઃખને અનુભવ કરે છે. દા शहा-'णेगेहि-अनेकैः' भने प्रा२ना 'मणबंधणेहि-मनोबन्धनैः' भनने त ४२१.१ SIL 'कलुगविणीयमुवगसित्ता णं करुणविनीतमुपकस्य खलु' ४३न पायोथी तथा विनीतमाथी साधुनी पासे मानीने 'अदु मंजुलाई मासंति-अथ मंजुलानि भाषन्ते' मधुर भाष्य ४२ छ. 'भिन्नकहाहिभिन्नकथाभिः' तमा म भी था। द्वा२। 'आणवयंति-आज्ञापयन्ति' साधुने विलास ४२वानी माज्ञा मापे छ. ॥७॥ For Private And Personal Use Only Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ४ उ.१ स्त्रीपरीषहनिरूपणम् २१७ अन्वयार्थ:--(णेगेहि) अनेक (मणबंधणेहि) मनोबन्धनैः मनोहारकैरुपायैः (कलणविणीयमुवगसित्ता ण) करुणविनीतमुपकस्य-करुणोत्पादकवाक्येन विनम्र. भावेन साधुसमीपमागत्य खलु (अदु मंजुल्लाई भासंति) अथ मंजुलानि भाषन्ते (भिन्न कहादि) भिन्नकथाभिः-कामसंबन्धिवचनप्रकारेण (आणवयंति) आज्ञापयन्ति -विलसितुमिति ॥७॥ टीका--'णेगेहि' अनेकै 'मणबंधणेहि मनोबन्धनैः, मनो बध्यते यः प्रकारैः तानि मनोबन्धनानि, मंजुलवचनाऽपांगदर्शनांगपत्यङ्गदर्शनादीनि। तदुक्तम् 'णाह! पिय ! कंत! सानिय! दइय ! जियाओ तुमं मह ! पिओसि । जीए जीयामि अहं पहुरसि तं मे सरीरस्स ॥१॥' छाया--नाथ कान्त मिय स्वामिन् दयित जीवात् त्वं मम पियोऽसि। जीवति जीवामि अहं प्रभुरसि त्वं मे शरीरस्य ॥१॥ हे नाथ ! मम शरीररक्षक ! हे प्रिय ! मम नेत्राभिराम ! हे कान्त ! ममामिलपितवस्तदायक ! हे स्वामिन् रक्षक ! हे दयित ! ममोपरि सर्वथा दयाकारक ! ___ अन्वयार्थ--स्त्रियाँ मन को बद्ध करने वाले अनेक उपायों से करुण एवं विनीत वचन बोलकर समीप आती हैं और मधुर भाषण करती हैं। कामोत्पादक नाना प्रकार के वचनों से विलास करने के लिए कहती हैं ॥७॥ टीकार्थ--जिनके द्वारा मन बद्ध हो जाय ऐसे मधुर वचन, कटाक्ष, अंगोपांगों का दर्शन आदि मनोबन्धन कहलाते हैं। कहा भी है'नाह' इत्यादि। हे नाथ ! अर्थात् मेरे शरीर के रक्षक ! हे हे प्रिय !कान्त ! अर्थात् मुझे मनचाही वस्तु प्रदान करने वाले ! हे स्वामिन् ! हे दयित! સૂત્રાર્થ–સ્ત્રીઓ મનને મોહિત કરનારા અનેક ઉપાયોને તથા કરુણ અને વિનીત વચનેને પ્રયોગ કરીને મીઠી મીઠી વાત કરીને સાધુને ભરમાવે છે. વિવિધ પ્રકારના કામોત્પાદક વચને વડે તે સાધુને કામ ભેગો પ્રત્યે ખેંચવાને પ્રયત્ન કરે છે. ઘણા ટીકાઈ–જેના દ્વારા મન બદ્ધ–હિત થઈ જાય એવાં મધુર વચને, કટાક્ષ અને અંગેપગેને પ્રદર્શનને મબન્ધન કહે છે. કહ્યું પણ છે કે 'नाह' त्यादि તેઓ કહે છે–હે નાથ! (એટલે કે મારા શરીરના રક્ષક) હે પ્રિય! 3 d! (भने भानामती वस्तु महान ४२ना), २१भिन्! यित ! (મારા પર દયા રાખનારા) તમે જ મારા જીવનના આધાર છે. તમારા सू० २८ For Private And Personal Use Only Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८. सूत्रकृताङ्गसूत्रे स्वं मम जीवात्-जोवितादपि पियोऽसि, त्वयि जोवत्येवाह जीवामि त्वमेव मम शरीरस्य प्रभुरसि ॥१॥ इत्यादि । अनेकप्रकारकमधुरालापादिप्रपञ्चः सकरुणम् । 'उवगसित्ताणं' उपकस्य उपसंश्लिष्य, 'कम् गो' इति धातोः 'उप' उपसर्गे त्वाप्रत्ययस्य ल्यपि उपकस्येति रूपमा साधोः समीपमागत्येत्यर्थः 'अदु' अथ 'मंजुलाई" मंजुलानि मनोज्ञ नानाविधवचनानि । 'मासंखि' मानते । उदुक्तम् _ 'मितमहुररिभित्र पिल्लरहि ईली कडकखालिएहि । सविगारेहि वराग हिययं पिहियं मयच्छोए ।।२। छाया--मितमधुररिभितजलियती पत्कटाक्षाप्तितः । सविकारैराकं हृदयं पिहितं मृगाक्ष्या ।।२।। इति। तथा-'भिन्न कहाहि भिन्न कथाभिः रहस्यकथनैः मैथुरसंबद्धवचनैः यतीनां चित्तमाकृष्य तं मैथुनकरणाय 'आणवयंति' आज्ञापयन्ति कुमार्गे मवर्तमन्ति । यथा स्ववशवर्तीदासः स्वस्याज्ञामात्रेण कार्य शुभमशुभं वा करोति तथा स्वाज्ञावशवर्तिनमवगत्य यतिमपि प्रवर्तयति कुकृत्य करणायेति भावः ॥७॥ अर्थात् मेरे ऊपर पूर्ण दया रखने वाले ! तुम्हारे जीवित रहने पर ही मैं जीवित हूं। तुम्हीं मेरे शरीर के स्वामी हो।' ... इस प्रकार के अनेक मधुर वचन कहकर और समीपवर्तिनी होकर मीठी मीठी बातें करती हैं । कहा भी है। 'मित मधुर' इत्यादि। - 'मृगाक्षी ने परिमित एवं नथुर आलापों से तथा कटाक्ष और मन्द हँसी आदि विकारों से पुरुष के तुच्छ हृदय को ढांक दिया है। स्त्रियां मैथुन संबन्धी वचनों से साधु के चित्त को अपनी ओर आकर्षित करती हैं और मैथुन करने की आज्ञा देती हैं, उसे कुमार्ग में प्रवृत्त करती हैं। तात्पर्य यह है कि जैसे अपने अधीन में रहा हुआ दास अपनी વિના હું જીવી શકું તેમ નથી. તમે જ મારા શરીરના સ્વામી છે.” આ પ્રકારના અનેક વચને કહીને તથા મીઠી મીઠી વાત કરીને તે तेने सयमयी श्रष्ट ४२ हे. धुं ५ छ ?---'मितमधुर' या “મૃગાક્ષીએ પરિમિત અને મધુર આલાપ વડે તથા કટાક્ષે અને મન્દ હાસ્ય આદિ વિકારે વડે પુરુષના તુચ્છ હૃદયને ઢાંકી દીધું છે. સ્ત્રિઓ મૈથુન વિષયક વાતે વડે સાધુના ચિત્તને પિતાની તરફ આકર્ષે છે, અને રોથન સેવવાની પ્રેરણા આપીને તેને કુમાર્ગમાં પ્રવૃત્ત કરે છે.' આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે જેવી રીતે ગુલામની પાસે તેને For Private And Personal Use Only Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समार्थबोधिनी टीका प्र. शु. अ. ४ उ. १ स्त्रीपरीषहनिरूपणम् अपि च मूलम् -सीहं जहा व कुणिमेणं निव्भयमेगेचरंतिपासणं । एवित्थियाड बंधति संबुडं एगतियमणगारं ॥ ८॥ छाया - सिंहं यत्रा मांसेन निर्भयमेकवर पाशेन । एवं सियो बध्नन्ति संवृतमेकतयमनगरम् ॥ ८॥ अन्वयार्थः - - (जा) यथा (नियं) निर्भयं गतभयं (एचरंति) एकचरम् (सी) सिंहम् (कुणिमेणं) मसिन-पासं दच्या (पासेणं) पाशेन गलत्रादिना (बंधंति) वनम्ति धिकाः ( एवं) एवं थैत्र (इत्थियाउ) स्त्रियः (संबुर्ड) संहृतं = आज्ञा के अनुसार अच्छा या बुरा कार्य करता है, उसी प्रकार स्त्रियां साधु को अपने अधीन हुआ जानकर उसे कुकर्म करने में प्रवृत्त करती हैं ॥ ७॥ शब्दार्थ - 'जहा पथा' जैसे निब्भयं निर्भयम्' भयरहित 'एचरंति - एकचरम्' अकेला ही विवरनेवाले 'सीहं सिंहम्' सिंहको 'कुणिमेणं - मांसेन' मांस देकर ' पाले-पाशेन' पाशके द्वारा ' बंधंति वनन्ति' वधकजन पकड लेते है- 'एवं - एवम्' उसी प्रकार 'इस्थियाउस्त्रियः' स्त्रियां 'संडे 'संवृतम्' मन वचन और काय से गुप्त ऐसे और 'एगतयं - एक तिकं' एकाकी 'अणगारं अनगारम्' साधुको 'बंधंतिबध्नन्ति' अपने हावभावरूपी पाशसे बांध लेती हैं ॥८॥ २१९ अन्वयार्थ जैसे निर्भय और एकाकी विचरण करने वाले सिंह को मांस से लुभाकर शिकारी पाश में बांध लेते हैं उसी प्रकार स्त्रियां संवरयुक्त अर्थात् मन वचन एवं क्राय से गुप्त, एकाकी अनगार को फँसा लेती हैं ॥ ८ ॥ માલિક સારું અથવા નરસુ‘કામ કરાવી શકે છે, એજ પ્રમાણે સ્ત્રી સાધુને પેાતાને આધીત થયેલા જાગ઼ીને તેને કુકમ કરવામાં પ્રવૃત્ત કરે છે છા शष्टार्थ---'जहा-यथा' प्रेम 'निभयं निर्मयम्' लयथी रहित भने 'एम चरंति - एकचरम्' सेसी वियरावाणा 'सीहं सिंहम्' सिंहने 'कुणिमेण - मांसेन' मांस याने 'प से गं - पाशेन' पाश द्वारा 'बंधति बध्नन्ति' शिकारीये। मुडी से छे, 'एवं - एवम् ४ शेते 'इत्थियाउ- स्त्रियः' स्त्रियो 'संबुडं - संवृत्तम्' भन वयन भने डायश्री गुप्त सेवा भने ' एगतयं एगतिक' मेला सेवा 'अणगारं - अनगारम्' साधुने 'बंधति-मव्नन्ति' पोताना हावभाव ३५ी पाशथी આંધી લે છે. ૫૮ાાં For Private And Personal Use Only સૂત્રા—જેવી રીતે નિર્ભય અને એકલા વિચરતા સિહુને માંસ વડે લલચાવીને શિકારી પાશમાં બાંધી લે છે, એજ પ્રમાણે સ્રિએ પણ સ્વરયુક્ત-મન, વચન અને કાયગુપ્તિથી યુક્ત એકાકી સાધુને ફસાવી લે છે. Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२० सूत्रकृताङ्गसूत्रे मनोवाक्कायगुप्तमपि साधुम् (एगतयं) एकतिय मेकाकिनम् (अणगारं) अनगारं साधु बध्नन्ति विचित्रहावभावेन स्त्रिय इति ॥८॥ टीका--'जहा' यथा 'निभयं' निर्भयम्-स्वभावतो भयरहितमपि 'सी' सिंह वनराजम् 'कुणिमेणं मांसेन-मासं दत्त्वा 'पासेणं' पाशेन 'बंधति' बध्नाति बधिकः, बद्धा चाऽनेकप्रकारेण पीडां ददाति । एवं' एवमेवं प्रकारेण 'इस्थियाउ' स्त्रियः बध्नन्ति स्ववशं कुर्वन्ति, 'संवुडं' संवृतम्-प्रशममनोवाक्काययोगयुक्तं 'एकतयं' एकाकिनं मुनिराज 'अणगारं' अनगारं साधुम् यदा संवृत्तोऽपि मनोवाक्कायैः गुप्तोपि साधुः स्त्रीणां वशमुपयाति, तदा का कथा असंवृतानामितरेषाम् । एतावता स्त्रीणामतिसामर्थ्य प्रदर्शितम् । अन्ये च परीपहाः यथा कथंचित् जेतुं शक्या अपि किन्तु स्त्री पीपहः दुःखेन जेतुं शक्यते इति ध्वनितम् इति ॥८॥ टीकार्थ--जैसे स्वभाव से ही निर्भय और इस कारण एकाकी विचरण करने वाले वनराज सिंह को मांस देकर शिकारी बन्धन में बांध लेते हैं और बांधकर अनेक पीडाएँ देते हैं, इसी प्रकार स्त्रियाँ मन वचन काय को गोपन कर रखने वाले एकाकी मुनि को अपने बन्धन में फंसा लेती हैं। ___ जब अपने मन वचन और काय को वशीभूत कर लेने वाला साधु भी स्त्रियों के वशीभूत हो जाता है तो अन्य असंवृत (गृहस्थजनों) का तो कहना ही क्या है ? इस कथन के द्वारा स्त्रियों के सामर्थ्य का अतिशय प्रदर्शित किया गया है और यह भी सूचित किया गया है कि अन्य परीषह तो किसी प्रकार सहन भी किये जा सकते हैं मगर स्त्री परीषह को जीतना अत्यन्त कठिन है ॥८॥ 1 ટીકાઈ–સિંહ નિર્ભય હોવાને કારણે વનમાં એકલે વિચરણ કર્યા કરતે હેય છે. એવા વનરાજ સિંહને માંસ વડે લલચાવીને શિકારી જાળમાં ફસાવે છે, અને તેમાં ફસાયેલા સિંહને અનેક પ્રકારે પીડ પહોંચાડે છે, એજ પ્રમાણે મન, વચન અને કાયમુતિથી યુક્ત, એકાકી મુનિને સ્ત્રી હાસ્ય, કટાક્ષ આદિ પૂર્વોક્ત ઉપાયો દ્વારા પિતાના ફંદામાં ફસાવે છે. જે પિતાના મન, વચન અને કાયાને વશ રાખનારા સાધુઓ પણ સ્ત્રીઓના મોહપાશમાં ફસાઈ જાય છે, તે અન્ય અસંવૃત (વ્રતરહિત) પુરુષોની તો વાત જ શી કરવી ! આ કથન દ્વારા સૂત્રકારે સ્ત્રીઓના સામર્થ્યની અતિશયતા પ્રગટ કરી છે, અને એ વાત સૂચિત કરી છે કે અન્ય પરીષહેને તે કઈ પણ રીતે સહન પણ કરી શકાય છે, પણ સ્ત્રી પરીષહને જીતવાનું કાર્ય ઘણું જ મુશ્કેલ છે. ૮ For Private And Personal Use Only Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ४ उ. १ स्त्रीपरीपहनिरूपणम् २२१ मूलम्-अहं तत्थे पुणो णमयंति रहेकारोव मि आणुपुबीए । बद्धे मिए व पासणं फंदते वि ण मुच्चए ताहे ॥९॥ छाया--अथ तत्र पुनर्नमयन्ति रथकार इव नेमि मानुपूा । बद्धो मृग इव पाशेन स्पन्दमानोऽपि न मुच्यते तस्मात् ॥९॥ अन्वयार्थ:--(रहकारो) रथकारः (आणुपुबीए) आनुपूर्या क्रमश: (णेमिंव) नेमिमिव चक्रवाह्यभ्रमिरूपम् (अह) अथ (तत्थ) तत्र स्वाभिप्रेतकार्यकरणे (णमयंति) नमयन्ति (पासेणं) पाशेन (वढे) बद्धः (मिए य) मृग इव (फंदते वि) स्पन्दमानोपि मोक्षार्थम् (ताहे) तस्मात् (ण मुच्चह) न मुच्यते-मुक्तो न भवतीति ।।९॥ शब्दार्थ--'रहकारो--रथकार:' रथ बनानेवाला 'आणुपुचीएआनुपूया' क्रमपूर्वक 'णेमि व-नेमिमिद' जैसे नेमि-चक्र को नमाता है इसी प्रकार स्त्रियां साधुको 'अह-अथ' अपने वश में करने के पश्चात् 'तत्थ-तत्र' अपने इच्छित कार्य कराने में 'मयंति-नमयति' झुझा लेती है 'पासेणं-पाशेन' पाशसे बद्धे-'बद्धः' बंधा हुआ साधु-मिए व-मृगइव' मृगके समान 'फंदते वि-स्पन्दमानोपि' पाशसे छुटने के लिये प्रयत्न करता हुआ भी 'ताहे-तस्मात' उससे 'ण मुच्चए-न मुच्यते' नहीं छूटता है।९। ___अन्वयार्थ-जैसे रथकार (सुधार) क्रमशः नेमि को नमाता है, उसी प्रकार नारियां साधु को अपने अधीन कर लेती हैं। तत्पश्चात् वह साधु पाशबद्ध मृग जैसा छुटकारा पाने के लिये फड़फड़ाता हुभा भी छुटकारा नहीं पाता ॥९॥ शहाथ-'रहकारो-रथकारः' २५ मनाजो 'माणुपुबीए-आनुपूर्व्या' भपूर्व ‘णेमि व-नेमिमिव' भ नेमी (धरी) ने नभाय छे. मे शत लिया साधुने 'अह-अथ' पाताने १२ यर्या पछी 'तत्थ--तत्र' पातानी ७२छ प्रमाणुना सय ४२११पामा ‘णमयंति-नमयन्ति' नभावी a छे. 'पासेणं-पाशेन' पाशथी 'बद्धे-बद्धः' ५धाये साधु 'मिए व-मृग इव' भृतानी गेम 'फईते वि -स्पन्दमानोऽपि' ५.शथी २११ माटे प्रयत्न ४२तेडावा छतां ५५ 'ताहेतस्मात्' ते पाश धनथी 'ण मुच्चइ-न मुच्यते' छूटती नथी । સૂત્રાર્થ–જેવી રીતે રથકાર (સુથાર) ધીમે ધીમે નેમિને પૈડાની વાટને) નમાવીને પિડા પર ચડાવી દે છે, એ જ પ્રમાણે ઝિઓ પણ ધીરે ધીરે સાધુને પિતાને અધીન કરી લે છે. જેવી રીતે જાળમાં બંધાયેલું મૃગ તેમાંથી છૂટવા માટે ગમે તેટલા તરફડિયાં મારવા છતાં છૂટી શકતું નથીએ જ પ્રમાણે સાધુ પણ તેના ફંદામાંથી છૂટી શક્તિ નથી. ભલા For Private And Personal Use Only Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२२ सूत्रकृताङ्गसूत्रे टीका--'रहकारो' रथकारः रथं करोति इति रथकारो वर्धकिः । 'आणुपुबीए' आनुपूर्या-अनुक्रमशः इति यावद । 'णेविं' नेमिमित्र ‘णमयंति' नमयन्ति यथा रथकारो नेमि क्रमशः स्वेच्छया नमयति 'अह' अथ, तथा स्ववशकरणानन्तरम् 'तत्य' तत्र स्वेष्टवस्तुनि यति नमयन्ति स्त्रियः । 'मिए व मृग इव 'पासेणं' पाशेन 'बद्धे' बद्धः फंदते वि' स्पन्दमानोऽपि मोक्तुमिच्छया प्रयत्न कुर्वाणोऽपि 'ताई' तस्मात् पाशबन्धनात् 'ण मुच्चए' न मुच्यते । ___ यथा रथकारो नेमि स्वेच्छया नमयति, तथा स्वशं यतिमपि ललना स्वेच्छया नमयति, यथा यथाऽभिलपति, तथा तथा तं काश्यति । करोति 'च साधुः यथा वा मृगो वधिकेन पाशद्वारा बद्धो मोक्षेच्छया प्रयतमानोऽपि बन्धनान्न टोकार्य जैले बढ़ई (सुधार) अनुक्रम से नेमि को अपनी इच्छा के अनुसार नमा लेता है, उसी प्रकार अपने वशीभूत करने के पश्चात् स्त्रियां साधुको अपने इष्ट प्रयोजन की पूर्ति के लिए झुका लेनी हैं । फिर जैसे पन्धन में बद्ध नृा छूटने के लिए प्रयल करने पर भी छुटकारा नहीं पाता, उसी प्रकार साधु भी उस बन्धन से नहीं छुट पाता। आशय यह है कि जैसे रथकार (चढई) नेमि को इच्छानुसार नमाता है, उसी प्रकार अपने अधीन हुए मुनि को स्त्री नभाती है, अर्थात् वह जो जो चाहती है वहीं वही उससे करवाती है । और साधु को वह सच करना पड़ता है। जैसे शिकारी के द्वारा पाशबद्ध किया हुआ मृग छुटकारा पाने की इच्छा से फड़फड़ाता है, फिर भी छुटकारा ટીકાW—જેવી રીતે સુથાર નેમિને (પડાની વાટને) પોતાની ઈચ્છાનુસાર ક્રમશઃ નમાવીને પૈડા પર ચડાવી દે છે, એજ પ્રમાણે “શિઓ પણ ધીરે ધીરે સાધુને પિતાને અધીન કરી લઈને પોતાના ઈટ પ્રજનની સિદ્ધિ માટે તેમને પ્રવૃત્ત કરે છે. જેવી રીતે શિકારીની જાળમાં બંધાયેલું મૃગ ગમે તેટલા પ્રયત્નો કરવા છતાં પણ બંધનમાંથી મુક્ત થઈ શકતું નથી, એ જ પ્રમાણે સાધુ પણ તે બધનમાંથી છૂટી શકતો નથી. આ કથનનો ભાવાર્થ એ છે કે જેવી રીતે સુથાર રથની નેમિને પીડાની) વાટને ક્રમશઃ ઈચ્છાનુસાર નમાવે છે, એજ પ્રમાણે પોતાને અધીન થયેલા સાધુને કામિની પણ પિતાની ઈચ્છાનુસાર નમાવે છે, એટલે કે તે તેમની પાસે પિતાની ઈરછાનુસાર કાર્ય કરાવે છે, અને સાધુને તે સઘળું કાર્ય ઈચછા હોય કે ન હોય, તે પણ કરવું પડે છે. જેવી રીતે શિકારી વડે જાળમાં બંધાયેલું મૃગ મુક્ત થવાને માટે ગમે તેટલા ધમપછાડા કરે, તો પણ તેમાંથી મુક્ત For Private And Personal Use Only Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थयोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ४ उ. १ स्त्रीगरीषहनिरूपणम् २२३ मुच्यते, तथा साधुरपि स्त्रीवशमुपगतः पुन न तदधिकारान्निवर्तते। ततो न विमुच्यते इति भावः ॥९॥ मूलम्-अहे से ऽणुतप्पई पच्छा भाचा पायसं व विसमिस्सं। एवं विवेगमादाय संबासो न वि कप्पए दैथिए ॥१०॥ छापा~-अथ सोऽनुप्यते पश्चात् भुक्त्वा पायसमिव विपमिश्रम् । एवं विवेकमादाय संबासो नापि कल्पते द्रव्ये ॥१०॥ __ अन्ययार्थ:-(इ) अब (से) सः-साधुः (पच्छा) पश्चात् (अणुतुप्पई) अनुतप्यते-पश्चातापं करोति (विसमिस्स) विभिश्रम् (पायसं) पायसमित्र (भोचा) नहीं पाता, उसी प्रकार स्त्री के वश में पडा हुमा साधु भी फिर उसके पंजे से नहीं छुट पाता है ॥९॥ शब्दार्थ--'अह-अध' स्त्रीके वशवी होने के अनंतर 'से-सः' वह साधु पच्छा-पश्चात् पीछे से 'अणुतपई-अनुन प्यते' पश्चात्ताप करता है 'विसमिर-विषमिश्रम्' जैसे विषसे मिला हुआ 'पायसं-पायसम्' पायस-दूधपाक 'भोच्चा-भुक्त्वा' खाकर मनुष्य पश्चात्ताप करता है "एवं-एवम्' इस प्रकार 'विवेगमादाय-विवेकमादाय' विवेक को ग्रहण करके 'दथिए-द्रव्यः' मुक्तिगमन के योग्य साधु को उनके साथका संवासो-संगास संबास-अर्थात् एकस्थान में रहना 'नधि कप्पए-नापिकल्पते योग्य नहीं है ॥१०॥ ___ अन्वयार्थ-तदनन्तर वह साधु पश्चात्ताप करता है जैसे विषमिश्रित खीर खाने वाला पश्चाताप करता है। इस तथ्य को जानकर मुक्तिगमन के योग्य साधु स्त्रियों के साथ निवास न करे ॥१०॥ થઈ શકતું નથી, એજ પ્રમાણે સ્ત્રીના મેહપાશમાં જકડાયેલે સાધુ પણ તેના ફદામાંથી છૂટી શકતું નથી. મલા श -'अह-अथ' खीने १२ थया ५छी से-सः' ते साधु 'पच्छा-पश्चात्' थी 'अणुतप्पइ-अनुतप्यते' पश्चात्ता५ ४२ छ. 'विस मिस्स-विषमिश्रम' विषयी भणे पायसं-पायसम्' या 'भोचा-भुक्त्वा' मान मनुष्य पश्चाता५ २ २. 'एवं-एवम्' से शत विवेगमादाय-विवेकमाक्षय' लिवन मनुसरीन 'दविए-द्रव्यः' भुति गमन ४२वाने योग्य साधुने तीन साथैन। 'संवासो-संवासः' सपास मत से स्थानमा २ 'नवि कप्पइ-नापि कल्पते' યોગ્ય નથી. ૧૦ સૂત્રાર્થ–જેવી રીતે વિષયુક્ત અન્ન ખાનારને પશ્ચાત્તાપ થાય છે, એ જ પ્રમાણે સ્ત્રીના મેહપાશમાં બંધાયેલા સાધુને પશ્ચાત્તાપ કર પડે છે. આ For Private And Personal Use Only Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२४ सूत्रकृताङ्गसूत्रे भुक्त्वा -यथा विपमिश्रितपायसमोजी पश्चात्तापं करोति तद्वत् (एवं) एवमेव (विवेगमादाय) विवेकसादाय (दलिए) द्रव्यो छुक्तिगमनयोग्यः तस्मिन् (संवास) संवासः स्त्री संवन्धः (न विकाए) नापि कल्पते समीचीनो न भवतीति भावः ॥१०॥ टीका-'अह' अथ 'से' असौ साधुः स्त्रीपाशनियंत्रितः सन् प्रतिदिनं क्लेशमनुभवन् ' पच्छा' पश्चात् 'अणुनःपई' अनुतप्यते पश्चात्तापं करोति । यथा कुटुम्बे नियन्त्रितानाम् , शशाशं दुःखमवश्यमेव भवति । परिवारकृते पापमिश्रितं कर्म कुर्वन् पापश्लिष्टो दुःखमनुव्रजति । उक्तंच 'मया परिजनस्यार्थे कृतं कर्म सुदारुणम् । एकाकी तेन दह्येऽहं गतास्ते फलभागिनः ॥१॥ एवं स साधुरपि परितप्यते। टीकार्थ--स्त्री के जाल में पड़ा हुआ वह साधु प्रतिदिन क्लेश का अनुभव करता हुआ पश्चात्ताप करता है। जैसे जो लोग कुटुम्ब रूपी जाल में पडे हैं उन्हें नाना प्रकार के दुखों को अवश्य ही भुगतना पडता है। परिवार के लिए पापमय कर्म करने वाला स्वयं पाप से लिप्त होता है और भविष्य में भी उसे दुःखों का भागी होना पड़ता है। कहा भी है-'मया' इत्यादि । ___ 'मैंने परिजनों के लिये क्रूर से क्रूर कर्म किये, मगर आज मैं अकेला ही संतप्त हो रहा हूं। जिन्होंने मेरे उन पाप कार्यों से संगृहीत वस्तु का फल भोगा था वे सब चले गये !' इस प्रकार वह साधु भी पश्चात्ताप करता है। તથ્યને હદયમાં ઉતારીને મોક્ષગમનની અભિલાષા રાખતા સાધુએ સ્ત્રીઓની સાથે નિવાસ કરવા જોઈએ નહી ૧૦૧ ટીકાથ–– સ્ત્રીની જાળમાં ફસાયેલે તે સાધુ પરિવારને નિમિત્તે પ્રતિદિન કલેશને અનુભવ કરતે રહે છે, તે કારણે સંયમથી ભ્રષ્ટ થવા માટે તેને પશ્ચાત્તાપ થાય છે. જે લેકે કુટુંબની સાથે રહે છે તેમને વિવિધ બેને અનુભવ કરે પડે છે. પરિવારને નિમિત્તે પાપકર્મ સેવનારા પુરુષ પિતે જ પાપથી લિપ્ત થાય છે, અને ભવિષ્યમાં પણ તેને દુઃખના ભાગીદાર બનવું ५. छे. युं ५५ छ 3-'मया' या: મેં પરિજનેને માટે કુરમાં ક્રૂર કર્મોનું સેવન કર્યું, પરંતુ આજે હું એકલે જ સંતાપને અનુભવ કરી રહ્યો છું. જેમણે મારાં તે પાપકર્મો દ્વારા ઉપાર્જિત વસ્તુઓનું ફળ ભોગવ્યું હતું તે બધાં ચાલ્યા ગયા આ રીતે સાધુ પણ પશ્ચાત્તાપ કરે છે, For Private And Personal Use Only Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ४ उ. १ स्त्रीपरीषहनिरूपम् २२५ यथा 'विसमिस्सं' विषमिश्रितम् । 'पायसं भोचा व पायसं क्षीरपाचितमन्नं खीर इति लोकमसिद्धं मुक्त्वेव । यथा कश्चिद्विषमिलितं पायसं भुक्त्वा विषवेगाऽऽकुलितः अनुतप्यते यथा मया पापेन समितैषिणा सुखरसिकतया भविष्पदविपाकिकमैवभूतं भोजनमास्वादितं तथैव स्वमपि पुत्रपौत्रदुहितजामातृकलत्रनप्तभ्रातृश्वशुरश्वश्रू मागिनेयादीनां भोजनपरिणयनालंकारजातकर्ममृतककर्मव्याधिचिकित्साचिन्ताकुलोऽगतस्वशरीरकर्तव्यः प्रनष्टैहिकामुष्मिकानुष्ठानोऽहनिशं तद्वयापाराकुलि. तमतिः परितप्यसे पश्चात्तप्यसे तदनुम्रियसे। सथा-स्त्रीपरिवारादि चिन्तया चिन्तितो जैसे कोई विवेकविकल मनुष्य विषमिश्रित खीर खाकर और बाद में विष के वेग से आकुल व्याकुल होकर सन्ताप करता है कि हाय ! मैं कैसा मूढ हूं। मैंने वर्तमानकालीन सुख का विचार किया और भविष्य में होने वाले उसके दुष्परिणाम की उपेक्षा की । इसी प्रकार तुम भी पुत्र पौत्र पुत्री जामाता पत्नी नाती भाई श्वशुर सासू एवं भागिनेय (भाणजा) आदि के भोजन विवाह, अलंकार, जातकर्म, मृप्तकर्म बीमारी की चिकित्सा आदि से व्याकुलचित्त हो रहे हो, अपने शरीर संबंधी कार्यों को भी भूल बैठे हों, इस लोक और परलोक संबंधी कर्तव्यों को रातदिन-भुला बेठे हो। तुम्हारी बुद्धि उन्हीं के व्यापारों से જેવી રીતે કોઈ વિવેકવિહીન મનુષ્ય આવેશમાં આવી જઈને વિષમિશ્રિત ખીર આદિ ખાઈ જાય છે, પરંતુ જેમ જેમ શરીરમાં વિષ વ્યાપતું જાય છે તેમ તેમ આકુળ વ્યાકુળ થઈને પસ્તા કરે છે કે હાય, હું કે મૂખ છું! મેં વર્તમાનકાલીન સુખને જ વિચાર કર્યો અને તેના દુષ્પરિગામની ઉપેક્ષા કરી.” એ જ પ્રમાણે તમે પણ પુત્ર, પુત્રી, પૌત્રો, જમા. धी, पत्नी, मान्ने, साली सासु, सस, आई, मन माहिना ભોજન વિવાહ અલંકાર જાતકર્મમૃતમ બીમારીની ચિકિત્સા આદિ વહે. વારમાં એવા તે પ્રવૃત્ત રહો છે કે તેમની ચિંતા આડે તમારા શરીર આદિની ચિંતા પણ ભૂલી ગયા છે. કયારેક કોઈ પુત્ર, પુત્રી આદિના લગ્નની ચિંતા, કયારેક પત્ની આદિને માટે અલંકારે ઘડાવવાની ચિંતા, કયારેક કોઈની બીમારીની ચિકિત્સાની ચિન્તા ભાણી ભાણીયાના મામેરાની ચિન્તા, કોઈ સગાના મરણ પાછળની વિધિઓની ચિન્તા આદિમાં જ તમારું ચિત્ત પરોવાયેલું રહે છે. આ બધી પરિજનવિષયક ચિંતાઓથી તમારૂં ચિત્ત વ્યાકુળ રહે છે. તેને કારણે તમે તમારા અહિક અને પારલૌકિક કર્તવ્યોને स. २९ For Private And Personal Use Only Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे भवसि । 'एवं' एवं पूर्वोक्तरूपेण । 'विवेग' विवेकं स्वानुष्ठानस्य 'आदाय' आदायप्राप्य। 'दविए' द्रव्यो मुक्तिगमनयोग्यः साधुः तस्मिन् द्रव्ये 'संवासः' स्त्रीभिः सह एक स्थाने स्थितिः। 'नवि कप्पए' नैव कल्पते एकत्रस्थाने नै तिष्ठेदिति ॥१०॥ स्त्री संबन्धजनितदोषानुपदर्य उपसंहारमाह सूत्रकार: 'तम्हा उ वज्जए इत्थी' इत्यादि। मूलम्-तम्हा उ वजेए इत्थी विसलित्तं व कंटगं नैच्चा। ओर कुलाणि वसर्वत्ती आघीते ण से वि णिगंथे॥११॥ छाया-तस्मात्तु वर्जयेस्त्रीः विषलिप्तमिव कण्टकं भावा। ओजः कुलानि वशवर्ती आख्याति न सोऽपि निग्रन्थः ॥११॥ व्याकुल रहती है। परिताप करना पडता है। तथा स्त्री परिवार आदि की चिन्ता से चिन्तित रहना पडता है । इस प्रकार विचार करके और अपने कर्तव्य में तत्पर रहकर मोक्षगमन का अभिलाषी साधु स्त्रियों के साथ एक स्थान में निवास न करें ॥१०॥ _अब सूत्रकार स्त्री सम्पर्क से उत्पन्न होने वाले दोषों को दिखलाकर उपसंहार करते हैं-'तम्हा उ वज्जए इत्थी' इत्यादि। शब्दार्थ-'तम्हा-तस्मात्' इसलिये 'विसलितंवि-कंटगं विषलिप्तमिव कंटकम्' स्त्रीको विषसे लिप्त कंटक के तुल्य 'नच्चा-ज्ञात्वा' जानकर 'इत्थी वजए-स्त्रीः वर्जयेत्' स्त्री संसर्गको साधु वर्जित करे वसवत्ती-शપણ ભૂલી ગયા છે. તે પરિવારવિષયક પ્રવૃત્તિઓમાં જ તમે લીન રહે છે અને પરિવારવિષયક ચિંતાએ જ તમને વ્યાકુલ કરતી રહે છે. તેથી તમારે પરિતાપ સહન કરે પડે છે અને સ્ત્રી આદિ પરિવારની ચિન્તાથી જ તમારું वित्त घराये २३ छे. . . આ પ્રકારને વિચાર કરીને કર્તવ્યપરાયણ સાધુએ મોક્ષપ્રાપ્તિને ચેગ્ય અનુષ્કામાં જ પ્રવૃત્ત રહેવું જોઈએ. તેણે સ્ત્રીઓની સાથે એક જ સ્થાનમાં નિવાસ કરે જોઈએ નહી-સ્ત્રીને સંપર્ક સેવ નહી. ૧ હવે સૂત્રકાર સં૫ર્ક દ્વારા ઉત્પન્ન થતા દોષ પ્રકટ કરે છે. 'तम्हा उ वजए इत्थी' त्यादि . .. शा-'तम्हा-तस्मात' मे ४।२७थी 'विसलितं वि कंक्षय-विषलिप्तमित्र कंटकम्' बिया विषयी ५२॥३a xist : 'नचा झावाortela 'इत्थी वजए-स्त्रीः वर्जयेत्' मियाना गाना साधुमे त्या वसवली For Private And Personal Use Only Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समार्थबोधिनी टीका प्र. शु. अ. ४ उ. १ स्त्रीपरीषहनिरूपणम् २२७. अन्वयार्थः - (तुम्हा) तस्मात्तु यस्मात् स्त्रीसंपर्कोनेष्ट। तस्मात् (विसलित्तं व कंटगे) विपतिमय कंटकं (नचा) ज्ञात्वा (इत्थी बज्नए) स्त्रीवर्जयेत् त्रिणां त्यागः कर्त्तव्यः ( वसवत्ती) वशवर्ती स्त्रीणाम् (ओए कुलानि ) ओजः - एकः कुलानि एकः स्त्रीगृहं गत्वा धर्मम् ' अघाते' आख्याति उपदिशति (सेव) सोपि (ण) न (गिरथे) निग्रन्थः साधुर्न भवतीति ॥११॥ टोका - यस्मात् स्त्रीणां संबन्धो विषमफलदायी 'तम्हा' तस्मात् कारणात् 'इस्थी' स्त्री । 'वजन' वर्जयेत् तथा संवासं शब्दाद्यालापमपि वर्जयेत् । 'विसलित्तंवि' विषलिप्तमपि 'कंटक वा नच्चा' कण्टकवत् ज्ञाखा यथा विषलिप्तः कण्टकः कार्य प्रविष्टः सन् अनर्थ करोति तद्वत् । तत्रापि विषाक्तकण्टकस्य शरीरसंबन्धात्, स्त्रीणान्तु स्मरणादेक दुःखं भवतीत्यनयोरेको निर्विशेषो विशेषश्च । वर्ती? स्त्रियों के बशमें रहनेवाला पुरुष 'ओए कुलाणि ओजः कुलानि' अकेला गृहस्थ के घर में जाकरधर्म का कथन करता है 'से वि-सोऽपि ' वह भी 'ण णिग्गंथे- न निर्ग्रन्थः ' निर्ग्रन्थ नहीं है ॥ ११ ॥ अन्वयार्थ - इस कारण साधु स्त्री को विष से लिप्त कण्टक समझकर उनका त्याग कर दे। जो स्त्री का वशवर्त्ती होकर अकेला अकेली स्त्री के घर में जाकर धर्म का उपदेश करता है वह भी निर्ग्रन्थ नहीं है ॥११॥ टोकाथ--क्योंकि स्त्रियों का संसर्ग विषम फल उत्पन्न करता है, इस कारण स्त्रियों से दूर ही रहे । उनके साथ निवास एवं वार्त्तालाप ! आदि से भी बचता रहे । साधु स्त्री को विष से लिप्त कांटा समझे । विपलिप्त कांटा शरीर में प्रविष्ट होकर अनर्थ उत्पन्न करता है, इसी प्रकार स्त्रियां भी अनर्थजनक हैं। विपलिप्त कण्टक तो तभी अनर्थ 1 वशवर्त्ती' स्त्रियो वश रहेवावाणी ५३ष 'ओए कुलाणि - एकः कुलानि शृङस्थने घेर कहने से धर्म स्थन करे छे. 'सेवि - सोवि' ते पशु 'निग्र्गये -न निर्मन्थः ' निर्ऋन्थ नथी. ॥११॥ સૂત્રા - આ કારણે સાધુએ વિષથી લિપ્ત કાંટાની જેમ સ્ત્રીનેા ત્યાગ કરવા જોઈ એ. જે સાધુ સ્ત્રીને અધીન થઈને એકલા કોઇ ઘરમાં પ્રવેશ કરીને તે ઘરમાં એકલી રહેતી સ્ત્રી પાસે જઈને ધર્મના ઉપદેશ આપે છે, તે સાધુને નિગ્રન્થ કહી શકાય નહીં. ।૧૧। ટીકા-સ્ત્રિઓના સંસગ અનનું મૂળ ગણાય છે, તે કારણે સાધુએ ત્રિથી દૂર જ રહેવું જોઇએ. તેણે તેમની સાથે નિવાસ પણ કરવા નહીં અને વાર્તાલાપ પણ કરવા નહીં. સાધુએ સ્ત્રીને વિષલિમ કાંટા સમાન ગણવી જોઈ એ, જેવી રીતે વિલિસ કાંટા શરીરમાં સેકાય, તેા અનથ ઉત્પન્ન કરે For Private And Personal Use Only Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २२८ सूत्रकृताङ्गसूत्रे विषविषययोरेतावदन्तरं यत् विषं तु शरीरसंबद्धं सत् इन्ति विषयास्तु स्मर णादेव नाशयन्ति । उक्तं च 'विषस्य विषयाणां च दूरमश्यन्तमन्तरम् । उपभुक्तं विषं हन्ति विषयाः स्मरणादपि ॥ १ ॥ ' Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तथा 'ओए' ओजः - एकः = असहायः 'वसवत्ती' स्त्रीणां वशवर्त्ती 'कुलाणि' कुलानि geerकुलानि गत्वा धर्मस्योपदेशं करोति यः सोऽपि न 'निम्गंधे' निर्ग्रन्थः कर होता है जब शरीर के साथ उसका सम्पर्क हो, मगर स्त्रियां तो स्मरण मात्र से ही दुःख उत्पन्न करने वाली हैं । अतएव इन दोनों में किंचित् समानता होने पर भी इस दृष्टि से बहुत अन्तर भी है। विष और विषय में यह अन्तर है कि विष शरीर के साथ सम्पर्क होने पर विनाश करता है जब कि विषय स्मरण मात्र से ही विनाश का कारण बन जाता है। कहा भी है- 'विषस्य' इत्यादि । 'विष और विषयों में बहुत अधिक असर है। विष तब ही प्राणघात करता है जब उसका भक्षण किया जाय किन्तु विषयों की विशेपता यह है कि वे स्मरण से ही विनाश करते हैं ।' जो अकेला ही स्त्रियों के अधीन होकर गृहस्थ के घरों में जाकर धर्म का उपदेश करता है, वह निर्ग्रन्थ साधु नहीं है । साधु को ऐसा છે, એજ પ્રમાણે સ્ત્રિઓ પશુ અનથ જનક છે. વિષલિસ કટક તે ત્યારે જ અનથ જનક અને છે કે જ્યારે તે શરીરના સ'પર્કમાં આવે છે, પરન્તુ સિએના સપક' તે શુ, સ્મરણ પણ દુ:ખજનક છે! આ પ્રકારે વિષ અને વિષયમાં દેખીતી સમાનતા હૈાવા છતાં વિષ કરતાં વિષય વધારે અનથ કારી છે. વિષને શરીરની સાથે સ`પર્ક થાય ત્યારે જ તે વિનાશનુ' કારણ બને છે, વિષય તા સ્મરણમાત્રથી જ વિનાશનું કારણ અને છે. કહ્યુ પણ છે કે— 4 विषस्य ' इत्याहि વિષ અને વિષયે વચ્ચે ઘણુંા માટો તફાવત છે. વિષ તે ત્યારે જ પ્રાણાને વિનાશ કરે છે કે જ્યારે તેનું ભક્ષણ કરવામાં આવે છે, પરન્તુ વિષયની તા એ વિશેષતા છે કે તેમનુ સ્મરણુ જ કરવામાં આવે તે પશુ સ્મરણકર્તા પેાતાના વિનાશ વહેારી લે છે.’ તેથી સાધુએ સિએના સ ́પકથી દૂર રહેવુ' ોઇએ. જે સાધુ અએમાં આસક્ત થઈને, કોઇ ઘરમાં એકલા દાખલ થઈ ને કોઈ સ્ત્રીને એકાન્તમાં ધર્માદેશ આપે છે, તેને નિગ્રન્થ કહી શકાય નહીં'. સાધુએ કદી પણ સ્ત્રીને For Private And Personal Use Only Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सैमयार्थबोधिनी टीका प्र.श्रु. अ. ४ उ. १ स्त्रीपरीषहनिरूपणम् २२९ सम्यगमनजिता तत्र अपायसंभवात् एकाकी च्यादिसंकुलितगृहस्थगृहं गत्वा धर्म नोपदिशेत् । यदि कदाचिदुपदिशेत्तदा तद्गृहमगत्वैव उपाश्रये एव पुरुषसाक्षिक वैराग्यमधानकं धर्ममुपदिशेत् इति ॥११॥ विषमोऽप्यर्थः-अन्वयव्यतिरेकाभ्यां पुनः प्रतिपादितो बोधाय सुलभो भवतीति-अभिप्रायवान सूत्रकार आह-'जे एयं उंछ' इत्यादि। मूलम्-जे एयं उछ अणुगिद्धा अनयरा से हंति कुसीलाणं। सुतवस्सिएवि से भिक्खू 'नो विहरे संह णमित्थीसु॥१२॥ छाया--य एतदुन्छमनुगृद्धा अन्यतरे ते भवन्ति कुशीलानाम् । सुतपस्विकोऽपि स भिक्षुः न विहरेत् साध खलु स्त्रीभिः ॥१२॥ नहीं करना चाहिए । कदाचित् उपदेश दे तो उसके घर न जाकर ही अन्य पुरुष की विद्यमानता में उपाश्रय में ही वैराग्य प्रधान धर्म का उपदेश करे ॥११॥ __ कोई विषय दुर्गम हो तो भी अन्वय और व्यतिरेक के द्वारा अर्थात् विधि रूप से और निषेध रूप से प्रतिपादन करने से सुगम हो जाता है। इस अभिप्राय से सूत्रकार कहते हैं---'जे एवं उंछ' इत्यादि । __ शब्दार्थ--'जे-ये' जो पुरुष एयं-एतत्' इसी स्त्री संसर्गरूपी 'उछंउच्छम्' त्याज्य-नोंदनीय कर्म में 'अणुगिद्धा-अनुगृद्धा' आसक्त है 'सेते' वे पुरुष कुसीलाणं-कुशीलानाम्' पार्श्वस्थादिकों में से 'अन्नयरा-अन्यतरे' कोई एक हैं अत: 'से-स:' वह साधु 'सुतवस्सिए वि-सुतपः એકાન્તમાં ઉપદેશ આપવો જોઈએ નહીં. તેણે ઉપાશ્રયમાં અન્ય પુરુષની સમક્ષ જ સ્ત્રિઓને વૈરાગ્યપ્રધાન ધર્મને ઉપદેશ આપ જોઈએ ૧૧ કઈ વિષયનું પ્રતિપાદન કરવાનું કાર્ય દુષ્કર હેય, તે અન્વય અને વ્યતિરેક દ્વારા એટલે કે વિધિ રૂપે અને નિષેધ રૂપે તેનું પ્રતિપાદન કરવાથી તે વિષય સુગમ થઈ જાય છે. તેથી જ સૂત્રકાર હવે આ પદ્ધતિને આશ્રય BR ४ छ है-'जे एयं उंछे' त्याह-- हा---'जे-ये' रे ५३५ 'एयं-एतत्' । श्री ससपी 'उछसम्' नी-हनीय भा 'अणुगिद्धा-अणुगृद्धा:' मासत. 'से-ते. से ५ो 'कुसीलाण-कशीलानाम्' पावस्थ विरेभाथी 'अन्नयरा-अन्यतरा हो से छे. तया 'से-मः' ते साधु 'सुतवस्सिए वि-सुतस्विकोऽपपि' उत्तम तपस्वी For Private And Personal Use Only Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २३० - सूत्रकृताङ्गसूत्रे - अन्वयार्थ:-(जे) ये-पुरुषाः (एयं) एतत्-स्त्रीसम्पर्कम् (उछ) उछ-त्याज्यंनिन्दनीयकर्म 'अणुगिद्वा' अनुगृद्धा-मृच्छिताः (से) ते (कुसीलाणं) कुशीलानाम् पार्श्वस्थादीनाम् (अन्नयरा) अन्यतरे-तन्मध्यवर्तिन एव ते भवंति अत: (से) स (भिक्खू) भिक्षुः (मुतवस्सिए वि) मुतपस्विकोऽपि (इत्थीसु संह) स्त्रीभिः सह (i) खलु (नो विहरे) नो विहरेदिति ॥५० १२॥ टीका--'जे एयं ये एतत्, ये. मन्दपकृतिकाः स्त्रीजिताः सदनुष्ठान परित्यज्य तात्कालिकमुखान्वेषिणः । एतदनन्तरोक्तम्-'उछ' .. उग्छं-जुग. प्सितं निन्दनीयं त्रो सेवनरूपं कर्म । एकाकिनः स्त्रीणां धर्मोपदेशादिकं कुर्वन्ति, स्त्रियं प्रति ये आसक्ताः 'कुमीलाणं' कुशीलानाम्-अवसन्नकुशीळपार्श्वस्थसंसक्तपथाछंदरूपाणां मध्ये 'अन्नपरा हुति' अन्यतरे भवन्ति, अत: स्विकोऽपि' उत्तम तपस्वी हो तो भी 'इस्थीसु सह-त्रिभिः सह स्त्रियों केसाथ 'णो विहरे-नो विहरेत्' विहार न करें ॥१२॥ - - अन्वयार्थ--जो पुरुष निन्दनीय स्त्री सम्पर्क में मूर्छित हैं वे कुशीलों में से ही हैं अर्थात् कुशील ही हैं, अतएव उग्र तपस्वी हो तो भी साधु स्त्रियों के साथ विहार न करे ॥१२॥ टीकार्थ--जो पुरुष प्रकृति से मन्द हैं, स्त्रियों से पराजित हैं और सत् अनुष्ठान को त्यागकर तात्कालिक सुख की खोज में रहते हैं तथा निन्दनीय स्त्रीसम्पर्क रूप कर्म करते हैं-अकेले जाकर धर्मोपदेश करते हैं और जो स्त्री में आसक्त होते हैं, वे अवसन्न, कुशील, पाश्वस्थ संसक्त और यथाछन्दरूप शिथिलाचारियों में से कोई एक हैं। वे सच्चे डाय तो ५ 'इत्थीसु सह-स्त्रिभिः सह लियोनी साथे 'णो विहरे-नो विह. रेत्' (वडा न ४२ ॥१२॥ સવાર્થ-જે પુરુષ નિન્દનીય સ્ત્રી સંપર્કમાં મૂર્ણિત છે. તેમની ગણતરી કુશીમાં જ થાય છે, એટલે કે તેઓ કુશીલ (ચારિત્રહીને) જ ગણાય છે. તેથી ઉગ્ર તપસ્યા કરનારા સાધુઓએ પણ સ્ત્રિઓના સંપર્કથી દૂર જ રહેવું જોઈએ. ૧૨ાા ટીકાથે--જે પુરુષે મન્દ પ્રકૃતિવાળા છે, જેમાં સ્ત્રિઓ દ્વારા પરાજિત છે, જેઓ સત્ અનુષ્ઠાનોનો ત્યાગ કરીને વર્તમાનકાલીન સુખની જ શોધમાં લીન રહે છે, જેમાં સ્ત્રીસંપક રૂપ નિન્દનીય કર્મમાં પ્રવૃત રહે છે, જે સિઓની પાસે જઈને તેમને એકાન્તમાં ઉપદેશ આપે છે, અને જે સ્ત્રીમાં આસક્ત છે, તેમને અવસાન, કુશીલ પાર્શ્વસ્થ, સંસક્ત અને યથાસ્કન્દ રૂ૫ શિથિલાચારીઓ રૂપે ઓળખવામાં આવે છે. એવા સાધુઓને સદાચાર For Private And Personal Use Only Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ४ उ. १ स्त्रीपरीषहनिरूपणम् २३१ 'तस्सिए वि' सुतपस्विकोऽपि तपसा संतप्ततनुरपि 'भिक्खू' भिक्षुः - आत्मार्थी 'इत्थी' स्त्रीभिः 'सह' सार्धं 'णं' खलु 'णो' नो 'विहरे' विहरेत् समाधिविरोधिनीभिर्वनिताभिः सह कदाचिदपि विहारं न कुर्यात् । ताभिः सह कुत्रापि कदाचिदपि न गच्छेत् । अपितु तृणाच्छादितकूपवत् तां दरादेव त्यजेत् । एताः स्त्रियः स्वकार्यकरणायानेकप्रकारकवचनमुच्चार्य पुरुषं स्ववशे कुर्वन्तिकृत्वाऽनेकप्रकारकक्लेशं ददति । तदुक्तम् 'एता इसन्ति च रुदन्ति च कार्यहेतोः, विश्वासयन्ति च परं न च विश्वसन्ति । सरलं हृदयं नराणां, एताः किं किं न वामनयना हि समाचरन्ति ॥ १ ॥ गा. १२ ॥ सदाचारसम्पन्न साधु नहीं हैं। अतएव जो साधु उग्रतपस्वी है - जिसका शरीर तप से तप्त अर्थात् तपोमय हो गया है, वह भी स्त्रियों के साथ कदापि विहार न करे, क्योंकि वे समाधि को रोकनेवाली हैं। उनके साथ कहीं भी और कभी भी गमन न करे वल्कि घास से आच्छादित कूप के समान उन्हें दूर से ही स्याग दे । "ये स्त्रियां अपना कार्य करने के लिए अनेक प्रकार के वचनों का प्रयोग करके पुरुष को अपने अधीन करती हैं और उसे नाना प्रकार से कष्ट पहुँचाती हैं। कहा भी है- 'एता हसन्ति" इत्यादि । ये स्त्रिय अपने स्वार्थ के लिए कभी हँसती है और कभी रोती हैं। दूसरों को अपना विश्वास दिलाती हैं पर किसी पर स्वयं विश्वास સપન્ન સાધુ કહી શકાય નહી. તેથી જે સાધુ શ્ર તપવી હોય-જેનું શરીર તપ વડે તસ એટલે કે તપેામય થઈ ગયુ` હોય, તેણે પણ સ્રિએ.ના સપક ના ત્યાગ કરવા જોઇએ. તેણે સ્રિએની સાથે કદી પણ કાઈ પણ સ્થળે ગમન આફ્રિ કરવુ' એઇએ નહી. ખ્રિએ સમાધિભાવના ભ'ગ કરનારી છે, તે કારણે ઘાસથી આચ્છાદિત ગ્રૂપની સમાન દૂરથી જ તેમના ત્યાગ કરવા જોઇએ. તેઓ પેાતાનું પ્રત્યેાજન સિદ્ધ કરવા માટે અનેક પ્રકારનાં વચનેના પ્રચાગ કરીને પુરુષને પેાતાને આધીન કરી લે છે અને તેને અનેક પ્રકારનાં अष्टोने अनुभव पुरावे छे. उछु छे - 'एता हसन्ति' इत्याहि- તે ક્રિએ પાતાના સ્વાર્થ સાધવાને માટે કદી હસે છે અને કદી રહે છે તેઓ પાતાની પ્રત્યે અન્યમાં વિશ્વાસ ઉત્પન્ન કરે છે, પરન્તુ પાતે કાઈ For Private And Personal Use Only Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - २३२ सूत्रकृताङ्गस्त्रे किंबहुना स्वसम्बन्धिनीभिरपि स्त्रीजातिभिः सह संपर्को न विधातव्य इत्याह सूत्रकारः-'अवि धूयराहि' इत्यादि। मूलम्-अविधूयराहिं सुण्हाहिं धाईहिं अदुवै दासीहि । महतीहिं वा कुमारीहिं संथेवं से न कुंजी अणगारे॥१३॥ छाया-अपि दुहितृभिः स्नुषाभिः धात्रीभिरथवा दासीमिः। ___ महतीभिर्वा कुमारीभिः संस्तवं स न कुर्यादनगारः ॥१३॥ अन्वयार्थः-(अणगारे) अनगारः (अवि धूयराहि) अपि दुहितृभिः (सुण्हाहि) स्नुषाभिः-पुत्रवधूमिः (धाईहि) धात्रीभिः (अदुव) अथवा (दासीहिं) दासीभिः नहीं करतीं । ये पुरुष के सरल हृदय में प्रवेश करके क्या क्या अनर्थ नहीं करती ॥१२॥ ___अधिकक्या कहा जाय मुनि को अपनी संबंधी भी स्त्री जाति के साथ संपर्क नहीं करनाचाहिये, यह सूत्रकार कहते हैं-'अविध्यराहि' इत्यादि। शब्दार्थ-'अणगारे-अनगार' साधु 'अविध्यराहि-अपि दुहितृभिः' अपनी कन्याओं के साथ 'सुण्हाहि-स्नुषाभिः' पुत्रवधूओं के साथ 'धाइहि-धातृभिः दूध पीलानेवाली धाइयों के साथ 'अदुव-अथवा' अगर 'दासीहिं-दासीभिः' दासियों के साथ 'महतीहि-महतीभिः' अपने से अधिक उभरवाली स्त्रियों के साथ 'वा कुमारीहिं-वा कुमारीभिः' अथवा कुमारी के साथ 'से-सःअनगारः' वह साधु 'संथा-संस्तवम्' परिचय 'न कुज्जा -न कुर्यात्' न करे ॥१३॥ પણ પુરુષ પર વિશ્વાસ રાખતી નથી. તે પુરુષના સરળ હૃદયમાં પ્રવેશ કરીને કયા કયા અનર્થો કરતી નથી?” ૧રા અધિક શું કહું? મુનિએ પિતાની સંસારી સંબંધી એવી સ્ત્રી જાતિ સાથે પણ સંપર્ક રાખવું જોઈએ નહીં. એ જ વાત સૂત્રકાર હવે પ્રકટ કરે छ --'अविधूयराहिं' त्याहि शहाथ-'अणगारे-अनगार' साधु 'अविधूयराहि-अपि दुहित्तृभिः' पोतानी :न्या साथे 'सुण्हाहि-स्नुषाभिः' पुत्रवधूनी साथे 'धाइहिं-धातृभिः' इ. पि१२१. नारी पानी साथे 'अदुव-अथवा' ॥२ 'दासीहिं-दामीभिः' हासीनी साये 'महतीहि-महति भिः' पोतानाथी भोट भरनी श्रीनी साथ 'वा कुमारीहि-वा -कुमारीभिः' ५५५१ माशी साथे ‘से अणगारे-सः अनगारः' त साधु 'संथव-संस्तवम्' पश्यिय 'न कुजा-न कुर्यात्' । रे. ॥१३॥ For Private And Personal Use Only Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २३३ समयाथैबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ४ उ. १ स्त्रीपरीषहनिरूपणम् (महतीहिं) महतीभिः स्ववयः प्रमाणादधिकवयस्काभिः (वा कुमारीहिं) वा कुमारीभिः (से) सः (संथ न कुज्जा) संस्तवं परिचयं संपर्क न कुर्यादिति ॥१३॥ टीका- 'अणगारे ' अनगारः = साधुः 'अवि' अपि अस्याऽपिशब्दस्य सर्वत्र संवन्धः । तथा च 'धूवराहि' दुहितृभिः = संसारिस्त्रपुत्रीभिरपि सह कदाचिदपि विहार न कुर्यात् । 'सुहाहिं' स्नुषाभिः स्नुषाः - पुत्रवधूः ताभिः सह नैव विहारं कुर्यात् । तथा 'घाईहिं' धात्रीभिः = धात्रीभिरपि सह नैकत्रासनादौ उपविशेत् । 'अव दासी' अथवा दासीमिः किंबहुना याः गृहदास्यस्ताभिरपि सह संपर्क कथमपि न कुर्यात् । तथा 'महतीहि ' महतीभिः स्ववयः परिमाणादधिकवयस्काभिः 'कुमारीहिं' कुमारिकाभिः वाशब्दात् कनिष्ठाभिर्वयसा प्रमाणेन, आभिरपि सह d. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अन्वयार्थ -- अनगार अपनी पुत्रियों पुत्रवधुओं, धायों, दासियों अपने से बडी बूढी तथा कुँवारी स्त्रियों के साथ भी परिचय या सम्पर्क न करे ॥ १३ ॥ ॥ यहां गाथा के प्रारंभ में आये हुए 'अवि' (भी) का संबंध सभी जगह जोड़ लेना चाहिए। तदनुसार अर्थ यह होता है कि मुनि अपनी सांसारिक पुत्रियों के साथ भी कभी विहार न करे। पुत्रवधूओं के साथ भी विहार न करे । धायों के साथ भी कभी एक आसन पर न बैठे । गृहदासियों के साथ भी किसी प्रकार का सम्पर्क न रक्खे | इसी प्रकार जो वय में बड़ी हों अथवा कुमारिका हों, उनके साथ भी परिचय सूत्रार्थ --युगारे पोतानी पुत्री, पुत्रवधुओ, घाई यो (धात्रीभो), દાસીએ પેાતાના કુટુંબની કુમારિકાઓ અને વૃદ્ધાએ સાથે પણ પરિચય અથવા સપર્ક રાખવા જોઇએ નહી', ૫૧૩મા टीअर्थ --: --- मा गाथानी श३मातमां भावेलु' 'अवि' यह पुत्री आहि દરેક પદ સાથે જોવુ જોઇએ અન્ય સ્ત્રીઓના સપના તેા નિષેધ કરવામાં આન્યા છે, પરન્તુ પેાતાની સાથે સાંસારિક સંબંધ ધરાવતી સ્ત્રીની સાથે પણ સંપર્ક રાખવાના નિષેધ ફરમાવ્યે છે. સૂત્રકાર કહે છે કે સાધુએ પેાતાની સાંસારિક પુત્રી સાથે પણ સપર્ક રાખવા જોઈએ નહીં. તેણે પેાતાની પુત્રવધૂએ સાથેના સમાગમના (ઉઠવા, બેસવા, હરવા ફરવા રૂપ सभागभ) पशु त्याग अश्वो ले. तेथे पोतानी धात्री (धावभाताश्री) ની સાથે પણ કદી એક આસને બેસવું જોઈએ નહીં. તેણે પેાતાના કુટુંબની દાસીએ સાથે પણ કોઇ પણ પ્રકારના સંપર્ક રાખવા નહી.. તેણે પેાતાના કુટુ'ખની વૃદ્ધ સ્ત્રીએ અને કુમારિકાઓ સાથે પણ પરિચય કે સપર્ક રાખવા सू० ३० For Private And Personal Use Only Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २३४ - सूत्रकृताङ्गसूत्रे 'संथव' संस्तवं परिचयम् । अनागर आमिः संपर्क परिचयं प्रत्यासत्तिरूपं नैव कदाचिदपि कुर्यात् । तदुक्त-निशीथप्रथमोदेशके ‘णवि भइणीई जुज्जर, रति विरहम्मि 'संवासो' (गाथा ५५६) नापि भगिन्या युज्यते रात्री बिरहे (एकान्ते) संबाला' तथा लौकिकेऽप्युक्तम् 'मात्रा वस्त्रा दुहिया वान शिवितासनो भवेत् । बलवानिन्द्रियग्रामो विद्वांसमपि कर्षति ॥१॥ तस्मात् सर्वाभिरेव स्त्रोत्वजातिविशिष्टाः शिष्टाऽशिष्टा मरिष्टाऽनिष्टाभिः सह परिचयं सहवासं वा कस्मिन्नपि काले देशे चा स्वल्पं महान्तं वा कार्यविशेषन रक्खे । गाथा में आए हुए 'या' शब्द से यह विदित होता है कि उम्र में छोटी स्त्रियों के साथ भी सम्पर्क न रक्खे । निशीथ सूत्रके पहले उद्देशे में कहा है-'ण वि भइणीई' इत्यादि एवं लौकिक में भी कहा है 'मात्रा स्वस्त्रा' इत्यादि । __"माता, बहिन और पुत्री के साथ भी एकान्त में नहीं बैठना चाहिए । इन्द्रियां बडी बलवान होती हैं । वे विद्वान् पुरुष को भी अपनी ओर आकर्षित कर लेती हैं" ॥१॥ __ अतएव स्त्रीत्व जाति से युक्त जो भी हैं, चाहे वे शिष्ट हो या अशिष्ट हों, इष्ट हों या अनिष्ट हों, उसके साथ परिचय अथवा सहवास कहीं भी कभी थोडा अथवा बहुन किसी भी प्रयोजन से नहीं करना જોઈએ નહીં. ગાથામાં પ્રયુક્ત થયેલા “રા' પદ દ્વારા એ સૂચિત થાય છે કે તેણે નાની ઉમરની સ્ત્રીઓ-બાલિકાઓ-સાથે પણ સંપર્ક રાખ જોઈએ नही. निशीथ सूत्रना पडेअध्ययनमा छु छ है-'ण वि भइणीई' त्या -- સાધુએ પિતાની બહેનની સાથે પણ રાત્રિ અને એકાંતવાસ કરે ન नमे assi५९ घुछे .---'मात्रा स्वस्रा' या-- 'भाता, बन, पुनी माहिनी माथे ५९ साधु सन्तमा मेस જોઈએ નહીં, કારણ ઈ યે એવી બળવાન હાય ના છે કે બુદ્ધિમાન પરુને પણ પોતાના પ્રત્યે આકર્ષવાને સમર્થ હોય છે તેથી સ્ત્રીત્વથી યુક્ત જે કઈ હોય તેને સંપર્ક સાધુએ રાખવું જોઈએ. નહીં. પછી ભલે તે શિષ્ય હોય કે અશિષ્ટ હોય, ઈષ્ટ હોય કે અનિષ્ટ હોય, પરંતુ તેની For Private And Personal Use Only Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. शु. अ. ४ उ. १ स्त्रीपरीषहनिरूपणम् २३५ मासाद्य न कुर्यात् । स्त्रीणां सहवासो न कर्तव्यो नरकपातपापभयाद्विभ्यता मोक्षाभिलाषुणा पुरुषेणेति महौषधरूपोऽयमुपदेशः ॥१३॥ पुनरप्याद सूत्रकार:--'अदु णाइणं च' इत्यादि । मूलम्-अ णाईणं च सुहीणं वा अप्पियं देव एगया होई। गिद्धी सत्ता कामहि रकवणपालगे मस्सोऽसि ॥१४॥ छाया--अथ ज्ञातीनां सुहृदां वा अप्रियं दृष्ट्वा एकदा भवति । गृद्धाः सत्ताः कामेषु रक्षण-पोषणे मनुष्योऽसि ॥१४॥ चाहिए । जो पुरुष नरक में गिरने से डरता है और मुक्तिका अभिलाषी है, उसके लिए यह उपदेश महान् औषध के समान है ॥१३॥ सूत्रकार पुनः कहते हैं-'अदु वा नाइणं च' इत्यादि। शब्दार्थ---'एकथा-एकदा किली समय दड-दृष्ट्वा एकान्त स्थानमें स्त्रीके साथ बैठे हुए साधुको देखकर 'णाईणं सुहीणं वा-ज्ञातीनां सुहृदा वा' उस स्त्रीके ज्ञातिको तथा उसके सुहृदों को 'अप्पियं होइ-अप्रियं भवति' दुःख लगता है और वे कहते हैं कि 'सत्ता कामेहि गिद्धासत्वाः कामेषु शृद्धाः' जैसे अन्य जन काममें आसक्त हैं इसी प्रकार यह साधु भी आसक्त है 'रक्खणपोसणे-रक्षणपोषणे' और भी कहते हैं कि तुम इस स्त्री का भरणपोषण भी करो क्योंकि 'मणुस्सोसिमनुष्योऽसि' तुं इसका मनुष्य है ॥१४॥ સાથે કદી પણ અને કયાંય પણ છે કે અધિક પરિચય અથવા સહવાસ, કેઈપણ કારણે દર જોઈએ નહીં. જે પુરુષ નરકગતિમાં જવાથી ડરે છે અને મોક્ષની અભિલાષા રાખે છે. તેને માટે તો આ ઉપદેશ મહાન ઔષધિ समान छे. ॥१ ॥ मागण यासता सूत्रा२ बाट ७२ छ -'अदु नाई' या शा---- एकया-एका समये 'दठु-दृष्ट्वा' मेतिस्थानमा लिनी साथ लेसा साधुने । 'णाईगं सुहीणं वा-मातीनां सुहृदां वा ते श्रीन ज्ञातीनाने अथवा स्नेडिनाने 'अप्पियं होइ-अप्रियं भवति' हुम साो छ भने तमा छि-'सता कामेहिं गिद्ध'-सत्वाः कामेष વૃદ્ધા જે પ્રમાણે અન્યજનો કામમાં આસક્ત છે, તે જ પ્રમાણે આ સાધુ પણ भिमा मासात थे. 'रक्खणपोसणे-रक्षणपोषणे' तेभ भीड ५४ ४ छ । तमे मा श्रीनु मरण-पोषण ५४ ४३। उम-'मणुस्सोनि-मनुष्योसि' तु मा श्रीनो पु३५ छो. ॥१४॥ For Private And Personal Use Only Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २३६ सूत्रकृताङ्गसूत्रे ___ अन्वयार्थः--(एकया) एकदा कस्मिंश्चित्समये (द) दृष्ट्वा एकान्ते स्त्रीभिः सह उपविष्टं दृष्ट्वा (गाईणं सुद्दीणं वा) ज्ञातीनां मुहृदा वा (अप्पियं होइ) अभियं भवति (सत्ता कामेहिं गिदा) सत्त्वाः कामेषु गृद्धाः-गृद्धिभावमुपगताः, (रक्षणपोसणे) रक्षणपोषणे (मणुस्पोसि) मनुष्योऽसि ॥१४॥ टीका---'एगया' एकदा कस्मिन्नपि काले 'दटु' दृष्ट्वा-एकान्तस्थले स्वीमिः सहोपविशन्तं साधुम् । 'गाईणं मुहीग च' ज्ञातीनां मुहदा वा यया सहोपविशति साधुः तस्याः ज्ञातीनां सुहृदां वा संसारिणां मनसि 'पियं होई अप्रियं भवति दुःखं भवति तथा ते वदन्ति 'सत्ता कामेहि गिद्धा' सत्त्वाः कामेषु गृद्धाः-गृद्धिभावं प्रातः, यधपि साधुरयं तथापि पाकृतपुरुषवत् स्त्री वदनाऽवलोकनव्यग्रचित्तः परित्यक्तसंयमव्यापारोऽनया निर्लज्जया निर्लज्जस्तिष्ठति । ____ अन्वयार्थ --किसी समय एकान्त में स्त्री के साथ बैठे हुए साधुको देख कर उसके ज्ञातिजनों एवं सुहृदों को बुरा लगता है। वे ऐसा समझते हैं कि ये साधु भी कामभोगों में आसक्त हैं, गृद्ध हैं। तब वे उससे कहते हैं-तुम इसके मनुष्य हो तो इसका रक्षण और पोषण करो ॥ १४ ॥ . टीकार्थ---किसी समय एकान्त स्थान में स्त्रियों के साथ बैठे हुए साधु को देखकर उस स्त्री के ज्ञातिजनों को तथा सुहृदों (मित्रों) को अप्रिय लगता है-दुःख होता है । वे कहते हैं-यह कामभोगों में आसक्त है। यद्यपि यह साधु है तथाहि सामान्य पुरुष के समान स्त्रियों का मुख देखने में इसका मन लगा है। इसने संयमानुष्ठान का परित्याग कर - સૂત્રાર્થ–કોઈ પણ સમયે સ્ત્રી સાથે એકાન્તમાં બેઠેલા સાધુને જોઈને તેના જ્ઞાતિજને અને મિત્રોને તેના ચારિત્રના વિષયમાં શંકા થવાથી દાખ થાય છે. તેઓ એવું ધારી લે છે કે દીક્ષા અંગીકાર કરવા છતાં પણ આ સાધુ કામમાં આસક્ત છે ગૃદ્ધ છે. ત્યારે તેઓ તેને કહે છે કે તમે આ સ્ત્રીના ધણી છે, તો તેનું રક્ષણ અને પોષણ કરે.” ૧૪ ટીકર્થ-કયારેક સાધુને કોઈ સ્ત્રી સાથે એકાન્તમાં બેઠેલા જોઈને તે સ્ત્રીના જ્ઞાતિજને અને સુહુદો (ભાઈબંધુએ) ને દુઃખ થાય છે. તેઓ તેમના પ્રત્યે શંકાશીલ બને છે. તેઓ એવી કલપના કરે છે કે સાધુ હોવા છતાં આ પરુષ કામમાં આસક્ત છે. સામાન્ય લેકેની જેમ આ સાધુનું મન પણ સ્ત્રીઓમાં આસક્ત છે. તેણે સંયમાનુષ્ઠાનને ત્યાગ કર્યો છે તે સંયમથી ભ્રષ્ટ થઈ ચકર્યો છે. તે એટલે બધો નિલ જ બની ગયેલ છે કે આ નિર્લજ For Private And Personal Use Only Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. थु. अ. ४ उ. १ खोपरी पहनिरूपणम् २३७ यद्यपि अस्य शरीरं दुर्गन्धं मलिनं सर्वथा गृहत्यागोपि कृतः किन्तु कामवाच्छा भवत्येवेति । तदुक्तम् 'मुण्डं शिरोवदनमेतदनिष्टगन्धं, भिक्षाशनेन मरणं च हतोदरस्य । " गात्रं मचेन मलिनं गतसर्वशोभं चित्रं तथापि मनसो मदनेऽस्ति वा ॥ १॥ तथाsतिक्रोधधिया वदन्ति च - भोः ? ' रक्खणपोसणे मणुस्सोऽसि रक्षणपोषणे मनुष्योऽसि - अस्याः संरक्षण पोषणं च कः करिष्यति त्वमेव रक्षणं पोषणं च कुरु । सह वयेयं गृहकार्याणि त्यक्त्वा तिष्ठति । अतोऽस्यै को दास्यत्यशनं करिष्यति च संरक्षणमिति, स्वमेव रक्षणं पोषणं कुरु इति ॥१४॥ दिया है। यह निर्लज्ज इस निर्लज्जा स्त्री के साथ बैठा है । यद्यपि इसका शरीर दुर्गन्धित है, मलीन है और इसने घर का त्याग कर दिया है किन्तु काम की अभिलाषा अब भी नहीं मिटी है। कहा है'मुण्डं शिरो' इत्यादि । "द्यपि इसका मस्तक मुण्डित है, शरीर से अभियगंध निकल रही है, भीख मांगकर पेट पालता है, शरीर मल से मलीन है और समस्त प्रकार की शोभा से हीन है, फिर भी आश्चर्य है कि इसके मन में काम की अभिलाषा विद्यमान है।" तथा वे क्रोध से युक्त होकर कहने लगते हैं--अरे, इसका रक्षण और पोषण कौन करेगा ? तुम्हीं इसके मनुष्य (पति) हो, तुम्हीं इसका रक्षण पोषण करो । घरका कामकाज छोड़कर यह तुम्हारे साथ ही શ્રી સાથે મેસતાં પણ શરમાતા નથી. ને કે તેનું શરીર મલીન છે, દુગન્ધ યુક્ત છે. અને તેણે ઘરના ત્યાગ કર્યો છે, છતાં પશુ તેની કામવાસના નષ્ટ थ थी. छे -- " मुण्डं शिरो' धत्याहि- જો કે તેને માથે સુ'ડો છે, તેના શરીરમાંથી અપ્રિય ગધ નીકળી રહી છે, ભીખ માગીને પેટ ભરે છે, શરીર મેલને લીધે મલીન છે અને શોભાથી બિલકુલ રહિત છે, છતાં પશુ તેના મનમાંથી કામની અભિલાષા નષ્ટ થઈ નથી, એ કેવુ. આશ્ચય જનક છે !” તેઓ ક્રોધાયમાન ચક્રને તે સાધુને આવા કડેાર वयना उडे हे- આ સ્ત્રીની સાથે કામભાગ સેવનારા હૈ સાધુ! જો આ સ્ત્રી ઘરનું કામ કાજ છોડીને તારી સાથે બેસીને પ્રેમગેષ્ઠી કર્યા કરશે, તે તેનું રક્ષણ અને પેષણ કાણુ કરશે ? તમેજ તેના સ્વામી છે, તે તમે જ તેનું રક્ષણ અને For Private And Personal Use Only Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २३८ सूत्रकृताङ्गसूत्रे मूलम् -सणंपिणुदासीणं तत्थ वि तो एंगे कुप्पति । अदुवा भोयेणेहिं त्थेहिं इत्थीदोससंकिणो होति ॥ १५ ॥ छाया - श्रमणमपि दृष्ट्वोदासीनं तत्रापि तावदेके कुप्यन्ति । Fear भोजनैर्न्यस्तैः स्त्रीदोषो भवन्ति ॥ १५ ॥ अन्वयार्थ:- (उदासीणं पि सम) उदासीनमपि श्रमणं - रागद्वेषरतिमपि साधुम् (द) दृष्ट्वा - एकान्तेत्रिया सह (तत्थ वि) चत्रापि (एंगे दाय कुप्यंति) ए के तावत् कुप्यंति केचित् क्रुदा भान्ति (इत्थदोससंकिणो होंति) स्त्रीदोषशङ्किनो जनाः बैठती है ! कौन इसे खाने को देगा ? कौन इसकी रक्षा करेगा ? तुम्हीं सब करो ॥ १४ ॥ सूत्रकार पुनः कहते हैं - 'समवि' इत्यादि । शब्दार्थ- 'उदासीणं विसम-उदासीनमपि श्रमणन्' रागद्वेषर्जित तपस्वी साधुको भी 'ठुण-दृष्ट्वा' एकान्त स्थान में स्त्रीके साथ में वार्तालाप करते हुए देखकर 'तत्थ वि-तत्रापि' उसमें भी 'एगे ताव कुप्पंतिएके तावत् कुप्यति' कोई कोई कोषयुक्त हो जाते हैं 'इत्थोदोल संकिणो होति - स्त्रीदोषशंकिनो भवन्ति' और वे स्त्रीके दोषकी शङ्का करते हैं 'अनुचा अथवा ' अथवा जत्थेहि भोयणेहिं-पस्ते मजिनै' चे लोग मानते है कि यह स्त्री सांधुकी प्रेमिका है, इसीलिये नानाविध आहार तैयार करके साबुको देती है ||१५|| अन्वयार्थ -- उदासीन अर्थात् रागद्वेष से रहित साधु को भी स्त्री के साथ बैठा देखकर कोई कोई कुछ हो जाते हैं, क्योंकि मनुष्य खोसंबंधी પાષણ કરે.’ આ પ્રકારે સયમને માર્ગ છોડીને તે સ્ત્રી સાથે ઘર માંડવાની તે સાધુને તેએ સલાહ આપે છે. ૧૪!! वजी सूत्रहार हे छे - 'मणं पि' इत्याह- शब्दार्थ –'उदासीणं पि खमणं - उदासीनम पिश्रमणम्' रागद्वेषथी रहित तपसी आधुनेपणा अन्त स्थानमा खीनी साथै वार्तालाप र लेने 'तत्थवि-तत्रापि तेमां पशु 'एगे तात्र कुप्पति - एके तावत् कुप्यमित' अ ध डोधयुक्त यती लय छे. 'इत्थी दोससंकिणो होंति- स्त्रीदोषशनि भवन्ति' तेन तेयो खीना दोषनी शंडा ३ हे. 'अदुवा - अथवा ' अगर ' जत्थेहिं भोयणेहिं त्यस्तैः भोजनैः' मे बोउ। माने छे हैं-म स्त्री साधुनी પ્રેમિકા છે, તેથી અનેક પ્રકારને આહાર તૈયાર કરીને સાધુને આપે છે. ૧૫૫ સૂત્રા —રાગદ્વેષથી રહિત સાધુને પણ સ્ત્રીની સાથે એકાન્તમાં બેઠેલા જોઈને, તેની સાથેના આડા વહેવારની કલ્પના કરીને કોઈ કઈ પુરુષો કપાય For Private And Personal Use Only Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ४ उ. १ स्त्रीपरीषहनिरूपणम् २३९ भवन्ति (अदुवा) अथवा (णत्थेहिं भोयणेहिं) एस्तै जनैः इयं स्त्री साधोः प्रेमिका येनानेकविधभोजनादिकं निर्माप साधवे श्यच्छनीति एवमे के जानन्तीति॥१५॥ टीका--'उदासीणं' उदासीनं रागद्वेवरहिततया माध्यस्थ्यभावेन युक्तमपि 'समणं' श्रमणम् , तपसा क्षीणशरीरमणि 'दण' दृष्ट्वा एकान्ते स्त्रिया सह वार्तालापादि कुर्वन्तं दृष्ट्वा 'तस्थमि' तत्रापि तादृशव्यापारे स्थिते 'एगे' एके पुरुषाः तावत् 'कुप्पंति' कुप्यन्ति कोपमधिगच्छन्ति। माध्यस्थ्यभावं भजमानमपि दृष्ट्वा स्त्रिगा सह वार्तालापादिकं कुर्वन्तम् तदा का कथा ततः परं स्त्री संग कुन्तं दृष्ट्रा। अब ' इत्यादोरियो होति सौदोषशङ्किनो भवन्ति-स्वियं भत्यांप शंकाशीला भनन्ति । पुनरपि 'भोषणेहि णस्थेईि' भोजनयस्तै:-नानाविधाहारैः साधार्थपुगकलितः, अथवा भोजनैः श्वशुरादीनां न्यस्तैः अर्धदत्तै; सद्भिः सा वधूः साध्यागमनेन समाकुलीभूता सती अन्यस्मिन् दातव्येदोष की आशंका करते हैं । अधया कोई ऐसा समझते हैं कि इस स्त्री का साधु पर अनुराग है, क्योंकि यह विविध प्रकार का भोजन बनाकर साधुको देती है ।। १५॥ टीकार्थ-राग और द्वेष से रहित होने के कारण मध्यस्थ भाव से युक्त तथा तपश्चरण के कारण कृशकाय भी साधु को एकान्त में स्त्रीके साथ वार्तालाप करते देखकर कोई कोई पुरुष कुपित हो जाते हैं। वे उस स्त्री के प्रति भी शंकाशील हो उठते हैं । तथा साधु के लिए नाना प्रकार के भोजन बनाने से अथवा शुर आदि के लिए भोजन रक्खा हो और उसमें से आधा उन्हें दिया हो और साधु के आने पर वह घबराहट में आकर एक चीज के बदले दूसरी चीज परोस दे तो उन्हें માન થાય છે અથવા સાધુને સારી સારી વસ્તુઓ બનાવીને વહોરાવતી સ્ત્રીને જોઈને લેકે એ સંદેહ કરવા લાગે છે કે આ સ્ત્રીને આ સાધુ પર અનુરાગ છે, તેથી જ તેમને સારાં સારાં ભેજનું પ્રદાન કરે છે. ૧૫ ટકાર્થ–સાધુ ભલે રાગદ્વેષથી રહિત હોવાને કારણે મધ્યસ્થ ભાવયુક્ત હેય, ભલે તપસ્યાને કારણે તેની કાયા કૃશ થઈ ગઈ હોય, પરંતુ એવા રાગ દ્વેષ રહિત કુશકાય પાધુને પણ કોઈ સ્ત્રી સાથે એકાતમાં વાર્તાલાપ કરતાં જઈને કેઈ કઈ પુરૂષો કપાયમાન થઈ જાય છે. તેઓ તે સાધુ અને તે સ્ત્રીના ચારિત્ર વિષે સંદેહ કરવા લાગે છે સાધુને માટે સારાં સારું ભોજન બનાવે, અથવા પતિ, સસરા આદિને માટે વિવિધ વાનગીઓ બનાવી છે, તેમાંથી અર્ધ આહાર સાધુને પહેરાવી દે, અને પછી ગભરાટને કારણે પતિ, સસરા આદિને For Private And Personal Use Only Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४० सूत्रकृताङ्गसूत्रे ऽन्यद्द्यात् ततस्ते स्त्रीदोपशंकिनो भवन्ति, अर्थगत्या इयं स्त्री अवश्यमेव साधु. संगं करोति, यतः साश्वे विशिष्टभोजनादिकं दत्त्वा तेन साधुना सह पुरुषान्तरवजिते विविक्तस्थाने उपविशति इत्यादि। अवश्यमेवेयं चरित्रभ्रष्टा । कथमन्यथा पुरुषान्तरेण सहेत्थंभूतमाचरति समुदावारमिति । दृष्टान्तोपि-कयाचित् स्त्रिया माममध्ये पारधनटप्रेक्षकचित्ततया पतिश्वशुरयोर्मोजनार्थमुपविटयोस्तण्डुला इति कृत्वा राइताः दत्ताः ततोऽप्तौ श्वशुरेणोपलक्षिता पत्या च क्रुद्धन ताडिता गृहानिष्कासिता इति ॥१५॥ मूलम्-कुवंति संथ ताहिं पठभट्टा समाहिजोगेहिं । तम्हाँ समणाण सति जयहिगाए संण्णिसे जाओ॥१६॥ उसके प्रति शंका उत्पन्न हो जाती है। वे यह सोचने लगते हैं कि यह स्त्री अवश्य साधु का संग करती है इसी कारण साधु को विशिष्ट भोजन देकर उसके साथ अन्य पुरुषों से रहित एकान्त स्थान में बैठती है । अवश्य ही यह चरित्र से भ्रष्ट हो गई है। नहीं तो परपुरुष के साथ ऐसा व्यवहार क्यों करती है ? इस विषय में एक दृष्टान्त में किसी ग्राम में नट का खेल हो रहा था। एक स्त्री का मन उस खेल में लगा था। ऐसी स्थिति में उसका पति और श्वशुर भोजन करने बैठे । अन्यमनस्क होने के कारण उसने चाबलों के स्थान पर राहता परोस दिया । श्वशुर उसे समझ गया। पति ने क्रुद्ध होकर ताडना की और उसे घर से निकाल दिया ।१५। એક વસ્તુને બદલે બીજી વસ્તુ પીરસી દે, તે તેમના હૃદયમાં તે સ્ત્રી પ્રત્યે સંદેહ જાગૃત થાય છે. તેઓ એવું ધારી લે છે કે આ સ્ત્રી અવશ્ય આ સાધુમાં આસક્ત બની છે, તે કારણે જ તે આ સાધુને વિશિષ્ટ ભજન પ્રદાન કરે છે, અને તેની સાથે એકાન્તમાં વાર્તાલાપ કરે છે. આ સ્ત્રી એકસ્ર ચારિત્ર ભ્રષ્ટ થઈ ગઈ છે, નહીં તે પરપુરુષની સાથે આવું વર્તન શા માટે કરે ? આ પ્રકારને સંદેહ પ્રકટ કરતું એક દેટાઃ હવે આપવામાં આવે છેકોઈ એક ગામમાં નટકોને ખેલ ચાલી રહ્યો હતે કોઈ એક સ્ત્રીનું મન તે ખેલ જેવામાં લીન થઈ ગયું હતું. એવામાં તેના પતિ અને સસરા ઘેર આવ્યા. અન્યમનસક હોવાને કારણે તેણે ભાતને બદલે રાઈતુ પીરસ્યું. તેનું કારણ સસરા જાણે ગયા. તે સ્ત્રીને નટમાં આસક્ત થયેલી માનીને પતિએ ખૂબ જ માર માર્યો અને તેને ઘરમાંથી બહાર કાઢી મૂકી, ૧પ For Private And Personal Use Only Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ४ उ. १ स्त्रीपरीषहनिरूपणम् छाया -- कुर्वन्ति संस्तवं ताभिः प्रभ्रष्टाः समाधियोगेभ्यः । तस्मात् श्रमणा न संयन्ति आत्महिताय संनिषद्याः ॥ १६ ॥ अन्वयार्थ :- - ( समाहिजोगेहिं) समाधियोगेः- धर्मध्यानात् (पट्टा) महाः एव (ताहिं) तामिः खीभिः सह (संथवं ) संस्तवं - परिचयं (कुव्वंति) कुर्वन्ति (तम्दा) तस्मात् कारणात् (समणा) श्रमणाः (आयडियाए) आत्महिताय (सणि सेज्जाओ) संनिषद्याः स्त्रीनिवासस्थानानि (ण समेति ) न संयन्ति-न गच्छन्तीति ॥ १६ ॥ टीका -- 'समाहिनोगेहि' समाधियोगेभ्यः- तत्र समाधिः धर्मध्यानं तदर्थं योगाः मनोवाक्कायव्यापारास्तेभ्यः 'पन्ना' मभ्रष्टाः पुरुषाः शिथिलविहारिणः - २४१ शब्दार्थ - 'समाहिजोगेहि-समाधियोगः' समाधियोग अर्थात् धर्मध्यान से 'फमट्ठा-प्रभ्रष्टा' भ्रष्ट पुरुष ही 'ताहिं ताभिः' त्रियों के साथ 'संधर्व-संस्तयम्' परिचय 'कुत्र्यंति-कुर्वन्ति' करते हैं 'तम्हातस्मात्' इसलिये 'समणा - श्रमणा: ' साधु 'आयहियाए - आत्महिताय' अपने हित के लिये 'सणिसे जाओ - संनिषद्याः' स्त्रियों के स्थान पर 'ण सर्मेति न संयन्ति' नहीं जाते हैं ||१६| अन्वयार्थ - जो समाधियोग से भ्रष्ट हैं वे ही स्त्रियों के साथ परिचय करते है । अतएव अपनी आत्मा के हित के लिए श्रमण को स्त्री के स्थान पर नहीं जाना चाहिए || १६ || टीकार्थ-समाधि का अर्थ है धर्मध्यान । समाधि के लिए मन वचन और काय का जो व्यापार किया जाता है उसे समाधियोग कहते है। जो समाधियोगों से भ्रष्ट हैं अर्थात् शिथिलाचारी हैं, वे ही स्त्रिय शब्दार्थ –'समाहिजोगेहिं -समाधियोगैः' समाधियोग अर्थात् धर्म ध्यानथी 'पभट्टा - प्रभ्रष्टाः' अष्ट ३५ ४ 'ताहिं ताभिः ' स्त्रियोनी साथै 'संथवं - संस्तवम्' पश्यिय 'कुव्वंति - कुर्वन्ति' रे छे, 'तम्हा - तस्मात् ' ते रखे 'समणा-क्षणा साधु 'आयहियाए - आत्महिताय' चोताना द्वित भाटे 'सण्णिसेज्जाओ - संनिषद्याः ' स्त्रियांना स्थानमा 'ण समेति न संयन्ति' ४ता नथी ॥१६॥ For Private And Personal Use Only સૂત્રા—જેએ સમાષિયાગથી ભ્રષ્ટ છે—શિથિલાચારી છે, તેએ જ સ્ત્રીની સાથે પરિચય કરે છે. આ વાતને બરાબર સમજી લઈને આત્મહિત સાધવાની અભિલાષા રાખનાર શ્રમણે સ્ત્રીના નિવાસસ્થાનમાં જવું જોઇએ નહી ૧૫ ટીકાય —સમાધિ એટલે ધમ ધ્યાન, સમાધિને માટે મન, વચન અને ક્રાયાની જે પ્રવૃત્તિ કરવામાં આવે છે, તેને સમાધિયોગ કહે છે. જેએ સમાધિયોગથી ભ્રષ્ટ છે, એટલે કે જેએ શિથિલાચારી છે, તેમ જ सु० ३१ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ર सूत्रकृताङ्गसूत्रे 'वाह' ताभिः स्त्रीभिः सह 'संथवं' संस्तर्व - परिचयं कुर्वन्ति । यस्मात् कारणात् स्त्री परिचयात् पथभ्रष्टाः भवन्ति 'तम्हा' तस्मात् कारणात् 'समणा' श्रमणाः साधव: 'आयडिया' आत्महिताय स्त्रीणां संबन्धाऽभावे स्वकीयं हितमेव भविध्यतीति मन्यमानाः 'सणि सेज्जाओ' संनिषद्याः - सं= सम्यक् निषीदन्ति = उपविशन्ति स्त्रियो यत्र सा सन्निषद्या - ताः संनिषधाः स्त्रीणामावासस्थानानि । 'न समेति' न संयन्ति - न गच्छन्ति स्त्रीभिः सह संपर्क नै कुर्वन्ति । तथा सह संग वार्त्तालापं तत्स्थानादौ गमनादिकं सर्वमेव परित्यजन्ति मोक्षाभिलाषिणः श्रमणाः ॥ १६ ॥ साधूनामपि स्त्रीपरिचयात् पतनं भवतीति प्रतिपादितम् । तत्र पृच्छयतेकिं प्रवज्यां स्वीकृत्यापि कश्चित् स्त्रीसम्पर्क करोति कृतवान् करिष्यति चेति के साथ संस्तव परिचय करते हैं, क्योंकि स्त्रीपरिचय से पथभ्रष्ट होना पडता है | श्रमण आत्महित के लिए अर्थात् यह मानकर कि स्त्रियों के साथ सम्बन्ध न रखने से आत्मा का श्रेय ही होगा, कभी स्त्रियों के निवासस्थान पर न जाए, उनके साथ सम्पर्क न करे मोक्षाभिलाषी सन्त पुरुष स्त्रियों के संसर्ग का, उनके साथ वार्तालाप करने का और उनके निवासस्थान में जाने का सभी प्रकार ऐसे के संसर्गों का त्याग करते हैं ।। १६ ।। स्त्रियों के साथ परिचय करने से साधुओं का भी पतन हो जाता है, यह प्रतिपादन किया जा चुका है। अब प्रश्न यह है कि क्या दीक्षा સ્ત્રીઓના સમાગમ સેવે છે. એવા પુરૂષો સમાષિયાગ (ધમ ધ્યાન) માં ચિત્ત પરાવી શકતા નથી, તે કારણે તેમને પથભ્રષ્ટ (માક્ષમા`થી દૂર ફેકાયેલા) કહી શકાય છે. શ્રમણે કદી પણુ સ્ત્રિઓના નિવાસસ્થાનમાં જવું જોઈએ નહી” અને તેમને સપક' સેવવા જોઇએ નહી. તેણે એ વાતને મનમાં વિશ્વાસપૂર્વક અવધારણ કરવી જોઈએ કે સ્ત્રિઓના સમાગમ નહીં કરવાથી જ પાતાના આત્માનું કલ્યાણ સાધી શકાશે. આ વાતને અતઃકરણમાં તરી લઈ ને ાક્ષાભિલાષી સંત પુરૂષો સ્ત્રીઓના સંસગના ત્યાગ કરે છે, તેમની સાથે વાર્તાલાપ પણ કરતા નથી અને તેમનાં નિવાસસ્થાનામાં પ્રવેશ પણ કરતા નથી. આ પ્રકારે તે સ્ત્રીના સંપર્કના સ ́પૂર્ણતઃ ત્યાગ કરે છે. ૫૧૬મા સિઆની સાથે પરિચય કરવાથી સાધુએનું પણ પતન થઈ જાય છે, એ વાતનું પ્રતિપાદન થઇ ચૂકયું. હવે એવા પ્રશ્ન ઉદ્ભભવે છે કે શું દીક્ષા For Private And Personal Use Only Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ.४ उ.१ स्त्रीपरीषहनिरूपणम् २४ शङ्कायां सूत्रकार आह--'वहये गिहाई' इत्यादि। मूलम्-बहवे गिहाई अर्वहटु मिस्तीभावं पत्थुया य एंगे। धुवमग्गनेव पर्वयंति वाथा वीरियं" कुसीलाणं ॥१७॥ छाया--बहको गृहाणि अवहृत्य मिश्रीमावं प्रस्तुताश्च एके । . ध्रुवमार्गमेव प्रवदन्ति वाचा वीर्य कुशीलानाम् ॥१७॥ अन्वयार्थ:-(बहवे एगे) बहब एके (गिहाई अवहट्ट) गृहाणि अवहृत्य परित्यज्य (मिस्सीभावं पत्थुया) मिश्रीमावं प्रस्तुताः-गृहस्थ संबलितसाधुमार्ग स्वीकृत्य अंगीकार करके भी कोई स्त्रीसम्पर्क करता है ? किसीने किया है ? कोई करेगा? इसका उत्तर देते हुए सूत्रकार कहते हैं 'यहवे गिहाई' इत्यादि। __ शब्दार्थ--'बहवे एगे-पहय एके' बहुत से लोग 'गिहाई अवहहुगृहाणि अपहृत्य' घरसे निकल कर अर्थात् प्रत्रजित होकर भी 'मिस्सी. भावं परथुया-मिश्रीभावं प्रस्तुताः' मिश्रमार्ग अर्थात् कुछ गृहस्थ और कुछ साधुके आचारको स्वीकार कर लेते हैं 'धुवमग्गमेव पवयंति-- ध्रुवमार्गमेव प्रवदन्ति' और वे कहते हैं कि-हमने जो मार्गको अनुः ठान किया है वह मार्ग ही मोक्ष का मार्ग है 'वायावीरियं कुसीलाणंवाचा वीर्य कुशीलानाम्' कुशीलों के वचन में ही शूरवीरता है अनुः ष्ठान में नहीं ॥१७॥ अन्वयार्थ--बहुत से लोग गृहों (घरों) का त्याग करके मिश्र. भाव को प्राप्त होते हैं। अर्थात् वे गृहस्थ का और साधु का मिश्रित અંગીકાર કર્યા બાદ પણ કઈ સાધુ સ્ત્રીસંપર્ક કરે છે ખરે? શું કેઈએ કર્યો છે ખરો? શું કોઈ કરશે ખરાં ? આ પ્રશ્નનો ઉત્તર આપતા સૂત્રકાર કહે છે કે 'बहवे गिहाई' यादि साथ-'बहवे एणे- बहाव ' घ! सो 'गिहाई अवहट्ट-गृहाणि अपहृत्य' धेरथी नीजान अर्थात् प्रत्रत ५४ने ५] 'मिस्सोभावं पत्थुया-मिश्रीभावं प्रस्तुताः' मिश्रभाग अर्थात् - १९३५ भने ४७४ साधुन। मायने स्वी४.२ ४२री से छे, 'धुवमगमेव पवयंति-भूत्रमार्गमेव प्रवदन्ति' अन ते ४ છે કે-અમે જે માર્ગનું અનુષ્ઠાન કર્યું છે, તે માર્ગ જ મોક્ષના માર્ગ છે. 'वायाचीरियं कुसीलाणं-वाचावीर्य कुशीलानाम्' शबाने क्यनमा । शूरवी२५४. छे. अनुष्ठानमा नही. ॥१७॥ સૂત્રાર્થ–ઘણું લેકે ગૃહોનો ત્યાગ કરીને મિશ્રવ્યવહારરૂપ મિશ્રીભાવથી યુક્ત થતા હોય છે. એટલે કે દીક્ષા ગ્રહણ કર્યા બાદ સાધુ અને ગૃહસ્થના For Private And Personal Use Only Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४४ सूत्रकृताङ्गसूत्रे (धुवमग्गमेव पवयंति) ध्रुवमार्गमेव प्रवदन्ति-मदनुष्ठितमार्ग एव मोक्षमापक इति कथयन्ति (वाया वीरिय कुसीलाणं) वाचा वीर्य कुशीलानाम्-कुशीला वचने एव सामर्थ्यवन्तो भवन्ति न तु कर्मानुष्ठाने इति ॥१७॥ टीका-'बहवे' बहवः पुरुषाः 'एगे' केचन 'गिहाई अपह?' गृहाणि परित्यज्य, प्रवज्यां गृहीत्वा, पुनः 'मिस्सीभावं पत्थुया' मिश्रीमावं प्रस्तुता प्राप्ताः देशतः साधवः देशतश्च गृहस्थाः। न वा सर्वथा साधवः न वा सर्वथा गृहस्थाः किन्तु मध्यममार्गमाश्रिताः, एवंभूतास्ते 'धुवमग्गमेव पवयंति' ध्रुवमार्गमेव पवदन्ति ध्रुधो मोक्षः संयमो वा तं प्रवदन्ति, अस्मदनुष्ठितमार्ग एव मोक्षमार्ग इति कथयन्ति (वाया वीरियं कुसीलाणं) वाचा वीर्य कुशीलानाम् कुशीळव्यवहार करते हैं । वे दावा करते हैं कि हमारे द्वारा आचीर्ण मार्ग ही मोक्षप्रापक है किन्तु कुशीलजन वचन के ही वीर होते हैं कर्म (क्रिया) में वीर नहीं होते ॥१७॥ टीकार्थ-बहुतेरे जन घर त्याग कर अर्थात् प्रव्रज्या स्वीकार करके साधु और गृहस्थ का मिला-जुला आचरण करते हैं । कुछ क्रियाएँ साधुकी और कुछ गृहस्थ की करते हैं । वे न पूर्णरूपसे साधु हैं, न पूरे गृहस्थ ही । दोनों के मध्य के मार्ग को अपनाते हैं । उनका यह कहना होता है कि हम जो कहते या करते हैं, वही मोक्ष का मार्ग है। किन्तु कुशीलों को वीर्य (पराक्रम) वचन में ही होता है अर्थात् अवसन, पार्श्वस्थ, संसक्त, यथाछन्द तथा कुशील, यह पांच प्रकार के शिथिलाचारी वचन व्यवहार में ही चतुर होते हैं, धर्मानुष्ठान में नहीं। अपने आचीर्ण मार्ग को ही वे संयम और मोक्ष का मार्ग कहते हैं। वे મિશ્રિત વ્યવહાર આચરતા હોય છે. તેઓ એ દા કરે છે કે અમે જે માર્ગને અનુસરી રહ્યા છીએ, તે માર્ગનું અનુસરણ કરવાથી મોક્ષ પ્રાપ્ત થાય છે. પરંતુ કુશીલ માણસો વાણઘેરા જ હોય છે-તે કર્મમાં (ક્રિયામાંઆચરણમાં) શૂર હેતા નથી. ૧ળા ટીકાથ–ઘણા લેકે ઘરને ત્યાગ કરીને એટલે કે દીક્ષા અંગીકાર કરીને સાધુ અને ગૃહસ્થના જેવું–ગનેને મિશ્રિત વ્યવહાર જેવું આચરણ કરે છે–તેઓ કેટલીક સાધુની ક્રિયાઓનું પાલન કરે છે અને તેમની કેટલીક કિયાએ ગૃહસ્થના જેવી જ હોય છે. તેથી તેઓ પૂરા સાધુ પણ નથી અને પુરા ગૃહસ્થ પણ નથી, પરંતુ બન્નેની મધ્યના માર્ગને અપનાવે છે. તેઓ એવું પ્રતિપાદન કરે છે કે અમે જે કહીએ છીએ અથવા કરીએ છીએ, For Private And Personal Use Only Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र.श्रु. अ. ४ उ. १ स्त्रीपरीषहनिरूपणम् २४५ पदम् अवसभपार्थ स्थसंसक्तयथाछंदानां ग्राहकम् पश्चकारा अपि कुशीलादयो वचने एव चतुरा भवन्ति न तु धर्मानुष्ठाने, स्वानुष्ठित मेव मार्ग मोक्षसंयमयोनिहिक प्रवदन्ति । ते वाणीमात्रेणैव वयं साधव इति ब्रुगते, न तु तेषां कुशीलानाम् ऋद्धिरससातगौरवजालनस्तानाम् शिथिलविहारिणां, सदनुष्ठानजनितं बीर्य ते वाचा सामर्थ्य स्वान्तर्धारयन्ति । ते व्यलिङ्गधारिणो वाणीमात्रैणैव साधवः, न तु संयमाचरणमयुक्ताः इति ॥१७॥ मूलम्-सुद्धं रवइ परिसाए अह रहस्संमि दुकडं करेइ। जाणंति य गंतहाविदा माइल्ले महासढेऽयति ॥१८॥ छाया- शुद्धं रौति परिषदि अथ रहसि दुष्कृतं करोति । जानन्ति च तथाविदो मायावी महाशठोऽयमिति ॥१८॥ वचन मात्र के ही शूरवीर हैं कर्त्तव्य के नहीं 'ऋद्धि गौरव, रसगौरव और सातागौरव के जाल में फंसे हुए, शिथिलाचारी कुशीलों के अन्तर में सदनुष्ठान द्वारा जनित वीर्य-सामर्थ्य नहीं होता। वे द्रव्य. लिंगधारी वाणी मात्र से ही साधु हैं । संयम का आचरण न करने के कारण उन्हें साधु नहीं कहा जा सकता ॥१७॥ शब्दार्थ--'परिसाए-परिषदि' वह कुशील पुरुष सभामें 'सुद्धं रवह -शुद्धं रौति' अपने को शुद्ध कहता है 'अह-अथ' परंतु 'रहस्संमिએજ મેશને માર્ગ છે. પરંતુ કુશીલ પુરુષો વાણીશૂરા જ હોય છે તેઓ ધર્માનુષ્ઠાનમાં શૂરા દેતા નથી. पांय ४२ शिपिलायारी ४६ छ.---(१) अपसन, (२) पाश्रय (3) सात, (४) यथा-६ मन (५) उशी. ते शियिसायाशयामासामi જ શૂરા હોય છે, ધાર્મિક અનુષ્ઠાન આચરવાના સામર્થથી તેઓ રહિત હોય છે. તેઓ જે માને અનુસરતા હોય છે તે માર્ગને પિતાના આચાર્યું માર્ગનેજ સંયમ અને મોક્ષને માર્ગ કહે છે. તેઓ માત્ર બેલવામાં જ શૂરા હોય છે, કર્તવ્યમાં શૂરા હોતા નથી. ત્રાદ્ધિગૌરવ, રસગૌરવ અને સાતગૌરવની જાળમાં ફસાયેલા તે શિથિલાચારી કુશલેના અન્તરમાં સદનુષ્ઠાન દ્વારા જનિત વીર્ય (સામર્થ્યનો સદુભાવ જ હેત નથી. તે દ્રવ્યલિંગધારી સાધુએ નામના જ સાધુ છે, સંયમનું આચરણ ન કરવાને કારણે ખરી રીતે તે તેમને સાધુ કહી શકાય જ નહીં. તેના शा-परिसाए-परिषदि' ते शार ५३५ समामा 'सुद्धं रवति - शुद्धं रौति' चाताने शुद्ध ४ छ. 'अह-अथ' ५२'तु 'रहस्संमि-रहसि' मेst-dwi 'दुक्कडे For Private And Personal Use Only Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे अन्वयार्थ:--(परिसाए) परिषदि सभायां (सुद्धं रवइ) शुद्धं रौति आत्मानं विशुद्धं भाषते (अह) अथ (रहस्संमि) रहसि एकान्ते (दुक्कडं) करेइ) दुष्कृतम् असंयमानुष्ठानं करोति। (तहाविदा) तथाविदः-अङ्गचेष्टाज्ञानवन्तः पुरुषाः 'जाणंति' जानन्ति (अयं) अयम् (माइल्ले महासढे) मायावी महाशठ इति, निपुणपुरुषाः महाशठोयमिति जानन्ति ॥१८॥ टीका--स कुशीलः वाङ्मात्रेग प्रकाशितस्ववीयः । 'परिसाए' परिषदिसभायां 'मुद्धं' शुद्ध-अपगतदोष स्वात्मानं स्वकीयानुष्ठानं च निर्मलम् । 'वाई' सौति-भाषते 'अह य श च 'रहस्संमि' रहसि, एकान्ते, 'दुक्कडं' दुष्कृतं. दषित स्त्रीसंपादिकुकृत्यम् 'करेइ करोति' कुरोति यतः सत्यम्-प्रकाशे सदनुष्ठान रहमि' एकान्त में 'दुकाई करेइ-दुष्कृतं करोति' पापाचरण करता है 'तहाविदो-तथाविदः' ऐसे को अङ्ग चेष्टा का ज्ञान रखनेवाले पुरुष 'जाति-जानन्ति' जान लेते हैं कि 'भाहल्लो महासढेयंति-मायावी महाशठोऽधमिति' यह मायावी और महाशठ है ॥१८॥ ___अन्वयार्थ--वे परिषद् में अर्थात् जनसमूह में अपने को विशुद्ध कहते हैं किन्तु एकान्त में दुष्कर्म करते हैं। परन्तु विशिष्ट प्रकार के लोग, जो अंग चेष्टा आदि से दूसरे के अन्तरंग को जान लेते हैं, वे जानते हैं कि ये मायावी और महाशठ है ॥१८॥ टीकार्थ-वचन मात्र से अपने सामर्थ्य को प्रकाशित करनेवाला वह कुशील साधु अपने आपको और अपने अनुष्ठान को विशुद्ध घोषित करता है, परन्तु एकान्त में कुकर्म करता है-स्त्रीसम्पर्क आदि करेइ दुष्कृतं करोति' ५५.५२३ ४२ छे. 'तहाविदा-सथाविदः' मेवामान अयेष्टा ताजी ५३५ 'जाणंति-जानन्ति' on से छे ४-'माइल्लो महासढेयंति-मायावी महाशठोऽयमिति' ते मायावी अन भड: छ. ॥१८॥ સૂવાથ–તે શિથિલ ચારીઓ પરિષદમાં (લેકેના સમૂહમાં) એવું કહે છે કે અમે વિશુદ્ધ છીએ, પરંતુ તેઓ એકાન્તમાં દુષ્કર્મનું સેવન કરતા હોય છે. પરંતુ અંગચેષ્ટા આદિ દ્વારા અન્યના અન્તરગને જાણવામાં નિપુણ હોય એવા ચતુર પુરુષો તે એ વાતને બરાબર જાણે જાય છે કે આ લેકે માયાવી (કપટી) અને મહાશઠ છે. ૧૮ ટીકાઈ–વાણીશૂરા તે કુશીલ સાધુઓ પિતાના ચારિત્રને અને અનુ. કાનોને વિશદ્ધ જાહેર કરે છે–તેઓ વિશુદ્ધ હવાને દંભ કરે છે, પરંતુ તેઓ એકાન્તમાં કુકર્મોનું સેવન કરે છે. એટલે કે જાહેરમાં For Private And Personal Use Only Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 'समयार्थबोधिनी टीका प्र. शु. अ. ४ उ. १ स्त्रीपरीषहनिरूपणम् २४७ परानुपदिशति, प्रच्छन्ने च स्वयं असंयमजनकं कर्म समाचरति । तादृशं स्वकीयमसदनुष्ठानं गोपायतोऽपि तस्य कुशीलस्य । 'तहाविदा' तथाविदाःइङ्गिताऽऽकारज्ञानकुशलाः संपताचारे निपुणाश्च साधवो गृहस्थाच तस्य तादशाऽसदनुष्ठानम् 'जाति' जानन्त्येव । अथवा सर्वज्ञास्तीर्थकरादयस्तु जानन्त्येव । तेषां परचितस्याऽपि प्रत्यक्ष संभवात् । " आकारैरिङ्गितैगत्या, वेष्टया भाषणेन च । नेत्रविकारैव ज्ञायतेऽन्तर्गतं मनः ॥ १ ॥ " - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir " Sarfs आकारमकार चिह्न किका अपि परकीयचेतोवृत्ति जानन्ति । तदा का कथा हस्तामलकवत् सकलपदार्थदर्शनशीलानां दादृशां महापुरुषाणां सर्वकरता है । अर्थात् मकट में तो वह दूसरों को उत्कृष्ट आचार की शिक्षा देता है और एकान्त में स्वयं असंयममय कार्य करता है । इस प्रकार अपने दुष्कृत्यों को छिपाने पर भी जो साधु या गृहस्थ मानवीय चेष्टाओं को समझने में कुशल और संयतों के आचार के ज्ञाता हैं, उसके उन दुष्कृत्यों को जान ही लेते हैं। अथवा सर्वज्ञ तीर्थंकर तो जानते ही हैं, क्योंकि परकीय चित्त भी उनके लिये प्रत्यक्ष होता है । कहा है- ' आकारे रिङ्गितैर्गस्था' इत्यादि । ' आकार से, संकेत से, चाल से, चेष्टा से, बोली से और नेत्रों तथा मुख के विकार से मन की बात भी जान ली जाती है' | १| जब आकार प्रकार आदि चिह्नों से लौकिक जन भी दूसरे की चित्तवृत्ति को जान लेते हैं तो समस्त पदार्थों को हस्तामलक के समान તે તે લેાકેાને ઉત્કૃષ્ટ આચારાની શિક્ષા આપે છે. પરન્તુ તેએ પેાતે જ એકાન્તમાં અસયમમય આચરણ કરે છે. ભલે, તેઓ આ પ્રકાર તેમનાં દુષ્કૃત્યાને છુપાવતા હોય, પરન્તુ ચતુર પુરુષોથી તેમના દુષ્કૃત્યેા અજ્ઞાત રહેતાં નથી. જે માણસને તેની ચેષ્ટાઓ દ્વારા પારખી શકવાને સમય ડાય છે. તથા જેએ! સયતાના આચારના જાણકાર હાય છે, તે તેમને સાચા સ્વરૂપમાં એળખી જાય છે. અથવા સન તાકરા તે તેમનાં તે દુષ્કૃત્યાને જાણે જ છે, કારણ કે અન્યના મનાભાવેાને પણ તેએ જાણી शवाने समर्थ छेउछु पछे --' आकारैरिङ्गितैर्गत्या' त्याहि 'माङ:२थी, सडेतथी, यासथी, येष्टाथी, मासीथी, तथा भुय्मना विठारथी અ'તઃકરણની વાતને પણ જાણી શકાય છે, જે આકાર, ચેષ્ટા આફ્રિ દ્વારા આ લેાકના ચતુર મનુષ્યા અન્યની ચિત્તવૃત્તિને જણી લે છે, તેા સમસ્ત પદાનિ હસ્તામલક (હાથમાં રહેલા આમળાની જેમ) જોઈ શકનારા મહા For Private And Personal Use Only Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २५८ सूत्रकृताङ्गसूत्रे शानां परचित्तस्य । इत्थं ते जानन्ति 'अयंति' यदऽयम् 'माइल्ले महासढे' मायावी महाशठश्चेति । यद्यपि स शठः स्वमनसि एवं विचारयति यन्मदीयं कृत्यं न कोऽपि जानाति, किन्तु महापुरुषास्तु तस्य मायावित्वं शठत्वं च जानन्त्येव ॥१८॥ मूलम्-संयं दुक्कडं च नै बदइ आईटो वि पत्थइ बाले। वेाणुवीइ मा कासी चोइजंतो गिलाइ से भुजो॥१९॥ छाया-स्वयं दुष्कृतं च न वदति आदिष्टोऽपि प्रकस्थते बालः । वेदानुवीचि मा कार्षीः लोधमानो ग्लायति स भूयः ॥१९॥ देखनेवाले महापुरुष सर्वज्ञ केवलज्ञानियों के लिए दूसरे की चित्तवृत्ति को जान लेना क्या बड़ी बात है ? वे जानते हैं कि यह मायाचारी है, कपटशील है । यद्यपि वह मायावी समझना है कि मेरे कुकर्म को कोई नहीं जानता किन्तु ज्ञानी पुरुष तो उसकी मायाविता और शठता को जानते ही हैं ॥१८॥ शब्दार्थ--'याले-बालः' अज्ञानी जीव 'सयं दुकडं-स्वयं दुष्कृतम्' अपने दुष्कृत्य-पापको 'न वदह-न वदति' नहीं कहता है 'आइहोविआदिष्टः अपि' जब दूसरा कोई उसे उसका पापकृत्य कहने के लिये प्रेरणा करता है तब 'पकत्यह-प्रकत्थते' वह अपनी प्रशंसा करने लगता है 'वेयाणुवीइ मा काली-वेदानुवीचि मा कार्षी' तुम मैथुन की इच्छा मत करो इस प्रकार आचार्य आदि के द्वारा 'भुज्जो चोइ. પરષો-સર્વજ્ઞ કેવલીઓને માટે તે અન્યના મનભાવને જાણી લેવામાં શી મુશ્કેલી હોઈ શકે? તેઓ તે એ વાતને અવશ્ય જાણી શકે છે કે આ પુરુષ સદાચારી છે કે માયાચારી (કપટશીલ) છે. ભલે તે માયાચારી પુરૂષ એમ માનતો હોય કે મારાં કુકર્મોને કઈ જાણતું નથી, પરંતુ જ્ઞાની પુરૂષ અથવા સર્વજ્ઞ કેવલી ભગવાને તે તેમની માયાવિતા અને શતાને જાણતા જ હોય છે ૧૮ शहाथ-बाले-बालः' अज्ञानी ७१ सयं दुक्कडं-स्त्रयं दुष्कृतम्' पोताना हुकृत्य-॥५ने 'न वदह-न वदति' प्रगट ४२ता नथी. 'आइटोवि-आदिष्टः अपि' જ્યારે બીજો કોઈ તેને તેનું પાપકૃત્ય બતાવવાની પ્રેરણા કરે છે. ત્યારે ઘરથા -प्रकत्थते'त पोताना . ४२वा दी जय छे. 'वेयाणुवीई मा कासीवेदानुवीचि मा कार्षी' तु भैथुननी ४२छा न ४२ से प्रमाणे मायार्थ माह द्वारा 'भुज्जो चोइज्जतो-भूयो नोद्यमानः' १२१२ ४ाम भावया 'से-मः' For Private And Personal Use Only Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ४ उ. १ स्त्रीपरीषहनिरूपणम् २४९ अन्वयार्थः -- (बाळे) बालोऽज्ञानी ( सयं दुक्कडं) स्वयं दुष्कृतं ( न वदइ) नवदति आत्मना कृतं पापं आचार्यादिना पृष्टो न कथयति (आट्टो वि) आदिsutr (पत्थर) मकत्थते स्वकीयां प्रशंसां वदति (वेयाणुत्री माकासी) वेदानुवीचि माकार्षी मैथुनाभिलाषं मा कुरु इति आचार्ये कथिते (भुञ्ज चोइज्जतो) भूयो नोद्यमानः (से) सः कुशीलः (गिलाइ ) ग्लायति ग्लानिं प्राप्नोतीति ॥ १९ ॥ टीका- 'बाले' वाळोऽज्ञानी 'सयं दुक्कटं न वदह' स्वयमात्मना कृतं दुष्कर्म न वदति, स्वकीयदुष्कर्मकथनाय परेण 'आइट्टो वि' आदिष्टोऽपि आचा येणाऽन्येन वा केनचित् 'पकत्थई' प्रकत्थते, स्वकीयां प्रशंसामेव वदति आत्मानं निह्नेोतुम् अलति अपन्तं सन्तं ब्रूने इति भावः । तथा-वेयाणुवीह' ज्जतो-भूयोनोपान बार बार कहा जाने पर 'से-सः' वह कुशील 'गिलाइ - ग्लायति' ग्लानिको प्राप्त होते हैं ॥१९॥ अन्वयार्थ - अज्ञानी जीव स्वयं अपने पापको प्रकाशित नहीं करता है, दूसरे के कहने पर भी मुकरता है और अपनी प्रशंसा करता है, मैथुनसेवन मत करो, इस प्रकार आचार्य के कहने पर और पुनः पुनः प्रेरणा करने पर ग्लानि का अनुभव करता है ॥ १९ ॥ टीकार्थ-- अज्ञानी जीव अपने दुष्कृत्य को प्रकाशित नहीं करता है, अपना दुष्कृत (पाप) कहने के लिए दूसरे के कहने पर नटता है, झुठी सच्ची बातें कहता है । जब गुरु कहते हैं कि मैथुन सेवन मत करो तो वह वारंवार ग्लानि को प्राप्त होता है । ते कुशीस शिष्य 'गिलाइ ग्लायति' सान मनी लय हो, अर्थात् दुःश्री મની જાય છે. ૫૧૯ના સૂત્રા --અજ્ઞાની જીવા જાતે જ પાતાના પાપને પ્રકટ કરતા નથી, ખીજા લેાકેા તેમને સમજાવવાના પ્રયત્ન કરે તેા પણ તેએ પેાતાના ઢોષોના સ્વીકાર જ કરતા નથી, પરન્તુ પાતાની પ્રશંસા જ કર્યો કરે છે. આચાય દ્વારા મૈથુન સેવન ન કરવાના ઉપદેશ આપવામાં આવે અને સ્ત્રીના સપના પરિત્યાગ કરવાની પ્રેરા કરી કરીને આપવામાં આવે, ત્યારે તે ગ્લાનિ (विषाद) अनुभवे छे. ટીકા--અજ્ઞાની જીવા પોતાનાં દુષ્કૃત્યને પેાતાની જાતે પ્રકટ કરતાં જ નથી, પરન્તુ જ્યારે તેઓને કાઇ દુષ્કૃત્ય પ્રકટ કરવાને માટે સમજાવે છે, ત્યારે પશુ તેમે તેના સ્વીકાર જ કરતા નથી, ઊલટાં ખરી ખાટી વાતા કહીને પેાતાના દુખ્યા (પાપા)ને છુપાવવાને જ કરે છે. જ્યારે ગુરૂ દ્વારા તેને મૈથુન સેવન ન કરવાનું કહવામાં આવે પ્રયત્ન सू० ३२ For Private And Personal Use Only 1 Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २५० सूत्रकृताङ्गसूत्रे वेदानुवीचि, वेदोदितमपि मैथुनं मा कुरु' इत्येवं गुरुणा 'चोइज्जतो' नोद्यमानः 'स भुज्जो' स भूयः 'गिलाइ' ग्लायति, ग्लानिमधिगच्छति । द्रव्यलिंगो साधुरज्ञानी स्वयं स्वपापं न वदति । परेण पृष्टः स्वकीयामात्मश्लाघामेवाऽऽविष्करोति । मैथुनं न कर्त्तव्यमिति भूयो भूयो नोद्यमानो विद्यमानेन मनसा दूयमान इवाभाति इति भावः ॥१९॥ मूलम्-औसिया वि इस्थिपोसेसु पुरिसा इत्थीवेयखेदन्ना। पण्णासमन्निताबेगें नारीणं वसं उर्वकसति ॥२०॥ छाया-उषिता अपि स्त्रीपोषेषु पुरुषाः स्त्रीवेदखेदतः । प्रज्ञासमन्विता अप्ये के नारीणां वशमुपकपन्ति ॥२० तात्पर्य यह है कि द्रव्यलिंगी अज्ञानी साधु स्वयं अपने पाप को प्रकट नहीं करता है। दूसरा कोई पूछता है तो अपनी प्रशंसा ही करता है । जब उसे मैथुन न करने की प्रेरणा की जाती है तो अनमना जैसा होकर रह जाता है ।।१९॥ शब्दार्थ--'इत्थिपोसेसु-स्त्रीशेषेषु' स्त्रियों के पालन करने में 'ओसिया वि-उषिता अपि' व्यवस्थित होने पर भी 'पुरिसा-पुरुषाः' जो पुरुष 'इस्थिवेयखेदना-स्त्रीवेदखेदज्ञाः' स्त्रियों के द्वारा होनेवाले खेदों के ज्ञाता होने पर भी 'पण्णासमन्नितावेगे-प्रज्ञासमन्विता अप्येके' प्रज्ञा-किननेक तो बुद्धि से युक्त होने पर भी 'नारीणं वसं उवकसंतिनारीणां वशमुपकषन्ति' स्त्रियों के वशीभूत हो जाते हैं ॥२०॥ ત્યારે તે વારે વારે ગ્લાનિને અનુભવ કરે છે. આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે દ્રલિંગી (માત્ર સાધુને વેષ ધારણ કરનાર પણ સાધુને આચારનું પાલન ન કરનાર) સાધુ જાતે પિતાના પાપને પ્રકટ કરતા નથી. જો કે તેને કૃત્ય વિષે પ્રશ્ન પૂછે છે, તો તે આમલાઘા જ કરે છે. જ્યારે આચાર્ય આદિ દ્વારા તેને બ્રહ્મચર્યનું પાલન કરવાની પ્રેરણા આપવામાં આવે છે, ત્યારે તે ઉદાસ થઈ જાય છે, તેને એવી શિખામણ પણ ગમતી નથી. ૧ शहाय-'इत्थोपोसेसु-स्त्रीपोषेषु' जियोना पालन ४२पामा 'मोसिया वि-उषिता अपि' व्यवस्थित डावा छतi ५ 'पुरिसा-पुरुषाः'२ ५३५ 'इत्थिवेयखेन्ना-स्त्रीवेदखेदज्ञाः' लियो । थापागा ने myा l छतi ५१ ‘पन्नासमन्नितावेगे-प्रज्ञासमन्विता अप्येके'-30 तो द्धियत डावा छता ५- 'नारीणं वसं उवकसंति-नारीणां वशमुपकन्ति' सीयान अधीन થઈ જાય છે. ર૦૧ For Private And Personal Use Only Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ४ उ. १ स्त्रीपरीषहनिरूपम् २५१ ___ अन्वयार्थ:--(इत्थिपोसेसु) स्त्रीपोषेषु-स्त्रीपालने (ओसिया वि) उषिता अपि स्त्रोपोषणादौ व्यवस्थिता अपि (पुरिमा) पुरुषाः (इत्थीवेयखेदन्ना) स्त्रीवेदखेदज्ञाः-स्व संपर्क ननितदुःखं जानन्तोऽपि (पणासमनिता) प्रज्ञासमन्विताःऔत्पत्तिक्यादिबुद्धि युक्ता अपि (गे) एके (नारीणं वसं उवकसति) नारीणां वशमुपकपन्ति-स्त्रीजिता भवन्द्रि-स्त्री वशं गन्छन्तीति ॥२०॥ ___टीका-'इत्थिपोसेसु' स्त्रीपोषेषु स्त्रियं पोषयन्ति ये ते स्त्रीगोपाः व्यापारविशेषाः तेषु 'ओसिया दि' उपिता अपि 'पुरिसा' पुरुषाः स्त्रीणां रक्षणादौ कृतप्रयत्ना अपि 'इत्थीवेयखेदना' स्त्रीवेदखेदज्ञा स्त्रीणां वेदो मायामधा. नकः, तस्मिभिपुणाः 'पण्णासमन्निता' प्रज्ञा औत्पत्तिकी बुद्धिः तादृशबुद्धया युक्ता अपि पुरुषाः 'वेगे' एके महामोहान्धमनसः । 'नारीण' नारीणाम् 'वसं' वशम्-अधिकारम् 'उवासंति' उपकपन्ति व्रजन्ति-इत्यर्थः । यथा यथा स्त्री अन्वयार्थ--जो पुरुष स्त्री का पालन पोषण कर चुके हैं और इम कारण जो स्त्री वेदके खेद को जानते हैं अर्थात् भुक्तभोगी होने के कारण जो स्त्री सम्पर्क जनित दुखों को जानते हैं और जो प्रज्ञा से सम्पन्न हैं, उनमें से भी कोई कोई स्त्रियों के वश में हो जाते हैं। २०॥ टीकार्य--जो स्त्री का पोषण करनेवाले व्यापारों को कर चुके हैं, जो स्त्रियों के कपट प्रधान वेद में निपुण हैं तथा जो औत्तिको बुद्धि से युक्त हैं ऐसे भी कोई कोई मोहान्य मानसवाले पुरुष नारियों के वशमें हो जाते हैं । स्त्रीके अधीन हुआ पुरुष वही वही करता है, स्त्री સૂત્રાર્થ –જે પુરૂષ સ્ત્રીનું પાલન-પોષણ કરી ચુક્યા છે, અને તે કારણે જે સ્ત્રીવેદના ખેડને જાણી ચુક્યા છે એટલે કે ભેગોને ભેગવી ચુકવાને કારણે જે સ્ત્રીસંપર્કજન્ય દુઃખનો અનુભવ કરી ચુક્યા છે, અને જેઓ પ્રજ્ઞાથી સંપન્ન છે, એવા પુરૂષોમાંથી પણ કંઈ કઈ પુરૂષ સ્ત્રીઓને અધીન થઈ જાય છે. ૨૦ ટીકાથ–જેઓ સ્ત્રીનું પિષણ કરવાને માટે વિવિધ પ્રવૃત્તિઓ કરી ચુક્યા છે, જેમાં સ્ત્રીસંપર્કને કટુ ફળ ભેગવી ચુક્યા છે, જેમાં સ્ત્રીઓના વેદમાં નિપુણ છે–સ્ત્રીઓમાં આસક્ત થવાથી કેવાં કેવાં દુઃખ અનુભવવા પડે છે તેને જેમણે અનુભવ કરી લીધું છે, તથા જેઓ ત્પત્તિકી બુદ્ધિથી યુક્ત હોય છે, એવાં કઈ કઈ પુરૂષો પણ મેહાન્ધ થઈને સ્ત્રીઓમાં આસક્ત થતા હોય છે. આ રીતે સ્ત્રીના મેહમાં ફસાયેલા તે પુરૂષે તેના For Private And Personal Use Only Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे आज्ञापयति, तथा तथा करोति स्त्रीवशमुपगतः पुरुषः, न तु किंचिदपि युक्ताऽ. युक्तं विचारयति, स्त्रीसंबन्धेन तादृशबुद्धविनाशितत्त्वात् । विषस्य भक्षणेन लोको मूछितो भवति किन्तु स्त्रीणां संसर्गेणव मुग्धा भवन्ति । तदुक्तम्-- 'बुद्धिभ्रशो विषं भुक्त्वा गृहीत्वा कांचनं बहु । स्त्रीणां संसर्गमात्रेण तदीयवशवर्तिता ॥१॥ अपि च--'एता हसन्ति च रुदन्ति च कार्यहेतोः, विश्वासयन्ति च परं न च विश्वसन्ति । तस्मानरेण कुलशीलसमन्वितेन, नार्यः श्मशानघटिका इव वर्जनीयाः ॥१.' जिसकी आज्ञा देती है । वह स्वयं उचित अनुचित का विचार नहीं करता। स्त्रीके सम्पर्क से उनकी बुद्धि विनष्ट हो जाती है। लोग विष का तो भक्षण करने पर ही मरते हैं परन्तु स्त्री के दर्शन मात्र से ही मूढ बन जाते हैं। कहा भी है--'बुद्धिभ्रंशो' इत्यादि। __ 'विष के भक्षण करने से और धन के लाभ से बुद्धि भ्रष्ट होती है अर्थात् मनुष्य बुद्धि हीन होता है परन्तु स्त्रीके साथ अनुराग संभाषण करने मात्र से ही उसके अधीन पन जाता है ।' और कहा भी है-'एता हसन्ति च' इत्यादि । - 'ये स्त्रियां अपने स्वार्थ के लिए कभी हँसती हैं, कभी रोती हैं। दूसरे को अपना विश्वास दिलाती हैं मगर स्वयं के ई का विश्वास नहीं करती। ગુલામ બની જઈને તેની એકે એક આજ્ઞાનું પાલન કરે છે. તેઓ સારા નરસાને વિવેક ગુમાવી બેસે છે સ્ત્રીના સંપર્કને કારણે તેની બુદ્ધિ જ નષ્ટ થઈ જાય છે. વિષનું ભક્ષણ કરનાર માણસ તે મૃત્યુ પ્રાપ્ત કરે છે, પરંતુ સ્ત્રીમાં આસક્ત થનાર માણસ તેના દર્શન માત્રથી જ મૂઢ બની જાય છે કહ્યું છે કે – 'बुद्धिभ्रंशो' त्याह વિષનું ભક્ષણ કરવાથી અને ધનની પ્રાપ્તિ થવાથી માણસની મતિ ભ્રષ્ટ થઈ જાય છે, એટલે કે માણસ વિવેકબુદ્ધિ ગુમાવી બેસે છે, પરંતુ સ્ત્રીની સાથે અનુરાગયુક્ત વાર્તાલાપ કરવા માત્રથી જ તે તેને અધીન થઈ જાય છે. पणी से पहुंछे है-'एता हसन्ति' त्या સિઓ પિતાને સ્વાર્થ સાધવાને માટે કદી હસે છે અને કદી રડે છે. તે અન્યને પિતાના પ્રત્યે વિશ્વાસ રાખવાને પ્રેરે છે, પણ પોતે કેઈને વિશ્વાસ For Private And Personal Use Only Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - समयार्थबोधिनी टीका प्र.श्रु. अ. ४ उ. १ स्त्रीपरीषहनिरूपणम् स्त्रीणां स्वभावो लौकिकशास्त्रेभ्य एवावगन्तव्यः । वीणां चरितमतीव दुर्विज्ञेयम् । तथोक्तम् 'हयन्यद् वाच्यन्यत् कर्मण्यन्यत् पुरोऽथ पृष्ठेऽन्यत् । अन्यत् तब मम चान्यत् स्त्रीणां स किमप्यन्यत् ॥१॥ इति ॥२०॥ स्त्रीसंबन्धस्य फलं कीदृशं भवति, तत्तु शास्त्रवेद्यमेव किन्तु लोकेऽपि तस्य फलमतीव दुःखदायि, इति दर्शयितु सूत्रकार आह-'अविहस्थे' त्यादि । मूळम् -अवि हत्थपादछेदाय अदुवा बद्धमंसउक्कते। ___ अवि तेयसाभितावगाणि तच्छिय खारसिंचणाई च ॥२१॥ अतएव कुल और शील से सम्पन्न पुरुष को चाहिए कि वह नारियों को श्मशान की घटिका के समान त्याग दे।' स्त्रियों का स्वभाव लौकिक शास्त्रों से ही जानना चाहिए। उनका चरित अतीवदुर्गम होता है। कहा भी है-'हृयायाच्यन्यत्' इत्यादि । . स्त्रियों का सभी कुछ निराला ही होता है। उनके हृदय में कुछ और होता है, वचन में कुछ और होता है, कर्म (क्रिया करने) में कुछ और ही होता है ! आगे झुछ और तो पीछे कुछ और होता है। उनका तुम्हारा हमारा भी अन्य होता है ॥२०॥ રાખતી નથી. તેથી કુળવાન અને શીલવાન્ પુરૂએ તેને સ્મશાનઘટિકા સમાન ગણીને તેને ત્યાગ કરે જઈ બે (શ્મશાનમાં પડેલા માટીના જળપોત્રને જેમ ત્યાગ કરવામાં આવે છે, તેમ જિઓને પણ ત્યાગ કરવો જોઈએ) સિઓને સ્વભાવ કેવો હોય છે, તે લૌતિક શાસ્ત્રોમાંથી જાણી લેવું જોઈએ. સ્ત્રીચરિતને સમજવું ઘણું જ મુશ્કેલ હોય છે. કહ્યું પણ છે કે 'हृद्यन्यद् वान्यन्यत्' त्यादि સ્ત્રિઓનું સઘળું નિરાળું જ હોય છે. તેમનાં મનમાં કંઈક હોય છે, અને તેમની વાણીમાં બીજુ જ હોય છે, અને તેમની ક્રિયામાં વળી ત્રીજુ જ કઈ હેય છે. એટલે કે તેમનાં મનના વિચારે, વાણી અને કાર્યમાં એકરૂપતા હેતી નથી. તેમની આગળ કંઈક હેય છે, તે પાછળ બીજું કંઈક જ હોય છે. તે અમુક વસ્તુને કે માણસને પિતાને ગણાવે છે પણ મનમાં તે અન્યને જ પિતાને ગણતી હોય છે. તે કારણે સ્ત્રીચરિતને તાગ મેળવે ઘણે જ દુર્ગમ ગણાય છે. પરમા For Private And Personal Use Only Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २५४ सूत्रकृताङ्गसूत्रे छाया--अपि हस्तपादच्छेदाय अथवा वर्द्ध मांसोत्कर्तनम् । अपि तेजसाभितापनानि तक्षयित्वा क्षारसेचनानि च ।।२१॥ अन्वयार्थः--(अवि हत्यपादछेदाए) अपि हस्तादच्छेदाय-इहलोके परस्त्री संपर्कोऽपि हस्तपादच्छेदाय भवति (अदुवा) अथवा (बद्धमंस उक्कते) वर्द्धमांसोत्कतैननं चर्ममांसकर्तनाय भवति (अवि तेयसाभितारणाणि) अवि तेजसामितापनानि स्त्री सम्बन्ध का फल कैसा होता है, यह तो शास्त्र से ही जाना जा सकता है, किन्तु लोक में भी उसका फल अतीव दुःख जनक होता है, इस तथा को दिखलाने के लिए सूत्रकार कहते हैं-'अविहत्य इत्यादि। शब्दार्थ-'अवि हत्थपादछेदाए-अपि हस्तपादछेदाय' इस लोक में स्त्री का संबंध हाथ और पैर का छेदन के लिए होता है 'अदुवा-अथवा' अगर 'यद्धमंसउक्कते-वर्द्धमांसोत्कर्तनम्' चमडा और मांस को कतरने रूप दण्ड जनक होता है 'अवि तेयसाभितावणाणि-अपि तेजसाभितापनानि' अथवा अग्नि से जलाने रूप दण्ड के योग्य होता है 'च-च' और 'तच्छिय खारसिंचणा- तक्षयित्वा क्षारसिंचनानि' उनके अङ्गका छेदन करके उसके ऊपर क्षार सिंचनरूप दण्ड के योग्य होता है ॥२१॥ ___ अन्वयार्थ--इस लोक में स्त्रियों का सम्पर्क हाथ पग के छेदन के लिए होता है, अथवा चर्म और मांस को काटने के लिए होता है परस्त्री સ્ત્રી સંપર્ક નું કેવું ફળ ભેગવવું પડે છે, તે તો શાસે માંથી જ જાણ શકાય છે, પરંતુ લેકમાં પણ તેનું ફલ અતિ દુઃખજનક જ ય છે, તે વાતનું ७२ सूत्र॥२ नि३५५ ४२ ...-'अवि हत्य' याति श६–'अवि हत्यपादछेदाए-अपि हस्तपादछे दाय' मा videi સ્ત્રીની સાથે સંબંધ તે હાથ અને પગને કપાવી નાખવા માટે હોય छ. 'अहवा-अथवा' मगर 'बद्धमंस उक्कते-बद्ध मांसोत्कर्तनम्' याम। मन भासन ४१२३॥ सय ६ने ये:२५ मने छे. 'अवि तेयसाभितावणाणि-अपि तेजसाभितापनानि' भय। मनिथी ५.जाने यो मने छ. 'च-च' मन 'तच्छिय खारसिंवा ई-तक्षयित्वा क्षारखिंवनानि' तेना गर्नु छेन शने तेना ઉપર મીઠું ભભરાવારૂપ દંડને ચેપગ્ય બને છે. પાર સૂત્રાર્થઆ લેકમાં સ્ત્રીસંગમ કરનાર લોકોના હાથ, પગ આદિ અંગે કાપી નાખવામાં આવે છે અથવા ચામડી અને માંસ કાપવામાં આવે છે. પરસ્ત્રી For Private And Personal Use Only Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समधार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ४ उ. १ स्त्रीपरीषहनिरूपणम् २५५ - परस्त्रीसंपर्ककार ज्वलयति गजपुरुषः, (च) च-अथवा (तच्छिय खारसिंचणाई) तक्षरित्या क्षारसिंचनानि, शरीरं तक्षयित्वा लवणं तत्र प्रक्षिपतीति ॥२१॥ टीका--इह लोके परस्त्रीगां संगमकारिणो ये तेषाम् , हस्तपादच्छेदाय= हस्तपादयो छेदनमपि भवति । तथाकारिणां हस्तौ पादौ छियेते 'अदुवा' अथरा 'वद्धमंस उबाते' वर्धमांसोत्कर्त्तनमपि भवति । 'अवि' अपि च 'तेजसा अभिताव गाणि' तेजसा वह्निना अभिताप्यते राजभटैः। ग्छिय खारसिंचाईच' तक्षायस्वाक्षारसेचनानि क्षयित्वा तदुपरि क्षारेण लपणेन गात्रं सिंचति । परस्त्रियं भुजमानानां हस्तायायवखण्डनम् , मांसोत्कर्तनम् , तेजसाऽभितापनम् , क्षारसे चनादिकं च क्रियते उद्वेजितः स्त्रीसंवन्धिभिः राजदूतैर्वा । इमे लौकिका दण्डा सम्पर्क करनेवाले पुरुष को लोग जला देते हैं और उसकी चमडी पर लवण छिडकते है ॥२१॥ टीकार्थ-परस्त्री संगम करने वाले पुरुष के इसी लोक में हाथ और पग काट लिये जाते हैं अथवा चमड़ी और मांस काट लिया जाता हैं। राजकीय कर्मचारी उन्हें आग में तपाते जलाते हैं। उनका चमड़ा छोलकर उस पर लवण छिड़कते हैं। ___ अभिप्राय यह है कि परस्त्री का उपभोग करने वाले पुरुषों के हाथ पग का छेदन किया जाता है मांस काटा जाता है, आग में जला दिया जाता है और चमडा उतार कर उस पर लवण छिडका जाता है। उत्तेजित हुए स्त्री के संबंधी जनों द्वारा अथवा राजपुरुषों द्वारा ये दण्ड સાથે કામગ સેવનારને ક્યારેક જીવતા બાળી નાખે છે, અથવા તેમની ચામડી કાપીને તેના પર મીઠું છાંટવામાં આવે છે. ૨૧ ટીકાર્થ–પરસ્ત્રીની સાથે સંભોગ કરનાર પુરુષના હાથ, પગ આદિ અંગે છેદી નાખવાની સજા લોકે દ્વારા કરાય છે. એવા પુરુષની ચામડી ઉતારી નાખવામાં આવે છે અને તેના શરીરને છેદીને માંસને બહાર કાઢવામાં આવે છે. રાજ્યના અમલદારો તેને જીવતે બાળી દેવાની સજા પણ કરે છે, અથવા તેની ચામડી ઉતરાડીને તેને ઉપર લવણ ભભરાવીને તેને ખૂબ જ પીડા પહોંચાડવામાં આવે છે. આ લેકમાં એવું તે અનેકવાર જોવામાં આવે છે કે પરસ્ત્રીને ઉપભેગ કરનાર પુરુષને લેકો જ કડક શિક્ષા કરતા હોય છે. તે સ્ત્રીનાં સગાસંબંધીઓ તે કામાંધ પુરુષને પકડીને સારી રીતે મારપીટ કરે છે ઉશ્કેરાટને કારણે તેના હાથ, પગ કાપી નાખે છે અથવા તેની ચામડી ઉતરડી નાખીને શરીર પર મીઠું ભભરાવે છે. રાજપુરુષે પણ તે કામાખ્ય પુરુષને કડકમાં કડક સજા કરે છે. For Private And Personal Use Only Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २५६ सूत्रकृताङ्गसूत्रे भवन्ति । पारलौकिकयातनायां तु नरकादिकं भवतीति सच्छास्त्रमेव प्रमाणम् । तस्मादात्महितार्थिना स्त्रीसंबन्धो नितरां हे। इति ॥२१ । मूलम्-अदु कै गणणासच्छेदं कंठच्छेदणं तितिक्खंति। इति तत्थ पावसंतंना न य विति पुगो न काहिति॥२२॥ छाया--अथ वर्णनासिकाच्छेदं कण्ठच्छे इन तितिक्षन्ते । इति तत्र पापसन्तप्ताः न च बुभते न पुनः करिष्यामः ॥२२॥ अन्वयार्थः - (पावसंमत्ता) पायातमा (नि) इति इहलोके (कण्णनासच्छेदं) कर्णनासिकाछेदं तथा (कंठच्छेदणं विशिकवतिः कण्ठच्छेदनमपि तितिक्षन्ते सहन्ते (न य विति) न च त्रुश्ते (न पुमो काहिति) न पुनः करिष्याम इति ।।२२। इसी लोक में दिए जाते हैं । परलोक में उनको नरक आदि में जाना पडता हैं । वहां कैसी कैमो यातनाएं भुगतनी पडती हैं, इस विषय में तो शास्त्र ही प्रमाण है । अतएव आत्महित के अभिलाषी पुरुष को स्त्री का सम्पर्क सर्वथा ही त्याग देना चाहिए ॥२१॥ शब्दार्थ--'पापसंत्तत्ता-पारसंतसाः' पापी पुरुष 'इति-इति' इस लोक में 'कानातच्छेदं-कर्णनासिकाछेदं' कान और नाक का छेदन तथा 'कंठच्छे दणं तितिक्खंति कण्ठच्छेनं तितिक्षन्ते' कंठ-गले का छेदन सह लेते हैं 'न य बिति न च ब्रुवते' परन्तु वे ऐसा नहीं कहते कि 'न पुणो काहिंति-न पुनः करिष्याम इति' अब हम फिर से पाप नहीं करेंगें।.२२॥ ___ अन्वयार्थ-पाप से संतप्त पुरुष इस लोक में कान और नाक का કઈ કઈવાર તો તે પરસ્ત્રીગામીને જીવતા બાળી દે છે. આ બધા દંડ આલેકના છે. પરલેકમાં પણ તેને દુઃખ જ ભેગવવું પડે છે. નરકગતિ પામીને તેને કેવી કેવી યાતનાઓ વેઠવી પડે છે, તે બાબત તે શામાંથી જાણી લેવી જોઈએ. તેથી આત્મહિતની અભિલાષા રાખનાર પુરુષે સ્ત્રીના સંપર્કને તે સર્વથા પરિત્યાગ જ કરે જોઈએ મારા साथ-'पावसंतचा-पापसंतप्ताः' पापी पुरुष 'इति-इति' म तमा 'कण्णनासच्छेद-कर्णनासिकाच्छेदं न म२ नानुन तथा 'कंठच्छेदण तितिक्खंति-कण्ठच्छेदनं तितिक्षन्ते' ४४ हा गानुछेदन सहन छे. 'न य विति-न च अवते' ५२'तु तमे। मे नया डेता 'न पुणो काहिति-न पुनः करिष्याम इति' वेथा हुरी पा५ नही ३.॥२२॥ સૂત્રાર્થ–મૈથુનસેવન કરનારા પાપી લોકો આ લેકમાં કાન, નાક અને For Private And Personal Use Only Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir % 3 D %E समयार्थयोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ४ उ. १ स्त्रीपरीषहनिरूपणम् टीका--'पावसंतत्ता' पापसन्तप्ताः-पापेन कर्मणा संतप्ताः 'इति' इति-इह लोके इहैव जन्मनि कण्णनासच्छेद' कर्णमासिकाच्छेद-कर्णनासिकयोश्छेदन कंठ च्छेदणं तितिक्खंति' कण्ठच्छेदनं तितिक्षन्हे-इण्ठच्छेदनं च तितिक्षन्ते सहन्ते । 'नय विति' न च ब्रुवो 'न पुगो काहिति' न पुनः करिष्याम इति-एवंभूतं पापानुष्ठानं न पुनः करिष्याम इति नैत्र वदन्ति । ऐहिकपारलौकिकयातनामनु भवन्तोऽपि तादृशदुष्कृत कर्मभ्यो निवृति नै लभन्ते । पापिपुरुषः पापकरणे अनेकधा विविधनिधकर्णनास सोन्छे नादिकं सान्तोऽपि न सतो निवर्तन्ते । अहो महदाय विवित्रं च माह प्रायमरी ॥२२॥ छेदन तथा कंठसा छेदम सह लेते हैं किन्तु यह नहीं कहते कि 'अब हम पुनः ऐसा नहीं करेगे॥२२॥ ____टीकार्थ--पारी पुरुष इसी लोक में कान और नाक का छेदन सहन कर लेते हैं, कंठ का काटा जाना भी सह लेते हैं परन्तु ऐसा नहीं कहते कि-'ऐसा पापकार्य फिर नहीं करूंगा। इह परलोक संबन्धी यातनामों (दुःखों) का अनुभव करते हुए भी वे उन दुष्कृत्यों से विरत नहीं होते हैं। पापी पुरुष पार करके कान-नाक कटने आदि की विविध प्रकार की वेदना को सहन करते हुए भी उससे निवृत्त नहीं होते। आह ! कितने आश्चर्य का विषय है। महामोह का कै पा साम्राज्य है ॥२२॥ ગળાનું છેદન સહન કરી લે છે, પરંતુ “ફરી એવાં પાપકર્મો હું નહીં કરું, मे उता नथी. !॥२२॥ ટીકા–પાપી લો (કામાગ્નિથી તમ કામા પુરુષો) આ લોકમાં ગમે તેવાં કષ્ટો સહન કરી લે છે તેમના કાન, નાક આદિ દવામાં આવે અથવા તેમનું ગળું કાપી નાખવામાં આવે, તો પણ સહન કરી લે છે, પરંતુ “હું હવે કદી પણ આવું પાપકમ નહીં કરું.” એવું વચન ઉચ્ચારતા નથી આ લેક અને પરલેક સંબંધી યાતનાઓને અનુભવ કરવા છતાં પણ કામાન્ય માણસે અબ્રાના સેવનરૂપ દુકૃત્યથી નિવૃત્ત થતા નથી. પાપી પુરુષો કાન, નાક આદિ અંગેના છેદનથી સહવી પડતી વેદનાએ સહન કરવાનું પસન્દ કરે છે, પણ પાપકર્મોથી નિવૃત્ત થવાનું પસન્દ કરતા નથી. આ વાત કેવી આશ્ચર્યજનક છે! મહામહનું કેવું સામ્રાજ્ય વ્યાપેલું છે! રરા स० ३३ For Private And Personal Use Only Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २५८ मूलम् - सुतमेयमेवमेगेसिं इत्थीवेदेह हु सुक्खायें । ऍपिता वर्दिता वि अर्जुवा कम्र्मुणा बकरेति ॥२३॥ छाया -- श्रुतमेवदेवमेकेषां खीवेद इति हु स्वाख्यातम् । सूत्रकृताङ्गसूत्रे एवमपि उक्त्वाऽपि अथवा कर्मणा अकुर्वन्ति ॥ २३ ॥ अन्वयार्थः - (एयं) एतत् (पर्व) एप (सु) श्रुतं यत् खीसं महादोषायेति V तथा (एस) एकेषां वैशिकादिकानां (शुक्खायें) स्त्ररूपकथनं (इत्थीवेदे) स्त्रीवेद इति एकेषां स्त्री वेदविदां स्वाख्यातमिति (वा) तात्रिः (पवं वदिताब क्वापि वा अन्य तया (गा अरदि) कर्मणा अपकुर्वन्तीति- विपरीतमाचरन्तीति ॥२३॥ शब्दार्थ - - ' एवं - एम्' इस प्रकार 'सुतं श्रुता स्त्री संपर्क महादोषजनक है ऐसा मैंने सुना है तथा 'एसि-एकेषां कोई कोई का 'सुक्खायं स्वारुपातम्' सम्पर कथन है 'इत्थवेदेह-स्त्रीवेद इति' कामशास्त्र का यह कथन है कि 'ता-ता' स्त्रियः 'एवं वदिता बिएवमुक्त्वापि' अब मैं ऐसा नहीं करूंगी ऐसा कहती है 'अदुवा अथवा ' तो भी 'कम्णा अवकरेति कर्मणा अपकुर्वन्ति' उसले विपरीत आचरण करती हैं ||२३| अन्वयार्थ- हमने ऐसा सुना है कि स्त्रियों का सम्पर्क महान दोष का कारण होता है । किन्हीं वैशिक आदि का ऐसा कहना है कि 'अब मैं इस प्रकार का पाप नहीं करूंगी' ऐसा कह कर भी पुन: विपरीत आचरण करती हैं ||२३ शब्दार्थ-'एवं - एवम्' मा ते 'सुतं श्रुतम् ' सांग हे अर्थात् स्त्रियांना संपर्ड महापापड छे, प्रेम में सांजल्यु' थे, तथा 'एगेनि - एकेषां ' Zu Fidj‘gazari-engaaq' arak za 9. § ‘ar-an' alan “çà वदित्ता वि-एवमुक्त्वा पि' हुवे पाही साम उरीश नहीं' खेवु' उडे छे. 'अदुवाअथवा ' ते 'कम्मुणा अवकरेति कर्मणा अपकुर्वन्ति' से उथनथी मुही क રીતનું આચરણ કરે છે. કા For Private And Personal Use Only સૂત્રા—અમે એવું સાંłખ્યું છે કે સ્ત્રએ સપર્ક મહાન્દોષના કારણ રૂપ બને છે. કોઇ કોઇ સ્રિએ એવુ કહે છે કે હવેથી હું એવુ’ દુષ્કૃત્ય નહી' કરું',' પરન્તુ એવુ' વચન આપ્યા બાદ પણ તેએ વિપરીત આચરણુ જ કરતી રહે છે. Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. १. ४ उ. १ स्त्रीपरीषहनिरूपणम् २५९ टीका--एयं एवं सुतं-एतत् स्त्रोचरितम् एकम् ऐहिक पारलौकिकदुःखप्रद. मिति शास्त्रेभ्यः गुरूपमृतिमहापुरुषाणां सुरवात् श्रुतमिति । ए गेलि एकेषां मुय. क्खायं' स्वाख्यातम् मुटु कथनन् । 'इत्याचे देहु खीवेवइति हु-स्त्रीवेदः काम शास्त्रम् । तस्यापि-रचय कयनम् , यत् खिः स्वभावचपला दुःखदायिन्यः कपटकारिण्यश्चेति । 'त' ता:-विपः एवंविबादिनानि एवमपि ता उक्त्वाअतः परं दुष्कृत कर्म न करिष्यामः, इत्युक्त्याणि 'कराणा' कर्ममा-क्रिया 'अबकरें ति' अपकुन्ति विरूपमाचरन्ति । अथवा पतिशिक्षण स्वीकृय तस्य पत्युरेवापकारं कुर्वन्ति । स्त्रीणां हृदयं दपणान्तर्गत मुखभिव दुग्राह्यम् । भाषः पर्वतमार्ग इव विषमः, चित्त पुष्करपलाशस्थित जलबिन्दुरिव तरलं नेत्र सतिष्ठने, किंबहुना विषलते व भवति ___टीकार्थ--स्त्रियों का सम्बन्ध इस लोक और परलोक संबंधी दुःख देने वाला है, यह हमने शास्त्रों से गुरु आदि महापुरुषों के मुख से सुना है । कोई कोई ऐसा कहते हैं और कामशास्त्र का भी यही कथन है कि स्त्रियां स्वभाव से ही चपल होती हैं, दुःखदायिनी होती है, और कपटकारिणी होती हैं। वे स्त्रियां इसके पश्चात् दुष्कर्म नहीं करूंगी' इस प्रकार बह शाह के भी विपरीन ही आचरण करती हैं अथवा पति की शिक्षा को स्वीकार करके पति का ही अपकार कर बैठती हैं। स्त्रियों का हाय दर्पण में झलकने वाले मुख के समान दुर्ग्राह्य है पकड में आने वाला नहीं है। उनका माय पर्वतीय मार्ग के समान विषम होता है । उनका चित्त कमल के पत्र पर स्थित जल के बिन्दु के ટીકાર્થ_સ્ત્રિ ને સર્ષ આ લેક અને પરલોકમાં દુઃખજનક થઈ પડે छ, आयु में शाम शुरु मावि महापुरुषाने भुणे श्रमणु यु छ. ४ કે લોકે પણ એવું જ કહે છે, અને કામશાસ્ત્રમાં પણ એવું જ કહ્યું છે કે સ્ત્રિઓ સ્વભાવે ચંચળ, દુઃખદાયિની અને કપટકારિણી હોય છે. “હવેથી ફરી કરી પણ દુષ્કૃત્ય નહીં કરું.” એવું વચન આપીને તુરત જ વચન ભંગ કરતાં તે સંકેચ અનુભવ નથી–ફરીથી એજ દુષ્કૃત્ય આચરવા લાગી જાય છે. અથવા એવી દુરાચારી સ્ત્રી પતિ દ્વારા જે શિક્ષા કરવામાં આવે તે સ્વીકારી લઈને, પતિને કેહ કરવાનું ચાલુ જ રાખે છે. જેવી રીતે દર્પણની અંદર દેખાતાં મુખના પ્રતિબિંબને પકડી શકાતું નથી, એજ પ્રમાણે સ્ત્રીના હૃદયને (મનોભાવને) જણ શકાતા નથી. સ્ત્રિઓના મને ભાવે ગિરિમાર્ગના સમાન વિષમ હોય છે. તેનું ચિત્ત કમલપત્ર પર For Private And Personal Use Only Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६० सूत्रकृताङ्गसूत्रे स्त्री । तदुक्तं कामशास्त्रे 'दुर्ग्राह्य हृदयं यथैव वदनं यदर्पणान्तर्गतं, भावः पर्वतमार्गदुर्गविषमः स्त्रीणां न विज्ञायते । चित्तं पुष्करपत्रतोयतरलं नैकत्र संतिष्ठते नार्यों नाम विपांकुरैरिव लता दोषः समं वर्धिताः॥१॥' इत्यादि ॥२३॥ मूलम्-अन्नं भणेण चिंतेति वायाँ अन्नं च कम्मुणा अन्नं। तंम्हा ण सह भिक्खू बहुमायाओ इथिओ णञ्च॥२४॥ छाया--अन्यन्मनसा चिन्तयन्ति वाचाऽन्यच्च कर्मणाऽन्यत् । ___ तस्मान्न श्रद्दधीत भिक्षुः बहुमायाः स्त्रियो ज्ञात्वा ॥२४॥ समान चंचल होता है । वह एक जगह पर स्थिर नहीं रहता। अधिक क्या कहा जाय स्त्री दोषयुक्त विषलता के समान होती है । कामशास्त्र में कहा है-'दुर्ग्राह्य हृदयं यथैव वदनं यद्दपणान्तर्गतं' ... स्त्रियों का हृदय उसी प्रकार दुर्ग्राह्य होता है जैसे दर्पण में प्रतिविम्बित मुख । उनका भाव पर्वत संबंधी मार्ग के समान विषम होता है, उसका पता लगाना कठिन है। उनका चित्त कमल के पत्र पर स्थित जल के समान तरल (चंचल) होना है । यह एक स्थान पर स्थिर नहीं रहता । इस प्रकार नारी संयमियों के लिये दोषों से युक्त विष की लता के समान है ॥२३॥ शब्दार्थ--'मणेा-मनना' स्त्रिया मन से 'अन्न--अन्यत्' दूसरा 'चिंतति-चिन्तयन्ति' सोचती हैं 'काया-वचमा' वाणी से 'अन्नं-अन्यद् રહેલા જળબિન્દુના સમાન ચંચળ હોય છે. તે કદી એક જ વસ્તુમાં સ્થિર रतु नथी. अधिः शु ! સ્ત્રી વિષલતા સમાન દેષયુક્ત હોય છે. કામશાસ્ત્રમાં પણ સ્ત્રિઓ વિષે से झुछ-'दुर्ग्राह्यं हृदयं यथैव वदनं यदर्पणान्तर्गत' छत्याह “જેવી રીતે દર્પણમાં પ્રતિબિંબિત મુખ દુર્ણાહ્ય હોય છે, એ જ પ્રમાણે સ્ત્રિઓનું હદય પણું દુર્ગાદા હોય છે, તેમના મનોભ પર્વતીય માર્ગના સમાન વિષમ હોય છે, તેથી તે ભાવોને સમજવાનું દુષ્કર બની જાય છે. તેનું ચિત્ત કમલપત્ર પર સ્થિત જલન સમાન તરલ (ચંચળ) હોય છે, તેથી તે એક જ સ્થાન પર સ્થિર રહેતું નથી. તેથી જ નારીઓનો સમાગમ સંયમી પુરુષોને માટે દેશોથી યુક્ત વિષલતા સમાન સમજ. ર૩ शा-'मणेण-मनसा' खिश भनथी 'अन्नं-अन्यत्' मा चितेति -चिनयन्ति' वियारे छे. 'वाया-वचमा वयनथी 'अन्न-अन्यत्' भी ४ For Private And Personal Use Only Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. शु. अ. ४ उ. १ स्त्रीपरीषहनिरूपणम् २६१ THERE अन्वयार्थः-- (मणे ग) मनसा (अन्न) अन्यत् (चिंते ति) चिन्तयन्ति (वाया) वचसा (अन्न) अन्यद् वदन्ति (कम्पुणा अन्न) कर्मणा अन्यत् कुर्वन्ति (तम्हा) तस्मात् कारणात् (बहुमाया इथियो णचा) वहुमाशः स्त्रिय इति ज्ञात्वा (मिक्खू) भिक्षुः मुनिः (ण सदह) न श्रद्दधीत स्त्रीषु श्रद्धां नैव कुर्यादिति ॥२४॥ टीका-'मणेग अन्नं चिंतेति' पातालोदरगंभीरेण मनसा अन्यत् चिन्तयन्ति। 'वाया अन्न' श्रवणमात्रमधुरया विपाकदारुणया वा वाचा ततोऽन्यद् वदन्ति । 'कम्मुणा अन्नं' कर्मणा चाऽन्यमेव भजन्ते। अतिगंभीरबनसा किमप्यन्यदेव चिन्तयन्ति, अर्थात् श्रवणमनोज्ञवचनेन किलप्यन्यदेव वदनि । कर्मणानुष्ठानेन और ही कहती है 'कम्मुणा अन्नं कर्मणा अन्यत्' और कर्म से और ही करती है 'तम्हा-तस्मान्' इस कारण से 'बटुमायामो इरिथमो णच्चा-बहुमायाः स्त्रियः ज्ञात्वा बहुत मायावाली स्त्रियों को जानकर भिक्खू-भिक्षुः' मुनि 'ण सद्दह-न श्रद्धधीन' उनमें प्रदान करें ।।२४।। ___ अन्वयार्थ--स्त्री मन से अन्य सोचती है वचन से अन्य बोलती है कर्म (कार्य) से कुछ अन्य ही करती है। अतएव स्त्रियां बहुत मायाचारिणी होती हैं, ऐमा जानकर मुनि उन पर श्रद्धा न करे ॥२४। ____टीकार्थ-स्त्री अपने पाताल के समाज गंभीर मन से कुछ और ही सोचती हैं, केवल सुनने में मयुर किन्तु विपाक में भयानक वाणी से कुछ और ही कहती है तथा कर्म (कार्य) कुछ और ही करती है। छ 'कम्मुणा अन्नं -कर्ममा अन्यत्' 12 भी ०८ रे छे. 'तम्हातस्मात्' ते ४२0, 'बहुमाया ओ इथिओ नचा-बहुमाया स्त्रियः ज्ञात्वा' लियोन भवि मायावी समने निक-भिक्षुः' भुनिये ‘ण सदह-न श्रद्दधीत' तमामा विश्वास न ४२. ।.२४.।। સૂવાર્થ- સ્ત્રી મનમાં કોઈ એક પ્રકારને વિચાર કરતી હોય છે, વચન દ્વારા જુદું જ એલતી હોય છે. એને ક યા દ્વારા વળી અન્ય જ કે ઇ કાર્ય કરતી હોય છે! આ પ્રકારે સ્ત્રીઓ માય.ચારિણી હેવાથી મુનિએ તેમને વિશ્વાસ રાખ જોઈએ નહીં ૨૪ ટીકાથ–-સ્ત્રી તેના પાતાલ જેવા ગંભીર મનમાં કંઈ જહું જ (વાલીથી વિપરીત) વિચારતી હોય છે, માત્ર સાંભળવામાં મધુર લાગે પણ જેને વિપાક ભયંકર હોય એવું જુદું જ (વેચારોથી વિપરીત) તે બોલતી હોય છે, અને વાણી અને વિચારોથી જુદું પડે એવું કંઈક કરતી હોય છે. આ રીતે તેના વિચારો, વાણી અને કાર્યોમાં એકરૂપતા હોતી નથી, તે For Private And Personal Use Only Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २६२ सूत्रकृताङ्गसूत्रे किमपि अन्यदेव कार्य कुर्वन्ति । यन्मनसा चिन्तितं तन्न ब्रुवते । यद् ब्रुवते तन कुर्वन्ति किन्तु सर्वं विपरीतमेव समाचरन्तीति भावः 'तन्हा' तस्मात् 'बहुमायाओ इथिओ' मायाः खियः इति 'बच्चा' ज्ञात्वा 'भिक्खू' भिक्षुकः 'ण सद्दद्द' न श्रदधीत तासु श्रद्धां न कुर्यात् || २४|| मूलम् - जुंबइ समैणं ब्रूया विश्वित्तलं कारवत्थगाणि परिहित्ता । विरतो बरिस्सहं रुक्खं धम्माइख में भयंतारो ॥ २५ ॥ छाया:-युवतिः श्रमणं ब्रूयात् विविद्यालंकारवस्त्राणि परिधाय । fatar चरिष्याम्यहं रूक्षं धर्ममाचा नः भवतः ॥ २५ ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपने अत्यन्त गंभीर मन से कुछ और ही सोचती है। श्रुतिसुखद वचनों से कुछ और ही कहती है और कर्म से कुछ और ही करती है। जो मन से सोचती है सो कहती नहीं और जो कहती है हो करती नहीं । वह सब विपरीत ही आवरण काली है । अतएव स्त्रियां बहुत मायावारिणी होती हैं ऐसा जानकर साधु उन पर श्रद्धा न करे । यहां लौकिक भी कह देने चाहिए ||२४|| शब्दार्थ - - ' जुबइ-युवतिः' कोई युवावस्था संपन्न स्त्री 'विचित्तालंकारवत्याणि परिहित्ता - विचित्रालंकारवस्त्राणि परिवार्य' चित्रवि चित्र अलङ्कार और वस्त्र पहनकर श्रमण के समीप में आकर 'सम बूपा श्रमणं ब्रूयात् साधु से कहे कि 'तारी - हे भवनातः' हे भय से रक्षण करने वाले सायो ! 'अहं विता - अहं विरता' मैं अब शब्दार्थ' - 'जुवइ - युवतिः' युवावस्थावाणी गाणि परिहित्ता - विचित्रालंकारवस्त्राणि परिधाय' वस्त्रो पÈरीने श्रमधुनी पासे आवीने 'समणं - 'भयंतारो - हे भयत्रातः' डे लयश्री रक्षा મનમાં જેવું વિચારે છે તેવુ કહેવાને બદલે જુદુ જ કઈક કહે છે. વળી તે મનમાં જેવું વિચારે છે અથવા વાણીથી જેવું કર્યું છે, તેના કરતાં જુદા જ પ્રશ્નારનું આચરણ કરે છે. આ પ્રકારનુ સ્ત્રિઓનું વન હૈય છે. તે કારણે શ્રિયાને માયાચારિણી કહી છે. તેથી મુનિએ સ્રિમેાને માયાચારિણી સમજીને તેમના પર બિલકુલ શ્રદ્ધા રાખવી જોઇએ નહી'. ૨૪। / For Private And Personal Use Only ) स्त्री 'विचित्तालंकारवत्थचित्र विचित्र असर भने बूगा - श्रमणं ब्रू गत्' साधुने डे करनार साधी ! 'अहं विरता Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ‘समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ४ उ. १ स्त्रीपरीषहनिरूपणम् २६३ अभयार्थः-(जुबइ) युवतिरभिनवयौवना (विचित्तालंकारवत्यगाणि परिहित्ता) विचित्रालंकारवस्त्राणि परिधाय श्रमणसमीपमागत्य (समणं बूया) श्रमणं पति यात् (भयंतारो) हे भयत्रातः (विरता) विरता संसारात् (रुख) रूक्षं संयममहं चरिष्ये अतः (णे) अ यम् (धम्भमाइकल) धर्ममाचक्षा-धर्मोपदेशं कुरु इति ॥२५॥ टीका--'जुबई' युवति:-अभिनव शौचना मनोरमा मिचित्तालंकारवत्थगाणि परिहिस' विवित्रालंकार जस्तकानि परिवार-विलक्षणाऽऽभुषणयस्त्राणि परिधाय । कपटपूर्वकम् -'सर' श्रमणसमीपमापत्य 'बूमा' ब्रूयात् 'अहं गृह संबन्धेभ्योविरता । मम पतिः परिवाश्च नानुकू लोऽपि तु प्रतिकूल माचरति । सर्वतो विरका काममेव पालयिष्यामि इति माय निश्चयो जातः । अतो 'भयंतारो' हे भयगृहमन्धन से विरक्त होकर रख-रूक्षं संयम का 'चरिस्स-आचरिष्ये' पालन करूंगी -अस्मभ्यम्मुशको आए 'धम्ममाहकख-धर्ममाचक्ष्व' धर्म का उपदेश करें ॥२५॥ ___ अन्वयार्थ-नवयौवना स्त्री विचित्र अलंकारों और वस्त्रों को धारण करके श्रमण के समीप आकर उससे कहे हे भय से रक्षा करने वाले, मैं संसार से विरत हो चुकी है। संघ का आचरण करूंगी। मुझे धर्म का उपदेश कीजिए ॥२५॥ टीकार्थ--कोई स्त्री नवयुवति हो और वह विलक्षण प्रकार के वस्त्रों एवं आभूषण से सजकर, श्रमणों के पास आवे और कपटपूर्वक कहे कि-मैं संमार से विरक्त हो चुकी हूं। मेरा पति अनुकूल नहीं वरन प्रतिकूल आचरण करता है । अतएव मैंने निश्चय कर लिया अह विरता' हुवे 23 नयी वि२४त 'रुक्ख-रूक्षम्' सयमनु 'चरिस्सं-आचरिष्ये' माय२६ ४रीश. 'णे-अस्मभ्यम्' भने भा५ 'धम्ममाइक्स -धर्ममाचक्ष्व' धर्मन। पहेश ४२. ॥२५॥ સ્વાર્થ –કદાચ કઈ નવયૌવના સ્ત્રી વિવિધ વસ્ત્ર અલંકાર ધારણ કરીને સાધની પાસે આવીને એવી વિનંતી કરે કે “હે સંસારમયથી રક્ષણ કરનારા મુનિ ! હું સંસારથી વિરક્ત થઈ ગઈ છું. હુ સંયમની આરાધના કરીશ. આપ મને ધર્મોપદેશ કરે તે પણ સાધુએ તેનાં વચનામાં શ્રદ્ધા મૂકવી જોઈએ નહીં. ટીકાઈ...કઈ નવવના સ્ત્રી વિવિધ આભૂષણે તથા સુંદર વસ્ત્રો વડે બનીઠનીને સાધુની સમીપે આવે અને કપટપૂર્વક આ પ્રકારનાં વચને બોલે કે “મને આ સંસાર પર વૈરાગ્ય આવી ગયું છે. મારા પતિ મારી સાથે પ્રતિકૂળ આચરણ For Private And Personal Use Only Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे प्रातः ? संसारभयात् रक्षक सुने ? मह्यं 'धम्म' धर्म-चारित्रधर्मम् 'आइक्ख' आचक्ष्य कथय, उपदेश देहि । भयानकोऽयं संसारः, अस्मान्मे त्राणं कुरु इत्यादि वचनं कथयति । एतस्कथनमावि एतासां व्यामोहायैव साधूनाम् न तु तत्त्वतः पतिपादनम् इति ॥२५॥ मूलम् -अदु संविधाश्चारणं हेलिसाहम्भिणी य समगाणं। जतुभे जहें। उनमोइ बासे विदै विसीयेना ॥२६॥ छाया--अथ श्राधिकामनादेन अहमणि साक्षिणी च श्रमणानाम् । जनुकुम्भो यथा उपज्योतिः संघासे विद्वान्विषी देन ॥२६॥ है कि सबसे विरत होकर काम का पालन करूं । हे संसार भय से रक्षण करने वाले मुने ! मुझे चरित्रधर्म का उपदेश कीजिये। यह संसार भयानक है । इसले मुझे बचाइए । इत्यादि वचन कहती है तो उसका यह कथन साधु को यह काने के लिये ही समशना चाहिए। उसमें वास्तविकता नहीं होती ॥२५॥ शब्दार्थ---'अदु-अथ' उपर्युक्त कथन के अनन्तर 'साविद्यापवाएणं-श्राविकापबाइन' श्राविका होने के बहाने से स्त्री साधु के निकट में आती है 'समणाण-श्रमणानां श्रमणों की 'अमंमि साहम्प्रिणीअहमस्मि साधर्मिणी' मैं मार्धामणी हूं ऐसा कह कर भी साधु के पास आती है 'जहा उवज्जेह-यथा उपज्योतिः' जैसे अग्नि के निकट 'जतुकुंभे-जतुकुंभः' लाख का घड़ा पिघल जाता है इसी प्रकार 'विद-विद्वान्' કરે છે. તેથી આ સંસારના મોહમાયાને ત્યાગ કરીને સંયમ ગ્રહણ કરવાને * નિશ્ચય કર્યો છે, હે સંસારભયથી રક્ષણ કરનારા મુનિ ! મને ચારિત્ર ધર્મને ઉપદેશ દે. આ સંસાર ભયાનક છે, તેમાંથી મને બચાવે, આ પ્રકારના વચને ભલે તે બોલતી હોય, પરંતુ તે વચનોને તેથી માયાજાળરૂપે સમજીને સાધુએ તેને વિશ્વાસ કરવો જોઈએ નહીં. આ પ્રકારનાં વચને તે માત્ર કહેવાનાં જ હોય છે–તેમાં વાસ્તવિકતા દેતી નથી, ૨પ शा---'अदु-अथवा' उपयुत - ५छ। 'सावियापवाणं-श्राविकाप्रवादेन' श्रावि पाना माथी स्त्री साधुन। सभी५मा मावे छे. 'समणाण-श्रामणानां' श्रमाने 'अहमंसि साहम्मिणी-अहमस्मि साधर्मिणी' हु साथमिली छ. मे ४ा ५६ साधुनी पासे वे छे. 'जहा उवज्जोइयथा उपज्योतिः' भनिनी पासे 'अतुकुंभे-जतुकुमः' मन ध पीजी For Private And Personal Use Only Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org -- समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ४ उ. १ स्त्रीपरीषहनिरूपणम् २६५. अन्वयार्थ :- (अ) अथ पश्चात् अथवा इति वा (सावियापवाणं श्राविका मादेन श्राविकाव्याजेन (समणाणं) भ्रमणानां युष्माकं ( अहमंसि साइम्मिणी) अहमस्मि साधर्मिणी- इति कथयित्वा साधुसमीपमागच्छति (जहा उवज्जोइ) यथा उपज्योतिः - अग्नेः समीपे ( जतुकुंभे) जलकुंभ इत्र (वि) विद्वान् (संवासे) संवासे - बीप (विसीरना) विषीदे। शीतलबिहारी भवेत् यथाऽग्निसमीपे लाक्षाटो विजयते तथा स्त्रीसंपर्क घुरपि भ्रष्टो भवतीति ॥ २६ ॥ , Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टीका--' ' अ समीपगमनानन्तरम् अथवा इति वा अ='सानियापवारण' भाविक देन श्रविकासि इवि कपटेन साधुसमीपमागत्य | 'समणा' मा 'असा घी अस्मि साधनां विद्वान पुरुष 'से-तंत्र से' स्त्री के सम्पर्क में 'बिसीरज्जा - विषीदेत' शीतल बिहारी हो जाते हैं अर्थात जैसा अग्नि के संसर्ग से घी पिघल जाता है वैसा ही स्त्री के संपर्क से साधु भी भ्रष्ट हो जाता है ||२६|| अन्वयार्थ -- अवश कोई स्त्री श्राविका होने का बहाना करके साधु के पास आती है। यह 'मैं आप की साधर्मिणी हूं, ऐसा कहती है । किन्तु जैसे अति के समीप स्थित लाख का घडा पिघल जाता है । उसी प्रकार स्त्री के सम्पर्क से साधु विषाद को प्राप्त होता है-शिथिलाचारी हो जाता है ॥२६॥ टीकार्य - अमवा कोई स्त्री 'मैं श्राविका हूँ' इस प्रकार का बहाना करके कपटपूर्वक साधु के सन्निकट आती है । वह साधु की साधर्मिणी लय छे, थेप्रमाये 'विदू - विद्वान्' विद्वान् पुष 'संवासे -संवासे' खियाना सपमा 'बिसीएज्जा - विपीदेत' शीतजविहारी धर्म लय हे अर्थात् भेम અગ્નિના સપશી લાખ આગળી જાય છે. એજ પ્રમાણે સ્ત્રી સ`પર્કથી સાધુ પણ ભ્રષ્ટ થઇ જાય છે. ૫ ૨૬૫ સૂત્રા—અથવા કોઈ સ્ત્રી શ્રાવિકા હેાવાનુ અડ્ડાનું કાઢીને સાધુની પાસે આવે છે. તે સાધુને કહે છે કે ‘હુ આપની સાધધણી છું.' આ તે તેની કપટજાળ જ ડાય છે. જેવી રીતે અગ્નિની પાસે પડેલે લાખના ઘડા આગળી જાય છે, એજ પ્રપાતોૢ સ્રીના સપર્કથી સાધુ શિથિલાચારી મની જાય છે અને આલેક અને પરલેકમાં દુઃખાના અનુભવ કરે છે. ારકા टीअर्थ - अथवा 'हुँ श्रावि छु" मेवु मड्डा પૂર્ણાંક સાધુની પાસે આવે છે. તે સાધુની સામિ`ી सु० ३४ For Private And Personal Use Only अढीने अध स्त्री उपट(સમાન ધમ વાળી) Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे साधर्मिणी अहमस्मीति कपटेन साधुसमीपमागत्य साधु धर्मात् प्रस्खलयति । अयं भावा-स्त्रीणां संबन्धो महतेऽनर्थाय भाति साधूनाम् । साधोर्ज्ञानं तपःसंयमादिकं सर्वमपि स्त्र संपर्कात्सहसैव विनश्यति। तदुक्तम् _ 'तज्ज्ञानं तच्च विज्ञानं तत्तपः स च संयमः । सर्वमेकपदे भ्रष्टं सर्वथा किमपि स्त्रियाः॥१॥' स्त्रीसान्निध्यात पुरुषाणां अनर्थे पतनं भक्तीत्या दृष्टान्तं दर्शयति । 'जतुकुंभे इत्यादि। 'जहा' यथा-उपयोतिः, अग्निसमीपे लाक्षाघटः घृतघटो वा विलीयते। एवं स्त्रीणां संवासे' संगसे 'विउ' विद्वान्-शास्त्रज्ञोऽपि विसीपज्जा' विषीदेत । संयमानुष्ठान प्रति शिथिलो भवेत् । तदुक्तम्(समान धर्म वाली) बनकर कपट से साधु को भ्रट करती है । तात्पर्य यह है कि स्त्री का सम्पर्क साधुओं के लिये घोर अनर्थ का कारण बनना है । स्त्री के सम्पर्क से साधु का ता संग्म अदि सब कुछ सहसा ही नष्ट हो जाता है । कहा भी है-'तज्ज्ञानं' इत्यादि 'साधु का वह ज्ञान, वह विज्ञान, वह ता और वह संयम जो उसने अत्यन्त श्रम से दीर्घकालीन साधनों के द्वारा प्राप्त किये हैं, स्त्री के संसर्ग से वे सभी एकदम ही नष्ट हो जाते हैं।' - स्त्री के सान्निध्य से पुरुषों का किस प्रकार अनर्थ में पतन होता है, यह बात दृष्टान्त द्वारा दिखलाते हैं-जैसे अग्नि के समीप स्थित लाख का घट पिघल कर नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार शास्त्रज्ञ मुनि भी स्त्री के सम्पर्क से शिथिलाचारी हो जाता है। कहा है-'तप्ताङ्गारसमा इत्यादि બનીને કપટથી સાધુને ભ્રષ્ટ કરે છે. આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે સિઓને સંપર્ક સાધુને માટે ઘેર અનર્થનું કારણ બને છે. સ્ત્રીના સંપર્કને લીધે સાધુના તપ, સંય પ આદિ એકાએક નષ્ટ જ થઈ જાય છે. કહ્યું પણ છે કે'तज्ज्ञान' त्यहि ज्ञान, विज्ञान, त५, संयम २६ पस्तुमा २ ते (સાધુએ) અત્યત શ્રમ અને દીર્ધકાલીન સાધના દ્વારા પ્રાપ્ત કરેલ હોય છે, તે બધું સ્ત્રીના સંસર્ગમાં આવતાં જ એકદમ નષ્ટ થઈ જાય છે.” સ્ત્રીના સમાગમમાં આવવાથી સાધુનું કેવી રીતે પતન થાય છે. સ્ત્રી સમાગમ સાધુને માટે અનર્થનું કારણ કેવી રીતે બને છે તે સૂત્રકાર દષ્ટાન દ્વારા સમજાવે છે–જેવી રીતે અગ્નિની સમીપમાં મૂકેલે લાખને ઘડે પીગળીને નષ્ટ થઈ જાય છે, એ જ પ્રમાણે શાસ્ત્રજ્ઞ મુનિ પણ સ્ત્રીના સંપર્કને सीधे. शिक्षिायारी ५ छ. ४थु ५४ छ -'तप्ताङ्गारयमा' त्यादि For Private And Personal Use Only Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ४ उ.१ स्त्रीपरीषहनिरूपणम् - २६७ 'तप्ताङ्गारसमा नारी घृतकुम्भसमः पुमान् । तस्माद् धृ च वह्नि च नैकत्र स्थापये दुधः॥१॥ इति ॥२६॥ स्त्रीसानिध्ये दोपान प्रदर्य तत्समधननितं दोषं दर्शयितुमाह 'जतुकुंभे इत्यादि। मूलम्-जंतुकुंभे जोइ उवगूढे आँसुऽभितत्ते णासमुंवयाइ। एवित्थियाहि अणगारा संवासेण णासमुवयंति ॥२७॥ छाया--जतुकुम्मा ज्योतिरुणगूढ आश्चभितप्तो नाशमुपयाति । एवं स्त्रीभिरनगाराः संवासेन नाशमुपयान्ति ॥२७॥ __ स्त्री प्रज्वलित अंगारेके समान हैं और पुरुष घृत के घडे के समान है । अतएव बुद्धिमान् पुरुष वृन और अग्नि को एक स्थान पर स्थापित न करे ॥२६॥ स्त्री की समीपता से होने वाले दोनों को दिखलाकर उसके संबन्ध से होने वाले दोष दिखाने के लिये कहते हैं-'जतुकुंभे' इत्यादि। शब्दार्थ--'जोइ उवढे जतुकुंभे-ज्योतिरुपगूढो जतुकुम:' जैसे अग्नि से स्पर्श किया हुआ लाग्न का घडा 'आसुभिनत्ते णासमुवयाइआश्चभितप्लो भाशमुपयाति' शीघ्र तप्त होकर नष्ट हो जाता है 'एवंएवं इसी प्रकार इस्थिपाहि-स्त्रीभिः' त्रियों के 'संवासेण-संवासेन' सहवास से 'गारा-अनगाराः' अनगार-साधु ‘णासमुवयंति-नाशमुपयान्ति' नष्ट हो जाते हैं अर्थात् चारित्र से पतित हो जाते हैं ।।२७।। “ી પ્રજવલિત અંગારા સમાન છે અને પુરુષ ઘીના ઘડા સમાન છે. તેથી બુદ્ધિમાન પુરુષે ઘી અને અગ્નિને એક જ જગ્યાએ એકઠાં થવા દેવા જોઈએ નહીં” ર૬ સ્ત્રીની સમીપતાને કારણે ઉદ્ભવતા દેને પ્રકટ કરીને હવે સૂત્રકાર तेना परिणामी ५४८ ४३ छ- जतुकुंभे' पाहि--- शय - 'जोइउवगूढे जतुकुंभे-ज्योतिरुपगूढो जतुकुं:” म नया २५शायaaruन ! 'आसुभित्तत्ते णासमुक याइ-आश्वभितप्तो नाशमुपयाति' तिथी तपीन नाश पामे छे'एवं-एवम्' या रीते 'इस्थियाहिं-स्त्रीभिः' लियाना 'संवासेण-संवसेन' सहवासथी 'अणगारा-अनगाराः' मना-सा५ 'णासमुवयंति-नाशमुआयान्ति' नाश ५. छ. अर्थात् यात्रियी पतित यह काय छ, ।। २७॥ For Private And Personal Use Only Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra २६८ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे अन्वयार्थ:- (जोइउवगूढे जतुकुंभे ) ज्योतिरूपगृहो जतुकुंनः (चासुभितत्तेणासमुपवाई) भाश्वमितप्तो नाशमुपनाति ( एवं) एवं (इत्थियादि) स्त्रीभिः (संवा से) संवासेन- सहवासेन ( अगगारा) अनगाराः साधवः (णासमुत्रयंति) नाशमुपयान्ति चारित्रभ्रष्टा भवन्तीति ||२७|| " टीका- 'जोइउबगूढे' ज्योतिरुपगूहः- ज्योतिषा- अग्न्यादिना उपगूढः संस्पृष्टः 'जतुकुंभे' जतुकुम्भ: लाक्षाघटः ' आसुमितत्ते' आवभितप्तः- आशुशीघ्रम् अभितप्तः, तेजसा तापितो घटः 'णावमुक्ाई' नाशमुपगच्छति द्रवी भूय विनष्टो भवति । ' एवं ' एवमेव 'अणगारा' अनगाराः - साधवः, नास्ति अगारः गृहं येषां ते नगाराः । 'इत्थियाहि' स्त्रीभिः सह 'संवासे' संवासेन 'जासं ' नाशं 'उपयंति' उपयान्ति । कठिन संघपालनं परित्यज्य शिथिलविहारिणो मन्ति । अथवा संयमादतिशयेन भ्रष्टा एव भवन्ति । जतुकुम्भानामग्निस्पर्शवत् साधूनां स्त्रीसंपर्को नाशायैव भवति । तस्मात् स्वदितार्थना स्त्रीसंपर्क: सर्वथैव त्याज्य इति भावः ||२७|| अन्वयार्थ -- अग्नि से स्पृष्ट हुआ लाख का घड़ा शीघ्र ही तप्त होकर विनाश को प्राप्त होता है । इसी प्रकार स्त्रियों के सहवास से साधुओं का विनाश हो जाता है - वे चरित्र हो जाते हैं ||२७|| टीकार्थ -- लाख के घट को अग्नि से अड़ाकर के रख दिया जाय तो वह एकदम तपकर विनष्ट हो जाता है, इसी प्रकार अनगार स्त्रियों के संवास से अर्थात् साथ रहने से नाश को प्राप्त होते हैं अर्थात् कठिन संयम का ध्यान करके शिथिलाचारी बन जाते हैं या संयम से सर्वथा ही भ्रष्ट हो जाते हैं। यह है-जैसे अग्नि का स्पर्श लाख के घड़े के विनाश का कारण होता है, उसी अचार स्त्री सम्पर्क સૂત્રા—અગ્નિને! ૫ણ પામતા લાખના ઘડે! તીને ઘેાડી જ વારમાં વિનષ્ટ થઇ જાય છે, એજ પ્રમાણે સિએના સહવાસથી સામેના પણ વિનાશ જ થઈ જાય છે-તેમ ચારિત્રભ્રષ્ટ થઈ જાય છે. રા ટીકા—લાખના ઘડાને અગ્નિના પશ થાય એવી રા રાખવામાં આવે, તે તે એકદમ તપી જઇને-પીગળી જઈને વિષ્ણુ થઈ જા છે. એજ પ્રમાણે જે અણુગાર એનેા સપર્ક રાખે છે, અથવા તેમના સદ્ગવાસ કરે છે, તે પણ વિનષ્ટ જ થઈ જાય છે. એટલે કે તે અણુગર કઠણુ એવા સયમને ત્યાગ કરીને શિથિલાચારી બની જાય છે, અથવા સયમના ભ્રષ્ટ થઈ જાય છે. તાત્પર્ય એ છે કે જેવી રીતે અગ્નિનેા ૫ માર્ગેથી સથા લાખના ઘડાનો For Private And Personal Use Only Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ४ उ. १ खोपरीषहनिरूपणम् मूलम् - कुवंति पावंगं कम्मं पुंडा वेगवमाहिं | 'नो हं' कैरोमि पावंति' अंकेसाइणी छाया-कुर्वन्ति पावकं कर्म पृष्टा एके एवमाहुः | नाहं करोमि पापमिति अंकेशायिनी ममैषेति ॥ २८॥ अन्वयार्थ :- (एगे) एके - साधवः (पावर्ग) पावकं सावधं (कम्मं) कर्म (कुति) कुनैति (पुट्ठा) पृष्टाः परेण (एवमाहिंस) एवमाहुः (अहं) अहं (पावं न करेमित्ति) अहं पापं न करोमीति (एसा ) एषा स्त्री (मम) मम ( अंकेसाइणीति) अंकेशायिनी इति बाल्यावस्थायां ममांशायिनी ॥ २८ ॥ मेसेन्ति ॥ २८ ॥ २६९ साधुओं के विनाश का कारण होता है । अतएव आत्महित के अभि ला को स्त्री का सम्पर्क सर्वथा त्याग देना चाहिए ||२७|| शब्दार्थ - - ' एगे - एके' कोई साधु 'पावगं - पापकं पापजनक 'कम्मं - कर्म' कर्म 'कुच्चति - कुर्वन्ति' करते हैं 'पुट्ठा- पृष्टा' अन्य द्वारा पूछने पर 'एवमादि- एनाः' ऐसा कहते हैं 'अहं अहम्' मैं 'पावं न करेमिति - पापं न करोमीति' पापकर्म नहीं करता हूँ 'एसा - एषा' यह स्त्री 'मम मम' मेरे 'अंकेसाइणीति - अंकेशापिनी' बाल्यकाल से ही मेरे उत्संग में सोती है अर्थात् मेरी कन्यका जैसी है ||२८|| For Private And Personal Use Only अन्वयार्थ -- कोई कोई साधु पापकर्म करते हैं किन्तु दूसरे के पूछने पर कहते हैं 'मैं पापकर्म नहीं करता हूँ ।' यह स्त्री तो बाल्यावस्था से ही मेरी अंकेशाविनी गोद में सोने वाली थी ||२८|| વિનાશનું કારણ બને, એજ પ્રમાણે સપર્ક સ ધુના વિનાશનું કારણ બને છે. તેથી આ મહિત ચહુતા સાધુએ સ્ત્રીના સંપર્ક ને સર્વથા ત્યાગ કરવે જોઇએ. રા शब्दार्थ' - 'पगे - एके' पशु साधु 'पवर्ग-पापा 'कम्मं - कर्म' 3 'कुव्वंति - कुर्वन्ति' ४२ छे. 'पुट्ठा- पृष्टा:' गीजये। द्वारा पूछवामां यावे त्यारे 'एवमाहिंसु एवमाहु' श्रेडे छे. 'हं- आम्' हु' 'पाव' न करेमिति - पापं न करोमीति' पाय उर्भ उरतो नथी. 'एखा- एषा' या खी 'मममम' भारा 'अंकेमाइणीति - अकेशारिनीति' दयावस्थाथी ४ સુવે છે. અર્થાત્ મારી દીકરી જેવી છે. ૨૮૫ મારા ખાળામાં સૂત્રા—કોઇ કોઇ સ ધુ પાપકર્મીનું સેવન કરે છે અને જ્યારે કાઇ તેના ચારિત્ર વિષે સ ંદેહ કરે ત્યારે તે એવા જલાબ આપે છે કે ‘હુ· પાપકમ નુ સેવન કરતા નથી. આ સ્ત્રી તે। માલ્યાવસ્થામાં મારી અ'કેશાયિની (ખેાળામાં शयन पुरनारी) हुती. ॥२८ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २७० सूत्रकृताङ्गसूत्रे टीका--'एगे' एके-साधाः संसाराऽभिषक्ता ऐहिक.पारलौकिककर्मभयात् श्यक्तमानसाः 'पावर्ग' पापम् 'कम्म' कम 'कुवंति' कुर्वन्ति । पुटा' पृष्टाःगुरुभिः पृष्टाः सन्त एवमाहुः 'अहं पावगं' अहं पापं कर्म न करोमि, नाऽहमेवं कुलसमुत्पन्नो यदेवविधं कर्म करिष्ये । 'एसा' एषा 'अंकेसाइणी' अंकेशायिनी कन्यासदृशी पूर्वमासीत् । तदेषा मयि एवं करोति, किन्तु अहं विदिनसंसारासारस्वभावः प्राणाऽतिपातेऽपि एतादृशं कुत्सितकृत्यं नै करिष्यामि एवं मिथ्या वचनं भरूपयति, इति ।।२८॥ मूलप्-बालस्स मंदैयं बीयं जंच कडं अवजाणइ भुजो। दुर्गुणं करेई से पावं पूर्वणकामो विसन्नेसी॥२९॥ छाया-बालस्य माद्यं द्वितीयं यत् च कृतमपनातीते भूयः । द्विगुणं करोति स पापं पूजनकामो विषण्णपी ॥२९॥ टीकार्थ--कोई साधु, जो संसार में आसक्त हैं और इहलोक तथा परलोक संबंधी कर्म भय से रहित हैं, पापकर्म करते हैं, किन्तु जप उनके गुरु आदि उनसे पूछते हैं तो ऐसा कहते हैं कि मैं पापकर्म नहीं करता। मैं ऊंचे कुल में जन्मा हूँ ऐसा पाप कैसे कर सकता हूँ। यह स्त्री अंकेशायिनी है अर्थात् कन्या के समान है। इसी कारण यह मेरे साथ ऐसा व्यवहार करती है। मैंने संसार के अहार स्वरूप को समझा है । मैं प्राण जाने पर भी ऐसा कुकृत्य नहीं करूंगा। इस प्रकार मिथ्या वचनों का प्रयोग करते हैं ॥२८॥ ટીકર્થ–કોઈ સાધુ કે જે સંસારમાં આસક્ત હેાય છે અને આ લેક અને પાક સંબંધી કર્મભાવથી જે રહિત છે, તેના દ્વારા પાપકર્મનું સેવન કરવામાં આવે છે, પરંતુ જ્યારે તેના ગુરુ આદિ તે વિષે તેને પૂછે છે ત્યારે તે એવો જવાબ આપે છે કે – હું પાપકર્મ આચરતે નથી, હું ઊંચા કુળમાં જ છું. મારાથી એવું પાપકર્મ કેવી રીતે કરી શકાય? તમે જે સ્ત્રી સાથેના મારા સંબંધના વિષયમાં સંદેહ સે છે, તે સ્ત્રી તે અંકેશાયિની છે. એટલે કે બાલ્યાવસ્થામાં તે મારા ખોળામાં ખેલી હતી અને શયન કરતી હતી. તે તે મારી પુત્રી સમાન છે. તે કારણે તે મારી સાથે એ વ્યવહાર રાખે છે. મેં સંસારની અસારતાને જાણે લીધી છે. મારાં પ્રાણેને નાશ થાય તે પણ હું એવું દુષ્કૃત્ય ને કરુ આ પ્રકારનાં અસત્ય વચને તે પ્રગ २ छ. १२८॥ For Private And Personal Use Only Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ४ उ. १ स्त्रीपरीषहनिरूपणम् २७१ अन्वयार्थ :- (बालस्स) बालस्य अज्ञानिनः (बीयं) द्वितीयं मंदय) मान्धंमुर्खत्वं (जं च कडं भुजो अवजाण) यच्च कृतं दुष्कर्म तस्य भूयः पुनः अपजानीते-अपलापं करोति, एकं तु पापं मैथुनं द्वितीयं मृषावादित्वम् अाः (से) सः (दुगुणं पार करेइ) द्विगुणं पापं करोति (पूयणकामो) लोके पूजाकामः (विसन्नेसी) विषण्णैपी-असंयमेच्छावानिति ।.२९॥ शब्दार्थ--- बालस्स-मालय' अज्ञानी पुरुष की बीय-द्वितीयं दूसरी 'मंद-मान्य मूर्खता यह है की 'जं च कार्ड भुजो अवजाणइपच्च कृतं भूयः अपजानीते' यह किये हुए पापम को नहीं किया हुआ कहता है 'से-' वह पुरुष 'दुगुणं पावं करेह-द्विगुणं पापं करोति' प्रथम पाप करना और उसके छिपाने के लिये झुठ बोलना इस प्रकार दुगना पाप करता है पूधणकामो-पूजाकामः' वह जगत में अपनी पूजा चाहता है और 'विसन्नेसी-विषण्गैषी' असंयम की इच्छा करता है।२९। ___ अन्वयार्थ ऐसा कहना अज्ञानी जीव की दूसरी मूर्खता है कि वह किये हुए पापकर्म का अपलाप करता है । उसने एक पाप मैथुन सेवन का किया दूसरा मृषावाद का । इस प्रकार उसने दुगुना पाप किया। वह लोक में पूजा का कामी और असंयम की इच्छा वाला होता है ।।२९॥ शा-बालास-घालस्य' २५शानी पु३५नी बीय-द्वितीयम् ' भी 'मयंमान्धम' भूताछ है 'जं च कडं भुज्जो अवजाणइ-यच्च कृतं भूयः अपजानी।' ते ७२॥ ५५४मन नथी यु तम ४३ छ तेथी 'से-सः' ते १३५ दगणंपावं करेइ-द्विगुणं पापं करोति' मे तो पा५ ४२ अन तन छावा ४ मास शत ममा ५५ ४२ छे 'पूयणकामो-पूजाकामः' गतमा पोतानी पूल या छ भने 'विखन्नेसी-विषण्णैषी' असयभनी २छ। ४२ छ. ॥२८॥ सूत्रा---पापकृत्यनु सेवन ४रीने २प्रमाणे असत्यनो पाश्रय सेवा તે અજ્ઞાની જીવની બીજી મૂર્ખતા છે. મિથુનસેવન રૂપ એક પાપ તે તેણે કર્યું જ છે, હવે તે પાપને ઈન્કાર કરીને તે મૃષાવાદ રૂપ બીજા પાપનું પણ સેવન કરે છે. આ પ્રકારે તે બમણું પાપ કરે છે આ પ્રકારે સંયમની વિરાધના કરવા છતાં પણ લેકમાં પિતાની પૂજા-સત્કાર–થાય એવી અભિલાષા તે રાખતા હોય છે. ૨૯ For Private And Personal Use Only Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २७२ सूत्रकृतानपत्रे %3 H ome टीकार्थ -- 'बालम्स' बालस्य मन्दमतेः रागद्वेकलुषितान्त:करणस्य । 'बी' द्वितीयमिदम् मंद मान्यम् - अज्ञत्वम्। किं द् द्वितोयम्-‘ज व बर्ड' यच्च पापकर्म कृतम् , शरीरवाङ्मनोमिः संपादितम् । तादृशं फैथुनरूपं कर्म तत् प्रथमम् , 'भुजो' भूयः गुर्वादिभिः पृष्टः सन पुरपि 'नाग' अपमानीते अपलापं करोतिपच्छादयति नाहमेवं कृतवानिति द्वितीयम् एन । से' ग पुरुषः 'दुगुणं पावं करे' द्विगुणं पापं करोति । किमर्थमेवं कोनि तत्र दृ- पूणामो' पूजनकामः, लोकेऽस्माकं पूजा भवतु इत्यभिल पां वितिं करोति च संयमचिराधनम् । एकस्तु तावत् मायमि को दोरः यत् पापा तेन स् । द्वितीयस्तु दोषः तादृशं कुरिसतं कर्म कृत्यादि परेण पृष्ठोऽहाति प्रमशः पुरुषः गंगारे स्त्रकीयपूनादिकमिच्छन् (विसनेमी) विकोपी विध: असंयम, सत्यपी अभिलाषीअस्ति असंयम मिच्छत्तीत्यर्थः। प र्याऽनुष्ान प्रवादिता च, इति उभय. मपि दोपायैवेति भावः ॥२९॥ टीकार्थ--रावेष से कलुषित अन्तःकरण वाले मतिमन्द उस साधु की यह दूसरी मूहता है। वह दूसरी नूढता कौन सी है ? एक तो उसने मन वचन काय से पापकर्म किया, दूसरे गुरु आदि के पूछने पर वह नटता है। उ छिराने के लिए कहना है कि मैंने ऐसा नहीं किया है । ऐसा मनुष्य दुगुना पाप करता है । वह चाहता है कि लोक में मेरी पूजा प्रतिष्ठा हो किन्तु करता है संयमविराधना। ___ तात्पर्य यह है कि पाला दोष तो उसने यह किया कि पापकर्म किया, दूसरा दोष यह है कि परे के पूछने पर दोष का सेवन करके भी अपलाप किया। ऐसा पुरुष चाहना तो यह है कि लोक में मेरी ટીકા–રાગદ્વેષથી કલુષિત અંત:કણવાળી, મદમતિ તે સાધુની આ બીજી મૂઢતા છે, આ બીજી મૂઢતા કઈ , તે સૂરકર સમજાવે છે–પહેલી મઢતા તે એ છે કે તેણે પાપકર્મ કર્યું. ગુરુ આદિએ તેને પૂછ્યું ત્યારે તેણે કહ્યું કે હું પાપકર્મ કરતે નથી' આ પ્રકારે અત્ય વચનને જે અધાર લીધે, તે તેની બીજી મૂઢતા ગણી શકાય તે બમણું પાપ કરે છે મિથુનસેવન જન્ય ૫૫ અને મૃષાવાદ જન્ય પાપ તે એવું ઈરછે છે કે તે કપાં મારી પૂજાપ્રતિષ્ઠા થાય, પરંતુ તેને આ પ્રકારના વર્તન દ્વારા તે સંયમના વિરોધના કરતે હોય છે. આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે, પાપકર્મનું સેવન કર્યું. આ તેને પહેલે દેષ “પતે પાપકર્મ કરતો નથી.” આ પ્રકારના અસત્ય કથનને કારણે ત મૃષાવાદના દેશને પણ પાત્ર છે પાપકર્મનું આચરણ અને અસત્ય ભાષણ, આ બન્ને દેશે કરવાને કારણે તે બમણું પાપને પાત્ર થશે. એ સાધુ એવું For Private And Personal Use Only Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र.श्र. अ. ४ उ.१ स्त्रीवरीषहनिरूपणम्- - २७३ किं च-'संलोक' इत्यादि। मूलम्-संलोकणिजमणगारं आयगयं निमंतणे गोहंसु । वत्थं च ताइ पायं वा अन्नं पाणगं पडिग्गाहे ॥३०॥ छाया--- संलोकनीयमनगारमात्मगतं निमंत्रणेनाहुः । वस्त्रं च त्राधिन! पात्रं वा अन्नं पान पतिगृहाण । ३०॥ अन्वयार्थः-(संगो कमिज) स लोकनीय दर्शनीय सुन्दरम् (आयगयं) आत्मगतमात्मज्ञानिनम् (अगगार) आगारं माधुं खियः (निमंत गेण) निमंत्रणेन (आईसु) प्रतिष्ठा हो, मुझे लोग संमो समझे, किन्तु आचरण करता है संयम के प्रतिकूल ! पापकर्म का अनुष्ठान करना और मिथवा भाषण करना, यह दोनों ही दोषजनक हैं । २९।। और भी कहते हैं-'संलोकणिज' इत्यादि । शब्दार्थ-संलोकणिज्जे-संलोकनीयम्' देखने में सुन्दर 'आय. गयं-आत्मगतम्' आत्मज्ञानी अणगारं-अनगारम्' साधु को 'निमंतणेण-निमंत्रणेन' निमंत्रण देकर 'आइंसु-आहुः'स्त्री कहती हैं कि 'ताइहे प्रायिन् ! भवसागर से रक्षा करने वाले हे साओ! 'वस्थं च-वस्त्रं च' वस्त्र 'पायं वा-पात्रं वा' अथवा पात्र 'अन्न-अन्नम्' अशनादि पानगंपानकम्' और पानी-अचित्त जल 'पडिरमा हे-प्रतिगृहाण' मेरी पास से इन चीजों का आप स्वीकार करें ॥३०॥ __ अन्वयार्थ --कोई कोई स्त्रियां सुन्दर आत्मज्ञानी साधु को आमंत्रण ચાહતે હોય છે કે તેમાં મારી પ્રતિષ્ઠા વધે-લકે મારે સરકાર-કરે-લે કે મને સંયમ માનીને મારી પૂજાપતિષ્ઠા કરે, પરંતુ તેનું આચરણ તો સંયમથી પ્રતિકૂળ જ હોય છે. ૨૯ો 4जी सूत्र४.२ ४३ छ -'संलोकणिज्ज' या शहाथ-'सं ठोकणिज्ज-संलोकनीयम्' नेपामा सुंदर 'आयगयं-आत्मगतम्' मात्मज्ञानी 'अणगारं-अनगारम्' से धुने 'निमतणेण-निमंत्रणेन' निमत्र मापार आहंसु-बाहुः' श्री ४ छ -'ताइ-हे त्रायिन् ' मसाथी २क्षा ४२वावा साधे!! 'वत्थं च-वस्त्रं च १७ ‘पाय वा-पात्रं वा' अथवा पात्र 'अन्नं-'अन्नम्' मासा२ पगेरे 'पानगं-पानकम्' भने पान अर्थात् अथित्त न 'पढिगाहे-प्रतिगृहाण' भारी पासे थी या वस्तुमान। मा५ स्था॥२ ४३॥ ॥३०॥ સૂત્રાર્થ-કઈ કઈ સ્ત્રિઓ સુંદર, આત્મજ્ઞાની સાધુને એવી વિનંતી सु० ३५ For Private And Personal Use Only Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे भाहुः कथयन्ति (ताइ) हे त्रायिन ! संसारकांताररक्षक ! (वत्थं च) वस्त्रं च (पायं वा) पात्रं वा 'अन्नं' अन्नम् अशनादिकं (पाणगं) पानकम्-अचित्तं जलम् (पडिग्गाहे) प्रतिगृहाग-अस्मद्धस्तादोयमानमेतत्सर्व स्वीकुरु इति ॥३०॥ टीका-'संलोकणिज्न' संलोकनीयं दर्शनेऽति सुन्दरं संयताचारपरिपालक साधुम् 'आयगय आत्मगतं आत्मज्ञानिनम् 'अणगारं' आगारं अगारपरिवर्जितं साधुम् स्त्रियः निमंतणेणानु' निमन्त्रणेनाहुः- निय कथयन्ति-'ताई' प्रायिन्- हे संसारसागरात् रक्षक ! महापुरुष ! 'वत्य' सम् पायं पात्रम् 'अन्नं पाणगं' अनं पानीयम् , अस्मद्भयः प्रदीयमानं 'पडिग्गद्दे' प्रतिगृहाण-स्वीकुरु । इत्येतत्सर्वम् वयं तुभ्यं दास्यामः, अस्मद्गृहमागत्य स्वीकुरु इति ॥३०॥ ततः संयतेन किं वर्तव्यं तत्राह-णीवारे' त्यादि । मूलम्-गीवारमेवं बुज्झेजा णो इच्छे अगारमागंतुं। बंद्धेविसयपासेहि मोह मावेजइ पुंणो मंदे ।।३॥त्तिबेमि॥ करके कहती हैं-हे संसार कान्तार से रक्षा करने वाले ! वस्त्र लीजिए, पात्र लीजिए, अन्न ग्रहण कीजिए, पान ग्रहण कीजिए मेरे हाथ से दिये जाने वाले इन पदार्थों को स्वीकार कीजिए ॥३०॥ . टोकार्थ-जो देखने में अत्यन्त सुन्दर है, संयमी के आचार का पालक है, और आत्मज्ञानी है, ऐसे गृहत्यागी साधु को निमंत्रित करके स्त्रिशं कहती हैं-हे संसारसागर से रक्षा करने वाले महापुरुष ! मेरे हाथ से वस्त्र, पात्र, अन्न, पानी ग्रहण कीजिए । यह सघ पदार्थ मैं आप को प्रदान करूंगी, मेरे घर पधारकर आप स्वीकार करें ॥३०॥ કરે છે કે “હે સંસારકાનતારમાંથી રક્ષા કરનારા મુનિ ! આપ મારી પાસેથી વસ્ત્રના દાનને સ્વીકાર કરો. મારા હાથથી અપાતા અને દાનને તથા પેય સામગ્રીને સ્વીકાર કરે, હે મુનિ ! મારા હાથથી પ્રદત્ત થતી આ બધી વસ્તુઓને આપ સ્વીકાર કરો” ૩૦ ટીકાર્થ—-જેઓ અત્યંત સુંદર હોય છે, સાધુના આચારનું પાલન કરનારા હોય છે અને આત્મજ્ઞાની હોય છે, એવા અણગારોને સ્ત્રિઓ પિતાને ઘેર પધારવાનું નિમંત્રણ આપીને એવું કહે છે કે “હે સંસારસાગરને પાર કરાવનારા મહાપુરુષ! આપ મારે ઘેર પધારીને મારા હાથથી વસ્ત્ર, પાત્ર, આહાર, પાણી આદિને સ્વીકાર કરે. તે સઘળા પદાર્થો હું આપને પ્રદાન કરીશ. તે આપ મારે ઘેર પધારીને તેને સ્વીકાર કરો. ૩૦ For Private And Personal Use Only Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. शु. अ. ४ उ. १ स्त्रीपरीषदनिरूपम् छाया - नीवारमेवं बुद्धयेत नेच्छेदगारमागन्तुम् । ast २७५ पाशेन मोहमापद्यते पुनर्मन्दः || ३१ ॥ इति ब्रवीमि । अन्वयार्थ :- ( एवं ) एवमुक्तपकारकं प्रलोभनं साधुः (नीवारं बुज्झेज्जा) नीवारं बुध्येत - वन्यपशुवचने तंडुलकणमित्र जानीयाद ( अगारं) आगारं गृहम् (आ) आगन्तुम् (जो इच्छे) नो इच्छेन् (बिसयपासेर्विद्धः (मंदे) तब साधु को क्या करना चाहिए? सो कहते हैं 'णीवार०' इत्यादि । शब्दार्थ - ' एवं - एवम्' उक्त प्रकार के प्रलोभन को साधु 'नीवारं बुज्झेज्जा- नीवारं वुध्येत जंगल के पशु को वश करने में चावल के दाने के जैसा समझे 'अगारं- आगारम्' घर 'मोतु-आगन्तुम्' आने की 'णो इच्छे-नो इच्छेत्' इच्छा न करें 'विसपपासेहि-विषयपाशैः' विषयरूपी पाश से बँधा हुआ 'मंदे-मन्दः' अज्ञानी पुरुष 'मोहमावज्जह मोहमापद्यते' मोह को प्राप्त होता है 'सिवेमि इति ब्रवीमि ऐसा मैं कहता हूँ ||३१|| अन्वयार्थ - - इस प्रकार के प्रलोभन को साधु नीवार समझे वन्य पशु को बांधने के लिये बिखेरे हुए तन्दुलों के समान समझे । वह उनके घर जाने की इच्छा भी न करे । विषय के बन्धन में बद्ध अज्ञानी આ પ્રકારનાં પ્રલેાલને બતાવવામાં આવે, ત્યારે સાધુએ શું કરવુ हाये ते सूत्रार मताचे छे - 'णीवार०' हत्याहि शब्दार्थ--एवं- एवम्' उत शेतना प्रद्योलनाने साधु 'नीबारं बुज्झेज्जानीवारम् बुध्येत जी प्रशियाने व श्वामां योषाना हाथानी भाई समने 'अगारं - अगादम्' घेर 'आगंतु-आगन्तुम्' आवत्रानी 'णो इच्छे-नो इच्छेत्' ४२छान उरे विसयासेहि-विषयाई' विषयपी पाशदी अंधायेो मंदे - मन्दः' अज्ञानी पु३ष 'मोहमा वाइ-मोहमापयते' भोड यामे छे, 'त्तिबेमिइति त्रीमि' म हु डु छु ॥३१॥ For Private And Personal Use Only सूत्रार्थ - મા પ્રકારનાં પ્રકામનાને સાધુએ નીવાર ( પશુએ ને જાળમાં સાવવા માટે વેરેલા હન્કુલ) સમાન સમજવાં જોઇએ. તેણે તે સ્ત્રીના ઘેર જવાની ઇચ્છા પણ ન કરવી જોઇએ. તેણે એ વાતને ખરાબર સમજી લેવી જોઇએ કે વિષયના બન્ધનમાં બંધાયેલા પુરુષ ફરી તેમાં જકડાઈ જાય છે કે તેને તે Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २७६ सूत्रकृताङ्गसूत्रे मन्दोऽज्ञानी (पुणों) पुनः (मोहमावज्जइ) मोहमापद्यते चित्तव्याकुलत्वपागच्छतीति । (तिबेमि) इति ब्रवीमि ।।३१॥ टीका-'ए'एवं स्त्रीनिमंत्रितवस्त्रपानादिकम् ‘णीवा नीवारं वन्यशूकराय मदीयमानं तण्डुल फणमिव 'बुज्झेज्जा' बुद्धयेत जानीयात्, एवं ज्ञात्वा 'अगारं' गृहम् 'आगंतुं' आगन्तुं 'णो इच्छे' नो इच्छेन् यतः 'विसपपासे हिं' विषयपाशैः विषयाः शब्दादयः तैः पाशसदृशैः 'बद्धे' बद्धः-पाशितः 'मदे' मन्दोऽज्ञानी परवशीकृतः स्नेहपाशत्रोटने पुरुष पुनः मोह को प्राप्त होता है अर्थात् व्याकुलचित्त होता है। 'त्ति बेमि'-ऐसा मैं कहता हूँ ॥३१॥ टीकार्थ-इस प्रकार स्त्री के द्वारा दिये जाने वाले वन्त्र पान आदि को नीवार अर्थात् शूकर आदि पशुओं को फैलाने के लिये डाले जाने वाले तन्दुल आदि के दाने के समान समझे । साधु इस प्रलोभन में पडकर उसके घर जाने की अभिलाषा तक न करे । पाश के समान विषयों के प्रलोभन में पडा हुमा अज्ञानी राग के बन्धन को तोडने में अस. मर्थ हो जाता है। उसके वित्त में व्याकुलता उत्पन्न हो जाती है। अतएव अपना हित चाहने वाले साधु को स्त्री के द्वारा निमंत्रित वस्त्र पात्र आदि का त्याग ही करना चाहिये । વાને તે અસમર્થ બની જાય છે. એટલે કે તેનું ચિત્ત વ્યાકુળ થઈ જાય છે, 'त्ति बेमि' मे ४ . ટીકાઈ–આ પ્રકારે જ, પાત્ર આદિ પ્રદાન કરવા રૂપ પ્રલેભનેથી સાધુએ લલચાવું જોઈએ નહીં. પરંતુ તેમને નીવાર સમાન સમજવાં પશુઓને જાળમાં ફસાવવા માટે તન્દુલ આદિના જે દાણા નાખવામાં આવે છે તેને નીવાર કહે છે. આ પ્રલેભનોથી લલચાઈને સાધુએ તે સ્ત્રીના ઘેર જવાને વિચાર પણ કરવું જોઈએ નહીં. જે આ પ્રલોભમાં લલચાઈને તે તેને ઘેર જાય છે, તે તેની મેહજાળમાં એ તે ફસાઈ જાય છે કે તેમાંથી છુટકારો મેળવવાને અસમર્થ બની જાય છે. પાશના જેવાં વિષનાં પ્રલોભનોમાં સપડાયેલે અજ્ઞાની સાધુ રાગના બનને તેડવાને અસમર્થ થઈ જાય છે. તેના ચિત્તમાં વ્યાકુળતા ઉપન થઈ જાય છે. તેથી જ સૂત્રકાર એ ઉપદેશ આપે છે કે આત્મહિતની અભિલાષા રાખનાર સાધુએ સ્ત્રિઓ દ્વારા આ પ્રકારના જે પ્રભને થાય, તે પ્રલોભનેથી લલચાઈને તે સ્ત્રીના તે આમંત્રણને સવીકાર કરવો જોઈએ. નહીં. For Private And Personal Use Only Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ४ उ. १ स्त्रीपरीषहनिरूपणम् २७७ असमर्थः 'पुणो मोहमावज्ज' पुनर्मोहमापद्यते-वित्तं व्याकुळत्वमागच्छति । तस्मात् साधुना हितमिच्छता सर्वथैव स्त्रीनिमंत्रितवस्त्रपात्रादिकं त्याज्यम् । 'त्ति' इति-इतिशब्दः समाप्त्यर्थकः । 'बेमि' ब्रवीमि-एवमहं ब्रीमि तीर्थकरोदितं वचनम् । न तु स्वमनीषया प्रकल्प्य कथयामि । अतो मदुक्तवचने विश्वस्य संयमानुष्ठाने मनोयोगो देयः इति सुधर्मस्वामिवचनम् ॥३१॥ इति श्री--विश्वविख्यात जगद्वल्लभादिपदभूषितवालब्रह्मचारि--'जैनाचार्य' पूज्यश्री-घासीलालवतिविरचितायां श्री सूत्रकृताङ्गस्य "समयार्थबोधिन्या ख्यायां" व्याख्थायां चतुर्थाध्ययनस्य प्रथमोदेशकः समाप्तः ॥४-१॥ 'त्ति' शब्द समाप्ति का सूचक हैं। 'वेमि' का अर्थ यह है कि मैं तीर्थंकर द्वारा प्रतिपादित वचन ही कहता हूँ। अपनी बुद्धि से कल्पित करके नहीं कह रहा हूँ। अतएव मेरे कथन पर विश्वास कर के संघमा. नुष्ठान में मनोयोग लगाना चाहिए यह जम्बूस्वामी के प्रति सुधर्मा स्वामी का कथन है । ३१॥ जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजी महाराजकृत 'सूत्रकृताङ्गमूत्र' की समयार्थबोधिनी व्याख्या के चौथा अध्ययन का पहला उद्देशक समाप्त ४-१॥ 'ति' । ५६ 6देशनी समातिन सू५४ छ. 'बेमि' मा भानु २ કથન મેં કર્યું. છે, તે મારી કલ્પનાશક્તિથી ઉપજાવી કાઢેલી વાત નથી, પણ ખર તીર્થકરોએ આ પ્રકારની પ્રરૂપણ કરેલી છે. તીર્થકર મહાવીર સ્વામી એ મારી સમક્ષ જે પ્રરૂપણા કરી હતી, તેનું આ અનુન જ છે. તે મારા આ કથન પર સંપૂર્ણ શ્રદ્ધા રાખીને સંયમની આરાધનામાં જ મનને સ્થિર રાખવું જોઈએ. આ કથન જબૂસ્વામીને સુધર્મા સ્વામીએ કહેલ છે. ૩૧ જૈનાચાર્ય જૈનધર્મદિવાકર પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ કૃત “સૂત્રકૃતાંગસૂત્રની સમયાધિની વ્યાખ્યાના ચેથા અધ્યયનને પહેલે ઉદ્દેશક સમાસ ૪–૧ For Private And Personal Use Only Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे अथ द्वितीयोद्देशकः मारभ्यतेचतुर्थाध्ययनीयप्रथमोद्देशको व्याख्यातः । तदनुद्वितीयोदेशको व्याख्यायते । पथमे च स्त्रीपरिचयात् चारित्रस्य ध्वंसो भवति, इति प्रतिपादितम् सवलितचारित्रस्य साधोर्याऽवस्था, अस्मिन्नेव भवे मादुर्भवति, तस्यामपि कीदृशस्तस्कृतकर्मबन्धो भवतीति, तयोः स्वरूपनिरूपणं द्वितीये कथयिष्यते । अनेन संबन्धेनाऽऽगतस्य द्वितीयोद्देशकस्येदमादिमं मूत्रम्-'ओए' इत्यादि । मूलम्-ओए सया ण रंजे जा भोगकामी पुणो विरजेजा। भोगे समणाणं सुंणेह जैह 'भुति भिक्खुणो एंगे ॥१॥ छाया-भोजः सदा न रज्येत भोगकामी पुनर्विरज्येत । भोगान् श्रमणानां शृणुत यथा भुञ्जन भिक्षच एके ॥१॥ ॥चौथे अध्ययन का दूसरा उद्देशक ॥ चतुर्थ अध्ययन के प्रथम उद्देश की समाप्ति के अनन्तर दुसरा उद्देश प्रारंभ किया जा रहा है । प्रथम उद्देश में कहा गया है कि स्त्रियों के साथ परिचय करने से चारित्र का ध्वंस होता है। दूसरे उद्देश में यह कहा जायगा कि चारित्र से च्युत हुए माधु की क्या गति होती है ? इसी भव में उसकी क्या अवस्था होती है। उसे चारित्र से भ्रष्ट होने के कारण कर्मबन्ध भी होता है। इस सम्बन्ध से प्राप्त दूसरे उद्देशे का यह प्रथम सूत्र है-'मोए सया ॥' इत्यादि । ચોથા અધ્યયનને બી એ ઉદ્દેશક ચોથા અધ્યયનનો પહેલે ઉદ્દેશક પૂરો થશે. હવે બીજા ઉદ્દેશકની શરૂઆત થાય છે. પહેલા ઉદ્દેશકમાં એવું પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું છે કે સ્ત્રિઓને સંપર્ક કરવાથી ચારિત્રનું પતન થાય છે. હવે આ બીજા ઉદેશકમાં એ વાત પ્રકટ કરવામાં આવશે કે સ્ત્રીમાં આસક્ત થઈને ચરિત્ર ભ્રષ્ટ થનાર સાધની કેવી હાલત થાય છે આ ભવમાં તેણે કેવાં કેવાં દુઃખે ભેગવવા પડે છે તે વાત આ ઉદ્દેશકમાં સૂત્રકારે સ્પષ્ટ રૂપે પ્રકટ કરી છે. ચારિત્રથી ભ્રષ્ટ થવાને કારણે તે કર્મબન્ધ પણ કરે છે પહેલા ઉદ્દેશક સાથે આ પ્રકારને સંબંધ ધરાવતા બીજા ઉદ્દેશકનું પહેલું સૂત્ર આ પ્રમાણે છે-- 'ओए सया ण' त्या:-- For Private And Personal Use Only Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र.श्रु. अ. ४ उ.२ स्खलितचारित्रस्य कर्मबन्धनि० २७१ __ अन्वयार्थ:-हे शिष्याः ! (ओए) ओजः- एकः-रागद्वेषरहितः (सया) सदा (ण रज्जेज्जा) न रज्येत भोगेषु, यदि (भोगकामी) भोगकामी-भोगेच्छुर्भवेत, तदा पुणो विरज्जेज्जा) पुनर्विरज्येत ततो वैराग्यं कुर्यात् (भोगे समणाणं सुणेह) भोगान् श्रमणानां शृगुत (जह) यथा (एगे) एके (भिक्खुणो) भिक्षः-साधवः (भुंनंति) भुञ्जन्ति-भोगं कुर्वन्तीति ॥१॥ टीका--'ओए' ओज:-एक: रागद्वेषरहितः साधुः 'सया' सदा-सर्वदा 'ण' नै 'रज्जेना' रज्येत-भोगादौ कदापि रागरंजितं चित्तं न शब्दार्थ-'ओए-ओज.' अकेला अर्थात् रागद्वेषरहित साधु सया-सदा' हमेशा 'ण रज्जेजा-न रज्येत' भोगों में कभी भी चित्त र लगावें 'भोग कामी-भोगकानी' यदि भोगमें इच्छा हो जाय तो पुणो विरजेला-पुनविरज्वेत' उसको ज्ञान के द्वारा त्याग करे भोगे समणाणं सुणेह-भोगान्' श्रमणानां शृणुत' साधुको भोगभोगने में जो हानि होती हैं उसे सुनो 'जह-यथा' जैसे 'एगे-एके' कोई 'भिवखुणो-भिक्षवः' साधु 'भुतिभुञ्जन्ति' भोग भोगते हैं ॥१॥ ___ अन्वयार्थ--हे शिष्यो ! रागद्वेष से रहित साधु भोगों में सदा अनुरक्त नहीं होता। कदाचित् भोग की कामना का उदय हो जाय तो पुनः शीघ्र ही विरक्त हो जाय। कोई कोई श्रमण भोगों को भोगते हैं उन्हें सुनो ॥१॥ टीकार्थ-रागद्वेष से रहित साधु स्त्रियों पर अनुराग धारण न करे। ___Avail-ओए-ओजः' मे अर्थात् मधु रागद्वेष २डित साधु 'सया-सदा' हमेशा 'ण रज्जेज्जा-न रज्येत' ७५४ १५ते सामायित्तने न 3. 'भोगकामी-भोगकामी' ले मागमा भन प्रेराय त 'पुणो विरजेजा-पुनर्विरज्येत' शानदा तना त्याग ४२ 'भोगे समणाणं सुणे-भोगान् श्रमणानां शृणुत' सागसोम साधुने बानि थाय छे ते समो 'जह-यथा' म 'एगे-एके' । 'भिक्खुणो-भिक्षवः' साधु 'भुंजंति-भुञ्जन्ति' ला सोगवे छ. ॥१॥ સૂત્રાર્થ––હે શિષ્ય! રાગદ્વેષથી રહિત સાધુ ભેગમાં સદા અનુરક્ત રહેતું નથી. કદાચ ભેગની કામનાને ઉદય થઈ જાય, તે પણ તેણે તેનાથી તરત જ વિરક્ત થઈ જવું જોઈએ, કોઈ કોઈ શ્રમણ (શિથિલાચારી સાધુઓ) ભેગો ભોગવે છે. તેઓ કેવી રીતે ભેગે ભમવે છે–ભાગોમાં આસક્ત થઈને छ, ते समणी, ॥१॥ ટીકાર્થ–સાધુએ તે સદા રાગદ્વેષથી રહિત રહેવું જોઈએ. તેણે For Private And Personal Use Only Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे कुर्यात् स्न्यादानासक्तस्य परलोके महादुःखसंभवस्य दर्शनात् । यदि कदाचि. न्मोहोदयाद्भोगकामी-भोगाभिलाषी भवेत् । तदाऽपि भोगे-ऐहिकाऽऽमुष्मिकदोषान्विचार्य भोगेभ्यः 'पुणों' पुनरपि 'विरज्जेज्जा' विरज्येत, मोहनीयकर्मणामुदयवशात् यदि भोगे वित्तपवृत्ति वेत्तदा दोषपर्यालोचनया ज्ञानांकुशेन चित्तं ततो निवर्तयेत् । 'समगाणं' श्रमणानामपि 'भोगे' भोगान् 'सुणेह' शृणुत । यद्यपि भोगा दुः वजनकाः सर्वेषाम् , तत्रापि तपम्तप्तानामपि साधूनां यथा भोगा भवन्ति, तथा यूयं शृगुत । 'एगे' एके शिथिनाचारिणः 'भिक्खुगो' भिक्षवः 'जह मुंजति' यथा भोगान् भुजन्ति, तथा शणुत, इति पूर्वेण सह संपन्धः । बिंद्यमानानामपि कामो दुर्निवार इत्यन्वदीयपक्षापि श्वानमधिकृत्योक्तम् - यह स्त्रियों में कभी भी अनुरक्त न हो-भोगों में चित्त को अनुरक्त न करे। जो स्त्री आदि में आसक्त होते हैं, उन्हें परलोक में घोर दुःख भोगने पडते हैं । कदाचित् मोह का उद्रेक होने से भोगों की अभिलाषा जागृत हो जाय तो भोगों से उत्पन्न होने वाले ऐहिक एवं पारलौकिक दोषों का विचार करके पुनः शीघ्र ही उनसे विरक्त हो जाय । ज्ञान के अंकुश से चित्त को भोगों से निवृत्त कर ले । यद्यपि भोग सभी के लिये दुखजनक होते हैं, फिर भी कोई कोई शिथिलाचारी साधु भोग भोगते हैं । वे जिस प्रकार भोग भोगते हैं सो सुनो। अन्यत्र कुत्ते को उद्देश करके कहाभी है-कृशः काणः' इत्यादि। दुबला, काना लंगडा बूचा (कानों से रहित पूछ से रहित पुंछकटा, भूख से पीडित, बूढा हंडी का ठीकरा जिसके गले में है तथा रस्सी સિએમાં અનુરક્ત થવું જોઈએ નહીં–ચિત્તને કામમાં અનુરક્ત કરવું જોઈએ નહીં. જે સ્ત્રી આદિમાં અસક્ત થાય છે, તેમને પરલેકમાં ભયંકર દખે જોગવવા પડે છે. કદાચ મહિને ઉક થવાથી ભેગેની અભિલાષા જાગૃત થઈ જાય, તે ભેગને કારણે ઉત્પન્ન થનાર અહિક અને પારલૌકિક દવે ને વિચાર કરીને, તેણે તરત જ તેમનાથી વિરક્ત થઈ જવું જોઈએ. તેણે જ્ઞાનના અંકુશ વડે ચિત્તને ભેગમાંથી નિવૃત્ત કરી લેવું જોઈએ જે કે ભેગે સૌને માટે દુઃખજનક જ છે, છતાં પણ કોઈ કઈ શિથિલાચારી સાધુઓ ભેગમાં અનુરક્ત જ રહે છે. તેઓ કેવી રીતે ભેગે ભેગવે છે–તે ભેગે પ્રત્યેની આસક્તિને કારણે તેમની કેવી દશા થાય છે, તેનું વર્ણન હવે સાંભળે. અન્યત્ર પણ કૂતરાને લઈને એવું કહ્યું છે કે–“દુર્બળ, કાણ, લંગડે, બો (કાનરહિત), કપાઈ ગયેલી પૂછડીવાળે, ભૂખથી દૂબળે, જેના ગળામાં હાંડીને કાંઠલે વીંટળાયેલો છે, જેના શરીર પરના જખમમાંથી રક્ત અને For Private And Personal Use Only Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir E समयार्थबोधिनी टीका प्र.श्रु. अ.४ उ.२ स्खलितचारित्रस्य कर्मबन्धनि० ४१ कृशः काणः खनः श्रवणरहितः पुच्छविकलः, क्षुधाक्षामो जीर्णः पिठरककपालादितमलः । वगैः पूयक्लिन्नः कृमि कुलशतैराविलतनुः, शुनीमन्वेति वा हतमपि च हन्त्येन मदनः ॥१॥इति।।गा. १॥ भोगासक्तमनसा याशी विडंबना शिलति, तां दर्शयितुं सूत्रकारउपक्रमते-'अह' इत्यादि। मूलम्-- अहे तंतुं भेदमावन्नं मुच्छिय शिक्खु काममतिवद। पलिभिदिया ण तो एच्छा पादु मुद्धि पहेति ॥२॥ छाया- अन्य तं तु मापन्न मतभकाममतिरतम् । परिभिद्य खलु तः पश्चात वाष्त्य मुधि यजन्ति ॥२॥ (पीप) से भरे हुए घावों एवं चिलमिलते हुए सजडो कीडों से व्यास शरीर वाला कुसा भी कुतिया के पीछे पीछे फिरता है। यह काम, मरे हुए को भी मारने में कोई कसर नहीं रखता ॥१॥ जिनका मन भोगों में आसक्त है उन्हें जैसी विडम्बना होती है, उसे दिखलाने का सूत्रकार उपक्रम करते हैं-'अह तं' इत्यादि । __ शब्दार्थ-- अह-अध' इसके अनन्ता 'भेदमापन्न-भेदमापन्नम्' चारित्रसे भ्रष्ट 'मुच्छियं-मूछिसम्, स्त्री में आसक्त 'काममतियटकाममतिघसम्' विषययोगों की इच्छाबाले 'तं तु-तंतु उस 'भिवभिक्षुम्' साधुको वेस्त्री 'पलिभिदिया परिभिद्य' अपने वशवी जानकर 'तो पच्छा-ततः पश्चात् पीछे पादुद्धटु-पादावुद्धृत्य' अपना पैर उठाकर 'मुद्धि-मून्धि' उस्ल के शिर पर 'पहाति-प्रघ्नन्ति' प्रहार करती हैं ॥२॥ પર નીકળી રહ્યું છે, અને જેના ઘરમાં કડાઓ ખદબદી રહ્યા છે એ બૂઢ કૂતરો પણ કામાસક્ત થઈને કૂતરીની પાછળ પાછળ ફર્યા કરે છે. આ કામવાસના મરેલાને પણું મારવામાં કોઈ કચાશ રાખતી નથી.” ! ૧ જેમનું મન ગેમાં આસક્ત હોય છે, તેમને કેવી કેવી વિટંબણાઓ सहन ४२वी पडे छत सूत्रधार ४८ ४२ छ---'अह तं' त्याह शा--'अह-अथ' मामलागल्या ५४ा 'भेदमावन्ने-भेदमापन्नम्' यात्रियी मट 'मुच्छियं-भूछि म्' समसxt 'काममतिवट्ट- काममतिवर्तम्' विषय सोगानी राणा तं तु-तंतु' से 'भिक्खु-भिक्षुम्' साधुन ते श्री 'पलिभिदिया-परिभिद्य' पाताने १२ थ्ये तासीन 'तो पच्छा' ततः-पश्चात् ते पछी 'पादुद्धटु-पादावुधृत्य' पोताना पानी 'मुद्धि-मूनि' तेना भरत। ५२ 'पहणंति-प्रध्नन्ति' घडा२ ४२ छे. ॥२॥ सू० ३६ For Private And Personal Use Only Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २८२ सूत्रकृताङ्गसूत्रे __ अभयाथ:--(अह) अथानन्तरम् (भेदमावन्न) भेदमापनम् चारित्रभ्रष्टम् (मुच्छिय) मूदितं स्त्रीषु गृद्धि भावमुपगम् (काममतिवट्ठ) काममतिपतम् कामाभिलाषुकम् (तं तु) तं तु भिक्खु) भिक्षु साधुः सा स्त्री (पलिमिदिया) परिभिध स्ववशीभूतं ज्ञात्वा (तो पच्छा गं) ततः पश्चात् खल ( माटु) स्वकीयपादौ उद्धृत्य (मुद्धि) मुनि-लायोः शिरसि (पति) भन्नाल पद्भ्यां शिरसि ताडयन्ति साधोरिति ।।२।। __टीका---'' अथ -अनन्तरम् , स्त्रीसके पश्चात् 'भष्मायन' भेदभापत्रम् -भेदं चारित्रस्खलनम् आयनं माप्त सन्तम् । 'मुच्छि' मूलित-स्त्रीषु आसक्तम् 'भिक्खु' भिक्षु साधुम् ‘काममनिब काममतिवर्तम्, कामेषु मते, द्धवर्त्तनं प्रवृत्तिर्यस्य इत्थंभूतम् कामाऽभिल षुकम् । 'पलिमिदिया' परिभिय, 'मामुपेत्य अस्माकं कथनानुसारेण सर्व करिष्यति' इत्येवं ज्ञात्वा सास्त्री 'वो ५च्छा' ततः पश्चात् (पादुद्धठ्ठ) (पादावुर्धन्य वकीयपादावुद्धृत्य 'मुद्धि' पहणंति' मूर्भि ___ अन्वयार्थ--इसके पश्चात् भेद को प्राप्त अर्थात चारित्र से भ्रष्ट स्त्रियों में गृद्ध और काम के अभिलाषी उस भिक्षु को वह स्त्री अपने वश में हुआ जानकर अपने पांव ऊँचे उठाकर साधु के मस्तक में प्रहार करती है ॥२॥ टीकार्थ--स्त्री के प्रति आसक्ति हो जाने के पश्चात् चारित्र से भ्रष्ट स्त्रियों में आसक्त तथा काम के इच्छुक साधु को अपने अधीन हुआ जानकर अर्थात् 'यह अब मेरे कथनानुसार ही सब करेगा' ऐसा: समझकर वह स्त्री उस साधु के लिर में लातों का प्रहार करती है और वह साधु विषयासक्त होकर इतना पतित हो जाता है कि कुपित हुई उस स्त्री के मार को भी खाता है। अधिक क्या कहा जाघ स्त्री के सूत्रा--त्या२ मा-यात्रियी अष्ट थये।, स्त्री मोम गद्ध (Ast), અને કામગેની અભિલાષાવાળા તે ભિક્ષને તે સ્ત્રી પિતાને વશ થઈ ગયેલો જાણીને, પગ ઊંચે કરીને તેના મસ્તક પર લાત પણ લગાવે છે. પરા ટીકાથ–સ્ત્રીમાં આસક્ત થયા બાદ, ચારિત્રથી ભ્રષ્ટ થયેલા, સ્ત્રીલેલુપ અને કામવાસનાથી યુક્ત એવા તે સંયમભ્રષ્ટ સાધુને પૂરે પૂરો પિતાને અધીન થયેલે જાણીને-એટલે કે તે હવે પિતાના કહ્યા અનુસાર જ કરશે એવું સમજીને-તે સ્ત્રી તે સાધુના મસ્તક પર લાતે પ્રહાર કરે છે, અને તે સાધુ વિષયાસક્ત થવાને લીધે એટલે પતિત થઈ ગયે હોય છે કે કપિત થયેલી તે સ્ત્રીને માર પણ સહન કરી લે છે. મોટા મોટા પ્રાણી પણ For Private And Personal Use Only Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir %D समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ४ उ.२ स्खलितचारित्रस्य कर्मबन्धनि० २८३ प्रघ्नन्ति-साधोः शिरसि स्वकीयपादयोः प्रहारं कुर्वना। प्रकुपितायास्तस्याः पादौ स्वशिरसि धारयति, सर्वथा विषयासक्तत्वातसिंहादयो महान्दोऽपि प्राणिनः स्त्रीसंनिधौ कातरा भवन्ति, उक्तश्च 'व्याभिन्न केसर बृहच्छिासश्च सिंहाः, नागाश्च दानमदराजि कौः कपोलैः । मेधाविनश्च पुरुषाः समरेषु शूराः, स्त्रीसन्निधौ परमका पुरुषा भान्ति ॥१॥' तदेवं विषयासक्तानाः हि पादघातविडंबनामपि पामोति मृहस्तस्मात् साधुः तस्यामासक्ति परित्यजेद् इति भावः ॥२॥ मूलम्-जह केसिया गं भए भिक्खू णो विहरे सह णमिथीए। केसाण विहं लुचिस्तं नन्नत्थै मएँ चरिजोसि ॥३॥ छाया--यदि केशिमया खलु मया भिक्षो ! नो विहरेः सह स्त्रिया । केशानप्यहं लंचिष्यामि नान्यत्र मया चरेः ॥३॥ पास सिंहादि बडे बडे प्राणी भी कायर हो जाता है, कहा भी है'व्याभिन्न केसर' इत्यादि ____ 'फैली हुई केसर (अयाल) के कारण विस्तृत सिर वाले सिंह, झरते हुए मद से युक्त गण्डस्थलों वाले अर्थात् मदोन्मत्त हाथी, तथा बुद्धिमान और समरशर नर भी स्त्री के समीप कायर हो जाते हैं। इस प्रकार जिनका चित्त कामासक्त हैं, वे लातों के घात की विड. म्यना को भी प्राप्त होते हैं । इसलिये साधु स्त्री में आसक्तिको छोड दे॥२॥ श्रीनी सभी५मा ४५२ ०ी Mय छे. यु ५४ ई-व्याभिन्न केसर' त्या “વિખરાયેલી કે શવાળીને કારણે ભરાવદાર મતકવાળે, સિંહ, જેના ગંડસ્થળમાંથી મદ ઝી રહ્યો છે એ મદમસ્ત ગજરાજ અને બુદ્ધિમાન અને સંગ્રામર નર પણ સ્ત્રીની પાસે કાયર (નરમ ઘેંસ જેવો) બની જાય છે.” આ પ્રકારે જેનું ચિત્ત કામાસક્ત હોય છે, એવા પુરુષને સ્ત્રિઓની લાતેના પ્રહારો પણ સહન કરવાને પ્રસંગ આવે છે. તેથી સાધુએ એિમાં આસક્ત થવું જોઈએ નહીં. પારા For Private And Personal Use Only Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -- - सूत्रकृताङ्गसूत्रे अन्वयार्थ:-(जई) यदि (केसिया) केशिकया-केशाः विद्यन्ते यस्याः सा तथा तया (मए) मया (इत्पीए) स्त्रिया सह (भिक्खू) हे भिक्षो ! (णो विहरे) नो विहरेः यदि विहारं न करिष्यसि तदा (केसाण विहं लुचिस्स) केशानप्यहं लुचिष्यामि त्वत्समागकांक्षिणी (मए) मगा रहितं (अन्नत्थ) अन्यत्र (न चरिजासि) न चरेमा विहाय नान्यत्र गच्छ इति ॥३॥ टीका--'भिवरलो' हे भिक्षो ! 'जइ' यदि के सिया' केशिकथा केशाः विधन्ते यस्याः सा केशिका स्त्री तया, केशमियाः स्त्रियो भवन्ति । 'मए' मया 'इत्थीए' स्त्रिया 'णो विहरे' नो विहरेस्त्वम् तदा 'केसाण विहं लुचिस्स' केशा. शब्दार्थ-'जइ-यदि' जो 'केसिगा-केशिकया' केशवाली 'मएमया' मुझ-'इत्थीए-स्त्रिया' स्त्री के साथ 'भिक्खू-भिक्षों-हे साधोः तुम 'जो विहरे-नो विहरे नहीं रह सकते तो 'हं-अहं' में इसी जगह 'केसाण लुचिस्स के शान लुचिच्यामि' केशों को भी लोच लूंगी 'मए-मया' मेरे विना 'अन्नत्य-अन्यत्र किसी दूसरे स्थान पर 'न चरिज्जासि-न चरे' न जाओ ॥ ३॥ अन्वयार्थ-यदि मुझ केशवाली के साथ हे भिक्षो ! नहीं रहोगे तो मैं अपने केशों को भी नोच डालूंगी। मुझे छोड़कर अन्यत्र कहीं मत जाना ॥३॥ टीकार्थ--स्त्रियों को केश प्रिय होते हैं अतएव कोई केशवाली स्त्री साधु से कहती है-हे भिक्षो! यदि शुश केशोंवाली के साथ तुम नहीं रहोगे तो मैं इसी स्थान पर और इसी समय अपने केशों को शदा'-'जय-यदि' रे सिया-शिकया' Aqivी 'इत्थीए-स्त्रिया' श्री सेवा 'मए--मया' भारी माथे 'भिकबू-मिझो उसयो ! 'यो विहरे-नो विहरे' न २७ शताय तो 'हं-अहम्' हुँ मा४ स्यणे 'केसाण वि लुचि सं-केशानपि लुचिष्यामि'ईशान। ५९ साय उरीश. 'मए-मया' मा विना 'अन्नत्य-अन्यत्र' 15 भी थान ५२ 'न चरिजासि-न चरेः' मे नहि। સૂત્રાર્થ હે ભિક્ષે! સુંદર કેશવાળી મારી સાથે તમે વિચરે, જે તમે મારી સાથે વિચરણ નહીં કરે, તે હું મારા સુંદર વાળીને મારે હાથે જ ખેંચી કાઢીશ. માટે મારો ત્યાગ કરીને બીજે વિચરવાને ખ્યાલ જ છોડી દે છે ૩ ટીકાર્થ_સ્ત્રિઓ તેમના સુંદર વાળને કારણે વધારે સુંદર લાગતી હોય છે. તેથી સાધુમાં આસક્ત થયેલી કેાઈ સકેશી (કેશયુક્ત) સ્ત્રી સાધુને એવી ધમકી પણ આપે છે કે-હે મુને ! જે તમે કેશવાળી એવી મારી સાથે નહીં For Private And Personal Use Only Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ४ उ. २ स्खलितचारित्रस्य कर्मबन्धनि० २८५ बयह लुचिष्यामि। यदि केशयुक्तया मया सह वस्तुं कदाचित्तव लज्जा भवेच्चेत् , बदाऽहं लज्जाकारण कान् केशानपि अधुनैव परित्यजामि । किं पुनरन्यालंकारादिकानित्यपि शब्दार्थ त्वं पुनः 'ननत्य' नाऽन्यत्र । 'मए' मयारहितः 'चरि जासि' चरे। मां विहाय क्षणमपि नाऽन्यत्र त्वया गन्तव्यम् , इत्येव मे प्रार्थना। अहमपि भवतामादेशं यथायथमनुष्ठास्यामि । यदि केशरहिताय तुभ्यं मे केशान रोचन्ते तदाऽहमपि केशलुंचनं करिष्ये परन्तु मां विहाय नाऽन्यत्र त्वयास्थाव्यमिति भावः ॥३॥ इत्थमापाततो मनोहः कूटवचननालैः साधु विश्वास्य यत् करोति, तदर्शयति सूत्रकारः - 'अह गं' इत्यादि । मूलम्-अहं णं से होई उवलद्धो तो पेसति तहाभूएहिं । __ अलाउच्छेदं पेहेहि वग्गुंफलाइं आहगहि ति ॥४॥ छाया--अथ खलु स भात्युपलब्धस्ततः प्रेषयन्ति तथाभूतैः । __अलावूछेदं प्रेक्षस्व वल्गुफ छान्याहर इति ॥४॥ नोंच लूंगी। यदि केशवाली होने के कारण मेरे साथ रहने में तुम्हें लज्जा होती हो तो मैं इसी समय लज्ना के कारण भूत इन केशों को त्याग देती हूं। तुम मुझे छोड कर एक क्षण के लिये भी अन्यन्त्र मत जाना, बस, यही मेरी प्रार्थना है । मैं भी आप के आदेश को ज्यों का स्यों पालन करूंगी। आशय यह है कि केशों से रहित तुम्हे मेरे केश तथा अलंकार यदि न रुचते हों तो मैं भी केशलु चान कर लूंगी मगर मुझे त्यागकर तुम अन्यत्र न रहना ॥३॥ રહે, તે હું અત્યારે તે અત્યારે જ મારા કેશે ને મારા હાથ વડે જ, તમારી સમક્ષ જ ખેંચી કાઢીશ જે કેશવાળી હોવાને કારણે મારી સાથે રહેવામાં આપને સંકેચ થને હેય, તે હું અત્યારે જ તે સંકેચના કારણભૂત કરીને ત્યાગ કરવાને તૈયાર છું. તમે મને છેડીને એક ક્ષણને માટે પણ બીજે ન જશે. એવી મારી નમ્ર પ્રાર્થના છે. હું પણ આપના આદેશનું બરાબર પાલન કરીશ.' આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે કેશથી રહિત એવા આપને જે મારા કેશ, અલંકાર આદિ ગમતાં ન હોય, તે હું પણ તમારી જેમ કેશકુંચન કરીશ, પરન્તુ આપ મને છોડીને અન્યત્ર ૨હેવાને વિચાર પણ ન કરશે. ૩ For Private And Personal Use Only Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २८६ सूत्रकृताङ्गो अन्वयार्थः - (अह) अथानन्तरं खलु (से उबलदो होइ) स साधुः उपलब्धो भातिमम क्शवतीति स्त्रो ज्ञात्वा (तो) ततः (तहाभूएहि) तथाभूतैः-प्रयोजनैः दासवत् साधु कार्य प्रेरयति (अलाउच्छेदं) अलावु छेद-विप्पलकादिशस्त्रं (पेहेहि) प्रेक्षस्व अनिय आनय (वगुफलाइ) वलगुफलानि नारिकेलादीनि (आहराहित्ति) आहर इति आनयेत्यर्थः ॥४॥ इस प्रकार ऊपर ऊपर से मन ज्ञ प्रतीत होने वाले कूट वचनजाल से साधु पो विश्वाप्त में लेकर वह स्त्री जो करती है, उसे सूत्रकार दिखलाते हैं-'अह गं' इत्यादि शब्दार्थ ---'अह-अध' इसके पश्चात् 'से उबलद्धो होइ-स उपलको भवति' यह साधु मेरे वशवती हो गया है ऐसा जानकर 'तो-ततः' फिर वह साधुको 'लहाभूएहिं-तथाभूतैः' दासके समान अपने कार्य में प्रेरित करती है 'अलो उच्छे अलावुच्छेद'तुम्बा काटने के लिये 'पेहेहिप्रेक्षव' छुरी लाव तथा 'व-गुमलाई पल्गुफलाणि' अच्छे फल 'आहराहित्ति-आहर इति' ले आवो ऐसा कार्य कहती है ॥४॥ ____ अन्वयार्थ--तत्पश्चात् जब साधु उपलब्ध हो जाता है अर्थात् उस स्त्री के अधीन हो जाता है तब वह विविध प्रकार के आदेश देकर साधु को दास की तरह कार्यो में प्रेरित करती है। जैसे तूवें को काटने का शस्त्र पिपलक देखो, लामो नारियल आकरु आदि फल ले आओ इत्यादि।।४। આ પ્રકારે ઉપર ઉપરથી મારૂ લાગતાં ફૂટ વચનોની જાળ બિછાવીને તે સ્ત્રી સ ધુને પિતાને વશ કરી લે છે. ત્યાર બાદ સંયમથી ભ્રષ્ટ ध्येय साधुनी 34 श याय छ, तेनु १२ सूत्र२ ४थन ४२ -- महण' यात. Avt-- 'अह-अथ' ते ५छी से उबद्धो होइ-सः उपलब्धो भवति' मा साभारे १५४ गये तेम समलने 'तो ततः' ५छी ते साधुने 'तहाभयहि तथाभतेः' हासनी भा३ ते पाताना आयमा २ छ 'अलाउछेद-अलापुच्छेदम्' तुपाना सम २वा म.ट 'पेहेहि-प्रेक्षस्व' छरी साय तथा वगाफलाई बलाफलानि' साजी 'आहराहित्ति-आहर इति' सारी । हाय मत छे ।।४।। સૂત્રાર્થ – આ પ્રકારે સાધુ જ્યારે તે સ્ત્રીને અધીન થઈ જાય છે, ત્યારે છે આ તેને વિવિધ પ્રકારની આજ્ઞાઓ આપે છે. તે સાધુ તેને, દાસ હોય તેમ તેને જીફા જુદા આદેશ આપવામાં આવે છે. જેમ કે “તુંબડીને કાપવાની છી તે શોધી લાવે. જરા બજારમાં જઈને નાળિયેર આકરૂટ વિગેરે ફળ લઈ આવે” ઈત્યાદિ For Private And Personal Use Only Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समपार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ४ उ. २ स्खलित वारित्रस्य कर्मबन्धनि० २८७ टोका- 'अहर्ण' अथ खलु स्त्रीवशवर्ती साधुः 'से उलो होइ' स उपलब्धो भवति आकारादिभिर्वशमुपगतः, इति ताभिः स्त्रीभिः परिज्ञातो भवति तो पेसंति तहा भूपहिं ततः प्रेपयन्ति तथाभूतैः = तदनन्तरम् तथाभूततदभिमः यज्ञानात् शब्दादिप्रयोगेस पेपयन्ति, कार्ये प्रयोजयन्ति, असौ स्त्रीवशवर्ती तादृशं कार्य करोति । कीदृशीमाज्ञां करोति सद्दर्शयति- 'अलाउच्छेदं पेtहि' अलाबुच्छेदं प्रेक्षत्र अलाबु तुम्बं छिद्यतेऽनेन शस्त्रविशेषेण इति अलाबुच्छेदं, तर प्रेक्षस्य तादशमत्र विशेषमन्वियाऽऽनय येन पात्रादीनां मुखादिनिर्माण भवेत् । तथा-'फलाई आहराहिति' गुफलान्याहर इति, वल्गू ने शोभनानि फलानि नारिकेलादीनि आहः आनय अथवा वाक्फलानि, वाचः धर्मकथारूशयाः व्याकरणादिरूपायाः वा यानि फलानि वखद्रव्यादिरूपाणि तान्यानयेति । तं साधु दासवत् कर्मणि नियोजयति । स्त्रीति भावः ॥ ४॥ टोकार्थ - तत्पश्चात् स्त्रियां जब यह समझ लेती हैं कि साधु मेरे अधीन हो चुका है, तब वे उसे दास की भांति कार्मो में लगाती हैं और स्त्री के वशीभूत हुआ वह साधु उसके कथनानुसार ही सब काम करता है। स्त्री किस प्रकार की आज्ञा करती है सो दिखलाते हैं-तूंचा काटने का शस्त्र देखो उसे अन्वेषण कर ले आओ जिससे पात्र आदि के मुख आदि का निर्माण हो । नारियल आदि मनोज्ञ फल लाओ । अथवा मूल में प्रयुक्त 'वग्गुफलाइ" का अर्थ है वाकफलानि, जिसका आशय है धर्मोपदेश या व्याकरण आदि रूपवाणी के जो फल वस्त्र या द्रव्य आदि हैं, उन्हें लाभो । आशय यह है ટીકા--જ્યારે તે સ્રને એવી ખાતરી થઈ જાય છે કે આ સાધુ હવે ખરાખર મારે અધીન થઇ ગયેા છે, ત્યારે તે તેની પાસે વિવિધ આદેશાનું પાલન કરાવવા લાગી જાય છે. તે સાધુને પાતાના દાસ જેવા ગણીને તે તેને આજ્ઞાએ કર્યાં કરે છે અને સાધુ પાતે દાસ હોય તેમ તેની આજ્ઞાનુ પાલન કરે છે. તે કેવી કેવી આજ્ઞા કરે છે તે હવે પ્રકટ કરવામાં આવે છે–છરી ગાતી લાવા કે જેની મદદથી તુંબડીને કાપીને તેમાંથી પાત્ર આદિનાં भुनु निर्माण करी शमाय 'नारियल सई गावो' सूत्रभा ने 'वग्गुफलाई ' શબ્દ વપરાયા છે, તેના અથ આ પ્રમાણે પણ થઈ શકે છે—ધર્મોપદેશ, વ્યાકરણ હિના આપ જાણકાર છે. તે તેના ફળસ્વરૂપ વસ્ત્ર, દ્રવ્ય, આદિ सर्व मावो (~આપના જ્ઞાનને ઉપયોગ ધન કમાવામાં કરે' આ કથનને ભાષા એ છે કે જે સ્ત્રી પહેલા સાધુને વિનતી અને કાલાવાલાં કરતી For Private And Personal Use Only Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २८८ सूत्रकृताङ्गसूत्रे मूलम् - दारुणि सांगपागाए पैजोओ वा भविस्सर राओ । पार्याणि य में रावेहि ऐहि ता में पिओ मद्दे ॥ ५ ॥ १० छाया -- दारूणि शाकपाकाय मधोतो वा भविष्यति रात्रौ । पादौ च मे रञ्जय एहि तावन्मे पृष्ठं मर्दय ॥५॥ अन्वयार्थ : – (सागवागाए) शाकपाकाय (दारुणि) दारूणि - काष्ठानि आनयं (शओ) रात्रौ (पज्जोओ वा भविस्सा) प्रद्योतः प्रकाशो वा मविष्यतीत्यतस्तैलादिकमानय ( मे पायाणि रथावेधि) में सम पादौ वा रंजन लेपय तथा परित्यज्यापरं 4 शब्दार्थ - 'सागपागाए- शाकपाकार्य' शाक पकाने के लिये 'दारुणि -दारुणि' लकडी लावो 'राओ - रात्री' रातवें 'पज्जोओ वा भविस्सहप्रद्योतो वा भविष्यति' प्रकाश के लिये तेल आदि लावो 'मे पायाणि रथावेहि मे पात्राणि रंजय' मेरे पात्रों को अथवा पैर को रंग दो 'ता -तावत' पहले तो 'एहि रहि' यहां आवो 'मे पिओ मद्दे मे पृष्ठ मर्दय' मेरी पीठ मल दो ॥५॥ अन्वयार्थ -- शाक पकाने के लिये लकडियाँ ले आओ। रात्रि में प्रकाश करने के लिये तैलादि की व्यवस्था करो। मेरे पात्रोंको या पैरों को रंग दो । अन्य कार्य छोड़कर पहले यहां आओ। मेरी पीठ का मर्दन कर दो। भोजन पकाने के लिए देर तक बैठी रहने से मेरे शरीर में पीडा उत्पन्न हो गई है। जरा मालिश तो कर दो ॥५॥ For Private And Personal Use Only હતી, એજ સ્ત્રી હવે તેને પેાતાને અધીન થઈ ગયેલા સમજીને તેને દાસની જેમ આદેશે। અપાતી થઇ જાય છે ॥ ૪॥ शब्दार्थ' – 'स्वागपागाए - शाकपाकाय' शा मनाववा भाटे 'दारुणि दारूणि ' बाडा यावे 'राओ - रात्रौ रात्रे 'पज्जोश्रो वा भविस्सइ- प्रद्योतो वा भविष्यति' प्रकाश ४२वा भाटे तेस विगेरे सावे 'मे पायाणि रयावेहि मे पात्राणि रंजय' भारी पात्रोने अथवा पाने रंगी धो 'ता- तावत्' पडेस पहि पहि' मंडियां भाव 'मैं पिट्ठओ मद्दे - मे पृष्ठं मर्दय' भारी पीठ भसणी घो. ॥५॥ સૂત્રા-શાક આદિ રાંધવાને માટે લાકડાં લઈ આવે, રાત્રે દીવેલું કરવા માટે તેલને પ્રમ ́ધ કરે, મારાં પાત્રાને રંગી દ્ના, મારા હાથ પગ લાલ રંગથી રંગી દા, બીજા કામે છેાડીને મારી પાસે આવે. કથાની રસાઈ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ.४ उ. २ स्खलितचारित्रस्य कर्मबन्धनि० २८१ कार्य (ता) तावत् (एदि) एहि-त्रागच्छ (मे पिट्ठभो मद्दे) मे पृष्ठं मर्दय पाककरणाय चिर कालम् उपविष्टाया मे अझं बाधतेऽतः संवाहयेति ॥५॥ टीका-'सागपागाए' शाकपाकाय-शाकं वास्तूकादिकपाशाकं वा अस्य पाकाय वा, दारूणिकाष्ठानि आहर, शाकम्पादीनां पाचनाय वनादिन्धनमानय एवं नानाकर्माणि पश्चात् साधु नियोजयति सा। 'पज्जोओ' प्रद्योतः प्रकाशो वा राशी भविस्सइ' रात्रौ भविष्यति-निविडान्ध कारत्वात् रात्रौ किमपि कर्तुं न शक्यते अतस्तैलादिकमानय, तथा- मे पावाणि' मम पात्राणि भिक्षासाधनभूतं पात्रं 'स्यावेहि' रंजय -येन सुखेन भिक्षाटनं स्यात्, यद्वा अलक्तकादिना अरंजितो मे चरणौ रंजय। तया कान्तिरं परित्यज्य झटिति एहिक आगच्छ 'मे पिट भो मद्दे' मे पृष्ठं मर्दय, यावद् गर्थमुपविष्टोऽसि मांगानि मुखमुपविष्टायाः मर्दय । __ भोः! परित्यज्य तावत्कार्यान्तरमिहागत्य ममांगसंवाहनं कृत्वा, ततः कार्यान्तरं करिष्यसि । एवं दासवत् कार्य कारयति ॥५॥ टीकार्थ-शाक या बथुवा आदि भाजी पकाने के लिये लकडियाँ लाओ। इस प्रकार के नाना कार्यों में साधु को लगाती है। घोर अन्धकार होने से रात्रि में कुछ करते नहीं बनता, अतएव तेल आदिले आमो जिससे प्रकाश होगा। मेरे पात्रों को अथवा पैरों को रंग दो । दूसरे समस्त कार्य छोडकर झट इधर आमो और मेरी पीठ मसल दो। जब तक निठल्ले बैठे हो तब तक मेरे अंगों को ही मल दो । स्त्रियां इस प्रकार उस साधु से दास के समान कार्य करवाती हैं ॥५॥ તૈયાર કરવા બેઠી છું, તેથી મારું શરીર અકડાઈ ગયું છે, તે જરા માલીશ તે કરી દે! કામ કરી કરીને મારી કમર દુઃખવા આવી છે, તે જરા બેઠાં બેઠાં કમર તે દબાવે.” ટીકાઈ—-તે સ્ત્રી પિતાને અધીન થયેલા તે સંયમભ્રષ્ટ સાધુને આ પ્રકારની આજ્ઞા ફરમાવે છે-ઘરમાં બળતણ ખૂટી ગયું છે, તે શાક, દાળ આદિ બનાવવાને માટે બળતણ લઈ આવ-જંગલમાં જઈને લાકડાં કાપી લાવો. તેલ તે થઈ રહ્યું છે. રાત્રે દી કેવી રીતે પિટાવશું ? જરા બજારમાં જઈને તેલ તે લઈ આવે! મારાં પાત્રોને રંગી દે. લાલ રંગથી મારા હાથ પગ તે રંગી દે! બધાં કામ છેડીને મારી પાસે આવે. આજ તે કામ કરી કરીને મારી પીઠમાં દુખ ઉપજે છે. તે જરા પીઠ પર તેલનું માલીશ તે કરી દે! નવરા શું બેસી રહ્યા છે, અહીં આવે અને મારા હાથ પગ અને માથું દબાવો” આ પ્રકારની મીની આજ્ઞાઓનું તેનું પાલન કરવું પડે છે. પા स० ३७ For Private And Personal Use Only Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे मूळा-वाणि य में पंडिलेहेहि अन्नं पानं च आहराहित्ति। ___ गंधं च रओहरणं च कासवगं च मे समाजाणाहि॥६॥ छाया--वस्त्राणि च मे प्रत्युपेक्षस्व अन्नं पानं च हर इति । : गन्धं च र बोहरणं न शाह व समनुजा हि ॥६॥ अवधार्थः- (बस्थापित में पडिले हे) बस्याक्षि में प्रभुपेक्षाव-नवीनं घन. मानय (अन्नं पानं च म राहित्ति) अन्नं पानं चाहर-थानमा (गंधं च रजोहरणं च) गन्धं कर्पूरादिकं रजोडरणं चानय (मे कामागं च) मेघदी काश्यप-नापितं (समणु नाणाहि) समनुजानीहि सम्भग जानीहि अागमनमाज्ञां कुरु आन. येत्यर्थः ॥६॥ , शब्दार्थ-'वस्थाणि मे पडिलेहेहि-वस्त्राणि मे प्रत्युपेक्षस्व' हे साघो! मेरे लिये नये वस्त्रों लायो। 'अन्नं पानं च आहरादिति-अन्नं पानं चाहर' मेरे लिये अन्न और पानी का प्रबन्ध करो 'गंधं च रजोहरणं चगन्धं च रजोहरणं च' मेरे लिये कपूर आदि सुगन्ध पदार्थ और रजोहरण लायो 'मे कासवगं च-मे काश्यपच' मेरे केश निकालने के लिये नापी को 'समणुजाणाहि-समनुजानीहि' यहां आने की आज्ञा दो ॥६॥ - अन्वयार्थ-मेरे वस्त्रों की देखभाल करो, नवीन वस्त्र लाओ। मेरे लिये अन्न पानी लाओ। कपूर आदि सुगंध लाभो, रजोहरण-धूल झाड़ने का साधन लाओ। नाई खुलालाओ, इत्यादि प्रकार से आदेश करती हैं॥६॥ - शाय-वस्थाणि मे पडिलेहेहि-वस्त्राणि मे प्रत्युपेक्षस्त्र' साधे । भा२१ पसीना मा ४२। अने मा२भाटे नवा पक्षी सायो 'अन्नं पानं च आहराहित्ति-अन्नं पानं चाहर' मार भाट मना पानी स१७ ४. 'गंधं च रजोहरणं च-गन्ध' च रजोहरणं च' भारे भाट १२ विगैरे सुगन्धित पहाय भने २२२६५ (१२) all. 'मे कासवगं च-मे काश्यपक च' भा॥ ३॥ 6॥२१॥ भाटे ने 'समगुजाणाहि-समनुजानीहि' मापवानी माझा भाषी. સ્વાર્થ--મારાં વસ્ત્રોની સંભાળ લે, મારે માટે નવાં કપડાં લઈ આવે. મારે માટે ખાદ્ય અને પેય સામગ્રી એ લઈ આવે, કપૂર અાદિ સુગંધી દ્રવ્ય લા, ઘરની જ વાળવા માટે જોડાણ (હાવણી) લઈ આવો મારા કેશ -કાપવા માટે નાઈને બેલાવી લા ઈત્યાદિ આદેશે તે કરે છે. ૬ For Private And Personal Use Only Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ४ उ. २ स्खलित बारित्रस्य कर्मवन्धनि २९१ टीका--'त्यागी'त्यादि । 'मे' मे-मा विस्थाणि' बखाणि 'पडिले हेति' प्रत्युपेक्षस्व । किमिततो वस्त्र पतितं विधते, तदेको कृय गृहे स्थापण ! अथवा खण्डितं जीर्णत्या पत्रमिति प्रेक्ष र पश्य । अर्थात-शामिदमिती नूतन वस्त्रमानय । तथा 'अन' अन्नं-शाकौदनादिकं भोजनार्थ 'पानं पान-पानीयकम् आनय । अथा- पानं मादक पेयद्रव्यमानय, येन भत्ताऽहं त्वया सह मनोविनोदं करिष्ये । च 'गंध' गन्धं तेलविशेषम् अंगशोभाजनकद्रव्यं वा आनय। 'रजोहरणं च' रजोहरणं संमार्जनोम् आनय येन गृहे पतितं रजोऽनीयेत । एतादृशीं ममाज्ञा लोचकरणे मम दुःखं भाति ततः सम्पादय । 'कासवगं च' काश्यपं च नापितं केश मुण्डनाय 'समणु जाणाहि' समनु नानीहि अवागमनाय अनुज्ञां कुरु आनयेत्यर्थः ॥६॥ मूळम्--अदु अंजणि अलंकारं कुकययं में पर्यच्छाहि। लोद्धं च लोर्द्ध कुसुमं च वेणुपलासियं च गुलियं च॥७॥ टीकार्थ--मेरे वस्त्रों की प्रतिलेखना करो । इधर उधर वन कैसे पडे हैं ? इन्हें इकट्ठा करके घर में रख दो । अथवा देखो, जीर्ण होने के कारण मेरे वस्त्र फट गये हैं, अतएव नए लाओ। भोजन के लिये अन्न और पानी ले आओ या पानक अर्थात् मदिरा आदि पेय ले आओ जिससे मनयाली होकर मैं तुम्हारे साथ मनोविनोद कर सकू। गंध अर्थात् तैल या अंग शोभावाईक द्रव्य ले आओ। संमार्जनी (वास) लाओ, जिससे घर की धूल झाडी जा सके । मेरी इन आज्ञाओं का पालन करो । लोच करने में मुझे कष्ट होता है अतएव मेरे लिये नापित को बुला लाओ॥६॥ ટીહાઈ–તે સ્ત્રી તે સંયમભ્રષ્ટ સાધુને આ પ્રકારના આદેશો આપે છે-“મારા કપડાને બરાબર ઝાટકીને તથા સંકેલીને પેટીમાં મૂકી દે. જી, મારાં કપડાં ફાટી ગયા છે, આજે જ બજારમાં જઈને મારે માટે નવાં કપડાં ખરીદી લાવ. મારે માટે ખાવા પીવાની સામગ્રી લઈ આવે–ખાદ્ય પદાર્થો તથા મદિરા આદિ પય પદાર્થો લઈ આવે કે જેથી મદિરાપાન કરીને મતવાલી બનીને હું તમારી સાથે કામોનું સેવન કરીને તમારા મનનું રંજન કરી શકું. સુધિયુક્ત તેલ અને અત્તર લઈ આવે કે જેને લીધે ઘર સુગથી મહેકી ઊઠે. ઘરને વાળી ગુડીને સાફ કરવા માટે સાવરણી લઈ આવે, વાળ કાપવા માટે ઘાંયજાને બે લાવી લાવે, ઈત્યાદિ. . ૬ છે For Private And Personal Use Only Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २९२ सूत्रकृताङ्गसूत्रे छाया-अथांजनिकामलंकारं खुखुणकं मे प्रयच्छ । ले च लोधासुमं च वेणुपलाशिकां च गुलिकां च ॥७॥ अन्वयार्थी-(अदु) अथ (अंजणि) अंजनिका-कज्जलाधारभूतां नालिका (अलंकार) अलंकारमाभूषणं (कुक्कययं) वीणां (मे पयच्छाहि) प्रयच्छ-देहि तथा (लोद्धं लोदकुसुमं च) लोधं च लोधकुसुमं च वेशभूषायै आनीय प्रयच्छ । (वेणुपलासियं घ) वेणुपलाशिकाम्-वंशी ति प्रसिद्धां देहि वादनाय तथा (गुलियं)गुटिकामोषधगुटिकां देहि येन नित्यनवयौवनैव स्यामित्याज्ञापयति साधु सा स्त्री ॥७॥ 'अदु अंजणि' इत्यादि। शब्दार्थ--'अदु-अर्थ' और 'अंजणि-अंजनिका' अजनपात्र 'अलंकारं-अलंकारम्' आभूषण 'कुक्कययं-खुखुणकं' वीणा 'मे पयच्छाहिमे प्रयच्छ' मुझ को ला दो तथा 'लोद्धं लोदकुसुमं च-लोत्रं च लोकुसुमं च लोघ और लोध्र का पुष्प भी ला दो 'वेणुपलासियं च-वेणुपलाशिकां च एक वासकी पांशुरी और 'गुलप-गुटिकाम्' औषध की गोली भी लाओ ॥७॥ - अन्वयार्थ-वह स्त्री ऐप्ता भी कहती है-मेरे लिये सुरमादानी लामो, आभूषण लाओ, वीणा लाकर दो । वेशभूषा के लिये लोध्र और लोध्र के पुष्प लाओ। बजाने के लिये वंशी दो। मेरे लिये औषध की गोली लाकर दो जिससे नित्य नवयुवती बनी रहूँ । स्त्री साधु को इस प्रकार आज्ञा देती है ॥७॥ " अदु अंजणि" त्या6ि-- Awa-'अदु-अथ' भने 'अंजणि-अंजनिकी' नात्र 'अलंकारअलकारम्' माभूषा 'कुमकुययं-खुंखुणक' पाए। 'मे पयच्छाहि-मे प्रयच्छ' भने anी भाषा तेभा 'लोद्धं लोद्ध कुसुमं च-लोधं च लोधकुसुमं च' ५ अरे सोना । ५९ सावी आप 'वेणुपलासिय' च-वेणुपलाशिकां च मे पासणी भने 'गुलिय-गुटिकाम्' सासनी गोजी ५५ anी माया ॥७ સૂત્રાર્થ—-શ્રી એવી પણ આજ્ઞા કરે છે કે મારે માટે સુરમાદાની, આમષ અને વીણું લઈ આવે, વેશભૂષાને માટે લેધ અને લેધનાં પપ લઈ આવે, મારે માટે વાંસળી લાવી દે. મારે માટે એવી ઔષધિની ગેળીએ લાવી દે કે જેના સેવનથી મારુ નવયૌવન કાયમ માટે ટકી રહે. પાછા For Private And Personal Use Only Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र.श्रु. अ. ४ उ. २ स्खलितचारित्रस्य कर्मबन्धनि० २९ टोका-'अदु' अथ च 'अंजणि' अंजनिकां कज्जलधारनलिकां कम्जलस्थापनपात्रं च मे प्रयच्छ । तथा-'अलंकारं' अलङ्कारम् आभूषणं कटक केयूरादिकं 'कुक्कुपयं' वीगाम्-घुघु रूविशिष्टां वीणाम् 'पयच्छाहि' प्रयच्छ लोचनेऽनयित्वा आभूषणेन शरीरं विभूष्य वीणां वादयिष्यामि तथा लोध्र-लोनं रक्तवर्णक अलक्तकादि समर्पय नखरञ्जनाय । (कोद्धकुसुमं च) लोध्रकुसुमं च प्रयच्छ केशशृङ्गाराय। (वेणुपलासियं च) वेणुपलाशिका च-वंशनिर्मितवादविशेषरूपाम् वंशीम् आनय, सा मे मनोगिनोदाय भविष्यति, 'पलिका च' गुटिका च-सिद्धगुटिकां समानीयाऽर्पय, यत्मभावात्-मम युपतित्वं कदापि न गच्छेत् , सदा मम यौवनं तिष्ठेत् ॥७॥ पुनरप्याह-कुटुं' इत्यादि। मूलम्-कुटुं तगरं च अगुरुं संपिटुं सम्म उसिरेणं। तेल्लं मुहभिलिजाए वेणुंफलाइं संनिधानाए ॥८॥ टीकार्थ-स्त्री आदेश करती है-मुझे काजल रखने की नलिका (डिषिया) लाकर दो । कटक केयूर आदि आभूषण तथा घुघरूदार वीणा लाओ। मैं आंखों में काजल आंजकर, आभूषणों से शरीर को आभूषित करके वीणा बजाउंगी। तथा नाखून रंगने के लिये लोध्र महावर अर्थात स्त्रियों के पैर रंगने का लाल रंग आदि लाकर दो। केशों का शृङ्गार करने के लिए लोध के पुरुष लाभो। मेरे लिये वेणुपलाशिका अर्थात् बांसुरी लाभो, जिससे मैं अपना मनोविनोद कर सकू। सिद्धगुटिका लाकर दो, जिसके प्रभाव से मेरा यौवन कभी मष्ट न हो, मैं सदा नवयुवती बनी रहूँ॥७॥ ટીકાથ–સ્રી આદેશ કરે છે કે “મારી આંખમાં આંજવા માટે કાજળની હબ્બી અને સુરમાની શીશી લાવી દે. મારે માટે કાનનાં બુટિયે, હાર, બંગડીઓ આદિ આભૂષણે લાવી દે. મારે માટે ઘુઘુરીઓવાળી વણા લઈ આ હું આંખમાં કાજળ આંજીને તથા આભૂષણો અને સુંદર વસ્ત્રો ધારણ કરીને વીણા વગાડીને તમારા દિલને વીણાના મધુર સૂર વડે ડોલાવવા માગું છું પગ રંગવા માટે અળને લઈ આવે, મારાં કેશની સજાવટ માટે લેધનાં કલે લઈ આવે. મને એક વાંસળી લાવી દે, તે વાંસળીના વાદન દ્વારા હું તમારા મનને બહેલાવવા માગું છું. મને સિદ્ધગુટિકા લાવી દે. તેનું સેવન કરીને હું મારું યૌવન સદા ટકાવી રાખવા માગું છું” For Private And Personal Use Only Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ૨૨ કે सूत्रकृतामसूत्र छाया--कुष्ठं तगरं चाऽगुरु संविष्टं सम्यगूउशीरेण । तैले मुखाऽभ्यंगाय वेणुफलानि सभिधानाय ॥८॥ - अधयार्थ:--(उसिरेणं सम्म संपिटुं) उशीरेग वीरणमूलेन सह सम्यक संपिष्टं मिश्रित (कुटुं तगरं च गुरु) कुष्ठं तगरमगुरुम् आनीय मह्यं देहि (मुहभिलिजाए) मुखाम्पङ्गाय (तेल्लं) तैलं-मुगन्धितम् , तथा (वेणुफलाई) वेणुफलानि वेणुफल कानि वस्त्रादिस्थापनाय आनीय देहि इति ॥८॥ टीका--कुटुमित्यादि। हे प्राणप्रिय ! संयत ! 'उसिरेणं' उशीरेण-वीरणमूलेन 'संपिटे' संपिष्ट-संमिश्रितम् ‘कुटुं तगरं च शुरु' कुष्ठं तगरम् अगुरुं तत्र-कुष्ठं 'कुटुं तगरं च' इत्यादि शब्दार्थ-'उसिरेणं सम्म संपिट्ठ-उशीरेण सम्पक संपिष्टं' खस के साथ अच्छी तरह पीसे हुवे 'कुटुं तगरं च अगुरु-कुष्टं तगरंचागुरु' कुष्ठ-कमल के गन्धयुक्त सुगन्धद्रव्य तगर और अगर लाकर मुझे दो 'मुहभिलिं जाए-नुखापङ्गाप' मुख में लगाने के लिये 'तेल्लं-तेल' सुगन्धि तैल और 'सन्निधानाए-सन्निधानाय वस्त्रादि रखने के लिये 'वेणुकलाई-वेणुफलानि' बांस की बनी हुई एक पेटी ला कर दो ॥८॥ ___अन्ववार्थ--वह कहती है-उशीर (खस) की जड के साथ अच्छी तरह पीसे हुये कुष्ठ, तगर भऔर अगर लाकर मुझको दो। मुख में मलने के लिये तैल तथा वस्त्रादि रखने के लिये पेटी भी ला दो ।।८।। .टीकार्थ-स्त्री कहती है-हे प्राणनाथ ! खसखस के साथ खूब पीसे हुए कुष्ठ, तगर और आर लाकर दो। यहां कुष्ठ का अर्थ है कमल की “कुटुं तगरं च" त्यil:-- शाय-"उसिरेणं सम्म संरिद्वं-उशीरेण सम्यक् संपिष्टम्' म अनी साये सारी रीते पटवा 'कुटुं तगरं च अगुरुं-कुष्ट तगरच अगुरूं' युट-मनी अशी यात सुमधद्रव्य तम२ मने २५ १२ भने तापी मापी. 'मुहभिलिजाए -मुखाम्नाय भुममा ॥ भाटे 'तेल-तैलमू' सुशाणु त भने 'सनिधानाए-सन्निधानाय” पो पणेरे रामा माटे 'वेणुफलाई-वेणुफलानि' વાંસની બનેલી એક પેટી મને લાવી આપો. ૮ સ્વાર્થ-તે કહે છે કે-ઉશર (ખસ) નાં મૂળની સાથે લસેટેલાં કુષ્ઠ, તગર અને અગર મને લાવી દે. મુખ પર લગાવવાને માટે મને સુગધિદાર તેલ લાવી દે. મારાં કપડાં રાખવાને માટે એક પેટી પણ લેતા આવજો, દા For Private And Personal Use Only Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ४ उ.२ स्खलितचारित्रस्य कर्मबन्धनि० २९५ कोष्ठपुटादिकं कमलगंधम् , सुगन्धद्रव्यं, तगरं गन्धद्रव्यविशेषम् अगुरुं धूपगन्धद्रव्यमानीय मे प्रयछ यावता सर्वदैव शरीरं सुगन्धितं भवेत् । तथा 'मुहमिलिंजाए' मुखाभ्यंगाय 'तेल्लं' तैलं -सुगन्धित तैलं चाऽऽदाय प्रपच्छ । 'वेणुफलाई वेणुफल कानि वत्रादीनां संस्थापनाय वेणुविनिर्मितपेटिकामपि यतः कुतश्चिदानाय दीयताम् यत्र निहितं वस्त्रादिकं सुरक्षितं भविष्यति । शय्यायाः शोभायै तगरादिपेक्षितम् , मुखशोभाऽभिवर्द्धनाय तैलादिकापेक्षिम् , तथा वस्त्रादीनां रक्षाथै पेटिकादीनां संप्रदोऽप्यावश्यः प्रतीयते । इति भानः ॥८॥ मूलम्-नंदीगणगई पाहराहि छत्तोबाणहं च जाणाहि। सत्थं च सूत्रच्छे जाए आगीलं च वयं रयाँदेहि ॥९॥ छाया--नन्दीचूर्ग माहर छत्रोपानदौ च जानीहि । शस्त्रं च मूरच्छेदाय आनलं च वस्त्रं रंजय । ९।। गन्ध से युक्त, गन्धद्रव्य तगर एक सुगंधित द्रव्य है और अगुरु भगर के नाम से प्रसिद्ध धूपद्रव्य है । स्त्री आदेश करती है कि यह सब वस्तुएं मुझे लाकर दो जिससे मेरा शरीर सुगंधित रहे और मुख पर मालिश करने के लिये सुगंधित तैल लाकर दो । वस्त्र आदि रखने के लिये बांस की बनी हुई पेटी भी कहीं से लाकर दो जिससे वस्त्र सुरक्षित रहे ___ आशय यह है कि शरया की शोभा के लिये तगर आदि की अपेक्षा की गई है, मुख का सौन्दर्य वढाने के लिये तैलादि की अपेक्षा की गई है और वस्त्रादि की रक्षा के लिए पेटी आदि की आवश्यकता प्रतीत की गई है ॥८॥ ટીકાર્થી--સ્ત્રી તેને કહે છે કે – હે પ્રાણનાથ ! આજ તે મારે માટે ખસનાં મૂળની સાથે વાટેલાં કુષ્ઠ, તગર અને અગર લેતા આવજો. “કુષ્ઠ આ પદને અર્થ અહીં કમલની ગન્ધથી યુક્ત સુગંધદ્રવ્ય સમજે. “તગર એક સુગંધિત દ્રવ્ય છે અને “અગર એટલે અગરુ નામનું ધૂપદ્રવ્ય, આ બધા સુગંધિત દ્રવ્યનું શરીરે માલીશ કરવાથી શરીર સુગંધિત રહે છે. વળી મુખ પર માલીશ કરવા માટે સુગંધિદાર તેલ બનાવી દે. મારાં કપડાં મૂકવા માટે વાંસની બનાવેલી સુંદર પેટી લઈ આવે છે જેથી મારાં કપડાં સુરક્ષિત રહે.' આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે શવ્યાની શેભાને માટે સ્ત્રી તગર આદિની અપેક્ષા રાખે છે, મુખના સૌંદર્યની વૃદ્ધિ માટે તે તેલ આદિની અપેક્ષા રાખે છે અને કપડાં આદિની રક્ષા માટે પેટીની અપેક્ષા રાખે છે. ૮ For Private And Personal Use Only Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २९६ सूत्रकृतास्त्रे ____ अन्वयार्थ:-(नंदीचुण्णगाई पाहशहि) नन्दीचूर्णमोष्ठरंजकं पाहर (छत्तोवा णहं च जागादि) छत्रोपान हौ च जानीहि (बच्छे जनाए) सपच्छेदाय परशाकच्छेदनाय (सत्थं च) शस्त्रं च (आणीलं) आनीलं च (वत्थं) वस्त्रं (स्यावे हि) रंजय, एतत्सर्व मदर्थं कुरु इति ॥९॥ टीका--स्त्रीवशवर्तिनम् , अतएव दाससमं साधुम् आज्ञापयति-हे कान्त ! 'नंदीचूणगाहिं' नदीचूर्ण द्रव्यांपोनिष्पादितोष्ठरञ्जक तथा दशोधकं शब्दार्थ--'नंदीचुण्ण गाई पाहराहि-जन्दीचूर्ण प्राहर ओठ रंगने के लिये चूर्ण लामो 'छत्तोपाणहं च जाणाहि-छत्रोपानही च जानीहि' छाता और जूना लाओ 'सुवच्छेन्जाए-सूपच्छेदाए' शाकपात्रादि के छेदन के लिये 'सत्थं च-शस्त्रं च शस्त्र अर्थात् छुरी लामो 'आणील-आनीलच' नीलरंग का 'वस्थं-वस्त्र' का 'स्यावेहि-रचय' मेरे लिये रंगवा दो ॥९॥ ____ अन्वयार्थ--स्त्री पुनः कहती है-होठ रंगने के लिये नन्दीचूर्ण ले भाओ । छाता लाओ, जूना लागो । शाक काटने के लिए छुरी लाओ। मेरे लिए नीले रंग से बस्त्र रंगवा दो । मेरे लिये यह सभी वस्तुएं प्रस्तुत करो ॥९॥ ... टीकार्य--स्त्री के अधीन होने से दास के समान बने उस भूतपूर्व साधु को वह आज्ञा देनी है-हे प्राणनाथ ! नन्दीचूर्ण अर्थात् अनेक द्रव्यों के संयोग से निर्मित ओष्ठ रंगने का चूर्ण या दन्तशोधक मंजन लाओ, -'नंदीचुग्णगाई पाहराहि-नन्दीचूर्ण' प्राहर' 13 २ वा भाटे नही. यूष सावी मापी. 'छत्तोपाणहं च जाणाहि-छत्रोपानहौ च जानीहि' छत्री भने २t anी मा. 'सूवच्छेज्जाए- सूपच्छेदाय' मा समार। भाट 'मत्थं च-शस्त्र च' शरु मति 1 anी मापी. 'आणील-आनील'च' नla २नु 'वत्थ-वस्त्र' १७ 'रयावेहि-रञ्जय' भने दावी मापेक्षा સૂત્રાર્થ–સ્ત્રી તે સાધુને કહે છે કે “મારા હેઠ રંગવા માટે નક્કી લાવી દે, દાંત સાફ કરવા માટે દતમંજન લઈ આવે. છત્રી, ચંપલ આદિ લઈ આવે. શાક સમારવા માટે છરી લઈ આવે. મારાં વસ્ત્રોને નીલા રંગ વડે રંગી દે.” આ પ્રકારની આજ્ઞાઓ તે કરતી જ રહે છે ૯ પિતાને અધીન બને તે સાધુ જાણે પિતાને દાસ હેય તેમ તે સ્ત્રી તેને નિત્ય નવા નવા આદેશ આપે છે– પ્રાણનાથ! અનેક દ્રવ્યના મિશ્ર થી બનાવેલું નન્દી ચૂર્ણ (હઠ લાલ ફરવાને પાઉડર) લઈ આવે કે જેનાથી For Private And Personal Use Only Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र.श्रु. अ.४ ३.२ स्खलितचारित्रस्य कर्मबन्धमि० .२९५ मंजनम् 'पाहराई' माहर, भानय, येन रजिनौ ओष्ठौ शोभेयातां तथा शोधिता दन्ता अतिनिर्मला भवेयुः । तस्माद् येन केनापि प्रकारेण यतस्ततो मिलेत् अन्विध्याऽऽनीयाऽर्पय। तथा 'छत्तोवाणहं च जाणाहि' छत्रोपानही जानीहि आनेतव्यतया, विना ताभ्यां वर्षाऽऽतपाभ्यां मदीयशरीरसंरक्षण कथं स्यात् । अतस्तयो रानयनमावश्यकमेव । तथा 'सुपच्छे जाए'-सुपच्छेदाय पत्रशाकादिकर्तनाय शस्त्रं छुरिकामप्यादाय मामर्प य । तथा-वस्थय वस्त्रम् 'आणीलं' आ ईपनीलम् , सर्वतो नीलं, रक्तं, पीतं च रञ्जय । नीलपीतरक्तादिवर्णेन रंजकद्वारा वस्त्रं रञ्जयित्वा पियायै मह्यमर्पयेति ॥९॥ मूलम्-सुफणिं च सागपागाए आमलगाइं दगाहरणं च । तिलगकरणिमंजणसलागंधिंसु मे विहणयं विजाणेहि॥१०॥ छाया-मुफणिं च शाकपाकाय आमलकान्युदकाहरणं च । तिलककरणीमंजनशलाकां ग्रीष्मे मे विधूनकमपि जानीहि ॥१०॥ जिससे रंगे हुए ओष्ठ सुन्दर दिखाई दे, तथा स्वच्छ किये दांत एकदम निर्मल हो जाएं । अतएव ये वस्तुएँ किसी भी प्रकार से, जहां कहीं भी मिले वहीं से खोजकर लाओ और दो । तथा छाता और जूना भी ले आओ। उनके विना वर्षा और धूप से कैसे मेरे शरीर की रक्षा होगी ? अतएव उनका लाना आवश्यक ही है और शाक आदि छेदन करने के लिए छुरी भी लाकर दो। तथा मेरे वस्त्र नीले पीले या लाल रंग से रंगकर मुझे दो ॥९॥ शब्दार्थ-सागपागार सुफणि-शाकपाकाय सुर्माण । हे प्रियतम! शाक पकाने के लिये तपेली लायो 'आमगाई दगाहरणं च-आमलकाરંગેલાં મારા હોઠ સુંદર દેખાય. દાંત સફેદ કરવા માટે એવું દામજન લઈ આવે કે દાંત ઘસવાથી દાંત સફેદ થઈ જાય ગમે ત્યાંથી આ બને વસ્તુ મને લાવી આપે, છત્રી વિના તા૫ અને વરસાદ વખતે બહાર કેવી રીતે જવાય? માટે આજે જ એક છત્રી લઈ આવે. મારા પગરખાં (સપાટ, ચંપલ, મેજડી આદિ) ફાટી ગયાં છે, તે આજે જ નવાં પગરખાં લાવી આપો. શાક સમારવા માટે આપણે ત્યાં છરી પણ નથી, તે બજાર માંથી સારી છરી લઈ આવે. મારાં કપડાંને રંગ ઝા પડી ગયેલ છે, તે મને આજે જ કપડાં પર લાલ, લીલે, પળ આદિ રંગ ચડાવી દે.” शहाथ-'सागपागाए सुफणि-शाकपाकाय सुफणि' प्रिय ! ४ आना१५माटे तपती दादी मापी 'आमलगाइ दगाहरणं-मामलकान, उदकाहरणं च' सू० ३८ For Private And Personal Use Only Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे अन्वयार्थ:--(सागपागाए सुफणि) शाकपाकाय मुफणि च तपेलीति लोकमसिद्धम् आनीय देहि तथा 'आमलगाई दगाहरणं च' आमलकान्युदकाहरणं च (तिलक करणिमंजणसलागं) तिलक करणीमंजनशलाकां च तथा (घिसु) ग्रीष्मे मे= मम (विहणय) विधनकं च पजनं (दिनाणेहि) विजानीहि एलर्य देहीति ॥१०॥ टीका-'सागपामाए' शाकपाकार-शाकानां सपालादीनां च पाकाय रंधनायवः 'सुफणि छ' सुफनि च अनाया। पश्यते पाच्यते शाकं तण्डुलादिकं यत्र तत् सुफण स्थालीपीठसादिक(थाली-तपेली) आनय। तथा 'आमलगाई' आमकानि धात्री फलानि, पात्रसंमार्जनाय. न्युदकाहरणं च' आंवला तथा जल रखने का पात्र लाओ तथा तिलगकरणिमंजणसलागं-तिलककरणीम्जनशलाको' तिलक और अञ्जन लगाने के लिये सलाई लामो तथा घिसु मे विषयं विजाणेहिग्रीष्मे मे विधूनकमपि जानीहि' ग्रीष्मकालमें हवा करने के लिये पंखा लाकर मुझे दो॥१०॥ ___ अन्वयार्थ-शाक पकाने के लिए सुमणि (तऐलो) लाकर दो। भांवला ला दो, पानी का पात्र ला दो, तिलक करने के लिये तथा अंजन आंजने के लिए सलाई ला दो । ग्रीष्मकाल में हवा करने के लिए पंखा ला दो ॥१०॥ _ टीकार्थ--शाक, दाल और चावल पकाने के लिए सुफणि अर्थात् तपेलो ला दो। जिसमें शाक आदि सरलता से पकाए जा सके वह सुफणि कहलाती हैं । बरतनों को साफ करने के लिये, शरीर का मामा भने मा भाटे पात्र मावी माय. तया 'तिलगकरणिमंजण. सलाग-तिककरणीमञ्जनशलाकां' तिस४ ४२१भाट तिजी मने मirty सा भाटे सजी an in तथा 'विसु मे विहूणयं विजाणेहि-ग्रीष्मे मे बिधूनकं विज्ञानीहि' श्रीमi ॥ मा। माटे ५ । भने साकी माप ॥१०॥ સૂત્રાર્થ—શાક આદિ બનાવવા માટે તપેલી લાવી દે. ઘરમાં આંબળા થઈ રહ્યા છે, તે અત્યારે જ બજારમાં જઈને આંબળાં લઈ આવે. પાણી ભરવા માટે જળપાત્ર લાવી દે. ચાંદલે કરવાની તથા આંજણ આંજવાની સળી લાવી દે. બામ જાતે શરૂ થઈ છે, તેથી બફારો ઘણે જ થાય છે, માટે હવા ખાવા માટે પંખે લાવી દે. ૧૦ સૂત્રાઈ–શાક, દાળ, ભાત આદિ રાંધવાને માટે તપેલીઓ લાવી દે. (સૂત્રમાં 'सुफणि' ५४ ॥ ॥ ५४१वाना साधन भाट १५२।यु छ, तथा तना તપેલી થાય છે.) વાસણ માંજવા માટે સ્નાન આદિ શરીરસંસ્કાર માટે તથા For Private And Personal Use Only Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir arrafrat टीका . . अ. ४ उ. २ स्खलितचारित्रस्य कर्मबन्धनि० २९९ शरीरसंस्काराय भोजनाय च आनय । तथा 'दगाहरणं च' उदकावरणं च, उदकं जल आहियते आनीयते येन पात्रविशेषेण तदपि आनय घट मानव उपलक्षणमेवत् - घृतैलादिकं सर्वमेव गृहोपकरणं मामर्पय। तथा 'तिळक करणिमंजण सलागं' तिलककरणी मंजनशलाका - तिलककरणाय शलाकां स्वर्णमय राजतीं वा । अथना- अंजनकरणाय अंजनशलाकामपि किं बहुना श्रीष्मकाले । कायोद्धृतस्वेदनिवारणाय 'विनय' विधूनकं व्यजन 'मे' सहां 'विजाणेहि' विजानीहि उक्तमनुक्तं वा सुखसाधनमानीय समर्पय सर्वं मामिति ॥ १० ॥ - मूळम् - संडासगं च फणिंहं च सहलिपागं च आणाहि । आदसगं च पयच्छाहि दतपक्खालणं पवेसाहि ॥ ११ ॥ छाया -- संदेशकं च फणिहं च शिखापाशकं चानय । आदर्शकं च प्रयच्छ दन्तपक्षाचनकं प्रवेशय ॥ ११ ॥ संस्कार करने के लिये और भोजन के लिये आंबले ला दो । जल लाने के लिये पात्र ला दो। यह कथन उपलक्षण मात्र है । इससे घुन, तैल उनके लिये पात्र आदि घर संबंधी सभी उपकरण समझ लेना चाहिए । वह सब लाकर मुझे दो । तिलक करने के लिए सोने या चांदी की सलाई अथवा अंजन लगाने के लिये अंजनशलाका भी ला कर दो । गर्मी में उत्पन्न होने वाले पसीने का निवारण करने के लिये मुझे पंखा भी ला दो। इस प्रकार कहे या अनकहे सभी सुखसाधन लाकर मुझे सौंपो ॥१०॥ शब्दार्थ -- 'संडासगं च संदेशकं च' नासिका के अन्तर्गत केश को उपाडने लिये निपीया लाओ 'फणिहं च- फणिहं च' तथा केशसंवा ભાજનમાં વાપરવા માટે આંખળાં પશુ લાવી દો. પાણી ભરવા માટે ઘડા, માટલી, ડેલ આદિવાસણા લાવી ઢા આ કથન દ્વારા શ્રી, તેલ આદિ પદાર્થા ભરવા માટે પાત્રો લાવી આપવાની વાત પણ સૂચિત થાય છે. ચાંલ્લે કરવા માટે સે।ના અવા ચાંદીની સળી લાવી દે. શ્યાં ણુ માટે અંજનશલાકા પણ લાવી દો. હુકણાં બફારા ખૂબ થાય છે, તે હવા ખાવા માટે એકાદ પ'ખે! પણ લાવી દે આ પ્રકારના દરેક જાતનાં સુખસાધના લાવી આપવાતું કરમાન તે ઇં!ડચા જ કરે છે, અને સંયમભ્રષ્ટ તે સાધુને શુકામની જેમ તેની તે આજ્ઞાએનું પાલન કરવું પડે છે. ભા शब्दार्थ - संडासगं च - संदेशकं च' नाउनी गंडर रहेला पाजावा भाटे श्रीपिया सावी याचे. 'फणिह' च फ गेहूं च' तथा बाज भोजवा भाद For Private And Personal Use Only Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्र अन्वयार्थः--(संडासगं च) संदंशकं च-नासिकाकेशोत्पाटनोपकरणम् (फणिह) कंकतिका (सीहलिपासगं च) शिखापाशकं वेणीसंयमनार्थ मूमयं कंकणं च (आणाहि) आनय (आदंपगं च पयच्छाहि) आदर्शकं-दर्पणं च मयच्छ तथा (दंतपक्खालणं पसाहि) दन्तप्रक्षालनकं भवेश्य आनयेत्यर्थः ॥११॥ टीका--'संडासगं' संदंशक-नासिकान्तर्गत केशोत्पाटनायाऽसविशेषम् 'कणिह' फणिहं च कंकतकं केशसंयमनाय तथा (सीहलपासगं) शिखापाशकं रने के लिये कंघी लाओ 'सीहलीपासगं च-शिखापाशकं च वेणी बांधने के लिये ऊनकी बनी हुई जाली 'आणाहि-आनय' लाकर दो 'आदंसगं च पयच्छाहि-आदर्शकं च प्रयच्छ' मुख देखने के लिये दर्पण लाकर दो 'दंतपक्खालणं पवेसाहि-दन्त प्रक्षालनकं प्रवेशय' दांत साफ करने के लिये दंतमंजन लाओ॥११॥ __अन्धयार्थ--पुनः स्त्री की आज्ञा बतलाते हैं-मेरे लिए नाक के बाल उखाडने के वास्ते चिमटी ला दो, कंघा ला दो, वेणी बाँधने के लिए जन का कंकण ला दो, दर्पण दो, दांत साफ करने के लिये मंजन या दातीन लाओ ॥११॥ टीका-नाक के भीतर के बाल उखाडने के उपकरण को 'संदं. शक' कहते हैं जिसे हिन्दी भाषा में 'चिमटी' कहा जाता है । वह स्त्री कहती है-मेरे लिये वह चिमटी ला दो। केश संवारने के लिये कंघी ला ziasa angी माय. 'सोहलीपासगं च-शिखापाशकं च' all wiuan माटे Giन मनावेसी anit 'आणाहि-आनय' सावी आयी. 'आदसगं च पयच्छाहिआदर्शकं च प्रयच्छ' भुम भाटे ५ वापी आपा. 'दंतपक्खालणं पवेसाहि-दन्तप्रक्षालनकं प्रवेशय' sid साई ४२१। माटे तमनसावी म141११॥ સૂવાથ–સ્ત્રીની આજ્ઞાનું સૂત્રકાર આગળ વર્ણન કરે છે–નાકના બાલ ખેંચી કાઢવા માટે મને ચીપિયે લાવી દે. કેશ એળવા માટે દાંતિ લાવી દે. મારી વેણ બાંધવા માટે ઊનને ઘેર લાવી દે. મેટું જોવા માટે દર્પણ લાવી દે અને દાંત સાફ કરવા માટે દાતણ અથવા દત્તમંજન લાવી १. मेम माज्ञा ४२ छ. ટીકાર્ય–નાકમાં ઉગેલા બાલ ખેંચી કાઢવાના ઉપકરણને ચીપિયે કહે છે. તે સ્ત્રી પિતાને માટે ચીપિયે લાવી આપવાની તેને આજ્ઞા કરે છે. વળી કેશ બિળવા માટે (વંતિ) પણ મંગાવે છે, પણ મંગાવે છે, વેણી બાંધવા For Private And Personal Use Only Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ४ उ. २ स्खलितचारित्रस्य कर्मबन्धनि ३०१ वेणीसंयमनाय-ऊर्गामयं कंकणं चऽनीय समर्पय । 'आईसग' आदर्शकम् तदपि दर्पणं मुखविलोकनाय मामर्पय देहि, तथा 'दंतपक्वालणं' दन्तपक्षालनक दन्ताः प्रक्षालयन्ते येन तदन्तपक्षालनकम्, दन्तकाष्ठं प्रवेशय आनयेति ॥११॥ मूलम्-पूर्यफलं तंबोलयं सूईसुत्तगं च जाणाहि। कोसं च मोयमेहाए सुप्पुक्खलगं च खारगालणं च॥१२॥ छाया-पूगीफलं च ताम्बूलकं सूचीसूत्रकच जानीहि । ___ कोशं च मोयमेहाय शूर्पोखलं च क्षारगालनकम् ॥१२॥ अन्वयार्थः-(पूयफलं तंबोलयं) पूगीफलं तांबूलं नागवल्लीदलं (सुईसुत्तर्गच जाणाहि) सूची मूत्रं च सूच्यर्थ वा मूत्र जानीहि-आनय (मोयमेहाए) मोकमेहास प्रस्रवणाय (कोसं) कोशं च पात्रमानय (मुपुक्खलगं च) शूर्पोखलं च (खारगालणं च) क्षारगालनं च-पात्रमानयेति ॥१२॥ दो। वेणी बांधने के लिये ऊन का कंकण (जाली) ला दो । मुख देखने के लिये दर्पण ला दो।दांत साफ करने के लिए दातोन या मंजन लाकरदो ।११। शब्दार्थ-'पूयफलं तंबोलयं-पूगीफलं ताम्बूलं, सुपारी और पान 'सुईसुत्तगं च जाणाहि-सूचिसूत्रं च जानीहि' तथा सई और दोरा लायो 'मोयमे हाय-मोक्रमेहाय' पेसाब करने के लिये 'कोसं-कोश पात्र लाओ 'सुपुक्खलगं च-शूर्पोखलनं च सूपडा और उखल लाओ एवं 'खारगालणं च-क्षारगालनं च सामी आदि खार गालने के लिये वर्तन शीघ्र लाकर दो ॥१२॥ ____ अन्वयार्थ-मेरे लिये सुपारी, पान, सुई धागा, लघुशंका निवारण करने का पात्र, सूपडा, ऊखल तथा खार गलाने का पत्र भी लाओ॥१२॥ માટે ઊનની ગુંથણીવાળી જાળી મંગાવે છે. વળી પિતાના દાંતની સફાઈ માટે દાતણ અને દત્તમંજન પણ લાવી આપવાનું કહે છે. તે ૧૧ हाथ-पूयफळ तंबोळय-पूगीफल तावूल' सारी भने पान 'सुई सुत्तग च जाणाहि-सूचीसूत्र च जानीहि' तथा सो भन्। सावी याची. मोयमे. हाय-मोकमेहाय' पेशाम ४२१॥ भाट 'कोसं-कोशम्' पात्र यादी मापी. 'सुप्पुक्ख. छग घ-शूर्पोखलनं च सूप भने मांडणुये। साली भाषा, तभ खारगालणं चक्षारगालनं च' साO मा२ 211नु पास थी भने दापी माया1१२॥ તે સ્ત્રી બીજી કઈ કઈ વસ્તુઓ મંગાવે છે, તે સૂત્રકાર હવે પ્રસૂટ કરે -भारे भाट पान, सारी, सोय, २१, माcिasी हो. पेश ११७ For Private And Personal Use Only Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३०२ सूत्रकृतागसूत्रे टीका-'पूयफल' पूगीफलम् (सुपारी) 'तयोलय' ताम्बूलम्-नागवल्लीम् , 'सुई सुत्तगं' सूची मूत्रकम् , सूत्रम् -डोरकम् मच्यर्थ मूत्रं वा 'जाणाहि' जानीहि आव. श्यकतया एभिविना गृहकार्यस्य सम्गदनाऽसंपवात् । 'मोयमेहार' मोकमेहाय प्रस्रवणाय 'कोस' कोशं-मूत्रपात्रम् , मूत्र त्सर्गाय आवश्यकम् , यतो हि रात्री भयार्त्ता बहिर्गन्तुं न शक्नोमि । तथा 'मूष्प' शुर्पम्-तण्डुलादिशोधनाय उपकरणविशेष 'सुपडा' इति भाषा प्रसिद्धम् 'उक्ख गं च' उलू'चलं च धान्यानां तुपापनयनाय कण्डनायेत्यर्थः तथा 'खारगालणं च' क्षारगालनकम् । सजिकादिक्षापदार्थगालनोपकरण विशेषम् इत्येतत् सर्वं गृहोपकरणं शीघ्र यत्नादानीय मह्यं पदेयम् इति ॥१२॥ मूलम् -चंदालांच करगं च वचघरं च औउसो खंगाहि। सरपाययं च जायाए गोरहगं च सामणेराए ॥१३॥ छाया-चंदालकं च करकं च वो गृहं च आयुष्मन् ! खानय । शरपातं च जाताय गोरथकं श्रामणेयाय ॥१३॥ टीकार्थ--सुगारी लामो, पान लाओ, सुई लाभो, डोरा लामो, यह आवश्यक है। इनके विना घर का काम नहीं चल सकता । लघु. शंका निवारण करने के लिये पात्र भी चाहिये या उसके लिये घर के भीतर ही स्थान चाहिये। क्योंकि रात्रि के समय भय के कारण बाहर नहीं जाया जा सकता । धान्य साफ करने के लिये लूपडा भी चाहिए। धान्य को कूटने के लिए अवल उसके छिलके हटाने के लिए सूपडा चाहिए। साजी आदि खार गलाने के लिए भी पात्र चाहिए। यह सब घर संबंधी उपकरण शीघ्र ही प्रयत्न करके लाओ और मुझे सोपो॥१२॥ માટે પાત્ર (તસ્તરું) લાવી દે. સૂપડું સાંબેલું ખાંડણિયે તથા સાજી વિગેરે ખાર ગાળવાનું પાત્ર પણ લાવી દે. ૧૨ ટીકાર્થ–મારે માટે પાન, સોપારી આદિ મુખવાસના પદાર્થો લાવી દે. કપડાં સાંધવા માટે સોયદેરા પણ લાવી અ પિ. ઘરમાં પેશાબ કરવા માટે કડીની વ્યવસ્થા કરે અથવા પેશાબ કરવા માટે તત લાવી દે. (ાત્ર ભયને કારણે પેશાબ કરવા બહાર જઈ શકાય નહીં તેથી પિશાબ કરવા માટે પાત્ર મંગાવે છે) ઘરમાં અનાજ સાફ કરવા માટે-સવા ઝાટકવા માટે સૂપડું પણ હોવું જોઈએ. ધાન્યને ખાંડીને તેના ફેતર આદિ દૂર કરવા માટે ખાંડણિયાની પણ જરૂર પડે છે. સાજી વિગેરે ખર ગાળવા માટે પાત્રની જરૂર પડે છે, તેથી આ બધી સામગ્રીઓ લાવી આપવાને તે તેને આદેશ કરે છે. અને તે સંયમભ્રષ્ટ સાધુને તેની આ આજ્ઞાનું પાલન કરવું પડે છે. ૧૨ For Private And Personal Use Only Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ.४ उ. २ स्खलितचारित्रस्य कर्मबन्धनि० ३०३ अन्वयार्थ:-(आउसो) हे आयुष्मन् ! (चंदालगं) चन्दालक च-देवपूननाय ताम्रपात्रं (जग्गं च) करकं च-जलरात्र मधुपात्र वा (पञ्चवरं) व चौगृहं शौवस्थानं (खणाहि) खामय जायार) जाताय-पुत्राय (मरपाययं च) शरपातं धनुश्व (सामराए) श्रामणे गाव-श्रमगपुत्राय (गोरहं च) गोरथं चान येति ॥१३॥ टोग- चंदालगं' चन्दालकम्-देपूजनार्थ ताम्रमयं पारम् । 'करगं' -करकः घटः येन पात्रविशेषेण शृंगाकारणाऽभिपेकः क्रियते। 'क्चर' वागृहम् , शक्षार्थ--'माउलो हे आयुष्मन्' हे दीर्घजीविन् 'चंदालगं-चन्द्रा लकं' देवना का पूजन करने के लिये नान पत्र और 'करगं च-करकं च' जलपात्र अथवा मधुमत्र वच्चवरं-चौगृहं' शौचगृह 'खग्राहि-खानय' बनवा दो ये सर मेरी अनुकूलता के लिये तैयार करवा दो जाएजाताय' अपने जन्मे हुए 'सनणेराए-श्रामगेयाश्रमण पुत्रको खेटने के लिये 'सरपाययं च-शरपातंच एक धनुष तथा 'गोरहगं च-गोथंच' एक बलद और रथ लामो ॥१३॥ ___ अन्वयार्थ--हे आयुष्मन् ! चन्दालक अर्थात् देवपूजा के लिये ताम्र का पात्र ला दो, करक अर्थात् जलपात्र या मदिरा रखने का पात्र लाओ, घडी शंका निवारण करने के लिए गर्त खोदो अर्थात् खाड़ा खोदो । अपने आत्मज श्रमण पुत्र के लिए धनुष ला दो, तथा एक बलद और रथ भी ला कर दो ॥१३॥ टीकार्थ--देवपूजन के लिए तांबें के पात्र ला दो। करक (करवा) अर्थात् जलपात्र, मदिरापात्र अथवा शृग के आकार का वह पात्र जिससे ___ -'आउसो-हे आयुष्यन्' है दीपिन् 'चंदालग-चाल कम्' देवतासानु पूजन ४२५॥ भोट तामात्र भने 'करंग च-करकं च' पात्र अथवा मधुपात्रतया 'बच्चचर-!गृह' शीय खगाहि-खानय', महावी माया भागधी वस्तुमा भारी तु माटे तयार ३२वी आप..तथा 'जायाए सामणेराए-जाताय श्रामणेयाय' माप! श्रसपुरने २४ा माटे 'सरपायय च-शरपात च' से धनुष भने 'गोरहं च-गोरथं च' सन २२ तावा ॥१॥ સૂત્રાઈ–વળી તે સ્ત્રી તેને એવી આજ્ઞા ફરમાવે છે કે – હે આયુષ્ય મન ! દેવપૂજાને માટે ચન્દાલક (તામ્રપાત્ર) લાવી દે કરક (જલપત્ર અથવા મદિરા ભરવાનું પાત્ર) લાવી દે, ઝાડે જવા ખાડે છેદી દે. આપણું શ્રમણ પુત્રને માટે ધનુષ તથા બળદ અને રથ પણ લાવી દે. ૧૩ : ટીકાઈ–હે પ્રાણનાથ ! હે આયુષ્મન ! દેવપૂજાને માટે તામ્રપાત્ર લાવી દે, “કરક જળપાત્ર અથવા મદિરા પાત્ર અભિષેક કરવા માટે For Private And Personal Use Only Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रतामसूत्रे पुरीपोत्सर्गस्थानम् ‘खणाहि' खानय-गृहप्रदेश एव गर्न कारय। 'सरपार्य' शरपातं-शराः क्षिप्यन्ते येन तत् शरपातं धनुः । 'जायाए' जाताथ-आत्मजायस्वकीयाय 'सामणेराए गोरहगं च' श्रामणेयाय श्रमणपुत्राय गोरथकं त्रिवार्षिक बलीवदं रथं च एतत्सर्वमानीय गृहे स्थापनीयम् ॥१३॥ मूलम्-घडियं च सडिडिमयं च चेलगोलं कुमार याए। वासं समभिआवण्णं आवसहं च जाण भत्तं च ॥१४॥ छाया-घटिकां च सडिण्डिमकं च चेलगोलकं च कुमारभूताय । वर्ष च समभ्यापनमाश्मयं च जानीहि भक्तं च ॥१४॥ अन्वयार्थः- (घडियं च) घटिकां च मृन्मयकुलडिका (सडिडिमयं च) अभिषेक किया जाता है, ला दो। घर में शौचगृह बनवा दो । अपने आत्मज श्रमण पुत्र के मनोरंजन के लिये धनुष ला दो और एक तीन सालका बलद और रथ ला दो। यह सब वस्तुएं घर में रहनी चाहिए ॥१३॥ शब्दार्थ--'घडियं च-घटिकां च' मीट्टी की गुडिया और 'सडिडिमयं घ-सडिण्डिमं च' घाजा तथा 'कुमारभूयाए-कुमारभूनाय' राजपुत्रके समान अपने पुत्रको खेलने के लिये 'चेलगोलं च-चेलगोलकं च' काडे की बनी हुई गेंद लामो 'वासं च समभिप्रावण-वर्षच समभ्यापन्नं' घर्षाऋतु समीप में आगई है अतः 'आवसहं-आवमथं उनसे बचने के लिये घर का प्रबन्ध करो एवं 'भत्तं च-भक्तम्' अन्न 'जाण जानीहि' लाकर दो ॥१४॥ अन्वयार्थ--मिट्टी की गुड़िया और पाजा (डुगडुगी ले आओ। શંગના આકાર જેવા પાત્રને “કર કહે છે. ઘરમાં જ જાજરૂ જવા માટેની વ્યવસ્થા કરી દે-જાજરું બનાવી દે અથવા ખાડે ખેદી દે. આપણા આ લાડકા બેટને રમવા માટે ધનુષ લાવી દે. તથા એક બળદ અને રથ પણ લઈ આ કે જેની સાથે તે રમીને આ દિવસ આનંદમાં વ્યતીત કરે. ૧૩ शार्थ - 'पडिय' च-घटिका च' भाटिनी पुती भने 'पडिडिमय च -सडिण्डिमं च' पात तथा 'कुमारभूयाए-कुमारभूताय' २२ पुत्र सरीमा मा५५ पुत्रने २भा भाट 'चेलगोलं च-चेलगोलकं च' ४५ना मना है। anी मा. 'वासं च समभिआवण्णं वर्ष च समभ्या पन्ने' वर्षातुन मात छ. २थी 'आवसह-आवसथं वहथी अथवा माटे घरनी सारी माया तमा भत्तं च-भक्तं च' मना ५९] 'जाण-जानीहि' हावी भा ॥१४॥ સૂવાથ–માટીની ઢિંગલી અને વજું (ડુગડુગી) લઈ આવે. આપણા For Private And Personal Use Only Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. शु. अ. ४ उ. २ स्खलितचारित्रस्य कर्मबन्धनि० सडिण्डिमकं च-वाद्यविशेषं च (कुमारस्याए) कुमारभूताय - राजपुत्रसदृशाय पु (चेलगोलं च) चेलगोलकं च वस्त्रात्मकं कन्दुकं ( वासं च समभिश्रावणं) वर्ष च समभ्यापन्न वर्षाकालः समागतः अतः (भासह) आवसथं गृहं (भत्तं च) भक्तम् अन्नं च 'जान' जानीहि - आनयेत्यर्थः | १४|| 0 टीका- 'घडियं च' घटिका - मृत्तिका निर्मिताम् 'सडिंडिमयं च' सडिण्डिमकं च = पटका दिवादित्रविशेषसहिताम् 'डुगडुगीति भाषा प्रसिद्धाम् तथा 'चेगी' चेळगोळकं निर्मित कन्दुकं च 'कुमारभूयाए' कुमारभूताय = राजकुमारसदृशाय मत्पुत्राय आनय क्रीडार्थम् । तथा 'वास' वर्ष वर्षाकालः 'समभिभाव समभ्यापन्नं समीपमागतः। अतो वर्षाकालयोग्यम् 'वस' आवसथं गृदं 'म' भक्तं तदादिकं चतुर्मासपर्यन्तमाहारक्षमं च 'जाण' जानीहिएतत्सर्वं निष्पादय इरानीमेव यत्नः करणीयः यावता वर्षाकालः सुखेन अविवाहित आवयोर्भवेत् ॥ १४ ॥ अपने राजकुमारसरीखे पुत्र के लिये कपडे की गेंद लाओ । अब वर्षाऋतु आ गई है अतएव घर एवं अन का प्रबंध करो ॥ १४ ॥ टीकार्थ - मिट्टी की गुडिया, बजाने के लिये डुगडुगी, वस्त्रो की बनी गेंद यह सब राजकुमार जैसे अपने बेटे को खेलने के लिये लाओ । हां, वर्षाकाल समीप आ गया है, अतएव वर्षाकाल के योग्य घर का निर्माण करवाओ, चार मास तक पर्याप्त अन्नादि इकट्ठा कर लो। इसी समय इनके लिये प्रयत्न कर लेना चाहिये। जिससे अपना वर्षाकाल सुखपूर्वक व्यतीत हो सके |१४|| રાજકુમાર જેવા પુત્રને રમવા માટે કપડાને દડા લઇ આવે. હવે વર્ષાઋતુ શરૂ થવાની તૈયારી છે, તે વર્ષાકાળ દરમિયાન ચાલી રહે એટલાં અન્નને ઘરમાં પ્રબન્ધ કરે. ઘર સંચાળવાનું આદિ કામ પતાવી દે.-વર્ષાઋતુમાં તાલીફ ન પડે તે માટે ઘરનુ સમારકામ કરાવી લે. ॥१४॥ ટીકા-તે સ્ત્રી તે સયમભ્રષ્ટ સાધુને કહે છે કે મારા રાજકુમાર જેવા પુત્રને રમવા માટે માટીની ઢિંગલી લાવી દો. તેને માટે ડુગડુગી (એક જાતનુ' વાજિંત્ર) લાવી દે. તેને રમવા માટે કપડાના બનાવેલે ઈંડા લાવી આપો. હવે ચે.માસુ શરૂ થાય છે, તે ઘરમાં ચાર માસ ચાલે એટલુ અનાજ લઈ આવે.. ઘરનુ સમારકામ કરાવી લે કે જેથી ચામાસામ વસ વાટને માટે કોઈ મુશ્કેલી ન રહે. આ બધું હમણાં જ પતાવી નાખે કે જેથી વર્ષાકાળ સુખપૂર્વક વ્યતીત થાય ॥૧૪॥ सृ० ३९ For Private And Personal Use Only Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गस्ने मम्-आसंदियं च नवसुत्तं पाउल्लाई संकमाए। अदै पुर्त्तदोहलट्टाए आणप्पा हेवंति दासा वा ॥१५॥ छाया-आसन्दिकां च नत्रसूत्रां पादुकाः संक्रमणार्थाय । अथ पुत्रदोहदार्थाय आज्ञप्ता भवन्ति दाया इव ॥१५॥ अन्वयार्थः--(नवसुतं च आसं दय) नः सूत्रामासंदिकां च-नवमूत्रनिर्मिता मंचिका (संकमाए) संक्रमणार्थाय (पाउल्लाइ) पादुका:-काष्ठपादुकाः (अदु) अथ (पुत्तदोहलढाए) पुत्रदोहदार्थाय (दासा वा) दासा इव (आणपा) आसप्ताः (हवंति) भवन्ति-स्त्रीवशीकृताः साधवः स्त्रियाः दासा इव भवन्तीति ॥१५॥ शब्दार्थ-'नवसुत्तं च आसंदियं-नवसूत्राम् आसंदिकाम्' नये स्वतों से बनी हुई सोने बैठने के लिये एक मंचिया लामो 'संक्रमट्ठाए-संक्रमणार्थाय' घूमने के लिये 'पाउल्लाइं-पादुकाः' काष्ठ की पादुकाएं लामो 'अदु-अथ' और 'पुत्तदोहलहाए-पुत्रदोहदार्थाय' मेरे गर्भस्थित पुत्र के दोहद की पूर्ति के लिये अमुक अमुक वस्तु लामो इस प्रकार साधु 'दासा वा दासा इव' दास के जैसे 'आणप्पा-आज्ञता' आज्ञाकारी 'हवंति-भवन्ति' होते हैं ॥१५॥ __ अन्वयार्थ--नवीन सूत से पनी मंचिया लाओ, चलने फिरने के लिये खडाउँ लाओ। पुत्रदोहद गर्भस्थित पुत्र की इच्छा को पूर्ण करने के लिये अमुक अमुक वस्तुएं लाओ। इस प्रकार स्त्रियां अपने वश में हुए उन साधुओं को दास के समान आज्ञा देती हैं ॥१५॥ ___ -'नवसुत्तं च आसंदिया-नवसूत्राम् आसंदिकाम्' सुका मेसपान भाटे नवा हराथा (पाटीथी) मना। ४ ५ वाव तथा 'संकमाए-संक्रमणार्थाय' ५२१॥ भाटे पाउल्लाई'-पादुकाः' सानी पावडीसी (यामी) सावी आयो ‘अदु-अथ' भने 'पुतदोहलढाए-पुत्रदोहदार्थाय' विथाना stनीति भाट भभु: अभु १तु साथी मा मत साधुमे। 'दासा वा-दास इव' हा अथात् सेनी मा 'आणप्पा-आज्ञप्ताः' माild 'हवंतिभवन्ति' थाय छे. ॥१५॥ સત્રાથ–આપણે શયન કરવા માટે નવી પાટી ભરેલી ઢયણ (નાને હેલિ) લાવી દે. મારે માટે લાકડાની પાવડીઓ લાવી આપ. ગર્ભસ્થ પુવદેહદ પૂર્ણ કરવાને માટે વિવિધ વસ્તુઓની પણ તે માગણી કરે છે. આ પ્રકારે પિતાને વશ થયેલા તે સંયમભ્રષ્ટ સાધુને દાસ જેવા ગણીને સ્ત્રીઓ વિવિધ આજ્ઞાઓ કરે છે. ૧૫ For Private And Personal Use Only Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनो टीका प्र. Q. अं. ४ उ. २ स्खलितचारित्रस्य कमबन्धनि० ३०७ टीका–'नवमुत्त' नवसूत्रेण निर्मिताम् 'आसंदियं आसन्दिकाम्-मंचिका शयनाद्यर्थम् 'संकमाए' संक्रमार्थाय-इतस्ततः चक्रमगाय, वर्षाकालेऽपि गेहादगेहान्तरगमनकर्मणि साहाय्यकरणाय 'पाउल्लाई' पादुकाः-काष्ठपादुकाः आनेय 'अदु' अथ, इतः पूर्व तु यत् यत् कार्य समादिष्टं कदाचित् परिसंख्यातुं संपादायितुं च शक्यमपि । अथाऽनन्तरम्-पुत्तदोहलढाए' पुत्रदोहदार्थाय-पुत्रस्य दोहदा गर्भस्थितिकालः तदर्थाय तस्मै हिताय । समुचितौषधानपानादीनां व्यवस्थाकरणे, यथोदरस्थो बालो विकलांगो न भवेत्-तथा, तथा 'पाणप्पा' आजप्ताः-सगर्मायाः मार्यायाः मनोवाञ्छितवस्तूनां तत्तदिच्छिनकाले समाहरणे एतत्सर्वकार्यकरणे टीकार्थ- शयन करने के लिए नवीन सूत्र से पनी हुई मंचिया लाओ, इधर उधर घूमने फिरने के लिए अर्थात् एक घर से दूसरे घर में जाने के लिए लकडी की खडा लाभो। इससे पहले जिन कार्यों के लिये आदेश दिया था, उनकी किसी प्रकार गणना की जा सकती थी और पूर्ति करना भी शक्य था, पर उनके अतिरिक्त भी वह अनेक प्रकार के आदेश देती है। पुत्र जब गर्भ में होता है तब गर्भवती को जो इच्छा होती है उसे दोहद कहते हैं। उसकी पूति के लिए अनेक प्रकार की वस्तुएं लाने को कहती है ટીકાર્ય—આપણે શયન કરવાને નવી પાટી ભરેલી ઢોયણી લાવી દો કે જેથી સુખપૂર્વક શયન કરી શકાય મારે હરતાં ફરતાં કાંટા, કાંકરા ન વાગે તે માટે લાકડાની ચાખડીએ લાવી દે. આ સિવાય તે કેવી કેવી આજ્ઞાઓ આપે છે, તે ગણાવી શકાય તેમ નથી. ઉપર વર્ણવ્યા સિવાયની અન્ય આજ્ઞાઓ પણ આ કથન દ્વરે ગ્રહણ કરવી જોઈએ. બાળક જ્યારે ગર્ભમાં હોય છે, ત્યારે ગર્ભવતી સ્ત્રીને જે ઈચ્છા થાય છે તેને દેહઠ કહે છે. આ દેહદની પૂર્તિને માટે તે અનેક વસ્તુઓ પિતાના પતિ પાસે મંગાવે છે. એવી માન્યતા પ્રચલિત છે કે સ્ત્રીના દેહદ પૂરા ન થાય તે બાળક For Private And Personal Use Only Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे 'दासा वा दासा इव-दासा यथा तथा 'हवंति' भवन्ति । स्त्रीवशीकृताः पुरुषा आशप्ता दासा इव स्त्रीणां कार्याणि कुर्वन्ति ॥१५॥ मूलम्-जाए फले समुप्पन्ने गेण्हसु वा णं अहंवा जहाहि। अहं पुत्तपोसिणो एगे भारंवहा हवंति उट्टा वा ॥१६॥ छाया- जाते फले समुत्पन्ने गृहाण वा तं अथवा जहादि । ___अथ पुत्रपोषिण एके भारवहा भवन्ति उष्ट्रा इव ॥१६॥ अन्वयार्थः-(नाए फले समुप्पन्ने) जाते फले समुत्पन्ने-पुत्रोत्पतिरेव गृहस्थतायाः फलं, तस्मिन् पुत्रे जाते सति यद्भवति तदर्शयति 'गेण्हमु णं चा' गृहाण तं 'जहाहि या' अथवा जहाहि त्यज 'अह' अथ 'एगे' एके 'पुत्तपोसिणो' पुत्रपोषिणः 'उहावा' उष्ट्रा इव 'भारवहा' भारवहा 'हवंति' भवन्तिति स्त्रीपुत्रयोः ॥१६॥ जिससे बालक विकलांग न हो । इन सब मांगो की पूर्ति वे साधु दास की तरह करते हैं ॥१५॥ .. शब्दार्थ-'जाए फले समुप्पन्ने-जाते फछे समुत्पन्ने पुत्र उत्पन्न होना गृहस्थावस्था का फल है, उसके होने पर स्त्री क्रुद्ध होकर कहती है"गेहसुणं वा जहाहि-गृहाणतं वा जहाहि' इस पुत्रको गोद में लो अथवा छोड दो 'अह-अर्थ' तत्पश्चात् 'एगे-एके कोई कोई 'पुत्तपोसिणो-- पुत्रपोषिण' पुत्र का पोषग करने वाले 'उहावा-उष्ट्रा इव'-ऊंट के जैसा 'भारवहा-भारवहा' भारको उठाने वाले 'हवंति-भवन्ति' होते हैं ।१६। વિકલાંગ (અંગોની બેડવાળું), થાય છે. તેથી તે સધુએ દાસની જેમ તેની બધી ઈચ્છાઓને સંતોષવી પડે છે. ૧૫ शहाथ-'जाए फले समुप्पन्ने-जाते फले समुत्पन्ने पुत्र न था તે ગૃહસ્થાવસ્થાનું ફળ છે. તે થયા પછી સ્ત્રી કોધિત થઈને કહે છે કે'गेण्डसुणं वा जहाहि-गृहोणतं वा जहाहि' मा पुन मामा से अथवा तर त्यास ४२१. 'अह-अथ' सीना सेम ४ ५छी ‘एगे-एके' छ । 'पुत्तपोसिणो-पुत्रपोषिणः' पुत्रना पाप ४२१वाजाय। 'उट्टाव-उष्ट्रा इव' अनी २'भारवहा-भारवहाः' ने . हवंति-भवन्ति' थाय छे ॥१६॥ સૂત્રાર્થ–પુત્રને જન્મ થયા બાદ તે સ્ત્રી પુરુષને કેવી કેવી આજ્ઞાઓ भारत के सूत्र २ ४ ४२ छ-- भार थोडी १२ तडीने ३२वी. છે, છેડે તમે શું તેને સંભાળવાના છે !” કેટલાક માણસે તે પુત્રને કે પણ કરવા માટે ઊંટની જેમ તેના ભારનું વહન કરે છે. જો For Private And Personal Use Only Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समर्थafari टीका प्र. शु. अ. ४ उ. २ स्खलितचारित्रस्य कर्मबन्धनि० ३०९ टीका - ' जाए फले समुप्पन्ने' जाते फळे समुरपन्ने, जायते इति जातः पुत्रः स एव फलं दारपरिग्रहस्य गृहस्थानाम् । दारपरिग्रहस्य यदुच्यते फलं कामोपभोगः, स तु गौणः । मुख्यं फलं तु पुत्र एव । अव्यक्तभाषिणो बालात् यत् सुखं नराणां मत्रति तादृश सुखाग्रेऽन्यत् सर्वमकिचित्करं भवति । तदुक्तम् 'यत्तच्छप निकेत्युक्तं, बाछेनाऽव्यक्तभाषिणा । हिरवा सांख्यं च योगं च तन्मे मनसि वर्त्तते ॥ १॥ ' पुत्रसुखं दरिद्रधनिनोः सममेव भवति इदं सुखं बाह्यसामय्यनपेक्षमेव भवतीति । तथा अन्वयार्थ -- पुत्र होने के पश्चात् जो होता है उसे दिखलाते हैं - वह स्त्री कभी कहती है इसे लो संगालो, कभी कहती है इसे छोड़ो। कोई कोई पुत्रपोषी लोग तो ऊंट की तरह भार वहन करते हैं || १६ || टीकार्थ-- पुत्र का दूसरा नाम 'जात' है। गृहस्थों के लिए विवाह का फल पुत्रप्राप्ति है | विवाह का फल कामभोग जो कहा जाता है, वह फल गौण है, प्रधान फल पुत्रप्राप्ति ही है। तुतलाते हुए बालक की बोली सुनकर मनुष्यों को जिस सुख की प्राप्ति होती है, उसके सामने सभी कुछ तुच्छ है। किसी पुत्रपोषीने कहा है- 'यसच्छ्पनिकेत्युक्तं ' इत्यादि । तुतलाते हुए बालक ने 'शपनिका' ऐसा कहा । यह सुनकर सांख्य और योगदर्शन की गंभीर शब्दावली भूलकर एकमात्र वही शब्द मेरे मन में रह गया है ॥१॥ पुत्र सुख ऐसा सुख है जो दरिद्र और धनवान् दोनों को ही समान रूप से प्राप्त होता है । इसे प्राप्त करने के लिए किसी अन्य बाह्य सामग्री ટીકા-પુત્રને ‘જાત' પણ કહે છે. ગૃહસ્થે પુત્રપ્રાપ્તિને લગ્નના ફળરૂપ માને छे. सग्ननु इज में अमलोग मानवामां आवे छे. ते तो गोइल छे, प्रधानફળ તેા પુત્રપ્રાપ્તિ જ છે. ખાળકની તડી વાણી સાંભળતા મનુષ્યને જે સુખની પ્રાપ્તિ થાય છે, તે સુખ આગળ જગતનાં સઘળાં સુખ શ્રીકાં લાગે b. saj ug —'ass¶langa' kule — બાળકે તેાતડી ખેલીમાં ‘શનિકા' શબ્દનું ઉચ્ચારણ કર્યુ, તે સાંભળીને ચગદર્શન અને સાંઢનની ગંભીર શબ્દાવલીને હુ ભૂલી ગયા. માત્ર ‘શપતિકા' શબ્દ જ માગ મનમાં ગુંજી રહ્યો. ૫૧ પુત્રસુખ જ એવુ સુખ છે કે જેની રિદ્ર અને ધનિક બન્નેને સમાન પ્રાપ્તિ થાય છે. તેને પ્રાપ્ત કરવાને માટે કોઈ અન્ય માહ્ય સામગ્રીની For Private And Personal Use Only Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३१० सूत्रता इंदं ते स्नेहसर्वस्वं, सममाढयदरिद्रयोः। अचन्दनमनौशीरं हृदयस्याऽनुलेपनम् ॥१॥' इति । ताशप्रधानफले समुत्पन्ने पुत्रे सति यादृशी लोकानां स्थितिर्भवति तां स्थिति दर्शयति-गेण्डसु वा णं' यहाण तम्-कार्याऽऽकुलतया मदीयं चेतो व्यग्रं विकते, नास्त्यासरः पुत्ररक्षणस्य तं पुत्रं गृहाण त्वम् , 'अहवा' अथवा-पुत्रं 'जहाहि जाहित्यन मार्गोपरि, संपति नास्ति मम समयः पुत्ररक्षणस्य अतस्तं स्वीकुरु त्यज वा। एवं प्रकुपिता यदाऽऽदिशति तदा तदीयसंपादनमेव तां सन्तोषयति तदुत्तम्.तर 'यदेव रोचते मा, तदेव कुरुते पिया। ... इति वेत्ति न जानाति तस्पियं यत्करोत्यसौ ॥१॥' की अपेक्षा नहीं रहती। कहा है--'इदं ते स्नेहसर्वस्व' इत्यादि। ... यह स्नेहसर्वस्व धनवान् और निर्धन के लिए समान है। यह स्नेह विना ही चन्दन और विना खस के हृदय को शीतल करने चाला सर्वोत्तम लेप है ॥१॥ . ऐसे प्रधान फल की अर्थात् पुत्र की उत्पत्ति होने पर लोगों की जो स्थिति होती है, उसे दिखलाते हैं -मैं काम काज में उलझी है। मेरा चित्त व्याकुल है । पुत्र को संभालने का मुझे समय नहीं है । इसे तुम ले लो। अथवा इसे कहीं रास्ते में छोड़ दो, अभी मुझे समय नहीं है। इस प्रकार कुपित होकर जब स्त्री आदेश देती है, तब उसके आदेश का पालन करना ही पडता है । तभी उसको सन्तोष होता है। कहा भी है--'यदेव रोचते मां' इत्यादि। भावश्यता २हेती नथी. ५ ५५ छ 3.--'इदं ते स्नेहसर्वस्वं त्य ધનવાન અને નિર્ધન બનેને માટે આ સ્નેહ (પુ નેહ) સમાનરૂપે સુખદાયી છે. આ સ્નેહ તે ચન્દન અને ખસની જેમ હૃદયને ઠંડક આપનાર સિરમ લેપની ગરજ સારે છે ! જ્યારે લગ્ન જીવનના પ્રધાનફળ સ્વરૂપ પુત્રની પ્રાપ્તિ થાય છે, ત્યારે કેની કવી દશા થાય છે તેનું હવે વર્ણન કરવામાં આવે છે-ક્યારેક સ્ત્રી પતિને કહે છે- હું કામમાં ગુંથાયેલી છું. મારું ચિત્ત વ્યાકુળ છે. પુત્રની સંભાળ લેવાની મને ફુરસદ નથી. તે તમે તેની સંભાળ લે. જો તમે તેની ભાળ લેવા તૈયાર ન છે, તે જાવ તેને અહીંથી રસ્તા પર લઈ જઈને મૂકી દે. સ્ત્રી જ્યારે કે પાયમાન થઈને આ પ્રકારને આદેશ આપે છે, ત્યારે પતિએ તેના આદેશનું પાલન કરવું જ પડે છે અને ત્યારે જ તે સ્ત્રીને ताप थाय छे. [ ५ छ है-" यदेव रोचते मा" पाहि-- - For Private And Personal Use Only Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. थु. अ. ४ उ. २ स्खलितचारित्रस्य कर्मबन्धनि० ३११ 9 ददाति शौचपानीयं पादौ प्रक्षालयत्यपि । माणमपि गृह्णाति, स्त्रीणां वशगतो नरः ॥ १ ॥ ' 'अह' अथ 'पुत्तपोसिंगो एगे' पुत्रपोषिण एके, पुत्रपोषणशीलाः एके केचन महामोहोदये स्त्रीवशवर्त्तिनः साधवः । 'उहावा' उष्ट्रा इव भारवहा । मवन्ति । स्त्री वशवर्त्तिनः खियाः आज्ञावहाः, भारवहा उष्ट्रा इव भवन्तीति ।। इति ।। १६ ।। मूलम् - रोओ वि उट्रिया संता दारंगं च संठेवंति धाई वा । सुहिरामणा वि ते संता वस्थधोवा हेवेति हंसी वा ॥ १७ ॥ छाया - शत्राप्युत्थिताः सन्तो दारकं संस्थापयन्ति धात्रीव । सुहीमनसोऽपि ते सन्तो वस्त्रधात्रा भवन्ति हंसा इव ॥ १७॥ जो पुरुष पूरी तरह स्त्री के अधीन होकर मूढ बन जाता है वह सोचता है मेरी प्रिया वही सब करती है जो मुझे रुचिकर है । वह मूढ यह नहीं समझता कि उसे वही प्रिय है जो वह करती है ॥ १ ॥ tarai पुरुष शौच के लिए जल देता है, कभी कभी उसके पैर भी धो देता है। उसके इलेष्मा को भी ग्रहण करता है ॥२॥ कोई कोई दीक्षात्याणी ( पच्छाकड) साधु महामोह के उदय से स्त्री के वशीभूत होकर पुत्र का पालन पोषण करते हैं और कंट की तरह भार ढोते है। तात्पर्य यह है कि स्त्री के वशीभूत पुरुष आज्ञा का पालन कर ऊंट की तरह भार को भी वहन करते हैं | १६ || ‘જે પુરુષ પૂરે પૂરા સ્ત્રીને અધીન થઈ જાય છે તે એમ માને છે કે મારી પત્ની એવુ' જ બધુ' કરે છે જે મને રુચિકર હાય છે, પરંતુ તે મૂઢ એટલ' પણ સમજતા નથી કે તે એવું જ બંધુ' કરે છે કે જે તેને घोताने (खीने पोताने ) गमतु होय . ' સ્ત્રીને અધીન થયેલા પુરુષ શૌચને માટે તેને પાણી પણ આપે છે, કદી કદી તેની પગચંપી પણ કરે છે અને શ્લેષ્માને (કર, ગડકા) ઘરની બહાર ફેકવાનું કામ કરે છે. કોઇ કાઈ સચમભ્રષ્ટ સાધુ મહામહના ઉદયને કારણે સ્ત્રીને વશવતી થઈને પુત્રનું પાલનપાષણ કરે છે અને ઊ'ટની જેમ ભારનું વહન કરે છે. તાત્ય એ છે કે સ્ત્રીને અધીન થયેલા પુરુષ સ્ત્રીની આજ્ઞાનું પણુ વહન કરે છે અને ભારનું' પણ વહન કરે છે. ૫૧૬૫ For Private And Personal Use Only Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३१२ सूत्रकृताङ्गसूत्र __ अन्वयार्थ:-(राओ वि) रात्रावपि (उडिया संता) उस्थताः सन्तः (धाई वा) धात्री इव धात्रीवत् (दारग) दारकं - पुत्र रुदन्तं (संठति) संस्थापयन्ति, ते स्त्रीवशीभूनाः (सुहिरामगा वि ते संता) सुहीमनसोऽपि सन्तः लज्जालकोपि ते मानां विहाय (हंसा वा) हंसा रजका इत्र (वत्यधोवा) वस्त्रधारका:-स्त्रीपुत्रयोः (इति) भवन्तीति ॥१७॥ टीका-'राओ वि' रात्रावपि 'उद्विया' उत्थिताः सन्नः 'धाई वा' धात्रीवत् , रुदन्तम् ‘दारगं' दारक-पुत्रं 'संठवंति' संस्थापयन्ति मधुरालाः क्रीडयन्ति । 'मुहीरामणा वि ते संता' ते सुहीमनमोऽपि सन्तः लज्जासंपन्ना वा अपि शब्दार्थ--'रामोवि-गत्रापि रात में भी 'उटिया संता-उत्थिना: सन्तः उठकर 'धाई वा-धात्री इच' धाई के जैसे 'दारगं-दारकं चालक को संठवंति-संस्थापयन्ति' गोद में लेते हैं 'हिरामणा वि ते संता सुहीमनसोऽपि ते सन्तः' वे अत्यन्त मनमें लज्जाशील होते हुए भी 'हंसा वा-हंसा इव' धोबी के समान 'वस्थधोवा-वस्त्रधावकाः' स्त्री और अपने संतान का वस्त्र धोने वाला 'हवंति-भवन्ति' हो जाते हैं ॥१७॥ ____ अन्वयार्थ--कोई कोई रात्रि में भी उठकर धाय के समान पुत्र को रखते हैं । वे लजालु होते हुए भी धोषियों के समान स्त्री और पुत्र के वस्त्रों को धोते हैं ॥१७॥ ___टीका--जो स्त्रीवशंगप्त होते हैं वे रात्रि में भी उठकर रोते हुए पुत्र को धाय के समान रखते हैं अर्थात् मीठी मीठी बातें कहकर उसे रमाते हैं । वे लज्जाशील होते हुए भी लज्जाहीन होकर स्त्री के अधीन शा---'राओ वि-रात्रावरि' रात्रे ५५५ 'उडिया सेता-उत्थिताः सन्तः' GAR 'धाई वा-धात्री इव' धानी म 'दारंग-दार कम्' माने 'संठवंतिसंस्थापयन्ति' मोजमा वे छे. 'सुहिरामणा वि ते संता-सुहीमनमोऽपि ते सन्तः' सत्यशरमाने ५५ हंसा वा-हंसा इच' धामीनी भा 'वत्थधोकावस्त्रधाव काः' खी अने पाताना सतानना १२ पापाजी हवंति-भवन्ति' થાય છે કે ૧૭ - સૂત્રાઈ–ીને અધીન બનેલા કેઈ કઈ પુરુષને રાત્રે પણ ધાત્રી (ધામા) ની જેમ પુત્રની સંભાળ લેવી પડે છે. તેઓ લજજાશીલ હોવા છતાં પણ ધબીની જેમ સ્ત્રી અને પુત્રનાં કપડાં ધોવે છે. ૧ળા કાર્ય–જે પુરુષ સ્ત્રીના પૂરે પૂરા કાબૂમાં આવી ગયા હોય છે, તેમણે શત્રે રડતાં બાળકની સંભાળ રાખવી પડે છે-તેમને તેડીને, હીંચોળીને અથવા For Private And Personal Use Only Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ४ उ. २ स्खलितवारित्रस्य कर्मबन्धनि० ३१३ पुरुषाः स्त्रीवशवर्तित्वात् स्त्रीणामाज्ञां संपादयितुं लज्जां विहाय निन्दितकार्य कुर्वन्ति । तत्र दृष्टान्नं दर्शयति-वस्थधोवा' इति 'वस्थधोवा वस्त्रधावका 'इंसा वा' हंसा व-रज का इव, वस्त्राणि धानि प्रक्षालयन्ति ये ते वस्त्रधारकाः, तद्वत् 'हवंति' भवन्ति । यथा-रजकाः हीनादपि हीनस्य पुरुषस्य अशुचिमलपटलपट लितं वस्त्रमादाय, तन्मालिन्यं पक्षालयाऽर्पयन्ति, तथा स्त्रीवशवत्तिनोऽपि स्वीणामधमाधममपि कार्य कुर्वन्तीति ॥१७॥ एतादृशकुत्सितकराः भांति किं तत्राह-'एवं बहुर्हि' इत्यादि। मूलम्-एवं बहाह कयधुवं भोगत्थाए जेऽभियावन्ना। दासे मिइ व पेसे वा पसुभूत व से णे वा केई ॥१८॥ छाया-एवं बहुभिः कृतपूर्व भोगार्थाय येऽभ्यापनाः। दापोमृग इव प्रेष्य इव पशुभूत इव स न वा कश्चित् ॥१८॥ होने से, उसकी आज्ञा को सम्पादित करने के लिए निन्दित कार्य भी करते हैं। इसके लिए दृष्टान्त दिखलाते हैं-जैसे धोयी वस्त्र धोता है उसी प्रकार वे भी स्त्री और पुत्र के वस्त्र धोते हैं । अर्थात् जैसे धोबी हीनों में भी हीन पुरुष के गंदगी से भरे वस्त्र को लेकर उसकी गंदगी साफ करके वापिस उसे सौंपते हैं, उसी प्रकार स्त्रैण पुरुष भी स्त्रियों के अधम से अधम कार्य भी करते हैं॥१७॥ - -- ----- इस प्रकार के कार्य करने से क्या हुआ ? यह बात सूत्रकार રમાડીને રડતાં બંધ કરે છે. સ્ત્રી તે શય્યામાં શાંતિથી નિદ્રા સુખ ભોગવે છે. અને પુરુષને નર્સની માફક બાળકની સંભાળ લેવી પડે છે. સ્ત્રીને ખુશ કરવા માટે તેને કેટલીક વાર લાજમર્યાદાનો ત્યાગ કરીને તેમાં નિંદા થાય એવા કાર્યો પણ કરવા પડે છે. પતિ પત્નીનાં અથવા બાળકનાં કપડાં ઉતાં સકેચ અનુભવે છે, પરંતુ સ્ત્રીમાં આસક્ત થયેલે પુરુષ એવું કામ કરતાં પણ સંકોચ અનુભવતું નથી. તે ધબીની માફક ી અને પુત્રનાં મેલાં કપડાં પણ ઈ નાખે છે. એટલે કે જેમ બી ગમે તેવા અધમ પુરુષનાં ગંદા કપડાં ઘેઈ આપે છે, એજ પ્રમાણે સીને અધીન થયેલે પુરુષ તેને ખુશ કરવાને માટે તેને તથા તેના પુત્રનાં ગંદા કપડાં પણ ધોઈ આપતાં લજજા અનુભવતે નથી. સ્ત્રીને વશ થયેલે પુરુષ સ્ત્રીએ સેંપેલું અધમમાં અધમ કાર્ય પણ કરતા शरभात नथी. ॥१७॥ આ પ્રકારનાં કાર્યો કરનારને કે ગણી શકાય, તે સૂત્રકાર પ્રકટ કરે २०४० For Private And Personal Use Only Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -- - सूत्रकृताङ्गसूत्रे अन्वयार्य- (एवं) एवम् (बहुडिं) बहुमिः (कय पुष्य) कृतपूर्वम्-पूर्व कृतम् , (ज) ये पुरुषार (भोगत्थाए) भोगार्थाय (अभियावन्ना) अभ्यापन्ना:-सावधकार्ये परायणाः (से) सः (दासे मिइव) दासो मृग इव (पेसे वा) मेष्य इव (पशुभूते व) पशुभूत इव-पशुसमान: (ण वा केइ) न वा कश्चित् सधिमः स इत्यर्थः॥१८॥ टीका-एवमित्यादि । एवं' एवम्-पुत्रपौषगलालनपालनादिकार्य 'बहुर्हि' बहुभिरनेकैः पुरुषैः संसारासक्तान्तःकरणैः 'कयपुर' कृर्वम्-पूस्मिन् काले दिखलाते हैं-'एवं बहुहिं' ' शब्दार्थ--एवं-एवम्' इसी प्रकार 'यहूहि-यहुभिः' बहुत लोगों ने 'कयपुवं-कृतपूर्वम्' पहले किया है 'जे-2' जो पुरुष भोगत्थाए-भोगा. थाय भोग के लिये 'अभियावन्ना-अभ्यापना' सावध कार्यों में आसक्त थे जो रागांध होते हैं। 'से-मः' वे 'दासे मिाव-दास दालो मृग इव' दास मृग और 'पेसे वो-प्रेष्य इव' प्रेष्य के जैमा 'पसुभूतेव-पशु. भूत इव' और पशु के तुल्य है अथवा 'ण वा केइ-न वा कश्चित् वे कुछ भी नहीं हैं अर्थात् सर्वाधम हैं ॥१८॥ " अन्वयार्थ--ऐसा बहुतों ने पहले किया है। जो पुरुष भोगों के लिए सावध कर्मों में तत्पर हैं, वे दास और मृग के समान हैं. नौकर के समान है, पशु के समान हैं । उनसे अधिक अधम अन्य कोई नहीं है ॥१८॥ टीकार्थ-जिनका चित्त संसार में आसक्त है ऐसे अनेक पुरुषों ने पूर्वोक्त पुत्र को लालन पालन आदि कार्य पहले भी किये हैं। कई वर्तमान काल छ-"एवं बहुहि' त्या- शहाथ-एवं-एवम्' मे प्रमाणे 'बहुहि-बहुभिः' 4g and 'क्यपुम्व-कृतपूर्वम्' ५36i युछे. 'जे-येरे पु२५ ‘भोगत्थाए-भोगार्थाय' नागा भाट 'अभियावन्ना-अभ्यापन्नाः' साप आयोमा भासत डोय छे, तमामे मेम ४यु छ २ २ डाय छ, 'से-सः' तमे'दासे मिइवदासमृगाविव' स भृग भने 'पेसे वा-प्रेष्य इव' प्रेक्ष्यनी म 'पसुभूतेव-पशुभूत इव' ५शुनी समान छ. अथवा 'ण वा केई-नवा कश्चित्' तसा પણ નથી અર્થાત્ સર્વથી અધમ જ છે. ૧૮ સૂવા–એવા અધમમાં અધમ કૃત્યે સ્ત્રીને વશવર્તી બનેલા અનેક પુરુષ પહેલાં કર્યા છે. જે લેકો ભેગેની અભિલાષાથી પ્રેરાઈને સાવધ કર્મોમાં પ્રવૃત્ત હોય છે, જે રાગધ હેય છે, તેને દાસ અને મૃગના સમાન છે. તેમને નોકર અને પશુસમાન કહી શકાય છે. તેમના કરતાં અધિક અધમ બીજે કઈ હોઈ શકે જ નહીં ૧૮ ટીકાઈ–જેમનું ચિત્ત સંસારમાં આસક્ત હોય છે એવા પુરુષોએ પુત્રનું લાલનપાલન આદિ પૂર્વોક્ત કાર્યો કર્યા છે, વર્તમાનમાં કરે છે અને ભવિષ્યમાં For Private And Personal Use Only Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ४ उ. २ स्खलि चारित्रस्य कमबन्धनि०३१५ एतादृशं कर्म कृतम् . कियते करिष्यते च ऽधुना पश्चाद्वा कशम्भूतास्ते ? तत्राह'भोगत्थाए' भोगार्थाय-भोगकृते-कामभोगार्थिनामै हिकामुमिकापायमपालोच्य 'जेऽभियावन्ना येऽभ्यापन्नाः, अभि-आभिमुख्येन-भोगानुकूल्येन आपन्ना, व्यवस्थिताः सावधकर्माऽनुष्ठाने प्रतिपन्ना गृद्धि मावमुपगतास्ते पूर्व कृति इति तथा सम्मति कालेऽपि ये रामान्धाः पुरुषास्ते 'दासे मिइ व पेसे वा' दासो मृग इव प्रेष्य इस वा सावध कर्मानुष्ठानेऽपि स्त्रीपशीकृताः पुरुषाः गमनागमनरूपनियोज्यकर्मणि नियोजिता दासद्भवंति। तथा-पाश्बद्धा मृगा इत्र परवशा भवन्ति-स्त्रीवशा भवन्ति । भोजनादिक्रियाकलापमपि कत्तु न लभन्ते । कदाचिच क्रयक्रीतदासवत् मेष्याः सन्तः पर्चःशोधनादिक्रियायमपि नियोनिता भवति । स्त्रीवशीभूतः पुरुषः 'पसुभूतेव' पशुभूत इय, विवेकाऽभावेन हिताहितकर्मणि पेशु माय इच भवति । अथवा 'से नवा केई' सन वा कश्चित्-स्त्रीपरवशः पुरुषो दासमृग-पशु-प्रेष्येभ्योऽपि जघन्यत्वात् न कश्चिन् । सोऽधमत्वात् तस्य सदशाः में कर रहे हैं और करेंगे भी। जो कामभोग के अभिलाषी हैं जो इस लोक संबंधी और परलोक संबंधी दुःखों का विचार न करके कामभोगी के अनुकूल ही प्रवृत्ति करते हैं, वे सावध कर्मों का अनुष्ठान करते हैं। उन्हों ने ऐसा किया है, संपति कालमें भी जो रागान्ध हैं वे दास एवं मृग के समान होते हैं-वे स्त्री. रा. गान्ध पुरुष गमन आगमन आदि कार्यों में दास के समान नियुक्त किये जाते हैं। वे पाशषद्ध मृगों के समान पराधीन हो जाते हैं। शान्ति के साथ भोजन आदि क्रिया भी नहीं कर पाते। कभी कभी तो खरीदे हुए दास के समान वे मल शुद्धि के काम में भी नियोजित किये जाते हैं। उनका हिताहित का विवेक नष्ट हो जाता है, अतएव पशु के साथ उनकी तुलना की जा सकती है। अथवा स्त्री के अधीन પણ કરશે. કે જે છે કામગ માં આસક્ત છે, હમણાં પણ જેઓ આલેક અને પરલેકનાં દુઃખને વિચાર કર્યા વિને કામ ગેમાં લીન રહે છે. તેઓ સાવદ્ય કર્મોનું જ સેવન કર્યા કરે છે. એટલું જ નહીં પણ તે છે દ સ અને મૃગના જેવાં હોય છે. સ્ત્રીમાં આસક્ત થયેલા તે પુરુષ સ્ત્રીની ગમે તે પ્રકારની આજ્ઞાનું પાલન કરતા હોય છે, તેથી તેમને દાસસમાન કહ્યા છે. તેમની દશા જાળમાં ફસાયેલા મૃગ જેવી હોય છે. તે છે એટલા બધા પરાધીન બની ગયા હોય છે કે તેમને શારિતથી ખાવાનું કે શયન કરવાનું પણ મળતું નથી. કેઈ કઈ વાર તે ખરીદેલા દસની જેમ કપડાં ધોવા આદિ મળશુદ્ધિનું કામ પણ તેમની પાસે કરાવવામાં આવે છે. તેમની વિવેકબુદ્ધિ નષ્ટ થઈ ગઈ હોય છે, તેથી તેમને પથસમાન કહેવામાં આવ્યા છે. અથવા સ્ત્રીને અધીન થયેલા પુરુષ For Private And Personal Use Only Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir C सूत्रकृताङ्गसूत्रे केऽपि न संति यैः सह तेषामौपम्यं भवेत् । यद्वा तेन केचित् उभयपरिभ्रष्टत्वात् । सावधकर्मानुष्ठानात् न साधवः, ताम्बूलादिपरिभोगरहितत्वात् न गृह'स्थाः । अथवा-नेमे ऐहिककर्मानुष्ठायिनः न वा पारलौकिककर्मणां संपादयितारः । इतस्ततो द्विघावोsपि भ्रष्टा एव ते इति भावः ॥ १८॥ सम्मति उपसंहारद्वारेण स्त्रीसंबन्धस्। परिहाराय आह सूत्रकारः'एव' मित्यादि । मूलम् - एवं खु तासु विन्नप्पं संथैवं संत्रासं च वज्जेंना । तजीतिया इमे कामा वजकेरा य एंवमक्खाए ॥ १९ ॥ पुरुष दास, मृग और पशु से भी गया बीता होने के कारण अपदार्थ जाता है। सब से अधम होने के कारण किसी को भी उसके समान नहीं कहा जा सकता । अतएव उसकी उपमा ही नहीं है । या वास्तव में वे कुछ भी नहीं हैं, क्योंकि दोनों तरफ से भ्रष्ट हैं । सावध व्यापार करने से साधु नहीं हैं और ताम्बूल आदि का उपभोग न करने के कारण गृहस्थ भी नहीं है, अथवा न वे इस लोकसंबंधी कर्म करने वाले हैं और न परलौकिक अनुष्ठान ही करने वाले हैं। इस प्रकार वे कुछ भी नहीं है अर्थात् उनकी इतो भ्रष्टः ततो भ्रष्ट जैसी गति होती है ॥ १८ ॥ દાસ, મૃગ અને પશુ કરતાં પણુ અધમ દશાના અનુભવ કરતા હોય છે તેએ એવાં સત્ત્વહીન બની ગયા હોય છે કે તેમનુ' પેાતાનુ સ્વતંત્ર અસ્તિત્વ જ જાણે ગુમાવી બેઠા હૈાય છે. તેએ સઘળો વસ્તુએ કરતાં અધમ હોવાને કારણે કાઈ પણ વસ્તુને તેમના સમાન કહી શકાય નહી. તેથી તેમને કઈ પણ વસ્તુની ઉપમા આપી શકાય નહી. ખરી રીતે તે તે પદાર્થ રૂપ જ-સ્વતંત્ર અસ્તિત્વ રહિત જ-લાગે છે, તેએ સાવદ્ય કર્મોમાં પ્રવૃત્ત રહેવાને કારણે સધુ પશુ નથી અને તાંબૂલ આદિને ઉપલેગ ન કરવાથી તેઓ ગૃહસ્થ પણ નથી. આ રીતે ‘નહી ઘરના કે નહી. ઘ!ટના' જેવી તેમની દશા છે. અથવા તેઓ આ લેાક સ`ખ'ધી કમ' કરનારા પણ નથી અને પરલાક સંબંધી અનુષ્ઠાન કરનારા પશુ નથી. આ પ્રકારે તેએ સ‘સારી પણ નથી અને સાધુ પણ નથી. અર્થાત્ એવા પુરૂષા અતે ભ્રષ્ટ તતે ભ્રષ્ટ-ગૃહસ્થ અને साधुषांनी वन्यमा ४ लट हे ॥१८॥ For Private And Personal Use Only Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ४ उ.२ स्खलितचारित्रस्य कर्मबन्धनि. ३१७ छाया-एवं खलु तासु विज्ञप्तं संस्तवं संवासं च वर्जयेत् । - तजातिका इमे कामाः अवधकरा चैवमाख्याताः ॥१९॥ अन्वयार्थः-(तासु) तातु स्त्रीषु (एवं खु विन्नप्प) एवं खलु उक्तमकारेण विज्ञप्तं कथितर (संथवं संघास च वाजेन्ना) संस्सव संवासं च वर्जयेत् , संस्तवं स्त्रीगो परिचयं स्त्रीभिः सहैकत्रवास वा परिहरेत् एवं कथितमिति, किमर्थं परिचयं-सहवासं त्यजेत्तत्राह-(तज्जातिया इमे कामा) तज्जातिका इमे कामाः-इमे कामाः शब्दादयः तज्जातीयाः स्त्रीभ्यः समुत्पन्नाः (वज्जकरा य एवमक्खाए) अपधाराः नरकनिगोदादिकारणभूतपापोत्पादका पत्र उक्तरूपेण आख्याता कथिताः तीर्थकरैरिति ॥१९॥ ___ अब सूत्रकार उसंहार द्वारा स्त्रीसम्बन्ध का परिहार करने के लिए कहते हैं-'एवं' इत्यादि। शब्दार्थ--'ताप्लु-तासु' स्त्रियों के विषय में एवं खु विषय-एवं खलु विज्ञत' इसी प्रकार का कथन किया है 'संथवं संबसं च वज्जेउजासंस्तवं संवासं च वर्जयेत् । इस कारण साधु स्त्रियों के साथ परिचय और सहवास वर्जित करे 'तजातिया इमे कामा-तजातिकाः इमे कामाः' स्त्री के संसर्ग से उत्पन्न होने वाला शब्दादि काम भोग 'वज्जकरा य एवमक्खाए-अवधकरा एवमाख्याता:' पाप को उत्पन्न करता है ऐसा तीर्थंकरो ने कहा है ॥१९॥ ___ अन्वयार्थ-इस प्रकार स्त्रियों के विषय में पूर्वकथित परिचय का स्याग करना चाहिए। उनके साथ निवास भी नहीं करना चाहिये । क्योंकि ये काम स्त्री जातीय हैं अर्थात् स्त्रियों से ही उत्पन्न होते हैं, 1 હવે સૂત્રકાર આ ઉદ્દેશકનો ઉપસંહાર કરતા સ્ત્રીસંપર્કને પત્યિાગ ४२वान पहेश मा छे-‘एवं' या6-- Aval -'तासु-तासु' सिमाना सम एवं खु विन्नप्पं-एवं खलु विज्ञप्त' २५ प्रमाणे नु. ४५१ ४२३ छे. 'संथवं संवासं च वजेज्जा-संस्तवं संवासं. च धर्जयत्' मा सरथी साधु मे स्त्रियांनी सायना परिचय भने सपासना त्या ३२वी. ४६२२ तज्जातिया इमे कामा-जनातिकाः इमे कामाः स्वीना AAnal 64-1 थवावाणा शvale भने 'वज्ज करा य एवमाखाए-अवद्यकरा एषमाख्याताः ' ५५२ ५-- ४२ छ. थेप्रमाणे तीर्थ शेये घुछ, ॥१६॥ સૂત્રાર્થ-આ પ્રકારે પ્રસંગના પૂર્વોક્ત પરિણામોને વિચાર કરીને સાધુએ સ્ત્રીઓને પરિચય રાખવું જોઈએ નહીં, તેમની સાથે નિવાસ પણ For Private And Personal Use Only Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir RRORIES सूत्रकृताङ्गसूत्र ___टीका-(तासु) तासु-स्त्रीषु 'एवं' एवमुक्तपकारेण 'विन्नप्पं विज्ञप्त-कथितम् । हे प्रिय ! केशिकया मया सह कामक्रीडां न कुरुषे ततो लोचं करिष्यामीत्यादिकम् । तथा 'संथवं संमसं य बज्जेज्जा' संस्तवं संवासं च वर्जयेत्-संस्तवं परिचयम् , संवास स्त्रिभिः सह वसतिम्, स्वात्महितार्थी वर्जयेत् । आत्महितार्थिना पापभीरुणा स्त्रीणां परिचयः, ताभिः सह कत्र निवासश्च सर्वथैव त्याज्यः, यतः 'तज्जातिया' तज्जातिका:ततः स्त्रीसंपर्कात् जायमानाः स्त्रीमिः जातिः उत्पत्तिः येषां ते तजातिकाः । काम्यन्ते इति कामाः-शब्दादिकामभोगाः 'वज्जकरा' अवधकरा-अवयं-पापं तव कुर्वन्ति इति अवधकराः नरकनिगोददुर्गतिनिपातहेतुभूतपापोत्पादका इति । नरक निगोद आदि के जनक पाप को उत्पन्न करते हैं। ऐसा तीर्थकरोंने कहा है ॥१९॥ टीकार्थ--पूर्वोक्त प्रकार से कहे हुए स्त्रीपरिचय का तथा संबास का त्याग करना चाहिए। तात्पर्य यह है कि-'हे प्रिय ! मुझ सकेशी के साथ यदि रमण न करोगे तो मैं लोच कर लूंगी' यहां से प्रारंभ करके जो कथन किया गया है, इसे समझ कर आत्महितैषी साधु को स्त्री के साथ किसी प्रकार का परिचय या सहवास नहीं करना चाहिये, इसका कारण यह है कि कामभोग तज्जातीय हैं अर्थात् स्त्री के सम्पर्क से उत्पन्न होते हैं और वे नरक निगोह आदि दुर्गतियों में गिरानेवाले કરવો જોઈએ નહીં, કારણ કે આ કામગોનું મૂળ સ્ત્રીઓ જ છે. આ કામગ નરક, નિગદ આદિ દુર્ગતિઓમાં લઈ જનારાં પાપકર્મોના જનક छ, मेनु ती शये युछ ॥१६॥ આગલાં સૂવેમાં સ્ત્રી પરિચય અને સ્ત્રી સંવાયના પરિણામોનું નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું છે. આ લેક અને પરલોકમાં જીવન અનેક રીતે અકલ્યાણ કરનારા તે સ્ત્રીસંપર્ક સાધુએ પરિત્યાગ કર જોઈએ. આ ઉદ્દેશકમાં જો તમે મારી સાથે રમણ નહીં કરે, તે હું પણ મારા આ સુંદર કેશે હુંચન કરી નાખીશ” આ સૂત્રથી શરૂ કરીને ૧૮ માં સૂત્રપર્ણતના સૂત્રોમાં સહવાસના જે દુઃખદ પરિણામે બતાવવામાં આવ્યાં છે, તે પરિણામે વિચાર કરીને આત્મહિત સાધવાની અભિલાષાવાળા સાધુએ સ્ત્રીઓના પરિચથને અથવા સ્ત્રી સહવાસને સંપૂર્ણપણે ત્યાગ કર જોઈએ. શા માટે સ્ત્રી પરિ અને ત્યાગ કરવાનું કહ્યું છે? સ્ત્રીના સંપર્કથી માણસ કામગમાં આસક્ત થાય છે. કામોમાં આસક્ત થયેલે પુરુષ એવાં પાપકર્મોનું સેવન કરે છે કે તે પાપકર્મોને કારણે તેને નરક, નિગોદ આદિ દુર્ગતિમાં જ For Private And Personal Use Only Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ४ उ. २ स्खलितचारित्रस्य कर्मबन्धनि० ३१९ 'एवमक्खाए' एवं-एवं हेयतया स्त्रीसंस्तवादयः आख्याताः-कथिताः तीर्थकरादिभिः, स्त्रीसमुद्भवकामाः पापजनका एव तीर्थकरादिमिरुपदिष्टाः । ततः पापोस्पादकत्रीसंस्तवादिकं न कुर्यात् , किन्तु ततः सर्वथैवोपरतो भवेदिति भावः।।१९।। सर्वमुपसंहरनाह–‘एवं भयं' इत्यादि। मूलम्-एवं भयं ण सेयाय इई से अप्पैगं निरूभित्ता। __णो इत्थिणोपसुंभिक्खू णो सयपाणिणाणिलिजेजा॥२०॥ छाया--एवं भयं न श्रेयसे इति स आत्मानं निरुध्य। नो स्त्रीं नो वा पशुं भिक्षुनों स्वकपागिना निलीयेत ॥२०॥ पापों के जनक होते हैं। इस प्रकार ये स्त्रीसंस्तव आदि तीर्थ करों आदि ने हेयरूप में कहे हैं । आशय यह है कि पापजनक स्त्री परिचय न करे परन्तु उस से सर्वथा ही विरत रहे ॥१९॥ सब का उपसंहार करते हुए सूत्रकार कहते हैं-'एवं भयं' इत्यादि। शब्दार्थ--'भिक्खू-भिक्षु' साधु 'एवं भयं ण सेयाय-एवं भयं न श्रेयसे' स्त्री के साथ संसर्ग करने से पूर्वोक्त भय होता है तथा वह कल्याणप्रद नहीं होता है 'इइ से अप्पर्ग निरुभित्ता-इति सः आत्मानं निरुध्य' इस कारण साधु अपने को स्त्रीसंसर्ग से रोककर 'जो इस्थिनो स्त्रियम्' न स्त्री को 'जो पसुं-नो पशुम्' न स्त्रीजातीय पशु को 'सय पाणिणा णिलिज्जेज्जा-स्वकपाणिना निलीयेत' अपने हाथ से स्पर्श न करे अर्थात् स्त्री एवं पशु को हाथ से न छुए ॥२०॥ પડે છે. આ રીતે “નારી જ નરકની ખાણ છે. તેથી જ સ્ત્રીસહવાસને હેય ગણીને તેને ત્યાગ કરવાને તીર્થંકરાદિએ ઉપદેશ આપે છે તેથી આત્મહિત ચાહતા સાધુએ પાપજનક સ્ત્રીપરિચયને સર્વથા ત્યાગ કર જોઈએ ૧૯ આ સમસ્ત કથનને ઉપસંહાર કરતા સૂત્રકાર કહે છે કે'एवं भयं' त्याह vil-'भिक्खू-भिक्षुः' साधु 'एवं भयं ण सेयाय-एवं भयं न श्रेयसे' સ્ત્રિઓની સાથે સંસમાં રાખવાથી પૂર્વોક્ત ભય થાય છે, તથા તે કલ્યાણપ્રદ नी. 'इइ से अप्पग निलंभित्ता-इति सः आत्मानं निरुध्य' तथा साधु पाताने श्री साथी २७ णो इन्थि-नो स्त्रियम्' न खीर ‘णो पसु-नो पशुम्' नीति ना ५शुने 'मयं पाणिणा गिलिज्जेज्जा-खकपाणिना निलीयेत' પિતાના હાથથી સ્પર્શ કરે અથાત્ સ્ત્રી અને પશુને હાથથી સ્પર્શ ન કરે મારા For Private And Personal Use Only Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३२०.. सकृतास्त्रे अन्वयाः -(मिक्खू) भिक्षुः (एवं भयं न सेया) एवं भयं न श्रेश्से-स्त्री. संगण पूर्वोक्तभयं भवति अतः स्त्रीसंपों न श्रेयसे. (इइ से अपगं निमित्ता) इति सः साधुरात्मानं निरुध्य (णो इत्यि) नो स्त्रियम् (नो पसुं) नो पशुम् (मयं. पाणिना णिलिज्जेज्जा) स्वकीयपाणिना न निलीयेत न स्पर्श कुर्यादिति ॥२०॥ ___टोका-'एवं भयं' एवं भयम्-एवं पूक्तम् स्रोपरिचपादिकं भयम् , भयस्य नरकादिपातस्य कारणम् । इति स्त्रिया सह संबन्धो न ‘सेशय' श्रेषसे कल्पाणाय भवति, असदनुष्ठानकारगत्वात् । 'इइ से' इति सः एवं स भिक्षुः मनसा पलांच्य 'अप्पगं' आत्मानम् 'निलंमित्ता' निरुध्य व संपर्मनिरुद्धथ, सन्मार्गे सम्यक स्थापयित्वा, ज्ञपरिज्ञया ज्ञात्वा प्रत्याख्मानपरिज्ञया ‘णो इत्थि' न स्त्रियम् 'यो पसुं न वा पशुं स्त्रीजातीयं चतुष्पदादिकम् 'सय गणिणा' स्व. ____ अन्वयार्थ--स्त्रो के सम्पर्क से उत्पन्न होनेवाला पूजेत भय आत्मा के लिए श्रेयस्कर नहीं है । अतएव साधु अपनी आत्मा का संगोपन करके अपने हाथसे न स्त्री का स्पर्श करे और न स्त्री जातीय पशुका स्पर्श करे ॥२०॥ टीकार्थ-पूर्वोक्त स्त्रीपरिचय आदि रूप भय नरकनिपात आदिका कारण होता है । अतएव स्त्री के साथ सम्बन्ध रखना श्रेय के लिए नहीं होता। वह असत् अनुष्ठान का कारण है। इस प्रकार साधु विचार करके और अपनी आत्मा का निरोध करके-आत्मसंयमन करके और आत्मा को सन्मार्ग में स्थापित करके, ज्ञपरिज्ञा से जानकर और प्रत्याख्यान परिज्ञा से त्याग कर, न स्वीका स्पर्श करे और न पशुका । સૂવા–અને સંપર્કથી જનિત પૂર્વોક્ત પરિણામે આત્માને માટે હિતાવહ નથી, પરંતુ ભયાવહ જ છે. તેથી સાધુએ પિતાના આત્માનું સંગપન (નિરોધ) કરવું જોઈએ. તેણે પિતાના હાથથી સ્ત્રીને સ્પર્શ પણ કરે નહીં અને સ્ત્રી જાતિ પશુને સ્પર્શ પણ કરે નહીં. સારા ટીકાથ–-પૂર્વોક્ત સ્ત્રી પરિચય આદિ નરક દુર્ગતિઓનું કારણ બને છે, તેથી તેને આત્માને માટે ભયપ્રદ કહ્યા છે. સ્ત્રીઓની સાથે સંબંધ પાપ કર્મોમાં કારણભૂત બને છે અને આત્મહિતને ઘાતક થઈ પડે છે આ પ્રકારને વિચાર કરીને આત્માને નિરોધ કરીને આત્માને સંયમમાં રાખવું જોઈએ. શ્રી સં૫ર્ક આત્માનું અહિત કરનારે છે, એવું પરિજ્ઞાથી જાણીને પ્રત્યાખ્યાન પરિજ્ઞાથી તેને ત્યાગ કરીને આમને સમાગે વાળ જોઈએ. આમહિત ચાહતા સાધુએ સ્ત્રીના સ્પશને પરિત્યાગ કરવે જોઈએ For Private And Personal Use Only Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ४ उ.२ स्खलितचारित्रस्य कर्मबन्धनि । कपाणिना स्वकीयहस्तेन 'यो णि लज्जेज्जा' न निलीयेस, मिक्षुः स्वहस्तेन स्त्रियं पशुं वा न कदाचिदपि स्पृशेदिति धातू नामनेकार्थत्वात् इति शरिणा इदानीं साधुभिर्यत्कर्त्तव्यं तदुपदिशति-'मुविसद्ध' इत्यादि। मूलम्-सुविसुद्धलेसे मेहावी परकिरियं च वजए नाणी। मणसा वचसा कायेणं सवफासलहे अणगारे॥२१॥ छाया--सुविशुदलेश्यो मेधावी परकियां च वर्जयेद् ज्ञानी। मनसा वनमा कायेन सर्वस्पर्शसहोऽनगारः ॥२१॥ अन्वयार्थ:---(नाणी) ज्ञानी (मुविसुद्धले से। सुबिशुदलेश्यः (मेहावी) मेधावी (परकिरियं वज्जए) पर क्रिया-परिचर्यादिकं वर्जयेत् (मणसा वचसा कायेणे) तात्पर्य यह है कि मनुष्य स्त्री के साथ अथवा पशु स्त्रीके साथ मुनि सर्वथा ही संवाम गा स्याग कर दे। अपने हाथ से स्त्री को अथवा पशुको कदापि स्पर्श न करे। ॥२०॥ शब्दार्थ-'नाणी-ज्ञानी' ज्ञानीजन 'सुविसुद्धलेसे-सुविशुद्धलेश्या सुविशुद्धलेश्या वाला और 'मेहावी-मेधावी' मर्यादा में स्थित होकर 'परकिरियं बज्जए-परक्रियां वर्जयेत् अन्य की क्रिया स्त्री, पुत्र पशु के परिचर्यादि का त्याग करे 'मणसा वचसा कायेणं-मनसा वचस कायेन' मन वचन और काय से ये सवफाससहे अणगारे-सर्वस्पर्शसहोऽनगार' शीत, उष्ण आदि सप समर्शों को सहन करता है वही अनगार-साधु है ॥२१॥ अन्वयार्थ--ज्ञानवान् अत्यन्त विशुद्ध लेश्यावाला और मेधावी साधु परक्रिया अर्थात दूसरे के लिये की जानेवाली परिचर्या आदिका તાત્પર્ય એ છે કે મુનિએ મનુષ્ય સ્ત્રી અથવા પશુ સ્ત્રીના સહવાસ આદિને સર્વથાત્યાગ કરવો જોઈએ. તેણે પોતાના હાથ વડે સ્ત્રી અથવા પશુને કદી સ્પર્શ કરવું જોઈએ. નહીં. પારો साथ --'नाणी-ज्ञानी' ज्ञानी ५३५ 'सुविसुद्धलेसे-सुविशुद्धलेश्यः' सुवि. शुद्धबेश्यावाणा भने 'मेहावी-मेधावी' भर्याहामा लीन 'परकिरियं वज्जएपरक्रियां वर्जयेत्' मन्यन या-श्री, पुत्रनी सेवाहिना त्याग 'मणमा वयसा कायेणं-मनसा वचसा कायेन' मन, वयन भने यथा 'सव्वफाससहे अणगारे-सर्व स्पर्शमहोऽनगारः' शात GP मा २५नि सहन रे छे, मेरा मना२ साधु छ. ॥२१॥ સૂત્રાર્થ– જ્ઞાનવાન, અત્યંત વિશુદ્ધ વેશ્યાવાળા અને મેધાવી સાધુએ પરક્રિયાને (અન્યની કરતી પરિચય આદિને મનવચનકાયથી ત્યાગ કરવા सू० ४१ For Private And Personal Use Only Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३२२ सुत्रकृताङ्गसूत्रे मनसा वचसा कायेन (सम्बफासस हे अणगारे) सर्वस्पर्शस होनगारो भवतीवि स्त्रीपरिषहविजेता सर्वपरिषहजेताऽनगारो भवतीति ॥ २१ ॥ - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टीका- 'सुनिसृद्धले से' सुविशुद्धलेश्यः सुविशेषेण विशुद्रास्त्र्यादि संपर्कराहित्येन निष्कलंका लेग्या अतःकरणवृत्तिर्यस्य स सुविशुद्रलेश्यः, 'मेहावी' मेघावी - मर्यादावर्त्ती साधुः, 'परकिरियं' पर क्रियां परस्मै स्त्रीपशुपुत्रादिभ्यः क्रिया इति परक्रिया, ताक परक्रियाम् 'नाणी' ज्ञानी - शास्त्रगुरु सेवादिकरणात् विदितवेद्यः 'वज्जए' वर्जयेत् परिहरेत् । कदाचिदपि परक्रियां न कुर्यात् । 1 मनवचन काय से स्वाग करे | सर्व स्पर्शो को सहन करनेवाला ही अनगार कहलाता है । जो अनगार परिषह स्त्री का विजेना होता है, यह समस्त परीषहों का विजेता होता है ॥२१॥ टीकार्थ-साधुओं का जो कर्तव्य है अब उसका उपदेश करते हैंजिसकी वेश्या अर्थात् अन्तःकरण की वृत्ति स्त्रीसम्पर्क आदि से रहित होने के कारण अत्यन्त विशुद्ध निर्मल है, जो मेधावी अर्थात् शास्त्रीय मर्यादा में स्थित है और जो ज्ञानी है अर्थात् जिसने शास्त्र एवं गुरु के सेवन आदि द्वारा जानने योग्य तत्त्व को जान लिया है, ऐसा साधु परक्रिया न करे। विषयोपभोग या आरम्भ आदि करके दूसरे के उपकार के लिये की जानेवाली अथवा दूसरे के द्वारा अपने लिए कराई जानेवाली मर्दन आदि किया परक्रिया कहलाती है साधु ऐसी परक्रिया कदापि न करे । જોઈ એ. ગમે તે પ્રકારના સ્પર્ધાને (પરીષહેાને) સહન કરનારને જ અણુગાર કહેવાય છે. જે અણગાર પરીષદ્ધને જીતી શકે છે, તે સમસ્ત પરીષહાને પશુ જીતી શકે છે. ૨૧ા ટીકા-સૂત્રકાર સાધુએનુ' જે કતવ્ય છે, તે પ્રકટ કરે—સ્રીસ પક આદિથી રહિત હાવાને કારણે જેની લેફ્સા (અન્તઃકરણની વૃત્તિ ) અત્યન્ત विशुद्ध (निर्माण) थे, ने मेधावी - शास्त्रीय मर्यादाम स्थित छे मने ने ज्ञानी છે, એટલે કે જેણે શસ્રાના અધ્યયન દ્વારા અને ગુરુસેવા આદિ દ્વારા જાણવા ચે!ગ્ય તત્ત્વને જાણી લીધું છે, એવા સાધુએ પરક્રિયા કરવી જોઇએ નહીં. વિષયાપભેગ અથવા આરભ આદિ કરીને બીજાના પર ઉપકાર કરવાને માટે જે ક્રિયા કરવામાં આવે છે તેને પ્રક્રિયા કહે છે. અથવા ખીજા લેાકા દ્વારા જે ચરણચોંપી, મન આદિ પરિચર્યાં કરાવવામાં આવે છે. તેને પરક્રિયા કહે છે. સાધુએ એવી પક્રિયા કદાપિ કરવી જોઈએ નહી, For Private And Personal Use Only Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका पं. धु. म. ४ उ. २ स्खलितचारित्रस्य कर्मबन्धनि, ३२३ अयं भावः - विषयोपभोगादिना नाऽन्येषाम् उपकारं कुर्यान्न वाऽन्येन स्वस्योपकारं कारयेत् । एतादृशीं परक्रियां मनसा ववसा कायेन परिहरेत् । औदारिकादिकामभोगार्थं मनसा न गच्छति, गमयति नान्यम् । न वा गच्छन्तं क्रमप्यनु जानीते, सर्वथैव ब्रह्मचर्यधारणं कुर्यात् । 'सव्वकास सहे अणगारे' यथा स्त्री स्पर्शपरीषदः सोढव्यस्तथाऽन्यान् । सर्वानपि शीतोष्णदंशमशक तृणादिस्पर्शान् अधिस हेत । एवं च सर्वस्पर्श सहनी अनगारः साधुर्भवतीति ॥२१॥ केनेत्यते यत् सर्वस्पर्श सहोऽनगारः साधु मंत्रवीति तत्रोच्यते सूत्रकारेण'३वेवमाहु' इत्यादि । मूलम् - इच्छेवमाहु से वीरे धूयरेए धूयेमोहे से भिक्खू । तम्हा अज्झत्थविसुद्ध सुर्विमुके आमोक्खा ए परिवए जासि ॥त्तिबेमि ॥ २२॥ अभिप्राय यह है विषयोपभोग आदिके द्वारा न तो दूसरे का उप कार करे और न दूसरे से अपना उपकार करवाए। इस परक्रिया का मन वचन और काय से स्पाग करे। औदारिक आदि शरीर संबंधी कामभोगों के लिए मन से गमन न करे, दूसरे को गमन न करवाए और न गमन करनेवाले किसी का अनुमोदन करे । पूर्णरूप से ब्रह्मचर्य को धारण करे । सच्चामुनि वही होता है जो अनुकूल, प्रतिकूल, दैविक, मानवीय और तैरश्चिक आदि सभी उपसर्गों को सहन करता है एवं शीतोष्ण दंशमशक और तृणस्पर्श आदि को सहन करता है ॥२१॥ આ કથનના ભાવાથ એ છે કે સાધુએ વિષયેાપભાગ આદિ દ્વારા અન્યના ઉપકાર કરવા જોઈએ નહીં અને ખીજા લેાકેા દ્વારા એ રીતે સાધુની એ પરિચર્યાં કરાતી હાય, તેા એવી પરિચર્યા થવા દેવી જોઈ એ નહી. આ પ્રકા રની પરક્રિયા (પરિચર્યા)ને તેણે મન, વચન અને કાયાથી ત્યાગ કરવા જોઈ એ. ઔદારિક આદિ શરીર સ`બધી કામલેગામાં મનને પ્રવૃત્ત થવા દૈવુ નહીં', ખીજાના મનને તેમાં પ્રવૃત્ત કરાવવું નહી' અને કામલેગામાં પ્રવૃત્ત થનારની અનુમાદના પણ કરવી નહીં. તેણે પૂર્ણ રૂપે બ્રહ્મણ્ય પાળવુ ોઇએ. સાચા અણુગાર તો તેને જ કહી શકાય કે જે દેવકૃત, મનુષ્યકૃત અને તિય ચકુત, અનુકૂળ અને પ્રતિકૂળ, સમસ્ત ઉપચેગ્નેને સહન કરે છે. તેમજ For Private And Personal Use Only Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे छाया---इत्येवमाहुः स वीरः धूतरजाः धूतमोहः स भिक्षुः। तस्मादध्यात्मविशुद्धः सुविषमुक्तः आमोक्षाय परिव्रजेदिति ब्रीमि।२२। अन्वयार्थ:--(धूयरए) धृतरजाः (धूयमोहे) धूतमोहः-परित्यक्तस्त्रीमोहः (से भिक्खू) स भिक्षुः (से वीरे) स वीरो कर्द्ध पानस्वामी (इच्चेवमाहु) इत्येवमाहकथितवान् ‘तम्हा' तस्मात्कारणात (अन्झस्थविसुद्ध) अध्यात्मविशुद्धः (मुविमुक्के) सभी स्पर्शों को सहन करने वाला मुनि होता है, यह कौन कहता है ? इस पर सूत्रकार कहते हैं--'इच्चेवमाहु' इत्यादि । शब्दार्थ--'धूयरए-धूतराजाः' जिप्सने स्त्रीसंपर्क जनित रज अर्थात् कर्मों को दूर किया है और 'धूयमोहे-धूनमोहः' स्त्रीसंसर्गजनित अथवा रागद्वेषजनित मोह को जिसने दूर किया है 'से भिक्खू-स भिक्षुः' वह साधु है 'से वीरे-सः वीरः' उस वीर प्रभु ने 'इच्चेवमाहु-इत्येवमाहुः' इसी प्रकार कहा है 'तम्हा-तस्मात्' इसलिए 'अज्झत्यविसुद्धेअध्यात्मविशुद्धःनिर्मलचित्सवाला एवं 'मुविमुक्के-सुविमुक्तः स्त्रीसंसर्ग वर्जित वह माधु 'आमोक्खाए-आमोक्षाय' मोक्षप्राप्तिपर्यन्त 'परिध्वएज्जासि-परिव्रजेत्' संयम के अनुष्ठान में प्रवृत्त रहे 'त्ति बेमि-इति ब्रवीमि' ऐसा मैं कहता हूँ ॥२२। अन्वयार्थ--जिसने रज को दूर कर दिया है, मोह को त्याग दिया है, ऐसे श्री वर्द्धमान स्वामी ने इस प्रकार कहा है । अतएव विशुद्ध શીતોષ્ણ, દંશમશક અને તૃપ આદિ સ્પર્શોને પણ તે સમભાવપૂર્વક "सडन रे छे. ॥२१॥ 1 સઘળા સ્પર્શને સહન કરનારને જ મુનિ કહેવાય છે, આ પ્રકારનું ४यन अणे यु छ, ते सूत्र॥२ ७३ ५४८ ४२ छे–'इच्चे माहु' याहि शा---'धूयरए-धूतरजाः' वी स५: जनित २१ अर्थात भने १२ अर्यातभर 'धूयमोहे-धूतमोह' स्त्री स नित अथवा रागद्वेष नित भाडना त्या ये छ ‘से भिक्खु-स भिक्षुः' ते साधु छ. 'से वीरे-सः धीरः' ते वार प्रभु 'इच्वेवमाहु-इत्येवमाहुः' मा प्रमाणे धुं छे. 'तम्हातस्मात् ते २६४थी 'अज्झत्थविसुद्धे-अध्यात्मविशुद्धः' नि यित्तामा भने 'सविमुक्के -सुविमुक्तः' स्त्री स'सगथी २हित व ते साधु 'आमोक्खाए-आमो. भाय मोक्षपातिपर्यन्त 'परिव्वएज्जासि-परिव्रजेत्' सयभना अनु०:नमा प्र. तिशीस २३ तिबेमि-इति ब्रवीमि से प्रभार हुई छुः ॥२२॥ " જેણે કમરને દૂર કરી નાખી છે, જેમણે મેહને ત્યાગ કર્યો છે, એ વીતરાગ શ્રી વર્ધમાન સ્વામીએ આ પ્રમાણે કહ્યું છે. તેથી વિશુદ્ધ For Private And Personal Use Only Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ४ उ. २ स्खलितचोरित्रस्य कर्मबन्धनि० ३३५ सुविमुक्ता-रागद्वेषात्मकस्त्रीसंपर्कण रहितः (आमोक्खाए) आमोक्षाय-मोक्षपर्यन्तम् (परिवज्जासि) परिव्रजे-संयमानुष्ठानं कुर्यात् , (त्तिबेमि) इत्यहं ब्रवीमिकथयामीति ॥२२॥ टीका-'ध्यरए' धृतरना:-धूतमपनीतं रज स्त्रीपश्चादिसंपर्कजनितं मलं येन स धूतरजाः। 'धूयमोहे' धूतमोहः-धूनः अपनीतः मोहो रागद्वेषरूपो येन स धूतमोहा। 'से वीरे' स वीरः प्रभुः 'इच्चेवमाहु' इत्येवमाहु 'तम्हा' अन्झस्थविसुद्ध' यस्मात् स्त्रीसंपर्करहितो रागद्वेषविमुक्तश्च । तस्मात् अध्यात्मविशुद्धः स भिक्षुः। विशुद्ध रागद्वेषाभ्यां-रहितम् अध्यात्म अन्त:करणं यस्य सः अध्यात्मविशुदो भिक्षुः । 'मुविमुके' सुविपमुक्तः, स्यादिसंपर्करहितः। 'आमोक्खाए' आमोक्षाय-अशेषकर्मक्षयपर्यन्तम् 'परिवर' परिव्रजेत् , संयमाऽनुष्ठानेन परिव्रजेत् , संयमायोद्योगवान आत्मा वाला और रागद्वेषजनक स्त्रीसम्पर्क से रहित भिक्षु मोक्षप्राप्ति पर्यन्त संघम का अनुष्ठान करे । त्ति बेमि-ऐसा मैं कहता हूँ ॥२२॥ टीकार्थ-जिसने स्त्री पशु आदि के सम्पर्क से उत्पन्न होने वाले मल (पाप) को हटा दिया है, तथा रागद्वेष रूप मोह को नष्ट कर दिया है, उस वीर प्रभु ने इस प्रकार कहा है। इस कारण राग और से रहित अन्तःकरण वाला तथा स्त्रीसम्पर्क से रहित भिक्षु साधु तय तक संयमानुष्ठान करता रहे जब तक उसे मोक्ष प्राप्त न हो जाय । આત્માવાળા, રાગદ્વેષ જનક સ્ત્રીસંપર્કથી રહિત સાધુએ મેક્ષ સિ થાય ત્યાં सुधी सयमी माराधना ४२वी मे. 'त्ति बेमि' मे हुई१२२॥ 10--20 सी, ५२ महिना सपथी ५-1 यना। २०४ (५५) ને દૂર કરી નાખ્યું છે, જેણે રાગદ્વેષ જનિત મહને નાશ કરી નાખે છે, એવા મહાવીર પ્રભુએ આ પ્રમાણે પ્રરૂપણ કરી છે. તેથી રાગ અને દ્વેષથી જેનું અન્તઃકરણ રહિત છે અને જેણે સ્ત્રીસંપર્કને સર્વથા પરિત્યાગ કર્યો છે, એવા સાધુએ સંયમની આરાધના કર્યા કરવી જોઈએ તેણે કયાં સુધી સંયમની આરાધના કર્યા કરવી ? આ પ્રશ્નને જવાબ એ છે કે-એક્ષપ્રાપ્ત થાય ત્યાં સુધી તેણે સંયમની આરાધના કરવી જોઈએ. For Private And Personal Use Only Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतास्त्रे भवेत् । इति' अध्ययनसमाप्तिबोधकः । इत्यहं ब्रीमि, तुभ्यं वच्मि, नाहं कथयामि किन्तु भगवान् महावीरः प्रतिपादयति, तदनु तदीयवचनमेवाहं ब्रवीमि ॥२२॥ इति श्री--विश्वविख्यात नगद्वल्लभादिपदभूषितवालब्रह्मचारि--'जैनाचार्य' पूज्यश्री-घासीलालबतिविरचितायां श्री सूत्रकृतास्य "समयार्थबोधिन्यारूपाय" व्याख्यायां चतुर्थाध्ययनस्य द्वितीयोदेशकः समाप्तः ॥४-२॥ ॥ चतुर्थांध्ययनम् समाप्तं ॥ यहां 'इति' शब्द अध्ययन की समाप्ति का सूचक है। ऐसा मैं कहता हूँ। इसका आशय यह है कि भगवान महावीर ने जो प्रतिपादन किया है, उसी का मैं अनुकथन कर रहा हूँ ॥२२॥ जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजी महाराजकृत 'सूत्रकृताङ्गसूत्र' की समयार्थयोधिनी व्याख्या के चौथा अध्ययन का । दूसरा उद्देशक समाप्त ४-२॥ ॥चतुर्थ अध्ययन समाप्त॥ मडा. 'इति' ५६ ७देशी समातिनु सूय छे. 'मेहु छु' આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે ભગવાન મહાવીર જે પ્રતિપાદન કર્યું છે, તેનું હું અનુક્શન કરી રહ્યો છું, એવું સુધર્માસ્વામી જંબૂ સ્વામીને કહે છે. રિરા જૈનાચાર્ય જેનધમદિવાકર પૂજયશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ કૃત “સૂત્રકૃતાંગસૂત્રની સમયાઈધિની વ્યાખ્યાના ચેથા અધ્યયનને બીજો ઉદ્દેશક સમાપ્તi૪-રા છે ચતુર્થ અધ્યયન સમાપ્ત છે For Private And Personal Use Only Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्र. अ. ५ उ. १ नारकीयवेदनानिरूपणम् ३२७ %3 ॥अथ नरकविभक्तिनामकं पञ्चमाऽध्ययनम् ।। चतुर्थ स्त्रीपरिज्ञाध्ययनं परिसमाप्य, पञ्चमाऽध्ययनपारभते। अस्य च पूर्वैरध्ययनैः सहाऽयं सम्बन्धः-प्रथमेऽध्ययने स्वसिद्धान्तपरसिद्धान्तयो निरूपणं कृतम् । द्वितीयाऽध्ययने स्वसिद्धान्तस्य बोधः संपादनीय इत्युक्तम् । प्रतिबुद्धन जीवेनाऽनुकूलमतिकूलोपसर्गाः सोढव्याः इति तृतीयाऽध्ययने प्रतिपादितम् । तथा-संबुद्धेन पुरुषेण स्त्रीपरिषहः सम्यक् सोढव्यः इति चतुर्थाऽध्ययने प्रतिपा. दितम् । अधुना तु-उपसर्गमीरोः स्त्रीवशस्याऽवश्यमेव नरकपातो भवति, तत्र नरके नरकविभक्तिनामक पंचम अध्ययन स्त्रीपरिज्ञा नामक चतुर्थ अध्ययन को समाप्त करके पांचवाँ अध्ययन आरम्भ किया जाता है। इसका पहले अध्ययनों के साथ यह सम्बन्ध है । प्रथम अध्ययन में स्वसिद्धान्त और परसिद्धान्त का निरूपण किया गया । दूसरे में स्वसिद्धान्त का बोध प्राप्त करने की प्रेरणा की गई । बोध प्राप्त किये हुए जीव को अनुकूल और प्रतिकूल उपसर्ग सहन करना चाहिए, यह तथ्य तीसरे अध्ययन में प्रतिपादन किया गया। बोधप्राप्त पुरुष को स्त्रीपरीषह सहन करना चाहिए, यह चौथे अध्ययन में निरूपण किया गया। किन्तु जो उपसर्ग से भय खाता है और स्त्री के वश में हो जाता है, उसका अवश्य ही नरक में નરકવિભકિત નામનું પાંચમું અધ્યયન “ી પરિજ્ઞા' નામના ચોથા અધ્યયનનું વિવેચન પૂરું કરીને હવે સૂત્ર કાર પાંચમાં અધ્યયનનું વિવેચન શરૂ કરે છે. આગલા અધ્યયને સાથે આ અધ્યયનને સંબંધ આ પ્રકારને છે–પહેલા અધ્યયનમાં સ્વસિદ્ધાન્ત અને પરસિદ્ધાન્તનું નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું. બીજા અધ્યયનમાં સિદ્ધાન્તને બેધ પ્રાપ્ત કરવાની પ્રેરણા આપવામાં આવી. ત્રીજા અધ્યયનમાં એ વાતનું પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું કે જ્ઞાની પુરુષે એ (સાધુઓએ) જેમણે બેધ પ્રાપ્ત કર્યો છે એવા છએ અનુકૂળ અને પ્રતિકૂળ ઉપ સર્ગોને સહન કરવા જોઈએ જેથા અધ્યયનમાં એવું નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું છે કે સ્ત્રી પરીષહને છત ઘણે મુશ્કેલ છે. જેમણે ધર્મતત્વને જાણ્યું છે એવાં એ સ્ત્રી પરીષહ સહન કરવું જોઈએ. વળી ચોથા અધ્યયનમાં એવું પ્રતિપાદન પણ કરવામાં આવ્યું છે કે ઉપસર્ગોથી ડરી જનારા અને સ્ત્રીને For Private And Personal Use Only Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे यादृश्यो वेदनाः समुत्पद्यन्ते, ताः पश्चमाध्ययने प्रतिपाद्यन्ते। तदनेन सबन्धेनाऽऽ. यातस्य पश्चमाऽध्ययनस्प इदमादिमं सूत्रम्-'पुच्छिस्सई' इत्यादि। मूलम्-पुच्छिस्सेहं केवलियं महसि कहंभितावा णरंगा पुरत्था। अंजाणओं मेमूणि हिजाणं, कहं नुबाला नरयं उविति।१। . छापा- पृथ्वानहं के बलिकं महर्षि कथमभितापा नरकाः पुरस्तात् ।।.. अनानतो मे मुने! बूहि जानन् कथं नु वाला नरकमुपान्ति ॥१॥ निपात होता है अतएव नरक में होनेवाली वेदनाओं को इस पांचवें अध्ययन में कहते हैं । इस सम्बन्ध से प्राप्त पांचवें अध्ययन का यह प्रथम सूत्र है-'पुच्छिस्प्तह' इत्यादि । .. शब्दार्थ-- 'अहं-अहम्' मैंने (सुधर्मा स्वामीने) 'पुरस्था-पुरस्तात्' पहले 'केवलियं-केवलिनम्' केवलज्ञान वाले 'महेसिं-महर्षि' महर्षि ऐसे बर्द्धमान महावीर स्वामी को 'पुच्छिस्स-पृष्टवान्' पूछा था कि 'णरगा-नरका' रत्नप्रभादि नरक 'कहंभिताचा-कथमभितापाः' कैसे पीडा करने वाले हैं 'मुणी-हे मुने' हे भगवन् 'जाणं-जानन्' आप इसे जानते हैं अतः 'अजाण भो मे हि-अजाननो मे ब्रूहि नहीं जानने वाले मुझको आप कहें 'बाला-घालाः' अज्ञानी 'कहिं नु-कथं नु' किस प्रकार 'नरयं-नरकम्' नरक को 'उविति-उपयान्ति' प्राप्त करते हैं ॥१॥ વશ થનારા પુરુષ અવશ્ય નરકમાં જ જાય છે. નરકમાં જનાર જીવને કેવી કેવી વેદના સહન કરવી પડે છે તેનું નિરૂપણ આ પાંચમા અધ્યયનમાં કરવામાં આવ્યું છે. આગલા અધ્યયને સાથે આ પ્રકારને સંબંધ ધરાવતા पांयमा अध्ययननु ५९ सूत्र मा प्रभाये छ–'पुच्छिस्सई' त्याह- .. शा---'अह-अहम्' में (सुधा स्वामी २) 'पुरत्था पुरस्तात्' पसा 'कैवलियं-केवलिकम्' ज्ञान॥ 'महेसि-महर्षिम्' भाव मे १५ भान महावीर साभीने 'पुच्छिस्स-पृष्टवान्' ५७ हेतु -'गरगा-नरकाः' २.न. विगेरे न२३। 'कहं भितावा-कथमभितापाः' पी पी. ४२११ सोय १ मणी-हे मुने!' सन् 'जाणं-जानन्' मा५ । पातने an छ। तेथी अजाणओ मे बूहि-अजानतो मे बहि' न पापा 24। भने २५१५ 'बाला-बालाः' अज्ञानी 'कहिं नु-कथंनु' वी 01 'नरयं-नरकम्' न२७ने 'उपिति-उपयान्ति' प्रत ४२ छ ? ॥१॥ For Private And Personal Use Only Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थयोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ५ उ. १ नारकीयवेदनानिरूपणम् ३२९ अन्वयार्थ:-(अहं) अहं सुधर्मास्वामी (पुरस्था) पुरस्तात्-पूर्व काले (केवलिय); केवलिक-केवलज्ञानवन्तं (पहेर्सि) महर्षिम्-वर्द्धमानस्वामिनं (पुच्छिम्स) पृष्टान् (णरगा) नरका-रत्नपमाघाः (कहंभितावा) कथमभितापा-कीदृगमितापयुक्ता (मुणी) हे मुने ! हे भगवन् ! (जाणं) जानन्-त्वमेतद्विषयकज्ञानवानसि, अत: (अजाणो मे बूहि) अमानतो मे ब्रूहि कथय (बाला) बाला:-अज्ञाः (कह ) कथं नु-केन प्रकारेण कीदृशानुष्ठायिनः (नरयं) नरकं (उविति) उपयान्तिगच्यन्ति इति ॥१॥ : टीका-पुग डि किल जंबूस्वाम्यादिशिष्यवगैर्नरकस्वरूपस्य तत्र स्थितः जीनां वेदनादिविषयमवलम्ब्य सुधर्मस्वामी पृष्टः-हे भगनन् ! कि भूताः नरकाः, कियन्तश्च ते संख्यया, तत्रत्या यातना च कथंविधा जीवानाम् । कैl कर्मभिः ते नरकाः समर्जिताः भवन्ति जीवै रित्यादिस्वरूपविभागकार्यकारणपूर्वकप्रश्ने जाते सति-श्री सुधर्म स्वामी जंबूस्वामिप्रभृति शिष्यवर्गान् कथयति- अन्वयार्थ-मैंने (सुधर्मा स्वामीने) पूर्वकाल में केवलज्ञानी महा. ऋषि बर्द्धमान स्वामी से पूछा-नरक किस प्रकार के संताप (वेदना) वाले हे हैं मुने ! आप इस तथ्य को भली भांति जानते हैं अतएव मुझ अनजान को कहिए कि किस प्रकार कृत्य करने वाले अज्ञ जीव नरक प्राप्त करते हैं ? ॥ १ ॥ टीकार्थ-पूर्वकाल में जम्बू स्वामी आदि शिष्योने नरक का स्वरूप, उसमें स्थिति जीवो की वेदना आदि विषयों को आधार बनाकर सुधर्मा 'स्वामी से पूछा-भगवन् ! नरक किस प्रकार के हैं ?संख्या में कितने हैं ? जीवों को वहां किस प्रकार की यातना सहन करनी पड़ती है ? किन कर्मों को करने से नरकों की प्राप्ति होती है ? इस प्रकार स्वरूप, भेद, સ્વાર્થ–મેં (સુધમસ્વિામીએ) પૂર્વકાળમાં કેવળજ્ઞાની, મહર્ષિ વર્ધમાન વામીને પૂછ્યું “નરકે કેવી વેદનાઓવ ળા છે? હે મુને ! આપ એ વાતને સારી રીતે જાણે છે. હું એ વાત જાણતા નથી, તો હે પ્રભે ! નરકેની વેદ. નાએ વિષયક જ્ઞાન ન ધરાવનાર આપ મને એ વાત સમજાવવાની કપા કરે. હે પ્રભો! કેવાં કૃત્ય કરનાર અજ્ઞ (અજ્ઞાન) જીવે નરકગતિ પ્ર પ્તિ કરે છે? ૧ ટીકાર્થ–પૂર્વકાળમા બૂરવામી આદિ શિષ્યાએ નરકનું સ્વરૂપ, નરકમાં ગયેલા જીવોની સ્થિતિ આદિ જાણવાની જિજ્ઞાસા થવાથી સુધમાં સ્વામીને આ પ્રમાણે પૂછયુ-“હે ભગવન્ ! નર કેવા હોય છે ? કેટલા હોય છે ત્યાં જીને કેવી કેવી યાતનાઓ વેઠવી પડે છે? કેવા કર્મોનું સેવન કરવાથી જીવને નરક ગતિની પ્રાપ્તિ થાય છે? આ પ્રકારે સ્વરૂપ, ભેદ, કાર્ય અને કારણે सु. ४२ For Private And Personal Use Only Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३३० सूत्रफतागसूत्रे हे जम्बूः ! 'अहं' अह सुधर्मस्वामी 'पुरत्या' पुरस्तात्-पूर्वस्मिन् काले यदा भगवान महावीरो विद्यमान आसीत्तदा 'केवलियं' केलिकम्-समुत्पन्न केवलज्ञानवन्तम् 'महे सिं' महर्षिम् अ युग्रतपश्चरणकारणमनुकूलप्रतिकूलोपसर्गसहिष्णुम् । श्रीमन्महावीरवर्द्धमानस्वामिनम् 'पुच्छिस्सं' पृष्टवान् , किं पृष्टवान् तदहं कथयामि 'कई' कथं-कीदृशाः 'नरगा' नरका:-कीदृशाश्च तत्र नरके 'अभितापाः यातना भवन्ति । इति 'अजाणो में' अजानतो मे 'जाणं' जानन-केवलज्ञानालोकेन 'मुणे मुने ! हे भगवन् ! 'बूहि' बही-कथय, अहमजानन् तद्विषयं पृच्छामि, तथा 'कह' कथं केन प्रकारेण किमनुष्ठायिनो जीवाः 'बाला' बाला:-अज्ञानिनः 'नर' नरकम् 'उविति' उपयान्ति, हे जम्बूः ! एतत्सर्वमहं पृष्टवानिति ॥१॥ .. कार्य और कारण विषयक प्रश्न उपस्थित होने पर श्री सुधर्मास्वामीने जम्ग्वामी आदि अपने शिष्यवर्ग से कहा-- __हे जम्बू ! मैं पुरात: काल में, जब भगवान महावीर विद्यमान थे, तब उन केवलज्ञानी और महाऋषि अर्थात् अतीव उग्र तपश्चरण करनेवाले तथा प्रतिकूल और अनुकूल उपसर्गों को सहन करनेवाले श्री बमान स्वामी से प्रश्न किया था-नरक कैसे हैं ? नरक में किस प्रकार के अभिताप है ? यह विषय जाननेवाले आप मुझ अनजान को, हे प्रभो! कहिए । मैं इस विषय को नहीं जानता, इस कारण प्रश्न करता हूं। यह भी जानना चाहता हूँ कि किस प्रकार के कार्य करनेवाले अज्ञानी जीव नरक में जाते हैं ? हे जम्बू मैंने यह सब भगवान से पूछा था ॥१॥ વિષયક પ્રશ્ન ઉપસ્થિત થવાથી સુધર્મા સ્વામીએ જંબુસ્વામી આદિ શિષ્યને આ પ્રમાણે જવાબ આપ્યો હે જબૂ! પુરાતન કાળમાં જ્યારે ભગવાન મહાવીર વિઘામાન હતા. ત્યારે મેં તે કેવળજ્ઞાની અને મહાકષિએટલે કે ઘણી જ ઉગ્ર તપસ્યાઓ કરનાર તથા અનુકૂળ અને પ્રતિકૂળ ઉપસર્ગોને સહન કરનાર શ્રી મહાવીર પ્રભને આ પ્રમાણે પ્રશ્ન પૂછયે હતે હે પ્રભો ! નરકેનું સ્વરૂપ કેવું છે? તેમાં ઉત્પન્ન થનાર નારકેને કેવી રીતે પીડા સહન કરવી પડે છે? કેવા કૃત્ય કરનારા અજ્ઞાની છે નરકમાં જાય છે? આ વિષયના આપ જાણકાર છે. તે તે વાત સમજાવવાની કૃપા કરે.” હે જંબુ! તમે જે પ્રશ્ન મને પૂછે છે, એજ પ્રશ્ન મેં મહાવીર પ્રભુને પૂછયે હતે.' આ પ્રમાણે સુધર્માસ્વામી તેમને કહે છે. એના For Private And Personal Use Only Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ५ उ.१ नारकीय वेदनानिरूपणम् ३३१ पृष्टो भगवान्मा प्रत्येचमाह-‘एवं मए' इत्यादि। मूलम्-एवं मए पुटे माणुभावे इणमोऽब्बवी कासवे आंसुपन्ने। पवेदेइस्सं दुहमट्रदुग्गं आदीणियं दुकडियं पुरत्था॥२॥ छाया- एवं मया पृष्टो महानुभाव इदमब्रवीत्काश्यप आशुपज्ञः । प्रवेदयिष्यामि दुःखमर्थदुर्गमादीनिकं दुष्टकृतिक पुरस्तात् ॥२॥ अन्वयार्थः-(एवं) एवमनेन प्रकारेण (मए) मया (पुष्ढे) पृष्टः सन् (महानुभावे) महानुभावः-विस्तृतमाहात्म्यवान् (कासवे) काश्यपः-काश्यपगोत्रोत्पन्नो महावीरः प्रश्न करने पर भगवान् ने मुझे इस प्रकार कहा-'एवं मए' इत्यादि। शब्दार्थ-एवं-एवम् इस प्रकार 'मए-मया' मेरे द्वारा 'पुढे-पृष्ठः' पूछे हुए 'महाणु भावे-महानुभावः' विस्तृत महात्म्य वाले 'कासवेकाश्यप कश्यपगोत्र में उत्पन्न हुए 'आसुपन्ने-आशुप्रज्ञः' सब वस्तु में सदा उपयोग रखने वाले भगवान् बर्द्धमान महावीर स्वामी ने 'इणमोऽब्बबी-इदमब्रवीत्' इस प्रकार कहा है कि 'दुहमदुग्गं-दुःखमर्थदुर्गम्' नरक दुःखदायी है एवं असर्वज्ञ जनों से अज्ञेय है 'आदीणियआदीनिकम् वह अत्यन्त दीन जीवों का निवास स्थान है 'दुक्कडियंदुष्कृतिकं उसमें पपीजीव निवास करते हैं 'पुरस्था-पुरस्तात्' यह आगे 'पवेदहस्सं-प्रवेदयिष्यामि' हम कहे गये हैं ॥२॥ अन्वयार्थ इस प्रकार मेरे प्रश्न करने पर महानुभाव अर्था विशाल महिमा से मण्डित काश्यप गोत्र में उत्पन्न सदा सब में उपयोगवान् भास ते प्रश्नमा प्रभुमे आप्रमाणे ४११५ पायो तो एवं मए' त्या शहाथ-एवं-एवम्' मा शत 'मए-मया' भाराथ. 'पुढे-पृष्टः' पूछ। ये 'महाणुभावे-महानुभावः' मोटा महान्यपणा 'कासवे-काश्यपः' ४६५५५ गोत्रमा ५-न. थये। 'आसुपन्ने-आशुप्रज्ञः' मधी १२तुभां सा उपयोग २०११ मावान् भान महावीर पाभीये 'इणमोऽव्ववी - इदमब्रवीत्' भावी शत छ -'दुहमट्ठदुग्गं-दुःखमर्थदुर्गम्' न२४ दुः५६.यी छे तमा असननन ! - anet शाय ते . 'आदीणियं-आदीनिकम्' ते अत्यत दीन मेवा खानु निवासस्थान छे.'दुक्कडिय'-दुष्कृतिकम्' तेमा पापी ४ निवास ४२ छे. 'पुरत्था-पुरस्तात्' से बात वे ५७ मा 'पवेदइस्सं-प्रवेदयिष्यामि' ही ॥२॥ સૂત્રાર્થ–મહાનુભાવ (વિશાળ મહિમાસંપન), કાશ્યપગેત્રીય, સદા સઘળા પદાર્થોમાં ઉપગવાન, મહાવીર પ્રભુએ મારા પ્રશ્નના જવાબ રૂપે આ For Private And Personal Use Only Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतागसूत्रे (आसुपन्ने) आशुप्रज्ञः-सर्वत्र सदोश्योगवान (इणमोऽव्यवी) इदं वक्ष्यमाणमब्रवीत् (दुहमट्ठदुग्ग) दुःवार्थदुर्गम्-दुःखस्वरूपं दुःखेन लंघयितुं योग्यम् असर्वज्ञैरज्ञेयं (आदीणियं) आदीनिकम् अत्यन्तदीनजीवनिवासस्थानं (दुकडिय) दुष्कृतिकंदुष्कृतं विद्यते येषां तत्सबन्धि (पुरत्था) पुरस्तात्-पूर्वजन्मनि नरकगतियोग्यं यत् कृतं कर्म तत् (पवेदइस्स) प्रवेदयिष्यामि कथयिष्यामि इति ॥२॥ ___टीका- 'एवं' एवम् अनन्तरोक्तम् , हे जम्बूः ! विनयपूर्वकं मया पृष्टः 'महाणुभावे' महानुभावः महान चतुस्त्रिंशदतिशयरूपः, पश्चत्रिंशद्वाणीरू : अनुभावो माहात्म्यं यस्य स महानुभावः, 'कासवे' काश्यपः-काश्यपगोत्रोत्पन्नो महावीरः 'आसुपन्ने आशुप्रज्ञः आशु-शीघ्रतरा सर्वत्रोपयोगात् प्रज्ञा विद्यते यस्यासौ आशुपज्ञः सर्वत्र सदोपयोगवान् ‘इणमो' इदं वक्ष्यमाणम् 'अन्नबी' अब्रवीत्, किषब्रवीत् तत्राह-'दुहमदुर्ग' दुःखम् दुःखस्वरूपम् तीवाऽसमाधियुक्तत्वात् तथा अर्थदुर्गम्अर्थन-वर्णनाशक्यरूपेण दुर्गम्-विपरम्-उज्ज्वलाचेकादविधवेदनाकुलत्वात् , तत्र-उज्ज्वला-तीव्रानुभावात्मकत्वात् १, बला-बलवती-अनिवार्यत्वात् २, भगवान् ने इस प्रकार प्रतिपादन किया था-नरक दुःखस्वरूप है और असर्वज्ञ (छद्मस्थ) जीव उसे पूरी तरह जान नहीं सकते। वह अत्यन्त दीन तथा पापी जीवों का निवासस्थान है। पूर्व में उपार्जित नरकगति के योग्य जो कर्म है, यह सब मैं कहूंगा ॥२॥ ___ टीकार्थ-हे जम्बू ! विनय पूर्वक मेरे पूछने पर महानुभाव अर्थात् चौतीस अतिशयों और पैंतीस वाणी के गुणोंवाले भगवान् काश्यप गोत्र में उत्पन्न तथा सदा सर्वत्र उपयोगाली प्रज्ञा से युक्त भगवान् ने यह कहा था-नरक तीव्र असमाधि वाले हैं तथा अर्थदुर्ग हैं। अर्थदुर्ग का अर्थ यह है कि वे नरक वर्णन नहीं करने योग्य उज्ज्वलता आदि ग्यारह प्रकार પ્રકારનું પ્રતિપાદન કર્યું હતું-નરક દુઃખસ્વરૂપ છે. અસર્વજ્ઞ (છાથી જીવ તેના સ્વરૂપનું પૂરેપૂરું જ્ઞાન ધરાવતું નથી. તે અત્યન્ત દીન અને પાપી જીવનું નિવાસસ્થાન છે. તે જીવે એ નરકગતિને યોગ્ય જે કર્મોનું પૂર્વે ઉપજન કરેલું છે, તે હવે હું પ્રકટ કરું છું' કેરા ટીકાર્ય—હે ! વિનયપૂર્વક પૂછવામાં આવેલા તે પ્રશ્નને મહાનુભવ (એટલે કે ચેત્રીશ અતિશાથી અને વાણીના પાંત્રીશ ગુણોથી યુક્ત.) કાશ્યપ ગેત્રમાં ઉત્પન્ન થયેલા, સમરત પદાર્થોમાં સદા ઉપયોગયુક્ત પ્રજ્ઞાથી સંપન્ન મહાવીર પ્રભુએ આ પ્રમાણે ઉત્તર આપ્યું હતું તે નરકે * તીવ્ર અસમાધિવાળાળા છે, તથા અર્થ દુર્ગ છે. “અર્થ દુર્ગ પદને અર્થે આ . પ્રમાણે સમજ-અવર્ણનીય ઉજજવલતા આદિ અગિયાર પ્રકારની વેદનાઓ For Private And Personal Use Only Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir arrafat टीका. अ. अ. ५ उ. १ नारकीयवेदना निरूपणम् 1 विपुला - विशाला परिमाणरहितत्वादर, कर्कशा-कठोरा प्रत्यङ्गदुःखजनकत्वात् खरा - तीक्ष्णा - अन्तःकरण भेदकत्वात् ५, परुपा निष्ठुरा सुखलेशरहितत्वात् ६, प्रगाढा-प्रतिक्षणमसमाधिजनकत्वात् ७, प्रचण्डा भयानका आत्मनः पतिप्रदेशव्यवात् ८, घोरा विकटा श्रवणेऽपि दुःखजनकलात् ९, भीषणा भयोत्पादिका, प्रतिपाणिभयजनकत्वात् १०, दारुणा- हृदयसंक्षोभकारिणी, प्रतिकाररहितस्वात् ११ एतादृकादशविधवेदना संकुल-वेन दुःखरूपम् सर्वज्ञेनापि वाचा वर्णयितुमशकवतोऽर्थदुर्गमिति । 'आदाणिय' आदीन रूम् तादृशं नरकस्थानं दीनाशरणत्राणजीवानां निवासस्थानम् । 'दुक्कडियं' दुष्कृतिकम् तत्र दुष्कृतिनां पापिनां की वेदना से व्याप्त हैं वहां अत्यन्त तीव्र एवं प्रकर्ष प्राप्त वेदना है। वह वेदना अनिवार्य है उसके निवारण का कोई उपाय नहीं है। वह विशाल है, क्योंकि उसका कोई परिणाम नहीं है। अंग अंग में दुःखपद होने के कारण कर्कश - कठोर है । अन्तःकरण को भेदन करनेवाली होने से वर तीक्ष्ण है। उसमें सुखका लेशमात्र भी न होने से परुष है। प्रति क्षण असमाधि उत्पन्न करनेवाली होने से प्रगाढ है । वह प्रचण्ड क्योंकि आत्मा के प्रत्येक प्रदेश में व्याप्त रहती है। सुनने मात्र से दुःखजनक होने के कारण घोर विकट है। प्रत्येक प्राणी को भयजनक होने से भयंकर है । प्रतिकाररहित होने से हृदय को क्षुब्ध करनेवाली - दारुण है । सर्वज्ञ भी वाणी द्वारा उसका वर्णन नहीं कर सकते । इस कारण नरक को दुर्ग कहा है। वह नरक दीन, शरणहीन एवं त्राणત્યાં અત્યન્ત તીવ્ર અને પ્રક પણાથી ભાગત્રવી પડે છે. તે વેદના અનિવાર્ય છે–તેના નિવારણના કઈ ઉપાય જ હતેા નથી. વળી છે વેદના વિશાળ હાય છે-એટલે કે તેનું કેઈ પ્રમાણ જ કલ્પી શકાય તેમ નથી તે વેદના પ્રત્યેક અંગમાં દુઃખ ઉત્પન્ન કરનારી હાવાથી કશ-કઠાર છે. તે વેદના અન્તઃક ણુને ભેદનારી હેાવાને કારણે તેને ‘ખરતીક્ષ્ણ’ (અત્યન્ત તીક્ષ્ણ) હી છે. તેમાં સુખને સહેજ પણ સદ્ભાવ ન હોવાને કારણે તે પરુષ છે. પ્રતિક્ષણુ અસમાધિ ઉત્પન્ન કરનારી હાવાને કારણે તે પ્રગાઢ છે આત્માના પ્રત્યેક પ્રદેશમાં વ્યાસ હાવાને કારણે તે પ્રચર્ડ છે. તે વેદના એવા પ્રકારની હાય છે, તેને શ્રવણુ કરવાથી પણ દુ:ખ થાય છે, તે કારણે તેને ધાર-વિકટ કહી છે. પ્રત્યેક જીવમાં ભય ઉત્પન્ન કરનારી હેાવાને કારણે તેને ભય કર કહી છે. પ્રતિકાર રહિત હાવને કારણે હૃદયને ક્ષુબ્ધ કરનારી હોવાથી તેને દારુજી કહી શકાય છે. સવજ્ઞ પણ વાણી દ્વારા તેનું વહુ ન કરી શકતા નથી, તે કારણે નરકને ‘દુગ કહેલ છે. તે નરક દીન, શરણહીન અને ત્રાણુવિહીન For Private And Personal Use Only ३३३ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे निवासस्थानम् इत्येतत्सर्वम्-'पुरत्या' पुरस्तात्-पूर्वजन्मनि नरकगमनयोग्यं यत्कृतं पापं तत् 'पवेदइरस' प्रवेदयिष्यामि,-स्वकृतकर्मवशात् जीवास्तादृशनरक स्थानं गच्छन्ति । तादृशकर्मणा नरकस्य तत्रत्य वेदनायाः, तादृशजीवस्य सर्वस्याऽपि स्वरूपादिकं प्रविभज्य अहं कथयामि। सावधानेन चित्तेन श्रोतव्यं सर्वमपि भवद्भिरिति ॥२॥ किं कथयामि तदाह-'जे केई' इत्यादि । मूलम् -जे केइ बाला इंह जीवियटी, पावाई कम्माइं करंति रहा। . ते घोररूवे तमिसंधयारे, तिवांभितावे नरए पैडति ॥३॥ छाया-ये केऽपि बाला इह जीवितार्थिनः पापानि कर्माणि कुन्ति रौद्राः। ते घोररूपे तमिस्रान्धकारे तीव्राभितापे नरके पतन्ति ॥३॥ वर्जित जीवों का निवासस्थान है । वहां पापी जीव निवास करते हैं। जिन जीवों ने नरक गमन के योग्य कर्म उपार्जन किया है, वे अपने कर्म के अनुसार नरक में जाते हैं। उस कर्म का, नरक का, वहाँ होनेवाली वेदनाका और वहां के जीवों का स्वरूप आदि मैं कहूंगा। तुम सावधान चित्त से सुनो ॥२॥ भगवान् ने जो कहा उसी अर्थ को ही कहते हैं-'जे केई' इत्यादि। शब्दार्थ-'इह-इह' इस लोक में 'रुद्दा-रौद्राः' प्राणियों को भय उत्पन्न करने वाले 'जे केइ बाला-ये केचन बाला' जो अज्ञानी जीव 'जीवियट्टी-जीवितार्थिनः' अपने जीवन के लिये 'पावाई यम्प्राई करें तिજેનું નિવાસસ્થાન છે. ત્યાં પાપી છ નિવાસ કરે છે. જે એ નરકગમનને વેગ્ય કર્મોનું ઉપાર્જન કર્યું હોય છે, તે પિતપિતાનાં કર્મો અનુસાર નરકમાં જાય છે. તેમનાં પાપકર્મોનું, તે નરકનું, નારકોને ત્યાં સહન કરવી પડતી વેદનાઓનું અને ત્યાંના જવાના સ્વરૂપનું હવે હું વર્ણન કરીશ. આપ સૌ ધ્યાનપૂર્વક સાંભળે પરા કેવા કેવા પાપ કરનારા છે નરકમાં જાય છે, તે હવે પ્રગટ ४२११मा भावे छे-जे-केई' त्यानि शहाथ-'इइ-इह' taswi रहा-रौद्राः' प्रालियन सय पन्न ४२वा १. 'जे केइ पाला-ये केचन बालाः' रे माज्ञानी . 'जीवियट्रीजीवितार्थिनः' पोताना 4माटे पावाई कम्माई करें ति-पापानि कर्माणि For Private And Personal Use Only Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र.श्रु. अ. ५ उ.१ नारकीयवेदनानिरूपणम् ३३५ __ अन्वयार्थः-(इइ) इहलोके (रुदा) रौद्राः पाणिनां घातकाः (जे के बाला) ये केचन बाला अज्ञानिनः (जीवियो) जीवितार्थिन:-असंयमजीवितार्थिनः (पाबाई कम्माई करंति) पापानि प्राणातिपातादीनि कर्माणि कुर्वन्ति (ते) ते बालाः (घोररूवे) घोररूपेऽत्यन्तभयानके (तमिसंधयारे) तमिसान्धकारे-बहुलतमोन्धकारे (तिव्वामित वे) तीव्रामितापे-अत्यन्तताफ्युक्ते (नरए) नरके-एता. रशविशेषणयुक्त नरके (पडंति) पतन्ति-गच्छन्तीति ॥३॥ टीका-'ह' इडास्मिन् संसारे 'रुद्दा' रौद्रा:-माणिनां घातका: 'जे केह' ये केचन जीवाः, महारम्भमहापरिग्रहपश्चेन्द्रियवधमांसभक्षणादिकसावधकर्माऽनुष्ठाने परायणास्ते 'बाला' बालाः-सदसद्विवेकविकलाः 'जीवियट्ठी' जीवि. पापानि कर्माणि कुर्वन्ति' हिमादि पापकर्म करते हैं 'ते-ते' वे घोर. रूवे-घोररूपे' अत्यन्त भयजनक तमिसंधयारे-तमिस्रांधकारे' महान् अन्धकार से युक्त 'तिवाभितावे-तीवाभिता' अत्यन्त तापयुक्त 'नरए-नरके' नरक में 'पडति-पतन्ति' पड़ते हैं ॥३॥ ____ अन्वयार्थ--इस लके में जो अज्ञानी प्राणियों के घातक हैं, असंयममय जीवन के अभिलाषी हैं और जो प्राणातिपात आदि पापकर्म. करते हैं, वे अज्ञानी जीव अत्यन्त घोर, संघन अन्धकार से व्याप्त, अत्यन्त संताप से युक्त नरक में पड़ते हैं ॥३॥ टीकार्थ-इस संसार में जो अज्ञानी जीव प्रणियों का घात करने वाले अर्थात् महारम्भ, महापरिग्रह, पञ्चेन्द्रिय का वध करने में एवं मांस भक्षण आदि घोर पापों में परायण होते हैं, सत् असत् के विवेक कुर्वन्ति' शि३ पा५४५' ३२ छ. 'ते-ते' ती 'घोररूवे-घोररूपे अत्यत मह तमिसंधयारे-तमिस्रांधकारे' महान् । २५१२थी युति 'तिव्वामितावे-तीवामित पे' मत्यत ताथी व्यात सेवा 'नरप-नरके' न२० मां पति-पतन्ति' ५3 छे. ॥३॥ સૂત્રાર્થ–આ લે માં જે અજ્ઞાની છે પ્રાણીઓના ઘાતક બને છે, અસંયમમય જીવનની અભિલાષાવાળા છે. પ્રાણાતિપાત આદિ પાપકર્મો કરનારા છે, તે અજ્ઞાની છ અત્યત ઘોર, સઘન અંધકારથી વ્યાપ્ત, અત્યન્ત સંતાપથી યુક્ત નરકમાં પડે છે. આવા ટીકાર્થ-આ સંસારના જે અજ્ઞાની છે પ્રાણીઓને વધ કરનારા હોય છે. એટલે કે મહારભ, મહાપરિગ્રહ, પંચેન્દ્રિયને વધુ અને માંસાહર આદિ ઘેર પાપકર્મમાં આસક્ત હોય છે, જેઓ સત્ અસના વિવે For Private And Personal Use Only Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ३३६ www.kobatirth.org सूत्रकृताङ्गपुत्रे तार्थिन:-अयमनीवितार्थिनः पापेनोदरपूरकाः स्वकीयजीवनाय 'पावाई' पापानि प्राणातितादीनि 'कम्माई' कर्माणि 'करंति' कुर्वन्ति ते इत्थंभूताः जीवाः तीव्रापापोदयवर्तिनः 'घोररूवे' घोररूपे अत्यन्तमयजनके 'तमिसंघयारे' तमिस्रान्धकारे - बहुलतमोन्धकारे 'तिनाभितावे' तीव्रामिता, तीव्रः अतिसुदुःसहः खदिराङ्गारमहाराशितापादनंतगुणो अभितापः संतापो यस्मिन् तथाभूते, 'नर' नरके 'पति' पतन्ति, प्राणिनां भयदातारोऽज्ञा जीवाः स्वात्महिताय पादौ वर्त्तमानाः पापकर्म समाचरन्ति त एव पुरुषाः स्वकृतदुष्कृतकलान्महान्धकारे महादुःखमये नरके पतन्तीति भावः ॥ ३ ॥Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir D समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ५ उ. १ नारकीयवेदनानिरूपणम् ___ अन्वयार्थः-(जे आयमुहं पडुच्च) य आत्मसुखं प्रतीत्य स्वसुखाय (तसे थावरे य पाणिणो) त्रसान् स्थावरान् प्रागिनः 'ति' तीव्रम्-अतिनिरनुकम्पम् 'हिंसई हिंसति-व्यापादयति 'जे लुपए' यो लूप:-पटूकायजीमाणलुण्ठकः 'होई' भवति तथा 'अदत्तहारी' अदत्तहारी-परद्रव्यापहारका 'सेयवियस्स' सेवनीयस्स संयमस्य 'किवि ण सिक्खई' न किश्चिदपि शिक्षते, अल्पमपि सेवन न करोतीति ।।४॥ शब्दार्थ--'जे आयलुहं पडुच्च-प आत्मसुख प्रतीत्य' जो जीव अपने सुख के निमित्त 'तसे थावरे य पाणिगोत्रमान,स्थावरान् प्राणिन.' प्रस और स्थावर प्राणी को 'निव-नीब्रम्' अन्न दशाहीन होकर सिईहिंसति' मारता है जे लू मए--यो लूषकः' जो प्राणियों का मारने व ला 'होई-भवति' होता है तथा 'अदत्तहारी-अदत्तहारी' विना दिये अन्य की चीज लेने वाला है वह 'सेपवियस्प्त-सेवनीयस्य' सेवन करने योग्य संयम का 'किंचि ण सिक्खई-किश्चिदपि न शिक्षते' थोड़ा भी सेवन नहीं करता है ॥४॥ अन्वयार्थ-जो जीव अपने सुख के लिए बस और स्थावर जीवोंका अत्यन्त निर्दय भाव से घात करते हैं, जो षटूकाय के जीवों के प्राणों को लूटते हैं, परद्रव्य का अपहरण करते हैं और जो सेवन करने योग्य का सेवन नहीं करते अति स्वल्प संयम का भी पालन नहीं करते (ऐसे जीव नरक में जाते हैं)॥४॥ Avani-'जे आयसुहं पडुच्च-य आत्मसुख प्रतीत्य' २ ०१ पाताना सम भाट 'तसे थावरे य पाणिणो-त्रमान् स्थावरान् प्राणिनः' अस मन स्थावर मालीन 'तिव्व-तीव्रम्' अत्यत या२1ि ४२ 'हिंसइ-हिंसति' मारे छ 'जे लूसए-यो लूषकः' रे प्राणियोन भा२पाना २१मावाणी होई-भवति' थाय छ, तथा 'अदत्तहारी-अदत्तहारी' माया विना भीमानी १२ वा. पाप है।य छ, ते 'सेयवियस्स-सेवनीयस्य' सेवन ४२५॥ योग्य सयभनु 'किषि ण सिक्खई-किञ्चिदपि न शिक्षते' या पशु सेवन ४२ता नथी. ॥४॥ સૂત્રાર્થ–જે જ પિતાના સુખને ખાતર ત્રસ અને સ્થાવર જોની અત્યંત નિર્દયતા પૂર્વક હત્યા કરે છે, જેમાં છકાયના જીના પ્રાણને લૂટે છે. જેઓ પારકા દ્રવ્યનું અપહરણ કરે છે, અને જે સેવન કરવા યોગ્ય વસ્તુનું સેવન કરતા નથી, એટલે કે જેઓ સંયમનું સહેજ પણ પાલન કરતા નથી, એવાં છે નરકમાં જાય છે, ૪ सु० ४३ For Private And Personal Use Only Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गस्चे टीका-'जे' यः पुरुषः 'आयमुह' प्रात्ममुखम् ‘पडुच' प्रतीत्य तसे' प्रसान-त्रस्यन्तीति प्रमाः द्वीन्द्रियादयस्तान् ‘थावरे' स्थावरान-पृथिवीकायादीन। "पाणिणो' माणिना, तान् 'तिव्वं' तीव्रम्-दयारहितबुद्धया "हिंसई' हिंसति, पाणिन उपमर्दयति तथा 'जे' यः पुरुषः 'लूसर' लूपः-पटूकायजीवप्राणल्लुण्ठको भवति, तथा-'अदत्तहारी' अदत्तहारी-अदत्तं वस्तु अपहत्तु शीलं यस्य स अदत्त हारी-परद्रव्या हारका 'सेयवियस्स' सेमनीयस्याऽऽत्मस्ति पणा सर्वदा अनुष्ठातुं योग्यस्य संयमस्य 'ण किंचि सिक्खइ' किश्चिदपि न शिक्षते । अयं भावा-पापो. दयात् विरतिपरिणाम काकमांसादेरपि मनागपि न विधत्ते। यद्वा-सेवनीयस्य सकलनराऽमरपूजितस्य भगरतो महावीरस्य किंचिदपि उपदेशवचनादिकं न शिक्षते, न शृगोति स नरके पततीति परेण संबंधः ॥४॥ टीकार्थ--जो पुरुष अपने सुख के लिए बीन्द्रिय आदि त्रस जीवों का तथा पृथिवीकाय आदि स्थावर जीवों का दद्यारहित भाव से हनन करते हैं, जो छह काय के जीवों के प्राणों के लुटेरे होते हैं, जो अदत्त वस्तुओं को लेते हैं अदत्तादान सेवन करनेवाले और जो आत्महिते षियों द्वारा सेवनीय संपम की कुछ भी शिक्षा नहीं लेते हैं, ऐसे जीवों को नरक में उत्पन्न होना पडता है। .. आशय यह है जो जीव पाप के उदय से लेश मात्र भी विरति का पालन नहीं करते, यहां तक कि काक के मांस का भक्षण भी नहीं त्यागते और जो समस्त मनुष्यों एवं देवों द्वारा वन्दित भगवान महावीर के ' ટીકા--જે પુરુષે પિતાના સુખને માટે હીન્દ્રિય આદિ ત્રસ જીવેને તથા પૃથવીકાય આદિ સ્થાવર અને કયારહિત ભાવે વધ કરે છે, જે છકાયના જીના પ્રાણને નાશ કરનારા હોય છે, જેઓ અદત્ત વસ્તુઓ લે છે–જેઓ અદત્તાદાન સેવન કરે છે, અને આત્મકલ્યાણ ચાહનારા લોકે દ્વારા સેવનીય સંયમનું જેઓ સહેજ પણ સેવન કરતા નથી, એવા છને નરક ગતિમાં ઉત્પન્ન થવું પડે છે - આ કથનનો ભાવાર્થ એ છે કે પાપના ઉદયને લીધે જેઓ લેશ માત્ર વિરતિનું પાલન કરતા નથી, જે કાગડાનું માંસ ખાતાં પણ સંકોચ અનુભવતા નથી (કાગડાનું માંસ ખાવાની હદે જનાર માણસ ગાય આદિ પ્રાણીએનું માંસ તે ખાતા જ હોય છે, જે સમસ્ત દેવે અને મનુષ્ય દ્વારા વન્દિત ભગવાન મહાવીરના ઉપદેશ વચમાંથી બિલકુલ શિક્ષા (ધ) ગ્રહણ For Private And Personal Use Only Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ५ उ. १ नारकोथवेदना निरूपणम् ३३९ 45 मूलम् - पागभि पाणे बहुगंतिवाति अनिवते घातमुवेति बाले ।' र्णिहो सिं गच्छेइ अंतकाले, अहो सिरं क इ दुग्ग छाया - मालती प्राणानां बहूनामतिपाती अनि तो घातमुपैति वालः । न्यग् निशां गच्छत्यन्तकाले अधः शिरः कृत्वोपैति दुर्गम् ॥५॥ अन्वयार्थः - ( Grafa) प्रागल्मी पापकर्मणि घृढः (बहूगं पाणे विवाति) बहूनां प्राणानामतिपाती अनेकजीवविधकः (अनिव्वते) अनिर्वृतः सदेव क्रोधाः ग्निना दद्यमानः एतादृशः (बाले) बालोऽज्ञानी (अंतकाले ) अन्तकाले मरणसमये उपदेश बचनों की किंचित भी शिक्षा नहीं लेते उन्हें नहीं सुनते, वें नरक में पड़ते हैं ||४| शब्दार्थ - 'पागभि - प्रागल्भी' जो पुरुष पाप करने में घृष्ट है 'बहूणं पाणेतिवाति- बहूनां प्राणानामतिपाती' बहुत प्राणियों का घात करता है 'अनिव्वते - अनिर्वृतः' और जो सदैव क्रोधाग्नि से जलता रहता है 'बाले - बाल' ऐसा अज्ञानी 'अंतकाले अन्तकाले' मरणकाल में 'णिहो- व्यक' नीचे 'णिसं-निशाम्' अन्धकार में 'गच्छ गच्छति' जाता है 'अहो सिरं कहु अधः शिरः कृत्वा' वह नीचे मस्तक करके 'दुग्गं - दुर्गम्' कठिन यातनास्थान को 'उवेह उपैति प्राप्त करता है ॥५॥ अन्वयार्थ - जो जीव पापकर्म में धृष्ट है, बहुत प्राणियों का घातक है, सदैव क्रोधाग्नि से जलता रहता है, ऐसा अज्ञानी जीव मृत्यु के કરતા નથી, તેને સાંભળવાનું પણ જેમને ગમતું નથી, એવાં જીવા નરકમાં ગમન કરે છે. ॥ ૪ ॥ शब्दार्थ - 'पागमी - प्रागल्मी' के पु३षा पाप श्वासां घृष्टतावाजा होय छे, 'बहूणं पाणेतित्राति- बहूनां प्राणानामतिपाती' धथा प्रथियोनो धात ४२. 'अनिव्वते - अनिर्वृतः' मने अधी अग्निश्री उमेशां भणते २ छे. 'वाले बालः' येथे अज्ञानी व 'अंतकाले - अन्तकाले' भरथु समये 'forgì--uz'da 'ford-famq' m'xi ‘negg-nezfa' my 'अहो सिर कटु - अवः शिरः कृत्वा ते नीयु' मस्त उरीने 'दुर्गागं- दुर्गम्' ४४७ मेवा स्थानने 'उवेइ - उपैति ॥५ સૂત્રા-જે જીવા પાપકર્મોમાં ધૃષ્ટ છે-પાપકર્મો કરતા જેએ લજવાતા નથી, જેઓ અનેક જીવાના ઘાત કર્યાં કરે છે, જેમનું હૃદય ક્રોધાગ્નિથી સદા મળ્યા કરતુ ડાય છે, એવા. મજ્ઞાની મનુષ્ય. આ મનુષ્ય ભવનું આયુષ્ય For Private And Personal Use Only Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३४० सूत्रकृताङ्गसूत्रे (णिहो) न्यक्-नीचैः (णिसं) निशामन्धकारं (गच्छ) गच्छति माप्नोति तथा स्वकृतकर्मणा (अहो सिरं क१) अधः शिरः कृत्वा (दुग्गं) दुर्ग विषमं यातनाम्थानं (उवेइ) उपेति गन्छवीति ॥५॥ ___टीका-'पागन्मि' पागल्भी-मागल्भ्यं धाष्टयम् , तद्विद्यते यस्य स मागरमी, तथा 'बहूणं पाणे विवाति' बहूनामतिपाती-बहूनामने केषां पाणिनाम् अतिपाती, अतिपातयितुं घातयितुं शीलं विद्यो यस्य सः। अनेकेश पाणिनां विनाश कुर्वनपि धाटात् विनाशे नास्ति कश्चिदोषः यथा वैधी हिंसा हिंसैव न भवति, राज्ञामयमुदारो धर्मः यत् आखेटकादिकरणम् । 'न मांसभक्षणे दोषो न मये न च मैथुने।' इत्यादि। 'अनिबते' अनिर्वृतः कदाचिदप्यननुपशान्तः क्रोधाग्निनाऽनुक्षणं दंदह्यमानो वाल:--अज्ञो रागद्वेषोदयवर्ती 'अंतकाले' अन्तकाले-मरणपश्चात् नीचे अन्धकार में गमन करता है तथा अपने किये कर्म के उदय से सिर नीचा करके विषम यातनास्थान को प्राप्त होता है ॥५॥ टीकार्थ--जो प्राणी धृष्ट है, यहुन जीवों का हनन करनेवाला है और अनेक प्राणियों का घात करता हुआ भी धृष्टतापूर्वक कहता है कि हिंसा में कोई दोष नहीं है । जैसे-वेद में विधान की गई हिंसा तो हिंसा ही नहीं ? शिकार खेलना तो राजाओं का उदार धर्म है ! 'न मांस भक्षणे दोषो' इत्यादि। .. न मांस भक्षण में दोष है, न मद्यपान में दोष है और न मैथुन सेवन में दोष है इस प्रकार की धृष्टता करके पापों का सेवन करते है और जो कभी शान्त नहीं होता, सदैव क्रोधरूपी अग्नि से जलता रहता है, जो अज्ञ अर्थात् राग द्वेष के उदय से युक्त रहता है, वह जीव પૂરું કરીને નીચે અંધકારમાં ગમન કરે છે, તથા તેમણે કરેલાં કર્મોના ઉદયને કારણે ત્યાં તેમને નીચી મુડીએ વિષમ યાતનાઓ સહન કરવી પડે છે. પા ટીકાથે--અનેક જીની હત્યા કરનાર કેટલાક મનુ એવાં ધણ થઈ ગયા હોય છે કે તેઓ એવું કહેતા પણ લજવાતા નથી કે પ્રાણીઓની હિંસા કરવામાં કોઈ દેષ નથી તેઓ એવી દલીલ કરે છે કે વેદમાં યજ્ઞ, હોમ, હવન આદિ જે જે કરવાનું કહ્યું છે, તે બધું કરવાથી તે હિંસા જ થતી નથી. શિકાર ખેલે, એ તે રાજાઓનો પવિત્ર ધર્મ છે. કહ્યું પણ છે है-'न मांसभक्षणे दोषो' त्याह-- ' “માંસનું ભક્ષણ કરવામાં કઈ દોષ નથી, મદિરાપાન કરવામાં પણ કેઈ દોષ નથી અને મૈથુન સેવન કરવામાં પણ કોઈ દેષ નથી. આ પ્રકારની પષ્ટતા કરીને તેઓ પાપોનું સેવન કર્યા કરે છે. એવા જ મરીને નરકમાં For Private And Personal Use Only Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थयोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ५ उ. १ नारकीयवेदनानिरूपणम् ३४१ काले 'घातमुवेति' घातमुपैति-हन्यन्ते पाणिनः स्वकृतकर्मविपाकेन यस्मिन् स घातो नरका, तथाविधं नरकमुपैति माप्नोति इत्यर्थः । 'णिहो णिसं गच्छई' न्यक्-अध. रतात् 'णिसं' निशाम् अन्धकारं गच्छति, तथा-स्वकीयपापकर्मणा, 'अहोसिरं कटु' अधः शरः कृत्वा 'दुग्ग' दुर्गम्-विषम यातनास्थानम्-'उवेइ' उपैति अधिगच्छति । अध शिरा नरके पतति, क्रूरभावेन पाणिनां वधकारी पुरुष इति॥५॥ मम्-हेण छिदह भिंदह णं दहेति सद्दे सुर्णिता परहम्मियाणं। ते नारंगाओ भयभिन्नसन्ना खंति कन्नौमदिसंवयामो।६। छाया-- हत छिन्त भिन्त दहत इति शब्दान् श्रुत्वा परमाऽधार्मिकाणाम् । ते नारका भयभिन्नसंज्ञाः कांक्षन्ति का नाम दिशं वनामः॥६॥ अन्त काल में घात अर्थात् नरक को प्राप्त होता है। जहां अपने किये कर्म के फलस्वरूप जीव मारे जाते हैं वह स्थान नरक भी घात कह. लाता है। वह क्रूर भाव से जीववध करनेवाला पुरुष अधो दिशामें अन्धकार को प्राप्त होता है, नीचा मस्तक करके विषम यानना के स्थान नरक में उत्पन्न होता है । ५।। शब्दार्थ-'परहम्मियाण-परमाधार्मिकाणाम्' परमाधार्मिकों का 'हण-हत' मारो छिंदह-छिन्त' छेदन करो भिंदह-भिन्त' भेदन करो 'दह-दहत' जलाभो 'इनि-इति' इस प्रकार का 'सद्दे-शब्दान्' शब्दो को 'सुणित्ता-श्रुत्वा' सुनकर 'भयभिन्नसन्मा-भयभिन्नसंज्ञाः' भय से संज्ञा જ જાય છે. જેમના અંતઃકરણમાં કદાપિ શાન્તિ તે હતી જ નથી, જેમનાં અંતઃકરણમાં સદા કોધાગ્નિ ભભૂકો જ રહે છે, જેઓ રાગદ્વેષથી સદા યુક્ત રહે છે, એવા જ મનુષ્યભવનું આયુષ્ય પૂરું કરીને નરકમાં જ જાય છે. નિર્દયતા પૂર્વક જીવહિંસા કરનારા પુરૂષોને અદિશામાં રહેલા અપકારમય નરકોમાં ઉત્પન્ન થવું પડે છે. તેમને નીચી મુંડીઓ વિષમ યાતનાસ્થાન રૂપ નરકમાં ઉત્પન્ન થવું પડે છે. એવી કોઈ પણ તાકાત નથી કે જે તેમને ત્યાં ઉત્પન્ન થતાં અટકાવી શકે છે પા નારમાં નારકી ને કેવાં દુઃખો વેઠવા પડે છે, તે સૂત્રકાર પ્રકટ કરે છે शाय-'परहम्मियाण-परमाधार्मिकाणाम्' ५२माधामिन 'हण-हस' भारे। “छिंदह-छिन्त' छेन रे। 'भिंदह-भिन्त' लेहन ४३। 'दह-दहत' माको 'इति-इति' AL प्रमाना 'सहे-शब्दान्' शहोने 'सुणित्ता-श्रुत्वा' समान 'भयभिन्नसन्ना-भयभिन्नसंज्ञाः' यथा योनी सा नाय पाभी छे. मे १५ For Private And Personal Use Only Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ૩૪૨ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृता सूत्र अन्वयार्थ :- 'परहस्त्रयाणं' परमधार्मिकाणाम् 'हण' इन- मारय 'छिंदह' छिन्त 'भिदह' भिन्त 'दहन' दह - इति' इति इत्याकारकान् 'सदे' शब्दान- भयंकरशब्दान् 'सुणिवा' श्रुत्वा 'भयभिन्नसन्ना' भयभिन्नसंज्ञाः - नष्टान्तःकरणवृत्तयः 'ते नारगाओ' ते नारकाः 'कंति' कांक्षति - इच्छन्ति (कं नाम दिसं वयामो) को नाम दिशं व्रजामः येनैतादृशमहाघोरारवदारुणस्य दुःखस्य श्राणं स्यादिति ॥ ६ ॥ > टीका - संपति नरकवर्तिनो जीवा यां दशामनुभवति, तामेव पुनरपि दर्शयति - 'परहम्मियाणं' परमधार्मिकाणां मनुष्यादिभत्रं परित्यज्य नरके समुत्पन्नाः जीवाः तत्र विद्यमानानां परमधार्मिकाणाम् 'ण' हत- महारं ममहापरिग्रहादि क्रूरकर्माणि कृत्वा ऽत्रागतस्य मुद्ररादिना शिरस्ताडयत 'छिंदह' छिन्त खड्गादिना 'मिदह' भिन्त भकादिना विदारयत 'दद्द' दहत- अग्न्यादिना ज्वालयत, इत्यादिजिनकी नष्ट हो गई है ऐसे वे 'ते नारगाओ-ते नारकाः' वे नारक जीव 'कंति - कांक्षन्ति' चाहते हैं कि 'कं नाम दिसं वयामो-कां नाम दिशं व्रजामः' हम किस दिशा में भाग जाय ॥ ६ ॥ अन्वयार्थ -- परमा धार्मिक देवों के मारो, काटो, भेदन करो, जला दो, इस प्रकार के शब्दों को सुनकर भय के कारण संज्ञाहीन हुए नारक जीव सोचते हैं कि हम किस दिशा में भाग जाएँ ॥ ६ ॥ टीकार्थ-- नरक में रहनेवाले जीव जिस दशा का अनुभव करते हैं, उसे दिखलाते हैं- मनुष्य या तिर्थच भय का त्याग करके नरक में उत्पन्न हुए जीव वहां के परमाधार्मिक देवों की वाणी सुनता है, जैसेयह महारंभ और महापरिग्रह आदि क्रूर कर्म करके आया है, मुद्गर से इसका सिर फोड़ दो, खड्ग से काट डालो, भाला आदि से विदा 'ते नारगाओ - ते नारकाः' थे ना२४ । 'कति कांक्षन्ति' छे छे है- 'कं नाम दिसं वयामो-को नाम दिशं वज्रामः' अभे उ दिशामा लागी ४६ ॥ ॥ सूत्रार्थ--'भारी भयो, लेही नाओ, भावी हो,' इत्यादि परमधार्मि દેવાના શબ્દોને સાંભળીને ભયને કારણે સંજ્ઞાહીન (ભાન ભૂલેલા-એષાકળા) બનેલા નારકે એવા વિચાર કરે છે કે કઈ દિશામાં ભાગવાથી પરમાધામિક हेवाना त्रासमांथी भाषये मयी शाशु !' ॥६॥ ટીકા--નરકમાં ગયેલાં જીવે કેવાં દુ:ખ સહન કરે છે, તેનુ' હવે વર્ણન કરે છે-નરકમાં પરમાધાર્મિ ક દેવાના આ પ્રકારના ભયજનક શબ્દો વારવાર સ`ભળાતા હોય છે-‘આ જીવ મહાભ અને મહાપરિગ્રહ આદિ કર કર્મો કરીને અહી આવ્યા છે, સુગર વડે તેનું માથું ફાડી નાખે, ખઠક વડે તેનું ગળું કાપી નાખા, ભાલા વડે તેનુ શરીર વીધી નાખે, તેને For Private And Personal Use Only Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. शु. अ. ५ उ. १ नारकीयवेदनानिरूपणम् ॥ भयजनकान् श्रोतुमयोग्यान 'सहे' शब्दान दूरादेव 'एणिता' श्रुत्वा भयभिन्न सम्मा' भयभित्रसंज्ञाः- भयेन भिन्ना नष्टा संज्ञा पलायनज्ञानं येषां ते तथा भयापहनज्ञाना इत्यर्थ', भयत्रस्नमानसाः नष्टसंज्ञाश्च क नाम दिसं क्यामों' का नाम दिशं वनामः। कुत्र गमनेनाऽस्माकमेतादृशघोगरवदारुणदुःखमहोदधेः सका. शाद का भविष्यतीत्येतत् 'कखंति' कांक्षति इति ।।६। मूलम्-इंगालरोसि जलियं सजोति तत्तोवमं भूमिमणुकमंता। ते डझमाणाकलुगंथणति अरहस्सरा तत्थचिरैट्रितीया| - छाया–अङ्गारराशि ज्वलितं सज्योतिः तदुपमा भूमिमनुक्रामन्तः । ते दह्यमानाः करुणं स्तनन्ति अरहःस्वरास्तत्र चिरस्थितिकाः ॥७॥ अन्धयार्थ:-(जलिय) अलि-मालाकुलं (इंगालासिं) अङ्गारराशि खदिराङ्गारपुंनं (सजोति) सज्योति:-ज्योतिषा ज्वालया युक्त (तत्तोत्रमं) तदुः पमा तप्ताङ्गारराशिफ्टी (भूमि) भूमि-पृथियों (अणुकमंता) अनुक्रामन्तश्चलना रण कर दो, इसे आग में जला दो। इस प्रकार के भयोत्पादक शब्दों को सुनकर उनकी संज्ञा (ज्ञान) नष्ट हो जाती है। वे अतीव भयातुर एवं किंकर्त्तव्यमूढ हो जाते हैं और सोचते हैं कि अब हम किस ओर भागे। कहां जाने से इस प्रकार के घोर एवं दारुण दु.ख के मागर से हमारी रक्षा हो सकती है? वे इस प्रकार इच्छा करते हैं ॥६॥ ... __ शब्दार्थ-'जलियं-ज्वलितम्' जलती हुई 'इंगालरासिं-झार राशि' अङ्गार की राशि तथा 'सजोति-सज्योतिः' ज्योतिसहित तत्तो. धर्म-तदुपमा भूमि के सदृश 'भूमि-भूमिम्' पृथ्वी पर 'अणुक्कमंताअनुक्रामन्तः' चलते हुए अतएव 'डज्झमाणा-दह्यमानाः' जलते हुए અગ્નિમાં બાળી દે મનુષ્ય અથવા તિર્યંચ ભવને ત્યાગ કરીને ત્યાં ઉત્પન્ન થયેલાં છે તેમના આ શબ્દો સાંભળીને ખૂબ જ ભયભીત થઈ જાય છે, તેમની સંજ્ઞા (જ્ઞાન) જ નષ્ટ થઈ જાય છે. તેઓ અત્યંત ભયભીત અને કિંકર્તવ્યમૂઢ થઈ જઈને એવી વિમાસણને અનુભવ કરે છે કે કયાં ભાગી જવાથી આ પ્રકારના દારુણ દુખમાંથી અમારી રક્ષા થઈ શકે, પરંતુ તેઓ ५ प्ररे ते मथी मयी २४ता नथी. ॥६॥ शाय-'जलियं-ज्वलितम्' माती वी 'इंगालरासिं-अङ्गारराशिम्' भाराने dat तथा 'सजोति-मज्योतिः' यतिवाणी 'तत्तोवमं-तदुपमाम्' भूभाना वा 'भूमि-भूमिम्' पृथ्वी ५२ 'अणुकमंता-अणुक्रामन्तः' । याता थे। मतमे 'डज्झमाणा-दह्यमानाः' मणता मे 'वे-तेमे १२५ को For Private And Personal Use Only Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे (उजनमाणा) दह्यमानाः (ते) ते नारका जीराः (कलुणं थगंति) करुणं दीनं स्त. नन्ति उच्चैः रुदन्ति (आहस्सरा) अम्हास्वराः प्रकटस्वराः सन्तः (तत्थ) तत्र नरकावासे (चिरद्वितीया) चिरस्थितिकाः प्रभूतकालस्थितिका भवन्तीति ।७॥ टीका--भयसंत्रस्ता जीवाः दिक्षु विनष्टाः याशीम् आस्थामनु भवन्ति, तदर्शयति-'जलिय' मित्यादिना- 'जलिये' ज्वलितम् जाज्वल्यमानं 'ई गालरासिं' अङ्गारराशिम् -खदिराङ्गार पुनम् , 'सजोति' सज्योति: ज्योतिषा तीव्रज्यालया सह वर्तते इति सज्योतिः। 'तत्तोवर्म' तदुश्माम् तेन साकमुपमा सादृश्यं विद्यते 'ते-ते' वे नारक जीव 'द लुणं धणंति-करुणं स्तनंति' दीन शब्द करते हैं 'अरहस्मरा-अरहःस्वराः' उनका शब्द प्रकट होता है 'त्य-तत्र' नरकावास में 'चिरहिनीया-चिरस्थितिका चिरकाल तक नरक में निवास करते हैं । ७॥ अन्वयार्थ--ज्वालाओं से युक्त अगारों की राशि तथा अग्नि से सपी हुई भूमि के समान नरकभूमि पर चलते हुए वे नारक जीव करुणरुदन करते हैं। उनकी रुदनध्वनि प्रकट में सुनाई देती है। नारक वहां चिरकाल तक इसी दशामें रहते हैं ।७॥ टीकार्य--वे नारक जीव भय से त्रस्त होकर और नाना दिशाओं में भाग कर जैसी अवस्था का अनुभव करते हैं, उसे सूत्रकार दिख. लाते हैं-खदिर (खैर) के जाज्वल्यमान अंगारों के समान तथा तीव्र ज्वालाओंवाली अग्नि के समान तप्त वहां की भूमि होती है, उसी भूमि 'कलुणं थर्गति-करुणं स्तनन्ति' ladlim vोना ।।२ ४२ छ. 'अरहस्सराअरहःस्वराः' प्रसट 211 शाणा तयो 'तत्थ-तत्र' ते न२४वासमा 'चिरदिवीया-चिरस्थितिकाः' aiमा समय पर्यन्त ते न२४वासभा निवास २ . ॥७॥ સૂત્રાર્થ–-જવાલાએથી યુક્ત અંગારાના ઢગલાં તથા અગ્નિ વડે તપેલી ભૂમિના જેવી નરકભૂમિ પર ચાલતાં નારકે આર્તનાદ કરુણ વિલાપ આદિ કરે છે. તેમના રુદનના કરુણ સૂરો ત્યાં સ્પષ્ટ રૂપે સંભળાયા કરે છે. નારકોને દીધ કાળ સુધી ત્યાં જ રહેવું પડે છે. છો ટીકાથે–ભયથી ત્રાસી ગયેલા તે નારકે જુદી જુદી દિશાઓમાં નાસભાગ કરતાં કરતાં કેવી યાતનાઓને અનુભવ કરે છે, તે સૂત્રકાર પ્રકટ કરે છે-બેરના પ્રજવલિત અંગારાઓ જેવી તથા તીવ્ર વાળાઓવાળી અગ્નિના જેવી તપ્ત ત્યાંની ભૂમિ હોય છે. એ ભૂમિ પર નારક ને ચાલવું પડે For Private And Personal Use Only Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ५ उ. १ नारकीय वेदनानिरूपणम् - यस्याः सा तां दादशीं 'भूमि' भूमि पृथिवीम् 'अणुकर्मता' अनुक्रामन्त, तस्ते नारका जीवाः, 'डज्झमाणा' तेन ज्वलितांगारेण दन्दह्यमानाः 'कलणं' करुणं - दीनं करुणोत्पादकं नादम् 'थर्णति' स्तनन्ति - अतीव दीनोग्रं शब्दं कुर्वन्ति, 'अरहस्सरा' अरहः स्वराः - महास्वरान् प्रकटयन्तः 'तत्थ' तत्र तकिनरकावा से 'चिरद्वितीया' चिरस्थितिकाः, दिरं प्रभूतं कालं स्थितिस्वस्थानं येषां ते चिरस्थितिकाः भवन्ति । उत्कृष्ट खिशत्सागरोपमाणि, जघन्यतो दशवर्षसह स्राणि तिष्ठन्ति चारका नरके । यद्यपि नरके पाहशास्वापाः संजायन्ते तेषामत्रश्यतापैर्नोपमा संपतति । सर्षपाऽऽकाशवत् तयोर्महावैषम्यात् तथापि अरिव सविता धावतीति वा कथंचि दृष्टान्तदर्शनमिति ॥७॥ 2 पर नारक जीवों को चलना पड़ता है । जब वे उस भूमि पर चलते हैं तो जलते हैं और करुणाजनक दीनस्वर में चिल्लाते-रोते हैं। उनकी रोने की ध्वनि जोर की होती है। नारक जीवों की स्थिति अर्थात आयु दीर्घकालीन होती है। वे वहाँ अधिक से अधिक तेंतिस सांगरोपम तक और कम से कम दस हजार वर्ष तक रहते हैं । यद्यपि नरक में जैसे सन्ताप होते हैं उनकी यहां के किसी भी सन्ताप से तुलना नहीं की जा सकती, सरसों और आकाश के परिमाण की तरह दोनों में महान् अन्तर है फिर भी यहाँ जो दृष्टस्त दिये गए हैं वे सामान्य मात्र हैं। जैसे सूर्य, बाण की तरह भागता है, इस છે. એવી તપ્ત ભૂમિ પર ચાલતી વખતે તેમના પગ દાઝી જવાથી તે કરુણાજનક (ક્રીન) સ્વરે ચિત્કાર અને આક્રંદ કરે છે. તેમના રુદનના અવાજ ઘણેા ઊંચા હોય છે. નારકેાનું આયુષ્ય ઘણું જ લાંબુ હોય છે. તેમનું ઉત્કૃષ્ટ આયુષ્ય ૩૩ સાગરાપમનું અને જન્ય આયુષ્ય દસ હૅાર વર્ષનું કહ્યું છે. ગમે તેટલી યાતનાએ સહન કર્યાં છતાં આયુસ્થિતિને કાળ પૂરા કર્યાં વિના તેએ ત્યાંથી છુટકારા મેળવી શકતા નથી. For Private And Personal Use Only નરકમાં જે યાતનામે સહુન કરવી પડે છે, તેની સરખામણી પૃથ્વી પરના કાઈ પણુ દુઃખ સાથે થઈ શકતી નથી. તે બન્નેના પ્રમાણુ વચ્ચે સરસવ અને આકાશના પ્રમાણ જેટલે મહાન તફાવત છે, છતાં પણુ અહી જે દૃષ્ટાન્તા આપવામાં આવ્યાં છે, તે સામાન્ય ખ્યાલ માટે જ આપ્યાં છેજેમકે સૂર્ય ખાણની જેમ ભાગે છે-ગતિ કરે છે,' આ દેષ્ટાન્તમાં સૂર્યને ખાણુની ઉપમાં આપવામાં આવી છે, પરન્તુ તે બન્નેની ગતિમાં ઘણા જ सू० ४३ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे मलम्-जइ ते सुया वेयरणीभिदुग्गा, णिसिओ जहा खुर इव तिक्खसोया। तरांति ते वेयरणिभिदुग्गां उसुचौइया सत्तिसुहंम्ममाणा८| छाया--यदि त्वया श्रुता वैतरण्यभिदुर्गा निशितो यथा क्षुए इव तीक्ष्णस्रोताः। तरन्ति ते वैतरणीमभिदुर्गामिपुनोदिताः शत्तिगु हन्यमानाः ॥८॥ अन्वयार्थः--(पिसिओ खुर इव तिवखसोया) निशितः क्षुर इव तीक्ष्णप्रीताः (जइ ते) यदि ते (अभिदुग्गा) अभिदुर्गा- दुःखोत्पादिका (वेयरणी) कथन में सूर्य को वाण की उपमादी गई हैं तथापि दोनों में महान अन्तर है, उसी प्रकार यहां के ताप और नरक के ताप में भी भारी अन्तर है॥७॥ — शब्दार्थ-णिसिओ खुर इव तिक्खसोया-निशितः क्षुर इव तीक्ष्ण स्रोताः' तीक्ष्ण उस्तरे की धार के समान तेज धार वाली 'जह ते'-यदि स्वया' जो तुमने 'अभिदुग्गा-अभिदुर्गा' अति दुर्गम वेधरणी-वैतरणी' वैतरणी नदी को 'सुया-श्रुता' सुना होगा 'ते-ते' वे नारक जीव 'अभिदुग्गां वेयरणि-अभिदुर्गा वैतरणीम्' अतिदुर्गमवैतरणी की 'उसुचोइया-इषुनोदिताः' बाण से प्रेरित किये हुए 'सत्तिसु हम्ममाणा-शक्तिसु हन्यमानाः' तथा भाला से भेदकर चलाये हुए 'तरंतितरन्ति ' तैरते हैं ॥८॥ . अन्वयार्थ-छुरा के समान तीक्ष्ण धार वाली वैतरणी नदी तुमने सुनी होगी। वह अत्यन्त दुर्गम है और क्षार, उष्ण एवं रुधिर जैसे માટે તફાવત છે, એ જ પ્રમાણે આ પૃથ્વી પરના તાપ (ગરમી) અને નરકના તાપ વચ્ચે ઘણો જ મેટે તફાવત છે. પણ Awar- 'णिसिओ खुर इव निक्खसोया-निशितः क्षुर इव तीक्ष्णस्रोताः' त'६५ मत पा२ स२५ ते पारवाणी 'जइ ते-यदि त्वया ने तमे 'अभिदुग्गा-अभिदुर्गा' मयत हुभ वेयरणी-वैतरणी' वैत नमना नहीन 'सुया-श्रुता' समजी री 'ते-ते' ते ना२६ । 'अभिदुगाां वेयरणिअभिदुर्गा' वैतरणीम्' सत्यात दुभ वैतरण नहीने 'सुचाइया-इषु नोदिता.' माथी प्रे२९ ४रेस 'सत्तिमु हम्ममाणा-शक्तिसु हन्यमानाः' माताथी नहीने यावामा भावना ना२३ छ। 'तरंति-तरन्ति' तरे छ. ॥८॥ સૂત્રાર્થ—અસ્ત્રાના જેવી તીણ ધારવાળી વૈતરણી નદીનું નામ તે તમે સાંભળ્યું હશે, તે નદી ઘણી જ દુર્ગમ છે. તે ક્ષાર, દૃષ્ણ અને રુધિર For Private And Personal Use Only Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मयार्थबोधिनी टीका प्र. शु. अ. ५ उ. १ नारकीयवेदना निरूपणम् ३४७ बैतरिणी - क्षारोष्णरुधिराकार जलनदी (ते सुया) त्वया श्रुता (ते) ते नारका जीवाः : ( उसुचोइया) इषुनोदिता शरेण प्रेरिताः (सत्तिसु इम्प्रमाणा) शक्ति हन्यमाना:शक्तिभिईन्यमानाः ( अभिदुग्गां वेयरणि) अभिदुर्गा वैतरणी ( वरंति) तरन्ति नद्यां पतन्तीति ॥८॥ - टीका -- सुधर्मस्वामी जंबुस्वामिनं पति कथयति हे जंत्रः भगवता तीर्थकरेण प्रतिपादिता या वैतरणी, तस्या नाम मायो भवद्भिः श्रुतमेव। णिसिओ खुर इव' निशितः क्षुर इव वीक्ष्णो यथा क्षुरधारः तद्वत् । 'विक्खपोया' तीक्ष्णस्रोताःतीक्ष्णानि शरीरविदारकानि स्रोतांसि यस्याः सा तीक्ष्णस्रोताः स्पर्शमात्रेण शीरविदारक स्रोतोयुक्ता 'जर ते सुवा' यदि स्वया श्रुता 'मिदुग्गा' अभिदुर्गा अति शयेन दुःखेन तत्तु योग्या 'वेयरणी' वैतरणी-क्षारोष्णरुधिरपूयजलवाहिनी नदी 'ते' ते नारकाः जीवाः अविशतिततांगारसदृशों भूमिं विहाय पिपासाकुळिता: पिपासामपनेतुम् 'अभिदुग्गां वेयरिज' अभिदुर्गा वैतरिणीम् अतिमीमां तां जल वाली है। नारक जीवों को बाणों से प्रेरित होकर तथा शक्तियों ( भाला वगैरह शस्त्रों) से आहत होकर उस दुर्गम वैतरणी नदी को पार करना पड़ता है, उसमें गिरना पड़ता है ||८|| टीकार्थ- सुधर्मा स्वामी जम्बू स्वामी से कहते हैं- हे जम्बू । तीर्थकर भगवान् के द्वारा प्रतिपादित वैतरणी नदी का नाम शायद तुमने सुना होगा । जैसे छुरा की धार तीखी होती है, उसी प्रकार उसकी धारा भी तीखी है उसके स्रोत स्पर्श होते ही शरीर को विदारण कर देने वाले हैं। वह क्षार, उष्ण, रुधिर एवं पीव रूप जल से युक्त है. और अतिशय दुर्गम है । उसे पार करना बहुत कठिन है। वे नारक जीव अतितप्त अंगार सदृश भूमि को छोडकर, प्यास से व्याकुल होकर જેવા જળથી યુક્ત છે, નારક જીયેાને માણા, ત્રિશુળ અને ભાલાં આદિથી પ્રેરાઈને દુમ નદી પાર કરવી પડે છે. ૫ટા ટીકા-સુધાં સ્વામી જયૂ સ્વામીને કહે છે હું જ મૂ! તીથંકર ભગવાન દ્વારા પ્રતિપાદ્રિત વૈતરણી નદીનું નામ તે તે... કદાચ સાંભળ્યું હશે, અસ્તરાની ધાર જેવી તીખી (ત'ક્ષ્ણુ) હેાય છે, એવી જ વૈતરણીની ધારા તીખી છે–તેને પાર કરવાના પ્રયત્ન કરનાર વ્યક્તિના શરીરનું તેના તીક્ષ્ણુ પ્રવાહ દ્વારા વિદ્યારણ કરાય છે. કાતરની જેમ તે નદીનેા પ્રવ.હુ શરીરને વેતરી नांचे छे, तेथी ४ तेतुं नाम वैतरणी पड्युं छे. ते नहीं क्षार, रुधिर, पाय પરુ આદિથી યુક્ત ઉષ્ણુ જળવાળી છે, અને તેને પાર કરવાનું કામ ઘણ For Private And Personal Use Only Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३४८ सूत्रकृताङ्गसूत्रे वैतरिणीम् 'उसुचोइया' इषुनोदिता-बाणेन प्रेरिताः 'सत्तिमु हम्ममाणा' शक्तिभिश्च हन्यमानाः सन्तः, तामेव वैतरणी 'तरंति' तरन्ति, पतन्तीति भावः ॥८॥ मूलम्-कीलेहि विझंति असा हुकम्मा नावं उविते सईविप्पडणा। अन्नेतु सूलाहिं तिसूलियाहिं दीहाहि विळूण अहे करंति।९। छाया--कीलेषु विध्यन्ति असाधुकर्माणः नावमुपेताः स्मृतिचिमहीणाः। अन्ये तु शूलैत्रिशूलैर्दीधैं विद्ध्वाऽधः कुर्वन्ति ॥९॥ अन्वयार्थः-(नावं उविते) नावमुपाता:-नावारूढाः (असाहुकम्मा) असाधु. कर्माणः-परमाधार्मिका तान् नारकान् (कोलेहिं विझति) कीलेषु विध्यन्ति,उसे शान्त करने के लिए उस दुर्गम और भयंकर वैतरणी नदी में बाणों से प्रेरित होकर तथा शक्ति नामक शस्त्रों से आहत होकर गिरते हैं ॥८॥ शब्दार्थ-'नावं उविते-नावमुपेताः' नाव पर बैठकर आते हुए 'असाह कम्मा-असाधु कर्माण परमावार्मिक कीलेहिं विज्झति-कीलेषु विध्यन्ति' कीलों से कण्ठ में बौंधते हैं । विध्यमान वे नारक 'सहविप्पहूणा-स्मृतिविहीणा।' स्मृतिरहित होकर किंकर्तव्यमूढ हो जाते हैं तथा-'अन्ने तु-अन्ये तु' दूसरे नरकपाल 'दीहाहि-दीर्धेः' दीर्घ 'मूलाहि-शूले' शूलों से एवं तिलूलियाहि-त्रिशूलैश्च' त्रिशूलों के द्वारा 'विधूण अहे करंति-विद्ध्याधः कुर्वन्ति' नारक जीवों को वेधकर नीचे फेंक देते हैं ॥९॥ .... अन्वयार्थ-नौका पर आरूढ होकर असाधुकर्मी परमापार्मिक उन नारकों के कंठ को पीलों से वेवते हैं । विधे गये थे नारक स्मृतिજ દુષ્કર ગણાય છે. પરમાધાર્મિક દેના તીરોથી પ્રેરાએલાં અને ભાલાથી ઘવાએલાંને વૈતરણ નદી પાર કરવી પડે છે. ૮ शहाथ---'नावं उविते-नावमुपेताः' ना१ अर्थात ही ५२ मेसीने मावता मेवा नावाने असाहुकम्मा-असाधुकर्माणः' ५२भाषामिछ। 'कीलेहि विझंति-कोलेषु विध्यन्ति' Hi Sa पीछे वीपाये। मेवात ना२४ ७ 'सइविप्पहूणा-स्मृतिविहीणाः' स्मृति विनाना थने तथ्यभूट 25 जय है. तथा 'अन्ने तु-अन्ये तु' भी न२४५. दीहाहि-दोधै:' ain मेवा 'सूलाहि-शुलैः' शूबोथी तमा 'तिसूलियाहि-त्रिशूलैश्च' त्रिशुद्ध १२'विधूण आहे काति-विद्ध्वाऽधः कुर्वन्ति' ना२ व विधीने नये ३४ी है 2.६। સૂત્રાર્થ–નૌકાઓમાં બેસીને તે અસાબુકમ પરમધામિક દે તે નાયકે પીછે પકડે છે. તેઓ નારકોના કંઠમાં ખીલાઓ લેકી દે છે. For Private And Personal Use Only Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ५ उ. १ नारकीय वेदना निरूपणम् 7 ર विध्यमानास्ते नारकाः (सविप्पहूणा ) स्मृतिविप्रहीणाः - अपगत कर्तव्यविवेका भवंति तथा (अन्ने तु) मन्ये तु नरकपालाः (दीहाहिं) दीर्घे (सूजाईि) शूलैः (तिमूलियाहिं) त्रिशूलैश्व (विभ्रूण अहे करंति) विवाः कुर्वन्ति पातयन्ति भूमौ इति ॥९॥ टीका- 'नाएं उचिते' नावमुपेताः नावमारूढाः, 'असा हुकम्मा' असाधुकर्माणः परमधार्मिकाः 'कीछे हि विज्झति' कीलेषु विध्यन्ति । विध्यमानास्ते 'सविपणा' स्मृतिविप्रहीणाः बैतरणीप्रवाहे गच्छन्तः पूर्वमेव स्मृतिभ्रष्टाः । अधुना तु कीलेवुविद्धाः सातिशयं स्मृति भवन्ति । 'अन्ने तु' अन्ये तु - परमधार्मिकाः नारकपालाः। 'दोहा हिं' दीर्घः आयतैः 'मूलाहिं' शूलैः 'तिम्रलियादि' त्रिशूलैः 'विण' विध्वा। नारकान् - 'अहे करंति' अधः कुर्वन्ति - वैतरण्यां पात हीन अंचन हो जाते हैं, उनका कर्त्तव्य विवेक नष्ट हो जाता है । दूसरे परमधार्मिक शलों से और त्रिशूलों से वेधकर नीचे गिरा देते हैं ॥ ९ ॥ टीकार्थ- नौका पर आरूढ हुए परमाधार्मिक उन्हें गले में कीलों से वेधले हैं। उस समय वे स्मृतिहीन हो जाते हैं। वैतरणी के प्रवाह में जाने से पूर्व ही उनकी स्मृति समाप्त हो जाती है परन्तु कंठ में कीलों से वेधने पर तो वे और भी अधिक स्मृतिभ्रष्ट बन जाते हैं। दूसरे नरकपाल उन्हें लम्बे लम्बे शूलों से और त्रिशूलों से बेधकर उन्हें नीचे गिरा देते हैं अर्थात् वैतरणी में पुनः पटक देते हैं । कोई कोई नरकपाल स्मृतिभ्रष्ट उन नारकों को त्रिशूल आदि से भेवन करके वेग के साथ भूमि पर गिरा देते हैं। वैतरणी नदी के આ પ્રકારે તેમના કડ વીધાઇ જવાથી તેઓ સ્મૃતિહીન અચેત થઈ જાય છે તેમની કર્તવ્યબુદ્ધિ નષ્ટ થઇ જાય છે. અન્ય પરમ ધાર્મિક તે નારકને ત્રિશૂળ, ભાતાં, તીર આદિ વડે વધીને નીચે પછાડે છે. લા ટીકા દ્વૈતરણી નદીમાં પડેલાં નારા તેની તીક્ષ્ણ ધારા આદિ વ એટલા ખવા દુ:ખી થાય છે કે ત્યાંથી મંડાર નીકળવાને માટે વલખાં મારે છે. પરમાધામિકાની નૌકાઓને જોઈને તેઓ તે નૌકાઓ પર ચડી જવાને છે ત્યારે પરમાધામિકા તેમના ગળામાં ખીલા ભેાંકી ઢે છે. ત્યારે તેએ સ્મૃતિહીન થઈ જાય છે. વૈતરણીના પ્રવાહમાં પડતાં પહેલાં જ તેમની સ્મૃતિ નષ્ટ ધઇ ગઈ હૈાય છે, પન્તુ જ્યારે તેમના ગળામાં ખીલાએ ભેાંકી દેવામાં આવે છે. ત્યારે તેઓ અધિક સ્મૃતિભ્રષ્ટ બની જાય છે. બીજા નરક પાલે લાંબા લાંખા ભાલાં, ત્રિશૂળે આદિ વડે ઘવાએલા તેમને માણેાથી પ્રેરીને વૈતરણી નદીતા પાણીમાં ફરી પાછાં પછાડી દે છે કાઈ કે.ઈ નકપાલ તે સ્મૃતિભ્રષ્ટ નારકને ત્રિશુળ આદિ વડે વીધીને ઘણા જ વેગથી જમીન પર પછાડે છે. વૈતરણી નદીના પ્રવાહમાં વહેતા For Private And Personal Use Only Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - va सूत्रकृताङ्गसूत्र यन्ति । केचन नरकपालाः स्मृतिविमनष्टान् त्रिशूलादिना आविध्य पृथिव्यां वेगेन पातयन्ति । नदीस्रोतोऽभिरुह्यमानाः तद्वेगेनैव गतस्मृतयः, इदानीं पुनस्त्रिशूलादिमिविद्धाः पृथिव्यां लठन्तः का दशामधिगच्छन्तीति त एव जानन्ति केवलिनोवेति ॥९॥ मूलम्-केसि च बंधितु गेले सिलाओ उदगंसि बोलति महालयंसि। कैलंबुया वालय मुम्मुरे य लोलंति पंञ्चति अतत्थ अन्ने॥१०॥ - छाया केषां च बद्ध्वा गले शिलाः उदके ब्रोडयन्ति महालये । ___ कलंबुका वालुकायां मुर्मुरे च लोलयन्ति पन्ति च तत्र अन्ये ॥१०॥ स्रोत में बहते वहते ही उसके वेग के कारण वे स्मृति से रहित हो जाते हैं, अब जब उन्हें त्रिशूल आदि से भेदन किया गया और पृथ्वी पर गिरा दिया गया तो उनकी क्या दशा होतो होगी ? इस बात को या तो वही जाने अधया केवली जाने ॥१॥ शनार्थ-'केसि च गले -केषांचित् गले' किन्हीं नारक जीवों के गले में 'सिलामो पंधितु-शिलाः पध्वा' शिलायें बांधकर 'महालयंसि उदगंसि-महालये उदके' अगाध जल में घोलंति-ब्रोडयन्ति' डुबाते हैं तथा 'तत्थ अन्ने-तत्राऽन्ये' दूसरे परमाधार्मिक वहाँ से उनको खींचकर 'कलवुयायालय मुम्मरे य लोलंति-कलंयुकावालुकायां मुम्मुरे च लोलयन्ति' अत्यंत तपी हुई बालुमें और मुर्मुराग्नि में इधर उधर फिराते हैं और 'पच्चंति-पचन्ति' पकाते हैं ।१०॥ વહેતા જ તેને વેગને કારણે તેઓ સ્મૃતિરહિત થઈ ગયા હોય છે. તે ત્રિશુળ આદિ ભકી દઈને નીચે પછાડવામાં આવેલા તે નારકોની કેવી દશા થતી હશે, એ વાત તે તે નાકે જ જાણતા હશે અથવા કેવળી ભગવાને જાણતા હશે. શા शहा -'केसि च गले-केषांचित् गले' ३४॥ ना२६ ७.ने Anti 'सिलाओ बंधित्तु-शिलाः बधा' शिवायो साधान 'महालयसि उदगं सेमहालये उदके' पाहमा 'बोलंति-ब्रोडयन्ति' हुमाउ छे. त५ 'तत्थ अन्ने-तत्रान्ये' Milan ५२मायामि। तेभने याथी चीन 'कलंबु यावालुयमुम्मुरे य लोलंति-कलंबु कावालुकायो मुर्मुरे च लोळयम्ति' सत्यत तपेली ३तीमा તેમજ મુમુરાગ્નિમાં અર્થાત્ ધુમાડા વિનાના અંગારાગ્નિમાં આમતેમ ફેરવે ७. अने 'पञ्चति-पचन्ति' राधे छे. ॥१०॥ For Private And Personal Use Only Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र.अ. म. ५ उ. १ नारकीयवेदनानिरूपणम् ३५१ अन्वयार्थः--(केसि च गले) केषांचित् गले कण्ठे (सिलाओ बंधित्तु) शिला पस्तरवण्डान् बद्धा (महालयसि उदगंसि) महालये उदकेऽतिगंभीरजले (बोलंति) बेडयन्ति निमजयन्ति तथा (नस्थ अन्ने) तान्ये नरकपालाः ततः समा. कुष्य (कलंबु गावालुयमुम्मुरे य लोलंति) कलंबुवालुकायां मुर्मुरे च लोलयन्ति-अति तप्तवालुका चाकानिस भयन्ति तथा (पच्चंति) पचन्ति-मांसपेशीवत् ॥१०॥ टीका-'के सिं च' केपा च नारकीगाम् 'गले' गले-कण्ठे 'सिलायो' शिलाः महाभारयुक्ताः 'बंधित्तु' बवा 'महालयंसि' महालये अगाधे । 'उदगंति' उदके-वैतरिण जले 'दोलंति' ब्रोडयन्ति मज्जयन्ति । तथा-'तस्थ' तत्र 'अन्ने' अन्ये पुरुषाः परमाधामिकाः । 'कलंबु के त्यादि । 'कलंबु गावालयमुम्मुरे य' कलंत्रुकावालुकमुर्मुरे च-अतिसंतप्तवालुकायां यथा चणकानि लोलयन्ति कोटयन्ति तथा 'पच्चंति' पच्यन्ते मांशपेशीवत् मजयन्ति, परमाधार्मिक स्वस्थ कर्मणा केचन जले पात्यन्ते, केचन भ्राष्टे भनिता भवन्ति, अपरे पुन: पाचिता भव न्तीति भावार्थः । १०॥ ___ अन्वयार्थ--किन्हीं-किन्ही नारकों के गले में शिलाएँ पाँधकर अत्यन्त गहरे जल मे डुया देते हैं । दूसरे नरकपाल उसमें से खींचकर कदंषयालुका में चनों की तरह भूनते हैं तथा मांशपेशी के समान पकाते हैं ॥१०॥ ___टीकार्थ--कोई कोई नरकपाल किन्हीं किन्हीं नारकों के गले में भारी बोझ से युक्त शिलाएं बांधकर वैतरणी के अगाध जल में डुगा देते हैं। दूसरे नरकपाल कलंधुकाबालुका-तपी हुह रेत मे चनों की तरह भूनते हैं और मांशपेशी के समान पकाते हैं । आशय यह है कि સૂત્રાર્થ–કઈ કઈ નારકના ગળામાં શિલાઓ બાંધીને તેમને અત્યંત ઊંડા પાણીમાં ડુબાવી દેવામાં આવે છે. અન્ય નરકપાલે તેમને પાણીમાંથી બહાર ખેંચી કાઢીને ચણુ અને પૌંવાની જેમ આગ પર શેકે છે તથા તેમના શરીરને માંસની જેમ દેવતા પર પકાવે છે. ૧૦ ટીકાર્થ–કઈ કઈ પરમધામિક દે નારકેના ગળામાં ભારે શિલાઓ બાંધીને તેમને વૈતરણું નદીને અગાધ પાણીમાં ડુબાવી દે છે. ત્યારે બીજા પરમધામિકો તેમને દેવતા પર ચણા, પિવાની જેમ શેકે છે, અને કઈ કઈ પરમધામિક માંસપેશીઓની જેમ તેમને અગ્નિ પર પકાવે છે. આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે પરમધાર્મિક દે નારકેને તેમના For Private And Personal Use Only Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मूलम्-असूरियं नाम महाभितावं अंधं तमं दुप्पतरं महंत । उडूं अहेअंतिरियं दिसासुसमाहिओ जत्थगणी झियाई।११। छाया-असूर्य नाम महाभिमाय मन्धन्तमो दुष्पतरं महान्तम् । ऊर्ध्वमस्तियन दिशामु समाहितो यत्राग्निः ध्मायते ॥ १।। अन्वयार्थ:-(अभूरियं नाम) अमूर्य नाम-यत्र सर्यो नास्ति (महाभिनाव) महाभितापं-महातापयुक्तं (अंधं तमं दुपतरं महत) अन्धं तमो दुष्मतरं महान्तम् परमाानिक देव नारकों के कर्मों के अनुसार ही किसी को जल में गिराते है, किसी को भाड में भूनते हैं और किसी को आग में पकाते हैं ॥१० । शब्दार्थ- 'अनूरियं नाम-अस्सूर्य नाम' जिसमें सूर्य नहीं है महाभिता-महाभितापं' और जो महान् ताप से युक्त है 'अंधं तमं दुप्पतरं महंत-अन्धं तमो दुष्प्रतरं महान्तम्' तथा जो भयंकर अंधकार से युक्त एवं दुःख से पार करने योग्य और महान् है 'जस्थ-यत्र' जहाँ जिस नरकावास में 'उडूं-ऊर्ध्वम्' ऊपर 'अहे-अधः' नीचे 'तिरियंतिर्यक् तथा तिरछी 'दिसासु-दिशासु' दिशाओं में समाहिया-समा. हितः सम्यक् प्रकार से व्यवस्थापित 'गणी-अग्निः' अग्नि 'जियाईध्मायते' जलती रहती है ॥११॥ अन्वयार्थ--जहां सूर्य नहीं है, जो घोर संताप से युक्त है, अन्धकारमय है, दुस्तर है और महान है तथा जहां ऊपर, नीचे और तिर्ण કમ અનુસાર જ શિક્ષા કરે છે. તે શિક્ષા રૂપે કેઈને પાણીમાં ડુબાવવામાં આવે છે, તે કોઈને ભઠ્ઠીમાં ચણાની જેમ શેકવામાં આવે છે, તે કેઈને આગ પર માંસની જેમ પકાવવામાં આવે છે તેના शाय-'असूरिय नाम-असूर्य न म' मा सूर्य न य तम २ 'महाभिता-महाभितापम्' मला तपाणु डाय छ, तथा रे 'अंधं तमं दुप्पतरं महंत-अंध तमो दुष्प्रतरं महान्तम्' तारे भय ४२ वा धाराथी सततम मथी पा२ पाभा योग्य भने महान् छ, 'जत्थ--यत्र' रे न२४ासभा 'उडूढं-ऊर्ध्वम्' अ५२ 'अहे-अधः' नीचे तिरिय-तिर्यक' तथा तिरछी 'दिमासु-दिशासु' EिALHi 'समाहिया समाहितः' सारी री राम पामा मावस 'अगणी--अग्निः' मनि 'झियाई ध्मायते' मणती २७ छ ।॥११! સૂત્રાર્થ– જયાં સૂર્યનાં દર્શન પણ થતા નથી. જે ઘેર સંતાપથી યુક્ત છે, જે અંધકારમય છે, જે દુસ્તર અને મહાનું છે, તથા જેની ઉપર, નીચે For Private And Personal Use Only Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र.अ. अ. ५ उ. १ नारकीयदनानिरूपणम् १५३ (जत्थ) यत्र नरकावासे (उड़) ऋर्व (अहे) अधः (तिरियं) तिर्यक् (दिसासु) दिशासु (समाहिओ) समाहितः-सम्यग् व्यवस्थापितः (अगणी) अग्निः (झियाई) ध्मायते, एतादृशे नरके नारका वजन्तीति ॥११॥ टीका-'अमरियं नाम' असूर्य नाम, न विद्यते सूर्यो यस्मिन् सः अस्यों नरको निविडान्धकारयुक्तः । कुम्भिकाकृतिरिति निष्कर्षः । यद्यपि सर्व एव नरकाः सूर्यप्रकाशविरहिता एव भवन्ति तथापि 'महाभिता' महाभिताप-महता तापेन युतम् , सूर्याभावेपि क्षेत्रस्वभावात् 'अंधं तम' अन्धतमसमतिशयान्धकारयुक्तं 'दुप्पतरं महंत' दुष्पतरं महान्तम् दुःखेन तत्तुं योग्यम् , तथा एवंभूतं नरकं क्रूर कर्माणः स्वपापोदयाद् गच्छति । 'जत्थ-यत्र' 'उड़े अहेअं तिरिय दिसामु ऊर्ध्वमस्तिर्यदिशामु-उपरि नीचैः तिर्यगिति तिसृषु दिक्षु 'समाहिओ' समाहितः सम्यग् व्यवस्थापितः 'अगणी' अग्निः 'झियाई ध्मायते अधिस्तियक्षु दिक्षु यत्र जाज्वल्यमानो ज्वलितामिः मज्वलति तत्र पापिजनाः वजन्तीति भावः ॥११॥ दिशाओं में अग्नि प्रज्वलित रहती है, ऐसे नरक में पापी पाणी उत्पन्न होते हैं ॥११॥ टीकार्थ--जहां सूर्य का अभाव है ऐसा असूर्य नामक एक नरक है जो कुंभिका की आकृति का है । यद्यपि सभी नरक सूर्य के प्रकाश से रहित ही है तथापि वे घोर ताप से युक्त है क्योंकि सूर्य के अभाव में भी ताप होना उस क्षेत्र का स्वभाव है । वह नरक निविड़ (भयंकर) अन्धकार से युक्त है, दुस्तर है और महान् है । वहां ऊपर, नीचे तथा तिर्यक दिशाओं में सम्यक प्रकार से व्यवस्थापित अग्नि जलती रहती है। ऐसे नरक में पापीजन पडते हैं ॥११॥ ..... અને તિરકસ દિશાઓમાં અગ્નિ પ્રજવલિત રહે છે, એવી નરકમાં પાપી ઉત્પન્ન થાય છે. ૧૧ ટીકાઈ–અસૂર્ય નામના એક નરકને આકાર કુંબિકા જેવું છે. તેમાં સૂર્યને અભાવ છે. જે કે બધા નરકે સૂર્યના પ્રકાશથી રહિત છે, છતાં પણ તે નરકે ઘોર તાપથી યુક્ત છે, કારણ કે સૂર્યના અભાવમાં પણ તે ક્ષેત્રમાં તાપને સદૂભાવ રહે છે. તે ક્ષેત્રને એ સ્વભાવ (લક્ષણ) જ છે. તે નરક ઘોર અંધકારથી યુક્ત છે. વળી તે દસ્તર અને મહાન છે. તેમાં ઊંચે, નીચે અને તિર્યમ્ દિશામાં વ્યવસ્થિત ગોઠવાયેલે) અગ્નિ સતત બળ જ રહે છે, પાપી લોકો એવા નરકમાં ઉત્પન્ન થાય છે. ૧૧ स० For Private And Personal Use Only Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतासूचे मूत्रम्-जैसी गुहाए जलणे तिउट्टे अविजाणओ डझइ लत्तेपण्णो। सैया य कलुणं पुर्ण घम्मठाणं गाढोवणीयं अतिदुक्खधम्म।१२। ... छाया-यस्मिन् गुहायां ज्वलनेऽतिवृत्तोऽविजानन् दह्यते लुप्तपज्ञः । सदा च करुणं पुनधर्मस्थानं गाढोपनीतमतिदुःखधर्मम् ॥१२॥ अन्वयायः-(जसि) यस्मिन् (गुहाए) गुहायां-गुफाकारे (जलणे) ज्वलने वहौ(अतिउडे) अतिवृत्तः-अतिगतः स्वकृतदुष्कृतम् (अविनाणओ) अविजानन् (लुत्त. पण्यो) लप्तमज्ञः-अपगतावधिविवेको नारकः (डज्झइ) दह्यते (सया य) सदा सर्व शब्दार्थ-सि-यस्मिन्' जिस नरक में 'गुहाए-गुहायाम्' गुफा के आकार के समान 'जलणे-ज्वलने' अग्नि में 'अतिउट्टे-अतिवृत्तः संता. पित वह स्वकृत दुष्कृत्य को 'अविजाणो-अविजानन्' न जानता हुआ 'लुत्तपण्णो-लुतप्रज्ञः' संज्ञारहित होकर 'उज्झा-दयते' जलता रहता है और 'सया य-सदा च' सर्वकाल 'कलुण-करुणम्' दीन 'पुणघम्मठाणंपुनर्घमस्थानम्' तथा संपूर्ण ताप का स्थान 'गाढोषणीयं-गाढोपनीतम्' जो पापीजीव को बलात्कार से प्राप्त होता है 'अतिदुक्खधम्म-अति. दुःखधर्मम्' एवं अत्यन्त दुःख देना ही जिसका स्वभाव है ऐसे स्थान में नारकजीव जाते हैं ॥१२॥ ___अन्वयार्थ--नरक में गया हुआ कोई कोई नारक गुफा अर्थात् उष्ट्रिका के आकार वाले नरक में डाल दिया जाता है। वहां अग्नि में पड़कर वह अपने पाप को न जानता हुआ एवं नष्टप्रज्ञ होकर जलता शा--'सि-यस्मिन्' २ न२४मा 'गुहाए-गुहायाम्' शुभना मार २वा जलणे-बलने' निमा 'अतिउट्टे-अतिधृत्तः' सता५ पामेवात पात रेखा त्याने 'अविजाणी- प्रविजानन्' १५॥ विना भने 'लुत्तपणे-लुप्तप्रज्ञः' समाविनान 'डज्झइ-दह्यते' मगत २ छ. 'सया य-मदा च' सा 'कलुण-करुणम्' हीनतासन 'पुणधम्मदाणं-पुनर्घमस्थानम्' तथा स शत तापर्नु स्थान 'गाढोवणीयं-गाढोपनीतम्' २ ना२४ सपने माथी प्राप्त याय छ, तभा 'अतिदुक्खधम्म-अतिदुःखधर्मम्' अत्यात म मा मेर જેને સ્વભાવ છે એવા સ્થાનમાં નાક જ જાય છે. રા સૂત્રાર્થ-નરકમાં ગયેલાં કેઈ કેઈ નારકને ગુફા-એટલે કે ઉષ્ટ્રિકાને આકારના નરકમાં હડસેલી દેવામાં આવે છે. ત્યાં તે અગ્નિમાં પડે પડ દારુણ પીડાને અનુભવ કર્યા કરે છે, તેને એ વાતનું ભાન પણ હોતું નથી For Private And Personal Use Only Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org - मार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ५ उ. १ नारकीय वेदना निरूपणम् ३५५ काले च (i) करुणं - दीनं (पुण घम्मठाणं) पुनर्धर्मस्थानं तापस्थानम् (गाडो. वणीयं) गाढोपनीतं = गाढमत्यर्थमुपनीतं ढौकितम् (अतिदुक्खधम्मं ) अतिदुः खधर्मम् अतिदुःखरूपो धर्मः स्वभावो यस्मिन् तादृशं स्थानं नारका व्रजन्तीति ॥ १२ ॥ टीका - जंसि' यस्मिन्नर के 'गुहाए' गुहायाम्, उष्ट्रिकाकारायाम्, 'जलने' ज्वलने - मदीप्ताग्नौ ' अतिउट्टे' अतिवृत्तः बलात् संताप्यमानः संज्ञाविरहितत्वाद स्वकीयं दुष्कर्म ' अविजाणओ' अविजानन्, तथा 'लुतप०गो' लुम्प्रज्ञः अपगताविवेकः 'उज्झ' दह्यते दंदलते 'सया य' सदा च यत् 'कलणं' करुणम्, करुणाजनकं 'घमठाणं' धर्मस्थानं - उष्णता तितसं स्थानम् । 'गाढोवणीयं' गाढोपनीतम्, गाढमतिशयेन प्राणातिपातादिघोरकर्मणा उपनीतं प्राप्तम्, दुष्कृतकर्मकारिणां यत्स्थानम् । 'अतिदुक्खधम्मं' अतिदुःखधर्मम् अतिशयेन दुःखस्वरूपो धर्मः स्वभावो यस्मिन् एतादृशं नरकस्थानम् अतिक्रूरकर्मकारिणस्ते गच्छन्ति । है। नरक की भूमि कारुणिक है, ताप का स्थान हैं और अत्यन्त ही दुःखप्रद है । नारक जीव ऐसे स्थान को प्राप्त होते हैं ॥ १२ ॥ " टीकार्थ - - नरक में गया नारकजीव उष्ट्रिका के आकार की गुफा में, प्रदीप्त आग में, जबर्दस्ती जलाया जाता है। संज्ञाहीन हो जाने के कारण वह अपने पापकर्म को नहीं जानता । उसका अवधिविवेक भी लुप्त हो जाता है। ऐसी स्थिति में वह जलता है । नरकस्थान सदैव दुःख का स्थान है, अतीव उष्णता से तप्त बना रहता है और प्राणातिपात आदि घोर दुष्कृत्य से प्राप्त होता है। वह अतिशय दुःखरूप Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only , કે પાતે કયા પાપાનું ફળ ભેગવી રહ્યો છે. તેની પ્રજ્ઞા લગભગ નષ્ટ થઇ ચુકી ડાય છે. નરકની ભૂમિ કારુણિક છે, તાપનુ સ્થાન છે અને અપાર દુઃખપ્રદ ४. पापी वेो नरगतिने योग्य व मेवा नरम्भां उत्पन्न थाय छे. ॥१२॥ ટીકા”—નરકમાં ઉત્પન્ન થયેલા નારક જીવને ઉક્ટ્રિકાના આકારની ગુફામાં, પ્રપ્ત આગમાં બળજબરીથી ખાળવામાં આવે છે. સનાહીન થઈ જવાને કારણે તે પેાતાના પાપકર્માંને જાણુતા નથી. તેના અધિવિવેક પણ લુપ્ત થઈ જાય છે. આ પ્રકારની સ્થિતિમાં તે અગ્નિજનિત દાહના અનુભવ કર્યો કરે છે, આ રીતે નરકસ્થાન સદા દુઃખનું જ સ્થાન છે. તે સ્થાન અપાર ઉષ્ણતાથી સ'તમ જ રહેતું હોય છે, પ્રાણાતિપાત આદિ ધાર દુષ્કૃત્ય કરનારા જીવા જ ત્યાં ઉત્પન્ન થાય છે. તે સ્થાનમાં ઉત્પન્ન થનારા જીવા એક સહુ भांश्री भुक्ति भेजनी शक्ता नभी उछु' पशु छे है- 'अछिणिमीलण मेन' Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३५६ तंत्र न क्षणिकोऽपि कालो दुःखात् विश्रामस्य । उक्तं च'अच्छि णिमीळणमेतं णत्थि सुहं दुक्खमेव पडिव । णिरये णेरइयाणं अहोणिसं पचमाणानं ॥ १ ॥ ' छाया - अक्षिनिमीलनमात्रं नास्ति सुखं दुःखमेव प्रतिबद्धम् । निरये नैरयिकाणामहर्निश पच्यमानानाम् ॥ १॥ १२॥ मूलम् - चत्तारि अगणीओ समारभित्ता ते तत्थ चितेऽभितप्यमाणा सुत्रकृताङ्गसूत्रे अहिं कूरकम्माऽभितर्विति बलं । मच्छीव जीवं तुवजोइपत्ता ॥ १३ ॥ छाया - चतुरोऽग्नीन् समारभ्य यस्मिन् क्रूरकर्माणोऽभितापयन्ति बालम् । से तत्र विष्ठन्त्यभितप्यमाना मत्स्या इव जीवन्त उपज्योतिः प्राप्ताः ॥ १३॥ स्थान है और क्रूर कर्म करने वाले वहाँ उत्पन्न होते हैं। वहाँ एक क्षण भी दुःख से विश्राम नहीं मिलता। कहा भी है-'अच्छिणि मीलणमेतं' इत्यादि । रातदिन पचने वाले पीडा का भोग करने वाले नारकियों को नरक में पल भर भी सुख प्राप्त नहीं होता। वे निरन्तर दुःख ही दुःख - भोगते रहते हैं ॥१२॥ - शब्दार्थ-- 'जहि यत्र' जिस नरक भूमि में 'क्रूरकम्मा क्रूरकर्माणः क्रूर कर्म करनेवाले परमधार्मिक 'बसारि अगणीओ समारभित्ता-चतुरः अग्नीन् समारभ्य' चारों दिशाओं में चार अग्नियां प्रज्वलित करके 'बाल- बालम्' अज्ञानी नारकी जीव को 'अभितविंति - अभितापयन्ति' तपाते हैं 'ते-ते' वे नारकी जीव 'जीवं तुवजोइपत्ता - जीवन्त उपज्योति: For Private And Personal Use Only - રાદિન જેમને અગ્નિ પર પકાવવામાં આવે છે એવા નારક જીવાને સતત પીડાના જ અનુભવ કરવા પડે છે. તેમને ક્ષણુનું સુખ પણ મળતું નથી. તેઓ તા ત્યાં નિરન્તર દુઃખના જ અનુભવ કર્યાં કરે છે.’।૧૨। शब्दार्थ' – 'जहि यत्र ' ने नाम्लूमिमां 'कूरकम्मा - क्रूरकर्माणः' २ अभी- अश्वाषाणा परभाधाभि है। 'चत्तारि अगणीओ समारभित्ता - चतुरः अमीन् समारभ्य यारे दिशाओ मां यार अग्जियो अगट ४रीने 'बाळ' - बालम्' 'अज्ञानी नारी बने 'अभितविंति - अभितापयन्ति' तथावे छे. 'ते-वे' वा नार । 'जीवंतु जो इपत्ता - जीवन्त उपज्योतिः प्राप्ताः' अग्निनी सभी भावे Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir eneralfatt टीका प्र. शु. अ. ५ उ. १ नारकीयवेदना निरूपणम् ३५७ अन्वयार्थ : - ( जहिं ) यत्र नरके ( कूरकम्मा) क्रूरकर्माणः परमाधार्मिकाः ( चत्तारि अगणीओ समारभित्ता) चतसृषु दिशासु चतुरोऽग्नीन् समारभ्य मज्वाल्य (बाल) बालमज्ञानिनारकजीवम् (अभितविंति ) अभितापर्यंत ज्वालयन्ति (ते) ते नारकाः (जीवंतु जोइपत्ता मच्छा व ) जीवन्त उपज्योतिः अग्निसमीपं प्राप्ताः मत्स्या इव (अभितप्यमाणा) अभितप्यमानाः तापं सहमानाः (तत्थ चित) तत्रैव तिष्ठन्तीति ॥१३॥ - टीका- 'जर्दि' यस्मिन् नरकावासे 'कूरकम्मा' क्रूरकर्माणः परमधार्मिकाः 'चचारि ' चतसृषु दिशासु - पूर्वपश्चिमोत्तरदक्षिणरूपासु चतुरः 'अगणीओ' अम्मीन 'समारमिता' समारभ्य - प्रज्वालय 'वाल' वाले दुष्कृतकारिणम् = महारंभ महापरि ग्रहादिकारिणं पञ्चेन्द्रियघातकं मांसभक्षकं च 'अभितर्विति' अभितापयन्तिप्राप्ताः' अग्नि के पास प्राप्त जीती हुई मछली के समान 'अभितप्पमाणा-अभितप्यमानाः' ताप से तप्त होते हुए 'तत्थ चित-तत्र तिष्ठन्ति' वहां उसी नरक स्थान में रहते हैं ॥१३॥ अन्वयार्थ - नरक में क्रूर कर्मा परमाधार्मिक चारों दिशाओं में चार अग्नियाँ जलाकर उस बाल जीव (नारक) को जलाते हैं। अग्नि के सम्पर्क से वे जीवित रहते हुए उसी प्रकार उस ताप को संहन करते रहते हैं जैसे जीवित मछली ॥१३॥ टीकार्थ -- जिस नरकावास में क्रूरकर्म करने वाले परमधार्मिक देवता पूर्व पश्चिम उत्तर और दक्षिण रूप चारों दिशाओं में चार अग्नियाँ जलाते हैं और उस महारंभ महापरिग्रह पंचेन्द्रिय घात मांस भक्षण आदि महादुष्कृत करने वाले अज्ञानी नारक को तपाते हैं। वे For Private And Personal Use Only छक्ती भाछडीनी प्रेम ' अभितप्पमाणा - अभितध्यमानाः ' तायथी तयता થા ' तत्थ चिट्टंत - -तत्र तिष्ठन्ति' त्या भेग नरस्थानमा रहे छे. ॥१३॥ સૂત્રા”—નરકમાં ફેર પરમાધામિક દેવા ચારે દિશાઓમાં ચાર અગ્નિએ પ્રગટાવીને તેમાં તે ખાલવાને (અજ્ઞાન જીવેશને-નારકોને) ખાળે છે, અગ્નિમાં બળવા છતાં તેઓ મૃત્યુ પામતા નથી, પણ જીવિત રહીને જીવતી માછલીની જેમ તરફડતાં તરફડતાં તે તાપને સહન કરે છે. ૫૧૩. ટીકા”—તે નરકાવાસામાં ક્રૂર કમ કરનારા પરમાધામિક દેવતા પૂત્ર, પશ્ચિમ, ઉત્તર અને દક્ષિણુ રૂપ ચારે દિશાએમાં ચાર અગ્નિ પ્રજ્વલિત કરે છે, અને મહાર'ભ, મહાપરિગ્રહ, પચેન્દ્રિયઘાત, માંસભક્ષણુ આદિ મહાદુષ્કૃત્ય કરનારા અજ્ઞાની નારકાને તેમાં ખાળે છે, તે નારકી માં Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SEAR. 23... सूत्रकृताङ्गसूत्रे पीडयन्ति ते परमाधार्मिकाः दशविधक्षेत्रवेदनाभिः 'तत्थ' तत्र-नरकावासे परमाधार्मिकै 'अभितप्पमाणा' अभि सर्वतः तप्यमानाः 'जीवंतुवजोइपत्ता' जीवन्त एव उपज्योतिः अग्निसमीपं माताः ‘मच्छा व मत्स्या इव 'चिटुंत' तत्रैव तिष्ठन्ति । - यथा-जीवन्त एव मत्स्या, अग्निसमीपं प्राप्ताः, तादृशतापेन संतप्यमानाः परवशत्वात् नाऽन्यत्र गच्छन्ति किन्तु तत्रैव तिष्ठन्ति, तथा इमे जीवा अपि नरकावासं प्राप्ताः, तत्र तत्रत्यपरमाधार्मिकः वहिना तातप्यमाना अपि तव परमदुःखेन लुठन्ति । न तत्स्थानं हित्वाऽन्यत्रोपगन्तुं शक्यन्ते, इति ॥१३॥ मलम्-संतच्छणं नाम महाहितावं ते नारया जत्थ असाहकम्मा। - हत्थेहि पाएहि य बंधिऊणं फैलगं व तच्छंति कुहाडहस्था॥१४॥ छाया-संतक्षणं नाम महाभितापं तान् नारकान् यत्र असाधुकर्माणः । इस्तैध पादैश्च बद्ध्वा फलकमित्र तक्ष्णुवन्ति कुठारहस्ताः ॥१४॥ नारक वहां दस प्रकार की क्षेत्रवेदना से बुरी तरह संतप्त होते रहते हैं। वे जीवित रहते हुए अग्नि के समीप मछलियों की भांति संताप का अनुभव करते हुए वहीं स्थित रहते हैं। ___ जैसे जीती हुई मछलियां अग्नि का सानिध्य पाकर दुस्सह ताप से तप्त होती हुई भी पराधीन होने से अन्यत्र नहीं जाती-वहीं रहती है, उसी प्रकार ये जीव नरकावास को प्राप्त होकर, परमाधार्मिको द्वारा तपाये जाते हुए भी घोर दुःखपूर्वक वहीं तडफडते रहते हैं। वे उस स्थान को त्यागकर अन्यत्र नहीं जा सकते ॥१३॥ દસ પ્રકારની ક્ષેત્રવેદનાને ખરાબમાં ખરાબ રીતે અનુભવ કર્યા કરે છે. તેઓ જીવિત રહેવા છતાં પણ અગ્નિની સમીપમાં રહેલી જીવતી માછલીની જેમ ત્યાં જ રહીને તે સંતાપને અનુભવ કર્યા કરે છે. જેવી રીતે પરાધીન દશામાં રહેલી માછલીઓ અગ્નિની સમીપમાં રહીને દુસહ તાપને અનુભવ કરવા છતાં પણ ત્યાંથી દૂર જઈ શકતી નથી– માછલીને જ્યારે જીવતી પકાવવામાં આવે છે, ત્યારે તે પરાધીન હોવાને કારણે અગ્નિથી દૂર નાસી શકતી નથી. એ જ પ્રમાણે પરમધામિક દેવે દ્વારા આગમાં બાળવામાં આવવા છતાં પણ તે નાકે ત્યાંથી ભાગી શકતા નથી. તેમને પરાધીનતાને કારણે દારુણ દુઃખ સહન કરવું જ પડે છે. ૧ For Private And Personal Use Only Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir erestfruit टीका प्र. शु. अ. ५ उ. १ नारकीय वेदना निरूपणम् ३५९ अन्वयार्थः - (महाहितावं) महाभितापं (सतंच्छणं नाम) संतक्षणं नाम नरको विद्यते ( जत्थ) यत्र यस्मिन् नरके ( असा हुकम्मा) असाधुकर्माणः' (कुहाडहत्था) कुठारहस्ताः कुठारं हस्ते कृत्वा (ते नारया) तान नारकान् (हत्थेहि पारहिं य बंधिऊर्ण) हस्तः पादेश्व बद्ध्वा (फलगं व) फलकं काष्ठमिव (तच्छंति) तक्ष्णुवन्ति - कर्तयन्तीति ॥ १४॥ टीका - 'महाहिताव' महाभितापम्, महादुखोत्पादकं 'संतच्छणं नाम' संतक्षणं नाम नरकस्थानं संमान्यते । ' जत्थ' यत्र नरके 'असा हुकम्पा' असाधुकर्माणो निरनुकम्पाः परमधार्मिकाः 'कुहाडहत्या' कुठारहस्ताः सन्तः ते नारया शब्दार्थ - 'महाहितावं - महाभितापम्' महान संताप देने वाला 'संतच्छणं नाम - संतक्षणं नाम' संतक्षण नामक नरक है 'जरथ-यत्र ' जिस नरक में ' असा हुकम्मा - असाधुकर्माणः पापकर्म करने वाला 'कुहाडहत्था कुठारहस्ताः' हाथ में कुहाडा लिये हुए 'ते नारया - तान् नारकान्' उन नारकों को 'हत्थेहिं पाएहिं य यंधिकणं हस्तैः पादेव दूध्वा' नारकी जीवों के हाथ और पैर बांधकर 'फलगं व- फलकमिय' काष्ठ की तरह 'तच्छेति-तक्ष्णुवन्ति' काटते हैं ॥१४॥ अन्वयार्थ - अत्यन्त संताप देने वाला संतक्षण नामक नरक है । उसमें परमधार्मिक हाथ में कुठार लेकर नारकों के हाथ और पैर बांधकर उन्हें काष्ठ की तरह काटते हैं || १४ | टोकार्थ -- वहां संतक्षण नामक नरक है जो महान् दुःखजनक है । उस नरक में असाधुकर्मा परमाधार्मिक दयाहीन होकर नारकों के हाथ शार्थ - 'महाहितावं - महाभितापम्' भडान संताय हेवावाजा 'संतकळणं नाम-संतक्षणं नाम' स ंतक्षष्णु नामनु' न२४ छे. ' जत्थ-यत्र ' ने न२४मां 'असाहुकम्मा - असाधुकर्माणः पाश्वावाणा 'कुहाडहत्था - कुठारहस्ताः' डाथभां डुडझडी सीधे 'ते नारया - तान् नारकान् ' ते नारीने 'हत्थेहि पाएहिं य बंधिकणंहस्तैः पादैश्व बद्ध्वा नारद वना साथ भने पण गांधीने 'फलगव53sfar' asıl du ‘a=dfa-aggafa' 819 3. 119811 સૂત્રાય —સતક્ષગુ નામનું એક અતિશય દુઃખપ્રદ નરકસ્થાન છે. તે નરકમાં ઉત્પન્ન થયેલા નારકાના હાથપગ બાંધીને, પરમાધામિકા તેમને કુહાડી વડે કાષ્ઠની જેમ કાપે છે. ૫૧૪ા ટીકા”—હવે સૂત્રકાર સતક્ષણ નામના નરક સ્થાનની વાત કરે છે. તે સ'તક્ષણુ નરકમાં જે નાર¥ા ઉત્પન્ન થાય છે, તેમને 'ગઠનની પીડા For Private And Personal Use Only Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६० सूत्रकृतागसूत्रे तान् नारकजीवान् 'हत्थेहिं पाएहि य बंधिऊणं' हस्तैश्च पादैश्च बन्धयित्वा 'फलग ब' फलकमिव, काष्ठपट्टखण्डमिव 'तच्छति' तक्ष्णुवन्ति छिन्दन्ति-छोलंतीति भाषायामित्यर्थः ॥१४॥ मूलम्-रुहिरे पुणो वञ्चसमुस्सिअंगे भिन्नुत्तमंगे वरिवत्तयंता। पंयंति णं गैरइए फुरते सजीवमच्छेव अयोकवल्ले॥१५॥ छाया-रुधिरे पुनर्वचःसमुच्छ्रितांगान् भिन्नोत्तमांगान् परिवर्तयन्तः । __पचन्ति खलु नैरयिकान् स्फुरतः सजीवमत्स्यानिवाऽयाकवल्यामा॥१५॥ अन्वयार्थः-(पुणो) पुनः (रुहिरे) नारकिजीवस्य रुधिरे पचन्ति । (बच्चसमुस्सिगे' वर्चःसमुच्छ्रितांगान-मलपूरितशरीरान् (भिन्नुत्तमंगे) भिन्नोत्तमांगान् पैर बांध देते हैं और हाथ में कुठार लेकर काठ की तरह उन्हें काटते हैं या छीलते हैं ॥१४॥ - शब्दार्थ--'पुणो-पुनः' तदन्तर नरकपाल 'रुहिरे-रुधिरे' नारक जीव के रुधिर में 'वच्चसमुस्सिअंगे-वर्चसमुच्छ्रितांगान' मल के द्वारा जिनका शरीर फूल गया है तथा 'भिन्नुत्तमंगे-भिन्नोत्तमांगान् । जिनका मस्तक चूर्णित कर दिया है 'फुरते-स्फुरन्त:' पीड़ा के मारे जो इधर उधर छटपटा रहे हैं 'णेरइए-नारकान्' ऐसे नारकि जीवों को 'परिवत्तयंता-परिवर्तपन्तः' नीचे ऊपर उलट पलट करते हुए 'सजीचमच्छेव-सजीवमत्स्यानिव' जीवित मछली के जैसे 'अयोकवल्लेअयाकवल्या' लोह की कढाही में 'पयंति-पचन्ति' पकाते हैं ॥१५॥ . अन्वयार्थः-पुनः परमाधार्मिक, नारक जीवों को उन्हीके रुधिर में पकाते हैं। उनका शरीर मल से परिपूर्ण हो कर फूल जाता है, मस्तक चूरा चूरा વેડવી પડે છે. ત્યાં જે ફૂર પરમધામિક દે હેય છે, તેઓ તેમના હાથપગ બાંધીને કુહાડી વડે તેમનાં અંગોનું કાષ્ઠની જેમ છેદન કરે છે. ૧૪ _Avail-'पुणो-पुनः' तहत२ २३५ा 'रुहिरे-रुधिरे' ना२४ सपना बीमा 'वन्चसमुस्सिअंगे-वर्च:समुच्छितांगान्' भगथी भनु शरी२ Val आयु छ त 'भिन्नुत्तमंगे-भिन्नोत्तमांगान्' भनु भाथु यूलित ४३१ ६ छ 'फुरते-स्फुरन्तः' म अने पीना भाटे २ महीतही त२६३ता २९ छ, 'णेरइए-नारकान्' से ना छाने 'परिवत्तयंतापरिवर्तयन्तः' नीये ५२ Gaट ५४८ २i 'मजीवमच्छेव-सजीवमत्स्यानिव' ती माछवीनी म 'अयोकवल्ले-अयःकवल्यां' सोमनी पयंति-पचन्ति' ५२ छ. ॥१५॥ For Private And Personal Use Only Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ५ उ. १ नारकीयवेदनानिरूपणम् ३५ -चूर्णितशिरस्कान् (फुरते) स्फुरतः-इतस्ततश्चलतः (नेरइए) नैरयिकान् (परिवत्तयंता) परिवर्तयन्तः (सजीवमच्छे ।) सजीवमत्स्यानिव (अयोकवल्ले) अय:कवल्यां-लोहकटाहे (पयंति) पचन्तीति ॥१५॥ टीका---'पुणो' पुनस्ते परमाधार्मिकाः 'रुहिरे रुधिरे, नारकीयजीवानां शस्त्रघातेन निस्सृतरुधिरान् 'वच्चसमुस्सिअंगे' वर्चसमुच्छ्रितांगान्-वपधानानि समुच्छ्रितानि अंत्राणि अंगानिश येषां तान् भल्लाघातेन निस्मृतांत्रान् मिन्नुनमंगे: भिन्नोत्तमाङ्गान् , भिन्नानि प्रस्फुटिनानि उत्तमांगानि शिरांसि येषां ते तथा. विधान दण्डप्रहारेण प्रस्फुटितमस्तकान ‘फुरते' स्फुरतः, इतस्ततश्चलतः 'णेरइए नैरयिकान्' नारकिजीवान् परिवत्त यंता परिवर्तयन्तः इतस्ततो लोठयन्तः 'अयोकल डे' अयःकवल्याम् , लौहनिर्मितकटाहे। 'सजीवमन्छेव' सजीवमत्स्यानिव 'पयंति' पचन्ति । लोहकटाहे क्षिप्ता इतस्ततः तान नारकजीवान परिभ्रामयन् ते परमाधार्मिकाः पचन्तीति ॥१५॥ हो जाता है, वे फडफडाते तरफरते रहते हैं। नरकपाल उन्हें इधर उधर पलटते हुए सजीव मत्स्यों की तरह लोहे की कढाई में पकाते हैं ॥१५॥ टीकार्थ--परमाधार्मिक शस्त्रों का आघात करके नारक जीवों के शरीर में से रुधिर निकालते हैं। उनके अंग अथवा आंतें मल के द्वारा सूज जाती हैं । डण्डों के प्रहार से उनके मस्तक फूट जाते हैं । वे फड़फड़ाते रहते हैं । उनको इधर उधर पलटते हुए लोहे की कढाई में सजीव मत्स्यों की भांति पकाते हैं । उन नारकों को लोहे की कढाई में डालकर इधर उधर उलट पलट करके परमाधार्मिक देव उन्हीं के रुधिर में उन्हें पकाते हैं ॥१५॥ સૂત્રાર્થ–વળી પરમધામિકે નારકને પિતાના રુધિરમાં પકાવે છે. તેમનું શરીર મળથી પરિપૂર્ણ થઈ ફૂલી જાય છે અને મસ્તકના ચૂરેચૂરા થઈ જાય છે. જેવી રીતે જીવતી માછલીઓને લે.ઢાના તાવડામાં તાવેથા વડે આમતેમ ફેરવી ફેરવીને પકાવવામાં આવે છે, એ જ પ્રમાણે નારકોને પણ પકાવવામાં આવે છે. ત્યારે તે પરાધીન નારકા તરફડિયાં માર્યા કરે છે. ઉપર ટીકર્થ–પરમાધાર્મિક દેવતાઓ નારકોના શરીરમાં ભેંકી દઈને, તેમાંથી લેહી વહેવરાવે છે. તેમના અંગે અને આંતરડાં મળ દ્વારા સૂકી જાય છે. લાકડીઓના પ્રહારથી તેમનાં મસ્તક ફૂટી જાય છે. તે નારકે દુખ અને ભયથી સદા તરફડતા રહે છે. પરમધામિકે તેમને સજીવ માછલી. એની જેમ લેઢાના તાવડામાં આમતેમ ઉલટાવી સુલટાવીને તેમના જ લેહીમાં પકાવે છે. ૧૫ सु. ४६ For Private And Personal Use Only Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir K सूत्रकृताङ्गसूत्रे ननु यदा इत्थं परमधार्मिकद्वारा नरकवासिनः पीडां प्राप्नुवन्ति, यथावृक्षात् पातनं, छेदनं, भेदनं, कटाहे पाचनं च तदा-तत् शरीरं विहायाऽन्यत्रगच्छन्तस्वादृशयातनाभ्यो विमुक्ता भविष्यन्तीति कथं पुनस्तेषामनुक्षणं तादृशी पीडा स्यादित्याशंक्य समाधते । न हि तादृशयातनाभ्यः शिरस छेदेऽपि तेषां मुक्तिर्भवति । अपि तु वारं वारं तामेवानुभवन्तीत्यत आहमूलम् - नो व ते तत्थ मैसीभवंति ण मिंजती विभित्रेयणाए । तमाणुभागं अणुवेदयंता दुक्खति दुखी इहै. दुकडेणं ॥ १६ ॥ छाया - नो चैत्र ते तत्र मषीभवन्ति नो म्रियन्ते तीव्राऽभिवेदनया । तमनुभागमनुवेदयन्तो दुख्यन्ति दुःखिन इह दुष्कृतेन ॥ १६ ॥ जब नारक जीवों को परमाधार्मिकों द्वारा इस प्रकार की पीडा पहुँचाई जाती है -वृक्ष से गिराया जाता है, छेदन भेदन किया जाता है, पकाया जाता है, तब वे उस शरीर को छोडकर अन्यत्र जाकर उन यातनाओं से छुटकारा पा लेते होंगे, ऐसी स्थिति में उन्हें लगातार पीडा कैसे हो सकती है ? इस शंका का समाधान करते हैं। इस प्रकार की यातनाओं से, यहां तक कि मस्तक छेदन होने पर भी उनका बचाव नहीं होता, किन्तु बार बार वे उसी प्रकार की यातनाएँ भोगते ही रहते हैं । सूत्रकार यही कहते हैं शब्दार्थ - - ' ते-ते' वे नारक 'तत्थ तत्र' उस नरक में 'नो चेव मसीभवंति - नैव मषीभवन्ति' जलकर भस्म नहीं हो जाते हैं तथा પરમાધામિક દેવતાઓ દ્વારા આ પ્રકારની પીડાએ (વૃક્ષ પરથી નીચે પટકવાની, મંગાનુ છેદન કરવાની, અગ્નિ પર પકાવવાની આદિ) જ્યારે પહોંચાડવામાં આવતી હશે, ત્યારે તે નારકો મરણ પામીને તે યાતનાઓમાંથી મુક્ત થઈ જતા હશે અને અન્ય ગતિમાં ઉત્પન્ન થઈને તે યાતનાઓમાંથી છૂટકારો મેળવતા હશે, આ પ્રકારની પરિસ્થિતિમાં તેમને નિતર પીડા અનુભવવાની વાત કેવી રીતે સંભવી શકે ? આ પ્રકારની શકાનું સમાધાન કરતાં સૂત્રકાર કહે છે કે-આ પ્રકારની યાતનાઓ સહન કરવા છતાં પણ તેમનું આયુષ્ય સમાપ્ત થતું નથી. અરે ! તેમનું મસ્તક છેદવામાં આવે, તા પણ તે જીવતાં જ રહે છે અને વાર વાર આ પ્રકારની યાતનાઓ સહન કર્યા જ કરે છે, એજ વાત સૂત્રકાર હવે પ્રકટ કરે છે. ૧પા शब्दार्थ' - 'ते - ते' ते नार' 'तत्थ - तत्र' ते नाशुभां 'नो चेव मि भवंति - नैव मषीभवन्ति' मणीने भस्म थ भतां नथी तथा 'तिव्वभिवेयणाए For Private And Personal Use Only Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ५ उ.१ नारकीयवेदनानिरूपणम् ३६६ ___ अन्वयार्थः-(ते) ते नारकाः (तस्थ) तत्र नरके पच्यमाना अपि (नो चेत्र) नैव (मसीभवंति) मपीभवन्ति भस्मसात् नै। भवन्ति, तथा (तिबभिवेयणाए) तीवाभिवेदनया (न मिज्जती) न म्रियन्ते किन्तु (तमाणुभागं अणुवेदयंता) तमनुभागं कर्मफलमनुवेदयन्तोऽनुभवन्तः (इह) इहास्मिन् लोके (दुक्कडेण) दुष्कृतेन-माणातिपाताद्यष्टादशापस्थानरूपेण (दुक्खी) दुःखिनो दुःखमाजा (दुक्खंति) दुरुपन्ति पीडयन्ते इति ॥१६॥ टीका-तत्थ' सत्र नरके ते नारकाः नारकजीवा एवमनेकवारं विपच्या माना अपि 'नो नैव 'मसीमवंति' मषीभवन्ति-अग्निभिन भस्मसात् भवन्ति 'तिवभिवेयणाए-तीव्राभिवेदनया' नरक की तीव्र पीडासे 'नो मिजतीन नियन्ते' मरते नहीं हैं किन्तु 'तमाणुभागं अणुवेदयंता-तमनुभागं अनुवेदयन्तः' नरक की उस पीडा को भोगते हुए पाप के कारण वे 'दुक्खी-दुःखिनः' दुःखी होकर 'दुक्खंति-दुःख्यन्ति' पीड़ा का अनुभव करते हैं ॥१६॥ ____ अन्वयार्थ-नारकजीव नरक में पचने पर भी भस्म नहीं होते हैं, न तीव्र वेदना से मरते हैं किन्तु अपने कर्मफल को भोगते रहते हैं। वे प्राणातिपात आदि अठारह पापस्थानों का सेवन करने से दुःख के भागी होते हैं ॥१६॥ टीकार्थ--बेचारे नारक जीव नरक में अनेक बार पकाये जाने पर भी आग से भस्म नहीं होते । तीव्र से तीव्र वेदना के कारण भी मरते तित्रामिवेदनया' न२३नी तीन पीstथी 'नो मिज्जती-न नियन्ते' भरतi नथी. परतु 'तमाणुभाग अणुवेदयंता-तमनुभाग अनुवेदयन्तः' न२४ी ते पीसन लगतi n५ना १२ ते 'दुक्खी-दुःखिनः' भी धने-'दुक्खंति-दुख्यन्ति' પીડાને અનુભવ કરે છે. ૧દા સૂવાથં–નરકમાં ગયેલા નારકોને અગ્નિ ઉપર પકાવવામાં આવે છે, છતાં પણ તેઓ ભસ્મ થતા નથી, તીવ્ર વેદનાથી તેમનું મરણ થતું નથી, પરતુ દીર્ઘકાળ સુધી તેઓ તેમનાં કર્મનું ફળ ભોગવ્યા કરે છે. પ્રાણાતિપાત આદિ ૧૮ પ્રકારનાં પાપનું સેવન કરવાને લીધે તેમને આ પ્રકારના દો ભેગવવા પડે છે. ૧દા ટીકાથ–નરકમાં ઉત્પન્ન થયેલા નારકોને અનેકવાર અગ્નિ ઉપર માંસ આદિની જેમ રાંધવામાં આવે છે. આ પ્રકારની તીવ્ર વેદના ભેગાવવા છતાં પણ તેમના શરીર અગ્નિમાં બળીને ભસ્મ થઈ જતાં નથી–એટલે કે For Private And Personal Use Only Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir .... सूत्रकृताङ्गसूत्रे 'तस्य' तत्र 'तिब्बभिवेयणाए' तीवाऽभिवेदनया, 'ण मिज्जती' न म्रियन्ते, स्वकृतकर्मणां यत् फलं तस्याऽननुभूतत्वात् । न हि एकदैवाऽनुभवात् तानि कर्माणि परिसमाप्तानि, येन दाहपाकादिना शरीराऽपगमो भवेत् । किन्तु बहुकालं यावत् तादृशं शीतोष्णवेदनाजनितं-छेदन-भेदन-त्रिशूलारोपण-कुम्भी. पाक, तक्षणादिकं निर्दयपरमाधार्मिकेभ्य उत्पादितं, तथा-परस्परमपि संपादितम् , अनुभागं कर्मणां फलम् अनुवेदयन्तः सम्यगनुभवं कुर्वन्तः तत्रैव तिष्ठन्ति, फर्थमपि ताशनरकस्थानादन्यत्र न गच्छन्ति फलोपभोगं विना । तथा'दुकडेगे' स्वकृतदुष्कृतेन, पाणातिपातादिनाऽष्टादशपापस्थानेन, सततं जायमानदुःखेन 'दुक्खी' दुःखिनः 'दुक्खंति' दुख्यन्ति-पीडयन्ते, यावत्कालस्थितिकं कर्म बद तावत्पर्यन्तं तत्रावस्थिता दुःखमनु भवन्तीति ॥१६॥ नहीं, क्योंकि अपने कर्मों का पूरा फल नहीं भोग चुके हैं । एक बार भोगने से ही उनके वे कर्म समाप्त नहीं हुए हैं, जिससे जलाने और पकाने से शरीर छूट जाय । वे दीर्घकालपर्यन्त सर्दी गर्मी, छेदन, भेदन त्रिशलारोपण, कुम्भीपाक, छीलना आदि निर्दय परमाधार्मिकों द्वारा दिए जाने वाले तथा परस्पर में एक दूसरे को उत्पन्न किये हुए दुःखरूप अनुभाग को चेदन करते हुए वहीं रहते हैं। वे फल भोगे विना नरक से निकलकर किसी भी प्रकार दूसरी जगह नहीं जा सकते हैं। अपने किए प्राणातिपात आदि अठारह पापों के फलस्वरूप निरन्तर दुःख का તેઓ મરતા નથી, કારણ કે પોતાનાં કર્મોનું પૂરેપૂરું ફળ તેઓ ભોગવી ચુક્યા હતા નથી, એક જ વાર ભેગાવવાથી તેમનાં કર્મો નષ્ટ થઈ જતાં નથી. તેથી એક જ વાર બળવાથી કે છેદવાથી તેમનું આયુષ્ય સમાપ્ત થતું नथी. तभने ही सुधा ४१, १२भी, छेन, मेहन, त्रिशूदारीपशु, मा દારુણ યાતનાઓ સહન કરવી પડે છે, નિર્દય પરમધામિક દેવતાઓ દ્વારા પૂર્વોક્ત જે જે યાતનાઓ પહોંચાડવામાં આવે છે તે યાતનાઓ તથા નારકો દ્વારા એક બીજાને જે જે પીડા પહોંચાડવામાં આવે છે તે પીડાએ સહન કરવા રૂપ દુઃખરૂપ અનુભાગનું વદન કરતાં કરતાં દીર્ઘકાળ પર્યન્ત ત્યાં २५ छे. તે ફળ ભેગવ્યા સિવાય તેઓ નરકમાંથી નીકળીને બીજે કઈ પણ સ્થળે જઈ શકતા નથી, તેમણે પ્રાણાતિપાત આદિ ૧૮ પ્રકારનાં જે પાપ કર્યા હોય છે, તેના કુલ સ્વરૂપે તેઓ નિરંતર દુઃખને જ અનુભવ કરતા For Private And Personal Use Only Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - समयार्थबोधिनी टीका प्र.श्रु. अ. ५ उ. १ नारकीयवेदनानिरूपणम् ३६५ अपि च-. मूलम्-तहिं च ते लोलणसंपगाढे गाढं सुतत्तं अगणिं वयंति। ने तत्थ सायं लहती भिंदुग्गे अरहियाभि तावा तेहवी तविति।१७। छाया-तस्मिंश्च ते लोलनसंप्रगाढे गाउँ सुतप्तमग्नि व नन्ति । न तत्र सातं लभन्तेऽभिदुर्गेहिताऽभितापान् तथापि तापयन्ति ।१७॥ अन्वयार्थः-(लोलणसंपगाढे) लोलनसंप्रगाढे-नारकजीवानां चलनेन व्याप्ते (तहिं) तत्र नरके (गाद) गाढं अत्यर्थम् (सुतत्त) सुतप्तम् (अगणिं वयंति) ही अनुभव करते हैं । उन्होंने जितने काल की स्थिति वाला कर्म घांधा है, उतने काल तक यहीं रहकर दुःखों का अनुभव करते हैं । १६॥ और भी कहते हैं-- शब्दार्थ--'लोलणसंपगाढे-लोलनसंप्रग डे' नारक जीवों के चलन से व्याप्त 'तहि-तत्र' उस नरक में गाढं-गाढम्' अत्यन्त सुतत्तं-सुतप्तम्' तपी हुई 'अगणि षयंति-अग्नि बजन्ति' वे नारक जीव अग्नि के पास जाते हैं 'अभिदुग्गे तत्थ-अभिदुर्गे तत्र' उस अतिदुर्गम अग्नि में जलते हुए वे 'सातं न लहती-सातं न ल भन्ते' सुख नहीं पाते हैं और 'अरहियाभितावा-अरहिताऽभितापान' यद्यपि वे महाताप से तप्त श्री , तहवि-तथापि' तो भी 'तविति-तापयन्ति' उन्हें तस तैल और अग्नि में तपाते हैं ॥१७॥ __ अन्वयार्थ--नारक जीवों के चलने से व्याप्त उस नरक में, शीत से पीड़ित होकर वे नारक अत्यन्त तप्त अग्नि के समीप जाते हैं। રહે છે. તેમણે જેટલા કાળની સ્થિતિવાળું કર્મ બાંધ્યું હોય છે, એટલા કાળ સુધી ત્યાં જ (નરકમાં જ) રહીને તેઓ દુઃખનું વેદન કરે છે. છેલ્લા વળી સૂત્રકાર તેમનાં ખનું વર્ણન કરતા કહે છે Avai-'लोलणसंपगाढे-लोलनसंप्रगाढे' ना२३ वा यनया यात 'तहि-तत्र' त न२४भा 'गा-गाढम्' अत्यन्त ‘सुतत्तं सुतप्तम्' तथा तपेसी 'अगणिं वयंति-अग्नि व्रजन्ति' ते ना२४ ७१ मनी पासे तय 'अभिदग्गे तत्थ-अभिदुर्गे तत्र' ते मति हुस्स मनमा मत त 'सातं न लहती-मातं न लभन्ते' सुप पामतां नथा मन 'अरहियाभितावा-अरहिताभितापन' ते महाताची तपेसा खायले 'तह वि-तथापि तो पर 'तविति-तापयन्ति' तमने तत ते अन मनमा तपावे छे. ॥१७॥ સૂત્રાર્થ–નારક જીના હલન ચલનથી યુક્ત તે નરકમાં, જ્યારે નારકોને અત્યન્ત શીતને અનુભવ થાય છે, ત્યારે તેઓ તેનાથી બચવા For Private And Personal Use Only Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मानाः (सायं न लायपि ते महातापयुक्ता एका ॥१७॥ सूत्रकृतगिसूत्रे अग्नि व्रजन्ति अग्नेः समीपं प्राप्नुवन्ति (अभिदुग्गे तत्थ) अभिदुर्गे तत्र दह्यमानाः (सायं न लहती) सातं न लभन्ते-सुखं न प्राप्नुवन्ति (अरहियामितावा) अरहिताभितापान यद्यपि ते महातापयुक्ता एन (तह वि) तथापि ते नरकपालास्तान (तविति) तापयन्ति-तप्ततेलाग्निना दहन्तीति ॥१७॥ ____टीका-'तहि तस्मिन्नरके 'लोलणसंगाढे' लोलनसंपगाढे-लोलनेन इतस्ततः संचालनेन संपगाढे व्याप्ते नरकगर्ने, शीतार्ता नारकिजीवाः शीताऽपनयनाय 'गाढं सुतत्तं अगणिं वयंति' गाढं सुतप्तमग्नि बजन्ति-गाढं सातिशयं सुतसं अतिशयेन प्रज्वलितं अग्नि प्रति गच्छन्ति । ते पूर्वोक्ता नारकजीवाः तस्य' तत्रापि अग्नेः स्थाने 'अभिदुग्गे' अभिदुर्गे-अतिभयानके तस्मिन् दंदद्यमानाः सन्तः 'सायं न लहनी' सातं न लभन्ते सात-मुखं न लभन्ते क्षणमपि प्रत्युत तत्र 'अरहियाभितावा' अरहितो नैरन्तर्येण अभितापो महादाहो येषां ते अरहिताभितापाः । अतिशयेन अग्निना तापिता अपि पुनरपि तत्रत्यपरमाधार्मिकः 'तहवी तविति' तथापि तापयन्ति-तताऽग्निना तसतैलग्निना गाढं यथा स्यात्तथा तान् तापयन्ति । ॥१७॥ अत्यन्त दुस्सह उस अग्नि से जलते हुए वे साता नहीं पाते, वरन् उस अग्नि में जलने लगते हैं। जलते हुए नारकों को परमाधार्मिक और अधिक जलाते हैं ॥१७॥ टीकार्थ--इधर उधर चलने से व्याप्त नरकरूपी उस गर्त खड्डे में शीत से पीड़ित होकर नारक जीव शीत (ठंडी) को हटाने के लिये अत्यन्त तप्त एवं जलती हुई अग्नि की ओर जाते हैं । अग्नि के उस अत्यन्त भयानक स्थान में भी उन्हें क्षण भर के लिए भी सुख प्राप्त नहीं होता। वहाँ प्रतिक्षण होने वाले घोर संताप से युक्त होने पर માટે અનિની પાસે જાય છે, પરંતુ તે દારુણ અગ્નિની હુફ પ્રાપ્ત થવાને બદલે, તેમનાં અંગ દઝવા માંડે છે. અગ્નિ વડે દાઝતા નારકેને પરમ ધામિકે અધિક દઝાડે છે. ૧ણા ટીકાથ-આમતેમ ફરતાં નારકેથી વ્યાપ્ત તે નરક રૂપી ગત્તમાં (ખાડામાં) અત્યંત ઠંડી લાગતી હોય છે, તે ઠંડીને દૂર કરવા માટે નારક છ અત્યન્ત તપ્ત અને પ્રજવલિત અગ્નિ તરફ જાય છે. અનિયુક્ત તે ભયાનક સ્થાનમાં પણ તેમને એક ક્ષણભર પણ સુખ મળતું નથી. ત્યાં તેમને ઉષ્ણુતા જન્ય દારુણ પીડાને અનુભવ કરે પડે છે. ઠંડીથી બચવાને For Private And Personal Use Only Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ५ उ. १ नारकीयवेदनानिरूपणम् ३६७ मूलम् - से' सुच्चई नगरवहेव सद्दे वुहोवणीयाणि पयाणि तत्थ। उदिण्णकम्माण उदिण्णकम्मा पुणो पुणोतें सरहं दुहेति।१८॥ छाया-अथ श्रूयते नगरवधइव शब्दो दुःखेनोपनीतानि पदानि तत्र । उदीर्णकर्मण उदीणकर्माणः पुनः पुनस्ते सरमसं दुःखयन्ति । १८॥ अन्वयार्थः-(से) अथानन्तरं (तत्थ) तत्र-रत्नप्रभादौ नरके (नगरबहेव सद्दे) नगरवध इव शब्द:-भयानक आक्रन्दनशब्दः (सुचई) श्रूयते तेषां नारभी परमाधार्मिक उन्हें और अधिक तपाते हैं-तप्त अग्नि तथा तप्त तैल से बहुत अधिक तपाते हैं ॥१७॥ शब्दार्थ--'से-अध' इसके पश्चात् 'तत्थ-तत्र' उस रत्नप्रभादि नरक में 'नगरवहे व सद्दे-नगरवध इव शब्दः' भयंकर आक्रन्दन शन्द 'सुच्चई-श्रूयते' सुना जाता है 'दुहोवणीयाणि पाणि-दुःखोपनीतानि पदानि' दुःख से करुणामय पद सुनने में आते हैं 'उदिण्णकम्माणउदीर्णकर्मणः' जिन के नरकगति विषयक कर्म उदय में आये हैं, ऐसे नारकी जीवों को उदिण्णकम्मा-उदीर्णकर्माणः' उदित कर्म वाले 'ते-ते' वे परमाधार्मिक 'पुणो पुणो-पुनः पुनः' पारंवार 'सरहं-सरमसं' वेगसहितं 'दुहेति-दुःखयन्ति' पीडित करते हैं ॥१८।। ___ अन्वयार्थ--रत्नप्रभा आदि नरकों में नगरवध के समान भयानक आक्रन्दन सुनाई देता है । वह आक्रन्दन दुःखों के कारण उत्पन्न होता માટે અગ્નિની સમીપે આવેલા તે નારકેને પરમધાર્મિક દેવતાઓ અગ્નિ તથા ગરમ તેલ વડે અધિક દહનને અનુભવ કરાવે છે–વધારે દઝાડે છે. ૧૭ शहाथ-'से-अथ' माना पछी 'तत्थ-तत्र' ते २नमानमा 'नगरवहेव सद्दे-नगरवध इव शब्दः' नवधनाम अय४२ मान्न शह 'सुच्चईश्रयते'. समजाय छे. 'दुहोवणीयाणि पयाणि-दुःखोपनीतानि पदानि हुथी ४३६।भय श६ सयामा भाव छ. 'उदिण्णकम्माण-उदीर्णकर्मणः' भनु न२४. पति समधी भयमा मावेत छ. मेप! २६ वने 'उदिण्णकम्मादीर्णकर्माणः' हीत उभा 'ते-ते' से परमायामि । 'पुणो पुणो-पुनः पुनः पा२१.२ 'सरह-नरभसं' आ४ 'दुहेति-दुःखयन्ति' पी.डत ४३ छ. ॥१८॥ સૂત્રાર્થ–નગરના વધસ્થાનમાં જેનું જેવું આકંદ સંભળાય છે, એવું જ નારકેનું ભયાનક આકંદ રત્નપ્રભા આદિ નરકમાં સંભળાય છે. For Private And Personal Use Only Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - ३६८ सूत्रकृताङ्गसूत्रे काणाम् (दुहोवणीयाणि पयाणि) दुःखोपनीतानि-दुःखोच्चारितानि 'हा मातः! हा ताते'त्यादिपदानि च श्रूयन्ते (उदिणकम्माण) उदीर्णकर्मणः नारकजीवान् (उदिणकम्मा) उदीर्णकर्माणः (ते) ते-परमाधार्मिकाः (पुणो पुणो) पुनः पुनः (सरह) सरभसं-सवेगं (दुहेति) दुःखयन्ति-पीडयन्ति-नारकानिति ।१८।। ____टीका-'से' अथ-अनन्तरम् तेषां नारक नीवानां परमाधार्मिकः रौद्रैः कदर्यमानानाम् 'नगरवहेव' नगरवध इव अतिभयानको हा, हा, रक्ष, रक्ष, त्रायस्व प्रायस्व, एवं महाशब्दः श्रूयते । यथा नगरवधे संपाप्ते सति नागरिकाः, बालयुववृद्धस्त्रीपुरुषाः अतिकरुणमाक्रन्दनशझमुच्चैरतिभयानकं कुर्वन्ति तथैव नरके नारकिजीवाः नरकपालैः पीडिताः सन्तः महाभयानकंशब्दं कुर्वन्ति । ताशः-अतिभयानकः शब्दः नरको पान्ते श्रूयते । 'तस्थ' तत्र नरके 'दुहोव. णीयाणि' दुःखोपनीतानि, दुःखेन पीडया उपनीतानि समुत्पन्नानि 'पयाणि' पदानि-यानि पदानि 'हा मातः ! हा तात ! क यामः किं कुपः परमाधार्मिक है, जैसे हाय मां, हा तात इत्यादि । जिनके कर्म इसी प्रकार उदय में आये हैं ऐसे वे परमाधार्मिक पार बार वेग के साथ उदीर्णकर्मवाले नारकियों को पीड़ा पहुँचाते हैं ॥१८॥ टीकार्थ-क्रूर परमाधार्मिकों द्वारा पीड़ित करने पर नारक जीव भयानक शब्द करते हैं। जैसे नगर के विनाश के समय चिल्लाहट मचती है, चाल, युवा, वृद्ध, स्त्री, पुरुष, सभी नागरिक (नगरनिवासी) अत्यन्त करुणापूर्ण आक्रन्दन करते हैं, उसी प्रकार नरकपालों द्वारा पीडित नारक सदैव अत्यन्त दिल दहला देने वाली चिल्लाहट मचाये रहते हैं। नरक में ऐसे भयानक शब्द सदैव सुनाई देते हैं । वे शब्द दुःख से उत्पन्न होते हैं, जैसे-हाय मां, हा तात ! कहां जाऊँ क्या करूँ ! नरक દો અસહ્ય બનવાને કારણે તેઓ “હાય મા, હાય બાપા !' ઈત્યાદિ કરુણાજનક શબ્દ બોલે છે. જેમનાં કર્મ આ પ્રકારે ઉદયમાં આવ્યાં છે એવાં નારકેને તે ઉદીર્ણકર્મવાળા પરમાધાર્મિક અસુરકુમાર દેવે વારંવાર ઉત્સાહપૂર્વક પીડા પહોંચાડે છે. ૧૮ -२वी शत नगरना विनाश थाय त्या मागी, युवानी, वृद्धो, સ્ત્રિઓ અને પુરુષના આક્રદ સંભળાય છે, એજ પ્રમાણે પરમાધામિકા દ્વારા જ્યારે નારકો પર અત્યાચાર ગુજારવામાં આવે છે, ત્યારે નારકે પણ કરુણાજનક અકદ કરવા મંડી જાય છે. નરકમાં આ પ્રકારના હૃદયને હચभयावी नामना२१ शva सजाय छे.-हाय मा! हाय माया! भयावी, બચાવે ! કેઈ અમને આ નરકપાલના ત્રાસમાંથી બચાવે ! કયાં નાસી For Private And Personal Use Only Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ५ उ. १ नारकीय वेदना निरूपणम् K पीड्यमानानां न कोपयस्माकं रक्षकः, त्रायस्व' इत्यादिपदानि श्रूयन्ते । 'उदिष्णकम्माण' उदीर्ण कर्मणः- उदीर्णं प्राप्तसमुदयं विषमविपाकं कर्म येषां ते उदीर्णकर्माणः तान् उदीर्णकर्मणो नारकिजीवान् । 'उदिष्णकम्मा' उदीर्णकर्माणो परमधार्मिकाः मिथ्यात्व हास्य रत्यादीनामुदये वर्त्तमानाः 'पुणो पुणो ते' पुनः पुनः अनेकवारम् ते परमाधार्मिकाः । 'सहर्स' सरभसम् सवेगं यथा स्यात्तथा 'दुहेति' दुःखयन्ति, परिपीडयन्ति । अत्यन्तमसदनीयं नानानकारैरुपायैर्नारि किजीवानां दुःखमसात वेदनीयमुत्पादयतीति भावः ॥ १८ ॥ ११ मूलम् - पाणेहि पात्र विजयंति तं में पक्खामि जहाँतहेणं । डेहिं तत्था संस्यति वाला संवेहिं दंडेहिं" पुंशक एहिं ॥ १९ ॥ छाया - प्राणैः पापाः नियोजयन्ति युष्मभ्यं पश्यामि याथातथ्येन । दण्डैस्तत्र स्मारयन्ति बालाः सर्वेर्दण्डेः पुराकृतैः । १९॥ पाल हमें पीडा पहुंचा रहे हैं। कोई हमारा रक्षक नहीं है। अरे बचाओ ! इत्यादि । उदीर्णकर्म (जिनके कर्म उदय को प्राप्त हैं) ऐसे नारक जीवों को उदीर्णकर्म अर्थात् मिथ्याश्व, हास्य, रति आदि कर्मों के उदय में वर्तमान परमाधार्मिक चार बार बढे उत्साह के साथ पीडाएं पहुंचाते हैं। ता यह है कि परमधार्मिक नारक जीवों को नाना उपायों से अतीव असहनीय दुःख उत्पन्न करते रहते हैं ॥ १८ ॥ शब्दार्थ - - ' पात्र - पापा:' पापी नरकपाल 'पाणेहिं विभोजयंति - प्राणैः वियोजयन्ति' नारकी जीवों के अङ्गों को काटकर अलग अलग कर देते हैं 'तं तत्' इसका कारण 'भे- युष्मभ्यं' आप को 'जहात हेणंयाथातथ्येन' यथार्थरूप से 'पवक्खामि - प्रवक्ष्यामि' मैं कहूँगा 'बाला જવાથી અમે આ ત્રાસમાંથી ખેંચી શકશું'' ઇત્યાદિ જેમનાં ક્રમ” ઉદયમાં આવ્યાં છે એવાં નારકાને ઉડ્ડીકમ એટલે કે મિથ્યાત્વ, હાસ્ય, રતિ આદિ કર્માંના ઉદયવાળા પરમાધાર્મિક દેતા વારવાર ખૂબ જ ઉત્સાહમાં આવી જઈને દારુણ પીડા પમાડે છે. આ કથનના ભાવાર્થ એ છે કે પરમાધામિક અસુરા નારક જીવાને વિવિધ પ્રકારે અસહ્ય યાતનાઓના અનુભવ કરાવ્યા ४२ छे. ॥१८॥ शब्दार्थ –'पाव - पापा पापी नरउपास 'पाणेहिं विभजयंति - प्राणैः वियोजयन्ति' नारही लवाना सगोने अपने अलग अलग पुरी हे छे 'तं - तत्' भानु' अन् 'भे - युष्मभ्यम्' मायने 'जहा तद्देणं - याथातथ्येन' यथार्थ ३५थी 'पखामि - प्रवक्ष्यामि' हुंडीश 'बाला - बाला ः ' अज्ञानी न२४पास सु० ४७ For Private And Personal Use Only Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra - ३०० सूत्रकृताङ्गसूत्रे अन्वयार्थः - ( पात्र ) पापा:- नरकपालाः नारकान् (पाणेहिं विओजयंति ) मार्वियोजयन्ति शरीरावयवान् खंडयन्ति (तं) तत् (भे) युष्मभ्यम् (जहात देणं) याथातथ्येन (पवक्खामि ) मवक्ष्यामि - कथयिष्यामि (बाला) वाला अज्ञानिनो नरकपालाः (दंडेड) दण्डैः - दण्डदानेन (सव्वेहिं ) सर्वै: ( पुराकडेहिं ) पुराकृतै:- पूर्वजन्मनि संपादितैः (दंडेहिं) दण्डै: - दुःखविशेषैः (मरयंति) स्मारयन्ति तदानीं दीयमानदण्डेन पूर्वजन्मकृतपापं स्मारयन्तीति ॥ १९॥ 1 टीका - णमिति वाक्यालंकारे । 'पात्र' पापा:- असाधुकर्माणः परमधार्मिकाः नारकान् 'पाणेहिं' प्राणैः सेन्द्रियैः सशरीरेश्व 'त्रिभोजयंति ' त्रियोजयन्ति', शरीरावयवानां हस्तपादादीनां कर्त्तनादिभिः वियोगं कुर्वन्ति । अवयविनोऽवयवान् पृथक् पृथक् कुर्वन्ति । कथं ते नरकपाळाः शरणरहितानां नारकिजीवानांबाला:' अज्ञानी नरकपाल 'दंडेहि दण्डे ' नारकी जीवों को दंड देकर 'सव्वेहिं सबै: ' सभी 'पुराकडेहिं पुराकृतेः' पूर्वजन्म में उपार्जित किये हुए दंडे हिं- दण्डे : ' दुःखविशेषों से 'सरयंति - स्मारयन्ति' स्मरण कराते हैं | १९| अन्वयार्थ - पापी नरकपाल नारकों को प्राणों से वियुक्त करते हैं अर्थात् उनके शरीर के अवयवों को खण्डित करते हैं। यह तथ्य मैं आप को यथातथ्य कहूँगा | अज्ञान नरकपाल दंड देकर पूर्वजन्म में दूसरों के प्रति किये गये दण्डों- पापों का स्मरण कराते हैं ॥ १९ ॥ टीकार्थ- 'of' शब्द वाक्यालंकार के लिए है। पापी परमाधार्मिक उन नारक जीवों को प्राणों से पृथक करते हैं अर्थात् हाथ पैर आदि शरीर के अवयवों को काटकर अलग कर देते हैं । वे नरकपाल उन शरणहीन नारकी जीवों के प्रति ऐसा क्यों करते हैं? इसका उत्तर - www.kobatirth.org - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 'दंडेहिं - दण्डैः ' नारी कवीने 'उर्धने 'सव्वेहिं सर्वैः ' पुराकृतैः पूर्वमभां उपात रेस 'दंडेहि दण्डैः' ' म्ररयंति - स्मारयन्ति' २२ उरावे छे. ॥१८॥ -- For Private And Personal Use Only अधा 'पुराकडेहिदुः विशेषथी સૂત્રા—પાપી નરકપાલા નારકોને પ્રાણેાથી વિયુક્ત કરે છે, એટલે કે તેમના શરીરના અવયવનું ખ ́ડન કરે છે. આ બધું તે કેવી રીતે કરે છે, તે હું તમારી સમક્ષ રજૂ કરીશ. અજ્ઞાન નરકપાલેા નારકાને મારતાં મારતાં તેમણે પૂર્વજન્મમાં સેવેલાં પાપકમાંનુ' તેમને સ્મરણ કરાવે છે. ૫૧૯લા ટીકા”—સૂત્રમાં ‘ન' પદ્ય વાકયાલંકાર રૂપે વપરાયુ' છે. પાપી પરમાધાર્મિકા નારકાના હાથ, પગ આદિ અગાને કુહાડી આદિ વડે કાપીને શરીરથી અલગ કરે છે. તે તે શરણહીન નારકો પ્રત્યે એવુ' ક્રૂર વતન કેમ Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. अ. अ. ५ उ. १ नारकीयवेदना निरूपणम् ३७१ - एवं कुर्वन्ति ? तत्राह तं भे' इत्यादि । तं तत् तादृशं दुःखकारणम् । 'भे' युष्मभ्यमहम् । 'जहातहेणं' याथातथ्येन - यथार्थरूपेण, न तु अर्थवादादिरूपेण 'पत्रक्खामि' पक्ष्यामि - जिनोदितमनुस्मृत्य कथयिष्यामि । तदेवाह - 'ते बाला" ते परमधार्मिकाः बालाः निर्विवेकाः 'दंडेर्हि' दण्डैः - निशितासिकुन्तादिभिः समुत्पादितदुःखविशेषैः नारकाणां दुःखोत्पादन पूर्वकमित्यर्थः तेषां 'पुराकहिं ' पुराकृतेः पूर्वभवोपार्जितैः परदुःखोत्पादनरूपैः 'सव्वेद्दि' सर्वैः समस्तैः 'दंडेहि ' दण्डैः दुःखविशेवैः पूर्वसम्पादित वरदुः खोत्पादन रूपाणि सर्वाणि कर्माणीत्यर्थः 'सरयंति' स्मारयन्ति, तथाहि 'मो नारक पूर्व प्राणिनां मांसेन मांसलं, - रक्तमद्यादिरसपानेन पीवरः, परदार दर्शन स्पर्श ना लिङ्गनादिमिराहादपूर्णश्च जातः, अधुना स स्वं स्वहस्तारोपित पल्लवित पुष्पित फलितवृक्षस्य फलमुपभुञ्जानः किमिति विषीदसि कथमुत्य सकरुणं रोदिषि इत्यं तत्तद्रूपेण स्मारयित्वा स्मारयित्वा देते हैं - इस दुःख का कारण मैं आप को यथार्थरूप से कहूँगा अर्थवाद रूप से नहीं । वे विवेकविहीन परमाधार्मिक तीक्ष्ग तलवार, बछ दंड एवं भाला आदि शस्त्रों से दंड देकर उन नारक जीवों को पूर्वकृत समस्त पापों का स्मरण कराते हैं। तथा अरे नारकों ! पूर्वजन्म में तुम प्राणियों का मांसभक्षण करके पुष्ट बने थे, रसों-रक्त अथवा मद्यादि रसों का पान करके स्थूल हुए थे, परस्त्री को देखकर और स्पर्श करके अत्यन्त आहादित हुए थे, अब अपने किये का फल भोगो । अपने हाथों पाप का जो वृक्ष तुमने रोपा और पल्लवित किया है, उसके फलों को चखते समय अब क्यों विषाद करते हो ? उछल उछल कर करुणाजनक रुदन क्यों करते हो ? इस प्रकार कहकर वे नारकों को उनके पूर्वकृत सब पापों का स्मरण कराते हैं । वे दंड - दुःख ખતાવતા હશે, તેનું કારણ હું... તમેને યથા રૂપે કહીશ-અથવાદ રૂપે નહીં તે વિવેકવિહીન પરમાધ્યામિકા તીક્ષ્ણ તલવાર, ખછી, ભાલા, દંડા આદિ શસ્ત્રો વડે મારતાં મારતાં તે નારકને તેમનાં પૂર્વજન્મમાં કરેલાં પાપાનુ’ સ્મરણ કરાવે છે. જેમકે-‘હું નારકે ! પૂર્વ જન્મમાં પ્રાણીઓના માંસનુ' ભક્ષણુ કરીને તમે પુષ્ટ અન્યા હતા, લાહી મદ્ય આદિ રસનું પાન કરીને જાડ (સ્થૂલ) થયા હતા, પરસ્ત્રીને જોઈને તથા તેમની સાથે કામલે.ગે ભેાગવીને તમારા હૃદયમાં આનંદ માન્યા હતા. હવે તમે પૂષ્કૃત તે પાપકમાંનું ફળ ભાગવે, તમે તમારે હાથે જ પાપનું જે વૃક્ષ વાવ્યુ હતુ. અને ઉછેર્યુ” હતુ; તેના મૂળને ચાખવાના હવે સમય પાકી ગયા છે, તે વિષાદ શા માટે અનુભવે છે? ઉછળી ઉછળીને કરુણાજનક આકદ શા માટે કરે છે ? ? આ પ્રકારનાં વચના દ્વારા તેઓ નારકોને તેમના પૂર્વજન્મમાં કરેલાં પાપાનું For Private And Personal Use Only Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे दुःखविशेषान् उम्पादयन्ते । नरकपालास्तान नारकजीवान् पीडयन्ति, यतः कृतकर्मणां । कदाचिदपि फलोपभोगमन्तरा न ततो विमुक्ता भवन्तीति भावः ॥१९॥ मूलमू-ते हम्ममाणा णरगे पंडंति पुन्ने दुरुवस्स महाभितावे। ते तत्थ चिंति दुरूर्वभक्खी तुटूंति कम्मोवगया किमीहि।२०। छाया-ते हन्यमाना नरके पतन्ति पूर्ण दूरूपस्य महामितापे । ते तत्र तिष्ठति दुरूपभक्षिणः त्रुटयन्ते कर्मोपगताः कृमिमिः ॥२०॥ देकर उसी प्रकार के उनके द्वारा अन्य प्राणियों को दिये गये दंड की याद दिलाते हैं । क्योंकि अपने किये कर्मों का फल भोगे विना उनसे छुटकारा नहीं पाते हैं ।।१९।। शब्दार्थ--'हम्ममाणा ते-हन्यमानास्ते' परमाधार्मिकों के द्वारा मारे जाते वे नारकि जीव 'महाभिनावे-महाभितापे महान् कष्ट देने वाले 'दुरूवस्त पुणे-दूरूपेण पूर्णे' विष्टा और मूत्र से पूर्ण 'नरएनरके' दूसरे नरक में 'पडंनि--पतन्ति' गिरते हैं 'ते तत्थ-ते तत्र' वे वहां 'दुरूवभक्खी-दूरूपभक्षिणा' विष्टा, मूत्र आदि का भक्षण करते हुए 'चिट्ठति-तिष्ठन्ति' चिरकाल तक निवास करते हैं 'कम्मोवगयाकोपगता:' स्वकृत कर्म के वशीभूत होकर 'किमीहि-कृमिभि:' कीड़ों के द्वारा 'तुति-त्रुड्यन्ते' पीड़ित होते हैं ॥२०॥ સમરણ કરાવે છે. તેઓ તેમને જે પ્રકારને દંડ દે છે, એ જ પ્રકારનો દંડ તેમણે (નારકે એ) પૂર્વજન્મમાં અન્ય જીવોને દીધું હતું, એ વાતનું તેઓ તેમને સ્મરણ કરાવે છે, કેમકે નારક છે તેમણે પૂર્વભવમાં કરેલાં કર્મોનું ફળ ભેગવ્યા વિના નરકનાં દુઃખમાંથી છુટકારે પામી શકતા નથી. ૧લા Avti -'हम्ममाणा ते-हन्यमाना' ५२माधामिन A२भा२पामा भारत ते ना२४ । 'महाभितावे-महाभितापे' महान् ४५ हेवाण 'दुरूवरस पुण्णे-दूरूपेण पूर्णे' ६ भने भूत्रथी पू: 'नरा-नरके' भात न२४मा 'पडंति-पतन्ति' ५३ छे 'ते तस्य-वे तत्र' ते ५i 'दुरूवभक्खी -दुरूपभक्षिणः' विटा, भूत्र विगेरेनु सक्षY ४२ता 'चिटुंति-तिष्ठन्तिः' ail 100 सुधा निवास 3रे छ. 'कम्मोवगया-कर्मोपगता' पढन भनी पीभूत ने 'किमिहि-कृमिभिः' मे। बा२। 'तुटुंति-श्रुटयन्ते' पात थाय छे. ॥२०॥ For Private And Personal Use Only Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ५ उ. १ नारकीयवेदनानिरूपणम् ३७६ अन्वयार्थः-(हम्ममाणा ते) परमाधार्मिकैः हन्यमानास्ते नारकाः (म्हाभितावे) महामितापे-महादुःखरूपे (दुरूवस्स पुन्ने) दुरूपस्य पूर्णे-विष्ठादिभिः पूरिते (नरए) नरके-नरकान्तरे नरकैकदेशे वा (पडंति) पतन्ति (ते तत्थ) ते तत्र (दुरूवभक वी) दुरूपभक्षिमा-अशुच्यादिभक्षकाः सन्तः (चिट्ठति) तिष्ठन्ति (कम्मोवगया) कर्मोपगताः-सतकर्मवशाः (किमोहि) कृमिमिः-नरकपालापादितः (तुहति) त्रुटयन्ते-खाद्यन्ते इति ॥२०॥ ___टोका-नरकपालैः 'हम्ममाणा ते' हन्यमानाः ते नारक जीवाः 'महामितावे' महाभितापे-महान्तोऽभिवापाः संतापाः विद्यन्ते यस्मिन् तस्मिन् महाभितापे । पुनः कथंभूते । 'दुरूवस्स पुन्ने' दूरूपेग पूणे, 'दुरूवस्म' इत्यत्र तृतीयार्थे षष्ठी आर्ष-वात् ततो दूरूपेण विष्ठादिना पूर्णे पूरिते 'नरगे' नरके पूर्वनरकापेक्षया नरकान्तरे 'पडंति' पतन्ति ते तत्य ते नारका जीग: तत्र विष्ठापूत्रारिपूरितनरके 'दुरूपमक्खी' दूरूपमक्षिणः, विष्ठादि भक्षयन्तः ___अन्वयार्थ--परमाधार्मिकों द्वारा आहत होते हुए नारक घोर दुःख मय और विष्ठा आदि अशुचि से परिपूर्ण नरक में (नरकान्तर में या नरक के एक भाग से दूसरे भाग में) जा पड़ते हैं । वहां अशुचि का भक्षण करते रहते हैं और कृत कर्मों के अधीन होकर कीडों के द्वारा खाये जाते हैं-पीडित किये जाते हैं ॥२०॥ टीकार्थ--जब नरकपाल परमाधार्मिक देव नारक जीवों को पीडा पहूंचाते हैं तब वे एक नरक से दूसरे नरक में जा पडते हैं । किन्तु वहां भी सुख शान्ति कहां ? वह नरक भी उन्हें अत्यन्त घोर सन्तापदायी होता है और मलमूत्र आदि से भरपूर होता है। वहां चिरकाल तक સૂવાર્થ–પરમધામિકે દ્વારા નારકને જ્યારે ખૂબ જ માર મારવામાં આવે છે, ત્યારે નારકે ઘેર દુઃખમય અને વિષ્ઠા આદિ ગંદા પરથી પરિપૂર્ણ નરકમાં (નરકાન્તરમાં અથવા નરકના એક ભાગમાંથી બીજા ભાગમાં) જઈ પડે છે. ત્યાં તેઓ અશુચિનું (વિષ્ઠા આદિનું ભક્ષણ કર્યા કરે છે, અને કીડાઓ દ્વારા તેમનાં શરીરને ખૂબ જ પીડા પહોંચાડવામાં આવે છે. આ બધું તેમના પૂર્વકૃત પાપકર્મોના ફલસ્વરૂપે તેમને જોગવવું પડે છે. ૨૦ ટીકાથ-જ્યારે પરમધામિ (નરકપલે) નારક છાને ખૂબ જ પીડ છે, ત્યારે તેઓ નરકના એક ભાગમાંથી બીજા ભાગમાં જઈ પડે છે. ત્યાં પણું તેને સુખશાન્તિ મળતી નથી તે નરમાં પણ તેને દારુણ દુઃખને અનુભવ કરે પડે છે. તે નરકસ્થાન મળ, મૂત્ર આદિ અશુચિઓથી પરિપૂર્ણ હોય For Private And Personal Use Only Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३७४ सूत्रकृताङ्गसूत्रे मूत्रादि पिवन्तश्च नारकासाचैव चिरकालपर्यन्तम् ' चिद्वेति' तिष्ठन्ति । तथा - 'कम्नोगा' कनगताः स्वकीय कर्मवशाः 'किपी६ि' कुमिभिः - परमा धार्मिकारादितैः परस्परोत्यादि कीटविशेषैः 'तृति' त्रुदयन्ते कृमिद्वारा व्यथयन्ते । तथा च भागमवचनम् - 'छमाणं पुढवी नेरइया पहू महंताई लोहिकुरुबाई विउन्चित्ता अनन्नन कार्य समतुरंगेमाणा २ अणुवायमाणा २ चिति ।' छाया - पष्ठप्तम्योः पृथिव्योनैरविकाः अतिमहान्ति रक्तकुन्थु रूपाणि । विकुर्व्य अन्योऽन्यस्य कार्य समतुरङ्गायमाणाः २ (अश्लिष्यमाणाः) अनुहन्यमानाः २ विष्ठन्ति ॥ इति ॥ २० ॥ मूलम् - सया कँसिणं पुण घम्मद्वाणं गाढोवणीयं अतिदुक्खधम्मं । अंदू सुपंक्विप्प विहतु देहं वेहेणं सीसं सेऽभितावयति । २१ । छाया - सदा कृत्स्नं पुनधर्मस्थानं गाढोपनीतं अतिदुक्खधर्मम् । अन्दु पक्षिष्यविहस्य देहं वेधेन शीर्ष तस्याऽभिवाश्यन्ति ॥ २१ ॥ वे विष्ठा का भक्षण और सूत्र का पान करते रहते हैं। परमाधार्मिकों द्वारा या परस्पर में उत्पादित कीडे वहां उन्हें काटते हैं और इससे उन्हें घोर व्यथा होती है । आगम में कहा है-छठी और सातवीं नरकभूमि में नारकजीव बहुत बडे बडे 'रक्तकुन्थु' के रूपों की विक्रिया करते हैं । वे एक दूसरे के शरीर का उपहनन करते हैं ||२०|| शब्दार्थ -- 'सया - सदा' सर्वकाल 'कसिणं पुण धम्माणं कृत्स्नं पुनर्धर्मस्थानम्' नारकी जीवों के रहने का संपूर्ण स्थान उष्ण होना है 'गाढोवणीयं- गाठोपनीतं' और वह स्थान निघत्त निकाचित कर्म द्वारा नारकी जीवों को प्राप्त हुआ है 'अतिदुक्खधम्मं - अतिदुःखधर्मम्' છે, ત્યાં નારકા ચિરકાળ સુધી વિશ્વનું ભક્ષણુ અને મૂત્રનું પાન કર્યાં કરે છે. પરમાધામિકા દ્વારા અથવા પરસ્પરના દ્વારા ઉત્પન્ન કરવામાં આવેલા ક્રીડાએ ત્યાં તેમને કરડયા કરે છે. આગમમાં પણ એવુ કહ્યું છે કે દી ને સાતમી નકભૂમિમાં નારક જીવે ઘન્નુા જ મેટા મોટા ‘રતકુન્થ'નાં રૂપાની વિક્રિયા કરે છે. તેએ એકબીજાનાં શરીરનું ઉપહનન (ભક્ષણુ) કરતા રહે છે. ર૦ના शब्दार्थ–‘स्वया–सदा' सर्वा 'कसिणं पुण घम्मदृणं- कृत्स्तं पुनर्धर्मस्थानम्' नारी बने रहेवानु सपूर्ण स्थान उष्णु होय छे. 'गाढोवणीयं- गाढोपनीतं અને તે સ્થાન નિધત્ત નિકાચિત કર્મ દ્વારા નારકી જીવેાને પ્રાપ્ત થયેલ છે, For Private And Personal Use Only Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ५ उ. १ नारकीयवेदनानिरूपणम् ३७५ अन्वयार्थः-(सया) सदा-सर्वकालं (कसिणं पुण घम्पट्ठाण) कृत्स्नं संपूर्णमपि धर्मप्रधान स्थान स्थितिरिकाणां भवति (गाढोवणीयं) गाढोपनीतं निधतनिकाचितकर्मद्वारा प्राप्तं (अतिदुक्खधम्म) अतिदुःखधर्ममतिदुःखदस्वभावं वर्तते पुनश्च तान् (अंसु) अन्दषु-कुम्भी विशेषेषु (पविखप) प्रक्षिप्य तेषां (देह विहत्तु) देहं विहत्य-विदार्य (से) तस्य (सीसं) शीर्ष मस्तकं (वे हेण) वेधेन रन्ध्रोत्सादनेन (अभिवावयंति) अमितापयन्ति कीलयन्ति इति ॥२१॥ ___टीका-सया' सदा 'कसिणं' करनं समस्त मेव 'चम्म गं' धर्मस्थानम् , अतितापपधान स्थितिर्भवति नारकजीवानाम् , 'गाढोवणीय गाढोपनीतं निधत्तनिकाचितावस्थैः कर्मभिनारक जीवानां प्राप्तं भवति । पुनः कीदृशं तत्स्थानम् ? तबाह अति दुःख देना ही जिनका धर्म-स्वभाव है 'अंसु-अन्दूषु' कुंभी में 'पक्खिप्प-प्रक्षिप्य' डालकर 'देहं विहत्तु-देहं विहत्य' उनके शरीर का भेदन करके 'से-तस्य' उसका 'सीसं-शीर्ष' मस्तक में 'वेहेण -वेधेन' छिद्र करके 'अभिताययंति-अभितापयन्ति' पीडा पहुँचाते हैं ॥२१॥ ___ अन्वयार्थ-नारकजीवों का रहने का सम्पूर्ण स्थान सदैव उष्णता प्रधान होता है और वह स्थान निधत्त एवं निकाचित् कर्मों के द्वारा उन्हें प्राप्त होता है । वह स्वभाव से ही अत्यन्त दुःखप्रद है । परमाधार्मिक देव नारकों को कुंभी में डालकर तथा मस्तक में छेद करके पीडा पहुँचाते हैं । २१॥ टीकार्थ--नारकजीवों के रहने का स्थान सदा एवं सम्पूर्ण उष्णता वाला होता है। उन्हें निधत्त एवं निकाचित्त अवस्था को प्राप्त कर्मों 'अतिदुक्खधम्म-अतिदुःखधर्मम्' मति पधारे दु:म हे रेमनी धर्म-२५भाव छ 'अंदूसु-अन्दूषु' माविशेषमा पविखप्प-प्रक्षिप्य' नiमान 'देहं विहनु-देहं विहत्य' तभना शरी२२ लेटीन 'से-तस्य' तेमनु 'सीसं-शीर्ष' माथाम 'हेण वैधेन' आयुरीन 'अभितावयंति-अभितापयन्ति' पी31 पाया छ. ॥ २१ ॥ સૂત્રાર્થ –નારકોને જ્યાં રહેવાનું હોય છે તે સંપૂર્ણ સ્થાન સદા ઉષ્ણતાવાળું હોય છે, તેમને નિધત્ત અને નિકાચિત કર્મો દ્વારા તે રથાનની પ્રાપ્તિ થાય છે તે સ્થાન સ્વાભાવિક રીતે જ અત્યન્ત દુખપ્રદ છે. ત્યાં ઉત્પન્ન થયેલા નારકોને શરીરને કંદ નામની કુંભમાં નાખી દઈને તથા તેમના મસ્તકને વી ધી પરમાધાર્મિક અસુરે તેમને ખૂબ જ યાતનાઓ આપે છે. ૨૧ ટીકાઈ–નારકેને રહેવાનું સંપૂર્ણ સ્થાન સદા ઉણ હોય છે, નિત્ત અને નિકાચિત અવસ્થાના સદૂભાવવાળાં કર્મોને કારણે તેમને આ સ્થાન For Private And Personal Use Only Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३७६ सूत्रकृताङ्गसूत्रे 'अतिदुक्खधम्मं' अतिदुःखधर्मम् अतीव दुःखमसातावेदनीयं धर्मः स्वभावो यस्य तथाभूतं वर्त्तते । तादृशस्थाने स्थितं नारकजीवं 'अंदूस' अदषु कुम्भीवि शेषेषु 'पवित्र' प्रक्षिप्य देहं विहन्तु' देहं विहत्य विदार्य सीस' शीर्ष-मस्तवम् । 'से' तस्य नारकजीवस्य 'वेग' वेधेन छिद्रोत्पादनेन । 'अभितावयति' अभि सापयन्ति, सर्वतः संतापयन्ति । नारकजीवानां स्थानं सर्वदेवात्युष्णं भवति, तरस्थानं तीव्रतीव्रतर तीव्रतम परिणामकृत चिकणकर्मणा जीवन प्राप्तं भवति । तस्थानमतीव दुःखद थि, यत्र स्थाने नारकिजीवानां सर्वागानि प्रभिद्य तत्र कीलकं निक्षिप्य संतापयन्ति परमाधार्मिका नारकजी रान् इति भावः ||२१|| " Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir के कारण उस स्थान की प्राप्ति होती है । वह स्थान पुनः किस प्रकार का है, सो कहते हैं, वह अत्यन्त दुःखमय स्वभाव वाला है अर्थात् स्वभावतः उस स्थान को प्राप्त करने से असह्य दुःख उत्पन्न होता है । ऐसे स्थान में नारकों को रहना पडता है । परमाधार्मिक असुर नारकियों के शरीर को बेडियों में डालकर तथा मस्तक में छिद्र करके घोर संताप पहुंचाते हैं । आशय यह है-नारकजी का स्थान सदैव अत्यन्त उष्ण रहता है । तीव्र, तीव्रतर और तीव्रतम परिणामों के द्वारा उपार्जित किये हुए चिकने कर्मों से उस स्थान की प्राप्ति होती है । यही अत्यन्त दुःखदायी है । उस स्थान में नारकियों के सब अंगों को भेदन करके तथा कील ठोंककर परमाधार्मिक देव नारक जीवों को घोर सन्ताप देते हैं ||२१ ॥ પ્રાપ્ત થયુ હોય છે. તે સ્થાનનુ વિશેષ વર્ણન કરતા સૂત્રકાર કહે છે કેતે અત્યંત દુ:ખપ્રદ સ્વભાવવાળુ' છે, એટલે કે આ સ્થાનમાં ઉત્પન્ન થનારા જીવાને સ્વાભાવિક રીતે જ અસહ્ય દુ:ખાને! અનુભવ કરવે પડે છે. ત્યાં પરમાધાર્મિ ક દેવતાએ નારકો પર भूख ४ અત્યાચાર ગુજારે છે. તેએ તેમના શરીરને ભીમાં નાખીને તથા તેમના મસ્તકમાં છિદ્ર પાડીને તેમને દારુણ દુઃખને અનુભવ કરાવે છે. આ કથનના ભાવાર્થ એ છે કે નારકેટનાં નિવાસ્થાન સદા અત્યન્ત ઉષ્ણ રહે છે. તીવ્ર, તીવ્રતર અને તીવ્રતમ પરિણામા દ્વારા ઉપાર્જિત કરાચેલાં ચીકણાં કર્મોને લીધે આ સ્થાનમાં તેમની ઉત્પત્તિ થતી હૈાય છે. આ સ્થાન અતિશય દુઃખદાયી છે. તે સ્થાનમાં ઉત્પન્ન થયેલા નારકાને કુભીમાં નાખીને તેમના મસ્તક આદિ 'ગેમાં ખીલા ઠોકીને પરમાધાર્મિક અસુરા તેમને ઘાર સતાપનો અનુભવ કરાવે છે. રા For Private And Personal Use Only Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - - - - - समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ५ उ. १ नारकीय वेदनानिरूपणम् ३७७ मूलम्-छिंदति बालस्स खुरेण नकं, उठे वि छिदंति दुवेवि कण्णे। जिब्भं विणिकस्स विहस्थिमित्तं तिखाहिं सूलोहिऽमितावयंति ॥२२॥ छाया-छिन्दन्ति वालस्य क्षुरेण नासिकामोष्ठौ अपि छिन्दन्ति द्वावपि करें। निां निनिष्कास्य वितस्तिमात्रा तीक्ष्णाभिः शूलाभिरभितापयन्ति ॥२२॥ अन्वयार्थः--(बालस्स) वालस्य निर्विवेकिनो नारकस्य (नक्क) नासिका (उहे वि) ओष्ठौ अपि (खुरेण) क्षुरेण दिति) छिन्दन्ति-कतयन्ति तथा (दुवे वि कण्णे) द्वावपि कणों (छिदंति) छिन्दन्ति (विहस्थिमित्त) वितस्तिमितां वितस्तिमात्रां (जिन्भ) जिह्वां (विभिकास) चिनिष्कास्य (तिववाहि मूलाहि) तीक्ष्णाभिः शुलाभिः (अभितायंति) अभितापयन्ति वेधयंति इति ॥२२॥ शब्दार्थ-- बालस्स-बालस्य' विवेकरहित नारकिजीव की 'नक्कंनासिका नालिका को 'उद्वेवि-औष्ठो अपि' और ओष्ठ को भी 'खुरेणक्षुरेण' अस्तुरे से छिदंति-छिन्दन्ति' काटते हैं तथा 'दुवे वि कण्णेछावपि को दोनों कान भी छिदंति-छिन्दन्ति' काट लेते हैं 'विहत्थिमित्तं-विनस्तिमिता' रितसित मात्र 'जिन्भ-जिहां जीभ को 'विणिकस्म-विनिष्कास्य' बाहर खींचकर 'तिक्खाहिं सूलाहि-तीक्ष्णाभिः शुलाभिः' तीक्ष्ण धार वाले शूल से 'अभितावति-अभितापयन्ति' पीड़ित करते हैं ॥२२॥ अन्वयार्थ-नरकराल अज्ञान नारक की नाक काट लेते हैं, होठों को काट लेते हैं और दोनों कानों को भी काट लेते हैं। एक बेत लम्बी जीभ बाहर निकालकर तीक्ष्ण शूलों से उसे वींध कर पीडा देते हैं ॥२२॥ wale --- बालस-बालस्य' विहित न वानी 'नक-नासिको' नासिक (ना) 'उने वि-ओष्ठौ अपि सने 8२ ५५ ‘खुरेण-क्षुरेण' भरतराथी 'छिदंति-हिन्दन्ति' ॥ छ तथा 'दुवेवि कण्णे-द्वावपि कौँ' ने जान ५ 'छि दंति-छिन्दन्ति' ५ो छ 'विहत्थिमित्तं-वितस्तिमात्रां' वितरित मात्र अर्थात् सवत रेसी 'जिन्भ-जिह्वां' 2 'विणिक्कस्व-विनिष्कास्य' महार मेयाने तिक्खाहि सूसाहि-तीक्ष्णाभिः शूलाभिः' ती धारपाणी शुगयी 'अभितावयंति-अभितापयन्ति' पारित ४२ छे. ।। २२ ॥ સૂવાથં–નરકપલે અજ્ઞાન નારકનાં નાક કાપી લે છે, હોઠ કાપી લે છે, અને કાન પણ કાપી લે છે અને એક વેંત લાંબી તેમની જીભને બહાર ખેંચી કાઢીને તીણ શલે (ધારદાર કાંટા જેવાં શસ્ત્રો) વડે વીંધી નાખે છે. २०४८ For Private And Personal Use Only Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे टीका--'बालस्स' बालय निर्विवेकिनः प्राणातिपातादिघोरकर्मकारिणी जीवस्य ते परमाधार्मिकाः तेषां पूर्वदुष्कृतानि स्मारयित्वा 'नक' नासिकाम् 'खुरेण' तीक्ष्णारेण छिन्दन्ति-कर्त्तयन्ति । तथा 'उडेवि' ओष्ठौ अपि छिन्दन्ति । तथा-'दुवे वि' द्वावपि । 'कण्णे' कौँ छिन्दन्ति । तथा-'विहत्थिमित्त' वितस्तिमात्रा-वितस्तिप्रमाणाम् 'जिन्भ' जिह्वाम् ‘विणिक्करस' विनिष्कास्य हस्तेन बहिरानीय 'तिक्खाहि तीक्ष्णाभिः 'मुलाहि' शूलाभिः तदाख्याऽस्त्रविशेषः आविध्य । 'अभितावति' अभितापयन्ति-जिह्वां शूलादिभिर्वे धयित्वा अतिशयेन पीडामुस्पादयन्ति, इति भावः ॥२२॥ मूलम्-ते तिप्पमाणा तलसंपुडंव, रोइंदियं तथ थेणंति बाला। गैलंति ते सोणियपूयमंसं, पंजोइया खार पइद्धियंगा॥२३॥ छाया--ते तिप्यमानास्तालसंपुटा इत्र रात्रिदिवं तत्र स्तनन्ति बालाः । गलन्ति ते शोणितपूयमांस प्रयोतिताः क्षारपदिग्धाङ्गाः ॥२३॥ टीकार्थ--प्राणातिपात आदि घोर कर्म करने वाले उस अज्ञान नारक को, परमाधार्मिक उसके पूर्वपापों का स्मरण दिलाकर तीखे छुरे से नाक काट लेते हैं, दोनों ओष्ठ काट डालते हैं और दोनों कान भी काट डालते हैं । तथा एक वालिस्त (वेत भर) जीभ मुख से बाहर निकाल कर तीक्ष्ण शूलों से वेध करके अतिशय पीडा देते हैं ॥२२॥ शब्दार्थ--'तिप्पमाणा-तिप्यमानाः' जिनके अंगों से रुधिर टपक रहा है ऐसे 'ते-ते' वे नारक 'थाला-यालाः' अज्ञानी 'तलसंपुडंव-तालसंपुटा इव' सूखे ताल के पत्ते के समान 'राइंदियं-रात्रिंदिवम्' रात ટીકાર્ય-પ્રાણાતિપાત આદિ ઘેર કર્મો કરનાર છે ત્યાં ઉત્પન્ન થાય છે. ત્યાં તેમની કેવી દશા થાય છે તેનું સૂત્રકાર વર્ણન કરે છે–પરમાધામિકે તેમનાં પૂર્વકૃત પાપનું તેમને સ્મરણ કરાવીને તીક્ષ્ણ છરી વડે તેમનાં નાક કાપી નાખે છે, બને છેઠ અને બન્ને કાન પણ કાપી નાખે છે, તથા તેમની એક વેંત જ મને મોઢામાંથી બહાર ખેંચી કાઢીને તેમાં તીક્ષણ શળે અથવા ખીલાઓ લે કી દે છે. આ પ્રકારની અસહ્ય પીડાઓ તેમને ત્યાં સહન કરવી પડે છે. મારા ___ 4-'तिप्पमाणा-तिप्यमानाः' मना माथी खोड 2५४ी रघुछ सेवा 'ते-ते' ते ना२४ 'वाला-वालाः' अज्ञानी 'तलसंपुडंग-त लसंपुटा इव' वायुथा ६.वेद सू४ तासना पाना समान राइंदियं-रानिन्दिवम्' रात, हिन-'तत्थ-तत्र' For Private And Personal Use Only Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ५ उ. १ नारकीयवेदनानिरूपणम् ३७९ अन्वयार्थ:-तिप्पमाणा) तिप्यमानाः शोणितं क्षरन्तः (ते) ते नारकाः, (बाला) बालाः-अज्ञानिनः (तलसंपुडं व) तालसंपुटा इत्र पानेरितशुष्कतालपत्रसंचया इव (राइदियं) रात्रिंदिवम् (तत्थ) तत्र नरके (थणंति) स्तनन्ति दीर्घविस्वरमाक्रन्दन्ति (पज्जोइया) प्रयोतिताः वह्निना ज्वलिताः (खारपयद्धियंगा) क्षारप्रदिग्धांगा:-क्षारलिप्ताङ्गाः (सोणियपूयमसं) शोणितपूतिमांस (गलंति) गलन्ति वाक्यन्तीति ॥२३॥ टीका-तिप्पमाणा' तिप्यमानाः-स्वाङ्गभ्यः शोणितमुनिरन्तः बहिनिःसारयन्तः 'ते' ते नारकाः 'बाला' बालाः-अज्ञानिनश्छिन्ननासिकौष्ठजिह्वाकर्णाः । 'तलव दिन 'तत्थ-तत्र' उस नरक में 'धणंति-स्तनंनि' रोते रहते हैं 'पज्जो. इया-प्रद्योतिताः' आग में जलाये जाते हुए 'खारपयद्धियंगा-क्षारप्रदिग्धांगाः' तथा अंगो में खार लगाये हुए 'सोणियपूयमंसं-शोणित पूयमांसं' रक्त, पीव, और मांस 'गलंति-गलन्ति' अपने अंगों से गिराते रहते हैं ॥२३॥ ___ अन्वयार्थ--रुधिर (लोई) बहाते हुए अज्ञान नारक जीव पधन के चलने से सूखे हुए ताड के पत्तों की राशि के समान रात दिन नरक में उच्च स्वर से आक्रन्दन करते रहते हैं । वे अग्नि से जला दिये जाते हैं और फिर उनके अंग अंग पर क्षार छिडक दिया जाता है। उनके शरीर से रुधिर (लोई) और सडा मांस झरता रहता है।।२३। टीकार्थ--अपने अंगों से रुधिर बाहर निकालते हुए वे अज्ञानी नारकी जिनकी नाक, ओष्ठ जीभ कटी हुई है, सुखे हुए ताल के पत्तों तन२४मा 'थति-स्तनंति' शत। २ छ. 'पज्जोइया-प्रद्योतिताः' मामा मतi rai 'खारपयद्धियंगा-क्षारप्रदिग्धांगा.' तथा मामा मा२ गाये 'सोणिय पूयमसं-शोणितपूयमांसं' २४त, ५३, भने मांस 'गलंति-गलन्ति' पोताना અગોથી વહેવડાવતાં રહે છે. ૨૩ સૂત્રાર્થ-જેવી રીતે પવનની લહેરથી તાડનાં સૂકા પાનની રાશિમાંથી ખડ, ખડ અવાજ થતું રહે છે, એ જ પ્રમાણે પરમધાર્મિક અસુરે દ્વારા અંગેનું છેદન થવાને કારણે જેમનાં અંગોમાંથી લોહી વહેતું હોય છે એવાં અજ્ઞાન નારકે અહર્નિશ ઊંચે સ્વરે આનંદ કર્યા કરે છે. તેમને અગ્નિમાં બાળવામાં આવે છે, અને તેમના અંગે પર ત્યાર બાદ મીઠું ભભરાવવામાં આવે છે. તેમનાં શરીરમાંથી સદા લેહી પરૂ અને માંસ ટપકડ્યા કરે છે. ૨૩ टी -५२माधाम देवता! द्वारा मन ना४, आन, 88, આદિ અંગેને છેદી નાખવામાં આવ્યાં છે, અને તે કારણે જેમનાં અને For Private And Personal Use Only Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३८० सूत्रकृताङ्गसूत्रे संपुटं व तालसंपुटा इव शुष्कतालपत्राणीव, 'राईदियं रात्रिंदिवम् , अहर्निशमिति यावत् । 'तत्थ' तत्र नरकाऽऽवासे 'थगति' स्तनन्ति तारतरेण विस्वरं रुदन्त. स्तिष्ठन्ति । तथा-'पज्जोइया' प्रद्योतिताः-बहिना अधोतिताः ज्वलन्तः । तथा'खारपइद्धियंगा' क्षारप्रदिग्धाङ्गाः क्षारै लणैः प्रदिग्धानि अतिशयेन पूरितानि अङ्गानि येषां तथाविधास्ते । 'सोगियपूयमांसं शोणितपूयमांसम् , स्वकी पशरीरावयवेभ्यो 'गलंति' गलन्ति-निष्कासयन्ति । तदेहात शोणितादीनि पतन्ति इति ॥२३॥ मूलम्-जइ ते सुंयालोहितपूयपाइ बालागणी तेअगुणा परेणं। कुंभीमहंताहिये पोरसिया समुस्तिता लोहियपूयपुण्णा॥२४॥ छाया--यदि त्वया श्रुा लोहितपूयपाचिनी बालाग्नितेजोगुणा परेण । कुंभी महत्यधिकपौरुषीया समुच्छ्रिता लोदिसपूयपूर्णा ॥२४॥ के समान, रातदिन उस नरकावाम में ऊंचे ऊंचे स्वर से रुदन करते रहते हैं। इसके अतिरिक्त थे अग्नि से जलाये जाते हैं और उनके अंगों पर लवण लगा दिया जाता है। इस कारण उनके शरीर के अव. यवों से रक्त पीप एवं मांस निकलता रहता है ॥२३॥ शब्दार्थ--'लोहितपूयपाई-लोहितपूमपाचिनी रुधिर एवं पीव को पकाने वाली 'बालागणीतेयगुगा परेणं-बालाग्नितेजोगुणा परेण' नूतन अग्नि के ताप के समान जिसका गुण है अर्थात् जो अत्यन्त तापयुक्त है 'महंता-महती' बहुत बडी 'अहियपोरसिया-अधिकपौरुषीया' तथा पुरुष प्रमाण से अधिक प्रमाण वाली 'लोहियपूय पुण्णालोहित पूयपूर्णा' रक्त और पीय से भरी हुई 'समुस्सिया-समुच्छ्रिना।' માંથી રુધિર ટપકતું હોય છે એવાં તે નારકે તાડનાં સૂકાં પાંદડાંની જેમ, રાતદિન ઊંચે સ્વરે રુદન કર્યા કરે છે, તેમનાં અંગોનું છેદન કરવા ઉપરાંત તેઓ તેમને અગ્નિમાં બળે છે અને તેમનાં દગ્ધ અંગો પર મીઠું ભભરાવીને તેમની પીડાને અધિક દારુણ કરે છે. તે કારણે તેમના શરીરના અવયમાંથી લેહી, પરુ અને માંસ ટપકતું રહે છે. રક્ષા शा--'लोहियपूगपाई-लोहितपूयपाचिनी' बोडी मेवभू ५३ने ५४. पाणी 'बालागणीतेयगुणा परेणं-बालग्निवेजोगुणा परेण' नूतन ममिना तापना समान बना गुरु अर्थात् रे सत्यत ता५ युत छ ‘महंता-महती' Or मोटी 'अहियपोरसिया-अधिकपौरुषीया' तथा पुरुष प्रमाणुथी मधिर, प्रभागुवाजी 'लोहियपूयपुण्णा -लोहितपूयपूर्णा' २४ भने ५३था १२सा 'समु. For Private And Personal Use Only Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र.श्र. अ. ५ उ. १ नारकीयवेदनानिरूपणम् ३८५ अन्वयार्थः--(मोहितपूयपाई) लोहितपूरपाचिनी रक्तपयपाचिका कुंनी (वालागगीतेगुगा परेणं) बालाग्नितेजोगुणा परेग-जाजल्यमानाग्नितप्ता प्रकर्षण (पहता) महती (अहियाोरसिया) अधिौलीया-पुरुषपमाणादधिका (लोहियपूययुगा) लोहितः पूर्गा (मास्सिपा) साछिना-उन्ट्रिाकृतिः ऊधव्यवस्थिता (कुंभी) कुंभी (जइ ते सुया) यदि ते श्रुता ॥२४॥ टोका-- पुनरपि सुधर्मस्वामी जंबूस्वामिन प्रति भगवतस्तीर्थ करस्य वचनं प्रकाशयति-'जात' इत्यादि । 'लोहितपूयपाई' लोहितपूरपाचिनी रक्तपूयपा. चिनी, लोहितम् अपक्वं रुधिरं पूयम् पाचित रक्तम् , तदुभयं पाचयति या सा लोहितपूयपाचिनी। तथा - 'बालागणी तेयगुगा परेणं' वालाग्नितेनोगुणा परेण बालाग्निना, वालो नूतनोऽग्निः तेन बालाग्निना योऽभितापः स एव गुणो यस्याः ऊंची 'कुंभी कुभी' कुम्मी नामक नरकभूमि 'जइ ते तुपा-यदि त्वया श्रुता' कदाचित् तुमने सुनी होगी ॥२४।। __ अन्वयार्थ--रुधिर और पीप को पकाने वाली, नूतन अग्नि के समान गुण वाली अर्थात् तीव्र ताप से युक्त, महती पुरुष प्रमाण से भी अधिक प्रमाणवाली, रक्त तथा पीत से परिपूर्ण और ऊंट की आकृति की ऊंची रही हुई कुंभी संभव है तुमने सुनी हो ॥२४॥ ___टीकार्थ--सुधर्मा स्वामी जम्बूस्वामी के प्रनि पुनः भगवान् तीर्थ कर के वचन को प्रकाशित करते हैं-'जइ ते' इत्यादि। अपक्व रक्त लोहित तथा पका हुआ रक्त पूष (मवाद) कहलाता है। इन दोनों को जो पकाती है उसे 'लोहितपूयपाचिनी' कहते हैं। बाल अर्थात् नूतन अग्नि के समान गुण वाली जो हो उसे 'बालाग्नितेजोगुणा' कहते हैं। इस स्त्रिया-समुच्छूिताः' या 'कुंभी-कुंभी' भी नवाजी न२६भूमी 'जइ ते सुयायदि त्वया श्रुता' यित् तमे Hinी शे. ॥ २४ ॥ સૂત્રાર્થ-રુધિર અને પરુને પકાવનારી, નૂતન અગ્નિ જેવા તેજવી ગુણવાળી એટલે કે તીવ્ર તાપથી યુક્ત, ઘણી મેટી-પુરુષ પ્રમાણ કરતાં પણ અધિક પ્રમાણવાળી, રક્ત અને પરુથી પરિપૂર્ણ અને ઊંટના જેવા આકારવાળી, ચા એવા કુંભી નામના નરકની વાત તો કાચ તમે સાંભળી હશે ૨૪ ટીકાર્ય–સુધર્મા સ્વામી જબૂસ્વામીની સમક્ષ મહાવીર પ્રભુનાં વચને प्रकट १२ता या प्रमाणे ई छ-'जइ' 16---५५५ तन सोडित' કહે છે તથા પકવ રક્તને “પણ” કહે છે. આ બન્નેને જે પકાવે છે તેને લિહિતpયપાચિની' કહે છે. બાલ અગ્નિ (નૂતન અગ્નિના) જેવા તેજસ્વી अवाज डाय छ, तेने 'शलाग्नितेजोगुणा' छे. सदी मासाभिनाया For Private And Personal Use Only Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे सा बालाग्निते जोगुणा। 'परेग' परेण-प्रकर्षे ग अतिशयेन तप्तेत्यर्थः । पुनः कथं भूता कुंभी ? तत्राह-'महंता' महती अतिशयेन बृहतरा । 'अहियपोरसिया' अधिकपौरुषीया-पुरुषपमाणतोऽधिका । 'समुस्सिया' समुच्छ्रिता, उष्ट्रि काकृतिः ऊर्चव्यवस्थिता । 'लोहियपूयपुण्णा' लोहितपूयपूर्णा-रक्तपूयाभ्यां पूर्णा व्याप्ता । एवंभूता कुंभी । 'जई' यदि 'ते' यया 'सुया' श्रुता-आकर्णिता भवेत् । एतादृशः कुम्भीनाम नरकः युष्माभिः श्रुतः तत्रेमे पापकारिणो गच्छन्तीति संबन्धः ॥२४॥ मूलम्-पक्खिप्प तासु पययंति बाले, अदृस्सरे ते कलुणं रसंते। तहाइया ते तेउ तंव तत्तं, पजिजमाणाऽस्सर रसंति ॥२५॥ छाया-प्रक्षिप्य तासु पश्चंति बालान आर्तस्वरान् वान् करुणं रसतः। तृष्णारितास्ते त्रपुताम्रतप्त पाय्यमाना आर्तस्वरं रसन्ति ॥२५॥ पालाग्नि के समान अत्यन्त तीव्र संताप से युक्त, बहुत षडी, पुरुष प्रमाण से भी अधिक प्रमाण वाली, उष्ट्रिका जैसी आकृति वाली ऊंची स्थित तथा रक्त और पीव से व्याप्त कुंभी यदि तुमने सुनी हो। उस कुंभी में वे पापकारी नारक जाकर उत्पन्न होते हैं ॥२४॥ 'पक्खिप्प' इत्यादि । शब्दार्थ--'ताप्लु-तालु' रक्त और पीव से भरी हुई उस कुम्भी में 'बाले-बालान्' अज्ञानी 'अस्सरे-आत:वरान्' आर्तनाद करते हुए 'करुणं रसंते-करुणं रसतः' एवं करुण-दीन स्वर से रुदन करते हए नारकी जीवों को 'पक्विप-प्रक्षिप्य' उसमें डालकर पिययंतिप्रपचन्ति 'नरकपाल पकाते हैं 'तण्हाया-तुष्णार्दिता।' प्यास से व्या. ગુણવાળી અત્યંત તીવ્ર સંતાપથી યુક્ત, ઘણું જ મે ટી-પુરુષપ્રમાણુ કરતાં પણ અધિક પ્રમાણવાળી, ઉષ્ટ્રિકા (ઊંટ) ના જેવા આકારવાળી, ઊંચી સ્થિત લેહી અને પ૦થી વ્યાસ કુંભીની વાત તે તમે કદાચ સાંભળી હશે. તે પાપકારી નારકે તે કુંભમાં જઈને ઉત્પન્ન થાય છે. ૨૪ ___ 'पक्खिः ' या शा-'तासु-तासु' २४1 मने ५३था मरेनी ते भीमा 'बालेबाल ने अज्ञानी 'अट्टालरे-आत्तसरान्' भात ना ४२ai 'करुणं रसंते-करुणं रसतः' सम् ४३५-11 २१२थी २७11 ॥२४ी याने 'पक्खिप्प-प्रक्षिप्य' तwi Hin2 'पययंति-प्रचन्त' न२४५५३ ५३ छ 'तण्हाया-तृष्णार्दिताः' तरथी For Private And Personal Use Only Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थघोधिनी टीका प्र. शु. अ. ५ उ. १ नारकीयवेदनानिरूपणम् ३८३ अन्वयार्थः--(तासु) तामु-कुम्मीषु (बाछे) बालान् (अट्टस्सरे) आर्तस्वरान् (कलुणं रसंते) करुणं-दीनं रसतः रोदनं कुर्वतः (पविखप्प) पक्षिप्य (पययंति) अपचंति परमाधार्मिकाः (तण्डाइश) कृष्णार्दिताः-पिपासाकुलिताः (ते) ते नारकाः (नउतंवतत्त) त्रपुताम्रतप्तं (ज्जिज्जमाणा) पाय्यमानाः (ट्टस्सर) आत स्वरं यथा स्यात् तथा (रसंति) रसन्ति-आक्रन्दनं कुर्वन्तीति । २५।। टीका-'तामु' तासु कुम्भीषु रक्तपुरपूरितासु 'बाले' बालान् पापकारिणः । 'अट्टसरे' आर्तस्वरान् अतिदीनं नादं कुर्वतः । तथा-'वलुग' करुणम् । 'रसंते' रसतः करुणस्वरं कुर्वतोऽतिदीनान् जीवान् 'पविखप्प' क्षिप्य, तासु कुम्भीषु कुल' 'ते-ते' वे नारकी जीव नरकपालों के द्वारा 'तउतंत्रतत्तं-पु. ताम्रतप्त' गरम सीसा और तांबा 'पजिजमाणा-पाय्यमानाः' पिलाये जाते हुये 'अहस्सरं-आर्त स्वरं' आर्तस्वर से 'रसंति-रसन्ति' रुदन करते हैं ॥२५॥ __ अन्वयार्थ-उन कुंभियों में उन अज्ञानी, आर्त स्वर वाले तथा करुण क्रन्दन करने वाले नारक जीवों को पटककर नरकपाल पकाते हैं । तथा प्यास से पीडित उन नारकों को त पाया हुआ रांगा और तांबा पिलाया जाता है तो वे आतस्वर से आक्रन्दन करते हैं-धुरी तरह चीखते हैं ॥२५॥ टीकार्थ-रक्त और पीव से परिपूर्ण उन कुभियों में उन पापी, अत्यन्त आर्तस्वर से चिल्लाने वाले तथा करुण आवाज करने वाले अतीव दीन नारकों को पटककर परमाधार्मिक पकाते हैं । जैसे उपलते व्याण तेते' ते २४ी ०१ २४ासन द्वारा 'तउतंत्रतत्तं-त्रपुताम्रतप्तं' गरम सासु मन तie 'पजिजज्जमाणा-पाय्यमानाः' पी५१वामां माता 'अट्टरसरं-आर्तस्वरं' आत्त१२थी 'रसंति-रसन्ति' २3 छ. ॥२५॥ સૂત્રાર્થ–નરકપાલે તે કુંભીઓમાં તે અજ્ઞાન નારકેને બળજબરીથી પછાડીને પકાવે છે. ત્યારે તેઓ આ સ્વરે કરુણ આકંદ કરે છે. તથા તરસથી પીડાતા તે નારકેને ગરમા ગરમ સીસા તથા તાંબાને રસ પીવરાવવામાં આવે છે. આ દુખ સહન ન થઈ શકવાને કારણે તે નારકો આર્તા સ્વરે આકંદ કરે છે. ભયંકર ચીસે પાડે છે પણ ટીકાઈ—-રુધિર અને પરુથી પરિપૂર્ણ તે કુંભીઓમાં તે પાપી, અત્યન્ત આ સ્વરે ચીસે પાડતા, કરુણાજનક અવાજે રુદન કરતાં, તે અતિશય દીન નારકેને પરમધાર્મિક પટકીને પકાવે છે. જેવી રીતે ઉકળતા તેલની For Private And Personal Use Only Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे अभिनववक्षिपदीप्ताऽतिगहनासु पापकर्षकारिणः पातयित्य ‘पययंति' प्रपचन्ति यथा-तप्ततैलपूरितक्टाहे शाकं प्रक्षिपेतस्ततश्चालन कुर्वन् पाचपति तद्वत् कटाहकल्पकुम्मा बालान् इतस्ततः चालनेन ते परमाधार्मिकाः पाचयन्ति । तत्र पाकदुः घमनुभवन्तस्ते बालाः किं कुर्वन्ति तत्राह-'तण्हाइया' तृष्णार्दिताः वृष्णया जलानेच्या पोडि साइते बागः परमाधार्षिकैः ‘त उतं स्तत्तं' अपुताम्रतप्तम् , तृष्णयाऽऽकु लेनास्ते सदा जलं पावन्ति, सदा ते नरकपालास्तान भोः ? मद्यन्तेऽनीव शियमामीन पिव इवानी नदमिति स्माररिवा-र अपुताम्रम् । 'पब्जिनमाणा पापमानास्ते नारकाः । 'भरे आस्वरं रसन्ति, विलक्षणदुवाऽनुभवनेन दुःखिताः आसन पद. इदानीं तत्र ताम्र बानेन मुतरां साऽतिशये। दुःखिताः सन्तः आर्तनाद कुर्वन्तीति ॥२५॥ हुए तैल से पूरिल कढाई में शाक डालकर और इधर से उधर तथा उधर से इधर हिला डुलाकर पकाया जाता है, उसी प्रकार कढाई के समान कुंभी में उन पापी जीवों को इधर उधर हिलाकर परमाधर्मिक पकाते हैं । पकाने के दुःख का अनुभव करते हुए वे अज्ञानी क्या करते हैं, सो कहते हैं-प्यास से पीडित होकर जर वे जल की प्रार्थना करते हैं, तब नरकपाल उन्हें कहते हैं-'अरे तुझे मदिरा बहुत प्रिय थी, ले अब यह पो, इस प्रकार स्मरण दिलाकर उबलता हुआ गंगा और तथा पिलाते है । तब वे अतीव आतम्बर से चिल्लाते हैं। रिल क्षण प्रकार के दु.ख का अनुमा करके वे बेचारे पहले ही दुःखी थे, अब तपा हुआ गंगा और शीशा पिलाने से वे स्वभावतः और अधिक दुःखी होते हैं और आर्तनाद करते हैं ॥२५॥ કડાઈમાં શાકને નાખીને તાવેથા વડે હલાવવામાં આવે છે, એ જ પ્રમાણે તે કુંભીઓમાં તે નારકોને નાખીને તથા તેમને આમ તેમ ફેરવી ફેરવીનેશાકની જેમ હલાવીને-પકાવવા માં આવે છે. આ પ્રકારે જયારે તેમને પકાવવામાં આવે છે ત્યારે તેમને અસહ્ય પીડા થાય છે અને તરસને કારણે તેમનાં કઠ સૂકાઈ જાય છે, તેઓ પાને માટે કાલાવાલા કરે છે ત્યારે નરકપલે તેમને छे-', तमने महिपान ध पिय तु, तो वे मा २सनु પાન કરે !' આ પ્રમાણે તેમના પૂર્વજન્મના દુ નું તેમને સ્મરણ કરાવીને તેઓ તેમને તાંબા અને સીસાને ઉકળતે રસ પિવરાવે છે, ત્યારે તેઓ આર્તાસ્વરે ચીસ પાડવા લાગે છે. કુંભીમાં પકાવાયા હોવાને કારણે તેએ અસહ્ય પીડાને અનુભવ કરી હ્યા હતા, તેમાં વળી ગરમા ગરમ સીસા અને તાંબાના રસનું પરાણે પાન કરવું પડે છે, તે કારણે તેમના દુઃખની માત્રા સ્વાભાવિક રીતે જ ખૂબ વધી જાય છે, તેથી આર્તનાદ કરે છે. ૨૫ For Private And Personal Use Only Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ५ उ.१ नारकीयवेदनानिरूपणम् .. ३८५ मूलम्--अप्पेण अप्पं इह वचइत्ता भवाहमे पुध्वसते सहस्से ।। चिट्ठति तत्था बहुकूरकम्मा, जहा कडं कम्म तेहासिभा।२६। छाया--आत्मनात्मानमिह वंचयित्वा भवाधमान् पूर्वशतसहस्रशः । __ तिष्ठन्ति तत्र बहुक्रूरकर्माणो यथाकृतं कर्म तथाऽस्य भारः ॥२६॥ अन्वयार्थः--(इह) इहलोके (अप्पेण) आत्मना स्वेनैव (अप्प) आत्मानं स्वं (पंचात्ता) चयित्वा (पुवसते सहस्से) पूर्व शतसहस्रशः (भवाहमे) भवाधमात् मस्स्यबन्धलुब्धकभवान् प्राप्य । (बहुकूरकम्मा) बहुक्रूरकर्माणः (तस्य) तत्र नरके 'अप्पेण' इत्यादि। शब्दार्थ-'इह-दह' इस मनुष्य भव में 'अप्पेण-आत्मना' अपने आप ही 'अप्पं-आत्मानम्' अपने को 'वंचहत्ता-पंचयित्वा' वंचित करके 'पुनसते सहस्से-पूर्व शतसहस्रशः' पूर्वजन्म में सैकडो और हजारों बार 'भवाहमे-भवाधमान' लुब्धक आदि अधम भवों को प्राप्त करके 'बहुकूरकम्मा-बहुकरकर्माणः' बहुरकर्मी जीव 'तत्थ-तन्त्र' उस नरक में 'चिटुंति-तिष्ठन्ति' रहते हैं 'जहाकडं कम्म-यथाकृतं कर्म पूर्व जन्म में जैसा कर्म जिसने किया है 'तहासि भारे-तथाऽस्य भारः' उसके अनुसार ही उसे दुःख प्राप्त होता है ।२६॥ ___ अन्नया-- इस मनुष्यभव में अथवा मनुष्य लोक में जो अपने आप की वंचना (ठगना) करते हैं, वे पहले सैकड़ों और हजारों पार लुब्धक (शिकारी) आदि के अधम भवों को प्राप्त करते हैं, फिर वे 'अप्पेणं' त्याह शार्थ:--'इह-इह' 0 मनुष्यसभा 'अप्पेण-आत्मना' पाते 'अप्पं-- आत्मानम्' पाताने 'वचइत्ता--वयित्वा' इतरीन 'पुव्वसते सहस्से-पूर्व शतमहस्रशः' पूनममा से13. अने गरे। १.२ 'भवाहमे-भवाधमात्' दुध वगेरे ममलने प्राप्त शर बहुकूरकम्मा-बहुक्रूरकर्माणः' पहु४२ भी. ७१ 'तत्थ-तत्र' मे न२४मा 'चिटुंति-तिष्ठति' २९ . 'जहा कडं काम• यथाकृतं कर्म' पूर्वममा भने या छ. 'तहासि भारे-तथाऽस्य भार' । अनुसार तेन प्राप्त थाय छे. ॥२६॥ સૂત્રાર્થ–આ મનુષ્યભવમાં અથવા આ લેકમાં જેઓ આત્મવંચના (પોતાના આત્માને છેતરવાની પ્રવૃત્તિ) કરે છે તેઓ પહેલાં તે કહે અથવા હજારો વાર શિકારી આદિ અધમ છ રૂપે ઉત્પન્ન થાય છે. ત્યાર सू० ४९ For Private And Personal Use Only Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir --- --- · सूत्रकृताङ्गसूत्रे (चिट्ठति) तिष्ठन्ति-पूर्वजन्मनि (जहा कडं कम्म) यथाकृतं कर्म (तहासि भारे) तथाऽस्य भारः पूर्वजन्मनि यथा कर्म कृतं तदनुरूपेगैवात्र फलमनुभवन्तीति ॥२६।। - टीका-'इह' इह-अस्मिन्नेव मनुष्यमवे यः 'अप्पेण' आत्मना स्वेनैव परवंचनादिव्यापारमवृत्तेन स्वत एव स्वस्य । 'अप्पं' आत्मानम् परमार्थतो 'वंचइत्ता' बंयित्वा प्रतार्य, अल्पमुखाय परानपहत्य तज्जिनितसुखेन आत्मानं प्रतार्य। 'भवाहमे' भवाधमे भवानां बहुज-मनां मध्ये येऽधमाः भवाः इति भवाधमाः मत्स्यपंधालुब्धकादीनां भवाः व्यतीतजन्मसु । 'पुसते सहरसे' पूर्वस्मिन् शतसहस्रशः-सम्यगनुभूय, सहस्रशो लुब्धकायधमभवान् पाप्य। 'बहुकूरकम्मा बहुक्रूरकमणिः अनेकपकारकहिंसादि स्वरूपाऽतिकठिनकर्मकारिणः। 'तत्थ' तत्र दारुणे दुःखबहुले नरकावासे 'चिटुंति' तिष्ठन्ति, प्रभूतकालं यावत् । तादृश नरकवासे करकर्मी नरक में उत्पन्न होते हैं। जिसने पूर्व जन्म में जैसा कर्म किया है, उसे तदनुरूप ही फल भोगना पडता है ॥२६॥ टीकार्थ--इस मनुष्यभब में जो दूसरों को वंचित करते-ठगते हैं, वस्तुतः वे अपने आपको ही वंचित करते हैं । अपने थोडे से सुख के लिये जो दूसरों का घात करता है, वह हिंसाजनित सुख से अपने को ही ठगता है। ऐसे प्राणी बहुत जन्मों में जो मच्छीमार व्याघ आदि के अधम भव है, उनमें सैकडों-हजारों बार जन्म लेकर और "अनेक प्रकार के हिंसा आदि का कर्म करके उस दुःखप्रचुर दारुण नरक में उत्पन्न होते हैं। वे वहां लम्बे काल तक निवास करते हैं। इस प्रकार के नरकावास में दीघकाल पर्यन्त स्थित रहने का क्या कारण है, सो प्रकट करते हैं-पूर्वजन्मों में जिसने जैसे अध्यवसाय से अधम બાદ તે દૂર કર્મ કરનારા જીવો નરકગતિમાં ઉત્પન્ન થાય છે. જેમણે પૂર્વજન્મમાં જેવાં કર્મ કર્યા હોય, તેમણે તેને અનુરૂપ ફળ ભોગવવું જ પડે છે. રહા ટીકાર્ય–આ મનુષ્યભવમાં જે માણસ બીજાને ઠગે છે, તે ખરી રીતે તે પિતાના આત્માની જ વંચના કરે છે, એટલે કે પિતાની જાતને છેતરતો હેય છે. પિતાને થોડા સુખની પ્રાપ્તિ થાય તે માટે જેઓ બીજા ને વાત કરે છે, તેઓ હિંસાજડિત સુખ દ્વારા પિતાના આત્માને જ છેતરે છે. કારણ કે ક્ષણિક સુખને માટે તેમના દ્વારા જે પ્રાણાતિપાત આદિ પાપકર્મો સેવાય છે, તેને પરિણામે તેમને નરકગતિનાં દુબે દીર્ઘકાળ સુધી સહન કરવા પડે છે. એવા જ માછીમાર, પારધી, શિકારી આદિ અધમ ભવોમાં સેંકડે અથવા હજારે વાર જન્મ લઈને હિંસા આદિ ક્રૂર કમેનું સેવન For Private And Personal Use Only Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. थु. अ. ५ उ. १ नारकीय वेदना निरूपणम् વ aasaara tral कारणमाह- 'जहा कडं कम्म तहासि भारे' इति । पूर्वजन्मसु 'जहा' यथा येन अध्यवसायेन अधमम् अमात्यधमादिना 'कडं कम्म' कृतं कर्मकृतानि संगदितानि जीवहिंमादीनि । 'कस्न' कर्माणि 'वह' तेन तेनैव रूपेण 'सि' तस्य नारकीयजन्तोः 'भारे' भाराः वेदनाः प्रादुर्भवन्ति स्वतः परता उभयतो वा । तथाहि पूर्वजन्मनि परकीयमांसमक्षका नरकस्थित स्वमांसान्येवा ऽग्निना प्रताप्य भक्षयन्ति । मांसरसपायिनो निजपूरुधिराणि तत्रपूणि पायन्ते । तथा मत्स्यघातक लुब्धकादयस्तथैव छिन्द्यन्ते, भिद्यन्ते नरकावासे । तथाऽनृतभाषिणामनृतभाषणं स्मारविला जिह्वा छिद्यन्ते । परद्रव्यापहारिणा मंगानि अति- अभ्रम भाव से जीवहिंसा आदि कर्म किये हैं उसके लिये वे उसी रूप में भार बनते हैं अर्थात् वेदना उत्पन्न करते हैं। वे बेदनाएँ कोई स्वतः अर्थात् अपने आप से, कोई पर के निमित्त से और कोई दोनों के निमित्त से होती हैं । जैसे जिन्होंने पूर्वजन्म में मांसभक्षण किया है, उन्हें नरक में अपना निजका अग्नि में पकाया हुआ मांस खिलाया जाता है। जो मांस के रस को पीने वाले थे उन्हें अपना पीव और रुधिर तथा उबलता हुआ शीशा पिलाया जाता है । नरक में गये हुए मच्छीमार और व्याध आदि उसी प्रकार छेदे भेदे जाते हैं जिसप्रकार उन्होंने पूर्वजन्म में छेदन - भेदन किया होता है। जो पूर्वजन्म में मिथ्याभाषी होते हैं, मिथ्याभाषण का स्मरण करवाकर उनकी जिहा का छेदन કરીને દુ:ખપ્રચુર દારુણ નરકમાં ઉત્પન્ન થાય છે. તેમે ત્યાં ઘણુ લાંખા કાળ સુધી નિવાસ કરે છે. હવે સૂત્રકાર એ વાત પ્રકટ કરે છે કે તેમને શા કારણે તે નરકમાં દીકાળ સુધી રહેવુ' પડે છે. પૂર્વજન્મમાં જેણે જેવા અધ્યવસાયથી-અધમ અથવા અતિ અધમ ભાવથી-જીવહિ ંસા આદિ કમ કર્યો હોય છે, તેમને તે ક્રમેાંના ભાર એજ રૂપે વહન કરવા પડે છે એટલે કે તે કર્મો જ તેમની વેદનાને અનુભવ કરાવવામાં કારણભૂત બને છે. તે વેઢનાએમાંની કાઇ સ્વતઃ (પેાતાના નિમિ ત્તને લીધે), કેાઈ પરના નિમિત્તને લીધે અને કાઈ બન્નેના (સ્ત્ર અને પરના) નિમિત્તને લીધે ભાગત્રવી પડે છે. જેમકે જેમણે પૂજન્મમાં માંસનું ભક્ષણુ કર્યું હોય છે, તેને પેાતાનું જ અગ્નિમાં પકાવેલું' માંસ ખવરાવવામાં આવે છે, જેએ માંસના રસનું પાન કરતા હતા, તેમને તેમનુ પેાતાનુ રુધિર, પરું તથા ઉકળતા સીસા અને તાંબાને રસ પિવરાવવામાં આવે છે. માછીમાર અને વ્યાધના ભવમાં જીવાએ જે પ્રકારે જીવાનુ છેદન-લેન કર્યુ” હાય છે For Private And Personal Use Only Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्र हियन्ते । परदारिकाणां वृषणोच्छेदः क्रियन्ते । तथा महापरिग्रहारंभवतां क्रोधमायामानलोभिनां च क्रोधादि कार्य स्मारयित्वा तादृशमेव दुःखमुत्पाद्यते। तस्मात् सत्ययुक्तम्-यथावृत्तं कर्म तादृग् एव तत्कर्मविपाकाऽऽपादितो भारः इति ॥२६॥ मूलम्-समजिणित्ता केलसं अणजा ईठेहि कंतेहि य विप्पहणा। ते देभिगंधे कसिणेयफासे कम्मोवगा कुणिमे आवसंति तिबेमि ॥२७॥ - छाया-समय कलुषमनायो इष्टैः कान्तैश्च विपहीनाः। ... ते दुरभिगन्धे कृत्स्ने च स्पर्श कर्मोपगाः कुणिमे आवसन्ति । इति ब्रवीमि ॥२७॥ भेदन किया जाता है । परकीय द्रव्य का अपहरण करने वालों के अंग काटे जाते हैं । परस्त्रीगामियों के अण्डकोष उखाड लिये जाते हैं। महारंभ और महापरिग्रह वालों को तथा क्रोध, मान, माया और लोभ करने वालों को उनके दोषों का स्मरण करवाकर उन्हीं के अनु रूप दुःख उत्पन्न किये जाते हैं । अतएव ठीक ही कहा है कि जैसा कर्म किया गया है, तदनुरूप ही उस कर्म के विपाक से उत्पन्न भार (कष्ट) सहन करना पडता है ॥२६॥ _ 'समज्जिणित्ता' इत्यादि । __शब्दार्थ-'अणज्जा-अनार्या.' प्राणातिपात आदि क्रूर कर्म करने वाले अनार्य पुरुष 'कलसं-कलुषम्' पाप को 'समन्जिणित्ता-समज्य' उपा. એજ પ્રકારે નારકના ભાવમાં તેમનાં શરીરનું છેદન-ભેદન કરવામાં આવે છે. જે જીવોએ પૂર્વભવમાં મૃષાવાદનું સેવન કર્યું હોય છે, તેમને પરમધાર્મિક અસુરો તે મૃષાવાદનું સ્મરણ કરાવીને તેમની જીભ કાપી નાખે છે. પારકાં દ્રવ્યન. અપહરણ કરનારા જીવોનાં અંગો કાપી નાખવામાં આવે છે. પરી સાથે કામભેગેનું સેવન કરનાર જેના અંડકોષ ખેંચી કાઢવામાં આવે છે. મહારંભ, મહાપરિગ્રહ, ક્રોધ, માન, માયા અને લેભ કરનારા ને તેમના રાનું સ્મરણ કરાવીને તે દેને અનુરૂપ યાતનાઓ આપવામાં આવે છે, તેથી જ સૂત્રકારે આ પ્રકારનું જે કથન કર્યું છે, તે યથાર્થ જ છે-જે જીવે જેવા કર્મ કર્યા હોય, તેને અનુરૂપ-તે કર્મના વિપાક જનિત-ભાર (કચ્છ) તેને સહન કરવો જ પડે છે. એટલે કે કરેલાં કર્મોનાં ફળ દરેક જીવે अवश्य लेाग 1 ५ छे. ॥२६॥ 'समज्जिणिता' त्याहि... साथ-'अणज्जा-अनार्याः' प्रायतिपात को३ २ ४ ४२१।१ाणा Mना पुरुष 'कलुसं-कलुषम्' पापने 'समजिणित्ता-समज्य' S शने For Private And Personal Use Only Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ५ उ. १ नारकीयवेदनानिरूपणम् ३८९ अन्वयार्थ:--(अणज्जा) अनार्याः प्राणातिपातादिकर्मकारिणः (कलुस) कलुषं पापं (समजिणित्ता) समाशुभकर्मोपचयं कृत्वा (इटेहि कंतेहि य विप्पहणा) इष्टैः कान्तश्च विपहीनाः-कमनीयशब्दादिविषयैविप्रमु काः (दुन्मिगंधे) दुरभिगन्धे 'कसिणे य फासे' कृत्स्ने च स्पर्श अत्यन्ताशुभस्पर्शयुक्ते (कुणिमे) कुणिमे-मांसरुधिरादिपूर्णे नरके 'कम्मोवगा' कर्मोपगाः-कर्माधीनाः (आरसंति) आवसन्ति-यावदायुस्तावत्तिष्ठन्तीति ॥२७॥ टीका--'अणज्जा' अनार्याः प्राणातिपाताघशुभकर्मकारित्वात्ते अनार्याः क्रूरकर्म कारिणः . पुरुषाः। हिंसाऽनृतमापगस्तेयादिभिराश्रयद्वारीः 'कलुसं' र्जन करके 'इटेहि कंतेहि य विप्पहूणा-इष्टः कान्तैश्च विप्रहीनाः' इष्ट एवं प्रिय से रहित होकर 'दुन्भिगंधे-दुरभिगंधे' दुर्गन्ध से भरे 'कसिणे य फासे-कृत्स्ने च स्पर्शे' अत्यन्त अशुभ स्पर्शवाले 'कुणिमे-कुणिमे मांम और मधिर आदि से भरे हुए नरक में 'कम्मोवगा-कार्मोपगा' कर्म के बावर्ती होकर 'आवसंति-आवसन्ति' निवास करते हैं ॥२७॥ ___अन्वयार्थ--जो अनार्य अर्थात् प्राणातिपात आदि हेयकम करने वाले हैं, वे पाप को उपार्जन करके, इष्ट एवं कान्त शब्दादि विषयों से रहित होकर दुर्गन्धयुक्त अत्यन्त अशुभ स्पर्श वाले तथा मांस रुधिर आदि से परिपूर्ण नरक में, कर्मों के वशीभूत होकर आयुपर्यन्त रहते हैं ॥२७॥ टीकार्थ-अनार्य अर्थात् प्राणातिपात आदि क्रूर कर्म करने वाले जीवहिंसा, मृषावाद, चोरो आदि आश्रय दारों से पाप उपार्जन करके इष्ट और कान्त अर्थात् मनोज्ञ शम्दादि विषयों से रहित होकर अत्यन्त 'इटेहिं कतेहि य विप्पहूणा-इष्टः कान्तैश्च विप्रहीनाः' । पियथा सहित यस 'दुभिगंधे-दुरमिगंधे' हुम या सरेस 'कषिणे य फासे-कृस्ने च स्पर्श अत्यत वारे अशुभ १५शाणा 'कुणिमे-कुणिमे' मा भने सोही था लाख २५ 'कम्मोगा-कमोगाः' मना १शवती' ५४२ आवसंतिश्रावसन्ति' निवास रे छ. ॥२७॥ - સૂત્રાર્થ—અનાર્ય છે એટલે કે પ્રાણાતિપાત આદિ હેય કમ કરના જ પાપનું ઉપાર્જન કરીને, ઈષ્ટ અને કત શાદિ વિષથી રહિત, દુર્ગધયુક્ત અત્યન્ત અશુભ સ્પર્શ યુક્ત, અને માંસ, રુધિર આદિથી પરિપૂર્ણ નરકમાં ઉત્પન્ન થાય છે અને કૃત કર્મોને દુઃખ જનક વિપાક ત્યાંના તેમના આયુષ્યના અન્તકાળ પર્યત ભેગવે છે. જેના ટીકાર્થ—અનાર્ય લાકે, એટલે કે પ્રાણાતિપાત આદિ ક્રૂર કમ કર નારા લેકે, જીવહિંસા, મૃષાવાદ, ચેરી આદિ આશ્રવધારે માફત પાપનું ઉપાર્જન કરીને નરકમાં ઉત્પન્ન થાય છે. ત્યાં ઈષ્ટ અને કાજત (મનોજ્ઞ) For Private And Personal Use Only Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३१० सूत्रकृताङ्ग सूत्रे | कलुषं पापम्। 'समज्जिणित्ता' समर्थ्य - सम्यग्रूपेगाऽर्जयित्वा 'इहेहिं' इष्टेः शब्दादिविषयेः 'कंतेहि' कान्तेश्व - मनोभिलषितैः 'विष्ण्णा' विमहीनाः परित्यक्ताः सन्तः 'दुभिगंधे' दुरभिगन्धे - अतिशयिताऽशुभगः धैः परिपूरिते नरके । 'कसिणे' कृत्स्ने संपूर्णे 'फासे' अशुभस्पर्शे एकान्ततः उद्वेजनीये 'कुणिमे कम्मरमा कुणिमे कर्मोपगाः स्वकर्मणा प्राप्ताः तादृशनारकजीवास्तथोपरिवर्णित मत्से क्रन्दनशब्दाकुले सर्वाऽमेध्ये अधमे नरके 'आवसंति' आवसन्तिआसमन्तात् उत्कृष्ट स्त्रस्त्रिंशतसागरोपमाणि यावत् यस्यां वा नरकपृथिव्यां यावदायुः तावद् वसन्ति तिष्ठन्ति । तिबेमि इति ब्रवीमि कथयामीति । इति शब्दः समाप्तियोतकः । ब्रवीमि तीर्थकरोदितवचनानि ॥२७॥ इति श्री विश्वविख्यात जगद् वल्लभादिपद भूषित बालब्रह्मचारि -- 'जैनाचार्य ' पूज्यश्री - घासीलालवतिविरचितायां श्री सूत्रकृताङ्गस्य "समयार्थबोधिन्याख्यायां" व्याख्यायां पंचमध्ययनस्य प्रथमोदेशकः समाप्तः ॥५- १॥ अशुभ गंध से परिपूर्ण तथा पूर्णरूप से अशुभ स्पर्शले सर्वथा save कर देने वाले तथा रक्त पीत्र आदि से परिपूर्ण नरक में अपने कर्मों के अधीन होकर उत्पन्न होते हैं। जैसा कि पूर्व में वर्णन किया जा चुका है, अतीव बीभत्स चीख चिल्लाने की ध्वनि से व्याप्त, सब प्रकार की अशुचि से अधम ऐसे नरक में उत्कृष्ट तेतीस सागरो पम कालपर्यन्त रहते हैं, अथवा जिस नरकभूमि में जितनी आयु है उतने समय तक वहां रहते हैं । -- 'इति' शब्द उद्देशक की समाप्ति का सूचक है। 'ब्रवीमि' का अर्थ है तीर्थंकर के द्वारा कथित वचनों को ही मैं कहता हूँ ||२७|| ॥ पांचवे अध्ययन का पहला उद्देशक समान ॥५- १॥ શષ્ઠાદિ વિષયે ભગવવા મળતા નથી, પરંતુ, રક્ત, માંસ, પરુ આદિથી પિરપૂણ તે નરકમાં અશુભ ગ ́ધ અને અશુભ પશ આદિ દુઃખદાયક વસ્તુઓને અનુભવ કરવા પડે છે, તેનુ વર્ણન આગળ કરવામાં આવ્યુ છે, પેાતના પૂર્વજન્મનાં પાપકર્મના ઉદયથી તેમને નરકમાં ઉત્પન્ન થવું પડે છે. તે નરકેા બધા પ્રકારની અશુચિથી યુક્ત હોય છે અને ત્યાં નારકોના અતિ ખીમસ્ર (ભય'કર) અ ન્તનાદ અને આક્રંદે સભળાય છે. આ પ્રકારના નરકામાં નારકને વધારેમાં વધારે ૩૩ સાગરોપમ કાળ પર્યન્ત રહેવું પડે છે. અથવા જે નરકભૂમિમાં નારકાના જેટલા આયુકાળ હોય છે, એટલા કાળ સુધી તેમને ત્યાં રહેવું પડે છે. 'इति' यह उद्देशउनी समाप्तिनु' सूय छे. 'ब्रवीमि' सुधर्मा स्वाभी डे છે કે તીર્થંકર દ્વારા કથિત વચનનું જ હું અનુકથન કરી રહ્યો છું. રા 1 પાંચમા અધ્યયનના પહેલે ઉદ્દેશક સમાપ્ત ।।૫-૧૫ For Private And Personal Use Only Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र.शु. अ. ५ उ.२ नारकीयवेदनानिरूपणम् ३९१ अथ द्वितीयोदेशकः प्रारभ्यते समासः प्रथमोद्देशकः पंचमाऽध्ययनस्य । अतः परं पंचमाऽध्ययनीयो द्वितीयोद्देशक भारभ्यते । तस्य चाऽयं संबन्धः, प्रथमे यैः कर्मभिर्जीव नरकेटपधन्ते, यादृशीं चाऽवस्थां वेदनां चानुभवन्ति तानि सर्वाणि प्रतिपादितानि । इहाऽपि विशिष्टतरं तदेव स्वरूपं प्रतिपादयिष्यते, इत्यनेन संबन्धेन समायातस्य द्वितीयोदेशकस्येदमादिमं सूत्रम् सुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिनं कथयति-'अहावरं' इत्यादि । मळम्-अहावरं सासंयदुक्खधम्मं,'तं मे पर्वक्खामि जहातहेणं। बाला जहा दुकंडकम्मकारी, वेदंति कैम्माइं पुरे कडाइं ॥१॥ छाया--अथापरं शाश्वतदुःखधर्म तं भवद्भयः प्रवक्ष्यामि याथातथ्येन । ___ बाला यथा दुष्कृतकर्मकारिणो वेदयन्ति कर्माणि पुराकृतानि ॥१॥ दुसरे उद्देशे का प्रारम्भ पंचम अध्ययन का प्रथम उद्देश समाप्त हुआ। अब दूसरा उद्देश प्रारंभ किया जाता है। उसका सम्बन्ध इस प्रकार है-जिन कर्मों से जीव नरकों में उत्पन्न होते हैं, वहां जिस प्रकार की अवस्था और वेदना का अनुभव करते हैं, यह सब प्रथम उद्देशे में प्रतिपादन किया गया है। यहां भी कुछ विशेषता के साथ वही स्वरूप प्रतिपादित किया जायगा । इस सम्बन्ध से प्राप्त द्वितीय उद्देशक का यह प्रथम सूत्र है-'अहावरं' इत्यादि। शब्दार्थ--'अह-अथ' तत्पश्चात् 'सासयदुक्खधम्म-शाश्वतदुःख. धर्म निरन्तर दुःख देना ही जिनका धर्म है ऐसे 'अवरं-अपरं' दूसरे मी शानो पार - પાંચમાં અધ્યયનને પહેલે ઉદ્દેશક પૂરો થશે. હવે બીજા ઉદેશકની શરૂઆત થાય છે. આ ઉદ્દેશકને પહેલા ઉદ્દેશક સાથે આ પ્રકારનો સંબંધ છે. પહેલા ઉદેશમાં એ વાતનું પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું કે જીવ કયા કને કારણે નરકમાં ઉત્પન્ન થાય છે અને નરકમાં ઉત્પન્ન થયેલા છે કેવી અવસ્થા અને વેદનાને અનુભવ કરે છે. આ ઉદ્દેશકમાં પણ એજ વિષયનું વધુ વિવેચન કરવામાં આવશે. પહેલા ઉદેશા સાથે આ પ્રકારને समय पता भी देशनु पडे सूत्र या प्रमाणे छे-'अहावरं' त्याह शहा-'अह-अथ' त्या२ पछी 'सासयदुक्खधम्म-शाश्वतदुःखधम' निरत म मे रेना धर्म छे, मेव! 'अवरं-अपर" clan 'त-तम्' For Private And Personal Use Only Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra • ३९२ www.kobatirth.org सूत्रकृतात्रे अन्वयार्थः -- (अ) अथानन्तरम् ( पासयदुक्खधम्मं ) शाश्वतदुःखधर्मं नित्यदुःखस्वभाव (अव) अपरमन्यत् (तं) तं नरकं (भे) भवते ( जहातहेणं) याथातन (पत्रकखामि) प्रवक्ष्यामि - कथयिष्यामि (जहा) यथा (दुकड कम्मकारी) दुष्ककर्मकारिणः क्रूरपापकर्माणः (वाला) बाला - परमार्थम जामाना: (पुरेकडाइ ) पुराकृतानि पूर्वजन्मोपार्जितानि (कम्मा) कर्माणि - ज्ञानावरणीयाद्यष्टकर्माणि (वेदंति) वेदयंति - अनुभवन्तीति ॥ १॥ टीका - अह' अथ - अनन्तरम् यदेव पूर्वस्मिन् प्रकरणे निर्दिष्टं तच्छेषभूतं द्वितीये कथयिष्यामि | 'अवर' अपरम् 'सासयदुक्खधम्मं' शाश्वतदुःखधर्मम्, 'तं तम्' उस नरक के विषय में 'भे-भवते' आप को 'जहातहेणं याथामध्येन' यथार्थ रूप से 'वक्खामि प्रवक्ष्यामि' में कहूंगा 'जहा याथा' जिस प्रकार 'दुक्कडकम्मकारी - दुष्कृतकर्मकारिणः' पापकर्म करनेवाले 'बाला - बालाः' अज्ञानी जीव पुरेकडाई पुराकृतानि' पूर्वजन्म में किये हुए 'कम्मा - कर्माणि' अपने कर्मों का 'वेदंति वेदयन्ति' वेदन करते हैं अर्थात् भोगते हैं ॥ १ ॥ 1 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अन्वयार्थ - - इसके अनन्तर निरन्तर दुःखमय दूसरे नरक के विषय में यथार्थरूप से आप को कहूंगा। पापकर्म करने वाले और परमार्थ को नहीं जानने वाले अज्ञानी जीव पूर्वकृत कर्मों को जिस प्रकार भोगते हैं सो कहूँगा ॥ १ ॥ टीकार्थ-फिर सुधर्मा स्वामी जम्बूस्वामी से कहते हैं - इसके पश्चात् पूर्व प्रकरण में कहने से जो शेष रह गया है, उसे दूसरे में कहूंगा । ते नरशुना विषयमा 'भे भवते' आपने 'जहातहेणं याथातथ्येन' यथार्थ ३५थी 'पवक्खामि - प्रवक्ष्यामि' हु' उडीश 'जहा यथा' के प्रारे 'दुक्कडकम्मकारीदुष्कृतकर्मकारिणः पापम' अावाजा 'बाला - बालाः' अज्ञानी व 'पुरेकडाईपुराकृतानि' पूर्व४न्ममा रेल 'कम्माई - कर्माणि' घोताना भेनु' 'वेदंति - वेदयन्ति' वेहन रे छे. अर्थात् लोगवे छे. ॥१॥ સૂત્રા—હવે બીજા કેટલાક નરકામાં ઉત્પન્ન થયેલા જીવાને કેવી કેવી યાતનાઓ વેઠવી પડે છે, તે કહેવામાં આવશે. તથા પાપકર્મોનું સેવન કરનારા, પરમાર્થાંને નહીં જાણનારા અજ્ઞાની જીવા પૂર્વીકૃત કર્મોનું ફળ કેવી રીતે ભાગવે છે, તે હવે હુ તમને કહીશ. ॥ ૧ ॥ ટીકા-માગવા ઉદ્દેશકમાં કુંભીપાક નરક આદિનું વર્ણન કરવામાં આવ્યું છે. હવે આ ખીજા ઉદ્દેશકમાં અન્ય નરકાના સ્વરૂપનુ' પ્રતિપાદન કરવા માટે For Private And Personal Use Only Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ५ उ. २ नारकीयवेदनानिरूपणम् ३९॥ शाश्वत् भवति इति शाश्वतं नित्यं, तादृशं च तद् दुःख मिति शाश्वतदु खं, तदेव धर्मः स्वभावो यस्य नरकस्य स शाश्वतदुःखधर्मः तं नरकम् नित्यदुःखस्वभावम्, क्षणमपि सुखलेशरहितम् 'त' तं-नरकम् । 'भे' भवद्भ्यः , भवन्तमुद्दिश्य अशेषपाणिनिवहेभ्यः 'जहात हेणं' याथातथ्येन यद्यथा भगवता कथितं मया श्रुतं तत् तत्स्वरूपेणैव, नत्यर्थवादादिरूपेण 'पत्रक वामि' प्रवक्ष्यामि कथयिष्यामि, 'जहा' यथा येन प्रकारेण 'दुकडकम्भकारी' दुष्कृतकर्मकारिणः-दुष्टं कृतमिति दुष्क तम्-प्राणातिपातादिरूपघोरकर्म ताशकर्मकत्तुंशीलं येषां ते दुष्कृतककारिणः । एवंभूता (बाला) बाला: परमार्थमजानानाः विषयसुखाभिलाषिणो विवेकविकलाः (पुराकडाई) पुराकृतानि पूर्व भयोपामितानि' (कम्माई) कर्माणि ज्ञानावरणीया धशुभानि 'वेदंति' (जहा) यथा (वेदंति) वेदयन्ति नरके, तथा तेऽई कथयामि, इति ।।१। जिस नरक में निरन्तर दुःख भोगना पडता है, कभी क्षण भर के लिये भी सुख का अनुभव नहीं होता, ऐसे नरक का स्वरूप हे जम्बू ! तुम को लक्ष्य करके, समस्त प्राणियों के समूह के लिये, जैसा भगवान् ने कहा है और मैंने सुना है, उसी प्रकार से, उसमें अतिशयोक्ति न करके, कहूँगा । प्राणातिपात आदि घोरकर्म करने के स्वभाव वाले परमार्थ को न जानने वाले अज्ञान नराधम पुरुषों में अधम सुख के अभिलाषी और विवेक से रहित होकर ज्ञाना. घरणीय आदि अशुभ कर्मों को नरक में वेदन करते है अर्थात् भोगते हैं यह सब मैं तुम्हें कहूँगा ॥१॥ સુધર્માસ્વામી જંબૂરામીને કહે છે કે હે જબ્બ ! જે નરકમાં નિરન્તર દુખ જ ભોગવવું પડે છે, જ્યાં એક ક્ષશભર પણ સુખને અનુભવ થત નથી, એવા નરકેના સ્વરૂપનું હું તમારી પાસે નિરૂપણ કરીશ. તમને સધીને જે આ વાત કહું છું, તે સમાત ને પણ સમજવા જેવી છે. શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે મારી સમક્ષ નરકે વિષે જેવું કથન કર્યું હતું એવું જ કથન હું તમારી સમક્ષ કરીશ. આ કથન અનુકથન રૂપ જ હોવાથી તેમાં બિલકુલ અતિશયોક્તિ નથી. પ્રાણાતિપાત આદિ ઘેર કર્મો કરવાના સ્વભાવવાળા, પરમાર્થને નહીં જાણનારા, અજ્ઞાન, નરાધમ પુરૂષ, અધમ સુખની અભિલાષાવાળા થઈને, સારા નરસાંને વિવેક ભૂલી જઈને જ્ઞાનાવરણીય આદિ અશુભ કર્મોનું નરકમાં વેદન કરે છે. તેઓ કેવી રીતે કર્મોને અશુભ વિપાક ભેગવે છે, તે તમારી સમક્ષ હું પ્રકટ કરીશ. ૧ सू०५० For Private And Personal Use Only Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३९४ सूत्रकृताङ्गसूत्रे मूलम् - हेरथेहि पाएहि य बंधिऊणं, उदरं विकतंति खुरासिएहिं । front बास्स विहतं देहं वेद्ध थिरे पिओ उरंति॥२॥ छाया -हस्तेषु पादेषु च बन्धयित्वा उदरं विकर्त्तयन्ति क्षुरासिभिः । गृहीत्वा बालस्य विहतं देहं व स्थिरं पृष्ठतः उद्धरन्ति ॥२॥ अर्थ :- (हत्थेहिं ) हस्तेषु (य) च - पुनः ( पाए हिं) पादेषु (बंधिऊणं) safear - परमधार्मिकाः (खुरासिरहिं) क्षुरासिभिः क्षुरखङ्गैः (उदरं ) उदरं (विति) विकर्तयन्ति खण्डयन्ति (बालस्स) बालस्याज्ञानिनो (विहतं देहं ) विहतं देहं दण्डादिमडारे - जर्जरितं शरीरं (गिणित) गृहीत्वा (पिओ) पृष्ठतः पृष्ठदेशात् (ब) चर्म (थिरं) स्थिरं बलपूर्वकम् (उद्धरति) उद्धरन्ति-विदारयन्तीति ॥२॥ - 'हत्थेहि' इत्यादि । शब्दार्थ - - ' हत्थे हिं-हस्तेषु' परमाधार्मिक नारकी जीवों का हाथ 'य-ब' और 'पाएहिं पादेषु' पैर 'बंधिऊणं बंधत्वा' बांधकर 'खुरा सिएहिं क्षुरप्रासुभिः' अस्तुग और तलवार के द्वारा 'उदरं - उदरम्' उनका पेट 'विकसंति- विकर्त्तयन्ति' चीर देते हैं 'बालस्स - बालस्य' अज्ञानी ऐसे नारक जीव की 'विहतं देहं विहतं देहं दण्डप्रहार आदि से अनेक प्रकार ताडन की हुई देह को 'मिहित्तु गृहीत्वा' ग्रहण करके 'पिट्ठओ - पृष्ठतः' पृष्ठ भाग से 'बद्धं वधम् ' चमडे को 'थिरं-स्थिरम् ' बलात्कारपूर्वक 'उद्धरंति उद्धरन्ति' खींचते हैं ॥२॥ -- अन्वयार्थ -- नरकपाल नारक जीवों के हाथ और पैर बाँधकर और खड्ग से उदर को फाडते हैं। अज्ञानी जीवों के विहत अर्थात् छुरा For Private And Personal Use Only " हत्थेहि" इत्याहि शब्दार्थ - ' हत्थे हिं - इस्तेषु' परमाद्यामि ना२५ लवोना हाथ 'य-च' अने 'पाएहि पादेषु' ५ धि-घयित्वा'ांधीने 'खुरासिरहि क्षुरप्रासुभिः ' अस्तरा अने तलवारना द्वारा 'उदरं - उदरम्' तेमनु पेट 'विकत्तंति - विकर्त्तयन्ति' धीरे हे 'बालरस - बालस्य' अज्ञानी सेवा नार! अपनी 'विहतं देहं - विहतं देहं ' 'उ प्रहार वगेरेथी अनेक अारे भार मधेस शरीरने 'गिन्धित्तुगृहीत्वा' ने 'पिट्ठओ- पृष्ठतः ' पाछणना लागथी 'बद्धं बधम्' याभडीने 'fai-fara' wele ya's ‘agila-zzzfa' d'ell à 3. uzu સૂત્રા—નરકપાલ નાર જીવેના હાથ અને પગ માંધીને છરી અને ખડગ વડે તેમનું પેટ ચીરી નાંખે છે. તેએ અજ્ઞાની થવાના વિદ્યુત (શસ્ત્રોના Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir .. ...... ..... समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ५ उ. २ नारकीयवेदनानिरूपणम् ३९५ ____टोका-ते परमाधार्मिकाः क्रीडां कुर्वन्त इव नारकजीवानाम् । 'हत्थेहि हस्तेषु 'य' च-पुनः 'पाहि' पादेषु 'बंधिऊणे बंधयित्वा 'खुरासिएहि खुरासिभिः-निशितधाराभिः । क्षुरिकाभिः तीक्ष्णखरैश्च 'उदरं उदरं 'विकत्तंति' विकतयन्ति, विदारयन्ति । तथा 'बालस्स' बालस्य दुष्कृतकर्मकारिणः । 'विहत्तु देह' विहतं देहं दण्डप्रहारादिना जर्जरीकृतं शरीरम् । 'गिण्हित्तु' गृहीत्वा 'वद्धं' वर्ध चर्म । 'थिरं' स्थिरतया, बलात्कारेण 'पिटओ' पृष्ठतः 'उद्धरंति' बलात् शरीरतः चर्माणि आकर्षयन्तीत्यर्थः । परमाषार्मिका: नारकिजीवानां हस्तौ पादौ बन्धयित्वा क्षुरासिधारया तेषामुदरं छिन्दन्ति । तथा नारकिजीवानां देहं दण्डादिना ताडयित्वा चूर्णीकृत्य पुनः पृष्ठं परिगृह्य तत्र स्थितं चर्म आकर्ष यन्तीति भावः ॥२॥ अनेक प्रहारों से ताडित देह को ग्रहण करके उसके पृष्ठभाग से पल. पूर्वक चमड़ी उधेड़ते हैं ॥२॥ दीकार्य-परमाधार्मिक असुर नारक जीवों के साथ मानों खिल. वाड़ करते हैं। उनके हाथ बांध देते हैं, पैर बाँध देते हैं और फिर तीखी धारवाली छुरियों से और तीखे खड्ग से पेट फाड़ते हैं। अज्ञानी जीवों के दण्डप्रहार आदि से जर्जरित किये हुए शरीर को ग्रहण करके बलात्कार से उसके चमड़े को पीठ से निकालते हैं। तात्पर्य यह है कि परमाधार्मिक नारक जीवों के हाथ पैर बांध करके छुरे की धार से पेट चीरते हैं । इसके अतिरिक्त पहले उनके शरीर को दण्डप्रहार आदि से जर्जरित कर देते हैं और फिर उसकी पीठ से चमड़ी उधेडते हैं ॥२॥ ઘર વડે વીંધાયેલા) શરીરને ગ્રહણ કરીને તેમની પીઠમાંથી બળપૂર્વક ચામડી ઉતારી લે છે. કેરા ટીકાર્થ–પરમાધાર્મિક અસુરે નારક જીની સાથે જાણે કે કર ખેલ લે છે. તેઓ તેમના હાથ અને પગને દોરડા વડે બાંધીને, ઘણું જ તેજદાર છરીઓ અને ખગે વડે તેમનું પેટ ફાડે છે. દંડ પ્રહાર આદિ વડે જર્જરિત કરેલા તે અજ્ઞાની ના શરીરને ગ્રહણ કરીને તેઓ બળાકારે તેમની પીઠ પરની ચામડી ઉતરડી નાખે છે. આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે પરમાધાર્મિક અસુરે નારકોને ખૂબ જ દુઃખ દે છે. તેઓ તેને હાથપગ બાંધીને તીણ છરી વડે તેમનાં પેિટ ચીરી નાંખે છે. આ કાર્ય કરતા પહેલાં. તેઓ તેમના શરીર પર દંડાદિના પ્રહાર કરીને તેમને ખાખરા કરે છે અને છેવટે તેમની પીઠની ચામડી ૫ ઉતરડી નાખે છે. પારા For Private And Personal Use Only Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे मम्-बाहू पैकत्तंति य मूलतोसे', थूलं वियासं मुहे आडहंति। रहंसि जुत्तं सरयंति बालं आरुस्स विझंति तुदेण पिढे"॥३॥ छाया--बाहून्यकर्त्तयन्ति समूलतस्तस्य स्थूलं विकाशं मुखे आदहन्ति । रहसि युक्तं स्मारयन्ति बालमारुष्य विधन्ति तुदेन पृष्ठे ॥३॥ अन्वयार्थः-परमाधार्मिकाः (से) तस्य नैरयिकस्य (बाहू) वाहून (मूलतो) मूलतः (पकत्तंति) प्रकलयन्ति-खण्डयन्ति (मुहे) मुखं (वियास) विकाश्य-बलान्मुखं स्फारयित्वा (थूलं) स्थूलं-गलन्लोहखण्डं प्रवेश्य (आडांति) आदहंति-ज्वालयन्ति (रहंसि) रहसि एकान्ते (जुत्तं) युक्तं जन्मान्तरीयदुष्कृतं (बालं) बालम् अज्ञानीनं 'याहू पत्तति' इत्यादि। शब्दार्थ-'से-तस्य' परमाधार्मिक नारकिजीव की 'पाह-वाहून्' भुजाओं को 'पकत्तंति-प्रार्त्तयन्ति' काटते हैं 'मुहे-मुखे' मुख को 'वियास-विकाश्य बलपूर्वक फाडकर ‘थूलं-स्थूलम् ' जलते हुए लोह के बडे बडे गोले डालकर 'आडहंति-आदहन्ति' जलाते हैं 'रहंसिरहसि तथा एकान्त में 'जुतं-युक्तं' उनके जन्मान्तर के कर्म 'बाल-बालं' उस अज्ञानी जीव को 'सारयंति-स्मारयन्ति' स्मरण कराते हैं 'आरुस्स-आरुष्य' तथा विना कारण क्रोध करके 'तुदेण-तुदेल' चाबुक से 'पिढे-पृष्ठे' पृष्ठ भाग में विज्झति-विध्यन्ति' ताडन करते हैं ॥३॥ अन्वयार्थ - परमाधार्मिक नारकजी की भुजाओं को मूल से काट देते हैं तथा जबर्दस्ती मुख को फाडकर उसमें जलते हुए लोह 'बाहू पकत्तंति' त्याह Ava-'से-तस्य' ५२माधम ना२४ी ७नी 'बाहू- बाहून्' भुत. भान 'पकत्तंति--प्रकर्त्तयन्ति' अछे 'मुहे-मुखे' भुमने 'वियास-विकाइय' मग 31'थूल-स्थूलम्' mत सोमना मीट मा गणानाभाने 'आडहंति-आदहन्ति' माणे छे. 'रहंसि-रहमि' तथा मेन्तमा 'जुत्तं-युक्तं' तमना सन्मान्तर मनु 'बालंबालम्' अज्ञानी ने 'सारयंति-स्मारयन्ति' भ२५ ४२२३ छे. 'आरुस्स-आरुष्य' तथा ६४ र ५ ४ीने 'तुदेण-तुदैन' यामुॐथी 'पिढे-पृष्ठे' पाछन AIRi 'विझंति-विध्यन्ति' मारे छ. ॥3॥ સૂત્રાર્થ–પરમાધાર્મિક નારક જીવની ભુજાઓને મૂળમાંથી કાપી નાખે છે, અને તેમનાં મુખ બળાત્કારે બોલાવીને તેમાં ખૂબ જ તપાવીને લાલચળ કરેલા લોઢાના ગોળ અથવા દંડ દાખલ કરે છે. આ રીતે તેઓ તેને ખૂબજ દઝાડે છે. તેઓ તેને એકાન્તમાં લઈ જઈને તેના પૂર્વજન્મનાં પાપાનું For Private And Personal Use Only Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ५ उ. २ नारकीयवेदना निरूपणम् ૩૨૭ ( सरयंति) स्मारयन्ति ( आरुस्स) आरुष्य - अकारणक्रोधं कृत्वा (तुदेण) तुदेनप्रतोदेन चाबुक इति लोकप्रसिद्धेन (विट्ठे) पृष्ठे - पृष्ठदेशे (विज्झंति) विध्यन्तिताडयन्तीति ||३|| टीका – 'से' तस्य नारकिजीवस्य 'वाहू' भुजी 'मूल' मूलत:-आमू लम् | 'पति' प्रकर्तयन्ति-प्रकर्षेण कर्त्तयन्ति छेदयन्ति । तदनन्तरम् -'मुद्दे - विपास' मुखं विकाश्य=बलात्कारेण नैरयिकस्य मुखं स्फारविस्वा तस्मिन् 'धूल' स्थूलं अतिशयेन स्थूलम्, जाजल्यमान लोहदण्डम् अथवा लोहगोलकं मुखे निक्षिप्य 'आहंति' आदहन्ति मन्त्रालयन्तीत्यर्थः । तथा-'रहंसि' रहसि एकान्तस्थाने नारकिजीवं नीत्वा 'जुतं युक्त-जन्मान्तरकृतं दुष्कृतं 'सरयंति' स्मारयन्ति 'वाल' कर्त्तव्याकर्त्तव्यविवेकविरहितम् । तथा ललनालचामलहितं गीतमाकर्णितमतः श्रोत्रे छेदयामः, पापबुद्धया परस्त्रीनिरीक्षणं कृतमतश्चक्षुषी विस्फोटयामः, खंड को प्रवेशकर जलाते हैं। उन्हें एकान्त में पूर्व जन्मों में किये हुए पाप का स्मरण कराते हैं। निष्कारण क्रोध कर के पीठ में चाबुक मारते हैं | ३ | टीकार्थ -- वे नरकपाल नारकी जीव की दोनों भुजाओं को मूल से ही काट डालते हैं। तत्पश्चात् जबर्दस्ती उसके मुख को फाड़कर खूब बडा और जलता हुआ लोहे का डंडा या लोहे का गोला मुख में प्रवेश कर उसे जलाते हैं । अज्ञान नारक जीव को एकान्त में ले जाकर उसको पूर्वजन्मों में किये हुए पापों का स्मरण कराते हैं। वे कहते हैं- तूने ललनाओं के ललित गीतों को सुना, इस कारण हम तेरे कानों को काटते हैं। पापबुद्धि से परस्त्री का अवलोकन किया था, अतएव तेरे મરણુ કરાવે છે. તેઓ કોઈ પશુ કારણ વિના ક્રોધ કરીને તેની પીઠ પર ચાબુક ફટકારે છે. ગા ટીકા”—તે નરકપાલા નારક જીવની બન્ને ભુજાઓને મૂળમાંથી ક્રેડી નાખે છે ત્યાર બાદ અગ્નિમાં ખૂબ જ તપાવીને લાલચેળ કરેલા લાઢાના દડાને અથવા ગેળાને, તેએ બળજબરીથી તેનું મુખ ખેલાવીને મુખમાં ઘુસાડી દે છે. ત્યારે તે નારકના મુખમાં અસહ્ય બળતરા થાય છે. તેએ અજ્ઞાન નારકોને એકાન્તમાં લઇ જઇને તેના પૂજન્મનાં પપૈનું સ્મરણ કરાવે છે. તેઓ તેને કહે છે કે-તને લલનાઓનાં લલિત ગીતા સાંભળવા ખૂબ જ ગમતાં હતાં, તે કારણે અમે તારા કાન કાપી નાખીએ છીએ, તે‘ પરીનુ’ પપબુદ્ધિથી અવલેાકન કર્યુ હતુ, તેથી અમે તારી આંખા કુંડી For Private And Personal Use Only Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३९८ सूत्रकृतसूत्रे " हस्ताभ्यां परद्रव्यं गृहीतं पाणिघातश्च कृतोऽः हस्तौ खण्ड यिष्यामः स्वमासीमध. पायी अतः तत्रत । म्रादिकं पाययामि । मांसभक्षणमकरोः, अतस्त्वां त्वदीयस्यैव मांसस्य भक्षणं कारयामीत्युक्त्वा 'आरुस्स' आरुष्य- अकारणक्रोधं कृत्वा 'तुदेण' तुदेन. कराया 'पिट्ठे' पृष्ठे 'बिज्झति' विध्यन्ति । कशया पृष्ठे ताडयंति ॥३॥ मूलम् - अयंव तत्तं जलियं सजोइ तउत्रमं भूमिर्भणुकमंता । झाकणंति, उसुबोइया तत्र्त्तजुगेसु जुत्ता ॥४॥ छाया - अय इव तप्तंज्वलितं सज्योतिस्तदुपमां भूमिमनुकामन्तः । ते दह्यमानाः करुणं स्वनन्ति इषुनोदिता स्तप्तयुगेषु युक्ताः || ४ || लोचन उखाड़ते हैं। इन हाथों से पराया द्रव्य ग्रहण किया था, और प्राणियों का घात किया था अतएव तेरे हाथ काटते हैं । तू मद्य पिया करता था, अतएव तुझे तपा हुआ शीशा और तांबा पिलाते हैं। तूने मांस भक्षण किया था, और प्राणियों का घात किया था अतएव तुझे तेरा ही मांस खिलाते हैं। इस प्रकार उसके पापों को स्मरण कराते हैं । फिर अकारण ही क्रोध करके पीठ पर चाबुक के प्रहार करते हैं, अन्य अंगों पर भी प्रहार करते हैं ॥ ३ ॥ 'अर्थव तत्तं' इत्यादि । शब्दार्थ - 'तसं अयं व तप्तमय इव' तप्त लोह के गोला के समान 'सजोह - सज्योतिः' ज्योतिसहित 'जलियं ज्वलितां' जलती हुई अग्नि 'तउवमं तदुपमां' की उपमा योग्य 'भूमिं - भूमिम्' भूमि में 'अणुकर्मत्ता-अनुक्रामन्तः' चलते हुए 'ते-ते' वे नारकि जीव 'डजमाणा - दह्यमाना:' जलते हुए 'उसु चोइया- इषुनोदिता:' तीक्ष्ण तपे हुए નાખીએ છીએ. તે આ હાથા વડે પારકું ધન ગ્રહણુ કર્યુ હતુ, અને પ્રાણિયાના ઘાત કર્યાં હતા તેથી અમે તારા બન્ને હાથ કાપી નાખીએ છીએ, તને મિતરા પાન કરવુ ખૂબ જ ગમતુ હતુ, તેથી અમે તને ગરમા ગરમ તાંબા અને સીસાના રસ પિવરાવીએ છીએ તે' પૂભવમાં માંસ ખાધુ` હતુ`, તેથી અત્યારે અમે તને તારુ પેાતાનું જ માંસ ખવરાવીએ છીએ. આ પ્રકારે તેઓ તેને તેના પૂજન્મનાં પાપાનુ' સ્મરણ કરાવે છે, ત્યાર બાદ કાઇ પણ પ્રકારના કારણુ વિના તે તેની પીઠ આદિ અગેા પર ચાબુક ફટકારે છે. પ્રા 'अयंव तत्तं' त्याहि शब्दार्थ - ' तत्तं अयंव- तप्तमयइव' तपेक्षा सोभना गोमाता સમાન 'सज' इ - स्वज्योतिः' ज्योति सति 'जलियं वलितां' जजती 'तत्रमं तदुपम ' भूमीनी उपमा यो 'भूमि'- भूमिम्' भूमीमां 'अणुक्क मंता - अनुक्रामन्तः' याता 'वे- ' ते नारडी' मागा-नानाः' जगतां 'उसुचोइया- ३षुनोदिता!' For Private And Personal Use Only Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. शु. अ. ५ उ. २ नारकीयवेदनानिरूपणम् ३९९ ___अन्वयार्थः-(तत्तं अयं व) तप्तमय इव (सनोइ) सज्योतिः संज्योतिष (जलिय) ज्वलितम्-अग्निर्यथा भवति (तउत्रम) तदुपमा तत्सदृशां (भूमि) भूमि -पृथिवीं (अणुक्कमंता) अनुक्रामन्तो-गच्छन्तः (ते) ते नारकजीवाः (डज्झमाणा) दह्यमानाः (अमुचोइया) इपुनोदिता बाणप्रेरिताः (तत्तजुगेसुजुत्ता) तप्तयुगेषु पुक्ता-योजिताः (कलुणं थणंति) करूां दीनं स्तनन्ति आक्रोशशब्दं कुर्वन्ति ॥४॥ टीका-'तत्त अयं व तप्तायःपिण्ड इव, 'सजोई' सज्योति:-ज्योति सहितं 'जलियं' ज्वलितम् अग्निर्यथा भाति 'तउर्म' तदुपमाम्-ज्वलदयापिंडाघुपमाम् तथाविधामेव का भूमिम् 'अणुकमंत्ता' अनुक्रामन्त:-परमाधार्मिकैर्गम्यमानाःमारक जीवाः 'डज्झमाणा' दह्यमानाः । तथा-'उसुचोइया' इषुनोदिताः तीक्ष्णतप्तवाणावाग के अग्रभाग से मारकर प्रेरित किये हुए 'तत्तजुगेसु जुत्ता-तप्तयुगेषु युक्ताः' तथा तप्त जुए में जोडे हुए वे नारकी 'कलुणं धणंति-करुणं स्तनन्ति' दीन करुण रुदन करते हैं ॥४॥ __ अन्वयार्थ-तपे हुए लोहे के समान, ज्योतियुक्त एवं जलती हुई भूमि पर गमन करते हुए नारक जीव जब जलते हैं तो करुणापूर्ण आक्रोश करते हैं तथा तपे हुवे जुए में जोतकर आर से प्रेरित किये जाते हैं तय भी करुण ध्वनि करके चीखते हैं ॥४॥ टीकार्थ--तपे हुए लोहपिण्ड के सदृश, ज्योति सहित और जलती हुई अर्थात् जलते हुए लोहपिण्ड की उपमा वाली भूमि पर परमाधाती तपे माना माना माथी भारीने प्रेरित रेस 'तत्त जुगेसु जुत्ता-तप्तयुगेषु युक्ताः' तथा तपेसा घांसरामा नेपाथी 'कलुणं थणंति-करुणं स्तनन्ति' याात्र ३६. ४रे छे. ॥४॥ સૂત્રાર્થ–તપાવેલા લેઢાના જેવી, તિયુક્ત અને બળબળતી ભૂમિ પર જ્યારે ગમન કરવું પડે છે, ત્યારે પગે ખૂબ જ દાઝવાને લીધે નારકે કરુણપૂર્ણ આક્રંદ કરે છે, વળી જયારે તેમને ગરમ કરેલા સરામાં જોડીને પરણાની આર મારી મારીને ચલાવવામાં આવે છે, ત્યારે તેઓ દયાજનક આર્તનાદ કરી ઉઠે છે. ૪ ટીકાથ–તપાવેલા લેઢાના ગેળા જેવી, તિમય અને બળી રહી હેય એવી-એટલે કે ખુબ જ તપાવીને લાલચેળ અને પ્રકાશિત બનાવેલા લેપિંડની ઉપમાવાળી ભૂમિ પર પરમધાર્મિક અસુરે નારકોને ચલાવે છે. તે અતિ ઉષ્ણ ભૂમિ પર ચાલતાં ચાલતાં તેઓ ખૂબ જ દાઝી જવાથી એવી For Private And Personal Use Only Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४०० सूत्रकृताङ्गसूत्रे प्रभागरिताः तत्तजुगेम' तप्तयुगेषु-ताप्तिस्थांगेषु 'जुत्ता युक्ताः तत्र-बलीबर्द इव नियुक्ता नैरपिकाः । 'कलुणे' करुणे-सकरुणं यथा स्यात्तथा 'यणंति' स्तनन्ति शब्दं कुर्वन्ति । अतिदीनवचनानि मुखात् उच्चैः निष्काशयन्तीत्यर्थः । यथा वली. बर्द रथे नियोजयति तथा ते परमाधार्मिका तान् नारकान तप्तरथयुगेषु संयोज्य सप्ततीक्ष्णबाणाप्रभागेन प्रेरयन्ति ततस्ते महता शब्देन रास्टंतीति भावः ॥४॥ मूलम्-बाला बेला भूमिमणुकता पैविजलं लोहपहं व तत्तं । जसिऽभिदुग्गांस पर्वजमाणा पेसेवें दंडेहि पुरा कति ॥५॥ छायावाला बलाद्भूमिमनुक्राम्यमाणाः प्रदीप्तजलां लोह पथमिव तप्ताम् । यस्मिन्नभिदुर्गे प्रपद्यमानाः प्रेष्यानिव दण्डैः पुरः कुर्वन्ति ॥५॥ लिंक असुर नारक जीवों को चलाते हैं । उस पर चलने से वे धुरी तरह जलते हैं तो ऐसे चिल्लाते हैं कि करुणा उपजती है। फिर उन्हें खूब तपे हुवे रथ के जुए (जूड़े) में जोत दिया जाता है और इषु अर्थात् तीखी नोक वाली आर चुभोई जाती है। वे नारकी उसमें बैलो के जैसे जोते जाते हैं । उस समय भी वे अत्यन्त दीनतापूर्ण ध्वनि करते हैं। ___ तात्पर्य यह है कि जैसे रथ में बैल को जोता जाता है, उसी प्रकार परमाधार्मिक उन नारकों को तपे हुए रथ के जुए में जोतकर ऊपर से तपे हुए तीक्ष्ण आर की नोंक से प्रेरित करते हैं। उस समय वे जोर से चीखते-चिल्लाते हैं । ४॥ તે ચીસે પાડે છે કે ભલ ભલાંના હૃદયમાં કરુણા ઉત્પન્ન થાય છેવળી તેઓ તેમને રથના ખૂબ જ તપાવેલા પૈસામાં સાથે જોડીને તીક્ષણ અણુ વાળી આર ભેંકીને બળદની જેમ તેમની પાસે રથ ખેંચાવે છે. આ અસહ્ય વેદનાને કારણે તેઓ કરુણાજનક ચીસે પાડે છે. - આ કથનનો ભાવાર્થ એ છે કે જેવી રીતે રથના ઘેસરા સાથે બળદેને જોડવામાં આવે છે, એ જ રીતે પરમધામિકે નારકોને સરામાં જોડે છે. તે ધસરાને તપાવીને ખૂબ જ ગરમ કરેલાં હોય છે. જેમ બળદેને પરોણુની આર મેં કીને ચલાવવામાં આવે છે, તેમ નારકેને પણાની તીક્ષણ અને ગરમ આર ભેંકીને ચલાવવામાં આવે છે. આ દુઃખ અસહૃા થઈ પડવાથી તેઓ કરુણાજનક ચીસો પાડે છે. આ For Private And Personal Use Only Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ.५ उ. २ नारकीयवेदनानिरूपणम् ५०५ अन्वयार्थः-(बाला) बाला:-अज्ञानिनो नारकाः (लोहपह व तत्त) लोहपथमिव तप्ताम् (पविज्जलं) प्रदीतजलां (भूमि) भूमि-पृथिवीम् (बला अणुक्कमंता) बलात् अनुक्राम्यमाणाः बलात्कारेण परमाधार्मिकैश्वाल्यमानाः (जसि) यस्मिन् (अभिदुग्गंसि) अभिदुर्गे अतिकठोरे (पवज्जमाणा) प्रपद्यमानाः-परमाधार्मिकद्धारा चलनाय प्रेरिताः यदि न चलंति तदा (पेसेव) प्रेष्यान् वृषभानिव (दंडेहिं) दण्डैः (पुरा करंति) पुरः कुर्वन्ति अग्रे तान् चाळयन्तीति ॥५॥ _ 'बाला बला भूमि' इत्यादि । शब्दार्थ-'याला-बाला:' अज्ञानी नारकी जीव 'लोहपह व तत्तलोहपथमिक तप्ताम्' जलता हुआ लोहमय मार्ग के समान तपी हुई 'पविज्जलं-प्रदीप्तजला' तथा रक्त और सीवरूप कर्दन से युक्त 'भूमिभूमिम्' भूमि पर 'बला-बलात्' बलपूर्वक परमाधार्मिकों द्वारा 'अणु. कमंता-अनुक्राम्यमाणाः' चलाये जाते वे चुरी तरह चिल्लाते हैं जसियस्मिन' जो भी 'अभिदुग्गंसि-अभिदुर्गे' अति कठोर स्थान पर 'पवजमाणा-प्रपद्यमानाः' परमाधार्मिकों के द्वारा चलने के लिये प्रेरित किये हुए जब ठीक नहीं चलते हैं तब 'पेलेव-प्रेष्यान्' बैल के समान 'दंडेहि-दण्डैः' दंडों से 'पुरा करंति-पुरः कुर्वन्ति' आगे चलाते हैं ॥५॥ . ___ अन्वयार्थ--परमाधार्मिक उन अज्ञान नारक जीवों को तपे हुए लोहपथ के समान तपी हुई तथा रुधिर पीव आदि से पंकिल भूमि पर 'बाला बलाभूमि' या Avat:- 'बाला-बालाः' अज्ञानी ॥२४ ७५ 'लोहपहं च तत्त-लोहपथमिव तप्ताम्' मणे मना भागना रेभ तपेदी 'पविज्जलं-प्रदीप्तजला' तथा २४भने ५३ ३५ ४६१था युटत 'भूमि-भूमिम्' भूमि ५२ 'बला-बलात्' पूर्व ५२मायामि वा 'अणुकमंता-अनुक्राम्यमाणाः' यदापामा भापता तेसो १२१५ रीते भूमी । छे. 'जसि-यस्मिन्' मा 'अभिदुग्गंसि-अभिदुर्गे' मति २ स्थान ५२ 'पवन्जमाणा-प्रपद्यमानाः' ५२मायामि नाश ચાલવા માટે પ્રેરિત કરવા છતાં પણ જ્યારે ઠીક નથી ચાલતા त्यारे 'पेसेव-प्रेश्यान्' भनी म 'दंडेहि-दण्डैः' माथा 'पुरा करंतिपुरः कुर्वन्ति' मा या छे. ॥५ . સૂત્રાર્થ–પરમધામિકે તે અજ્ઞાન નારકને તપાવેલા લેઢાના માર્ગના જેવી અતિશય ગરમ અને લેહી, પરુ આદિથી યુક્ત ભૂમિ પર ચલાવે છે જે सू० ५१ For Private And Personal Use Only Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ a kendra Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Acharya Shri Ka सीका बाला' बाला:-विवेकहिताः नारकिजीवाः 'लोहपहं व तत्त' लोहपथमिव हप्ताम् , तप्तलोहपथमिवातिशयेन जाज्वल्यमानाम् 'पविज्जलं' प्रदीप्तजलां रुधिरयस्पकर्दमपिच्छिलां 'भूमि' भूमि-पृथिवीतलमार्गम्। 'बला अणुक्कमंता' बलात् अनुक्राम्यमाणाः, यद्यपि तादृशभूमौ चलितुं नेच्छन्ति, तथापि-बलात्कारेण चाल्यमानाः 'जसि अभिदुग्गसि' यस्मिन् अभिदुर्गेऽतिकठिने स्थाने कुंभीनरकादौ । पत्रज्जमाणा' प्रपद्यमानाः प्रचाल्यमाना अपि यदा न सम्यक् प्रचलन्ति तदा 'पेसेव' घेण्यानिव, क्रीतदासानिव वृषभानिव वा 'दंडेहि' दण्डैः-दण्डपहरणैः ते परमाऽधार्मिकास्तान् 'पुरा करंति' पुरः कुर्वन्ति पुरोऽग्रतश्चालयन्ति । ते तु नारकाः स्वेच्छया स्थातुं गन्तुं कथमपि नैव सक्ताः। स्थितौ गमनेऽपि वा पराधीनतैव नारकजीवानाम् । न क्वचित् ते स्थिरा भवंति, न वा कुत्रचित् चलाते हैं। चलाये जाते हुए वे यदि अति दुर्गम मार्ग पर नहीं चलतेकुक जाते हैं तो परमाधार्मिक डंडे मार-मार कर आगे चलाते हैं ॥५॥ टीकार्थ--विवेकरहित नारकजीव, लोहपथ के समान अतिशय जाज्वल्यमान तथा रुधिर एवं पीव के कीचड़ से व्याप्त भूमि पर परमापार्मिकों द्वारा चलाये जाते हैं । यद्यपि वे उस भूमि पर चलना नहीं चाहते, तथापि बलात्कार से चलाये जाते हुए जो नरक भत्यन्त दुर्गम तपाये हुए स्थान पर ठीक तरह नहीं चलते हैं, तब . खरीदे हुए नौकरों की तरह अथवा बैलों की तरह डंडों का प्रहार करके परमाधार्मिक उन्हें आगे चलाते हैं । वे अपनी इच्छा के अनु. सार न कहीं ठहरने में समर्थ हैं और न चलने में समर्थ हैं । नारक जीव ठहरने में भी पराधीन हैं और चलने में भी पराधीन हैं। न वे તેઓ દુર્ગમ માર્ગ પર ચાલતાં ચાલતાં અટકી જાય છે, તે પરમધામિકે તેમને દંડા મારી મારીને આગળ ચલાવે છે. પણ ટીકાથ–પરમધાર્મિક અસુરે નારકને તપાવેલા લેઢાના જેવા ગરમ અને જાજવલ્યમાન માર્ગ પર ચલાવે છે. તે માર્ગ રુધિર અને પરુ રૂપ કીચડથી છવાયેલો હોય છે. જે તેઓ તે માર્ગ પર ચાલવાની ના પાડે છે, તે તેમને બલાત્કારે ચલાવવામાં આવે છે. નરક અત્યંત દુર્ગમ માર્ગ પર જે તેઓ સરખી રીતે ચાલતા નથી, તે બળદ અથવા ગુલામોની માફક આર ભેંકીને અથવા દંડા મારીને તેમને ચલાવવામાં આવે છે. આગળ ચાલવું કે થોભવું તે પણ તેમની ઈચ્છાનુસા૨ થતું નથી એટલે કે આ બન્ને બાબતમાં તેઓ પરાધીન છે. તેઓ તેમની ઈચ્છા પ્રમાણે વિશ્રામ પણ લઈ શકતા નથી અને ચાલી પણ શકતા નથી. ત્યાં તે તેમને બિલકુલ પરાધીન For Private And Personal Use Only Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सैमयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ५ इ. २ नारकीयवेदनानिरूपणम् .. स्वेच्छया गच्छन्ति किन्नु तत्रत्यः सर्वोऽपि व्यवसायव्यवहारः पराधीन एक यातनाभूमिस्वानरकस्येति भावः ॥५॥ मूलम्-ते' संपेगाढंसि पर्वजमाणा सिलाहि हम्मंति निपातिणीहिं। संतावणी नाम चिरद्वितीया संतप्पती जत्थ असाहुकम्मा॥६॥ छाया-ते संपगाढं प्रपद्यमानाः शिलाभिहन्यन्ते निपातिनीभिः। ___संतापिनी नाम चिरस्थितिका संताप्यन्ते यत्र असाधुकर्माणः ॥६॥ अन्वयार्थः-(ते) ते नारकनीयाः (संपगाढंसि) संप्रगाढम्-असह्यवेदनायुक्त नरके (पवज्जमाणा) प्रपद्यमानाः गन्तारः (निपाविणीहिं) निपातनीभिः-अधः पातयितुं योग्याभिः (सिलाहिं) शिलाभिः पाषाण खण्डैः (हम्मंति) हन्यन्ते ताडयन्ते (संतावणी नाम) संतापनी नाम कुंभी (चिरहिनीया) चिरस्थितिका बहुकालअपनी इच्छा से कहीं विश्राम लेते हैं और न कहीं चलते हैं । वहां का सम्पूर्ण व्यवसाय व्यवहार पराधीन ही है । क्योंकि नरक तो केवल यातनाभूमि ही है ॥५॥ 'ते संपगादसि' इत्यादि। शब्दार्थ-'ते-ते' वे नारकजीव 'संपगादंसि-संप्रगाढे अधिक वेदनायुक्त असह्य नरक में 'पवज्जमाणा-प्रपद्यमानाः' गए हुए 'निपा. तिणीहि-निपातिनीभिः' सन्मुख गिरने वाली 'सिलाहि-शिलामि पाषाण के खण्डों से 'हम्मंति-हन्यन्ते' मारे जाते हैं 'संतावणी नामसंतापिनी नाम संतापनी अर्थात् कुम्भी नाम का नरक चिरद्वितीयाचिरस्थितिका' पल्योपम सागरोपम कालपर्यन्त स्थितिवाला है દશા ભેગવવી પડે છે. પરમધામિકે તેમને જે જે યાતનાઓ આપે, તે તેમને સહન કરવી જ પડે છે. આ રીતે આ નરકસ્થાને યાતનાભૂમિ જેવાં જ છે પણ _ 'ते संपगाढ सि' त्याह शहाथ-'-' ते ना२४ ७१ 'संपगाढ'सि-संप्रगाढे' मावि वहन युद्धत अस न२४मा 'पवज्जमाणा-प्राद्यमानाः' गये। 'निपातिणीहि-निपातिनीभिः' सामे मावाने ५४ावाणी 'सिलाहि-शिलाभिः' पत्थरना माथी 'हमतिहन्यन्ते' भाषामा भावे . 'संतावणीनाम-संतापनीनाम-मर्थात् oil नाम: २४ 'चिरद्वितीया-चिरस्थितिकाः' ५८या५म साग५५ १५यत स्थिति पाछे, 'जत्थ-यत्र' रेभा 'असाहुकम्मा-अमाधुकर्माणः'' ५५४ ४ापागा For Private And Personal Use Only Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे पर्यन्तस्थायिनी (जस्थ) यत्र-यस्याम् (असाहुकम्मा) असाधुकर्माणः पाणातिपाता. दिकुत्सितकर्मकर्तारः (संतप्पती) संताप्यन्ते-संतापिताः क्रियन्ते ॥६॥ टीका-'ते' ते नारकजीवाः 'संपगादसि' संप्रगाढे, अतिवेदनायुक्ते नरके 'पवज्जमाणा' प्रपद्यमानाः-ताशवेदनायुक्त नरकं गच्छन्तः। 'निपातिणीहि' निपातनीभिः अभिमुखं पातयन्तीभिः। 'सिलाहिं' शिलामिः-बृहत्पाषाणखण्डरूपाभिः, 'हम्मंति' इन्यन्ते 'संतावणी नाम' संतापिनी नाम-अतिशयिततापयुक्ता 'चिरद्वितीया' चिरस्थितिका-पल्योपमसागरोपमकालपर्यन्तस्थायिनी संतापनी कुम्भीति मसिद्धा विद्यते। 'जत्थ' यत्र संतापयुक्तायां कुम्भ्याम् । 'असाहुकम्मा' असाधुकर्माणः जत्थ-यत्र' जिसमें 'असाहुकम्मा-असाधुकर्माणः' पापकर्म करनेवाले जीव 'संतप्पती-संताप्यन्ते' तीव्र वेदना से संतप्त किये जाते हैं ॥६॥ - अन्वयार्थ-असह्य वेदना से युक्त नरक में गये हुए नारक जीव नीचे गिरने वाली शिलाओं से ताडन किये जाते हैं । कुभीपाक में पचाये जाते हैं वहां नारक बहुन काल तक रहते हैं और संताप को प्राप्त होते हैं ॥६॥ टीकार्थ--अत्यन्त वेदना वाले नरक में गये हुए नारकी जीव सामने से गिरने वाली शिलाओं से आहत-ताडित किये जाते हैं। वहां जो संतापनी अर्थात तीव्र वेदना से तपाने वाली कुभी है वह बहुत ही 'सन्तापजनक है। वह चिरस्थितिक है अर्थात् वहां जीव पल्योपमों और सागरोपमों तक निवास करते हैं । उस सन्तापवाली कुम्भी में वे ७५ 'संतप्पती-संताप्यन्ते' तीन वदनाथी सतपयुः ४२पामा माछ. ॥६॥ સત્રાર્થ—અસહ્ય વેદનાથી યુક્ત નરકમાં ઉત્પન્ન થયેલા નારક જીની ઉપર મોટી મોટી શિલાઓ ફેંકવામાં આવે છે. આ શિલાઓના પ્રહાર તેમને સહન કરવા પડે છે. તેમને કુંભીઓમાં પકાવવામાં આવે છે. નારકેને ત્યાં દીર્ઘ કાળ સુધી રહેવું પડે છે, અને અસહ્ય વેદનાઓ વેઠવી પડે છે. દા ટીકાઈ–નરકમાં ઉત્પન્ન થયેલા નારકને તીવ્ર વેદના વેઠવી પડે છે, તેથી નરકને વેદનાસ્થાન કહેલ છે. નરકમાં ઉત્પન્ન થયેલા જીવને કેવી કેવી યાતનાઓ વેઠવી પડે છે, તેનું સૂત્રકાર વર્ણન કરે છે–ઉપરથી નીચે પડતી શિલાઓના પ્રહાર તેમને વેઠવા પડે છે. ત્યાં તેમને કુંભીઓમાં પકાવવામાં આવે છે. તે કુંભીઓ તીવ્ર વેદનાથી તપાવનારી હેવાને કારણે તેમને સંતાપની' (સંતાજનક) કહી છે. નારકેને ત્યાં ચિરકાળ પર્યન્ત-પલ્યોપમ અને For Private And Personal Use Only Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ५ उ. २ नारकीयवेदनानिरूपणम् ४०५ दुष्कृतकर्माणः येन परभवे, संपादिताऽशुमाऽनुष्ठानाः । 'संतप्पती' संताप्यन्तेतीनवेदनया सत्तताः क्रियन्ते । अभिमुखादागच्छन्तीभिः शिलाभिहता भवन्ति । तथा कुम्भीपाकनामपाकपात्रगतजीवानां स्थितिीर्घा, दुष्कृतकर्मकारिणः तत्र चिरकालपर्यन्तं स्वताऽशुभाऽनुष्ठानस्य फलमुप नानाः अवस्थिता भवन्तीति ॥६॥ मूलम्-कंसु पविखप्प पयंति बालं तओवि दंडा पुण उप्पयंति। ते उडकाएहिं पखजमाणा अवरोहिं खेजति सणफएहि॥७॥ छाया-कन्दूषु प्रक्षिप्य पचन्ति बालं, ततोऽपि दग्धाः पुनरुत्पतन्ति । ते ऊर्ध्वकाकैः पखाद्यमाना, अपरैः खाद्यन्ते सनखपदैः ॥७॥ जीव अत्यन्त दुःख का अनुभव करते हैं जिन्होंने पूर्वभवों में अशुभ कृत्य किये हैं। आशय यह है कि तीव्र वेदनावाले नरक में सामने से आकर गिरने वाली शिलाओं से नारक जीव आहत (मारे जाते) होता है। तथा कुंभीपाक नामक पाकपात्र में गए हुए जीवों की स्थिति बहुत लम्बी होती है । दुष्कृत्य करने वाला जीव उस नरक में चिरकालपर्यन्त अपने किये पाप का फल भोगता हुआ रहता है ॥६॥ - 'कंदूसु' इत्यादि। शब्दार्थ-- 'बालं-बालम्' विवेकरहित नारकिजीव को 'कंदसकन्दुषु' गेंद के समान आकृति वाले नरक में 'पक्खिप्प-प्रक्षिप्य डालकर ‘पयंति-पचन्ति' पकाते हैं 'दट्टा-दग्धाः' जलते हुए वे नारकजीव સાગરેપમ પ્રમાણ કાળ સુધી-રહેવું પડે છે. જે જીવોએ પૂર્વભવેમાં અશુભ કૃત્ય કર્યા હેય છે, તે અને તે સંતાપની નામની કુંભમાં ઉત્પન્ન થઈને અસહ્ય દુખનો અનુભવ કરવું પડે છે. આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે તીવ્ર વેદનાવાળા નરકમાં સામેથી નીચે આવી પડતી શિલાઓના પ્રહાર નારકોને સહન કરવા પડે છે. તથા કુંભીપાક નામના પાપાત્રમાં (પકવવાના પાત્રમાં) ઉત્પન્ન થયેલા નારકેનું આયુષ્ય ઘણું લાંબુ હોય છે. પાપકૃત્ય સેવનાર છે તે નરકમાં ઉત્પન્ન થઈને તેમનાં પાપકર્મોને અશુભ વિપાક દીર્ઘ કાળ પર્યત ભગવ્યા કરે છે, દા _ 'कंदूसु' त्या शहा- 'बाल-बालम्' विहित नापने कंसु-कन्दुषु' समान तिवारी न२४मा पक्खिप्प-प्रक्षिप्य' नाभीन पयंति-पचन्ति' पाव छ. 'दइढा-दग्धाः' मत । ते ना२४ ७१ 'तओपि-ततोपि' त्यांचा प For Private And Personal Use Only Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir .- अन्वयार्थः-(बालं) बालं-नारकं (कंदसु) कन्दुषु-कन्दुकाकृतिनरकेषु (पक्खिप्प) मक्षिप्य-पातयित्वा-परमाधामिका (पयंति) पचन्ति (दड्रा) दग्धास्ते भारकाः (तोवि) ततोपि-तस्मादपि स्थानात (पुणो उप्पयंति) पुनरपि उत्पतन्तिउच्छलन्ति तत्रापि (ते) ते नारकनीवाः (उडकाएहिं) ऊर्ध्वकाकैोगका (पखज्जमाणा) पखाधमानाः-भक्षिताः सन्तः (अपरेहि) अपरैरन्यैः (सण'फएहिं) सनखपदैः-सिंहादिभिः (खज्जति) खाद्यन्ते भक्षिता भवन्तीति ॥७॥ टीका-'बालं' बालं-विवेकरहितं नारकिजीवम् 'कंदसु' कन्दुकाकति कुंभीषु 'पक्लिप्प' प्रक्षिप्य-पातयित्वा ते परमाधार्मिकाः ‘पयंति' पचन्ति 'तओवि' ततो. ऽपि तदनन्तरम् 'दड्डा' दग्धाः 'पुण' पुनः 'उप्पयंति' उत्पतन्ति, ऊर्ध्वम् उत्क्षिप्ताः 'तओ वि-ततोपि' वहां से भी 'पुणो उप्पयंति-पुनरपि उत्पतन्ति' फिर ऊपर उछलते हैं 'ते-ते' वे नारकि जीव 'उडकारहि-ऊर्ध्वका?' द्रोण नाम के काक के द्वारा 'पखज्जमाणा-प्रखाद्यमानाः' खाए जाते हैं 'अवरेहि-अपरैः' तथा दूसरे 'सणफएहि-सनखपदैः' सिंह व्याघ्र आदि के द्वारा भी 'खज्जंति-खाद्यन्ते' खाए जाते हैं ॥७॥ ___ अन्वयार्थ-परमाधार्मिक असुर अज्ञानी नारक को कन्दुक (गेंद) के समान आकृति वाले नरक में गिराकर पकाते हैं । दग्ध हुए (अग्नि से जलते हुए) नारक जब उससे ऊपर उछलते हैं तो द्रोण काकों के द्वारा खाये जाते हैं । (नीचे आते हैं तो) सिंह आदि के द्वारा भक्षण किये जाते हैं ॥७॥ टीका-विवेकविकल नारक जीव को कन्दुक जैसी आकृतिवाली कुंभी में गिराकर परमाधार्मिक पकाते हैं । जब वे उसमें जलने के 'पुणो उपयंति-पुनरपि उत्पतन्ति' ५।७। ५२ छणे छे 'ते- ते ना२६ 'उडूढकारहि-ऊर्ध्वकाकैः' द्रो नामना । पक्षिना द्वारा 'पखज्जमाणा-प्रखाधमानाः' an ते 'अवरेहि-अपरैः' wlon 'सणफएहि-सनखपदैः' सिं, पाय वगेरेना वा ५५ 'खजति-खाद्यन्ते' मापामा भावे छे. ॥७॥ પરમાધામિકે અજ્ઞાની નારકેને કÇક (દડા)ના જેવા આકારના નરકમાં નાખીને પકાવે છે. અગ્નિને લીધે દાઝતા નારકે જ્યારે તે જગ્યાએથી ઊંચે ઉછળે છે, ત્યારે દ્રોણ નામના કાગડાએ તેમને ખાવા માંડે છે, જે તેઓ નીચે આવી પડે છે, તે સિંહ આદિ હિંસક જાનવરે તેમનું ભક્ષણ કરે છે. છા ટીકાથ–પરમાધાર્મિક અસુરે તે અજ્ઞાન (વિવેકરહિત) નારકોને દયાના આકારની કુંજીમાં પટકીને પકાવે છે. તે કંપનીમાં જ્યારે For Private And Personal Use Only Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ५ उ.२ नारकीयवेदनानिरूपणम् ०७ भवन्ति भय॑मानचणकवत् उच्छलन्तीत्यर्थः । ते नारकजीवाः ऊर्ध्वमुत्पतिता अपि 'उडकाएहि' ऊर्ध्वकाकैः द्रोण नाम काकनातिषु परमाधार्मिकैः । 'पखम्जमाणा' प्रखाधमानाः-भक्ष्यमाणाः, अत्यन्तनष्टाः सन्तः पुन: 'अबरेहि' अपरैः 'सणफएहि सनवपदैः-सिंहव्याघ्रसनखपशुभिः। 'खज्जति' खाधन्ते, भक्षिता भवन्तीति । परमाधार्मिकाः कश्चिद् नारकजीवं कन्दुकाकृतिनरके पचन्ति । तत्र मय॑मानास्ते ततः उत्पतन्ति, उत्पततस्तानाकाशे समासाद्य द्रोणनामकाका भक्षयन्ति । ततः पतिताः सिंहादिरूपधारिभिः परमाधार्मिकैभक्षिताः भवन्ति । यत्र कुत्र यान्ति सर्वत्रैवापभाजो तत्र भवन्तीति भावः ॥७॥ कारण ऊपर उछलते हैं तो द्रोणकाक उन्हें खाते हैं । (नरक में पक्षियों की कोई पृथक जाति नहीं है । परमाधार्मिक असुर ही विक्रिया करके द्रोणकाक का रूप धारण कर लेते हैं । इसी प्रकार सिंह आदि के विषय में भी समझना चाहिए। और फिर सिंह व्याघ्र आदि नाखूनों वाले जानवर उन्हें खाते हैं। ___ अभिप्राय यह है कि परमाधार्मिक असुर नारकजीव को किसी कन्दुक की आकृति वाले नरक में डालकर पकाते हैं। जब उन्हें पकाया जाता है तो वे घबराकर ऊपर उछलते हैं । ऊपर उछले हुए उन नारकों को आकाश में पाकर द्रोण नामक काक खाते हैं। जब वे नीचे गिरते हैं तो सिंह आदि का रूप धारण किये हुए परमाधार्मिकों द्वारा भक्षण તેમનાં શરીર શેકાય છે, ત્યારે દાઝી જવાને કારણે તેઓ ઊંચે ઉછળે છે. ઉપર ઉછળેલા તે નારકને દ્રણકાક ખાવા માંડે છે. (નરકમાં પક્ષીઓની કઈ અલગ જાતિ નથી. પરમધામિક અસુરો જ પિતાની વૈક્રિય શક્તિથી દ્રોણુકાનું રૂપ ધારણ કરે છે. એ જ પ્રમાણે તેઓ સિંહ આદિના રૂપની પણ વિણા કરે છે, જે તેઓ ઉછળીને નીચે પડે છે, તે સિંહ, વાઘ આદિ નહેરવાળાં જાનવરે તેમનું ભક્ષણ કરી જાય છે. આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે નરકપાલે નારકોને દડાના આકા. રની નરકમાં પછાડીને પકાવે છે. આ પ્રકારે જ્યારે તેમનાં અંગે અગ્નિથી દાઝવા માંડે છે, ત્યારે તેઓ ગભરાઈ જઈને ઊંચે ઉછળે છે. ઊંચે ઉછળતા તે નારકે દ્રણકાક નામના પક્ષીને શિકાર બને છે. જે તેઓ નીચે પડે છે, તે સિંહ, વાઘ આદિ દ્વારા તેમનું ભક્ષણ કરવામાં આવે છે. તે સિંહ, વાધના રૂપની વિકણ પણું પરમધાર્મિક અસુરે જ કરતા હોય છે. સત્રકાર આ કથન દ્વારા એ વાત પ્રકટ કરે છે, કે નારકે ગમે ત્યાં જાય. For Private And Personal Use Only Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४०८ सूत्रकृतासूचे मूलम्-समूसियं नाम विधूमठाणं, जं सोयतत्ता कलणं थथति। अहोसिरं कट्ट विगत्तिऊणं, अयंव सत्थेहिं समोसवेंति ॥८॥ छाया-समुच्छ्रितं नाम विधूमस्थानं यन् शोकतप्ताः करुणं स्तनन्ति । अधःशिरः कृत्वा विकाऽय इव शस्त्रैः समवसरन्ति ॥८॥ अन्वयार्थः- (समूसियं) समुक्तिं (नाम) नाम-उच्चचितावत् (विधूमठाणं) विधूमस्थानं-धूमरहिताग्निस्थानं विद्यते 'ज' यत् स्थानम् पाप्य 'सोयतत्ता' शोककिये जाते हैं । अर्थात् वे जहाँ कहीं भी जाते हैं, वहीं उन पर विपत्तियों के पहाड गिरते हैं ॥७॥ 'समूमियं' इत्यादि। शब्दार्थ-'समूमिय-समुच्छ्रितम्' ऊँची चिता के समान 'विधम. ठाणं-विधूमस्थानम्' धूमरहित अग्नि का एक स्थान है 'ज-यत्' जिस स्थान को प्राप्त करके 'सोपतत्ता-शोकतप्ताः' शोक से दुःखित नारकि जीव 'कलुणं-करुणम्' करुणाजनक 'थणंति-स्तनन्ति' रुदन करते हैं 'अहोसिरं कटूटु-अधः शिरः कृत्वा' नरकपाल नारकि जीव के शिर को नीचा करके 'वित्तिकणं-विकत्ये' तथा उसकी देह को काटकर 'अयंव सस्थेहि-अयोवत् शस्त्रः' लोह के शस्त्र से 'समोसवेति-समवसरन्ति' खण्ड खण्ड करके काटते हैं ॥८॥ अन्वयार्थ--ऊंची चिता के सदृश धूमरहित अग्नि को एक स्थान है, जिसे प्राप्त करके शोक से तप्त नारक जीव करुण आक्रोश करते हैं। તે પણ દુઃખ તેમને કે છોડતું નથી. તેમના ઉપર જાણે કે દુખના પહાડો જ તૂટી પડે છે છા 'समूसिय' Unile . शार्थ-'समूसियं-समुच्छ्रितम्' यी यिताना समान 'विधूमठाणंविधूमस्थानम्' धूमा। ११२ भनिनु मे स्थान छ. 'ज- यत्' २ स्थानने प्राप्त शत 'सोयतत्ता-शोकतप्ताः' थी मित ना १ 'कलुणंकरुणम्' ४३ 'थणंति-स्तनन्ति' ३६. रे छ 'अहोसिर कटु-अधः शिरः कृत्वा' २५॥ नाना भायाने नाय उरीने 'विगत्तिऊणंविकर्त्य' तथा तेना ने पीने 'अयं वसत्थेहि-अयोवतू शस्त्रैः' सोमना Anil 'समोसवेंति-समवसरन्ति' टुडे टु ४रीन पे छे. ॥८॥ સૂત્રાર્થ–એક ઊંચી ચિતાના આકારનું, ધુમાડા વિનાની અગ્નિથી યુક્ત એક સ્થાન હોય છે. જયારે પરમધામિક નારકેને તે ચિતામાં છું કે For Private And Personal Use Only Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समायोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ५ उ. २ नारकीय वेदनानिरूपणम् सम्म नारकाः (कल्लुणं) करुण-दीनं (यणति) स्तनति-आक्रोशशब्दं कुर्वन्ति (अमे सिरं कट्ट) अधः शिरो मस्तकं कृत्वा (क्गित्तिऊणं) किर्त्य खण्डयित्वा (अयं र सत्येति) अय इक् शस्त्रैः (समोसति) समवसरन्ति खण्डशः खण्डयन्ति कर्तयन्तीति॥८॥ ___टीका--'समूसियं' समुच्छ्रितं-सम्यक उच्छ्रितं समुन्नतं चिताकृतिनामकम् । 'विधूमठाण' विधूमस्थानम् , विगतो धूमो यस्मात् स्थानात् तद्विधूमस्थानम् धूमरहितवझिस्थानमिति यावत् । 'ज' यत् स्थानम् पाप्य 'सोयतत्ता' शोकतप्ताः नारकाः। 'कलणं' करुणम् 'यणंति' स्तनन्ति-करुणापूर्वकं शब्दं कुर्वन्ति रुदन्तीति यावत् । तथा-'अहोसिरं कटु' अधः शिरः कृत्वा 'विगत्तिऊणं' विकर्त्य विदार्य । 'अयं व सत्थेहि' अय इव शस्त्रैः 'समोसवेति' समवसरन्ति, खण्डशः खण्डयन्ति । अत्युच्चचितासदृशं निधूमवह्निस्थानमेकमस्ति । तत्र गताः नारकजीनाः महता शोकेन संतप्ता भवन्ति सकरुणं रुदन्ति च। तथा तत्र परमाधार्मिका नरकपाला: यहां परमाधार्मिक उनका मस्तक नीचा करके काटते हैं और लोहे के शस्त्रों से देह को खण्ड खण्ड कर देते हैं ॥८॥ टीका-ऊंचा उठा हुआ चिता के आकार का एक धूम से रहित अग्नि का स्थान है । उस अग्नि स्थान में डालते हैं तब असह्य वेदना से संतप्त नारक जीव करुणाजनक विलाप करते हैं। परमाधार्मिक उनका सिर नीचा करके लोहमय शस्त्रों से देह के अवयवों को खण्ड खण्ड कर देते हैं। तात्पर्य यह है कि-एक अत्यन्त ऊंचा चिता जैसा धूमरहित अग्नि कास्थान है। वहां परमाधार्मिक नारक जीव को ले जाते हैं, तब नारक जीव છે, ત્યારે તે અગ્નિના તાપથી આકુળવ્યાકુળ થયેલા નારકે કરુણાના ચિકારો કરે છે. ત્યાં પરમધામિકે તેમનાં મસ્તક નીચા કરાવીને શસ્ત્ર કહે છેદી નાખે છે, અને તેઢાના હથિયારોથી તેમનાં શરીરના ટુકડે ટુકડા કરી નાખે છે. ૮ ટીકાર્થ કેઈ ઊંચી ચિતા ખડકી હોય એવું એક સ્થાન ત્યાં હોય છે. તે સ્થાનમાં નિધૂમ અગ્નિ બળતું હોય છે. જ્યારે નરકપાલે તે અગ્નિસ્થાનમાં નારકેને પટકે છે, ત્યારે અસહ્ય વેદનાથી સંતપ્ત નારકો કરૂણાજનક આકંદ કરે છે. પરમધામિકે તેમનાં મસ્તકને નીચા કરાવીને શો વડે તેમનું છેદન કરે છે તથા તેમના પ્રત્યેક અંગેને લેઢાના શ વડે છેઠને તેમના ટુકડે ટુકડા કરી નાખે છે. આ કથન દ્વારા સૂત્રકાર નારકની યાતનાઓનું વર્ણન કરે છે. તેમને વિષમ અગ્નિમાં ફેંકવામાં આવે છે. આગથી દાઝવાને કારણે અસહ્ય પીડાને स० ५२ For Private And Personal Use Only Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतागयो वाभारकजीवान् यातनया संत्रासितान् शिरोऽधः कृत्वा कर्त्तयन्ति । तथालोहशस्त्रेण तदीयदेहावयवं खण्डशः खण्डयन्तीति भावः ॥८॥ मूळम्-समूसिया तत्थ विसूणियंगा, पेक्खीहिं खजति अओमुहेहि। संजीवणी नाम चिरद्वितीया, जंसी पयों हम्मइ पांवचेया॥९॥ छाया-समुच्छ्रितास्तत्र विशूणितांगाः पक्षिभिः खाद्यन्तेऽयोमुखैः । ___ संजीवनी नाम चिरस्थितिका यस्यां प्रना हन्यन्ते पापचेतसः॥९॥ तीव्र शोक से संतप्त हो जाते हैं और करुणाजनक रुदन करते हैं। वहां पर परमाधार्मिक यातनाओं से त्रस्त उन नारक जीवों का मस्तक नीचा करके काट डालते हैं और लोहे के शस्त्रों से उनके शरीर के अवयवों को खण्ड खण्ड कर देते हैं ॥८॥ 'समूसिया' इत्यादि। शब्दार्थ-'तत्थ-तत्र' उस नरक में 'समूसिया-समूच्छ्रिताः' नीचे मुख करके लटकाए हुए 'विसूणियंगा-विशूणिताङ्गाः' तथा शरीर से चमडा उखाड लिए हुए वे नारकिजीव 'अोमुहेहि-अयोमुखैः' लोह की चंचुवाले पक्विहि-पक्षिभिः' पक्षियों के द्वारा 'खज्जतिखाद्यन्ते' खाये जाते हैं 'संजीवणी नाम-संजीवनी नाम' नरक की भूमि संजीवनी है क्यों कि मरणतुल्य कष्ट पाकर भी प्राणी उसमें मरते नहीं हैं 'चिरहिनीया-चिरस्थितिकाः' तथा उसकी आयु अधिक होती કારણે તેઓ ખૂબ જ ચિકારે કરે છે. તેમના તે ચિત્કારની પરમધામિક અસુરે પર બિલકુલ અસર થતી નથી. તેઓ તેને વધારે યાતનાઓ આપે છે. તેમના મતકને તેઓ છેદી નાખે છે અને લેઢાના તણ શસ્ત્રો વડે તેમનાં અવયના ટુકડે ટુકડા કરી નાખે છે. તે _ 'भमूखिया' त्यादि साथ-'तत्थ-तत्र' ते २४मा 'समूनिया-समुच्छिताः' नाय माटु शन ana 'विसूणियंगा-विशूणिताङ्गाः' तथा शरीरथी याम माडी सीधे ते ना6ि0 'अओमुहेहि-अयोमुखैः' ५'3नावी १२ यायवाणा 'पक्खिहिपक्षिभिः' पक्षियोना २१ 'खज्जति-खाद्यन्ते' माय छ. 'संजीवणी नाममंजीवनी नाम' न२४ी भूमी २०१नी ४ाय छे. म, तुल्य ? पामीन ५५ प्राणी मां भRai ना. म 'चिरद्वितीया-चिरस्थितिका' तना For Private And Personal Use Only Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सनार्थकोधि नी टीका प्र. श्रु. म. ५ उ.२ नारकीयवेदनानिरूपणम् ४११ अन्वयार्थः-(तत्थ) तत्र नरके (समूसिया) समुच्छ्रिता-अधोमुखीकृत्य लंबमानाः, (विमूणियंगा) विशूणितांगा अपगतस्वचो नारकाः 'अयोमुहेहि' अयोमुखैः लोहचत् कठिनमुखयुक्तैः पक्खिहि' पक्षिमिः 'खज्जति खाद्यन्ते (संजी. वणी नाम) संजीवनी नाम-यत्र मृता अपि न म्रियन्ते (चिरद्वितीया) चिरस्थितिका बहुकालस्थायिनी (जंसि) यस्यां (पावचेया) पापचेतसः पापकलुषिताः (पया) प्रजाः नैरयिकाः (हम्मइ) हन्यन्ते-मार्यन्ते इति ॥९॥ टीका-'तत्थ तत्र नरके 'समूसिया' समुच्छिताः स्तंभे ऊर्धवाहवोऽधः शिरसः कृत्वा चाण्डालादिना चर्मवत् लंबिताः । 'विमूणियंगा' विशूणितांगा:उस्कृताऽङ्गकाः निःसारितत्वचः 'अयोमुहे हिं' अओमु वः वज्रवंचुमिः काक' है 'सि-यस्मिन्' जिस नरक में 'पावचेता-पापचेतसः' पाप षित 'पया-प्रजाः' नैरयिक 'हम्मइ-हन्यन्ते' मारे जाते हैं । ___ अन्वयार्थ-नरक में नीचा मुख करके लटकते हुए ' रहित नारकजीवों को लोहे के समान कठोर चौर चींचते हैं। नरकभूमि संजीवनी है जहाँ प्राणानि नारक अकाल में मरते नहीं हैं और वहां पाप से कलुषित नारक वहां मारे जाते हैं टीकार्थ--जैसे चाण्डाल चमडे को माधार्मिक नारक जीवों को खंभे भुजाएँ ऊंची और मस्तक नीचे भायु माटी य छे. 'जंसिसुषित ‘पया-प्रजा' नै२० सूत्राथ-२४५. सट छ, पारे । માંસ ખેંચી કા” माह 43 કરવા છે For Private And Personal Use Only Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Private And Personal Use Only भ दि ९॥ और त्वचा से व वाले पक्षी खातेतक कष्ट पाते हुए भी बहुत काल तक रहते हैं । यस्मिन्' ने नरम्भ 'पावचेता- पापचेतसः' पापथी • 'हम्मइ - हन्यन्ते' भारवामां आवे छे. લા નારકની ચામડી ઉતારી લઇને તેમને ઉધે માથે સાઢાના જેવી કઠેર ચાંચવાળાં પક્ષીએ તેના શરીરમાંથી दाने यात्रा भांडे छे. तेथे तेमनां शरीरने यांय, नडेोर નાખે છે. નરકભૂમિ સજીવની છે, જ્યાં પ્રાણાન્ત કષ્ટ સહન તાં પણ નારકા અકાળે મરતાં નથી, તેઓ ઘણા દીર્ઘકાળ સુધી ત્યાં टीडार्थमेवी रीतेांडा ત રહીને પૂર્વભવેાના પાપકૃત્યેનું ફળ ભાગવ્યા કરે છે. પાપથી કલુષિત नार}ाने नरम्भां परमधार्मिो भूभार भारता रहे छे... . ॥९॥ लटका देते हैं, उसी प्रकार पर. में बांधकर लटका देते हैं । उनकी कर दिया जाता है । शरीर की चमड़ी ४१२ • मार्य 'जंसी' यस्यां संजीवन्याम् 'पावचेया' पापचेतसः पापकलुषिताः 'पया' तथा 'संजीवणी नाम रिद्वितीया' संजीवनीनाम जीवनदात्री नरकभूमिः चिरभिर्वा । ' पक्खीहि' पक्षिभिः कङ्कगृधादिभिः, 'खज्जेति' खाद्यन्ते नरकजीवास्ते । असाधुकर्मभिः परमधार्मिकः । श्रयुत्कृत्य लौह सूत्रकृताङ्गसूत्रे Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ५ उ.२ नारकीयवेदनानिरूपणम् तदेवं परमाधार्मिकैः परस्परकृतैर्वा छिन्ना भिन्नाः क्वथिता मूञ्छिनाः सन्तो वेदनासमुद्घातगता अपि ते न नियन्ते अतः कथ्यते संजीवनीवत् संजीविनी जीवनदात्री नरकभूमिः न तत्र गतः खण्डशश्निोपि म्रियते स्वायुषि सति । सा च चिरस्थितिका उत्कृष्टतः त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि यावत् यस्यां च पाप्ताः प्रजायन्ते इति प्रजाः माणिनः पापचेतसः हन्यन्ते मुद्गरादिभिः नरकानुभावाञ्च मुर्ववोपि अत्यन्तपिष्टा अपि न म्रियन्ते, अपि तु पारदवत् मिलन्ति ॥९॥ पापी जीव अपने पापों का फल भोगने के लिए नरक में चिरकाल तक रहते हैं। इस प्रकार वहां परमाधार्मिकों द्वारा कष्ट दिये जाते हैं तथा परस्पर में भी एक नारक दूसरे को कष्ट पहुँचाता है। उन कष्टों से वे छिन्न भिन्न होते हैं, पचते हैं, मूञ्छित हो जाते हैं परन्तु बेदना से अभिभूत हो जाने पर भी मरते नहीं हैं। इस कारण नरकभूमि संजीवनी या जीवनदात्री कहलाती है। वहां गया हुआ जीव खण्ड खण्ड कर देने पर भी आयु शेष होने से मरता नहीं है। वहां आयु भी हुत लम्बी-उस्कृष्ट तेतीस सागरोपम की होती है। वहां पापी प्राणी मनरादि से आहत किये जाते हैं किन्तु नरक का स्वभाव ही ऐसा है આયુષ્ય પણ ઘણું જ લાંબું હોય છે. પાપી ને પિતાનાં પાપનું ફળ ભેગવવાને માટે લાંબા સમય સુધી ત્યાં રહેવું પડે છે. પરમધામિક અસુરે દ્વારા તેમને આ પ્રકારનાં કછો તે અપાય છે, પદન્ત નારકે પોતે જ એકબીજાને પણ પીડા પહોંચાડયા કરતા હોય છે. તે કોને લીધે તેઓ છિન્નભિન્ન થઈ જાય છે. આ પ્રકારે છિન્નભિન્ન થવા છતાં. અગ્નિ પર શેકાવા છતાં, અંગના ટુકડે ટુકડા થવા છતાં તેઓ મરતાં નથી. હા, મૂર્શિત અવશ્ય થાય છે. આ કારણે નરકભૂમિને સંજીવની અથવા જીવનદાત્રી કહેવામાં આવે છે. ત્યાં ગયેલા જીવના ભલે ટુકડે ટુકડા કરી નાખવામાં આવે. પણ જ્યાં સુધી તેમનું આયુષ્ય બાકી હોય છે, ત્યાં સુધી તેઓ મરતા નથી. નારકનું આયુષ્ય ઘણું જ લાંબું–જઘન્ય દસ હજાર વર્ષનું અને અધિકમાં અધિક તેત્રીસ સાગરોપમનું હેય છે. ત્યાં પાપી અને મગદળ, દંડા આદિ વડે મારવામાં આવે છે. તેમના શરીરના રે. ચૂરા કરી નાખવામાં આવે છે, છતાં પણ તેઓ મરતા નથી મારકેને સ્વભાવ જ એ ય છે કે પ્રાણ જાય એવી વેદના સહન કરવા છતાં તેઓ For Private And Personal Use Only Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ___ अन्वयार्थ:-(जे) ये महापुरुषाः खीसेवनक टुकफलज्ञातारः (इरिथयो) स्त्रिया (ण सेवंति) न सेवन्ते (ते) ते आत्मार्थिनः (जणा) जना:-पुरुषाः (बंध. णुम्मुक्का) बंधनोन्मुक्ताः वन्धनकारणकखीसङ्गपरित्यागेन सकलबन्धनरहिताः सन्तः (जीवियं) जीवितम् असंयमजीवनम् उपलक्षणाद् बालमरणमपि च (णावकखंति) नावकाङ्क्षन्ति न वांछन्ति । किमर्थ न वाञ्छन्तीत्याह-यतः (ते) पूर्वोतस्वरूपाः (जणा) जनाः (हु) निश्चयेन (आइमोक्क्खा ) आदिमोक्षाः प्रधानमोक्षाः प्रधानत्वेन मोक्षा येषां ते तथा मोक्षगमनकामकाः सन्तीत्यर्थः, अतस्ते मोक्षाभिलाषित्वेन असंयमजीवितं बालमरणं चेतिद्वयमपि नेच्छन्तीति भावः ।। टीका-'जे' ये महापुरुषाः स्त्रीप्रसंगः कटुकविषाकः, स्त्रियः सुगतिमार्गागला: सर्वाधर्ममूलाः कपटजालसंकुलाः मदिरेव महामोहोत्पादिकाः किंबहुना खिय एवं .. अन्वयार्थ-स्त्री सेधन के कटुक विपाक के ज्ञाता जो महापुरुष स्त्रियों का सेवन नहीं करते हैं वे आस्मार्थी पुरुष बन्धन से मुक्त हो कर असंयममय जीवन की आकांक्षा नहीं करते और उपलक्षण से बालमरण की भी इच्छा नहीं करते । क्यों कि वे जगत् निवासी जन सर्व प्रथम मोक्षगामी होते हैं-मोक्षागमन के अभिलाषी होते हैं। मोक्ष के अभिलाषी होने से वे असंयम जीवन और बालमरण दोनों की ही इच्छा नहीं करते ॥९॥ टीकार्थ-जो महापुरुष यह निश्चय कर लेते हैं कि स्त्री प्रसंग कटुक फल देने वाला है, स्त्रियां सुगति के मार्ग में अर्गला के समान है, समस्त अधर्म का मूल हैं कपट जाल से युक्त होती हैं, मदिरा के समान महामोह को उत्पन्न करनेवाली है, अधिक 1 અન્વયાર્થી સેવનના કડવા વિપાકને જાણવાવાળા જે મહાપુરૂષ સિનું સેવન કરતા નથી. એવા તે આત્માર્થી પુરૂષ બંધનથી મુક્ત થઈને અસંયમ મય જીવનની આકાંક્ષા કરતા નથી. અને ઉપલક્ષણથી બાલમરણની પણ ઈચ્છા કરતા નથી કેમકે તેઓ જગત્ નિવાસી પુરૂષ સૌથી પહેલાં મોક્ષ ગામી થાય છે. અર્થાત્ મેક્ષ ગમનના અભિલાષી હોય છે. મોક્ષના અભિલાષી હોવાથી તે અસંયમ જીવન અને બ લ મરણ બનેની ઈચ્છા કરતા નથી. જે ટીકાર્યું–જે મહાપુરૂષ એ નિશ્ચય કરી લે છે કે –સ્ત્રી પ્રસંગ કડવા ફળ આપનાર છે, યેિ સુગતિના માર્ગમાં ભેગળ જેવી છે, સઘળા અધમેનું મૂળ છે. કપટ ઝાળથી યુક્ત હોય છે. મદિરાની જેમ મહાહને For Private And Personal Use Only Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जणा' जनाः क्षन्तीत्याहयता नावकखंति' नाजाविय' जीवित असताः समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १५ आदानीयस्वरूपनिरूपणम् ५१५ सर्वपरिग्रहहेतवः इति निश्चित्य 'इथिओ' स्त्रीः ‘ण सेवंति' न सेवन्ते 'ते' ते इत्यम्भूता आत्मार्थिनः (जणा) जना:-महापुरुषाः 'बंधणुम्मुक्का' बन्धनोन्मुक्ताः स्त्रीजालबन्धरहिततया सकलबंधनरहिताः सन्तः 'जीवियं' जीवितं असंयमजीवितम् उपलक्षणात् बालमरणमपि च 'नावखंति' नाऽवकांक्षन्ति किमर्थ जीवितं मरणं च नावकाङ्क्षन्तीत्याह-यतः 'हु' निश्चयेन 'ते' ते-त्रीसंगवर्नकाः 'जणा' जनाः 'आइमोक्खा' आदिमोक्षाः अत्र आदिशब्दः प्रधानार्थकस्तेन आदि प्रधानम् अन्यपुरुषार्थापेक्षया मोक्षः अशेषकर्मक्षयात्मको येषां ते आदिमोक्षा, प्रधानभूतमोक्षाख्यपुरुषार्थोद्यताः अतएव ते जीवितं मरणंच नाव काङ्क्षन्तीति भावः ॥९॥ मूलम्-जीवियं पिटुंओ किंचा अंतं पावंति कम्मुणं । कम्मुणा संमुही भूया जे मंग्ग मणुसासई ॥१०॥ छाया--जीवितं पृष्ठतः कृत्वा अन्तं प्राप्नुवन्ति कर्मणाम् । कर्मणा संमुखी भूता ये मार्गमनुशासति ॥१०॥ क्या, स्त्रियां ही समस्त परिग्रह का कारण हैं, वे स्त्रियों का सेवन नहीं करते हैं। ऐसे आत्मार्थी जन स्त्री के जाल से छुटकारा पाकर समस्त बन्धनों से मुक्त हो जाते हैं । वे न असंघम जीवन की इच्छा करते हैं और न घालमणकी । वे क्यों जीवन मरण की इच्छा नहीं करते? इसका उत्तर यह है कि स्त्री प्रसंग के त्यागी वे जगत् वासी जन आदिमोक्ष होते हैं। अर्थात् सर्व प्रथम मोक्षगामी होते हैं। इसी कारण जीवन मरण की इच्छा नहीं करते ॥९॥ ઉત્પન્ન કરવાવાળી છે. વધારે શું કહેવાય? ઢિયે જ સઘળા પરિગ્રહનું કારણ છે, તે પ્રિયાનું સેવન કરતા નથી. એવા આત્માર્થી જન સ્ત્રીની જાળથી છૂટકાર પામીને સઘળા બંધનોથી મુક્ત થઈ જાય છે. તેઓ અસં. યમી જીવનની ઈચ્છા કરતા નથી, તેમજ બાલમરણની પણ ઈચ્છા કરતા નથી. તેઓ જીવન મરણની ઈચ્છા કેમ કરતા નથી? એને ઉત્તર એ છે કે- આ પ્રસંગને ત્યાગ કરવા વાળા તેઓ જગમાં રહેનારાએ આદિ મિક્ષ હોય છે. અર્થાત્ સર્વ પ્રથમ મોક્ષગામી હોય છે. એ જ કારણે જીવન મરણની ઈચ્છા કરતા નથી. છેલ્લા For Private And Personal Use Only Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनः कुर्वन्ति । वशगतो वन्यजीवमृगादिरिव स्वातन्त्र्येण लब्धं नारकजीवं नरकपानातीक्ष्णरालादिभिर्विदारयन्ति । बाह्याभ्यन्तरोभयरूपेण एकान्ततो दुःखिता. स्ते नारकजीका सकरुणं तत्र नरकावासे रुदन्ति इति ॥१०॥ मलम्-सया जैलंनाम निहं महंतं, जैसी जलंतो अगणी अकंट्रो। चिट्ठति बद्धो बहुकूरकम्मा अरहस्सरा केइ चिरहितीया॥११॥ छाया-सदा ज्वलन् नाम निहं महाच यस्मिन् ज्वलन्नग्निरकाष्ठः । तिष्ठन्ति बद्धा बहुक्रूरकर्माणः अरहः स्वराः केऽपि चिरस्थितिकाः ॥११॥ ___ आशय यह है कि वश में पडे हुए जंगली पशु मृग आदि के समान पाए हुए नारक को परमाधार्मिक तीक्ष्ण शलों से विदारण करते हैं। वे बाह्य और आभ्यन्तर-दोनों प्रकार से एकान्तरूप से दुखी होते है और करुण आक्रन्दन करते हैं ॥१०॥ 'सया जलं' इत्यादि । .. शब्दार्थ-'सया-सदा सर्वकाल 'जलंनाम-ज्वलनाम' अत्यन्त उणस्थान है वह स्थान 'निहं-निहम्' प्राणियों का घातस्थान है 'जसियस्मिन् जिसमें 'अकटो-अकाष्ठः काष्ठ के विना ही 'जलंतो अगणीज्वलन् अग्निा' अग्नि जलती रहती है 'बहुकम्मा-बहुक्ररकर्माणः' जिन्होंने पूर्वजन्म में बहुतकर कर्म किये हैं 'चिरहितीया-चिरस्थितिकाः' तथा जो उस नरक में चिरकाल तक निवास करने वाले हैं 'बद्धा-बद्धाः' આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે પરમધામિક નારની સાથે ઘણે જ દૂર વાત કરે છે. તેઓ તેમના અંગે માં શૂલે ભેંકી દઈને તેમને ખૂબ જ વ્યથા પહોંચાડે છે. નારકે ત્યાં બાહ્ય અને આન્તરિક સંતાપને અનુભવ કરે છે. ત્યાં તેમને સતત દુઃખ જ અનુભવવું પડે છે. અસહ્ય દુઃખને લીધે તેઓ २९मा ४रे छे. ॥१०॥ 'सयाजलं' याt शा-'सया-सदा' सवा 'जलंगाम- ज्वलन्नाम' सत्यत तापाणु स्थान ते स्थान 'निहं-निहम्' प्राणियोनु घातस्थान छ 'जंसि-यस्मिन्' 'अकटो-अकाष्ठः' मात विना 'जलंतो आगणी-ज्वलन अग्निः' मकिन Rail २ छ 'बहुकूरकम्मा-बहुक्रूरकर्माणः' भणे पूर्वममा म ४२ ४म' या छ 'चिरद्वितिया-चिरस्थितिकाः' तथा २ ते न२७i ain सुधी - For Private And Personal Use Only Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र, शु. म. ५ उ. २ नारकीयवेदनानिरूपणम् ....१७: ' अन्वयार्थ:-(सया) सदा-सर्वकाल (जलं नाम) ज्वलन्नाम स्थानमस्ति 'महंत' महत् 'निह' निहं-पाणिघातस्थानं (जसि) यस्मिन् निहे (अकट्ठो) अकाष्ठः काष्ठमन्तरेणैव (जलंतो) ज्वलन्-देदीप्यमानः (अगणी) अग्नि स्तिष्ठति (केइ) केऽपि (बहु कूरकम्मा) बहु क्रूरकर्माणः (चिरद्वितीया) चिरस्थितिकाः-प्रभूतकालं तत्र वासं कुर्वाणाः तत्र नरके (बद्धा) बद्धाः (अरहस्सरा) अरहःस्वरा 'उच्चस्वरेण अव्यक्तदीनस्वरमुच्चारयन्तः (विट्ठति) तिष्ठन्तीति ॥११॥ ___टीका-'सया' सदा-सर्वदा 'जलं नाम' बलन् अतिशयेन दीप्यमानम् अत्युष्णस्थानमस्ति, तत्स्थानम् , न अल्पम् अपि तु 'महंत' महत्-अतिशयेनोन्नतमस्ति तत् स्थानम् । 'निह' निहं-निहन्यन्ते प्रागिनः कर्मवशाद यस्मिन तनिहम् आघातस्थानं नारकजीवानां माणिनाम् नरकस्थानमित्यर्थः, 'जंसी' यस्मिन् स्थाने 'अगणी अकटो' अग्निरकाष्ठ:-काष्ठादीन्धनमन्तरेणैवाऽग्निः 'जलंतो' ज्वलन-देदीप्यमानः उष्णरूपस्वाद , विनैव काष्ठं यत्राऽग्निः प्रज्वलति, तत्राऽग्नौ । उस नरक में बांधे हुए वे 'अरहस्सरा-अरहस्वराः' दीन चिल्लाते हुए 'चिट्ठति-तिष्ठन्ति रहते हैं ॥११॥ ___ अन्वयार्थ-सदैव जलता हुआ एक घडा प्राणियों के घात का स्थान है। उस स्थान में काष्ठों के विना ही अग्नि जलती रहती है। क्रूरकर्मा और दीर्घकालीन स्थिति वाले नारक बहुत समय तक वहां बांध दिये जाते हैं और वे ऊंचे स्वर से आक्रन्दन करते हैं ॥११॥ ___टोकार्थ-सदा देदीप्यमान एक अत्यन्त उष्ण स्थान है। वह स्थान छोटा नहीं, बहुत बडा है। वह कर्म के वशीभूत प्राणियों के घात का स्थान है । उस स्थान में काष्ठ आदि ईधन के विना ही सदा निवास ४२पापामा छ 'बद्धा-बद्धाः' ते न२४i Hit तसा 'अरहसरा-अरहःस्वराः' दीन-यापात्र-शुभ पातi 'चिटुंति-तिष्ठन्ति' २७ छ. ॥११॥ .... સૂત્રાર્થ–નરકે માં નારકેને ઘાત કરવા માટે એક ઘણું જ વિશાળ સ્થાન છે. તે સદા પ્રજવલિત રહે છે. તે સ્થાનમાં કાષ્ઠ નાખ્યા વિના જ અગ્નિ પ્રજવલિત રહે છે ફૂરકમ અને દીર્ઘકાલીન આયુરિથતિવાળા નારકેને તે સ્થાનમાં લાંબા સમય સુધી બાંધી રાખવામાં આવે છે. ખૂબ જ ઉષ્ણુતાથી અકળાવાને કારણે તેઓ કરુણ આકંદ કર્યા કરે છે. ૧૧ : " ટીકર્થ–ત્યાં સદા આગથી દેદીપ્યમાન એક ઉણુ સ્થાન છે. તે સ્થાન ઘણું જ મેટું છે. તે સ્થાનમાં કાષ્ઠ આદિ ઈધન વિના જ અગ્નિ સદા પ્રજવલિત રહે છે. પ્રાણાતિપાત આદિ પાપકર્મ કરનારા જેનું તે ઘાત स० ५३ For Private And Personal Use Only Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतास्त्र 'बहु कूरकम्मा' बहु क्रूरकर्माणो नारकाः, ये पूर्वजन्मनि अनेकमाणातिपातादिरूपकुत्सित कर्म कृतवन्तः ते इत्थंभूताः । तथा 'चिरद्वितीया' चिरस्थितिकाः चिरकालपर्यन्तस्थायिनः 'बद्धा' बद्धाः सन्तः 'अरहस्सरा' अरहःस्वराः-अव्यक्त माकन्दनस्वरवन्तः 'चिट्ठति' तिष्ठन्ति-ताशाकाष्ठमज्वलिताऽग्निनरकस्थाने वसन्ति । एकं तथाविधं प्राणिनां घातस्थानमस्ति, यत् सर्वदैव निरिन्धनेनाऽपि पसिना ज्वलितं भवति। तथाविधनरकावासे ते पापिनीवा बद्धा भवन्ति पापकर्मणां फलोपभोगाय । तत्र बद्धास्ते जीवाः पापकर्माणः तत्र चिरं निवसन्ति, सा वेदनया निरन्तरं दुःखिताः सन्तः सकरुणं रुदन्त आसते ॥११॥ अग्नि जलती रहती है। उस स्थान में उन नारक जीवों को बांध दिया जाता है जो अत्यन्त क्रूर कर्म करनेवाले हैं अर्थात् जिन्होंने पूर्वजन्म में प्राणातिपात आदि कुत्सित कृत्य किये हैं और जो चिर. काल तक नरक में रहने वाले हैं । जब उन नारकों को उस स्थान में बांध दिये जाते हैं तो वे बहुत जोर से रुदन करते रहते हैं। अभिप्राय यह है कि नरक में प्राणियों के घात का एक स्थान है। वह स्थान विना ईधन की अग्नि से सदैव जलता रहता है। उस नरकावास रूप स्थान में उन पापी जीवों को बांध दिये जाते हैं जिससे थे. अपने पापकर्मों का पूरा फल भोग सके । वे पापी वहां लम्बे समय तक बांधे रहते हैं तथा वेदना के कारण निरन्तर दुःखी होकर दीनता पूर्ण रुदन करते रहते हैं ॥११॥ સ્થાન છે. જેમણે પ્રાણાતિપાત આદિ અત્યન્ત કુકર્મોનું પૂર્વભવમાં સેવન કર્યા હોય છે એવાં નારકાને ત્યાં બાંધી દેવામાં આવે છે. ત્યારે તેમનો આર્યકાળ ઘણે જ લાંબો હોય છે. જ્યારે તેમને તે ઉણ સ્થાનમાં બાંધવામાં આવે છે, ત્યારે તેઓ કરુણાજનક ચિત્કાર અને રુદન કરે છે. આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે નરકમાં પ્રાણીઓને વધ કરવાનું એક સ્થાન છે. તે સ્થાન કાષ્ઠાદિ વિનાના અગ્નિથી સદા પ્રજવલિત રહે છે. તે નરકાવાસ રૂપે સ્થાનમાં તે પાપી ને બધી દેવામાં આવે છે. તેઓ તેમના પૂર્વભવેનાં પાપકર્મોનું ફળ ત્યાં જોગવ્યા કરે છે. જ્યાં સુધી તેઓ તેમનાં પાપકર્મોનું ફળ પૂરેપૂરું ભેગવી લેતા નથી, ત્યાં સુધી તેમને ત્યાં જ બાંધી રાખવામાં આવે છે. ઘણા લાંબા સમય સુધી તે ઉણ સ્થાનમાં બંધાયેલા રહેવાને કારણે તેમને એટલી બધી વેદના થાય છે કે તેઓ નિરતર દીનતાપૂર્ણ રુદન કર્યા કરે છે. ૧૧ For Private And Personal Use Only Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्र. अ. ५ उ. २ नारकीयवेदनानिरूपणम् १९ मूलम्-चिया महतीउ समारभित्ता, छुम्भंति ते तं कलुणं रसंतं। आवट्टती तत्थ असाहुकम्मा, संप्पी जहा पंडियंजोई मज्॥१२॥ छाया-चिता महतीः समारभ्य क्षिपन्ति ते तं करुण रसन्तम् । आवर्तते तत्र असाधुकर्मा सर्पिर्यथा पतितं ज्योतिर्मध्ये ॥१२॥ अन्वयार्थः-(ते) ते-परमाधार्मिका: (महंती उ) महतीः (चिया) चिताः (समारभित्ता) समारभ्य-संपाय (कलुणं रसंत) करुणं सकरुणं यथा स्यात् तथा रसन्तं क्रन्दनं कुर्वन्तं (छुम्भंति) क्षिपन्ति प्रक्षिपन्तीत्यर्थः (तत्थ) तत्र-तस्यां चितायां (असाहुकम्मा) असाधुकर्मा पापीजीवः (आवदृती) आवर्तते द्रवीभवति (जहा) यथा (जोइमज्झे) ज्योतिर्मध्ये वहौ (पडिय) पतितं (सप्पी) सपि तम् द्रवीभवति तद्वदिति ॥१२॥ 'चिया' इत्यादि। शब्दार्थ-ते-ते' वे परमाधामिक 'महंती उ-महती: बडी 'चियाचिताः' चिता को 'समारभित्ता-समारभ्य' बनाकर 'कलुणं-करुणम्' करुण 'रसंत-रसन्तम्' रुदन करते हुए नारकिजीव को 'छुन्भतिक्षिपन्ति' फेंक देते हैं 'तत्थ-तत्र' उसमें 'असाहुकम्मा-प्रसाधुकर्मा' पापी जीव 'आवडती-आवर्तते' द्रवीभूत हो जाते हैं जहा-यथा' जैसे 'जोहमज्झे-ज्योतिर्मध्ये' अग्नि में 'पडियं-पतितं' पडा हुआ 'सप्पी-सर्षिः घी पिघल जाता है ॥१२॥ ___ अन्वयार्थ-परमाधार्मिक बडी बडी चिताएँ बनाकर करुण क्रन्दन करते हुए नारकों को उनमें झोंक देते हैं । उस चिता में पड़ा हुआ 'चिया' त्याह Avat:-'ते-' ते ५२भाषामिडी 'महंतीउ-महतीः' माटी 'चिया-चिताः' यिता माने 'समारभित्ता-समारभ्य' मनावाने 'कलुण-करुणम्' ४३९ 'रसंत-रसन्तम्' २४न ४२ता न॥२६ ने 'छुब्भंति-क्षिपन्ति' ३४ हे छे. 'तत्थ-तत्र' मा 'असाहुकम्मा- असाधुकर्मा' पायी ७५ 'आवट्टती-आवर्त' द्रवीभूत थ६ लय छ 'जहा-यथा' रे 'जोइमज्झे-ज्योतिर्मध्ये' AGनमा 'पडियं-पतितं' ५3 'सप्पी सपिः' ही मागणी anय छे. ॥१२॥ સૂવાથ–પરમધામિકે મોટી મોટી ચિતાઓ પ્રજવલિત કરે છે. અને કરુણ આક્રંદ કરતાં નારકેને તેમાં ફેંકી દે છે જેવી રીતે અગ્નિમાં પડેલું For Private And Personal Use Only Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir . ४२० " सूत्रकृताङ्गसूत्रे टीका-'ते' ते परमाधार्मिकाः 'महंतीउ' महतीः 'चिया' चिताः। 'समारभित्ता' समारभ्यः सम्यक् संपाद्य 'कल' करुणम् 'रसंत' शब्दायमानम् , तं पापिजीवम् । 'छुन्भंति' क्षिपन्ति, तादृशचितायां तं नारकिनीवं समाक्षिपन्ति। स च-'असाहुकम्मा' असाधुकर्मा . पापिजीवः 'आवती' आवतं ते, चितायां परमाधार्मिकैर्यदा प्रक्षिप्यते तदा तन्मध्यपतितः सन् द्रवीभवति 'जहा' यथा 'जोहमज्झे' ज्योतिर्मध्ये 'पडियं' पतितम् । 'सप्पी' सर्पिः घृतादिकम् , द्रवीभवति, तथैव तादृशचितामध्ये पतितः पापी द्रवीभूतो भवति । परमाऽधार्मिकाः चितां महती निर्माय तन्मध्ये रुदन्तमपि नारकिजीवं क्षिपन्ति । क्षेपणानन्तरं ते अग्नौ पतितं घृतमिव द्रवीभवन्ति । द्रवीभूता अपि वह पापी जीव उसी प्रकार पिघल जाता है, जिस प्रकार अग्नि में पडा हुआ घृत पिघल जाता है ।।१२।। टीकार्थ-वे परमाधार्मिक महती चिताएँ बनाकर करुणोत्पादक रुदन करते हुए पापी जीव को उस चिता में फेंक देते हैं । जव परमाधार्मिक नारक को चिता में फेंकते हैं तो उसमें पडकर वह पिघल जाता है, जैसे आग में डाला हुआ घी पिघल जाता है। आशय यह है-परमाधार्मिक बडी सी चिता का निर्माण करके रुदन करते हुए नारक को उसमें झोंक देते हैं । अग्नि में पडकर वह घृत की भांति पिघल जाता है । मगर पिघल जाने पर भी वे मरते नहीं, वरन् पूर्वकृत कर्म का फल भोगने के लिये जीवित ही रहते हैं। ઘી પીગળી જાય છે. એ જ પ્રમાણે તે ચિતાઓમાં ફેંકવામાં આવેલાં નાર કેના શરીર પીગળી જાય છે. ૧રા ટકાથ–પરમાધાર્મિક અસુરે મેટી મોટી ચિતાઓ પ્રકટાવીને, કરૂણા જનક રુદન કરતાં તે નારકોને તેમાં ફેંકી દે છે. તે ચિતામાં ફેકાયેલા નારકની દશા અગ્નિમાં હામેલા ઘી જેવી થાય છે. તેઓ તે અગ્નિમાં ઘીની જેમ પીગળી જાય છે-બળીને ભસ્મ થઈ જાય છે આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે પરમધામિકે મોટી મોટી ચિતાઓને નિર્માણ કરીને તે પાપી જીને તે ચિતાઓમાં ફેંકી દે છે. પ્રજવલિત આભમાં કાયેલા તે નારકનાં શરીર બળી જવાથી તેમને અસહ્ય પીડા થાય છે, તે કારણે તેઓ કરૂણાજનક ચિત્કાર કરે છે. જેમ અગ્નિમાં હેમાચેય ધી પીગળી જાય છે, એ જ પ્રમાણે તેમનાં શરીરે પણ તે અગ્નિમાં પીગળી જાય છે, છતાં પણ તેઓ મરતાં નથી. પૂર્વકૃત કર્મોનું ફળ પૂરેપૂરું For Private And Personal Use Only Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ५ उ. २ नारकीयवेदनानिरूपणम् न म्रियन्ते, अपि तु जीवन्त्येव पूर्वोपार्जितकर्मफलोपभोगाय । यथा-पारदं पतितमपि विकी गितं भवदपि पुनरेकत्रीभूय स्थूलतां विभर्ति तथा तदीयं शरीरं द्रुतमपि पुनः फलोपभोगाय संधातभावमापद्यते । पूर्ववत् सनातदेहः पापफलं भुङ्क्ते इति ॥१२॥ मूळम्-सया कसिणं पुण घम्मट्ठाणं, गाढोवणीयं अइंदुक्खधम्म। · हत्थेहि पाएहिं य बंधिऊगं, सत्तव्य डंडेहि समारभति॥१३॥ छाया-सदा कृत्स्नं पुनर्घर्मस्थानं गाढोपनीतमतिदुःखधर्मम् । हस्तेषु पादेषु च बद्धा शत्रुमिव दण्डैः समारमन्ते ॥१३॥ अन्वयार्थ :-(सया) सदा--सर्वकालं (कसिणं) कृत्स्नं संपूर्णम् (घम्मट्ठाणं) धर्मस्थानमुष्णस्थानपस्ति तत् (गाढोवणीय) गाढोपनीतं-निधत्तनिकाचितकर्मभिः जैसे पारा विखर जाने पर भी फिर मिल जाता है और स्थूल रूप बन जाता है, उसी प्रकार नारक का शरीर पिघल जाने पर भी अपने कर्मी को भोगने के लिये पुनः समुदित हो जाता है। नारक जीव पहले के समान होकर पुनः पाप के फल को भोगता है ॥१२॥ 'सया' इत्यादि। शब्दार्थ-'सया-सदा सर्वकाल 'कसिणं-कृत्स्नं' सम्पूर्ण 'घम्म द्वाणं-धर्मस्थानम्' उष्ण स्थान होता है वह स्थान 'गाढोवणीयं-गाढोपनीतम्' निधत्त, निकाचिन आदि कर्मों से प्राप्त होता है 'अदुक्ख. धम्म-अतिदुःख धर्मम्' अत्यन्त दुःख देना जिनका स्वभाव है 'तत्थ-तत्र' उस स्थान में 'हत्थेहिं पाहिं बंधिऊणं-हस्तेषु पादेषु बद्ध्वा' करचरण ભગવાને માટે તેઓ જીવિત રહે છે. જેવી રીતે નીચે વિખરાયેલે પાર ફરી ભેગે થઈને સ્કૂલ બની જાય છે, એ જ પ્રમાણે અગ્નિમાં પીગળી ગયેલાં નારકોનાં શરીર પણ, તેમના પૂર્વભવનાં પાપનું વેદન કરવા માટે ફરી સમદિત થઈ જાય છે, અને નારકે પહેલાંના જેવાં જ શરીરેથી યુક્ત થઈને પૂર્વકૃત પાપકર્મોનાં ફળ ભેગવ્યા કરે છે. ૧૨ા _ 'सया:' त्यादि Avt--- 'सया-सदा' सार 'कसिणं-कृत्स्नं' सपृ 'धम्मदाणंधर्मस्थानम्' गरम स्थान हाय छे ते स्थान 'गाढोवणीयं-गाढोपनीतम्' निधत्त, नायित कोरे ४थी प्राप्त थाय छे. 'अइदुक्वधम्म-अतिदुःखधर्मम्' अत्यात म हे मे रेन वा छे 'तत्थ-तत्र' ते स्थानमा 'हत्थेहिं पापहि For Private And Personal Use Only Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४२२ सूत्रकृतात्रे प्राप्तं भवति (अइदुक्खधम्म) अतिदुःखधर्मम्-अतिदुःखस्वभावम् (तत्थ) तत्रतस्मिन् स्थाने (हत्थेहिं पाएहिं बंधिऊणं) हस्तेषु पादेषु च वन्धयित्वा (सत्तुम्ब) शत्रुमिव (दंडेहि) दण्डैदण्डद्वारा परमाधार्मिकाः तान् नारकजीवान् (समारमंति) समारभन्ते-ताडयन्तीति ॥१३॥ ___टीका-सया' सदा-सर्वकालम् ‘कसिणं' कृत्स्न-संपूर्णम् ‘घम्मट्ठाणं' धर्मस्थानम् सदोष्णस्वभावम् । 'गाढोवणीयं' गाढोपनीतम् , यत्स्थानं निधत्तनिकाचितकर्मभिरुपनीतं भवति नारकाणाम् 'अइदुक्खधम्म' अतिदुःखधर्मम् , अत्यन्तं दुःखस्वरूपः धर्मः स्वभावो यस्य तत् तादृशं सर्वदैव दुःखजनकस्वभावम् । तादृशनरके परमाधार्मिकः तं 'हत्थेहिं पाएहि य वैधिऊण' इस्तेषु पादेषु च बद्ध्वा 'सत्तुम' को बांधकर 'सत्तुब्ध-शत्रुमिव' शत्रु के जैसा 'दंडेहि-दण्डैः' दण्डों के द्वारा परमाधार्मिक 'समारभति-समारभन्ते' ताडन करते हैं ॥१३॥ अन्वयार्थ-नरकभूमि में एक धर्मस्थान अर्थात् उष्णस्थान है जो सदैव और सम्पूर्ण उष्ण ही बना रहता है । माढे पापकर्म करने वाले वहां जाते हैं। वह अत्यन्त दुःख देने का स्वभाव वाला है। वहां परमाधार्मिक नारकों के हाथ पैर बांधकर उन्हें शत्रु के समान ताडना करते हैं ॥१३॥ टीकार्थ-सदा और सम्पूर्णरूप से उष्ण रहने वाला एक उष्ण स्थान नरक में है। वहां निधत्त-निकाचित पापकर्म करनेवाले नारक हो जाते हैं । वह स्थान अत्यन्त ही दुःख देने वाला है। उस नरक में परमाधार्मिक नारकों के हाथ और पा घाँध देते हैं और डण्डों से ऐसी ताडना करते हैं जैसे वे उनके शत्रु हों। बंधिऊणं-हस्तेषु पादेषु च बद्ध्या' ४२५२६ने बाधीन 'सतुव्व-शत्रुभिव' शत्रुनारेम 'दंडेहि-दण्डैः' मा द्वा२॥ ५२मायामि' 'समारभति-समारभन्ते' भारे .1१31 સુત્રાર્થ-નકભૂમિમાં એક ઘર્મસ્થાન એટલે કે ઉષ્ણસ્થાન છે, જે સદા સંપૂર્ણ ઉષ્ણુ જ રહે છે. નિધત્ત નિકાચિત પાપકર્મો કરનારા છે ત્યાં જાય છે. તે સ્થાન અત્યન્ત દુઃખદાયક છે. ત્યાં પરમધામિ કે નારકના હાથ, પગ બાંધીને તેમને શત્રુની જેમ માર મારે છે. ૧૩ ટીકાથે-તે નરકભૂમિમાં સદા સંપૂર્ણ રૂપે ઉષ્ણ રહેતું એક ઉણું સ્થાન છે. નિધત્ત-નિકાચિત પાપકર્મ કરનારા જે જ ત્યાં નારક રૂપે ઉત્પન્ન થાય છે. તે સ્થાનમાં ઉતપન્ન થયેલા નારકાને અત્યન્ત દુઃખ સહન કરવું પડે છે. ત્યાં પરમધામિક નારકેના હાથપગ બાંધીને તેમને દંડા જાદિ વડે એવા તે મારે છે કે જાણે તેઓ તેમના દમ હોય. For Private And Personal Use Only Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. भ. ५ उ.२ नारकीयवेदनानिरूपणम् शभुमिक, यथाऽस्य नारकाः शत्रवो भवेयुस्तथा कृत्वा ते 'दंडेहि' दण्डैः । 'समार• मंति' समारभन्ते-ताडयन्ति । सर्वदैव देदीप्यमानमेकं स्थानम् , निधत्तनिकाचितकर्मभिरुपनीतं भवति तेषां नारकजीवानाम् , तथा समावत एव तत्स्थानमतीबदुःखजनकम् । तस्मिन् हस्तौ पादौ च बन्धयित्वा शत्रुमिव नरकपाला नारकिणं प्रक्षिपन्तीति ॥१३॥ मूलम्-भंजंति बालस्स वहेणं पुटी सीसपि भिंदति अओघोहि। से भिन्नदेहा फैलगं व तच्छा तत्ताहिं आराहिं णियोजयंति॥१४॥ छाया-भञ्जन्ति बालस्य व्यथेन पृष्टिं शीर्षमपि भिन्दन्त्ययोधनः । ते भिन्नदेहाः फलकमिव तष्टास्तप्ताभिराराभिनियोज्यन्ते ॥१४॥ आशय यह है कि सर्वदा देदीप्यमान एक स्थान है । निधत्त और निकाचित पापकर्म करने वालों को वह स्थान प्राप्त होता है । स्वभाव से ही वह स्थान नारकियों को घोर पीडा पहुँचाने वाला है। वहाँ उनके हाथ और पग बांध दिये जाते हैं और ऐसी ताड़ना की जाती है, मानो वे नारक परमोधार्मिकों के वैरी हों ॥१३॥ "भंजति' इत्यादि। शब्दार्थ- 'बालस्स-यालस्य' विवेकरहित नारक जीव की 'पुट्ठी पृष्टिम्' पृष्ठभाग 'वहेण-व्यथेन दंडों के प्रहार से 'भंति-भञ्जन्ति' तोड देते हैं तथा 'अयोधणेहि-अयोधनः' लोह के घनों से 'सीसंपि-शीर्ष. ममि' उनका मस्तक भी 'भिंदंति-भिन्द्दन्ति' तोड देते हैं 'भिन्नदेहाभिप्रदेहाः' जिनके अङ्ग चूर्ण कर दिये गये हैं ऐसे 'ते-ते' वे नारकि તાત્પર્ય એ છે કે નરઠભૂમિમાં સર્વદા દેદીપ્યમાન એક સ્થાન છે. તે સ્થાન ખૂબ જ ઉષ્ણ હોય છે. નિધત્ત અને નિકાચિત પાપકર્મો કરનારને તે સ્થાનમાં નારક રૂપે ઉત્પન્ન થવું પડે છે. નારકને ઘોર પીડા પહોંચાડવાને તે સ્થાનને સ્વભાવ છે. ત્યાં નારકની સાથે પરમધામિકેને વર્તાવ શત્રુના જે હોય છે. તેઓ તેમના હાથપગ બાંધીને તેમના પર દંડા આદિના प्रडारे। ४३ छे. ॥१॥ 'भंजंति' त्या शा- 'बालस्स-घालस्य' विवे२हित ना२४ सपना 'पुढी-पृष्ठिम्: पाWIL HIम 'वहेण-व्यथेन' ४थी भारीने 'भंजंति-भञ्जन्ति' ती छ तथा 'अयोधणेहि-अयोधनैः' 1431 पोथी 'सीसपि-शीर्षमपि' तमनुः भरत ५५ 'भिंदति-भिन्दन्ति' ती हे छ, 'भिन्नदेहा-भिन्नदेहाः' मना म For Private And Personal Use Only Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४२४. सूत्रकृताङ्गसूत्रे .. अन्वयार्थ:-(बालस्स) बालस्य-अज्ञानिनः (पुट्ठी) पृष्टिं (वहेण) व्यथेन लकुटादिप्रहारेण (भंजंति) भञ्जन्ति त्रोटयन्ति (अयोधणेहि) अयोधनः-लोहघन (सीसंपि) शीर्ष मपि-मस्तकमपि (मिदंति) भिन्दन्ति चूर्णयन्ति (भिन्नदेहा) मिनदेहार्णिताः (ते) ते नारकाः (तत्ताहिं आराहिं) तप्ताभिराराभिः (फलगं व तच्छा) फलकमिव तष्टाः काष्ठखण्ड मिव तनकताः (नियोजयति) नियोज्यन्ते-तप्तत्रपुपानादिकर्मणि व्यापार्यन्ते इति ॥१४॥ टीका-'बालस्स' बालस्य-अविवेकिनः 'पुट्ठी' पृष्टिम् शरीरपृष्ठभागम् 'वहेण' व्यथेन, दण्डादिप्रहारेण 'मंति' भअन्ति-त्रोटयन्ति परमाधामिकाः। जीवों को 'तत्ताहिं आराहि-तप्ताभिराराभिः' तपे हुए आरों के द्वारा 'फलग व तच्छा-फलकमिव तष्टा' काष्ठ के टुकडे के जैसे छीलकर पतले किये हुए नारकों को 'णियोजयंति-नियोज्यन्ते' उष्ण सीसे के पीने के लिये प्रवृत्त किये जाते हैं ॥१४॥ __ अन्वयार्थ लकडी आदि के प्रहार से अज्ञानी नारकों की पीठ तोड दी जाती है। लोहमय घनों से मस्तक चूर्ण कर दिया जाता है। छिन्न भिम देहवाले उन नारकों को आरों से काष्ठ के पटिये के समान छीलकर पतले किये जाते हैं और तपे हुए शीसे को पीने के लिये विवश किये जाते हैं ॥१४॥ टीकार्थ-परमाधार्मिक उन अविवेकी नारकों के पृष्ठभाग को दण्डप्रहार से भग्न कर देते हैं, लोहे के मुद्गरों का प्रहार करके उनके यूलित ४२ घेत छ, मेवा 'ते. तान्' ते ना२६ वने तत्ताहि आराहितप्ताभिराराभिः' तपेट मारोना द्वारा 'फलगंव तच्छा-फलकमिव तष्टाः' साना ४ानी २ छ।बी२ पाता ४२ नारने 'णियोजयंति-नियोज्यन्ते' परम સીસુ પીવા માટે પ્રવૃત્ત કરવામાં આવે છે ૧૪ - સૂત્રાર્થ–પરમધામિકે લાકડી આદિના પ્રહાર વડે અજ્ઞાન નારકોની. પીઠ તોડી નાખે છે અને લેઢાનાં મગદળે વડે તેમનાં મસ્તકના ચૂરે શૂરા કરી નાખે છે. છિન્નભિન્ન શરીરવાળા નાનાં શરીરને તેઓ લાકડાના પાટિ. યાની જેમ છોલીને પાતળા કરે છે અને પીગાળેલા સીસાને ઉષ્ણ રસ તેમને બળજબરીથી પિવરાવવામાં આવે છે. ૧૪ ટીકાWતે નારકની પીઠ પર દંડા મારી મારીને તેને તેડી નાખવામાં આવે છે તથા લેઢાનાં મગદળ, ગદા આદિના પ્રહાર કરી કરીને તેમના For Private And Personal Use Only Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. शु. अ. ५ उ. २ नारकीय वेदनानिरूपणम् ४२५. 'अओघणेहि ' अयोघनैः - लोहनिर्मितमुद्गरे' 'सीसंपि' शीर्षमपि 'भिदति' भिन्दन्ति चूर्णयन्ति, पृष्ठ शिरसोर्भञ्जनात् 'भिन्नदेहा' भिन्नदेहाः विदारितदेहाः सन्तस्ते नारकाः ' तत्तादि' तप्ताभिः अग्नौ प्रज्वालिताभिः 'आराहिं' आराभिः 'फलगं व' फलकमित्र 'तच्छा' तष्टाः विदारिताः नैरयिकाः 'णियोजयंति' नियोज्यन्ते तत्रपुवानाय व्यापार्यन्ते । १० परमधार्मिकाः नारकस्य पृष्ठ दण्डादिना संताडय तथा लौहदण्डेन शिरो भञ्जयित्वा ततस्तं नारकिणं तप्तारकेण लोकप्रसिद्धेन विदारयन्ति पुनः विदा क्रकचैः कर्त्तयन्ति । तदनन्तरं तप्तत्रपुत्री का दिवानाय नियोजयन्ति इति |१४| मूलम् - अभिजुंजियं रुंद असाहुकम्मा बोइया हरिथव हं वहति । ऐ दुरुहितु दुवे ओवा आरुस्स विझति केकाणओ से ॥१५॥ छाया -- अभियोज्य रौद्रमसाधुकर्माणः इषुनोदितान् हस्तिवहं वाहयन्ति । एकं समारोप्य द्वौ श्रीन् वा आरुष्य विध्यन्ति मर्माणि तेषाम् ॥ १५ ॥ मस्तक का चूराचुरा कर देते हैं। इस प्रकार विदारित देह वाले उन नारकों को आग में तपाए हुए आराओं से लकडी के पटिये की भांति छील छील कर पतले किये जाते हैं और फिर उबलता हुआ शीशा पीने को बाधित किये जाते हैं । तात्पर्य यह है कि परमाधार्मिक असुर नारक की पीठ डंडों से तोडते हैं, मस्तक मुद्गरों से चूर्णित करते हैं आरों से छीलते हैं और तपा शीशा पिलाते हैं ॥१४॥ 'अभिर्जुजिय' इत्यादि । शब्दार्थ -- ' असा हुकम्मा - असाधुकर्माणः पापकर्म करने वाले મસ્તકના ચૂરે ચૂરા કરી નાખવામાં આવે છે. આ પ્રકારે વિદ્યારિત કરવામાં આવેલાં તેમનાં શરીરોને અગ્નિ ઉપર ખૂબ જ તપાવેલ આરાથી લાકડાના પાટિયાની જેમ, છેલીને પાતળા કરવામાં આવે છે. એટલુ જ દુ:ખ સહન કરવાથી તેમને છુટકારા થતા નથી, પરન્તુ તેમને ગરમા ગરમ સીસાના રસ પણ પિવરાવવામાં આવે છે તાપ એ છે કે પરમાધાર્મિ કા ડડાના પ્રહાર કરીને નારકાની પીઠ તેાડી નાખે છે, મગદળા મારી મારીને માથાના સૂરે ચૂરા કરી નાખે છે. આર વડે તેમના શરીરને ચીરે છે અને સીસાના ગરમ રસ તેમને પિવરાવે છે. ૧૪. 'अभिजु जिय' इत्याहि शब्दार्थ'-' असा हुकम्मा - असाधुकर्माणः पापम्भ' ४२वावाजा नारहि सू० ५४ For Private And Personal Use Only Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ४२६ www.kobatirth.org सूत्रकृताङ्गसूत्रे -अन्वयार्थ:-- ( असा हुकम्मा) असाधुकर्मणः - पापकर्मकारिणो नैरयिकान (रुद्द ) रौद्रे-कुरे कर्मणि अपरनार कहननादि के (अभिर्जुजिय) अभियोज्य जन्मान्तरकृर्त ardharani स्मारयित्वा ( उसुचोइया) इनोदितान् शराभिघातप्रेरितान् (ए दुवे तभ वा दुरुहितु) एक द्वौ त्रीन् वा समारोह (हस्थिवदं) हस्तिव (ति) वाहयन्ति (आरुस्स) आरुष्य क्रोधं कृत्वा (से) तेषां - नैरयिकाणां (ककाओ) मर्माणि (विज्झति) विध्यन्ति - वेधितानि कुन्तीति ॥१५॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नारकि जीवों को रुद्द रौद्रे' क्रूर कर्म में 'अभिजुंजिय-अभियोज्य' योजित करके अर्थात् जन्मान्तर में किया हुआ प्राणिवधरूप कार्य को स्मरण कराकर 'उचोया-इषुनोदितान्' तथा बाण के प्रहार से प्रेरित करके 'हरिथवहं - हस्तिवहं' हाथि के जैसे 'बहंति - वाहयन्ति' भार वहन कराते हैं अथवा 'एग दुबे तओ वा दुरुहित्तु एकं द्वौ श्रीन् वा समारोह्य' एक, दो, अथवा तीन जीवों को उनकी पीठ पर बढाकर 'हस्थिवहंहस्तिवह' हाथि के जैसे 'वहंति - वाहयन्ति' उनको चलाते हैं' 'आरुस्सआरुष्य' क्रोध करके 'से तेषाम्' उन नैरयिकों के 'ककाणओ-मर्माणि ' मर्मस्थान को 'विज्झति विध्यन्ति' वेधित करते हैं ॥१५॥ अन्वयार्थ - - पापकर्म करने वाले नारकों को उनके पूर्वकृत रौद्र (भयंकर) कृत्यों का स्मरण करवाकर बाग के प्रहार से प्रेरित करते हैं और हाथी के समान उनसे भार वहन करवाते हैं । अथवा एक, दो तीन जीवों को उस पर चढा देते हैं और क्रोच कर के उसके मर्मस्थलों को वेधते हैं ॥ १५॥ , भवाने 'रुद्द रौद्रे' २ मा 'अभिजुजिया - अभियोज्य' यो उरीने अर्थात् ४न्भान्तरभां रेव प्राविध ३५ अर्थाने स्मरण ठरावीने 'उसुचोइया - इषुनोदितान्' तथा माथुना प्रहारथी प्रेरित हरीने 'हत्थिवाह' - हस्तिवह" हाथिना प्रेम 'वहंति - वाहयन्ति' ला२ वळुन उरावे अथवा दुवे तओ वा दुरुहितु एकं द्वौ त्रीन् वा समारोह्य' तथा खेड, मे, अथवा त्र वने तेमनी पीड पर acıqla ‘gfgag'-gfitaqg' sıalal du ‘agfa-aıgufia' Auà aaia छे 'आरुस्व - आरुष्य' धरीने 'से-तेषाम्' ते नैरयिोना 'ककाणओ - मर्माणि ' भर्भस्थानाने 'विज्झति - विध्यन्ति' पीधे छे ॥१५॥ સૂત્રા—નરકપાલા નારકાને તેમનાં પૂર્વીકૃત રૌદ્ર (ભય'કર) મૃત્યાનુ સ્મરણ કરાવે છે અને તીક્ષ્ણ અંકુશ, ભાલા આદિના પ્રહાર કરીને તેમની પાસે હાથીની જેમ ભાર વધુન કરાવવામાં આવે છે. અથવા એક, એ ત્રણ જીવાને તેમના પર ચઢાવીને તેમના મસ્થળો પર પ્રહાર કરીને તેમને ચાલવાની ફરજ પાડે છે. ૧૫ For Private And Personal Use Only Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ५ उ.२ नारकीयवेदनानिरूपणम् ४२७ टीका-'असाहुकम्मा' असाधुकर्मणः-अशोमनानि जन्मान्तरोपार्जितानि कर्माणि अनुष्ठानानि माणातिपातमृपावादादीनि येषां ते तथाविधान माणातिपावादिकर्मकारकान् 'रुदं रौद्रे-अतिभयानके सत्त्व धादिके 'अभिमुंजिय' अभियोज्य 'एकं दुवे तो वा' एकं द्वौ त्रीन् वा नैरयिकान् परमाधार्मिकाः 'दुरुहित्तु' दोह्य समारोह्य 'उसुचोइया' इषुनोदितान्-वज्रमांकुशाभिघातेन संप्रेरितान् ‘इस्थिवई' हस्तिप्रवाहम् हस्तिवाहनरीत्या 'वहंति' वाहयन्ति । यथा-हस्तिपृष्ठे आरोहकान् समारोह्य हस्तिपकाः हस्तिनं चालयन्ति, तथा परमाधार्मिकाः नारकान् चालयन्ति । यद्वा-यथा (उपलक्षणात्) रथादौ संयोज्य वेत्रादिपहारैः प्रहृत्य, अनभ्यस्त. मपि बलाद् वाहयन्ति तद्वत् नारकान् चालयन्ति । अथवा-यथा हस्ती महान्तं मारं वहति, तथा तान् नारकान् बलाद् भारं वाहयन्ति परमाधार्मिकाः । यदा नैरयिकाः स्वपृष्ठारूढातिमारं वोढुं न शक्नुवन्ति तदा 'आरुस्स' आरुष्य सर्वथा टीका--जिन नारकियों ने जन्मान्तर में अशोभन कर्मों का आच. रण किया है अर्थात् हिंसा असत्य आदि पापों का सेवन किया है, उनको नरकपाल रौद्र अर्थात् अत्यन्त भयानक प्राणिवध आदि कार्मों में जोडकर वे वज्रमय अंकुश आदि से आघात करके और एक, दो, तीन नारकियों को उन पर चढा कर उनसे हाथी के समान भार वहन करवाते हैं । जैसे महावत हाथी की पीठ पर सवार को चढाकर उसे चलाता है, उसी प्रकार परमाधार्मिक नारकों को उन सवारों द्वारा चलाते हैं । अथवा-जैसे रथ आदि में जोतकर और बेतका प्रहार करके अनभ्यस्त ऊंट आदि से भी जबर्दस्ती भार वहन करवाया जाता है उसी प्रकार नारकों से बलात्कारपूर्वक परमाधार्मिक भार वहन करवाते हैं। जब वे नारक अपनी पीठ पर सवार हुओंका भारी भार नहीं ટીકાર્યું–જે નારકોએ પૂર્વભામાં હિંસા, અસત્ય આદિ પાપકર્મોનું સેવન કર્યું હોય છે તેમને પરમધામિક દ્વારા તેમનાં તે રદ્ર (ભયંકર) કુનું સ્મરણ કરાવવામાં આવે છે. જેવી રીતે હાથીના મર્મસ્થળમાં અંક શને પ્રહાર કરીને તેની પાસે ભાર વહન કરાવવામાં આવે છે, એ જ પ્રમાણે વજય અંકુશ આદિના પ્રહાર કરીને તેઓ નારકે પાસે ભારવહન કરાવે છે. અથવા એક, બે ત્રણ અને તેમની પીઠ પર આરોહણ કરાવીને, અંકુશ આદિના પ્રહાર કરીને તેને ચલાવે છે. અથવા જેવી રીતે રથની ધુંસરી સાથે જોડેલા બળદેને આર ડીને ચલાવવામાં આવે છે. એજ પ્રમાણે નારકેને પણ દંડ, ભાલાં, આદિ શસ્ત્રો વડે મારી મારીને તેમની પાસે બળજબરીથી ભાર વહન કરાવવામાં આવે છે. જ્યારે તે નારકો તેમની For Private And Personal Use Only Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे क्रोधं कृत्वा 'से' तेषां नारकजीवानाम् 'ककाणओ' मर्माणि मर्मस्थानानि अपरपरमाधार्मिकान् आज्ञाप्य 'विशति' विद्धयन्ति-छेदयन्ति ॥१५॥ मूलम्-बाला बेला भूमिम[कमंता पविजलं कंटइलें महंतं । विबद्धतप्पेहि विसपणचित्ते समीरिया कोहबलि करिति॥१६॥ छाया-बाला बलाद् भूमिमनुक्राम्यमाणा प्रदीप्तजलां कण्टाविलां महतीम् । विवध्यतः विषण्णचित्तान् समीरिताः कोवलिं कुर्वन्ति ॥१६॥ सहन कर पाते तब परमाधार्मिक क्रुद्ध होकर उनके मर्मस्थानों को वेधते हैं या दूसरे परमाधार्मिकों को आदेश देकर उनसे विधवाते हैं ॥१५॥ 'बाला' इत्यादि। शब्दार्थ-'याला-बाला:' पालक के समान पराधीन नैरयिक जीव नरकपालों के द्वारा 'बला-बलात्' बलात्कार से 'पविज्जलं-प्रदीप्तजला' रुधिर के कीचड से भरी हुई 'कंटहलं-कण्टाविलाम्' तथा कांटों से युक्त 'महंत-महतीं विशाल 'भूमि-भूमिम्' पृथिवी पर 'अणुकमंता-अनुक्राम्यमाणाः' परमाधार्मिकों के द्वारा चलाये जाते एवं 'समीरिया-समीरिता' पापकर्म से प्रेरित किये हुए नारकों को 'विपद्धतपेहि-विवध्यतः' अनेक प्रकार के बन्धनों से बांध कर 'विसण्गचित्ते-विषण्णचित्तान्' मूञ्छित ऐसे दुसरे नारक जीवों को 'कोवलि करिति-कोट्टवलिं कुर्वन्ति' काटकाट कर खण्ड खण्ड करके इधर उधर फेंक देते हैं ॥१६॥ પીઠ પર ચડી બેઠેલા જીવોને ભાર વહન કરવાને અસમર્થ હોવાને કારણે ચાલતાં થંભી જાય છે, ત્યારે પરમધામિક ગુસ્સે થઈને તેમના મર્મસ્થાનેને વીંધી નાખે છે, અથવા અન્ય પરમધામિકેને આદેશ દઈને તેમના દ્વારા તે નારકેના મર્મસ્થાન પર પ્રહાર કરાવે છે. ૧પ. 'बाला' त्यादि शा--- 'बाला-बालाः' मना समान पराधीन-माने साधीननरवि 94 न२४ाना 'बला-बलात्' ५८२थी पविज्जलं-प्रदीप्तजलाम्' सोडिन। यि3थी मरे कंटइलं-कण्टाविलाम्' तथा माथी यु महंत-महतीं' विश 'भूमि-भूमिम्' पृथ्वी ७५२ 'अणुक्कमंता-अनुक्काम्यमाणाः' ५२भाषामना द्वारा सापामा माता भने 'समीहिया-समीहिताः' ५।५४ थी ग्रेरित ४२। 'विबद्धतप्पेहि-विबध्यतः' भने १२ना मनोथी मांधार विसण्णचित्तेविषण्णचित्तान्' भूत मे भी ना२४ वान कोवलि करिति-कोवलिं कुर्वन्ति' अपी पान १४॥ १७॥ ४२ म त है छे. ॥१६॥ For Private And Personal Use Only Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ५ उ. २ नारकीयवेदनानिरूपणम् ४२२ अन्वयार्थ:-(वाला) बाला बालवत् पराधीनाः नैरयिकाः (बला) बलात्-बलात्कारेण (पविजलं) प्रदीप्त नलां रुधिरकर्दमेन पिच्छिलां (कंटइल) कण्टाविला-कण्टकयुक्ताम् (महंत) महतीं विशालां (भूमि) भूमि-पृथिवीम् (अणुकमंता) अनुक्राम्यमाणा: परमाधार्मिकैश्वाल्यमानाः (समोरिया) समोरिता:-पापकर्मणा नोदिताः (विवद्ध. तप्पेहि) विवध्यतः (विसणणचित्ते) विषण्णचिनान (कोवलि करिति) कोट्टबलि खण्डशः कृत्वा नगरबलि कुर्वन्ति, नगरवलिबदितस्ततः क्षिपतीत्यर्थः ॥१६॥ टीका- 'बाला' बाला:-बालका इव परतंत्रास्ते नैरयिका जीवाः परमाधार्मिक द्वारा, 'बला' बलात्-बलात्कारेण 'पविजले' प्रदीप्तनलां अतिपिच्छिलाम् , पंकादिभिराविलाम् । 'कंटइल' कण्टाविलाम् , वज्रकण्टकैराकुलाम् , 'महंत' महतीमतिशयेन विस्तृताम्। 'भूमि' भूमि-भूमितलम् । 'अणुकमंता' अनुक्राम्यमाणाः प्रेरणया चाल्यमानाः। यद्यपि तादृशभूमौ गन्तुमिच्छा नास्ति, तथापि परमाधार्मिकैबलाचा. त्यमानाः । 'समीरिया' समीरिताः-पापकर्मणा परमाधार्मिकरिताः । 'विवद्ध___अन्वयार्थ-बालक के समान पराधीन नारक जीवों को परमाधामिक जबर्दस्ती करके रुधिर की कीचड़ से व्याप्त, कंटकाकीर्ण और विस्तृत भूमि पर चलाये जाते हैं। पापकर्म से प्रेरित परमाधार्मिक अनेक प्रकार से बांधकर विषण्णचित्त उन नारकों को खण्ड खण्ड करके नगरबलि के समान इधर उधर फेंक देते हैं ॥१६॥ टीकार्थ-जैसे बालक प्रत्येक थात में पराधीन होता है, उसी प्रकार नारक भी पराधीन होते हैं । अतएव उन्हें यहां पाला' अर्थात् पालक कहा गया है । उन बाल नारकों को परमाधार्मिक असुर जबर्दस्ती से पंक से परिपूर्ण और वज्रमय काटों से युक्त, अत्यन्त विस्तृत भूमि સૂત્રાર્થ–બાલના સમાન પરાધીન નારક ને પરમાધાર્મિક બળ જબરીથી લેહીના કીચડથી વ્યાપ્ત, કાંટાઓથી છવાયેલા વિસ્તૃત માર્ગ પર ચલાવે છે. નારકેનાં પાપકર્મોને બલિ આપવાને તૈયાર થયેલા તે પરમ ધામિકે, અનેક પ્રકારનાં બંધનથી બાંધીને વિષાદયુક્ત ચિત્તવાળા તે નારકોના ટુકડે ટુકડા કરી નાખીને, નગરબલિની જેમ તે ટુકડાઓને ચારે દિશામાં ફેંકી દે છે. શા ટીકાઈ–જેવી રીતે બાલક પ્રત્યેક બાબતમાં પરાધીન હોય છે, એ જ પ્રમાણે નારકે પણ પરાધીન હોય છે. તે કારણે તેમને અહીં “બાલ (અજ્ઞાન) કહેવામાં આવેલ છે. તે બાલનારકને પરમધામિકે બળજબરીથી કીચડ અને વજનમય કાંટાથી આચ્છાદિત વિસ્તૃત ભૂમિ પર ચલાવે છે. જો કે એવી For Private And Personal Use Only Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतासूत्र तप्पेहि' विवध्यतः बहुविधबन्धनैना । तथा-'विवण्णचित्ते' विषण्णचित्तान , मूञ्छितान् अपरान मारकजीवान् । 'कोहवलि करिति' खण्डशः कर्तयित्वा नगरपलिं कुर्वन्ति इतस्ततः निःक्षिपन्ति । पापकर्मप्रेरिताः परमाधार्मिकाः पराधीनं तं नारकिजीवं पंकदिग्धकण्टकिला भूमि विस्तृतां चालयन्ति । तथा-अन्यं नारकिजीवमनेकप्रकारेण बद्ध्वा मूछितं नारकिजीवं कुट्टयित्वा खण्डशः कृत्वा नगरबलिवत् इतस्ततः क्षिपन्तीति ॥१६॥ मूलम्-वेतालिए नाम महाभितावे एगायते पेवयमतलिक्खे। - हम्मति तत्था बहूकूरकम्मा, परं सहस्साण मुंहुत्तगाण॥१७॥ छाया -वैक्रियो नाम महाभितापः एकायतः पर्वतोऽन्तरिक्षे । __ हन्यन्ते तत्स्था बहुक्रूरकर्मागः परं सहस्राणां मुहूर्तकाणाम् ॥१७॥ पर चलाते हैं । यद्यपि ऐसी भूमि पर चलने की उनकी इच्छा नहीं होती फिर भी परमाधार्मिक उन्हें बलात्कार करके चलाते हैं । पापकर्मों से प्रेरित परमाधार्मिक विविध प्रकार के बन्धनों से बांधकर, विषण्णचित्त तथा मूच्छित दूसरे नारक जीवों को खण्ड खण्ड करके इधर उधर फेंक देते हैं। भावार्थ यह है कि पराधीन नारक जीव को कीचड़ से भरी हुई, कंटकों से व्याप्त विस्तृत भूमि पर चलाते हैं तथा दूसरे नारकियों को अनेक प्रकार से बांधकर, मूञ्छित हुए को कूटपीट कर, खण्ड खण्ड करके नगरबलि के समान इधर उधर फेंक देते हैं ॥१६॥ ભૂમિ પર ચાલવાનું તેમને ગમતું નથી, પરંતુ પરમાધાર્મિક અસુરે તેમને બળાત્કારે તે ભૂમિ પર ચલાવે છે. વિવિધ પ્રકારનાં બન્ધને વડે બાંધીને ઉનિ ચિત્તવાળાં તથા મૂછિત નારકના ટુકડે ટુકડા કરીને પરમધામિક તેમને નગબલિની જેમ આમ તેમ ફેંકી દે છે. તેમનાં પૂર્વભવનાં પાપકમેને આ પ્રમાણે તેમને બદલે ચુકવવામાં આવે છે. આ કથનને ભાવાર્થ એ છે પરમાધમિક પરાધીન નારકેને કીચડ અને કાંટાઓથી છવાયેલા માર્ગ પર પરાણે ચલાવે છે. વળી તેઓ અન્ય નારકોને અનેક પ્રકારના અને માં બાંધે છે, અને મૂરિષ્ઠત થયેલા નારકના શરીરના ટુકડે ટુકડા કરીને નગરબલિની જેમ ગમે ત્યાં ફેંકી દે છે. ૧દા For Private And Personal Use Only Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. . ५ उ.२ नारकीयवेटनानिरूपणम् ४३१ अन्वयार्थः-(महाभिहतावे) म्ह भितापे-महादुःखरूपे । (अंजलिक्ख) अंतरिक्ष आकाशे (वेतालिए नाम) वैक्रियनामा (एगायते) एकायतः एकशिलादिघटितो दीर्घः (पत्रए) पर्वतः (तत्था) तत्स्थाः तत्र पर्वते वसन्तः (बहुकूपकम्मा) बहुक्रूरकर्माणो नैरयिकाः (सहस्साणं मुहुत्तगाणं) सहस्राणां मुहूर्त्तकाणां (1) परमधिकं कालं यावत् (हम्मंति) हन्यन्ते-पीडयन्ते इति ॥१७॥ 'बेतालिए' इत्यादि। शब्दार्थ-'महाभितावे-महाभितापे' महान् दुःख से युक्त 'अंतलिक्खे-अंतरिक्षे' आकाश में 'वेतालिए नाम-वैक्रियो नाम' वैक्रिय नामका 'एगायते-एकायतः' एकशिला के द्वारा बनाया हुआ लम्बा 'पन्चए-पर्वतः' पर्वत है 'तत्था-तरस्थाः' उस पर्वत पर निवास करने वाले 'बहुकूरकम्मा-बहुकाकर्माणः' बहुत क्रूरकर्म किए हुए नारकि जीव 'सहस्साणं मुहुत्तगाणं-सहस्राणां मुहूर्तानाम्' हजारों मुहूर्तों से 'परं-परम्' अधिक काल तक 'हम्मंति-हन्यन्ते' मारे जाते हैं ॥१७॥ ___अन्वयार्थ-अत्यन्त सन्ताप उत्पन्न करने वाला वैक्रिय नामक एक पर्वत है । वह आकाश में है और एक शिला आदि का बना हुआ है। उस पर रहे हुए क्रूर कर्म करनेवाले नारक सहस्रों (हजारों) मुहूत्तों से भी अधिक काल तक पीड़ित किये जाते हैं ॥१७॥ 'बेतालिए' त्या शहा--'महामितावे-महाभितापे' महान् यी युक्त 'अंतलिक्खेअन्तरिक्षे' मा 'वेतालिए नाम-वैक्रियो नाम' छिय नामनी 'एगायतेएकायतः' में शिक्षा वा मनाa ain पब्बए-पर्वतः' पर्वत छ. 'तत्थातत्स्थाः ' ते ५ ६५२ निवास ४२वावाणा 'बहुकूरकम्मा-बहुक्रूरकर्माणः' मन २७ ४२वाणा ना२80 'सहस्साणं मुहत्तगाणं-सहस्राणं मुहूर्तानाम्' गरे। भुत्तो था 'पर-परम्' माघि १७ सुधी 'हम्मंति-हन्यन्ते' भाषामा આવે છે. ૧૧ સૂત્ર.થેન્નારકોને ખૂબ જ સંતપ્ત કરનારે વક્રિય નામને એક પર્વત નરકભૂમિમાં આવેલ છે. તે આકાશમાં આવેલ છે અને એક જ શિલાને બને છે. તે વેકિય પર્વત પર ઉત્પન્ન થયેલા, કૂરકર્મા નારકેને હજારે મુહૂર્ત કરતાં પણ અધિક કાળપર્યન્ત પરમધાર્મિક અસુરે દ્વારા ખૂબ જ માર, પ્રહાર આદિ વ્યથા સહન કરવી પડે છે. આવા For Private And Personal Use Only Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४३२ सूत्रकृताङ्गसूत्रे टोका- 'महाभितावे' महाभितापे, महादुःखै कार्ये 'अंतलिक्खे' अन्तरिक्षे आकाशे 'वेतालिए नाम' वैक्रियो नाम परमाधार्मिकैः संपादितं स्थानं विद्यते इति संभावयामि । 'एगायते' एकायतः एकशिलायां निर्मितोऽति लंबायमानः । 'पन्चयं' पर्वतोऽस्ति 'तत्था' तत्स्थाः तस्मिन् पर्वते तिष्ठन्तः । 'वहुकूरकम्मा बहुक्रूरकर्माणो नारकिजीवाः 'सहस्साण मुहत्तगाणं' परं-सासकाणी मुहूर्तकानां परम् , मुहूर्तसहस्र दप्यधिकम् 'हम्मति' हन्यन्ते । महत्तापदो नरकपालनिर्मितैकशिलाघटितो दीर्घ तरः पर्वतो विद्यते। तत्र पर्वते विद्यमाना नारकिजीवाः सहस्रमुहूर्तादप्यधिक प्रभूतकालपर्यन्तं नरकपालैईन्यन्ते इति । १७॥ मूलम्-संबाहिया दुकडिणो थणंति, अहो य राओ परितप्पमाणा। ऐगंतकूडे नरए महंते कूडे गं तत्था विसमे हता उ ॥१८॥ छाया-संवाधिता दुस्कृतिनः स्तनन्ति अति च रात्रौ परितप्यमानाः । एकान्तकूटे नरके महतिकूटेन तत्स्था विषमे हतास्तु ॥१८॥ टीकार्थ-घोर दुःख उत्पन्न करने वाला वैक्रिय नामक पर्वत आकाश में स्थित है । अत्यन्त पाप करने वालों को वह स्थान प्राप्त होता है। वह एक शिला का बना हुआ और लम्बा है । उस पर्वत पर स्थित घोर क्रूर कर्म करने वाले नारकी जीव चिरकाल तक हजारों मुहूर्तों से भी अधिक समय तक मारे जाते हैं । ___ आशय यह है कि महान् सन्तापकारी परमाधार्मिकों द्वारा निर्मित और एकशिला का बना हुआ लम्या पर्वत है । उस पर्वत पर विद्यमान नारक जीव हजारों मुहूर्तों से भी अधिक कालपर्यन्त परमाधा. मिकों द्वारा आहत किये जाते हैं ।१७।। ટીકાર્ય–આકાશમાં વૈક્રિય નામને એક પહાડ આવેલું છે તે એક જ શીલાને બનેલું છે. ઘોર પાપકર્મો કરનારા છે તે પર્વત પર નાર રૂપે ઉત્પન્ન થઈને ઘેર દુઃખ સહન કરે છે. તે વૈક્રિય પર્વતની લંબાઈ પણ ઘણું જ છે તે પર્વત પર ઉત્પન્ન થયેલા નારકેને પરમધાર્મિક અસુર હજાર મહત્ત કરતાં પણ અધિક સમય સુધી માર માર્યા કરે છે. તાત્પર્ય એ છે કે પરમધામિર્ક દ્વારા નિર્મિત, એક જ શિલાને વક્રિય નામને પહાડ નરકભૂમિમાં આવેલ છે. તે પર્વત ઘણે લાંબે છે તે પહાડ પર રહેલા ઘોર પાપકર્મો કરનારા નારકેને ચિરકાળ સુધી પરમાધામિકેના હાથને માર ખાવો પડે છે. ૧ણા For Private And Personal Use Only Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ५ उ.२ नारकीयवेदनानिरूपणम् ४३३ अन्वयार्थ:--(संपाहिया) संबाधिताः पीडिताः (दुक्कडिणो) दुष्कृतिनः पापफर्माणः, (अहो या राओ य परितपमाणा) आंद च रात्रौ च परितप्यमाना अहनिशं पीडागलुभवन्तः (थति) स्तनन्ति-दन्ति (एगंतकूडे) एकान्तकूटेएकान्ततो दुःलस्थाने (महत) महति-विस्तरे (विसमे) विषमेऽतिकठिने (नरए) नरके (कूडे) कूटेन-गलयंत्राशेन (हता उ) इतास्तु निहताः सन्तः (तस्था) तत्स्थाः तत्र-तस्मिन् दिवसे स्थिताः-स्तनंत्येव केवलमिति ॥१८॥ 'संबोडिया' सत्यादि। शब्दार्थ-संपादिया-संसाधित निरन्तर पीडिा लिये जाते हुए 'दुऋडिगो-दुनिनः पारी महो रामओ य हरिपमाणा अहि च रामौ च परितमानविपनाको भोर हुतिस्तनन्ति' हाल भरते रहते हैं " डे भानटे' केव। दुःस्त्र का स्थान 'मह मही' विस्तृत विलो-सिपमे अत्यन्त कठिा नरएनरके नरक में पडे हुए प्रापी कूडे -कूटन' गले में काली डालकर 'हता उ-इतास्तु' मारे जाते हुए लत्या-तत्स्था' उसमें रहने वाले नारकी केवल रुपन ही करते हैं ॥१८॥ ___ अन्वयार्थ-नरक में पीड़ा पाते हुए पापकर्मी जीव दिनरात अत्यन्त परिताप का अनुभव करते हुए रुदन करते रहते हैं। वे एकान्त दु:ख का अनुभव करते हैं। उस विषम एवं विस्तृत नरक में गलपाश (फांसी) से पीडित होकर रोते ही रहते हैं ॥१८॥ 'संवाहिया' त्या साथ-'संवाहिया-संबाधिताः' निरन्तर पीडित ४२वामा मातi 'दुकडिणो-दुष्कृतिनः' पापी 'अहो य राओ व परितप्पमाणा-अति च रात्रौ च परितप्यमानाः' हवस रात तापने लगता धणंति-स्तनंति' ३४न ४२०i.२३ छ 'एगंतकूडे-एकान्तकूटे' aa gम स्थान 'महंते-महति' विस्तृत विसमेविषमे' अत्यन्त 36 'नरए-नरके' १२i val प्राणी 'कूडेन-कूटेन' आभासी नामीन 'हता उ-हतास्तु' भा२पामा सावता तत्था- तत्स्थाः' तमा રહેવાવાળા પ્રાણી કેવળ રૂદન જ કરે છે. ૧૮ સૂત્રાર્થ-નરકમાં યાતનાઓનું વેદન કરતાં પાપકમી છ દિનરાત અત્યન્ત પરિતાપને અનુભવ કરવા થકી રુદન કર્યા કરે છે. તેઓ એકાતઃ (સંપૂર્ણ રૂપે) દુઃખને જ અનુભવ કરે છે. તે વિષમ અને વિસ્તૃત નરકમાં નારકનાં ગળામાં ફસે નાખવામાં આવે છે, અને તેની પીડા અસહ્ય થઈ પડવાથી તેઓ કરુણાજનક આકંદ કર્યા કરે છે, ૧૮ सू० ५५ For Private And Personal Use Only Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir .२४ ITLE सूत्रकृतागसूत्रे टीका-'संवाहिया' संवाधिताः-समेकीभावेन बाधिताः अतिपीडिताः । 'दुकडिणो' दुष्कृतिनः-पापिजीवाः नरकगताः 'अहो य' अनि दिवसे च 'राओ य' रात्रौ च 'परितप्पमाणा' परितप्यमाना:-अतिशयिततया पीडां दशविध क्षेत्रवेदना मनुभवन्तः 'थति' स्तनन्ति-आन्दनं कुर्वन्ति । 'एगंत कूडे' एकान्तकूटेएकान्ततो दुःखस्थाने 'महंते महति-अतिनीधै 'विसमे' विषमे-कठिने नानाविधदुःखसंकुले (नरए) नरके पतिता:-मारक जीवाः 'कूडेन' कूटेन-गलयंत्रणादिपाशेन 'हता उ' तास्तु-हता भान्ति । निरन्तरं पीडिताः 'तत्था' तत्स्थाः तत्र स्थिताः पापिपुरुषाः अहोरात्रं रुन्ति । सान्ततो दुःखमेव वर्तते; अतिविस्तृतम् अतिकठिनं च । एताभनरके पति पापिजीवाः गलं पाशादिना पाशयित्वा मार्यन्ते इति भावः ॥ १८॥ टीकार्थ-अत्यन्त व्यथित हुए वे पापाचारी नाराजीव दिनरात संतप्त अर्थात् दस प्रकार की क्षेत्रजनि र वेदना का अनुभव करते हुए आक्रन्दन करते हैं । एकान्त दुःखप्रय, अतिदीर्घ, विषम, नानाप्रकार के दुःखों से व्याप्त नरक में पडे हुए नारक जीवों के गले में फांसी लगा दी जाती है तो हत निहत होते हैं । ___ भाव यह है कि निरन्तर पीडित पारी पुरुष दिनरात आँसू बहाते रहते हैं । वहां एकान्ततः दुःख ही दुःख होता है। वह अति कठिन और अति विस्तृत है । ऐश नरक में पापी जीवों के गले में फंदा डाल कर मारे जाते हैं ॥१८॥ ટીકાર્થ–પૂર્વમાં પાપકૃત્યેનું સેવન કરીને નરકમાં ઉત્પન્ન થયેલા તે છ દિન રાત અત્યન્ત વેદનાને અનુભવ કરતા રહે છે, એટલે કે તેઓ દસ પ્રકારની ક્ષેત્રજનિત વેદનાનું દાન કરે છે. અસહ્ય વેદનાને લીધે તેઓ કરુણાજનક રુદન કર્યા કરે છે. સંપૂર્ણતઃ દુઃખમય, અતિદીર્ઘ, વિષમ અને અનેક પ્રકારનાં દુઃખોથી વાપ્ત નરકમાં પડેલા નારક છેના ગળામાં ફાંસો નાખીને તેમને માર મારવામાં આવે છે. ભાવાર્થ એ છે કે નરકમાં નિરન્તર પીડાનો અનુભવ કરતા પાપી છે આંસુ સાર્યા કરે છે. ત્યાં તેમને સદા દુઃખ જ સહન કરવું પડે છે. એક પળ પણ તેમને સુખ મળતું નથી. તે સ્થાન ખૂબ જ વિષમ, વિરતૃત અને દુઃખદ છે. એવા નરકમાં પાપી જેના ગળામાં ફસે નાખીને પરમધામિક તેમને ખૂબ જ માર માર્યા કરે છે. ૧૮ For Private And Personal Use Only Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ५ उ. २ नारकीयवेदनानिरूपणम् मूलम्-भजति णं पुबमरी सरोसं समुगेरे ते मुसले गैहेतुं। ते भिन्नदेहा हिरं वदंता ओमुंद्ध गा धारणितले पैडति॥१९॥ छाया-भजन्ति खलु पूरिया सोपं समुद्राणि ते मुसलानि गृहीस्वा । ते भिन्नदेहा रुधिरं मन्योऽरमुर्दानः धरणीतले पतन्ति ॥१९॥ अन्वयार्थः-(ते) ते परमाानिकाः (समुग्गरे घुसळे गहेतुं) समुद्राणि मुसलानि गृहीत्वा (पुत्रमरी) पूर्वारण इन जपान्तीयशा इव (सरोस) सरोष क्रोधसहितं यथा स्यात्तथा (भंनंति) भनि गाहपहारैरामर्दयन्ति (भिन्न देहा) भिन्नदेहाः-चूर्णिताङ्गा (ते) ते नैरयिकाः, (रुधिरं वमंता) रुधिरं वमन्तः (ओमः द्धगा) अवम् नः (धरणीदले) धरणीतले पृथिव्यां (पडीत) पतंतीति ॥१९॥ "भंति' इत्यादि। शब्दार्थ-ते-ते' वे पामाधार्मिक 'सानुग्गरे मुलले गहेतुं-समुद्गराणि मुसलानि गृहीत्श' मुहर और मुखल हाथ में लेकर 'पुध्वमरीपूर्वारया' परले के शत्रु के समान 'सरोसं-सशेषम्' क्रोधयुक्त 'भंजतिभञ्जन्ति' नारकी जीवों के अङ्गों को तोड देते हैं 'भिन्नदेहा-भिन्नदेहाः' जिनकी देह टूट गई है ऐसे 'ते-ते' चे नारकी जीव 'रुहिरं वमंतारुधिरं वमन्तः' रक्त वमन करते हुए 'ओमुद्धगा-अवमूर्द्धनः' अधोशिर होकर 'धरणीतले-धरणीतले पृथिवील में पति-पतन्ति' पडते हैं।१९। अन्वयार्थ-वे परमाधार्मिक पूर्व के शत्रु के समान मुद्गरसहित मूसल लेकर क्रोध के साथ गाढ प्रहार कर के नारकों के शरीर को चूर 'भंजंति' त्याह शहा–'ते-ते' ते ५२मा धामि 'समुग्गरे मुसले गहेतु-समुद्राणि मुसलानि गृहीत्वा' भ61 भने भुसस यम ने 'पुव्दमरी-पूर्वारयः' पडताना शत्रुना समान सरोसं-सरोपम्' यी युत 'भंजति-भञ्जन्ति' ना२6 वोना मानाने ताल छे. 'भिन्नदेहा-भिन्नदेहाः' भनु शश२ टूटी आयुछे सेव! 'ते-ते' ते ना२.६०७३। 'हहिर वमंशा-रुधिर वमन्त:' २४ मन ४२०i 'ओमुद्धगा-श्वमूर्द्धानः' पोभरत ४२ 'धरणीतले-धरणीतले' की Hi 'पडंति-पतन्ति' ५ ॥१ સૂત્રાર્થ–પરમધામિક તેમની સાથે પૂર્વભવના શત્રુના જે થવહાર કરે છે. તેઓ હાથમાં મગદળ અને મૂસળ (સાબેલું) ધારણ કરીને, ખૂબ જ કાધ પૂર્વક નારકોનાં શરીર પર તેના ગાઢ પ્રહાર કરીને તેમનાં શરીવા For Private And Personal Use Only Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे टीका-'समुग्गरे' समुद्गराणि-मुद्रेण सहितानि 'मुसले' मुसलानि, ते नरकपालाः समुद्राणि मुसलानि 'गहेतु' गृहीत्वा 'पुधमरी' पूर्वभवसंजाता शत्रव इवं 'सरोसं' सरोपं-रोषयुक्तं यथा भवेत्तया। णमिति वाक्यालंकारे। 'भंजति' भञ्जन्ति-चूर्णीकुर्वन्ति नारकिजीवानामंगानि त्रुटयन्ति । 'भिन्नदेहा' भिन्नदेहा:-विदारितदेहाः 'ते' ते नारकिजीवाः 'महिर' रुधिरं रक्तम् 'वमंता' वमन्तः-शाक्यवेभ्यो रुधिराणि उद्गिरन्तः 'ओमुद्धगा' अवमूर्दानः सन्तः 'धरणितले' पृथिव्याम् ‘पडंति' पतन्नि-परमाधामिकाः शत्रब इन समुद्गरमुसलान्यादाय तत्महारेण नारकिजीवशरीरं चूर्णयन्ति। गाढं महतदेहास्ते नारकिजीवा अधोमुखा रुधिरं स्वमुखाद्वमन्तो घरगीतले पतन्ति, इति ॥१९॥ चूर करते हैं । चूर चूर हुई देहवाले नारक रुधिर को बमन करते हुए अधोशिर होकर पृथ्वीतल पर जा गिरते हैं ।।१९॥ . टीकार्थ--परमाधार्मिक मुद्गरसहित मूलल ग्रहण करशे पूर्वभव के वैरी के जैसे अथवा पूर्व भव के शत्रु नारक आपस में एक एक दूसरे को रोष के साथ चूर चूर कर देते हैं अर्थात् उनके अंगों को तोड देते हैं। टूटे हुए देहवाले वे नारकजीव धिर को वमन करते हैं उनके अंग अंग से रकबहता है। वे अपोशिर होकर धरती पर गिरते हैं। आशय यह है कि परमाचार्मिक शत्रु के समान मुनर के साथ मूसल लेकर उसके प्रहार से नारकियों के शरीर को चूर्णित कर देते हैं। ચૂરે સૂરા કરી નાંખે છે. આ પ્રકારે જેમનું શરીર છિન્નભિન્ન કરી નાખવામાં આવ્યું છે એવા નારકે લેહીની ઉલટી કરતાં કરતાં ઊંધે માથે જમીન પર પડી જાય છે. ૧૯ ટીકાઈ–-જાણે કે પૂર્વભવના દુમને હેય એવી રીતે પરમધામિકે નારકેના શરીર પર મગદળ અને મૂસળના પ્રહારો કરે છે. અથવા નારક પૂર્વભવનું વેર વાળવાને માટે એકબીજાના ઉપર એક મણ કરીને એક બીજાનાં અંગે તેડી નાખે છે. આ પ્રકારના પ્રહારને લીધે તેમના પ્રત્યેક અંગમાંથી લોહીની ધારા નીકળે છે અને તેમને લેહીની ઉલટીઓ પણ જાય છે આખરે શરીરની તાકાત ખૂટી જવાને કારણે તેઓ ઊંધે માથે ભૂમિતલ પર પડી જાય છે. આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે પરમધામિકે દુશ્મની જેમ તેમને સંસળ, મગદળ આદિ વડે મારી મારીને તેમનાં શરીરના ચૂરે ચૂરા કરી For Private And Personal Use Only Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थषोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ५ उ. २ नारकीयवेदनानिरूपणम् ३७ मूलम्-अणासिया नाम महासियाला पागन्भिगो तत्थ सया सकोगा। खेति तत्था बहुकूरैकम्मा, अदूरगा संकलियाहि बैद्धा ॥२०॥ छाया--आशिता नाम महाशालाः, गरिभणस्तत्र सदा सकोपाः । - खाद्यन्ते तत्स्थाः बहुराणिः, अदरमाः ,अलिकाभि बद्धाः॥२०॥ अन्वयार्थः ---(नस्थ) तत्र नरके (सया सकोवा) सदा सर्वकालं सकोपाः क्रोधयुक्ताः (अगासिया नाम) अशिताः बुभुक्षिताः (पागभिगो) प्रगत्मिनः धृताः जब उनके शरीर पर गाढ प्रहार किया जाता है तब वे अधोशिर होकर मुख से रुधिर वमन करते हुए भूमि पर जा पडते हैं ॥१९॥ 'अणामिया' इत्यादि। शब्दार्थ-'तत्थ-तत्र' उस नरक में 'सया सकोवा-सदा सकोपा' सदा क्रोधित 'अणासिया नाम-अनशिता नाम' क्षुधातुर ऐसे तथा 'पागभिणो-प्रगल्भिन' धीट-भयरहित ऐसे 'महासियाला-महा. शृगाला। बडे बडे शृगाल रहते हैं वे गीदड बटुकूरकम्झा-बहुकर कर्माण' जन्मान्तर में पापकर्म किये हुए 'संकलियाहि-शृवलिकाभिः' जंजीर में 'यद्धा-बद्धाः' धे हुए 'अदूरगा-अदूरगा' निकट में रहे हुए 'तत्थातत्स्था' उस नरक में स्थित जीवों को 'खति-खाद्यन्ते' खण्ड खण्ड करके खा जाते हैं ॥२०॥ ___ अध्यार्थ-नरक में सदैव क्रुद्ध रहने वाले, सदैव भूखे एवं धीट निर्भय નાખે છે. જ્યારે તેમના શરીર પર કઠોર પ્રહાર પડે છે, ત્યારે તેઓ અધે સુખ હાલતમાં જમીન પર ફસડાઈ પડીને લેહીની ઉલ્ટીઓ કરે છે. છેલ્લા 'अणालिया' त्या शहाथ--- 'सत्य-तत्र' ते नरमा 'स या सकोवा-सदा सकोपाः' सहा जोषित 'अणासिया नाम-अनशिता नाम' क्षुधातु२ सेवा तथा 'पगमिणो-प्रगल्मिनः' मयरहित १ (बीट) 'महासियाला-महाशृगालाः' भाटा मोटा शिया २ छे, ते शिय!' 'बहुकर कम्मा-बहुक्करकर्माणः' मान्तरमा ५४ रेसा 'संकलियाहिं-शृनलिकाभिः' ७२मां बद्धा-बद्धा.' मधेस। 'अदूरगा-अदूरगाः' नोटमा २सा 'तत्था-तत्स्थाः' ते २४मा स्थित ७वाने 'खजंति-खाद्यन्ते' ટુકડા ટુકડા કરીને ખાઈ જાય છે. રા સૂત્રાર્થ–નરકમાં મહા ધીટ (શિયાળે) હોય છે. તેઓ ઘણાં જ For Private And Personal Use Only Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे निर्भयाः (महासियाला) महाशाला परमाधार्मिक वविता भवन्ति एभिः शृगाले (बहुकूरकम्मा) बहुक्र कर्मागः (संकलियादि) शृङ्खलिफामिः (पद्धा) बद्धाः-(तत्था) तत्स्थाः (खजीत) खाद्यन्ते-खण्डशः कृत्वा भक्ष्यन्ते इति ॥२०॥ टीका-'वस्थ' तत्र नरकाबासे 'सया सकोवा' सदा सकोपा-सदैव सकोपाः क्रोधशीलाः 'पागनिमणी' प्रालिममोऽतिश्रृष्टाः निर्भयाः परमाधार्मिकैविकुर्विताः 'अणासिया' अनशिताः क्षुधानुराः, नामशब्दः संभावनायाम् ‘महासियाला' महागाला:-अतिदीर्घायाः जंबूकाः एभिः शृगलेः परमाधार्मिकैः 'बहुकूरकम्मा बहुक्रूरकर्मामा, पूर्वजन्मनि भतिकठोरं पाणिदिसादिकं ये कुर्वन्ति स्म ते 'संकलियाहि' बनशंखलामिः 'बद्धा' बदाः 'अदूरगा' अदूरगाः समीपे विद्यमानाः 'तत्था' तत्स्था:-गरके स्थितास्ते नारकिजीयाः 'खजति' खाधन्ते शृगालस्ताविशेषणोपेतैर्नारकिजीवास्तत्र नरकापासे भक्ष्यन्ते, इति ॥२०॥ महागाल होते हैं । पारमार्मिक पिक्रिया से उन्हें उत्पन्न करते हैं । उन शृगालों के द्वारा अतीव क्रूरकर्मी एवं सांकलों से बँधे हुए नारक जीव भक्षण किये जाते हैं ॥२०॥ टीकार्थ--नरकास में सदैव बुद्ध रहने वाले, अत्यन्त धृष्ट निर्भय और भूखे शृगाल होते हैं। वे दीर्घकाय होते हैं और परमाधार्मिक विक्रिया के द्वारा उनको उत्पन्न करते हैं। पूर्वजन्म में हिंसा आदि कर कर्म करने वाले तथा शृंखलाओं से बद्ध एवं समीपवर्ती नारक जीवों को वे खाते हैं । अर्थात् वहाँ भूखे शृगाल सांझलों से बँधे हुए नारकों को खाते हैं ॥२०॥ ભૂખ્યાં, ક્રોધી અને નિર્ભય હોય છે. પરમધામિકે પિતાની વૈકિય શક્તિ વડે તે શિયાળેની ઉત્પત્તિ કરે છે. પૂર્વભામાં ઘોર પાપકર્મો કરનારા, સાંકળ વડે બાંધેલા તેનારનું આ મહાશિયાળો દ્વારા ભક્ષણ કરાય છે. જેના ટીકા–નરકાવાસમાં સદા ક્રોધથી યુક્ત રહેવાના સ્વભાવવાળાં, અત્યપ્ત ઇષ્ટ, નિમય અને ભૂખ્યા શિયાળે હેય છે તેમનું શરીર ઘણું જ વિશાળ હોય છે. પિતાની ક્રિય શક્તિ વડે પરમાધાનિકે તેમનું નિર્માણ કરે છે. પૂર્વભવમાં હિંસા આદિ કૂર ક કરવાથી નરકમાં ઉત્પન્ન થયેલાં, સાકળો વડે બંધાયેલાં નારકોની પાસે આ શિયાળે પડવી જાય છે અને તેમનાં શરીરમાંથી માંસનું ભક્ષણ કરે છે. ર૦ For Private And Personal Use Only Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. शु. अ. ५ उ. १ नारकीयवेदनानिरूपणम् ४३९ मूलम् - संयाजला नाम नदी भिंदुग्गा, पैविचलं लोहविलीणतत्ता | जंसी भिदुग्गंसि पंत्रजमाणा, एंगायनीणुक्रमणं कैरोते ॥ २१ ॥ छाया - सदाजला नाम नदी दुर्गा मां लोहविलीनaar | यस्यामभिदुर्गायां प्रथमाना एसे अत्राणा उत्क्रमणं कुर्वन्ति ॥ २१ ॥ अन्वयार्थ :- (सयाजला नाम) सदाजला नाम- सर्व हालं जलपूरिता (भिदुग्गा) अभिदुर्गाऽतिविषमा (नदी) नदी एका विष्ठति (पचिज्जल) पदीप्तजला पिच्छिलारुधिरावित्वात् (atefaकोणतता) लोहविलीनतप्ता-अतितापद्रवितलोदसदृश 'समाजला' इत्यादि । शब्दार्थ - 'सघाजला नाम-सदावला नाम' सदाजला नामकी 'भिदुग्गा - अभिदुर्गा' अत्यंत विषम 'नदी-नदी' एक नदी हैं 'पविज्जलं प्रदीप्तजलां' उसका जल पीव (रस्सी) एवं रक्त मिश्रित होता है अथवा वह बडी पिच्छिल अर्थात् दर्द है 'लोहविलीनता - लोह विलीन तप्ता' तथा वह अग्नि से पिघले हुए लोग के द्रव के समान अति उष्ण जलवाली है 'अभिदुग्गंसि-अभिदुर्गायाम्' अतिविषम 'जंसि-यस्य' जिस नदी में 'पवज्जमाना - प्रपथमाना' पडे हुए नारकी जीव 'एगायत्ताण - एके अत्राणाः' अकेला रक्षकरहित होकर 'उद्यमणं करें तिउत्क्रमणं कुर्वन्ति' यहां काल उछलते रहते हैं ॥२१॥ अन्वयार्थ -- नरक में एक लदाजला नदी है । वह सदैव जल से परिपूर्ण रहती है और अत्यन्त विषम है। वह रुधिर से व्याप्त है और 'सयाजला' इत्यादि - शब्दार्थ - 'सयाजला नाम - सदाजला नाम' सहानसा नाम 'भिदुग्गा - अभिदुर्गा' अत्यंत विषम 'नदी-नदी' मे नही हे 'प विज्जलं प्रदीमजलां ' तेनु' પાણી પરુ એવ' લાઠ્ઠી મિશ્રિત હોય છે અથવા તે મેટી પિચ્છિલ અર્થાત્ उभयुक्त छे 'लोहविलीणवत्ता-लोहविलीनतप्ताः' तथा ते अग्निथी पीधणेस सोष उना द्रवशुना समान अति गरम पाणीवाणी छे 'अभिदुग्गंसि - अभिदुर्गायाम् ' अतिविषभ 'जेखि -यश्यां' के नहीभां 'पवज्जमाना - प्रपद्यमानाः पडेल नाव 'एगायत्ताण- एके अत्राणाः' मेहता रक्ष वगरना थाने 'उकमणं करे 'ति - उत्क्रमणं कुर्वन्ति' त्यां सर्वास छणता रहे छे. ॥२१॥ સૂત્રા—નરકમાં એક એવી નદી છે કે જે સદા પાણીથી ભરપૂર રહે છે તે નદી ઘણી જ વિષમ છે. તે નદી પરુ અને લેહીથી ભરેલી છે, તેનું પાણી For Private And Personal Use Only Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४४० सुत्रकृताङ्गस्वे - जला (अभिदुग्गंसि) अभिदुर्गायामतिविषणायां (जस) यस्यां नयां (पबजमाणा) मपद्यमाना नैगिकाः (एगागस?) एके अनाणाः रक्षकरहिता: (3क्काणं करें ति) उत्क्रमणं कुर्वन्ति-उत्क्रमणं गाने प्हणनं का कुन्ति परमधार्मिकप्रेरणयेति ॥२१॥ टीका--'सयाजला' सदाजला सदा-सर्वदा जलं विद्यते यस्यां सा सदाजला सर्वदा जलयुता सदानलानिधाना वा 'अभिदुग्गा' अभिदुर्गा-अतिदुर्गा, अतिविषमा त मशक्या 'पविज्जलं' प्रदीप्तजला पिच्छिलो, तज्जलं क्षारपूसरुधिरमिश्रितमिव विद्यते । अश्ववा-रुधिराजिलवादतिपिच्छिला 'लोहविलीनउता' लोहविलीनतप्ता-अग्निना तापिलद्रवितलौहवत् अतिशयेन संकपत उलं विद्यते याय सा लौह विलीन हप्ता । अग्निसप्तद्रवितलोहात् अायुष्णजलप्रपूरिता जसी' ययां 'अभिदुग्गसि' अभिदुईयातिविषमायाय नद्याम् , 'जमाया' प्रपद्यमाना:प्राप्तवन्तो नारकजीवाः तादृशनदीम्। 'एगायताण' एके अत्राणाः एकाकिन उसका जल इतना उष्ण है जै प्ले तीव्र नाप से द्रवीभूत हुआ लोहा हो। उस अत्यन्त दुर्गम नदी में पडे नारक अन्नाग होकर उछलते हुए दुःख पाते हैं । २१॥ टीकार्थ--जिसमें सदैव जल बना रहता है वह नदी सदाजला कहलाती हैं । अधवा 'सदाजला' उसका नाम है । जिसको तैरना बहुत कठिन है। उसका जल क्षार, पीव और रुधिर से मिश्रित है या रुधिर से व्याप्त होने के कारण अत्यन्त पंकिल है । अग्नि में तपाये हुये और पिघले हुए लोहे के समान अतीव उष्ण जलवाली है। इस प्रकार अतिशय उष्ण जल से परिपूर्ण तथा अति विषम नदी में वे नारक जीव असहाय एवं अशरण होकर उछलते रहते हैं। परमाधार्मिक उन्हें तिरने के लिये विवश करते हैं। ગરમા ગરમ લેઢાના રસ જેવું અતિઉણ છે. તે અત્યન્ત દુર્ગમ નદીમાં પડેલાં નારકે ખુબ જ અસહાય દશાને અનુભવ કરે છે. પરમાધામિકે તેમને બળાત્કારે તે નદીમાં નાખે છે. મારા ટીકાઈ–જેમાં પાણી કાયમ ટકી રહે છે, એવી નદીને “સદા જલા' કહે છે. અથવા તે નદીનું નામ “સદા જલા” છે, તે નદીમાં તરવાનું કાર્ય ઘણું જ કઠણ છે. તેનું પાણી ક્ષાર, રુધિર અને પથી મિશ્રિત હોવાને કાશે, અથવા રૂધિરથી વ્યાપ્ત હેવાને કારણે ખૂબજ ગંદુ છે તે પાણી ભઠ્ઠીમાં તપાવેલા લેઢાના રસ જેવું અતિ ઉષ્ણ છે. તે નદીમાં પરમ ધાર્મિક નારકેને બળજબરીથી નાખે છે. બિચારા નિરાધાર અને અસહાય નારકને લાચારીથી તેમાં પડવું પડે છે. For Private And Personal Use Only Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. उ. ५ सू. २ नारकीयवेदनानिरूपणम् ४४१ स्त्राणविवर्जिताः 'उक्कमणं करेंति' उत्क्रमणं उत्प्लवनं कुर्वन्ति सदा तत्र तरन्त एव संतिष्ठन्ते । सदाजलाती नाम्नी नरकस्यैका नदी विद्यते । सा चाऽति. दुःखदायिनी, तज्जलं क्षारपूयरुधिराविलं सर्वदा भवति। तथा तापितविलीन लौहवत् अत्युग्गज ठक्ती । ताशनांगता नारकाः परमदुःख ननिका क्षेत्रवेदनामनुभवन्तः सदेिव प्लवन्तीति भावः ॥२१॥ मूलम्-ऐयाई फाप्लाई फुसति बालं, निरंतर तत्थ चिरद्वितीयं । ण हम्ममाणस्स उ होइ ताणं, एंगो सयं पञ्चणुहोइ दुक्खं ।२२। छाया-एते स्पर्शाः स्पृशन्ति बाल निरन्तरं तत्र चिरस्थितिकम् । न हन्यमानस्य तु भवति त्राणमेकः स्वयं प्रत्यनुभवति दुःखम्॥२२॥ आशय यह है-नरक में सदानला नाम की एक नदी है । वह घोर दुःख देने वाली है। उसका जल सदैव क्षार पीव एवं रक्त से व्याप्त रहता है । तपाए और पिघले लोहे के समान अतीव उष्ण जलवाली है । उस नदी में गिराए हुए नारक अतिशय विषम क्षेत्रवेदना को अनुभव करते हुए उछलते रहते हैं ॥२१॥ उद्देशक के अर्थ का उपसंहार करते हुए सूत्रकार पुनः नरक के स्वरूप को ही दिखलाने के लिए कहते हैं--'एयाई' इत्यादि । शब्दार्थ-'तत्थ-तत्र' उस नरक में 'चिरद्वितीयं-चिरस्थितिकम् दीर्घकालपर्यन्त निवास करने वाले अर्थात् पल्योपम सागरोपम काल तक निवास करनेवाले 'घालं-बालम्' अज्ञानी नारकी जीव को 'एयाईएते' पूर्वोक्त ये उपर्युक्त 'फासाई-स्पर्शाः स्पर्श अर्थात् दुःख 'निरंतरं આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે નરકમાં સદા જલા નામની એક નદી છે, તે નદી નારકોને ખૂબ જ દુઃખદાયક થઈ પડે છે. તેનું પાણી સદા ક્ષાર, લોહી અને પથી વ્યાપ્ત રહે છે. તપાવીને ઓગાળેલા લેઢા જેવાં તે ઉણ પાણીવાળી નદીમાં નારકોને ધકેલી દેવામાં આવે છે. બિચારા નારકોને અતિશય વિષમક્ષેત્રવેદનાને અનુભવ કરવા થકી તે નદીમાં ઉછળતા રહેવું પડે છે. મારા આ ઉદ્દેશકના વિષયને ઉપસંહાર કરતા સૂત્રકાર કહે છે'एयाइ' त्याह शाय-'तत्थ-तत्र' ते २४मा 'चिरद्वितीयं-चिरस्थितिकम्' Rism પર્યત નિવાસ કરવાવાળા અર્થાત પલ્યોપમ સાગરોપમ કાળ સુધી નિવાસ ४२पापा 'बाल-बालम्' अज्ञानी नावाने 'एयाई-एते' मा उपयुxt 'फासाई-स्पर्शाः' १५ अर्थात् म 'निरंतरं-निरन्तरम्' सहा-हमेशा स. ५६ For Private And Personal Use Only Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कृताङ्गसूत्रे .. अन्वयार्थः-(तत्थ) तत्र नरके (चिरद्वितीयं चिरस्थितिक-पल्योएमसागरो. पमकालनिवासिनं (बालं) बालमज्ञानिनम् (एयाई) एते-उपर्युक्ताः (फासाई) स्पर्शाः दुःखानि (निरंतर) निरन्तरं-सततं (फुसंति) स्पृशन्ति-दुःखयन्ति (हम्ममाणस्स उ) हन्यमानस्य नैरयिकस्य तु (ताणं ण होइ) त्राणं शरणं रक्षको न भवति, (एगो) एक एव कर्मवंशगो नापरमातापित्रादिकः (सयं) स्वयं (दुक्खं) दुःखं (पञ्चणु होइ) प्रत्यनुभवतीति ॥२२॥ .. टीका-संपति-उद्देशकार्थमुपसंहरन् पुनस्तदेव नरकस्वरूपं दर्शयितुमाह'एयाई' इत्यादि । 'तत्य' तत्र-तादृशनरके 'विरद्वितीय' चिरस्थितिकम् , नैरन्तयेण 'बालं' बालम्-हिंसादिक्रूरकर्भकारकं नैरयिकम् 'एयाई एते पूर्वोपदर्शितनिरन्तरम्' सदा 'फुसंति-स्पृशन्ति' पीडित करते रहते हैं 'हम्ममाणस्स उ-हन्यमानस्य तु' पूर्वोक्त दुःखों से मारे जाते हुए नारकी जीव का 'ताणं ण होइ-त्राणं न भवति' रक्षण करने वाला कोई नहीं होता है 'एगो-एकः' वह अकेला ही 'सयं-स्वयम्' आप ही 'दुक्ख-दुक्खम्' दुःखों को 'पच्चणुहोइ-प्रत्यनुभवति' भोगता रहता है ॥२२॥ ___ अन्वयार्थ-नरक में दीर्घकालीन स्थितिवाले अज्ञानी जीवों को उल्लिखित दुःख निरन्तर भुगतने पड़ते हैं । आहत किये जाने वाले नारक जीवों का वहां कोई रक्षक नहीं होता। वे एकाकी स्वयं ही दुःखो का अनुभव करते हैं ॥२२॥ टीकार्थ--नरक में चिरकालीन अर्थात् पल्योपम और सागरोपम की आयुवाले तथा हिंसादि क्रूर कर्म करनेवाले नारक को यह पूर्ववर्णित 'फुर्सति-पृशन्ति' पारित ४२ छ 'इम्ममाणस्स उ-हन्यमानस्य तु' पूर्वहितमोथी भारपामा मातi नानु 'ताणं ण होइ-त्राणं न भवति' २क्षण ४२वावा डात नथी 'गो-एकः' ते sat 'सयं-स्वयम्' पोते 'दुक्ख-दुखम्' माने 'पच्चणुहोइ-प्रत्यनुभवति' गत २६ छे. ॥१२॥ સૂવા–નરકમાં દીર્ઘકાલીન સ્થિતિવાળા અજ્ઞાની છોને આગળ વર્ણવ્યા પ્રમાણે દુઃખ નિરન્તર સહન કરવા પડે છે. પરમધામિક દ્વારા જેમનું તાડન, વેદન, ભેદન આદિ કરવામાં આવે છે, એવાં નારકને શરણ આપનાર ત્યાં કઈ પણ હેતું નથી. તેમને નિરાધાર દશામાં મૂકાઈ જવાને કારણે જાતે જ તે દુઃખ વેઠવું પડે છે. તેમના તે દુઃખમાં કોઈપણ વ્યક્તિ ભાગ પડાવતી નથી. તેમણે કરેલાં પાપકર્મોનું ફળ ત્યાં તેમને જ ભોગવવું પડે છે. પરરા ટીકાથ–પૂર્વભરમાં હિંસાદિ ક્રૂર કનું સેવન કરનાર પાપી જીવને નરકમાં નારક રૂપે ઉત્પન્ન થવું પડે છે. નારકેનું આયુષ્ય ઘણું જ લખું For Private And Personal Use Only Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समार्थबोधिनी टीका प्र. शु. अ. उ. ५ सु. २ नारकीयवेदना निरूपणम् ४४३ प्रकारकाः 'फासाई' स्पर्शाः - स्पृश्यन्ते इति स्पर्शाः दशविधक्षेत्रवेदनाजनिताः 'दुःखविशेषाः 'निरंतर ' निरन्तरं सततम् 'फुसंति' स्पृशन्ति, एते दुःखविशेषाः दुःखयन्ति बालम् । रहनप मायाम् उत्कृष्टा स्थितिः सागरोपमम्, तथा द्वितीयायां शर्करामभायां त्रीणि सागरोपमाणि, बालकायां सप्त, पङ्करभायां दश, धूमप्रभायां सप्तदश; तमः प्रभायां द्वाविंशतिः, तमस्तमः प्रभायां सप्तमपृथिव्यां त्रयस्त्रिंशत् सागरोपमाणि उत्कृष्टा स्थिति र्भवति । 'हम्ममाणस्स ३' हन्यमानस्य तु पूर्वोक्त दुःखेन पीडितस्य 'ताणं ण होइ' त्राणं न भवति न कोपि तस्य रक्षको भवतीत्यर्थः अपि तु 'गे सयं' एकाकी स्वयमेव 'दुक्खं पच्चणुदोई' दुःखं प्रत्यनुभवति, एक एव दुःखस्य भोक्ता भवति न भवति कश्चिदपि सहायकः । तदुक्तम्--- - मया परिजनस्यार्थे कृतं कर्म सुदारुणम् । एकाकी तेन दोऽहं गतास्ते फलभोगिनः ||१|| ' इति ॥ २२ ॥ दस प्रकार की क्षेत्रवेदना से उत्पन्न होने वाले दुःख निरन्तर ही भोगने पड़ते हैं । प्रथम रत्नप्रभा पृथ्वी में उत्कृष्ट स्थिति एक सागरोपम की, दूसरी शर्कराप्रभा में तीन सागरोपम की, बालुकाप्रभा में सात सागरोपम की, पंकप्रभा में दस सागरोपम की, धूमप्रभा में सतरह सागरोपम की, तमःप्रभा में बाईस सागरोपम की और सातवीं तमस्तमा प्रभा में तेंतीस सागरोपम की है । जब नारकजीव मारा पीटा जाता है तो कोई उसका रक्षक नहीं होता। वह अकेला ही दुःख का अनुभव करता है । उस समय जीव ऐसा विचार करता है कहा भी है- 'मया परिजनस्यार्थे' इत्यादि । હાય છે, તે કારણે તેમને પૂર્ણિત દસ પ્રકારની ક્ષેત્રવેદનાઓને ઘણા લાંખા સમય સુધી અનુભવ કરવે પડે છે. પહેલી રત્નપ્રભા પૃથ્વીમાં નારકની પર્યાયે ઉત્પન્ન થયેલા જીવાની ઉત્કૃષ્ટસ્થિતિ એક સાગરાપમની છે. બીજી શર્કરાપ્રભા પૃથ્વીમાં ત્રણ સાગરે પમની, ત્રીજી વાલુકાપ્રભા પૃથ્વીમાં સાત સાગરોપમની, ચેથી પ`કપ્રભા પૃથ્વીમાં દસ સાગરોપમની, પાંચમી ધૂમપ્રભામાં સત્તર સાગરોપમની, છઠ્ઠી તમ:પ્રભામાં બાવીસ સાગરોપમની અને સાતમી તમસ્તમઃપ્રભામાં તેત્રીસ સાગરોપમની ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ કહી છે. નરકામાં પરમાધામિકા દ્વારા નારકોને જ્યારે મારવામાં આવે છે, ત્યારે તેમનું રક્ષy કરનાર ત્યાં કાઈ પણ હેતુ નથી, તે એકલો જ દુઃખનુ વેદન કરે છે. નરકમાં અસહ્ય યાતનાએ અનુભવતા જીવ ય.રે આ પ્રમાણે વિચાર કરે એ 'मया परिजनस्यार्थे' छत्याहि- For Private And Personal Use Only Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir મ सूत्रकृताङ्गसू मूलम् - जं जारिसं पुवमकोसी कॅम्मं, तमेव आगच्छइ संपराए । एतदुक्ख वमज्जणित्ता वेदति " दुक्खी तणंतदुक्खं ॥ २३ ॥ ४ छाया - यद् यादृशं पूर्व नकार्षीत्कर्म तदेवागच्छति संपराये । -- एकान्तदुःखं भवमर्जयित्वा वेदयन्ति दुःखिनस्तमनन्त दुःखम् ॥२३॥ हाय मैंने कुटुम्बी जनों के लिए अत्यन्त क्रूर कार्य किये, पर उनसे लाभ उठाने वाले वे सब तो चले गए। मैं अकेला ही अपने कर्मों का फल भोग रहा हूँ । आज संताप की ज्वालाओं में दग्ध हो रहा हूँ ||२२|| 'जं जारिसं' इत्यादि । शब्दार्थ - 'जं यत्' जो 'जारिसंघादृशं' जैसा 'पुव्वं पूर्वम्' पूर्व जन्म में 'कम्मं - कर्म' कर्म को 'अकासी अकार्षीत्' किया है 'तमेवतदेव' वही कर्म ' संपराए - संपराये' संसार में 'आगच्छइ - आगच्छति' उदय में आता है 'एतदुक्ख' एकान्त दुःखम्' जिसमें सुखलेश रहित केवल दुःखमात्र होता है ऐसे 'भवं भवम्' भव को 'अज्जणित्ता-अर्ज यित्वा प्राप्त करके 'दुक्खी - दुःखिनः' केवल दुःखी जीव 'अनंतं दुक्ख' तं - अनन्तदुःखम् तत्' अनन्त दुःख स्वरूप उसको 'वेदेति वेदयन्ति' भोगते रहते हैं ||२३|| હાય, કુટુંબીઓને માટે મેં અત્યન્ત ક્રૂર કર્મોનું સેવન કર્યુ”, પરન્તુ તેનાથી જેમણે લાભ ઉઠાવ્યે તેઓ તે ચાલ્યા ગયા-તે પાપકર્મોનું કુળ ભગવવામાં કઇ ભાગીદાર ન થયું ! હું એકલા જ મારા પાપકર્મોનું ફળ ભાગવી રહ્યો છું. આજ હુ' એકલે જ સંતાપની વાળાએ વડે મળી રહ્યો છું. ૫૨૨૫ 'जं जारिस' इत्याहि - शब्दार्थ' - 'जं यत्' ने 'जारिस - यादृश" भे 'पुच्वं - पूर्वम्' पूर्वजन्मभ 'कम्मं - कर्म' म'ने 'अकासी - अकार्षीत् रेस छे, 'तमेव तदेव' ते उभ 'संपराए-संवराये' स ंसारभां 'आगच्छइ - आगच्छति' उध्यमां आवे छे. 'पगतदुक्ख' - एकान्तदुःखम् ' मां सुभदेश रहित ठेवल हुआ मात्र होय छे, सेवा 'भवं भवम्' लवने ‘अज्जणित्ता- अर्जयित्वा' आस उरीने 'दुक्खी - दुःखिनः' ठेवल दुःषी व 'अणं तं दुक्खतं - अनन्त दुःखम् तत्' अनन्त दुःख स्व३५ तेने 'वेदे 'ति - वेदयन्ति' लोगवता रहे है. ||२३|| For Private And Personal Use Only Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र.श्रु. अ. उ. ५ सू.२ नारकीयवेदनानिरूपणम् ४४५ ___ अन्वयार्थः—(ज) यत् (जारिस) यादृशं (पुर्व) पूर्व-पूर्वजन्मनि (कम्म) कर्म (अकासी) अकार्षीत् -कृतवान् (तमेव) तदेव कर्म (संपराए) संपराये संसारे (आगच्छइ) आगच्छति उदये । तेन (एगंतदुक्खं) एकान्तदुःखं सुखलेशवर्जितम् (भव) भवं (अज्जणित्ता) अनयित्वा-पाप्य (दुक्खी) दुःखिनः सन्तो जीवाः (अणंत दुक्खं तं) अनन्तदुःखं तत् (वेदेति) वेदयन्ति अनुभवन्ति इति ॥२३॥ ___टीका--(ज) यत् ' जारिसं' यादृशम्-यदनुभावकम् यादृशस्थितिकम् वा 'पुन्न' पूर्वम्-पूर्वजन्मनि 'कम्म' कर्म 'अकासी' अकार्षीत् कृतवान् 'तमेव' तदेव कर्म 'संपराए' परभवे 'आगच्छई' आगच्छति-तदेव कर्म विपाकोदये फलभोगाय प्राप्तं भवति । तीवमन्दादिभेदेन यादृशं कर्म संपादितम् , विपाकोदये तादृशमेव आगच्छति फलाय । तथा 'एगंतदुक्खं एकान्तदु खम् भवम् 'अज्जणित्ता' अर्जयित्वा 'दुक्खी' दुःखिनः 'अणंतदुक्खं' अनन्तदुःखम् 'वेदेति' वेदयन्ति । उक्तं च__ अन्वयार्थ-पूर्वकाल में जैसा कर्म किया है, वहीं आगे उदय में आता है, एकान्त दुःखमय भव को प्राप्त करके सर्वथा दुःखी जीव अनन्त दुःख का वेदन करते हैं ॥२३॥ टीकार्थ--जिस प्रकार के अनुभाग (रस) वाला तथा जितनी स्थिति वाला कर्म पूर्वकाल में बांधा है, वही और वैसा ही उत्तरकाल में विपा. कोदय में आता है अर्थात् फल भोगना पड़ता है। तीव्र या मन्द-जिस प्रकार के अध्यवसाय से जैसा तीव्र या मन्द रसवाला कर्म बांधा है, फलभोग के समय वही सामने आता है । नारकजीव एकान्त दुःखपूर्ण, भव को उपार्जन करके एकान्त दुःखी होते हैं और अनन्त दुःख સૂત્રાર્થ–પૂર્વકાળમાં જેવા કર્મો કર્યા હોય છે, એજ ભવિષ્યમાં ઉદયમાં આવે છે. એકાન્ત દુઃખમય (સંપૂર્ણ રૂપે દાખમય) ભવને પ્રાપ્ત કરીને સર્વથા દુખી જીવ અનન્ત દુઃખનું વેદન કરે છે. પર૩ ટીકાઈ–જે પ્રકારના અનુભાગ (રસ) વાળું તથા જેટલી સ્થિતિવાળું કર્મ પૂર્વકાળમાં બાંધ્યું હોય, એજ અને એવું જ કામ ઉત્તરકાળમાં વિપા કેદયમાં આવે છે-એટલે કે એવું જ ફળ ભોગવવું પડે છે, તીવ્ર અથવા મન્દ-જે પ્રકારના અધ્યવસાયથી, જેવાં તીવ્ર અથવા મદ રસવાળું કમ બાંધ્યું હોય છે. ફલ ભેગને સમયે એજ (કમ) સામે આવે છે. નાક જીવ એકાન્ત (સંપૂર્ણ દુઃખપૂર્ણ ભવનું ઉપાર્જન કરીને એકાન્ત (સંપૂર્ણ રૂપે દુઃખી थाय छ भने अनन्त हुमाग छ. यु ५४ छ -'यथा धेनुर हस्रेषु' साहि For Private And Personal Use Only Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - सूत्रकृतासन 'यथा धेनुसहस्रेषु वत्सो धावति मातरम् । एवमात्मकृतं कर्म,कर्तारमनुधावति ॥१॥' येन जीवेन यादृशं कर्म वर्तमानभवे, कृतं तत् कर्म परभवे तमेव पुरुष प्राप्नोति स्वकृतकर्मणः फलं स्वयमेव भुङ्क्ते इति भावः ॥२३॥ मूलम्-एयाणि सोचा नरगाणि धीरे न हिंसए किंचण सबेलोए। एंगंतदिट्टी अपरिगगहे उ बुझिंज लोयस्स वसं न गच्छ।२४॥ छाया-- एतान् श्रुत्वा नरकान् धीरो न हिस्यात्कंचन सर्वलोके। __ एकान्तदृष्टिरपरिग्रहस्तु बुद्धयेत लोकस्य वशं न गच्छेत् ॥२४॥ को भोगते हैं, कहा भी है-'यथा धेनुसहस्रेषु' इत्यादि । जैसे हजारों गायों में से बछड़ा अपनी माता को पहचान कर उसी के पास जाता है, उसी प्रकार अपने किये कर्म अपने को ही फल देता है। तात्पर्य यह है कि जिप्स जीव ने जैसा कर्म किया है वह वर्तमान भव में अथवा परभव में वैसा ही फल भोगता है ॥२३॥ 'एयाणि सोच्चा' इत्यादि। शब्दार्थ-धीरे-धीरः' घोर पुरुष 'एयाणि नरगाणि-एतान् नरकान' इन नरकों को 'सोच्चा-श्रुत्वा' सुनकर 'सव्वलोए-सर्वलोके' सब लोक में 'किंचण-कंचन किसी प्राणी की 'न हिंसए-न हिंस्थात् हिंसा न करे किन्तु 'एगंतदिही एकान्तदृष्टिः' सर्व जीवादितत्वों में विश्वास रखता हुआ 'अपरिमाहे उ-अपरिग्रहस्तु' परिग्रह से रहित જેવી રીતે હજાર ગાયના સમૂહમાંથી પણ વાછડુ પિતાની માતાને से.मी ने तेनी १ ५:से तय छ, मेरा प्रमाणे पाते ४२७ म પિતાને જ ફળ દે છે. એટલે કે કરેલા કર્મનું ફળ જીવને અવશ્ય लोग ५३ छे.' તાત્પર્ય એ છે કે જેવું જીવે જે કર્મ કર્યું હોય એવું જ ફળ તેને વર્તમાન ભવમાં અથવા પરસવમાં ભોગવવું જ પડે છે. ૨૩ 'एयाणि सोच्चा' इत्याहिAvt-'धीरे-धीरः' धा२५२५ 'एयाणि नरगाणि-एतान् नरकान्' २मा न२. ने सोच्चा-श्रुत्वा' सालणाने 'सव्वलोए-सर्वलोके' मा १ मा 'किंचणकंचन' प प्रायानी 'न हिंसए-न हिस्यातू' डिसा ना रे ५न्तु 'एगंतदिनी-एकान्त दृष्टिः' ५५ ७ विगरे तमा विश्वास रामत! 'अपरिगहे उ For Private And Personal Use Only Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. उ. ५ सू. २ नारकीयवेदनानिरूपणम् ४४७ __अन्वयार्थः- (धीरे) धोरो-विद्वान-मेधावी मुनिः (एशणि नरगाणि) एतान् नरकान् (सोच्चा) श्रुत्वा (सबलोए) सर्वलोके (किंवण) कंचनापि प्राणिनं त्रसस्थावरं वा (न हिंसए) न हिंस्यान मारयेत् किन्तु (एगंतदिट्ठो) एकान्तदृष्टिः सर्वजीवादितत्वेषु विश्वासं कुर्वन् (अपरिग्गहे उ) अपरिग्रहस्तु-परिग्रहरहितः (बुज्झिज्ज) बुद्धयेत अशुभकर्म तत्फलं च जानीयात् ज्ञात्वा च (लोयस्स) लोकस्य-अशुभकर्मकारिणो जनस्य कषायलोकस्य वा (वसं न गच्छे) वशं न गच्छेत् ॥२४॥ - टीका--'धीरे धीरो विद्वान्-परिषहजयनशीलो मेधावी मुनिः 'एयाणि' एतान् ‘णरगाणि' नरकान् 'सोच' श्रुत्वा 'सलोए' सर्वलोके, पाणिनिबहे 'किंचन' कमपि, त्रसं स्थावरं सूक्ष्मवादरमपर्याप्तंपर्याप्त वा प्राणिनम् 'न हिंसए' होकर वुज्झिज्ज-बुद्धयेल' अशुभ कर्म और उसका फल समझे अथवा कषायों को जाने और जानकर 'लोयस्त' लोकस्य लोकके अथवा कषाय लोकके 'वसं न गच्छे-वशं न गच्छेत्' वशवर्ती न बने ॥२४॥ ___ अन्वयार्थ--इन नरकों के स्वरूप को सुनकर मेधावी मुनि सम्पूर्ण लोक में (स्थित) किसी भी त्रस या स्थावर प्राणी की हिंसा न करे। जीवादि तत्वों पर निश्चल श्रद्धा रखता हुआ, परिग्रह से रहित होकर अशुभ कर्म और उसके करने वाले लोक और उसके फल को जाने और इन्द्रिय कषाय आदि के वशीभूत न हो ॥२४॥ टीकार्थ--धीर अर्थात् परीषहों का विजेता विद्वान् मुनि नरकों के स्वरूप को सुनकर सर्वलोक में किसी भी बस स्थावर सूक्ष्म चादर या पर्याप्त अपर्याप्त प्राणी की विराधना न करे अर्थात् किसी भी अपरिग्रहस्तु' परियडयो हित ने 'बुझिज्ज-बुद्धथेत' अशुल भ भने तभनु ३१ समरे १३1-पायाने अनेकाने 'लोयस्स-लोकस्य' उनी अथवा ४पाय ना 'वसं न गच्छे-वशं न गच्छेत्' १शक्ती ! मने ॥२४॥ ' સૂત્રાર્થ–નરકના આ સ્વરૂપનું શ્રવણ કરીને મેધાવી મુનિએ સમસ્ત લેકમાં રહેલા કેઈ પણ ત્રસ કે સ્થાવર પ્રાણીની હિંસા કરવી જોઈએ નહીં તેણે જીવાદિ તના વિષયમાં અડગ શ્રદ્ધા રાખીને પરિગ્રહને પરિત્યાગ કર જોઈએ, અશુભ કર્મ કરનાર ને કેવું ફળ મળે છે, તે જાણી લઈને તેણે કષાયને જીતવા જોઈએ અને ઈન્દ્રિયોને વશ રાખવી જોઈએ. રઝા ટીકાર્યું–નરકોના સ્વરૂપનું તથા નારકની કરુણ દશાનું આ વર્ણન સાંભળીને ધીર–પરીવ પર વિજય મેળવનાર વિદ્વાન મુનિએ સમસ્ત For Private And Personal Use Only Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे न हिंस्याम्-न विराधयेत् । यस्य कस्यापि पाणिनः यस्यां कस्यामप्यवस्थायाम् कमपि कारणविशेषमासाद्य विराधनं न कुर्यात् , पूर्वोक्तांस्तांस्तान नरकानवधार्य। यस्मात् पाणिवधकरणेन महती यमयातनाऽनुभूयते प्राणिवधिकैनर के । उक्तञ्च 'तस्मान्न कस्यचिद्धिसामाचरेन्मतिमानरः। हिंसको नरकं घोरं गन्ता यास्यति याति हि ॥१॥' इह हि हिंसेत्युपलक्षणम् तेन मृपावादाऽदत्तादानमैथुनपरिग्रहाणामपि संग्रहः । एतेऽपि नरकपापका शास्त्रविरुद्धमाचरतां । सत्स्वपि नरकपातकारिणीभूतेषु बहुषु हिंसापाधान्यं लेभे अस्तस्था एवोल्ले वः पूर्व कृतः । प्राणी की किसी भी अवस्था में, किसी भी कारण विशेष से हिंसा न करे। क्योंकि जो जीव प्राणियों का बध करते हैं, उन्हें नरक में महान् यातना भुगतनी पडती है । कहा भी है-'तस्मान्न कस्यचिद्धि मा' इत्यादि। इस कारण पतिमान् साधु किसी भी प्राणी का प्राणवापरोपण न करे। हिंसक जीव घोर नरक में गये हैं, जाएंगे और जा रहे हैं ॥१॥ यहाँ 'हिंसा' उपलक्षण मात्र है। उससे मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह पाप का भी ग्रहण करना चाहिए। ये मभी पाप शास्त्र से विपरीत आचरण करने वालों को नरक में ले जाने वाले हैं। यद्यपि नरक निपात के अनेक निमित्त हैं तथापि हिंसा उनमें प्रधान है। अतएव शास्त्रकार ने यहां उसी का उल्लेख किया है। લેકમાં કઈ પણ વસ, સ્થાવર, સૂમ. બાદર પર્યાપ્ત કે અપર્યાપ્ત છની વિરાધના કરવી જોઈએ નહીં એટલે કે તેણે કઈ પણ પ્રાણની, કઈ પણ પરિસ્થિતિમાં, કઈ પણ કારણે હિંસા કરવી જોઈએ નહીં. તેણે એ વાત ભૂલવી ન જોઈએ કે પ્રાણીઓને વધ કરનાર છવને નરક ગતિમાં નારક રૂપે ઉત્પન્ન થઈને ઘેર યાતનાઓ ભેગવવી પડે છે. કહ્યું પણ છે કે'तस्मान्न कस्यचिद्धिंसा' ल्याहि આ કારણે બુદ્ધિમાન સાધુએ કોઈ પણ પ્રાણીને પ્રાણેનું વ્યપરપણુ(वियो) ४२ नही सिवा २ न२४मा या छ, तय छ भने १॥ અહીં ‘હિંસા' પદના પ્રયોગ દ્વારા મૃષાવાદ, અદત્તાદાન, મિથુન અને પરિગ્રહના ત્યાગનું પણ સૂચન કરાયું છે, એમ સમજવું. આ બધા પાપનું સેવન કરનાર ને પણ નરકગતિની પ્રાપ્તિ થાય છે. જો કે નરકગતિમાં જવાનાં અનેક નિમિત્ત છે, છતાં પણ હિંસા તેમાં મુખ્ય નિમિત્ત રૂપ હોવાને કારણે સૂવારે અહીં તેને જ ઉલ્લેખ કર્યો છે. જીવ અજીવ આદિ For Private And Personal Use Only Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. शु. अ. ५ उ. २ नारकोयवेदना निरूपणम् 'एतदिट्ठी' एकान्तदृष्टिः एकान्तेन निश्चला जीवादितत्वेषु दृष्टिः सम्यगु दर्शनं यस्य स एकान्तदृष्टिः निष्कम्पसम्यगृष्टिमान् इति । तथा 'अपरिग्गद्दे' अपरिग्रहः- वाह्याभ्यन्तरपरिग्रहरहितः। तु शब्दादाद्यन्तयोः सम्यग्दृष्टयपरिग्रहयो रु• पादानाद्वा मृपावादादचादानमैथुनवर्जनमपि संगृहीतं भवतीति द्रष्टव्यम् अशुभ कर्म तत्फलं च 'लोयस्स' लोकस्य अशुत्रकर्मकारिणस्त द्विपाकफलभुजो वा संसारिणः । यद्वा-कपायादिलक्षणलोकं तद स्वरूपतः लक्षगतश्च । तेन सम्यग्दृष्टचादियुक्तः सन् 'बुज्जि' बुध्येत जानीयात् ज्ञपरिज्ञया, ज्ञात्वा च 'सं न गच्छे' कस्यापि पायादिलोsra aanधीनं न गच्छेयादियो को मेधावी पुरुषः एतान् ata aata आदि तत्वों पर जिसकी निश्चल श्रद्धा है अर्थात् जिसका सम्पग्दर्शन अचल है, वह यहां एकान्तदृष्टि विवक्षित है। जो बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह से रहित है वह अपरिग्रह कहलाता है । यहां प्रारम्भ के सम्यग्दर्शन और अम्ल के अपरिग्रह को ग्रहण करने से 'तु' शब्द के द्वारा मृषावाद, अदशादान और मैथुन का त्याग सूक्ष्म दृष्टि देने वालों के लिये संगृहीत हो जाता है। आशय यह कि सम्पष्टि तथा हिंसा आदि पापों का त्यागी मुनि अशुभ कर्म करने वाले और उसके फल को भोगने वाले संसारी जीवों को समझे अथवा कषायादि रूप लोक को स्वरूप एवं लक्षण से जाने । जानकर किसी भी कषायादि लोक के वशोभून न हो । आशय यह है कि कषाय आदि से मुक्त मेधावी पुरुष नरकों के स्वरूप को उनके विभिन्न कारणों को शास्त्र के अनुसार जानकर लोक તત્વા પર જેને અચલ શ્રદ્ધા છે, એટલે કે જેનું સમ્યગ્દર્શન અચલ છે, તેને અહી' ‘એકાંતર્દષ્ટિ' કહેવામાં આવેલ છે. જે મુનિ માહ્ય અને આભ્યન્તર પરિગ્રહથી રહિત છે, તેને અપરિગ્રહી કહે છે. અહીં પ્રારભના સમ્યગ્દર્શન અને અન્તના અપરિગ્રહ્નને ગ્રહણ કરવાથી ‘તુ’પટ્ટ દ્વારા મૃષાવાદ, અદત્તાદાને, અને મૈથુનના ત્યાગ પણ ગ્રહણ થઈ જાય છે. આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે સમ્યગ્દષ્ટિ તથા હિંસાદિ પાપેાના ત્યાગ કરનાર મુનિએ અશુભ કર્મ કરનારા અને તેનુ ફળ ભેગવનારા સ`સારી જીવાની દશાના વિચાર કરવા જોઈએ. અથવા તેણે કષાયાદિ રૂપ લેકને સ્વરૂપ અને લક્ષણની અપેક્ષાએ સમજી લેવે જોઈએ. આ વાતને સમજી લઈને તેણે કાઈ પણ કષાય આદિ સ’સાર વધારનારા દાષાને વશ થવુ જોઇએ નહી. આ સમસ્ત કથનના ભાવાથ એ છે કે કષાય આદિથી મુક્ત મેંધાવી सु० ५७ For Private And Personal Use Only Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूपकृतागसूत्रे नरकरवरूपान् तत्तत्कारणानि च शास्त्रतो ज्ञात्वा, इह लोके कस्यापि त्रसस्थापरादिमाणिविशेषस्य हिंसां न कुर्यात् । किन्तु तीर्थकरोदितजीवादितस्वजाते श्रद्धां कृत्वा संयम पालयेदिति ॥२४॥ मूलम्-एवं तिरिक्खे मणुयामरेसु चतुरंतऽणतं तयणुविवागं। से संवमेयं इति वेदेइत्ता कखेजे कॉलं धुंयमायरेज ॥२५॥ त्तिबेमि॥ ॥ इति नरयविभत्ती नाम पंचमज्झयणं समत्तं ॥ छाया एवं तियक्षु मनुनामरेषु चातुरन्तमनन्तं तदनु विपाकम् । स सर्वमेतदिति विदित्वा कक्षेत कालं ध्रुवमाचरेदिति ब्रवीमि ॥२५॥ ॥ इति नरकविभक्तिनामकं पञ्चममध्ययनं समाप्तम् ।। में स्थित किसी भी त्रस अथवा स्थावर प्राणी की हिंसा न करे, किन्तु तीर्थंकरों द्वारा प्ररूपित जीवादि तत्वों पर श्रद्धा रखता हुआ संयम का पालन करे ॥२४॥ . 'एवं तिरिक्खे' इत्यादि । शब्दार्थ-एवं-एवम्' इसी प्रकार नारक के जैसे 'तिरिक्खे-तिर्यक्षु' तिर्यश्च 'मणुयामरेसु-मनुजाऽमरेषु' मनुष्य और देवताओं में भी 'चतुरंतऽणं तं-चातुरन्तमनन्तम्' चार गतिवाले और अनन्त ऐसे संसार कों तथा 'तयणुम्विधार्ग-तदनु विपाकम्' उनके अनुरुप विपाक को जाने 'स-सः' वह बुद्धिशाली पुरुष 'एयं-एतत्' इन 'सव्वं-सर्वम्' सब बातों મુનિએ નરકેના સ્વરૂપને જાણીને તથા નરકમાં ઉત્પત્તિ કરાવનારા ભિન્ન વિના કારણેને શાસ્ત્રોને આધારે જાણું લઇને, લેકમાં રહેલા કઈ પણ વસ અથવા સ્થાવર પ્રાણીની હિંસા કરવી જોઈએ નહીં, પરંતુ તેણે તીર્થકરે દ્વારે પ્રરૂપિત છાદિત પર શ્રદ્ધા રાખીને સંયમનું પાલન કરવું જોઈએ, રજા . 'एवं तिरिक्खे' त्या wal-एवं-एवम्' मा प्ररे ना२४नी रेभ 'तिरिक्खे-तिर्यक्षु' तिय" 'मणुयामरेसु-मनुजाऽमरेषु' भनुष्य भने देवतासामा ५५ चतरंतऽणतंचातुरन्तमनन्तम्' थारगतिवार भने मनात थे। सारने तथा 'तयणुविवागंतदनु विपाकम्' तमना अनु३५ विपाइने , 'स-सः' ते मुद्धिशाली ५३५ For Private And Personal Use Only Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ५ उ.२ नारकीयवेदनानिरूपणम् ५५ अन्वयार्थ:-(एवं) एवमनेन नरकप्रकारेण (तिरिक्खे) तिर्यक्षु (मणुयामरेस) मनुजाऽमरेषु (चतुरंतऽणतं) चातुरन्तमनन्तं चातुर्गतिकमनन्तं संसार (तयणुचि वागं) तदनुविपाकं तदनुरूपं कर्मफलं (स) सः-संयतः (एयं) एतत् (सब्व) सर्वम् (इति वेदइत्ता) इति वेदयित्वा ज्ञात्वा (कालं कंखेज्ज) कालं पण्डितमरणं कांक्षेत प्रतीक्षेत तथा (धुवमाचरेज्ज) ध्रुवं संयमम् आचरेत् पालयेदिति ॥२५॥ टीका-'एवं' नरकवत् अशुभकर्मकारिणाम् 'तिरिक्खे तिर्यक्षु 'मणुयामरेसु' मनुजाऽमरेषु 'चतुरंत' चातुर्गतिकम् -नरकनरामरतिर्यग्ररूपम् (अणंत) अनन्तम्अन्तरहितम् 'तयणुविवाग' तदनुरूपं विपाकम्-तत्तद्गतिजनितं फलं 'स' साविद्वान् ‘एयं एतद् 'सव्यं' सर्वम्- पूर्वोक्तरीत्या 'इति' इति-तीर्थकरनिरूपितमकारेण 'वेदइत्ता' विदित्वा-ज्ञात्वा 'कालं कंखेज्न' कालं कांक्षेत-पंडितमरणरूपकालस्य प्रतीक्षा कुर्यात् । तथा 'धुयं ध्रुवम्-संयमम् 'आचरेज्ज' आचरेत् । अयं भावःको 'इति वेदइत्ता-इति वेदयित्वा' तीर्थकर निरूपित प्रकार से जानकर 'कालं कंखेज्ज-कालं कांक्षेत' अपने पण्डितमरण की प्रतीक्षा करे और 'धुवमाचरेज्ज-ध्रुवमाचरेत्' संयम का पालन करे ।।२।। ___ अन्वयार्थ--इसी प्रकार अर्थात् नरक के जैसे तिर्यञ्च, मनुष्य और देवगति एवं चारगति वाले संसार को एवं उसके अनन्त विपाक को जाने । बुद्धिमान् संयमवान् पुरुष यह सब जानकर पण्डितमरण की इच्छा करता हुआ संयम का पालन करे ॥२५॥ टीकार्थ--अशुभ कर्मकर ने वालों को नरक के जैसे तिर्यंच, मनुष्य तथा देवगति में जो चातुर्गतिक एवं अन्तहीन विपाक होता है, उसको पूर्वोक्त प्रकार से, तीर्थंकर द्वारा की गई प्ररूपणा के अनुसार जानकर पण्डित मरणरूप काल की प्रतीक्षा करे और संयम का आचरण करे । 'एयं-एतत्' मा 'सव्वं-सर्वम्' मी पाताने 'इति वेदहत्ता-इति वेदयित्वा' ती५°४२ नि३पित १२थी angla 'कालं कंखेज्ज -कालं कांक्षेत' पोताना पस्तिमरखनी प्रतीक्षा ४रे भने 'धुवमाचरेज्ज-ध्रुवमाचरेत्' सयमनु पालन रे. ॥२५॥ સૂત્રાર્થ–નરકગતિની જેમ તિર્યંચ, મનુષ્ય અને દેવગતિના અનન્ત વિપાકને પણ મુનિએ સમજવું જોઈએ. આ ચાર ગતિવાળા સંસારના સ્વરૂપને બરાબર જાણી લઈને, બુદ્ધિમાન મુનિએ મરણ (પંડિત મરણ) સુધી સંયમનું પાલન કરવું જોઈએ. પાપા ટીકાર્થ—અશુભ કર્મ કરનાર જીવને નરક તિર્યંચ, મનુષ્ય અને દેવગતિ રૂપ ચતુગતિક સંસારમાં, અશુભ કર્મના અશુભ ફળ રૂપ અનન્ત વિપાક જોગવવું પડે છે. તીર્થંકરે દ્વારા પૂર્વોક્ત પ્રકારે આ વિપાકની જે For Private And Personal Use Only Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org सूत्रकृताङ्गसूत्रे 1 "चातुर्गतिकसंसारमध्यपतितप्राणिनां केवलं दुःखमेव यस्मात् तस्मात् मोक्षस्य तेस्कारण संयमस्य एवं अनुष्ठाने यावज्जीवं रतः सन् पंडितमरणमपेक्षमाणः 'यथा पापपुरुषाणां नरकगतिरुक्ता, एवमेव तिर्यग्मनुज देवगतिज्ञेया । एष चातुर्गतिकसंसारः-अनन्तं तत्तत्कर्माऽनुरूपं फलं पयच्छति' । इति विचार्य बुद्धिमान ज्ञात्वैतत्सम पंडितमरणमिच्छन् निरतिचारं संयमं पालयेदिति ॥ २५ ॥ इति श्री विश्वविख्यात जगद् वल मादिपद भूपित बालब्रह्मचारि -- 'जैनाचार्य ' पूज्यश्री - घासीलालवतिविरचितायां श्री सूत्रकृताङ्गस्य "समयार्थवाधिन्या-ख्याया" व्याख्यायां पंचमाध्ययनस्य द्वितीयोदेशकः समाप्तः ॥५- २॥ इति नरकविभक्तिनामकं पञ्चममध्यमनं समाप्तम् ? Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाव यह है - यहां नरकगति का विपाक विस्तारपूर्वक दिखलाया हैं। इससे यह नहीं समझना चाहिये कि चार गतियों में से केवल नरकगति में ही दुःखों का अनुभव करना पड़ता है, शेष तीन गतियों मैं नहीं । वास्तव में चारों गतियां दुःख से परिपूर्ण हैं। चारों गतियों 'के प्राणियों को दुःख है, अतएव मोक्ष या संयम के ही अनुष्ठान में जीवनपर्यन्त निरत रहे । पण्डिनमरण की प्रतीक्षा करे। यह चातुर्गतिक संसार अनन्त है और इसमें कर्मानुसार फल की प्राप्ति होती है। 'बुद्धिमान इन सब तथ्यों को जान कर निरतिचार संयम का पालन करे ||२५|| || द्वितीय उद्देशसमाप्त ॥ || पाँचत्रां अध्ययन समाप्त ॥ પ્રરૂપણા કરવામાં આવી છે, તેનાથી માહિતગાર થઈને પતિમરણુ રૂપ કાળની પ્રતીક્ષા કરતા થકા સયમની આરાધના કરવી જોઈએ. આ કથનના ભાવાથ નીચે પ્રમાણે છે અહીં નરકગતિના વિપાકનુ વિસ્તારપૂર્ણાંક વર્ણન કરવામાં આવ્યુ' છે. તેથી એવુ સમજવુ જોઇએ નહીં કે ચાર ગતિમાંની માત્ર નરકગતિમાં જ દુ:ખેતુ' વેદન કરવું પડે છે, ખાકીની ત્રણે ગતિમાં દુઃખ અનુભવવું પડતુ નથી. ખરી રીતે તે ચારે ગતિએ દુઃખથી પરિપૂર્ણ છે. ચારે ગતિના જીવો દુઃખી છે, એવા વિચાર કરીને સંસારના અંધનમાંથી મુક્ત થઇને મોક્ષની પ્રાપ્તિ કરવા માટે, સાધુએ સંયમનાં અનુષ્ઠાનમાં જ પ્રવૃત્ત રહેવુ' જોઇએ. તેશે પતિમરણની પ્રતીક્ષા કરવી જોઇએ આ ચતુર્ગતિક સોંસાર અનત છે, અને તેમાં કર્માનુસાર ફળની પ્રાપ્તિ થાય છે. બુદ્ધિમાન પુરુષે આ સઘળાં તથ્યાને સમજી લઇને નિરતિ ચાર સયમનું પાલન કરવું જોઇએ. ૫રપા ॥ ીજો ઉદ્દેશક સમાપ્ત ! ॥ પાંચમું અધ્યયન સમાપ્ત For Private And Personal Use Only Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ६ उ. १ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् ४५३ अथ श्रीमहावीरमस्तु तिनामकं पष्ठमध्ययनं प्रारभ्यते— Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गतं पश्चममध्ययनम्, साम्प्रतं षष्ठमारभ्यते । तस्य षष्ठस्याध्ययनस्य पञ्चमाध्ययनानन्तरं क्रमप्राप्तस्याऽयमभिसम्बन्धः । अत्राऽनन्तरपूर्वाध्ययने नरकस्वरूपं प्रतिपादितम् । वरखलु भगवता तीर्थकरेण श्रीमन्महावीर वर्द्धमानस्वामिनाऽभिहितमिति तस्यैव भगवतो महावीरम्य गुणवर्णनमकारेण चरितं प्रतिपाद्यते, उपदेष्टुर्गुणगुरुत्वात् शास्त्रस्यापि गुरुत्वं सिद्धं स्यादित्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य षष्ठस्याध्ययनस्येदमादिमं सूत्रम् । छठे अध्ययन का प्रारंभ (वीरस्तव) पंचम अध्ययन समाप्त हुआ । अब छठा अध्ययन प्रारंभ किया जाता है । पंचम के पश्चात् क्रम प्राप्त षष्ठ अध्ययन का सम्बन्ध इस प्रकार है- पाँचवें अध्ययन में नरक का स्वरूप वर्णित किया गया है । वह स्वरूप तीर्थंकर भगवान् श्री महावीर बर्द्धमानने कहा है । अतएव उन्हीं भगवान् महावीर के गुणों को वर्णन करने के लिए छठा अध्ययन कहते हैं क्योंकि उपदेष्टा गुणों से महान होता है और उससे शास्त्र की महत्ता सिद्ध होती है। इस सम्बन्ध से प्राप्त छठे अध्ययन का यह प्रथम सूत्र है - 'पुच्छरसु णं' इत्यादि । છઠ્ઠા અયયનના પ્રારંભ (वीरस्तव) પાંચમું અધ્યયન પૂરૂ થયુ, હવે છઠ્ઠા અધ્યયનની શરૂઆત થાય છે. પાંચમાં અધ્યયન સાથે આ અધ્યયનના આ પ્રકારના સબધ છે-પાંચમાં અધ્યયનમાં નરકના સ્વરૂપનું' વર્ણન કરવામાં આવ્યુ' છે. તે સ્વરૂપનુ' તીથ કર ભગવાન શ્રી મહાવીર વ માને પ્રતિપાદન કર્યુ છે. તેથી તે ભગવાન મહા વીરના ગુણેનુ વર્ણન કરવા માટે આ છઠ્ઠું· અધ્યયન કહેવામાં આવે છે. ઉપદેશકે। મહાન ગુણેથી સ ́પન્ન ાય છે, તેમના શુષ્ણેા ગાવાથી શાસ્ત્રની મહત્તા સિદ્ધ થાય છે. તેથી જ આ અધ્યયનમાં મહાવીર પ્રભુના ગુણુાનુ‘ વર્ણન કરવામાં આવ્યુ છે. આ અધ્યયનતુ' સૌથી પહેલુ સૂત્ર આ પ્રમાણે છે. 'gfang oj' Seuls. For Private And Personal Use Only Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतास्त्रे मूलम्-'पुच्छिस्सु णं समणो माहणां य, अगारिणो यो परतित्थिया ये । से केइ णेगं तहियं धम्ममाहुँ, ___अंणेलिसं सौहु समिक्खयाए' ॥१॥ छाया-अपाक्षुः खलु श्रमणा ब्रह्मगाश्च, अगारिणो ये परतीथिकाश्च । स क एकान्तहितं धर्ममाह, अनीदृशं साधुसमीक्षया ।।१।। अन्वयार्थ -(समणा) श्रमणा यतयः (य) च पुनः (माहणा) ब्राह्मणाः (य) च पुनः (अगारिणो) अगारिणः क्षत्रियादयः, ये (परतिस्थिया य) परतीथिकाश्च शाक्यादयः (पुग्छिस्सु) अप्राक्षुः पृष्टवन्तः (से केद) सः कः (णेगंतहिय) एकान्त शब्दार्थ-समणा-श्रमणाः। श्रमण 'य माहणा-च ब्राह्मणाः 'य-च' और 'अगारिणो-अगारिणः । क्षत्रिय आदि 'परतिस्थिया य-परतीर्थिकाश्च' और परतीर्थिक शाक्यादिने 'पुच्छिस्सु-अप्राक्षुः। पूछा कि 'से केह-सः कः' वह कौन है ? जिसने 'णेगंतहियं-एकान्तहितम्' केवल हित रूप 'अणेलिसं-अनीदृशम्' अनुपम 'धम्म-धर्म' धर्म 'साहुसमिक्खयाए -साधुसमीक्षया' सम्यक् प्रकार से विचार कर 'आहु-आह' कहा है ॥१॥ ____ अन्वयार्थ-श्रमणों, ब्राह्मणों, गृहस्थों और शाक्य आदि परती. थिकों ने पूछा कि वह कौन है जिसने एकान्त हितकर और अनुपम धर्म को जो दुर्गति में गिरते हुए जीवों को धारण करता है-बचाता है और शुभ स्थान में धारण कराता अर्थात् पहुँचाता है-सम्यक् प्रकार से जान शमय-समण-श्रमणाः' श्रम 'य माहणा-च ब्रह्मणाः' मन माझा 'य-च' भने 'अगारिणो-अगारिणः' क्षत्रिय वगेरे ‘परतित्थिया य-परतीथिकाश्च' भने ५२तीय वि३ 'पुच्छिस्सु-अप्राक्षुः' ५७यु से केइ-सः क. ते है छे ? २0 ‘णेगंतहिय-एकान्तहितम्' पण ति३५ 'अणेलिसं-अनीशम्' अनुपम 'धम्म-धर्मम्' म 'साहु समीक्खयाए-साधु समीक्षया' सभ्यः प्रहारथी वियारीने 'आहु-आह' हे छे. ॥१॥ અન્વયાર્થ–પ્રમાણે, બ્રાહ્મણ, ગૃહ અને શાક્ય આદિ પરતીર્થિકોએ સુધર્મા સ્વામીને આ પ્રકારને પ્રશ્ન પૂછયે-દુર્ગતિમાં પડતાં જીવોને બચાધીને શુભસ્થાનમાં પહોંચાડનાર, એકાન્ત હિતકર અને અનુપમ ધર્મને સમ્યક પ્રકારે જાણીને તેની પ્રરૂપણ કરનાર તીર્થકર મહાવીર પ્રભુ કેવાં હતા?” For Private And Personal Use Only Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ.६ उ. १ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् ४५५ हितम् (अणेलिस) अनीदृशम्-अनन्यसदृशम् (धर्म) धर्म-दुर्गति सूतजन्तुधारक. शुभस्थानस्थापकरूपम् , (साहुसमिवस्त्रयाए) साधुसमीक्षया समता (माहु) आह-कथितवानिति ॥ सू०१॥ टीका-पञ्चमाध्ययनषष्ठाध्ययनयोः सम्बन्धः पतिपादितः, अनन्तरसूत्रेण चाऽयं सम्बन्धः, तीर्थकरप्रतिपादितमार्गेण ध्रुवमाचरन् पण्डितमरणमपेक्षते, इति पालमरणेन नरकमाप्तिरिति अनन्तरसूत्रे कथितम् । तत्र भवति जिज्ञासा, यद् एतादृशधर्मस्य प्रतिपादकस्तीर्थकरः कथंभूतो येनोपदिष्टोऽयं मार्गः-इत्येतत् पृष्टवन्तः-तदेवाह-(पुच्छिस्सु) इत्यादि । अनन्तरोदितमेवंप्रकारकनरकस्वरूपं श्रुत्वा संभातवैराग्याः श्रमगब्राह्मगादयः केन प्रतिपादितमित्येतदिति सुधर्मस्वामिनम्करके कहा है ? 'आहु' यहाँ गाथा में जो बहुवचन का प्रयोग किया गया है सो आर्ष होने के कारण है ॥१॥ ____टीकार्थ-पाँचवें और छठे अध्ययन का सम्बन्ध कहा जा चुका है। प्रस्तुत सूत्र का अनन्तर सूत्र के साथ यह सम्बन्ध है। इससे पहले सूत्र में कहा गया है कि साधु तीर्थंकर द्वारा प्रतिपादित मार्ग पर चलता हुआ मोक्ष एवं संयम का आचरण करे और पण्डित मरण की अपेक्षा करे । बालमरण से नरक की प्राप्ति होती है। यहाँ ऐसी जिज्ञासा उत्पन्न होती है कि इस प्रकार के धर्म के प्रतिपादक तीर्थकर कैसे थे जिन्होंने इस मार्ग का उपदेश दिया है ? इस जिज्ञासा से प्रेरित होकर जो प्रश्न किया गया, उसका प्रस्तुत सूत्र में दिग्दर्शन कराया गया है। ગાથામાં આવેલ “જાદુ યુદ્ધમાં જે બહુવચનને પ્રવેગ કરવામાં આવે છે, તે આર્ષ હેવાને કારણે કરાવે છે. ટીકાર્થ–પાંચમાં અધ્યયન સાથે છઠ્ઠા અધ્યયનને કે સંબંધ છે, તે પ્રકટ કરીને હવે સૂત્રકાર પંચમાં અધ્યયનના છેલ્લા સૂત્ર સાથે છઠ્ઠા અધ્યયનના પહેલા સૂત્રને સંબંધ પ્રકટ કરે છે. છેલ્લા સૂત્રમાં એવું પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું કે સાધુએ તીર્થકર દ્વારા પ્રતિપાદિત માર્ગે ચાલીને સંયમનું પાલન કરવું જોઈએ. તેણે પંડિત મરણની જ પ્રતીક્ષા કરવી જોઈએ. બાલમરણ દ્વારા નરક આદિ ગતિની પ્રાપ્તિ થાય છે-મોક્ષની પ્રાપ્તિ થતી નથી. આ પ્રકારના ધર્મનું પ્રતિપાદન કરનાર તીર્થકર કેવાં હશે, એ જાણવાની જિજ્ઞાસા થાય તે સ્વાભાવિક છે. આ પ્રકારની જિજ્ઞાસાથી પ્રેરાઈને જે પ્રશ્ન પૂછવામાં આવ્યું છે, તેનું આ સૂત્રમાં ફિઝશન કરાવવામાં આવ્યું છે, For Private And Personal Use Only Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४५६ सूत्रकृतासूत्रे ) अपाक्षुः - पृष्टवन्तः । ( ं) इति वाक्यालङ्कारे । यद्वा - जम्बूस्वामी सुधर्मस्वामिनं प्रत्याह-गुरो ! केनेथंभूतो धर्मः संसारसागराद् उत्तारणसमर्थः प्रतिपादितः इत्येतद् बच्वो मां पृष्टवन्तः इति जम्बूस्वामी सुधर्मस्वामिनं कथयति - (समणा) श्रमणा निग्रन्थादयः (माहणा) ब्राह्मगाः - प्रसिद्धाः, तथा - ( अगारिणो) मगारिणः- क्षत्रियादयो गृहस्थाः, अगारं गृहं विद्यते येषां तेऽगारिणः । तथा - ( परतित्थिया य) परतीर्थि काय, परतीर्थिकाः - शाक्यादयः खड्ड (पुच्छित्सु ) अपाक्षु - मां पृष्टवन्त इत्यर्थः, किमिति पृष्टवन्त इत्यत आह - ( से केइ ) इत्यादि । (सेकेड) स कः (i) वाक्यालङ्कारे (वर्गत हियं ) एकान्तहितम् दुर्गतिप्रसृतजीवधारकम् तथा शुभस्थाने मापकं च (अलिस) अनीशम्, अनुनमम्-अनुपमम्, (धम्मं श्रुतचारित्रलक्षणम्, ( साहु समक्खयाए) साधुसमीक्षया, साध्वीचासौ समीक्षेति साधुसमीक्षा यथा वस्थित वस्तुपरिच्छित्तिः तथा साधुसमीक्षया अथवा साधुसमीक्षया समभाव पूर्वोक्त नरक के स्वरूप को श्रवण करके संसार से विरक्त होकर श्रमण ब्राह्मणादिक सुधर्मा से पूछने लगे यह किसने कहा है ? अथवा जंबू स्वामी सुधर्मा से कहते हैं - हे गुरुवर्य इस संसारसागर से पार पहुँचाने में समर्थ इस प्रकार का धर्म किसने प्रतिपादन किया है ? यह प्रश्न अनेको ने मुझसे पूछा है कि निर्ग्रन्थ आदि श्रमण, ब्राह्मण, अगारी अर्थात् क्षत्रिय आदि गृहस्थ और परतीर्थिक अर्थात् शाक्य आदि इन लोगोंने पूर्वोक्तरूप प्रश्न किया है, इसका उत्तर देते हैं-वह कौन था जिसने दुर्गति की ओर जाते जीवों को सहारा देनेवाले, शुभ स्थान में पहुँचानेवाले तथा अनुपम श्रुत चरित्र रूप धर्म को यथार्थ रूप से जानकर अथवा समभावपूर्वक कहा है ? નરકના પૂર્વોક્ત સ્વરૂપનું શ્રવણુ કરીને, સંસારથી વિરક્ત થઈને શ્રા, બ્રાહ્મણા આદિ સુધર્મા સ્વામીને પૂછવા લાગ્યા-આ પ્રકારનું કથન કાણે કર્યુ” છે? અથવા જ ભૂસ્વામી સુધાં સ્વામીને પૂછે છે-હે ગુરૂવર્ય! સ’સારસાગરને તરાવનાર એવા આ પ્રકારના અનુપમ ધર્મનું પ્રતિપાદન કર્ણે કર્યું છે ? આ પ્રકારના પ્રશ્ન અનેક લેકે દ્વારા મને પૂછવામાં આવે છે.’ હવે એ વાત પ્રકટ કરવામાં આવે છે કે નિથ આદિ શ્રમણ, બ્રાહ્મણુ, અગારી (ક્ષત્રિય આદિ ગૃહસ્થા), અને શાકય આદિ પરતીથિકા તેમને (स्वामीने) या प्रश्न पूछे छे એવાં તે ઉપદેશક ક્રાણુ હતા કે જેમણે દુર્મતિમાં જનારા જીવાને મચાવીને શુભસ્થાનમાં (મેક્ષમાં) લઈ જનાર અનુપમ શ્રુતચારિત્ર ધને યથાર્થ રૂપે જાણીને તે ધમની પ્રરૂપણા કરી છે ?’ For Private And Personal Use Only Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र.श्रु. अ.६ उ.१ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् ४५७ तया (आहु) आह, इति । श्रमणब्राह्मणक्षत्रियपरतीथिकाः पृष्टवन्तः य एकान्तरूपेण कल्याणकरं सर्वतः श्रेष्ठ धर्म विज्ञाय कथितवान् स कः ? इति सुधर्मस्वामिन निवेदयति जम्बूस्वामी, एवम् उपदेष्टविषयिणी जिज्ञासा प्रादुरभूत् प्रष्टुणामिति भावः ।। १ ।। मूलम्-'कहं च गाणं कहें दसणं से', सीले कहं गायसुयस्ल आती। जाणासि णं भिक्खु ! जहातहेणं, आहेसुषं ब्रूहि जहा णितं ॥२॥ छापा--कथं च ज्ञानं कथं दर्शन नस्य, शीलं कथं ज्ञातस्य आसीत् । ___ जानासि खलु भिक्षो ! वाथा धोन, यथाश्रुतं ब्रूहि यथा निशान्तम् ॥२॥ अन्वयार्थ-दे गुरुवर्थ ! इन्दि जब मामी पृच्छति-से णायसुयस्स) तस्य ज्ञातसुत. स्य-क्षत्रियकुमारस्य वर्द्धमानस्वामिनः (गाणं) ज्ञानम्--विशेषाबोधकं ज्ञानम् (कह) तात्पर्य यह है कि श्रमणों, ब्राह्मणों, गृहस्थों और अन्यत्तीर्थक्षोंने ऐसा पूछा कि-एकान्त रूप से कल्याणकाली और सर्वोत्तम धर्म को जानकर जिसने प्रतिपादन किया, वह कौन था ? ऐसा जम्बू स्वामीने सुधर्मास्वामी से निवेदन किया । अर्थात प्रश्नकर्ताओं को उपदेशक के विषय में जिज्ञासा उत्पन्न हुई ॥१॥ ___ 'कहं च णाण' इत्यादि ।। शब्दार्थ-'से नायपुत्तस्स-तस्य ज्ञातपुत्रस्य' उस ज्ञातपुत्र भगवान् महावीर स्वामीका ‘णाणं-ज्ञानम्' ज्ञान 'कह-कथम्' कैसा था 'कहं दंसणं-कथं दर्शनम्' तथा उनका दर्शन कैसा था ? 'सीलं कहं आसी આ પ્રશ્ન દ્વારા સૂત્રકાર એ વાત પ્રકટ કરે છે કે જેનું એકાતરૂપે કલ્યાણ કરનારા, સત્તમ ધર્મનું પ્રતિપાદન કરનારા તે ઉપદેશક કેણ હતા અને કેવાં હતા, તે જાણવાની શ્રમણ, બ્રાહ્મણ ગૃહસ્થ આદિ સૌને જિજ્ઞાસા याय छे. ॥१॥ 'कहं च णाणं' त्यादि शहाथ- से नायपुत्तस्त्र- तस्य ज्ञातपुत्रस्य' ते ज्ञातपूर मावान महावीर स्वामी ने 'णाणं-ज्ञानम' ज्ञान 'कह-कथम' खत 'कहं देसणं-कथं दर्शनम' तथा तमनु न तु ? 'सीलं कह आसी-शील कथं असीत्' तथा तमनु शla अर्थात यमनियम ३५ माय२५ पु तु ? 'भिक्खु-भिक्षो' हे साधु 'जहातहेणं जाणासि-याथातथ्येन जानसि' में क्या था सु० ५८ For Private And Personal Use Only Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे कुथं - कीशमासीत् (कहं दंसणं) कथं दर्शनम् - कीदृशं सामान्यार्थ परिच्छेदकं दर्शनम् ( सीलं कहं आसी) शीलं - यमनियमरूपं कीदृशमासीत् (भिक्खु) मिक्षो ! हे भदन्त ! (जहात देणं जाणासि) याथातथ्येन जानीषे सम्यगवगच्छसि (अहा सूर्य भगवन्मुखाद् यथाश्रुतं ( जहा णिसंतं) यथा निशान्तं येन प्रकारेण गुरुकुलनिवासिनाऽवधारितं सत् ( वृदि) ब्रूहि कथय इति ॥ २ ॥ शीलं कथं आसीत् ' तथा उनका शील अर्थात् यमनियम रूप आचरण कैसा था' भिक्खु - भिक्षो' हे साधो 'जहा तहेणं जाणासि - याथातथ्येन जानासि ' तुम यथार्थ प्रकार से यह जानते हो इसलिये 'अहा - सुयं - यथाश्रुतं' जैसा तुमने सुना है 'जहा निसंतं यथा निशान्तम्' और जैसा निश्चय किया है वह 'बूहि ब्रूहि' हमे कह सुनाइये ||२|| अन्वयार्थ - जम्बू स्वामी प्रश्न करते हैं - हे गुरुवर्य ! उन ज्ञातपुत्र अर्थात् क्षत्रियकुल के आभूषण रूप वर्द्धमान स्वामी का ज्ञान अर्थात् वस्तु के विशेष धर्मों को जाननेवाला बोध कैसा था ? उनका दर्शन अर्थात् वस्तु के सामान्य धर्म को जाननेवाला उपयोग कैसा था ? उनका यम नियम रूप शील किस प्रकार का था ? हे भदन्त ! यह आप यथार्थ रूप से जानते हो, अतएव जैसा आपने सुना है या गुरुकुल में निवास करते हुए आपने जैसा देखा है, वह अनुग्रह करके मुझे कहिए ||२|| छे ?, कोटला भाटे 'अहा सुयं यथा श्रुतं' नेवु' तभे सालज्यु' छे 'जहा णिसंतंयथा निशान्तम्' भने यो निश्चय अर्यो छे ते 'ब्रूहि - ब्रूहि' भने કહી સંભળાવે. ।। ૨ ।। સુત્રા —જ ખૂસ્વામી સુધર્મા સ્વામીને પૂછે છે કે હું ગુરૂવર્ય! તે જ્ઞાતાપુત્ર એટલે કે ક્ષત્રિયકુળના આભૂષણ સમાન વર્ધમાન સ્વામીનું જ્ઞાન (વસ્તુના વિશેષ ધર્મોને જાણનારા એધ) કેવું હતુ ? તેમનુ દન-(વસ્તુના સામાન્ય ધર્મને જાણનારા ઉપયેગ) કેવુ હતુ ? તેમનું યમનિયમરૂપ શીક્ષ કેવા પ્રકારનું હતું? હે ગુરૂ મહારાજ ! આપ તે યથાર્થ રૂપે જાણે छो આપ તેમના અંતેવાસી હતા, તેથી આપે તેમની સમીપમાં રહીને તેમનાં વચનામૃતાનું પાન કરેલુ છે, આપને તેમના જીવનના અભ્યાસ કરવાની તક મળેલી છે, તેા કૃપા કરીને તે મહાપુરૂષના જ્ઞાન, દર્શન, ચારિત્ર આદિના વિષયમાં અમને બધુ કહેા રા For Private And Personal Use Only Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ.६ उ. १ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् ४५६. ____टीका-(से) तस्य (गायमुयस्स) ज्ञातसुतस्य-क्षत्रियकुमारस्य भगवती वमानस्वामिनः (णाणं) ज्ञानम्-विशेषावबोधकं केवलज्ञानलक्षणम् , (क) कथम् कीदृशमासीत , (कहं दंसणं) कथं दर्शनम्-समान्यार्थपरिच्छेदकं कीदृश केवळदर्शनम् , (सोलं कई) शीलं-यमनियमादि कथम् कीदृशम् (आसी) आसीत् (भिक्खु) मिक्षो !-निरवद्यमिक्षणशीलगुरुवर्य ! (जहातहेणं जाणासि) यार्थीतथ्येन यद् यादृशं वस्तु अनेकान्तात्मकम् , तत् तादृशमेव त्वं जानासि । (ग) वाक्यालङ्कारे (अहामुयं) यथाश्रुतं यथा-येन प्रकारेण भगवता श्रीमतीर्थकरमुखात् श्रुतम् । श्रुत्वा च (जहा णिसंत) यथा निशान्तं-येन रूपेणाऽवधारितमात्मनि, संयम पालनापतिबन्धविहारधर्मदेशनादिकं च कीदृशं भगवत असीदिति यथाश्रुतं यथा टीकार्थ-प्रत्येक वस्तु सामान्य विशेषात्मक है । सामान्य और विशेष धर्मों का समूह ही वस्तु कहलाता है। उसमें से सामान्य अंश का ग्राहक जो है उसका उपयोग दर्शन कहलाता है और विशेष अंश का बोधक उपयोग, ज्ञान कहलाता है। सर्वप्रथम इन्हीं के विषय में प्रश्न किया गया है कि-ज्ञातपुत्र भगवान महावीर का ज्ञान किस प्रकार का था? उनका दर्शन किस प्रकार का था ? तदनन्तर भगवान् के आचार के विषय में प्रश्न किया गया है कि भगवान् का शील अर्थात् यम नियम आदि आचार किस प्रकार का था ? भगवान् ! आप याथातथ्य जानते हैं, अतएव भगवान् के मुख से जैसा सुना है और सुनकर आपने जैसा अवधारण किया है अथवा गुरुकुल में निवास करते हुए संयमपालन ટકાથ–પ્રત્યેક વસ્તુ સામાન્ય વિશેષાત્મક હોય છે. સામાન્ય અને વિશેષ ધર્મોના સમૂહને જ વસ્તુ કહેવાય છે. તેમાંથી સામાન્ય અંશનું જે ગ્રહણ કરવાવાળુ છે તેને ઉપગ-દર્શન કહે છે અને વિશેષ અંશના બેધકને ઉપગ-જ્ઞાન કહેવાય છે સૌથી પહેલો પ્રશ્ન મહાવીર પ્રભુના જ્ઞાનદર્શનના વિષયમાં પૂછવામાં આવેલ છે. તે પ્રશ્ન આ પ્રમાણે છે-મહાવીર પ્રભુનું જ્ઞાન ક્યા પ્રકારનું હતું ? તેમનું દર્શન કયા પ્રકારનું હતું ત્યારબાદ ભગવાનના આચારના વિષયમાં એ પ્રશ્ન પૂછવામાં આવ્યું છે કે મહાવીર પ્રભુનું શીલ એટલે યમનિયમ આદિ આચાર કેવાં હતાં? આપે મહાવીર પ્રભુના સુખારવિન્દમાંથી ધર્મતત્વની પ્રરૂપણું સાંભળેલી છે અને તેમના અંતેવાસી તરીકે તેમની જ સમીપમાં રહીને તેમના આચાર વિચારો ને પ્રત્યક્ષ અનુભવ મેળવેલ છે. વળી આપ શ્રત પારગામી છે. તે આપે વીર પ્રભુની સમીપે સાંભળે અને સાંભળીને હૃદયમાં ઉતારેલે ઉપદેશ તથા મહાવીર પ્રભુના સામ For Private And Personal Use Only Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org પ્રદે सूत्रकृताङ्गसूत्रे धारितं यथा च दृष्टं तत्सर्वे मह्यं (हि) ब्रूहि कथय । भगवतां तीर्थकराणां मुखारन्दिादू विनिःसृतसर्वार्थागमस्य भक्ताश्रुतत्वात् समाहिताय विनीताय विनेयाय श्रद्धावते गुरूपदिष्टमुपदेष्टव्यमितिस्थितिः शास्त्रीयेति ॥ ०२ ॥ एवं जम्बूस्वामिना पृष्टो भगवान् सुधर्मस्वामी माइ- (खेयमए) इत्यादि, मूलम् - खेयन्नएं से' कुसले महेसी, अनंत नाणी ये अनंतदसी' । जैसंसिणो चक्खुप टियस्स, Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जाणाहि धम्मं च धि" च पेहि " ॥३॥ छाया - खेदज्ञः स कुशको महाऋषिः, अनन्तज्ञानी व अनन्तदर्शी । यशस्विनचक्षुः पथे स्थितस्य जानीहि धर्मे च धृतिं च प्रेक्षस्त्र ॥३॥ अप्रतिबन्ध विहार एवं धर्मदेशना आदि जो कुछ देखा है सो यथार्थरूप से कहिए । यह सब भगवान् का कैसा था ? आशय यह है कि भगवान् तीर्थकर के मुखारविन्द से उपदिष्ट सभी कुछ कहिए। आप श्रुतपारगामी है, अतएव आपने जो अवधारण किया या देखा है, वह भी कहिए । शास्त्र की मर्यादा ऐसी है कि एकाग्रचित्तवाडे, विनीत और श्रद्धावान् शिष्प को ही गुरु द्वारा उपदिष्ट तत्व का उपदेश देना चाहिए ॥ २॥ 'खेपन्नए' इत्यादि । शब्दार्थ- 'से- सा । वह भगवार महावीर बर्द्धमान स्वामी 'खेयनए - खेदज्ञ' संसार के प्राणियों का दुःख जानते थे 'कुसले महेसी દર્શન ને શીલના વિષયમાં આપે જે દેખ્યુ છે, તે સાંભળવાની અમને ઘણી જ જિજ્ઞાસા થઈ છે. તા કૃપા કરીને આપ અમને તે બધુ... યથા પણાથી उही सणावी." શાસ્ત્રપ્રણાલી એવી છે કે એકાગ્રંચત્ત વિનીત, અને શ્રદ્ધાવાન શિષ્યને જ ગુરુ દ્વારા ઉપર્દિષ્ટ તત્ત્વના ઉપદેશ દેવા જોઇએ. જ ખૂસ્વામીમાં આ પ્રકારની ચેાગ્યતા રહેલી હાવાથી સુધર્યાં સ્વામી તેમના પ્રશ્નના ઉત્તર આપે છે. ! ર 'खेयन्नए' इत्याहि शब्दार्थ' - 'से - सः' ते भगवान महावीर वर्धमान स्वाभी 'खेयन्नए- खेदज्ञ ।' संसारना प्रथियोना हुणेो लघुता तां 'कुसले महेसी - कुशलः महर्षिः ते For Private And Personal Use Only Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ.६ उ. १ भगवतो महावीरस्य गुगवर्णनम् ४६१. .. अन्वयार्थः-(से) स वर्द्धमानस्वामी (खेयन्नए) खेदज्ञः-संसारिणां कर्मविपाकजदुःखबायकः (कुसछे महेसी) कुशला-कर्मोच्छेदने निपुणः, महा ऋषि:सर्वत्र सदोपयोगवान (अनंतनाणी) अनन्तज्ञानी- केवलज्ञानवान् (य) च-पुन: (अणंतदंसी) अनन्तदर्शी-केवलदर्शनवान् आसीत् । एतादृशस्य (जसंसिणो) यशस्विनः (चक्षुाहे ठियस्म) चक्षुःपथे स्थितस्य-लोचनमार्गे भवस्यकेवल्यवस्थायां विद्यमानस्य (धम्म) धर्म श्रुचारित्ररूपं (जागादि) जानीहि (धियं च पेहि) धृति च तस्य भगवतो धैर्य प्रेक्षस्व-सम्यक् कुशाग्रबुद्धया पर्यालोचन इति ॥ सू०३ ॥ कुशलः महर्षिः वह आठ प्रकार के कर्मों का छेदन करनेवाले और महान ऋषि थे 'अनंतनाणी-अनन्त ज्ञानी' वे अनन्त ज्ञानवाले 'य-च' और 'अणंतदंसी-अनन्तदर्शी' केवल दर्शन वाले थे 'जसंसिणोयशस्विनः कीर्तिवाले तथा 'चक्खुपहे ठियस्स-चक्षुःपथे स्थित्रस्य' जगत् के लोचनमार्गमें स्थित भगवान् के 'धम्म-धर्म' श्रुतचरित्ररूपधर्म को 'जाणाहि-जानीहि तुम जानो 'घियं च पेहि-धृति च प्रेक्षस्थ एवं उनकी धीरता को विचारो॥३॥ ... अन्वयार्थ-बमान स्वामी खेदज्ञ थे अर्थात् संसारी जीवों को कर्म के परिपाक से होनेवाले दुःख का ज्ञाता थे। वह कुशल अर्थात् कर्मों का उच्छेदन करने में निपुण थे। महाऋषि थे अर्थात् उनका उपयोग सर्वत्र और सर्वदा लगा ही रहता था। वह अनन्त ज्ञानी और अनन्त दर्शनी अर्थात् सर्वज्ञ और सर्वदर्शी थे ! उन यशस्वी तथा मा ४२ना भानु छेहन ४२वा! माने भवान् ऋषि उतi 'अनंतनाणी' अनन्तज्ञानी' ते मानत ज्ञानवा 'य-च' भने 'अणतदनी-अनन्तदर्शी' Ba शनाप ता. 'जसिणो-यशस्विनः' होता तथा 'चक्खुपहे ठियस्स-चक्षुःपये स्थितस्य' न नोयन भाnwi मावानना 'धम्म -धर्म' श्रुत यात्रि ३५ ५-२ 'जणाहि-जानीहि' त । 'धियं च पेहिधृत्तिं च प्रेक्षव' मेव तेमनी धीरताने वियाश'. ॥ ३॥ સૂત્ર –વર્ધમાન સ્વામી ખેદ હતા એટલે કે કર્મના પરિપાક રૂપે સંસારી જીવોને જે દુઃખે સહન કરવા પડે છે. તેના જાણકાર હતા. તેઓ કુશલ હતા, એટલે કે કમેને નાશ કરવામાં નિપુણ હતા. તેઓ મહર્ષિ હતા એટલે કે તેમને ઉપગ સર્વત્ર અને સર્વદા પ્રવૃત્ત જ રહેતું હતું. તેઓ અનન્ત જ્ઞાન અને અનન્ત દર્શનથી સંપન્ન એટલેકે સર્વજ્ઞ અને સર્વદર્શી હતા. તે યશવી તથા ભવસ્થકેવલી અવસ્થામાં આપની (શિષ્યસમૂહની) For Private And Personal Use Only Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतास टोका-(से) सा-असौ भगवान् महावीरः चतुस्विंशतिशययुक्तः, पश्चत्रिशद्वाणीगुणसम्पन्नः (खेयन्नए) खेदज्ञः खेदं-संसारोदरविवरवर्तिजीवानां कर्मविपाकजनितं चतुर्गतिभ्रमणलक्षणं दुःखं जानातीति खेदज्ञः, दुःखनिराकरणसमर्थोपदेशदानात्। अथवा-(खेयन्नए) क्षेत्रज्ञः क्षेत्र सकलकर्मणामुत्पादनस्थान जनातीति क्षेत्रज्ञः यद्वा क्षेत्रमाकाशं तद्नानातीति क्षेत्रज्ञः, लोकालोकस्वरूपपरिज्ञानवान् तथा-(कुसले) कुशल:-प्राणिनां दुःखकारणकर्मणोऽपनयने उपदेशदानादिना दक्षः। यद्वा-को-आत्मरूपपृथिव्यां शेते तिष्ठति प्रादुर्भवतीति कुशःभवस्थकेवली अवस्था में चक्षु के पथ में स्थित भगवान के श्रुतचारित्र धर्म को समझो और भगवान के धैर्य को सम्यक प्रकार से कुशाग्र बुद्धि से विचारो ॥३॥ टीकार्थ-चौतीस अतिशयों से सम्पन्न एवं वाणी के पैंतीस गुणों से विभूषित वह भगवान महावीर खेदज्ञ थे, अर्थात् संसार में भ्रमण करने वाले जीवों को कर्मविपाक से उत्पन्न होनेवाले एवं चार गतियों में भ्रमण रूप दुःख को जाननेवाले थे । उस दुःख को दूर करने में समर्थ उपदेश दिया है, अतएव वे उसके ज्ञाता थे। अथवा 'खेयन्नए' का अर्थ है क्षेत्रज्ञ अर्थात् सम्पूर्ण कर्मों के उत्पाद स्थान को जाननेवाले थे। अथवा क्षेत्र आकाश को जाननेवाले थे अर्थात् उन्होंने लोक और आलोक के स्वरूप को जाना था। भगवान् कुशल थे अर्थात् प्राणियों को दुःख पहुँचानेवाले कर्मों का निवारण करनेवाला उपदेश देने में दक्ष थे अथवा भग દૃષ્ટિ સમક્ષ પ્રત્યક્ષ વિદ્યમાન મહાવીર પ્રભુના શ્રુતચારિત્ર રૂપ ધર્મને બરાબર સમજી લે અને તેમના ધર્યગુણના સારી રીતે કુશાગ્રબુદ્ધિથી વિચાર કરે. આવા ટીકાર્યું–ત્રીશ અતિશયથી અને વાણીના પાંત્રીશ ગુણેથી સંપન્ન એવા તે મહાવીર પ્રભુ “બેઠા હતા. એટલે કે સંસારમાં ભ્રમણ કરનારા છોને કમવિપાકને લીધે ગવવા પડતાં દુઃખના તથા ચાર ગતિએ માં ભ્રમણ કરતાં કરતાં સહન કરવા પડતાં દુખના જાણકાર હતા તેમણે તે દુ:ખને દુર કરવાને માર્ગ બતાવે છે. સંસારના દુઃખનું કારણ તથા તે દુઃખને દૂર કરવાને ઉપાય તેઓ જાણતા હતા, તેથી જ તેમને “ખેદજ્ઞ' કહ્યા છે. मा 'खेयन्नए' । म क्षेत्रज्ञ ५ थाय छे. तेथे। सणां भान पाई સ્થાનને જાણનારા હતા. અથવા તે ક્ષેત્રને જાણનારા હતા એટલે કે લેક અને અલેકના સ્વરૂપના જાણકાર હતા. તેઓ કુશલ હતા, એટલે કે પ્રાણીઓને ખિ દેનારા કર્મોનું નિવારણ કરનાર ઉપદેશ દેવામાં દક્ષ (નિપુણ) હતા. For Private And Personal Use Only Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. प्र.६ उ.१ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् ४६३ अष्टविधं कर्म, तादृशान् कुशाम् लुगाति-छिनत्ति इति कुशलः । प्राणिनां स्वस्य च कर्मणां विनाशनेन पटुरित्यर्थः, दृश्यते हि इहापि सर्वसमर्थे कुशलपयोगः, यथाऽयं व्याकरणे कुशलः कुशलोऽयं न्यायशास्त्रे इत्यादि। तथा-भगवानपि भावकुशाष्टविधर्मविनाशनेऽतिशयेन कुशलः। (महेसी) महा ऋषिः, महांश्चासौ ऋषिश्व महर्षिः-अत्यन्तोग्रतपश्चणानुष्ठायित्वाद् अतुलपरीषहोपसर्गसहनाच्चेति । भगवान् तपोबलेन घातिकर्मचतुष्टयं विनाश्य संमाप्त केवलज्ञानः । अतः सर्वत्र सर्वदा तस्योपयोगस्तिष्ठत्येव न तु छमस्थ इव विचिन्त्य जानाति । किन्तु सर्वानेव पदार्थान् वान् 'कु' अर्थात् आत्मा रूपी भूमि में 'श' अर्थात् शयन करनेवाले रहने या उत्पन्न होनेवाले 'कुश' अर्थात आठ प्रकार के कर्मों को लुनने वाले अर्थात् छेदन करने वाले होने से 'कुशल' थे। आशय यह है कि भगवान् प्राणियों के तथा अपने कमों का विनाश करने में अतिशय पटु थे । लोक में भी सर्वसमर्थ अर्थ में कुशल शब्द का प्रयोग होता है, जैसे यह व्याकरण में कुशल है, यह न्याय या सर्वशास्त्रों में कुशल है इत्यादि । इसी प्रकार भगवान् भी अष्ट विध कर्म रूप भाव 'कुश' का विनाश करने में अतिशय कुशल थे। भगवान महाऋषि थे उग्रतपश्चरण करने से और घोर परीषहोपसर्ग सहन करने से महाऋषि थे । कर्मों की निर्जरा करके उन्होंने चार घातिक कर्मों का क्षय कर दिया था, अतएव उनका उपयोग सर्व पदार्थों में सदैव व्याप्त ही रहता था। वे छद्मस्थ की भाँति सोच विचार नहीं जानते थे, समस्त पदार्थों को हस्ताઅથવા ભગવાન “શું' એટલે કે આત્મા રૂપી ભૂમિમાં, “' એટલે શયન १२:२२-२ना२२ सय जत्पन्न यनार, 'कुश' मेट मा प्रा२ना उर्भानु છેદન કરનારા હતા, તે કારણે તેમને કુશલ કહ્યા છે. આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે મહાવીર પ્રભુ પિતાનાં કર્મોને તથા પ્રાણીઓનાં કર્મોને વિનાશ ४२पामा निपुर उता. aswi ५५ 'सौथौ समर्थ' न। मा 'श' २५४ने। પ્રયોગ થાય છે. જેમકે તે વ્યાકરણમાં કુશલ છે, તે ન્યાયમાં કુશલ છે, તે સર્વશાઓમાં કુશલ છે. એ જ પ્રમાણે મહાવીર પ્રભુ પણ આઠ પ્રકારના કર્મ રૂ૫ કુશને વિનાશ કરવામાં અતિશય કુશલ હતા. તેઓ ઉગ્રતપસ્યા કરનારા હતા અને ઘેરપરીષહે અને ઉપસર્ગો સહન કરવાવાળા હતા તેથી તેમને મહર્ષિ કહ્યા છે. કર્મોની નિર્જરા કરીને તેમણે ચાર પ્રકારનાં ઘાતિયા કર્મો ક્ષય કરી નાખ્યું હતું, તેથી તેમનું જ્ઞાન-ઉપગ સર્વ પદાર્થમાં સદા વ્યાપ્ત જ રહેતું હતું. તેઓનું જ્ઞાન છસ્થના જેવું અપૂર્ણ કે મર્યાદિત ન હતું, For Private And Personal Use Only Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४६४ सूत्रकृताङ्गसूत्रे हस्ताऽऽमलकमिव सर्वदेव पश्यति, आविर्भूतसांपतिकात केलज्ञानात् ज्ञानपतिबन्धकज्ञानावरणीयस्य कर्मयो विनत्वात् । यथा-आशुमज्ञस्तथाऽतिविषमतश्श्चरणशीलोऽपि, न तु परतीथिकात् परिग्रहपरिवृतः । (अणंतनाणी) अनन्तज्ञानी-अविनाशज्ञानवान् अन्त शब्दस्य नाशाथै प्रसिद्धः, न विद्यते अन्नो विनायो यस्य तत् अनन्तम् असन्तं च तज्ज्ञानमिति अनन्तज्ञानं तद्विद्यते यस्य सोऽनन्तज्ञानी । अथवा -अनन्तपदार्थपरिच्छेदकं विशेषग्राहकं ज्ञानं यस्य सोऽनन्तज्ञानी, (य) च (अणंतदेसी) अनन्तदर्शी, अनन्त-समाल्यार्थपरिच्छेदकं दर्शन विद्यते यस्य संऽनन्त. दर्शी केवलदर्शनीत्यर्थः । यधपि ज्ञानदर्शने समानार्थके, इति एकेनापि निर्वाहे मल के समान सदैव जानते थे, क्योंकि ज्ञान में रुकावट उत्पन्न करने वाला उनका ज्ञानावरणीय कमें क्षीण हो चुका था। भगवान जैसे महारुषि थे, उसी प्रकार अत्यन्त घेर तपश्चरण करने वाले भी थे। परतीर्थकों के समान वे परीग्रह से युक्त नहीं थे। भगवान् अनन्तज्ञानी थे । अन्त शब्द का एक अर्थ 'विनाश' भी प्रसिद्ध है, अतएव अनन्त का अर्थ है अविनाशी । जिसका अन्त अर्थात् विनाश न हो वह अनन्त । ऐसे ज्ञानवाले को अनन्तज्ञानी कहते हैं। अथवा अनन्त पदार्थों को जाननेवाला विशेष ग्राहक ज्ञानवाला अनन्त. ज्ञानी कहलाता है। और भगवान् अनन्तदर्शी थे। सामान्य अर्थ को जाननेवाला दर्शन जिनका अनन्त हो, उन्हें अनंतदर्शी कहते हैं। यद्यपि ज्ञान और दर्शनक તેથી છઘની જેમ વિચાર કરી કરીને કે કલપના કરીને કઈ પદાઈ ને જાણવાનો પ્રયત્ન કરતા નથી. તેઓ સમસ્ત પદાર્થોના સ્વરૂપને હાથમાં રહેલા આમળાની જેમ જાણવાને સમર્થ હતા, કારણ કે જ્ઞાનને અવરોધક જ્ઞાનાવરણીય કર્મને તેમણે ક્ષય કરી નાખ્યું હતું. મહાવીર પ્રભુ જેવાં મહારાષિ હતા, એવાં જ મહાન તપસ્વી પણ હતા. જેઓ પરતીર્થિકની જેમ પરિગ્રહથી યુક્ત ન હતા. ભગવાન અનન્ત જ્ઞાની હતા. “અન્ત’ પદ વિનાશના અર્થમાં વપરાય છે. જેને અન્ત હેતે નથી એવા પદાર્થને અનંત કહે છે મહાવીર પ્રભુને અનન્ત જ્ઞાનના ધારક કહ્યા છે કારણ કે તેમનું જ્ઞાન કદી નાશ ન પામે એવું–અવિનાશી-હતું. અથવા અનંત પદાર્થોને જાણનાર વિશેષ ગ્રાહક જ્ઞાનવાળાને અનન્તજ્ઞાની કહેવાય છે. મહાવીર પ્રભુ અનન્તદશી હતા. સામાન્ય અર્થને જાણનારૂં અનન્ત દર્શન જેઓ ધરાવતા હોય છે, તેમને અનન્તદશી કહે છે. જો કે જ્ઞાન અને For Private And Personal Use Only Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ६ उ.१ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् ४६५ . पदान्तरोपादानं पुनरुक्तितां विति तथापि विशेषार्थावगहिज्ञानं सामान्यायपरिच्छेदकं दर्शनमित्युभयो विवेकः । अत एव यथास्थानमुभयो निवेश इति । 'जसं. सिणो) यशस्विनः-सऽतिशायि यशः शालिनः, भगवतो यशः, नरसुरासुरातिशायि वर्तते तादृशयशस्वतो भगवतः (चक्खुपहे ठियस्स) चक्षुष्पथे स्थितस्य-लोकस्य चक्षुःपथे-लोचनमार्गे स्थितस्य-भवस्थ केल्यवस्थायां वर्तमानस्य, यद्वा-लोकानां सूक्ष्मव्यवहितपदार्थाविर्भावनाऽऽलोकवत् सहकारितया चक्षुर्भूतस्य भगवतो महावीरतीर्थकरस्य, भगवदुपदेशेनैव जीादिपदार्थज्ञानसंभवान् । (धम्मं धर्मम् -संसारोद्धरणस्वभावम् । भायता प्रणीतं प्रतिपादितं वा धर्म-श्रुतचा विलक्षणम् . अर्थ समान है, अतएव किसी भी एक शब्द से काम चल सकता है तो दूसरे शब्द का प्रयोग करने से पुनरुक्ति दोष होता है, तथापि दोनों में भेद है । ज्ञान वस्तु के विशेष धमों का ग्राहक होता है और दर्शन सामान्य अर्थ का अर्थात् वस्तु के सामान्य अंश का परिच्छेदक है। अत एव दोनों को यथास्थान प्रयुक्त किया गया है। ___ भगवान् सर्वाधिक यश से सुशोभित अर्थात् समस्त मनुष्यों देवों और असुरों से बढकर यशवाले तथा भवस्थ केवली अवस्था में लोक के चक्षु पथ में स्थित थे । अथवा भगवान् लोगों को आलोक के समान सूक्ष्म और व्यवहित पदार्थों को प्रकाशित करने वाले होने से चक्षु के समान थे, क्योंकि भगवान् के उपदेश से ही जीवादि पदार्थों દર્શનને અર્થ સમાન છે. તેથી કોઈ પણ એક શબ્દ પ્રયોગ કરવાથી કામ ચાલી શક્ત, છતાં અહીં બને પદને પ્રવેશ કરવાથી પુનરુક્તિ દોષ લાગત નથી ? આ શંકાનું નિવારણ કરતા સૂત્રકાર કહે છે કે જ્ઞાન અને દર્શનના અર્થમાં આ પ્રકારનો તફાવત છે-જ્ઞાન વસ્તુના વિશેષ ધર્મોનું ગ્રાહક હોય છે. પરંતું : દર્શન સામાન્ય અર્થનું એટલે વસ્તુના સામાન્ય અંશનું પરિચ્છેદક (ગ્રાહક-બેધક) છે, તેથી આ બનેને પ્રવેગ કરવાથી પુનરુક્તિ દેષને અવકાશ રહેતું નથી. મહાવીર પ્રભુ સર્વાધિક યશથી વિભૂષિત હતા એટલે કે સમસ્ત મનુષ્ય, દે અને અસુરે કરતાં અધિક યશસંપન્ન હતા તથા ભવસ્થ કેવી અવસ્થામાં લેકેના દષ્ટિપથમાં વિદ્યમાન હતા. અથવા તેઓ સૂક્ષમ અને વ્યવહિત (વ્યવધાનવાળા-ધૂળ) . પદાર્થોને પ્રકાશિત કરનારા હોવાથી ચક્ષુના સમાન હતા, કારણ કે તેમના ઉપદેશ વડે જ છવાદિ તત્તનું જ્ઞાન પ્રાપ્ત થઈ શકે सू० ५९ For Private And Personal Use Only Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४६६ सूत्रकृतासूत्रे ( जाणाहि ) जानीहि हे जम्बू ! वमवगच्छ ! तथा (धिरं च पेहि) धृर्ति च प्रेक्षस्त्र - तस्य - भगवतः कर्णकीलन चरणे च क्षीररन्धनाद्युपस जाताः तथापि निaat चारित्राचल स्वभावां धृति-धैर्यम् प्रेक्षस्य कुशाग्रबुद्धया पर्यालोचय । अथवा तैः श्रमणादिभिः सुधर्मस्वामी अभिहितः यथा भवान् तस्य तीर्थकरस्य reat eat afस्वनचक्षुष्प व्यवस्थितस्य धर्मं धृतिं च जानाति, ततोऽस्मान् (पेहि) कथय । श्रीसुधर्मस्वामिशिष्यवर्गेभ्यः कथयति - भगवान् महावीरः सांसारिकजीवानां दुःखं जानाति, अष्टविधकर्मणां विनाशकः सदा सर्वत्रोपयोगात् (अनन्तज्ञानी तथा का ज्ञान होता है । ऐसे भगवान् के श्रुत और चारित्र रूप धर्म को जानो तथा उनके धैर्य को देखो। उनके कानों में कील ठोंके गए, पावों पर खीर पकाई गई, इत्यादि अनेक उपसर्ग होने पर भी वे चारित्र से चलायमान नहीं हुए उनके इस धैर्य का विचार करो । अथवा उन श्रमणो ब्राह्मणों आदि ने सुधर्मा से कहा तुम विहार आदि में तीर्थंकर भगवान् प्रभु के साथ ही विचरते थे अतः यशस्वी और चक्षुगोचर महावीर प्रभु के धर्म और धैर्य को जानते हो, अतएव हमें कहो । भाव यह है श्री सुधर्मास्वामी जम्बूस्वामी आदि शिष्यवर्ग से कहते हैं- भगवान् महावीर सांसारी जीवों के दुःखों को जानते थे, अष्टविध कर्मों के विनाशक थे, सदा सर्वत्र उपयोगवान् थे, अनन्त છે. એવા મહાવીર પ્રભુના શ્રુત અને ચારિત્ર રૂમ ધર્મને જાણેા અને તેમના ચૈયના વિચાર કરો. તેમના કાનેામાં ખીલા ઠેકવામાં આવ્યા, તથા તેમના પગ પર ખીર પકવવામાં આવી, છતાં પણ તેમણે એ બધાં ઉપસીને સમભાવ પૂર્ણાંક સહન કર્યા. ઘારમાં ઘેર ઉપસર્ગાને તૈય પૂર્ણાંક સહન કરીને સંયમના માર્ગોમાં વિચલિત રહ્યા. તેમના આ ધૈયના વિચાર કરો. અથવા તે શ્રમણે!, બ્રાહ્મણેા વગેરેએ સુધર્માં સ્વામીને કહ્યું-તમે વિદ્યાર આદિમાં મહાવીર પ્રભુની સાથે જ વિચરતા હતા. યશસ્વી અને ચક્ષુગાચર મહાવીર પ્રભુના ધમ અને ધય ને તમે જાશેા છે, તે વિષે અમને કહેવાની કૃપા કરા’ તે તાત્પર્ય એ છે કે-સુધાં સ્વામી જમ્મૂસ્વામી આદિ શિષ્યસમુદાયને કહે છે કે-મહાવીર પ્રભુ સ‘સારી જીવેાના દુઃખાને જાણતા હતા. અવિધ हर्मोनां विनाश हुता, सहा सर्वत्र उपयोगवान् हुता, अनंतज्ञान भने For Private And Personal Use Only Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ६ उ. १ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् :- अनन्तदर्शनवान् आसीत् । (एतादृशो यशस्वी भगवान् सर्वलोकानां लोचनपथे वर्त्तमानस्तस्य धर्मे धृतिं च त्वं जानीहि - तधैर्ये विचारय इति ॥ ३ ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir साम्प्रतं सुधर्मस्वामी तद्गुणान् वर्णयितुमाह- 'उड्डू' इत्यादि । मूलम् -'उड्डुं अहेयं तिरियं दिसासु, तैसा य जै थावरा जै य पार्णा । से मिंच्च णिच्चेहिं संमिक्खपन्ने, दीवे धम्मं संमियं उदाहु' ॥४॥ छाया - ऊर्ध्वमधस्तिर्यग् दिशासु, त्रसाथ ये स्थवरा ये च प्राणाः । स नित्यानित्याभ्यां समीक्ष्य प्रज्ञो, दीपइव धर्म समितमुदाह || ४ || ज्ञानवान् और अनन्तदर्शनवान् थे। ऐसे यशस्वी भगवान् सबके लोचनपथ में वर्तमान थे। उनके धर्म को तुम जानो और धैर्य पर विचार करो ॥ ३ ॥ p सब सुधर्मा भगवान् के गुणों का वर्णन के लिए कहते हैं'उ' इत्यादि । शब्दार्थ - 'उडूं - ऊर्ध्व' ऊपर 'अहेयं - अधः' नीचे 'तिरियं तिर्यग ! तिरछे 'दिसासु-दिक्षु' दिशाओं में 'तसाय जे प्रसाश्व ये, जो प्रस और 'थावरा जे य पाणा - स्थावराः ये च प्राणाः स्थावर प्राणी रहते हैं उन्हें 'णिच्चाणिच्चेहि नित्यानित्याभ्यां' निस्य और अनित्य दोनों प्रकार का 'समिक्ख - समीक्ष्य' जानकर 'से पन्ने-स प्रज्ञः । उन केवलज्ञानी भगवानने 'दीवेव - दीप इव' दीप के समान 'समियं समितम् ' समता અનન્ત દનથી યુક્ત હતા. એવા યશસ્વી ભગવાન સૌના ચક્ષુપથમાં વિદ્યમાન હતા, તેમના ધર્માંને તમે જાણા અને તેમના ધૈયના વિચાર કરે. પ્રજ્ઞા હૅવે સુધર્મા સ્વામી મહાવીર પ્રભુના ગુણેાનું વર્ણન કરે છે–‘ઉ’ ઇત્યાદિ– शब्दार्थ' - 'उड्ढ - ऊर्ध्व' ३५२ 'अहेयं - अधः' नीचे 'तिरियं तिर्यगू' तिरछी 'दिसासु-दिक्षु' हिशायामां 'तसा य जे - साध्ध ये' स गने 'थावरा जे य-पाणा - स्थावराः ये च प्राणाः स्थावर आदी २३ ४. तेभने 'णिच्च णिच्चेहिं - नित्यानित्याम्यां' नित्य भने अनित्य माने अहाना 'समिक्स - समीक्ष्य' लथीने 'से पन्ने-स्र प्रज्ञः ' ते डेवलज्ञानी लगवाने 'व For Private And Personal Use Only Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्र अन्वयार्थ:-'उड़' ऊर्ध्वम् (अहेय) अधः (तिरियं) तिर्यक् (दिसासु) दिक्षु (तसाय जे) त्रसाश्च ये (थावरा जे य पाणा) स्थावराश्च ये पाणा:-पाणिनः सन्ति तान् (णिचाणिच्चेहि) नित्यानित्याभ्याम् (समिक्ख) समीक्ष्य-केवलज्ञानेनाs. र्थान् परिज्ञाय (से पन्ने) स प्रज्ञः स एव माज्ञः (दोवेव) दीप इव वस्तुबोधकतेजोराशिरिव (समिय) समितं समतया युक्तम् (धम्म) धर्म श्रुतचरित्ररूपम् (उदाहु) उदाह-वदति ॥ ४ ॥ टीका-(उड़) ऊर्ध्वम् (अहेय) अधः (तिरियं) तिर्यक् (दिसामु) दिक्षु चतुर्दश ज्ज्वात्मकलोके। (जे) ये (तसा य) साश्व-त्रस्यन्तीति साः तेजोवायुरूप विकलेन्द्रियपञ्चेन्द्रिय भेदात् त्रिधा । तथा च (जे थावरा) ये स्थावराः पृथिव्यबूवनस्पतिभेदात् त्रिधा। (जे य पाणा) ये च पाणा:-ये च उच्छ्वासादिरूप प्राणवन्तः से युक्त 'धम्म-धर्मम्' श्रुतचारित्ररूप धर्म का 'उदाहु-उदाह' कथन किया है ॥४॥ ... अन्वयार्थ-ऊर्थ, अधः एवं तिर्यक् दिशाओं में जो भी त्रस और स्थावर प्राणी हैं, उन्हें नित्य और अनित्य दोनों प्रकार से केवलज्ञान द्वारा जानकर दीप के समान वस्तुतत्व को प्रकाशित करनेवाले धर्म का स्वभाव से विशिष्ट कथन किया है।।४।। टीकार्थ-ऊर्ध्व दिशा में, अधोदिशा में तथा तिर्थी दिशाओं में अर्थात् चौदह राजू परिमित लोक में जो स अर्थात् त्रास को 'अनुभव करनेवाले तेजस्काप, वायुकाय, विकलेन्द्रिय तथा पंचेन्द्रिय के भेद से तीन प्रकार के जीव हैं उनको और जो पृथ्योकाय, अपकाय तथा बनस्पतिकाय के भेद से तीन प्रकार स्थावर जीव हैं, जो उच्छ्वास आदि प्राणों से युक्त हैं, उनको प्रकृष्ट प्रज्ञा से केवलज्ञान से भगवान् -दीप इव' हिवाना समान् 'समिय-समितम्' समताथी युति 'धम्म-धर्मम्' श्रुतयात्रि३५ धमनु 'उदाहु-उदाह ४थन ४३६ छ. ॥४॥ ના સૂત્રાર્થ-ઊર્વ દિશા, અદિશા અને તિર્યંગ દિશામાં જે ત્રસ અને સ્થાવર જ રહેલા છે, તેમને કેવળજ્ઞાન દ્વારા નિત્ય અને અનિત્ય એમ અને પ્રકારે જાણીને, દીપકની જેમ વસ્તુતત્વને પ્રકાશિત કરનારા ધર્મન, મહાવીર પ્રભુએ સમભાવ પૂર્વક પ્રતિપાદન કર્યું છે - हिमां, माहिम मने तिछ शिमi-मेट ચૌદ રાજ પ્રમાણ લેકમાં જે ત્રસ અને સ્થાવર જીવે રહેલા છે તેમને મહાવીર પ્રભુએ પિતાની પ્રકૃષ્ટ પ્રજ્ઞા વડે-કેવળજ્ઞાન વડે નિત્ય અને અનિત્ય જાગ્યા. એટલે કે દ્રવ્યાર્થિક નયની અપેક્ષાએ તેમણે તેમને નિત્ય જાણ્યા અને પર્યાયાર્થિક નયની અપેક્ષાએ તેમણે અનિત્ય જાણ્યા. For Private And Personal Use Only Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र.थु. अ. ६ उ.१ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् ४६९ तान् जीवादिपदार्थान् (से) स भगवान् (पन्ने) प्राज्ञः, प्रकर्षेण जानाति. इति प्रज्ञा मज्ञ एव माज्ञः (णिचाणिच्चेदि) नित्यानित्याभ्यां द्रव्यार्थपर्यायार्थाश्रयणात् द्रव्येण नित्यत्वं पर्शयेणाऽनित्यत्वम् (समिक्ख) समीक्ष्य-विमल केवलालोकेन सर्वानेव द्रव्यपर्यायात्मकान् पदार्थान् परिज्ञाय, भगवान् (दीवे३) दीप इव सकलपाणवतां जीवानां पदार्थस्य प्रकाशेन दीप इव दीपः, यथा दीपः पदार्थजातान प्रकाश्य दर्शयति, तथा भगवानपि सकलपदार्थप्ररूपणात् पदार्थान् प्रकाशयतीति भवति दीपसमता, अथवा-संसारसागरे निमज्जतामशेषजन्तूनां द्वीप इव रक्षकः । ने नित्य और अनित्य रूप से जाना । अर्थात् द्रव्यायिकनय से नित्य और पर्यायार्थिक नय से अनित्य जाना। उन्होंने अपने निर्मल केवलज्ञान रूपी आलोक के प्रकाश से समस्तद्रव्य-पर्यायात्मक पदार्थों को जाना। भगवान् पदार्थों के वास्तविक स्वरूप को प्रकाशित करने के कारण समस्त प्राणियों के लिए प्रदीप के समान थे। जैसे दीप पदार्थपुंज को प्रकाशित करके दिखला देता है उसी प्रकार भावान् भी सकल पदार्थों की प्ररूपणा करके उन्हें प्रदर्शित करते हैं। अतएव वह दीप के समान हैं। अथ मूल में आये हुए 'दीवेव' का अर्थ है-द्वीप के समान संसार में इंबते हुए समस्त प्राणियों के लिए भगवान् द्वीपक के समान रक्षक हैं। इस प्रकार के गुणगणों से विराजमान भगवान् ने असार संसार-सागर से उद्धार करने वाले જે પ્રાણીઓ ત્રાસને અનુભવ કરે છે તેમને ત્રસ કહે છે. તેજસકાય, વાયુકાય અને દ્વીન્દ્રિથી લઈને પંચેન્દ્રિય પર્વતના ને વસ કહે છે. પૃથ્વીકાય, અપકાય અને વનસ્પતિકાયના ભેદથી ત્રણ પ્રકારના સ્થાવર જીવે કહ્યા છે આ છો ઉચ્છવાસ આદિ પ્રાણથી યુક્ત છે. આ સમહત છને કેવળજ્ઞાનના પ્રભાવથી ભગવાને નિત્ય અને અનિત્ય રૂપે જાણીને તેમને વિષે પ્રરૂપણ કરી. દ્રવ્યની અપેક્ષાએ તેમણે સમસ્ત છને નિત્ય જાણ્યા અને પર્યાયની અપેક્ષાએ તેમને અનિત્ય જાણ્યા. કેવળજ્ઞાન રૂપી પ્રકાશ દ્વારા સમસ્ત દ્રવ્ય અને પર્યાયાત્મક પદર્થોને જાણીને, ભગવાને પદાર્થોના વાસ્તવિક સ્વરૂપને પ્રકાશિત કર્યું, તે કારણે તેમને પ્રદીપ (દીપક) ના સમાન કહેવામાં આવ્યા છે. જેવી રીતે દીપક પિતાને પ્રકાશ વડે પદાર્થ પુંજને પ્રકાશિત કરીને તેમનું વરૂપ બતાવે છે, એ જ પ્રમાણે ભગવાને પણ સમસ્ત પદાર્થોની પ્રરૂપણા शन तमना २१३५ने ५शित यु छे. अथव! 'दीवेव' मा पहन! म તપસમાન પણ થાય છે. સંસાર સાગરમાં ડૂબતાં પ્રાણીઓને માટે ભગવાન For Private And Personal Use Only Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतास्ते एवंभूतगुणगणगुम्फितो भगवान् असारसंसारसागराद् उद्धारकम् (धम्म) धर्मम्श्रुतचारित्राख्यम् , (समिय) समितम्-समभावयुक्तम् , तथोक्तम्___(जहा पुण्णस्स कत्थइ तहा तुच्छस्स कत्थइ) यथा पुण्यस्य-पूर्णस्य चक्रवादे कथ्यते तथा तुच्छस्य-रङ्कस्य कथ्यते इति । (उदाहु) उदाह-प्रतिपादति-सस्थावरात्मकलोकस्यानुग्रहाय, न तु मानपूजार्थम् । केवलज्ञानी तीर्थकरो लोकस्य सकलसंसाराऽन्तर्गत सस्थावरादिसकल जीवान् नित्यानित्यत्वाभ्यां ज्ञात्वा लोकानामनु ग्रहबुद्धया श्रुतचारित्राख्यं धर्मसुदाह-अवापि मूले आर्षत्वादेव बहुवचनमिति ॥४॥ श्रुतचारित्र धर्म का समभाव से प्ररूपण किया, अर्थात् रागद्वेष से रहित होकर कथन किया। आगम में कहा है-'जहा पुण्णस्स' इत्यादि । जैसे पूर्ण अर्थात् ऋद्धि संपत्ति से सम्पन्न चक्रवर्ती आदि जनों को उपदेश देते हैं उसी प्रकार तुच्छ अर्थात् धनादि से रहित जनों को भी उपदेश देते हैं। वे सम्पन्न और विपन्न जनों के प्रति समभाव धारण करके सबको समान रूप से धर्मदेशना करते हैं।' भगवान् ने सन्मान या पूजा के लिए धर्मप्ररूपणा नहीं की परन्तु लोक के अनुग्रह के लिए की है। ___ तार्य यह है कि केवलज्ञानी तीर्थंकर भगवान महावीरने लोक के समस्त त्रस और स्थावर जीवों को नित्य अनित्य रूप से जान कर, अनुग्रह करने के लिए श्रुनचारित्र धर्म का निरूपण किया। 'उदाहु' पद में भी आर्षपयोग होने से ही बहुवचन का प्रयोग किया गया है ॥ ४॥ દ્વીપના સમાન આધાર રૂપ હતા. આ પ્રકારના ગુણેથી વિભૂષિત મહાવીર પ્રભુએ અસાર સંસાર સાગરમાંથી ઉદ્ધાર કરનાર શ્રત ચારિત્ર રૂપ ધર્મની સમભાવ પૂર્વક પ્રરૂપણા કરી-એટલે કે રાગદ્વેષથી રહિત થઈને તેમણે તેનું प्रतिपात यु. भाममा छ 'जहा पुण्णस्स' ते मे द्धि-पत्तिथी સંપન્ન ચક્રવર્તી આદિ મહાપુરુષને જે પ્રમાણે ઉપદેશ દે છે, એ જ પ્રમાણે તુચ્છ લોકોને-દરિદ્રોને પણ ઉપદેશ દે છે. તેઓ સંપન્ન અને વિપત્તન (સમૃદ્ધ અને દરિદ્ર) પ્રત્યે સમભાવ ધારણ કરીને, સૌને સમાનરૂપે ધર્મદેશના કરતા હતા ભગવાને સત્કાર, સન્માન અને પૂજાને માટે ધર્મપ્રરૂપણું કરી નથી, પરંતુ લોકેનું કલ્યાણ કરવાની ભાવનાથી કરી છે. આ સૂત્રને ભાવાર્થ એ છે કે કેવળજ્ઞાની તીર્થકર ભગવાને (મહાવીર) લેકના સમસ્ત ત્રસ અને સ્થાવર ને નિત્ય અનિત્ય રૂપે જાણીને, જીવે પર અનુગ્રહ કરવાને માટે શ્રુતચારિત્રરૂપ ધર્મનું નિરૂપણ કર્યું છે. એ જ For Private And Personal Use Only Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. ४. ६ ३.१ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् ४७१ मूलम्- से संवदंसी अभिभूयनाणी, णिरामगंधे धिइमंठियप्पा। अणुत्तरे सव्वजगंसि विजं, गर्था अतीते अभये अजीऊ॥५॥ छाया-स सर्वदर्शी अभिभूयज्ञानी, निरामगन्धो धृतिमान् स्थितात्मा । अनुत्तरः सर्वजगति विद्वान् , प्रन्यादतीतोऽभयोऽनायुः ॥ ५ ॥ अन्वयार्थ-(से) स महावीरः (सरदंसी) सर्वदर्शी-सामान्यतः सर्वपदार्थ. विषयकदर्शनशीलः (अभिभूयनाणी) अभिभूय ज्ञानी- केवलज्ञानी (णिरामगंधे) शब्दार्थ-'से-सः' वह महावीर स्वामी 'सच्चदंसी-सर्वदर्शी' सम. स्त पदार्थों को देखनेवाले 'अभिभूयनाणी-अभिभूयज्ञानी' केवलज्ञानी 'णिरामगंधे-निरामगंधः' मूलगुण और उत्ता गुण से विशुद्ध चारित्र का पालन करने वाले 'धिहम-धृतिमान् धृति युक्त और 'ठियप्पा-स्थितात्मा' आत्मस्वरूप में स्थित थे 'सम्बजगंसि-सर्वजगत्प्लु' संपूर्ण जगत् में वह 'अणुत्तरे विज-अनुत्तरो विद्वान् । सब से उत्तम विद्वान थे 'गंथाअतीते-ग्रन्थातीतः' बाह्य और आभ्यंतर दोनों प्रकार की ग्रन्थियों से रहित 'अभए-अभयः' निर्भय और 'अणा3-अनायुः' चारों प्रकार की आयु से रहित थे ॥५॥ 'से सव्वदंसी' इत्यादि। अन्वयार्थ-भगवान् महावीर सर्वदर्शी अर्थात् सामान्य रूप से समस्त पदार्थों के दर्शन से युक्त थे। केवलज्ञानी थे। मूलगुणों और 'से सम्बदंसी' शहाय-से-स' ते महावीर स्वामी 'सव्वदंसी-सर्वदर्शी' मा । पहात नेपाou 'अभिभूयनाणी-अभिभूयज्ञानी' ज्ञानी ‘णिरामगंधेनिरामगंधः' मुखशु मने उत्तरगुथी विशुद्ध यात्रिनु पालन ४२११णा 'धिइम-धृतिमान्' धृति युति भने 'ठियप्पा-स्थितात्मा' मा म २५३५मा स्थित ता, 'सव्वजगमि-सर्वजगत्सु' सपू गतमा त 'अणुत्तरे विज्ज-अनुत्तरो विद्वान्' माथी उत्तम विद्वान हता, 'गथा अतीवे-ग्रन्थातीतः भने भा९५२ २ २नी अथियाथी २हित 'अभए-अभयः' Gिe°4 भने 'अणाउ-अनायुः' थारे ना आयुथी २खित . ॥५॥ સૂત્રાર્થ–મહાવીર પ્રભુ સર્વદશી હતા એટલે કે તેઓ સામાન્યરૂપે સમસ્ત પદાર્થોનાં દર્શનથી યુક્ત હતા. તેઓ કેવળજ્ઞાની હતા, તેઓ મૂળ For Private And Personal Use Only Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे निराम्गन्या-मूलोत्तरगुणाभ्यां विशुद्ध वारित्रपालक: (धिइम) धृतिमान्-धैर्यशील (ठियप्पा) स्थितात्मा-आत्मस्वरूपे स्थितः (सव्वजगंसि) सर्वजगति (अणुत्तरे विज्ज) अनुत्तरो विलक्षगो विद्वान् (गंथा अतीते) ग्रन्थादतीत:-स बाह्याभ्यन्तरप्रन्यादतीतो निर्ग्रन्थः (अपर) अभयो-भयरहितः (अणाउ) अनायु:-चतुः विधायुर्वर्जित इति ॥ ५॥ टीका-(से) स भगवान महावीर खिलोकप्रसिद्धः, प्रसिद्धार्थकोऽत्रतच्छन्दः । इहापि तथैव योऽयं भगवान् महावीर खिलोकप्रसिद्धः। (सन्चदंसो) सर्वदर्शी सर्व त्रसस्थावरात्मकं जगद्रष्टुं शीलं यस्य सः, (अभिभूयनाणी) अभिभूयमत्यादीनि ज्ञानानि पराजित् यद् ज्ञानं केवलपक्ष्वाच्यं वर्तते, तादृशं केवलज्ञानं विद्यते यस्य सोऽभिभूयज्ञानी । ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षो भवतीति मोक्षसाधनं ज्ञान प्रदय मोक्षावयवकियां दर्शयति-(णिराम) इत्यादि, (णिरामगंधे) निरामगन्धः उत्तरगुणों से विशुद्ध चारित्र के पालक थे। धैर्यवान् , आत्मस्वरूप में स्थित, सम्पूर्ण जगत् में सर्वोत्तमज्ञानी बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह से रहित, निर्भय तथा चारों प्रकार की आयु से रहित थे ॥५॥ टीकार्थ-यहां 'तत्' शब्द का प्रयोग 'प्रिसिद्ध' इस अर्थ में किया गया है, अतएव 'से' का अर्थ है-तीनों लोकों में प्रसिद्ध । भगवान् महावीर तीनों लोकों में प्रसिद्ध थे। सर्वदर्शी अर्थात् त्रस एवं स्थावर रूप जगत् को देखने वाले थे। छद्मस्थों को होने वाले मति आदि चारों अपूर्ण ज्ञानों को हटाकर उन्होंने सम्पूर्ण केवलज्ञान प्राप्त किया था। ज्ञान और क्रिया से मोक्ष प्राप्त होता है, अतएव मोक्ष के साधन ज्ञान का कथन करने के पश्चात् अथ क्रिया का उल्लेख करते हैं ગુણે અને ઉત્તરગુણેની અપેક્ષાએ વિશુદ્ધ ચારિત્રના પાલક હતા, તેઓ બૈર્યવાન, આત્મસ્વરૂપમાં સ્થિત, સંપૂર્ણ જગતમાં સર્વોત્તમ જ્ઞાની, બાહ્ય અને આભ્યન્તર પરિગ્રહથી રહિત, નિર્ભય તથા ચારે પ્રકારના આયુથી રહિત હતા.પ A -'तत्' ५५६ प्रसिद्धन सभा १५सया छ, तथा 'से' પદને અર્થ “ત્રણે લેકમાં પ્રસિદ્ધિ” સમજવાનું છે. ભગવાન મહાવીર ત્રણે લેકમાં પ્રસિદ્ધ હતા. તેઓ સર્વદર્શાત્રસ અને સ્થાવર રૂપ જગતને દેખનારા હતા. મતિજ્ઞાન આદિ ચારે અપૂર્ણજ્ઞાને કે જેમને છઘમાં સદુભાવ હોય છે, એવાં અપૂર્ણ જ્ઞાનને બદલે તેમણે સંપૂર્ણ જ્ઞાનરૂપ સર્વશ્રેષ્ઠ કેવળ જ્ઞાન પ્રાપ્ત કર્યું હતું. જ્ઞાન અને ક્રિયા દ્વારા મોક્ષની પ્રાપ્તિ થાય છે. મેક્ષના સાધનરૂપ જ્ઞાનની વાત કરીને હવે કિયાની વાત કરવામાં આવે છે. ભગવાન મહાવીર For Private And Personal Use Only Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ६ उ.१ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् ४७३ निर्गतोऽागतः अाम:-अविशोधिकोट्याख्यो दोषः तस्य गन्धः सम्बधो यस्माद् यस्य वा स निरामगन्धः-निरविचारमूलोत्तरगुणयुक्तचारित्रक्रियावानित्यर्थः, (धिइम) कृतिमात्-अनेकपकारोपसर्गरुपद्रुतोऽपि मेरुबद् अविकम्पतया संयमे धृतिशीलः, 'टिया स्थितामा, स्थितो व्यवस्थितः सकलकर्माऽपगमनेन स्वरूपे आत्मा यस्य साहिल्ला , 'अणुत्तरे' अनुत्तरः नास्ति उत्तरः प्रधानो यस्य सोऽनुत्तर सर्वेभ्योऽखि मधानः, (सव्वजगसि विज्ज) सर्वजगति विद्वान्-लकलपदार्थानां कराऽमलव देता-जाता, (गंथा अतीते) ग्रन्थादतीत:-बाह्यग्रन्थात् हिरण्यसुवर्णादिरूपा , आभ्यन्वरग्रन्थात् कर्मरूपात् अतीतः -अतिक्रान्तो ग्रन्थातीत:-निर्ग्रन्थः, 'अभ' अपर-नास्ति सप्तमकारकमपि भयं यस्य सोऽभयः, समस्त भयरहित -भगवान् विरामगंध थे अर्थात् अविशुद्धि कोटि नामक दोष उनसे हटगया था। तात्पर्य यह है कि वे तिचार रहित मूलगुणों और उत्तर गुणों से युका चारित्रवान् थे। अनेक प्रकार के उपसर्ग आनेपर भी खेर जैहो अकम्प होने से संयम में धैर्यवान् थे। समस्त कर्मों के हट जाने से उनकी आत्मा अपने स्वरूप में स्थित हो गई थी। वह अनुत्तर थे अर्थात् अखिल विश्व में उनसे श्रेष्ठ कोई नहीं था-वही सर्वश्रेष्ठ थे। समस्त जगत् में, सकल पदार्थों को हथेली पर रहे हुए आंवले के समान प्रत्यक्ष देखने के कारण ज्ञानी थे। वह हिरण्य सुवर्ण आदि बाह्य परिग्रह से तथा कर्मरूप आभ्यन्तर परिग्रह से अतीत-रहित अर्थात् ग्रन्धातीत-निग्रन्थ थे। सात प्रकार के भयों से નિરામગધ હતા, એટલે કે અવિશુદ્ધિ કોટિ નામના દેષથી રહિત હતા. આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે તેઓ અતિચાર રહિત મૂળગુણે અને ઉત્તર ગુણેથી યુક્ત હેવાને કારણે ચારિત્રવાન હતા. અનેક ઉપસર્ગો આવી પડવા છતાં તેમણે દૈયપૂર્વક તેમને સામને કર્યો હતો. આ પ્રકારે મેરુ સમાન અડગ હેવાને કારણે તેમને વૈર્યવાન કહ્યા છે. સમસ્ત કમેને ક્ષય થઈ જવાને કારણે તેમને આત્મા કર્મ રજથી રહિત થઈને મૂળ સ્વરૂપમાં ચમકતે હતા. તેઓ અનુત્તર (સર્વશ્રેષ્ઠ) હતા એટલે કે આખા વિશ્વમાં તેમના કરતાં શ્રેષ્ઠ અન્ય કેઈ ન હતું. સમસ્ત પદાર્થોને હાથમાં રહેલા આમળાની જેમ પ્રત્યક્ષ જોઈ શકવાને તેઓ સમર્થ હતા, તે કારણે તેમને જ્ઞાની કા છે. તેએ સુવર્ણ, ચાંદિ આદિ બાહ્ય પરિગ્રહથી અને કર્મરૂપ અત્યન્તર પરિ ગ્રહથી રહિત હતા, તેથી તેમને પ્રસ્થાતીત-નિગ્રંથ કહ્યા છે. સાત પ્રકારના सू० ६० For Private And Personal Use Only Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - सूत्रकृताङ्गसूत्रे इत्यर्थः । (अणाऊ) अनायुः न विद्यते चतुर्विधमपि नरामरनारकतिर्यंचायुर्यस्य सोऽनायुः, कर्मवीजानां विनाशेन पुनरुत्पत्तेरभावात् । भगवान् महावीरः सकल. पदार्थानां द्रष्टा केवली च । मूलोत्तरगुणाभ्यां विशुद्धचारित्रपालकोऽतिधीर स्तथा स्थितात्मा। सर्वेभ्योऽपि उत्तमो विद्वान् बाह्याभ्यन्तरग्रन्थिरहितो निर्भयः आयुरहित वासीदित्यर्थः ॥५॥ मूलम्-'से भूइपण्णे अणिएं अचारी ओहंतरे धीरे अर्णतचक्खू । अणुत्तरे तप्पइ सुरिए व, वेइरोयर्णिदेव तमं पगासे ॥६॥ - छाया-सभूति प्रज्ञोऽनिकेतचारी ओघन्तरो धीरोऽनन्तचक्षुः। _अनुतरं तपति मूर्य इव वैरोचनेन्द्र इव तमः प्रकाशयति ॥६॥ रहित होने के कारण समस्त भयों से रहित थे। चारों प्रकार की आयु से मुक्त थे, क्योंकि कर्म बीज का उन्मूलन कर चुके थे, अतएव उनका पुनः जन्म होना संभवित नहीं था। आशय यह है कि भगवान महावीर सकल पदार्थों के द्रष्टा केवली थे। मूल और उत्तर गुणों से विशुद्ध चारित्र के पालक थे, अत्यन्त धीर तथा स्थितात्मा थे। सब से उत्तम ज्ञानी, बाह्याभ्यन्तर परिग्रह से रहित, निर्भय थे। और आयु से वर्जित थे ॥५॥ 'से भूइपण्णे' इत्यादि। शब्दार्थ-से-सः' वह भावान बर्द्धमान महावीर स्वामी 'भूइपण्णेभूतिप्रज्ञः' अनन्तज्ञानवाले और 'अणिए अचारी-अनियताचारी' अनियताचारी अर्थात् इच्छानुसार विचरने वाले 'ओघंतरे-घन्तरः संसार ભયથી રહિત હેવાને કારણે તેમને નિર્ભય કહ્યા છે. તેઓ ચારે પ્રકારના આયુથી રહિત હતા, કારણ કે તેમણે કર્મબીજને ઉચછેદ કરી નાખ્યું હતું, તે કારણે સંસારમાં તેમને ફરી જન્મ લેવાને ન હતો. તાત્પર્ય એ છે કે મહાવીર ભગવાન સમસ્ત પદાર્થોના દ્રષ્ટા-કેવળીહતા, તેઓ મૂળ અને ઉત્તરગુણેથી યુક્ત વિશુદ્ધ ચારિત્રનું પાલન કરનારા હતા. અત્યન્ત ધીર તથા સ્થિતાત્મા હતા. તેઓ સર્વોત્તમ જ્ઞાની, બાહ્યા અને આભ્યન્તર પરિગ્રહથી રહિત, ભયરહિત અને આયુથી રહિત હતા. ૫ 'से भूइपण्णे' त्याहि शमहा-से-सः' ते मवान् भान महावीर स्वामी 'भूइपण्णेभूतिप्रज्ञः' मनन्तज्ञान पणा अने 'अणिए अचारी-अनियताचारी' भनियताया अर्थात २छानुसार १२पापा 'ओघंतरे-ओघन्तरः' ससार सागरने पार For Private And Personal Use Only Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org बोधिनी टीका प्र. शु. अ. ६ उ. १ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् ४०५ अन्वयार्थ - (से) सः - बर्द्धमानस्वामी (भूषण्णे) भूतिमज्ञोऽन्तज्ञानवान् (अणि अवारी) अनिकेतचारी - गृहरहितः, (ओघारे) ओघन्तरः - संसारसमुद्रतरणशीलः (धीरे धीरः- मेधावी (अनंतचाखू) अनन्तचक्षुः- केवलज्ञानी (सुरिए) सूर्यइव प्रकाशकः (अणुत्तरे) अनुत्तरः- सर्वाविशायी (तपः) तपति सर्वेभ्योऽधिकज्ञानीत्यर्थः, (त्रयणिदेव) वैरोचनेन्द्र इव (तमं पता से) तमः प्रकाशपति अग्निरिव अन्धकारं विनाश्य पदार्थप्रकाशकइति || ६ || 1 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टीका - (से) स भगवान् महावीरस्वामी, (भूइपन्ने) भूतिमज्ञः तत्र भूतिशब्द:वृद्धमङ्गलरक्षास्पर्शेषु वर्त्तते । तथाच भूतिप्रज्ञः, भूतिः - प्रवृद्धा महती - प्रज्ञा यस्य सागर को पार करनेवाले 'धीरे-धीरः' बुद्धिशाली 'अनंतचाखू - अनंत चक्षुः' केवलज्ञानी 'सूरिए व सूर्य इव' जैसे सूर्य 'अणुसरे - अनुत्तरः' सबसे ज्यादा 'तथ्य-तपति' तपता है इसी प्रकार भगवान् सबसे अधक ज्ञानवाले थे 'बेरोयनिदेव- वैरोचनेद्र इव' अग्नि के समान 'तमं पगासे' 'तमः प्रकाशयति' अन्धकार से वस्तु का प्रकाश करनेवाले है अर्थात् भगवान् अज्ञानरूपी अन्धकार को दूर करके पदार्थों के यथार्थ स्वरूप को प्रकाशित करते हैं || ६ || अन्वयार्थ - भगवान् महावीरस्वामी अनन्तज्ञानी, अनिकेत रूप से विचरण करनेवाले अर्थात् गृहरहित, संसारसागर से तिरने वाले, धीर, अनन्तदर्शनवान् सूर्य के समान प्रकाशशील सर्वोत्तम, सब से अधिक ज्ञानवान्, वैरोचन इन्द्र के समान तथा अग्नि के समान अज्ञानान्धकार का विनाश करके पदार्थों के प्रकाशक थे । ६ । इवावापा 'धीरे-धीर' शुद्धिशाणी 'अनंत चक्खू' - अनंतचक्षुः' ठेवणज्ञानी 'सूरिए व सूर्य इव' लेवी रीते सूर्य' 'अणुत्तरे - अनुत्तरः' अधाथी वधारे 'तप्पतपति' तये छेत्री रीने भगवान मधाथी अधिक ज्ञानवाणा इता वैरोयणिंदेव- वैरोचनेन्द्र इव' अग्निना समान 'तमं पगासे - तमः प्रकाशयति' मध२थी વસ્તુને પ્રકાશ કરવાવાળા છે મર્થાત્ ભગવાન અજ્ઞાનરૂપી અંધકારને દૂરકરીને પદાર્થાને યથા સ્વરૂપથી પ્રકાશિત કરે છે. ॥ ૬ ॥ સૂત્રા ભગવદ્ વમાન સ્વામી અનન્તજ્ઞાની, અનિયતરૂપે વિચરણુ ४२नाश, भेटले } शृडरडित, संसारसागरने तरनारा, धीर, अनन्तद्दर्शनवान्, સૂર્યના સમાન પ્રકાશશીલ, સર્વોત્તમ, સૌથી અધિક જ્ઞાનવાત્, વૈરાચન-ઇન્દ્રના સમાન તથા અગ્નિના સમાન અજ્ઞાનાન્ધકારના વિનાશ કરીને પદાર્થોના प्राश ता ॥६॥ For Private And Personal Use Only Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५७६ सूत्रकृताङ्गसूत्रे स भूतिप्रज्ञः अनन्तज्ञानवान्, सर्वार्थविषयकज्ञानवान् इत्यर्थः । अथवा सर्वमङ्गळभूतप्रज्ञावान्, यद्वा-जगद्रक्षभूतमज्ञावान् । तथा - ( अणिएअचारी) अनिकेतचारी, निकेतं गृहं तद्रहितमनिकेतं यथास्यात्तथा अपतिबद्धमित्यर्थः तच्चरितुं शीलं यस्य सोऽनिकेतचारी- अप्रतिबद्ध विहारीत्यर्थः तथा - ( ओहंत रे) ओघन्तरः, ओघं- संसारं टीकार्थ - भगवान् महावीर स्वामी 'भूतिप्रज्ञ' थे । भूति शब्द के अनेक अर्थ हैं, यथा- वृद्ध, मंगल, रक्षा और स्पर्श । यहां इसका 'वृद्ध' अर्थ है । जिनकी प्रज्ञा अधिक वृद्धि को प्राप्त हुई हो ऐसे अर्थात् जो अनन्तज्ञानी हैं उन्हें भूतिप्रज्ञ कहते हैं। पर्य यह है कि भगवान् समस्त पदार्थों को विषय करने वाले ज्ञान से सम्पन्न थे । अथवा वे सब के लिए कल्याणकारी था । अथवा उनकी प्रज्ञा जगत् की रक्षा करनेवाली थी । अथवा उनकी प्रज्ञा लोक में स्थित समस्त पदार्थों का स्पर्श करने वाली उन्हें विषय करने वाली थी । भगवान् अनिकेत रूप से विचरण करने वाले थे। परिग्रह से रहित होने के कारण अप्रतिबंध बिहारी थे । अतएव 'अजिए अचारी' इस पद का अर्थ है- 'अनिकेतवारी' | भगवान गृहरहित होकर विचरण टीडार्थ - भगवान् भडावीर स्वामी 'भूतियज्ञ' ता. 'लुति' पढना नीचे પ્રમાણે અનેક અર્થ થાય છે જેમ કે વૃદ્ધ, મગળ, રક્ષા અને સ્પશ.' અહી’ તેને અ વૃદ્ધ સમજવે જોઇએ. જેમની વિશાળ પ્રજ્ઞા વૃદ્ધિ પામેલી છે, એટલે કે જેઓ અનંત જ્ઞાનથી સ`પન્ન છે, તેમને ‘ભૂતિપ્રજ્ઞ’ કહે છે. તાત્પર્ય એ છે કે મહાવીર પ્રભુ સમસ્ત પદાર્થાના મેધ કરાવનારા જ્ઞાનથી સપન્ન હતા. અહિયાં ‘ભૂતિ' પદના મંગળ અથ ગ્રહણ કરવામાં આવે, તે ‘તેમનું જ્ઞાન સૌને માટે કલ્યાણકારી હતું.' એવા ભૂતપ્રજ્ઞને अर्थ थायले 'भूति' पहनो अर्थ' 'रक्षा' भए उरवामां आवे तो 'ति પ્રશ' પદને અર્થ આ પ્રમાણે થાય-તેમની પ્રજ્ઞા જગતની રક્ષા કરનારી ती.' 'ति' पहनो 'स्पर्श'' अर्थ' श्रवामां गावे, तो भूतिप्रज्ञना અથ આ પ્રમાણે થાય-તેમની પ્રજ્ઞા સમસ્ત પદાર્થાને સ્પર્શ કરનારી-પદાર્થોના વિષયમાં માહિતી પૂરી પાડનારી હતી. ભગવાન્ મહાવીર અનિકેત રૂપે વિચરણુ કરનારા હતા. પરિગ્રહથી रहित डावाने रखे तेथे। अप्रतिषध विहारी हता. अथवा 'अणिए अचारी ' For Private And Personal Use Only Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir · समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ६ उ. १ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् ४७७ तरितुं तारयितुं वा शीलं विद्यते यस्य स ओवन्वरः । ( धीरे धीरः, धीर्बुद्धिस्तया सह राजते इति धीरः परपदादिभ्योऽक्षुग्धः । तथा - (अनंतचक्खू ) अनन्तचक्षुः, अनन्तं ज्ञेयाऽनन्ततया नित्यत्वेन वा चक्षुरिव चक्षुः केवलज्ञानं यस्य सोऽनन्तचक्षुः । अथवा लोकस्य प्रकाशकात वक्षुरिव चक्षुः स्वरू॥ यस्य भवति सोऽनन्तचक्षुःकेवालोकन | (रिए) सूर्य इव (अणुत्तरं दपति) अनुसरं सर्वतोऽधिकं यथा सूर्यस्तपति न दधिस्तापेन कश्चित् । दया भगवान् तीर्थकरोऽपि ज्ञानप्रकाशेन सर्वोत्तमः । नास्तिकश्चित् ज्ञानेन ततो महान (बइरोयणिदेव) वैरोचनेन्द्र इव, करते थे- गृह या आश्रम बना कर कहीं एक स्थान पर नहीं रहते थे । ऐसा कहा है - भगवान् संसार से स्वयं तिरनेवाले और दूसरों को भी तारने वाले तथा धीर अर्थात् ज्ञान से विभूषित एवं परीपों तथा उपसर्गो सेक्षुध न होने वाले थे । वह अनन्त चक्षु थे अर्थात् ऐसे ज्ञान से सम्पन्न थे जिसके ज्ञेय अनन्त हैं और जिसका कभी विनाश होना संभव नहीं । अथवा भगवान् लोक के लिए चक्षु के समान अनन्तप्रकाश करने वाले थे। जैसे सूर्य सबसे अधिक देदीप्यमान होता है, उसी प्रकार भगवान् सर्वोत्कृष्ट रूप से देदीप्यमान भास्वर थे । सूर्य सबसे अधिक प्रकाशदेता है, उसकी समता-बराबरी अन्यकोई नहीं कर એ પઢના અર્થ આ પ્રમાણે થાય છે-'મનિકેતચારી’-ભગવાન મહાવીર ગૃહ અથવા આશ્રમ બનાવીને કાઇ એક જ સ્થાનમાં રહેતા ન હતા. For Private And Personal Use Only તેએ પેાતે સ'સારને તારનારા અને અન્યને પણ તારનારા હતા. તે ધીર હતા, એટલે કે જ્ઞાનથી વિભૂષિત અને પરીષા તથા ઉપસૌથી મુખ્ય (वियसित) नहीं थनाश हुना, तेथे अनन्तयक्षु ता, भेटदो मे भेवां જ્ઞાનથી સંપન્ન હતા કે જેને કદી પણ વિનાશ થવાના સ ́ભવ નથી અને જેના જ્ઞેય અનન્ત છે.–અથવા ભગવાન લેકને માટે ચક્ષુસમાન-અનન્ત પ્રકાશ કરનારા હતા. જેવી રીતે સૂર્યાં સૌથી અધિક દેદીપ્યમાન છે, એજ પ્રમાણે મહાવીર પ્રભુ પણ સર્વોત્કૃષ્ટ જ્ઞાનના પ્રકાશથી અથવા શરીરની કાન્તિથી દૈદીપ્યમાન સૂર્ય સમાન હતા. સૂય સૌથી અધિક પ્રકાશ આપે છે, તેથી પ્રકા શની ખાખતમાં કાઇપણુ પદાર્થ તેની સરખામણીમાં ઊભા રહી શકતા નથી, Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४७८ सूत्रकृताङ्गसूत्रे विशेषेण रोचते-प्रकाशते इति वैरोचनोऽग्निः स एव अतिशयमज्वलनाद् इन्द्रःप्रद्धस्तद्वत् (तम) तमः (पगासे) प्रकाशयति, यथा-प्रदीप्तो ज्वालाजटिलो वह्निः सर्वतः प्रसृतमपि सर्वोच्छादकं तमोऽपनीय पदार्थान् प्रकाशयति चक्षुः सहकारितया, तथा-भगवानपि अज्ञानान्धकारं सर्वतो व्याप्तं सहसापनीय लोकानां कृते सकलादार्थान् प्रकाशयतीति भवति भगवान् अग्निसदृशः। सर्वप्राणिनाम् अज्ञानं निवार्य पदार्थप्रकाशक इति ॥मू०६॥ मूलम्-'अणुत्तरंधम्म मिगं जिणाणं, गेयाँ मुणी कासव आसुपन्ने। इंदेवं देवाण महाँणुभावे, सहस्सणेता दिविणं विसिडे॥७॥ छाया-अनुतरं धर्ममिमं जिनानां, नेता मुनिः काश्यप आशुप्रज्ञः । इन्द्र इव देवानां महानुभावः, सहस्रनेता दिवि खलु विशिष्टः ॥७॥ सकता, इसी प्रकार तीर्थकर सर्वोत्कृष्ट ज्ञानी होते हैं। उनसे अधिक ज्ञानी अन्य कोई नहीं हो सकता। वैरोचन का अर्थ है-अग्नि अतिशय जाज्वल्यमान होने से वह इन्द्र कहलाती है। जैसे जलती हुई ज्वालाओं से युक्त अग्नि सब ओर फैले हुए सघन अंधकारको निवारण करके पदार्थों को प्रकाशित करती है, चक्षु के सहायक होती. है, उसी प्रकार भगवान् भी सर्वत्र व्याप्त अज्ञान अन्धकार को सहसा दूर करके लोगों के लिए समस्त पदार्थों को प्रकाशित करते हैं। अतएव भगवान् अग्नि के समान हैं अर्थात् प्राणियों के अज्ञान का निवारण करके वस्तुस्वरूप के प्रकाशक हैं, ॥६॥ એજ પ્રમાણે તીર્થકર સર્વોત્કૃષ્ટ જ્ઞાની હોય છે તેમના કરતાં અધિક જ્ઞાની કઈ પણ સંભવી શકતું નથી. ઘેરોચન એટલે અગ્નિ અતિશય જાજવલ્યમાન હોવાને કારણે અગ્નિને ઈન્દ્ર કહે છે. જેવી રીતે પ્રજ્વલિત જવાળાઓથી યુક્ત અગ્નિ સઘળી દિશાએમાં વ્યાપેલા ગાઢ અંધકારને નાશ કરીને પદાર્થોને પ્રકાશિત કરે છે, અને ચક્ષુને તે વસ્તુનું દર્શન કરાવવામાં સહાયક બને છે, એ જ પ્રમાણે ભગવાન પણ સર્વત્ર વ્યાપેલા અજ્ઞાનરૂપી અંધકારને એકાએક દૂર કરીને લેકેને સમસ્ત પદાર્થોનું દર્શન કરાવે છે. સમસ્ત પદાર્થોના યથાર્થ સ્વરૂપનું કોને ભાન કરાવે છે. તેથી ભગવાનને અગ્નિના સમાન કહ્યા છે, એટલે કે તેઓ પ્રાણીઓના અજ્ઞાનનું નિવારણ કરીને વસ્તસ્વરૂપને પ્રકાશિત કરે છે. દા For Private And Personal Use Only Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ६ उ.१ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् ४७९ अन्वयार्थः-(आसुपन्ने) अशुपज्ञः-उत्पन्नदिव्यज्ञानः, (कासवे) काश्यपःकाश्यप गोत्रोत्पन्नः (मुणी) मुनिः (जिणाणं) जिनानाम् ऋषभादीनाम् (इणं) इमम् (अणुत्तरं) अनुत्तरं-सर्वतः श्रेष्ठम् (धम्म) धर्म-श्रुतचारित्ररूपम् (णेया) नेता तस्य प्रणेता (दिवि) दिवि-स्वर्गे (सहस्सदेवाण) सहस्र देवानाम् (इंदेव) इन्द्र इब (महाणु भावे विसि) महानु माया-महाभाववान् विशिष्टः प्रधान इति ॥७॥ 'अणुत्तरं धम्ममिण' इत्यादि। शब्दार्थ-'आसुपन्ने-आशुप्रज्ञा' शीघ्र बुद्धिशले 'कासवे-काश्यपः' काश्यपगोत्री 'मुणी-मुनिः' मुनि श्री बर्द्धमान स्वामी जिमगाणं-जिना. नाम् ऋषभ आदि जिनवरों के इणं-दम' इस 'अणुतरं-अनुत्तरम्' सबसे श्रेष्ठ 'धम्म-धर्मम्' धर्म के 'नेया-नेता' प्रणेता है जैसे 'दिदिदिवि स्वर्गलोक में 'महस्सदेवाण-र्स इस्रदेवानाम्' हजारों देवताओं का 'इंदेव-इन्द्रइय' इन्द्र नेता है एवं 'महाणु भावे विसिटे-महानुभावः विशिष्ट अधिक प्रभावशाली है इसी प्रकार भगवान् सब जगत में सर्वोत्तम है ॥७॥ ____ अन्वयार्थ-आशुप्रज्ञ अर्थात अनन्तज्ञानी, काश्यप गोत्र में उत्पन्न, मुनि वर्द्धमान स्वामी, ऋषम आदि जिनेश्वरों के इस धर्म के आद्य प्रणेता हैं । जैसे स्वर्ग में इन्द्र सभी देलताओं में महान प्रभावशाली हैं-सर्वश्रेष्ठ हैं ॥७॥ 'अणुत्तर धम्ममिण' या शा-'आसुपन्ने-आशुपक्षः' शीघ्र मुद्धिवाणा 'कासवे काश्यपः' अश्य५. मात्री 'मुणी-मुनिः' मुनि श्री १ भान स्वामी 'जिणाणं-जिनानाम्' ऋषम वगैरे निरांना 'इणं-इम' मा 'अणुत्तरं-अनुत्तरम्' माथी श्रेष्ठ 'धम्मधर्मम्' मा 'नेया-नेता' प्रणेता छ. 'दिवि-दिवि' २१ 'सहरसदेवाणं -सहस्रदेवानाम्' । वातासाना 'इंदेव-इन्द्र इव' नेता छ. मेष 'महाणुभावे विसिट्टे-महानुभावः विशिष्टः' मा प्रभावशाली छ र પ્રકારે ભગવાન બધાજ જગતમાં સર્વોત્તમ છે ૭ સૂત્રાર્થે–આશુપ્રજ્ઞ (શીધ્ર પ્રજ્ઞાવાળા) એટલે કે અનન્તજ્ઞાની, કાશ્યપ ગોત્રમાં ઉત્પન્ન થયેલા મુનિ વર્ધમાન સ્વામી, કષભ આદિ જિનેશ્વરના ધર્મના આદ્ય પ્રણેતા છે. જેમાં સ્વર્ગમાં ઈન્દ્ર બધાં દેવે કરતાં પ્રભાવશાળી હોય છે, એ જ પ્રમાણે સકળ સંસારમાં તીર્થંકર ભગવાન સૌથી વધારે प्रमाणी- सह-छ. ॥७॥ For Private And Personal Use Only Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४४० सूत्रकृताङ्गसूत्रे टीका- (आसुपन्ने) आशुप्रज्ञः-आशु-शीघ्रं प्रज्ञा यस्य स आशुप्रज्ञः (कासवे) काश्यपः-काश्यपगोत्रे समुत्पन्नः (मुणी) मुनिः, मन्यते आगमार्थहेतुद्वारा दृढीक्रियते इति मुनिः साधकार्ये मौनवान् श्री वर्द्धमानस्वामी (जिणाण) निनानाम्, जयन्ति रागादिकमिति जिनाः, आदिनाथादयस्त्रयोविंशतिः तीर्थकरास्तेषाम् । (इणं) इमम्-प्रत्यक्षपरिदृश्यम् । (अणुत) अनुत्तरम् , नास्ति उत्तरो यस्य सोऽनुत्तरः -सर्वतः प्रधानस्तम् । (धम्म) धर्मम् धर्मस्येत्यर्थः (णेयानेता प्रणेता-ऋषमाघतीतजिनानां धर्मस्य सञ्चालकः अग्रेसरो विद्यते इतिभावः, यथा-(दिवि हर्ग (सहस्सदेवाण) सहस्र देवानाम् (इंदेड) इन्द्र इव (महाणुभावे) महानुभावः, महान् अनुभावः पराक्रमो यस्य स महानुभावः । (विसिटे) विशिष्टः-सर्वातिशायी, यथा-स्वर्गे बनैश्वर्यममादिभ्यो देवानामिन्द्रो नेता महानुभावः, तथा ऋषमादि टीकार्थ-शीघ्र प्रज्ञा वाले आर्थात अनन्त ज्ञानवान् काश्यपगोत्रमें उत्पन्न, आगमार्थ को हेतु द्वारा दृढ करने वाले या सावद्य कार्य में मौन रखने वाले होने से मुनि श्री बर्द्धमानस्वामी, आदिनाथ आदि पूर्ववर्ती तेईस तीर्थंकरों के इस प्रत्यक्षगोचर सर्वोत्तम धर्म के नेता संचालक या अग्रेसर हैं। जैसे स्वर्ग में इन्द्र सहस्रों देवों का नेता और महानुभाव होता है, इसी प्रकार भगवान् सर्वातिशायी अर्थात सबसे अधिक माहात्म्य से विभूषित हैं। आशय यह है कि जैसे स्वर्ग में इन्द्र धन, ऐश्वर्य तथा प्रभा आदि में सब से उत्तम देवों का नेता महाप्रभावधान है। उसी प्रकार ऋषम आदि तीर्थंकरों द्वारा प्रवर्तिन एवं समस्त धर्मों से उत्तम धर्म के नेता ટીકાઈ–શીવ્ર પ્રજ્ઞાવાળા એટલે કે અનન્ત જ્ઞાનસંપન્ન, કાશ્યપગેત્રમાં ઉત્પન્ન થયેલા, આગમાર્થને હેતુ દ્વારા દઢ કરનારા અથવા સાવધ કાર્યોમાં મૌન રાખનારા હોવાને કારણે મુનિ વિશેષણથી યુક્ત, શ્રી વર્ધમાનસ્વ મી, આદિનાથ આદિ પૂર્વવત્તી ૨૩ તીર્થકરોના આ પ્રત્યક્ષચર સર્વોત્તમ ધર્મના નેતા-સંચાલક-અગ્રેસર છે. જેવી રીતે સ્વર્ગમાં ઈન્દ્ર સૌથી અધિક પ્રભાવશાળી હવાને કારણે દેશના નેતા રૂપે શોભે છે, એ જ પ્રમાણે આ સંસારમાં સૌથી અધિક માહાસ્યથી સંપન્ન હોવાને કારણે મહાવીર. પ્રભુને સર્વશ્રેષ્ઠ માનવામાં આવે છે. તાત્પર્ય એ છે કે જેમ સ્વર્ગમાં ઈન્દ્ર ધન, એશ્વર્ય તથા પ્રભા આદિમાં સઘળા દેવે કરતાં શ્રેષ્ઠ હોવાને કારણે સઘળા દેવેને નેતા ગણાય છે તથા સઘળા દેવ કરતાં વધારે પ્રભાવશાળી ગણાય છે, એ જ પ્રમાણે ઋષભદેવ આદિ તીર્થકરે દ્વારા પ્રવર્તિત અને સમસ્ત ધર્મો કરતાં શ્રેષ્ઠ એવાં શ્રતચારિત્ર રૂપ ધર્મના નેતા હોવાને કારણે, For Private And Personal Use Only Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ६ उ.१ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् ४८५ प्रार्तित सर्वधर्मातिशायिनो धर्मस्य काश्यपगोत्रो भगवान् महावीरस्वामी नेतेव नेता सर्वजीवानां तादृशाऽनुत्तमधर्मे प्रवर्तनाद् भवतीति भावः ॥७॥ मूलम्-से पन्नयाँ अक्खयसागरे वा महोदही वावि अणंतपारे। अणाइले वा अकसाई भिक्खू संकेव देवाहिवई जुइमं ॥८॥ छाया-स प्रज्ञयाऽक्षयसागर इव महोदधिरिवापि अनन्तपारः। ___ अनाविलो वा अपायी भिक्षुः, शक्र इव देवाधिपति र्युतिमान् ॥८॥ काश्यपगोत्रीय भगगन महावीर स्वामी हैं, क्योंकि वे समस्त जीवों, को उस अनुत्तम धर्म में प्रवृत्त करते हैं ॥७॥ 'से पन्नया' इत्यादि। शब्दार्थ-से-सः' वह भगवान महावीर स्वामी 'सागरे वा-सागर इव' समुद्र के समान 'पन्नया-प्रज्ञया' बुद्धि से 'अक्खए-अक्षयः' अक्षय है 'महोदही वावि-महोदधिरिव' स्वयंभूरमण समुद्र के समान 'अणंतपारे-अनन्तपारः' अपार प्रज्ञा वाले हैं 'अणाइले वा-अनाविलोवा' जैसे समुद्र का जल निर्मल है उसी प्रकार भगवान् निर्मल प्रज्ञावाले है 'अकसाई-अकषायी' भगवान् कषायों से रहित हैं और 'मुक्के-मुक्तः' ज्ञानावरणीय आदि आठ प्रकार के कर्मों से रहित हैं 'सक्केव-शकइव' भगवान् इन्द्र के समान' देवाहिबई-देवाधिपतिः' देवताओं के अधिपति हैं 'जुहम-शुतिमान' तथा अत्यन्त तेजवाले हैं ॥८॥ કાશ્યપ ગોત્રીય મહાવીર સ્વામીને સર્વશ્રેષ્ઠ ગણવામાં આવે છે, કારણ કે તેઓ સમસ્ત જેને તે અનુપમ ધર્મમાં પ્રવૃત્ત કરે છે. છો 'से पन्नया' त्याह शहाय-से-सः' ते पान महावीर स्वामी 'सागरे वा--सागर इव' समुद्र समान पन्नया-प्रज्ञया' मुद्धिथी 'अक्खए-अक्षय' ५क्षय 'महोदहीवावि-महोदधिरिव' स्वय भूरभार समुद्रना समान 'अणंतपारे-अनन्तपारः' अ५२ प्रज्ञा पाछे 'अणाइले वा-अनाविलो वा' रेभ समुद्रनु पनि छ त सारे 14 निभ प्रज्ञा छ 'अकसाई-अकषायी' बापान ४पाये थी २हित छे भने 'मुक्के-मुक्तः' ज्ञाना१२वीय पोरे 18 प्रारना था शहित छ सक्केव-शक इव' मावान् छन्द्रना समान 'देवाहिवई-देवाधिपतिः' पताना अधिपती छ 'जुईमं-द्युतिमान्' तथा मयत drain l स०६१ For Private And Personal Use Only Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - सूत्रकृतागसूत्रे : ‘अन्वयार्थ (से) स. वईमानस्वामी (सागरे वा) सागर इव-स्वयम्भूरमणसमुद्रवत् (पनया) प्रज्ञया-बुद्धया (अक्खया) अक्षयः-स्वयम्भूरमणवत्, अथवा (महोदही वाबि) महोदधिः-स्वयम्भूरमण समुद्र इचापि (अणंतपारे) अनन्तपार:-अ. पारप्रज्ञावानित्यर्थः (अणाइले वा) अनाविलो वा-निर्मलः, (अकसाई) अकपायी -कषायरहितः (मुक्के) मुक्तः-ज्ञानावरणीयाधष्टकर्मरहितः (सक्केव) शक्र इव-इन्द्रवत् (देवाहिवई) देवानामधिपतिः (जुम) द्युतिमान-अतितेजस्वी वर्द्धमानोऽस्तीति ॥८॥ टीका--(से) स भगवान् महावीरः (सागरेव) सागर इव-समुद्रवत् (पनया) प्रज्ञया, प्रकर्षेण ज्ञायते समस्तोऽपि पदार्थोऽनया इति प्रज्ञा तया प्रज्ञया ज्ञानेन (अक्खय) अक्षय:-क्षयरहितः, ज्ञातव्येऽर्थे जीवाजीवादिरूपे भगवतः प्रज्ञा नक्षीयते, तथा नैव प्रतिहन्यते । सा हि-तदीयबुद्धिः केवलज्ञानात्मिका, सा च कालतः साद्य__ अन्वयार्थ-भगवान् बर्द्धमानस्वामी प्रज्ञा से समुद्र के समान अक्षय हैं अर्थात् स्वयंभूरमण समुद्र के समान अप्रतिहत ज्ञान से सम्पन्न हैं अथवा महासागर के जैसे अनन्तपार-अनन्तप्रज्ञावान हैं। वह निर्मल, निष्कषाय, ज्ञानावरणीय आदि कर्मों से रहित तथा इन्द्र के समान देवों के अधिपति और अत्यन्त तेजस्वी हैं ॥८॥ टीकार्थ- 'से' इत्यादि, वह भगवान् वर्द्धमानस्वामी 'सागरेव' सागर-समुद्र के समान ‘पन्नया अक्वए' प्रज्ञासे अक्षय हैं, प्रकर्षपने से समस्त पदार्थ जिसके द्वारा जाना जाय उसे प्रज्ञा कहते हैं-उस प्रज्ञासे क्षयरहित हैं, अर्थात् ज्ञातव्य-जानने योग्य जीवाजीवादिरूप अर्थ में भगवान का ज्ञान न प्रतिहत होता है और न क्षीण होता है यथा. वस्थितस्वरूप में नित्य रहता है। वह भगवान की प्रज्ञा केवलज्ञानरूप है સૂત્રાર્થ–ભગવાન મહાવીર સ્વામી પ્રજ્ઞામાં સમુદ્રના સમાન અક્ષમ્ય હતા, એટલે કે સ્વયંભૂરમણ સમુદ્રના સમાન અપ્રતિહત જ્ઞાનથી સંપન્ન હતા. અથવા જેમ મહાસાગર અપાર જલથી યુક્ત હોય છે, એ જ પ્રમાણે તેઓ અનન્ત જ્ઞાનથી યુક્ત હતા. તેઓ નિર્મળ, નિષ્કષાય, જ્ઞાનાવરણીય આદિ કર્મોથી રહિત, તથા ઈન્દ્રની જેમ દેવેના અધિપતિ તથા અત્યન્ત તેજસ્વી હતા. એ ૮ 11-'से' त्या लसवान, भानस्वामी 'मागरेव' समुद्रनारेम 'पन्नया अक्खए' प्रज्ञाथी अक्षय छ, ५४ाथी सबा पहा ना बारा જાણી શકાય તેને પ્રજ્ઞા કહેવાય છે. તે પ્રજ્ઞાથી અક્ષય છે. અર્થાત્ જાણવા જેવા જીવાદરૂપ અર્થમાં ભગવાનનું જ્ઞાન પ્રતિહત થતું નથી તેમ ભાછું ચતું નથી. યથાવસ્થિતપણાથી નિત્ય રહે છે. ભગવાનની પ્રજ્ઞા-કેવળ For Private And Personal Use Only Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ६ उ. १ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् ४८३ पर्यवसाना द्रव्यक्षेत्रमावैरपि अनन्ता । (महोदही वा वि) महोदधिरिवापि महोदधिःस्वयम्भूरमण समुद्रस्तद्वत् (अनंतपारे) अनन्तपारः - पारान्तरहितः, यथा स्वयम्भूरमगो 'जलेनाऽनन्तपारः, तथा भगवानपि प्रज्ञयाऽनन्तपारः । ( अगाइले ) अनाविल:निर्मलः, यथा स्वयम्भूरमणस्य जलम् अनाविलं सर्वदोष विनिर्मुक्तम्, तथाभगवतो ज्ञानमपि तथाविधकर्मले यामावादकलुषं सर्वदोषरहितमतिनिर्मलं विद्यते । (कसाई) अकपायी, कपायाः क्रोधमानमायाको भलक्षणाः ते विद्यते यस्य स कषायी, अकषायी - कपायरहितः । ( भिक्खू ) भिक्षुः सत्यपि निःशेषान्तरायक्षये सर्वलोक पूज्यत्वेऽपि च निरवद्यमिक्षणशीलत्वाद् भिक्षुः, (सक्केत्र ) शक्र इव । वह काल से सादि-आदि सहित और अपर्यवसित-अन्तरहित हैं अर्थात् द्रव्यक्षेत्र काल भाव से अनन्त हैं 'महोदही वावि' स्वयंभूरमण समुद्र के समान 'अणतपारे' अनन्तपार हैं अर्थात् जिस प्रकार स्वयंभूरमण समुद्र जलसे अनन्तपार है। उसके पार का अन्त भी है किन्तु भगवान् की प्रज्ञा का अन्न ही नही है भगवान् अनन्तपार वाले हैं। तथा 'अनाविले' निर्मल है जिसप्रकार स्वयंभूरमणका जल अतिनिर्मल सर्वदोषरहित होता है उसी प्रकार भगवान् का ज्ञान भी उस प्रकारके कर्मलेशके अभाव से अकलुब - अर्थात् सर्व दोषरहित अतिनिर्मल है । तथा भगवान् 'अकसाई' क्रोधादि चारों कषायों से रहित हैं। ऐसे वे 'भगवान् 'भिक्खू' सब प्रकार के अन्तरायकर्म के क्षपहोनेपर और समस्तलोक के पूज्य होनेपर भी निरवद्यभिक्षण स्वभाववाले अर्थात् જ્ઞાનરૂપ છે, તે કાળથી સાદિ કહેતાં માયુિક્ત છે. અને અપયવસિત-અ'તरहित छे. अर्थात् द्रव्यक्षेत्र आज भने लावधी अनन्त छे. 'महोदही वा वि' स्वयंभूरभ] समुद्रनी प्रेम 'अनंतपारे' मनन्नुयार है अर्थात् प्रेम स्वयः ભ્રમણ સમુદ્ર જળથી અનન્તપાર-પાર ન પામી શકાય તેવે! હાવા છતાં તેના અંત પડ્યુ છે. પરંતુ ભગવાનની પ્રજ્ઞાના અ'ત નથી એટલે ભગવાન્ अनंतपार छे. तथा अनाविले' निर्माण छे प्रेम स्वयंभूरमाणु समुद्रनु જળ અત્યંત નિર્માંળ અને સર્વ દોષોથી રહિત હૈાય છે, એજ પ્રમાણે ભગવાનનું જ્ઞાન પણ એવા પ્રકારના કલેશના અભાવથી અક્ષુષ અર્થાત્ સદોષરહિત હાવાથી અત્યંત નિળ છે, તથા ભગવાન 'अकलाई' शेषाहि यारै प्रहारना उपायाथी रहित छे. सेवा भगवान् 'भिक्खू' આ પ્રકારના અન્તરાય ના ક્ષય થવા છતાં અને સમસ્ત લેાકમાં પૂજ્ય હોવા છતાં પણ નિરવદ્ય ભિક્ષાચરજીના સ્વભાવવાળા અર્થાત્ નિવદ્ય શિક્ષા For Private And Personal Use Only Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुत्रकृताए । (देवाहिवई) देवाधिपतिः । (जुइम) द्यतिमान् , यथा शक्रो चुतिमान्-देवानामधि. पतिः, तथा-भगवानपि द्युतिमान् देवाधिपतिरस्ति ।मु०८॥ मूलम्-'से वीरिएंणं पडिपुन्नवीरिए, सुदंसणे वा णगसब सेटे। सुरालए वासि मुदागरे से विरायए णेगगुणोववेए॥९॥ छाया-स वीर्येण प्रतिपूर्णवीर्यः सुदर्शन इव नगसर्वश्रेष्ठः। सुरालयो वासिमुदाकरः स विराजतेऽनेकगुणोपपेतः ।। अन्वयार्थ-(से) स भगवान् वर्द्धमानस्वामी (वीरिएण) वीर्यग-आत्मवलेन (पडिपुभवीरिए) प्रतिपूर्णवीयः-वीर्यान्तरायस्य क्षयात् (सुदंसणे वा) सुदर्शन इव निरवध भिक्षामात्र से जीवन निर्वाह करनेवाले होने से भिक्षु कहलाते हैं, 'सक्केव देवाहिवई जुहम' जिसप्रकार देवों का अधिपति शकेन्द्र घुतिमान है उसी प्रकार भगवान् भी द्युतिमान और देवाधिदेव हैं ॥८॥ 'से वीरिएण' इत्यादि। शब्दार्थ-से-सः' वह भगवान महावीर स्वामी 'वीरिएण-वीर्यण' आत्मबल से 'पडिपुण्णवीरिए-प्रतिपूर्णवीर्यः, पूर्ण वीर्यवाले हैं 'सुदंसणेघा-सुदर्शन इव' जिस प्रकार पर्वतों में सुमेरु 'णगसव्वसेढे-नगसर्वश्रेष्ठ' सब पर्वतों में श्रेष्ठ है 'सुरालए-सुरालये' देवलोक में 'वासिमुदागरेधासिमुदाकरः' निवास करनेवालों को हर्ष उत्पन्न करनेवाले णेगगुणो. धवेए-अनेकगुणोपपेतः' अनेक गुणों से युक्त होकर 'विरायए-विरा. जते' विराजमान होते हैं अर्थात् प्रकाशित होते हैं ॥९॥ भात्रयी - निls ४२वावा पाथी मि उपाय छे. 'सककेव देवाहिपई जुइम' रेभ देवाने। अधिपति शन्द्र तिमान् छ. प्रमाणे मा. વાનું પણ ઘુતિમાનું અને દેવાધિદેવ છે. . ૮ ___से वीरिएण' त्या Avथ-से-सः' ते मावान् महापा२३भी 'वीरिएणं-वीर्येण' भाममा 'पडिपुण्णवीरिए-प्रतिपूर्णवीर्यः' पूर्ण वीया छे. 'सुदसणे वासदर्शन इव' ते ५'तम सुभे३ ‘णगसबसेट्टे-नासर्वश्रेष्ठः' मा ५ i श्रेष्ठ 'सुरालए-सुरालये' मा 'वासिमुदागरे-वासिमुदाकर:' निवास ४२१ा. . 64४२वापणा णेगगुणोववेए-अनेकगगोपपेतः' भने थी युत ४२ 'विरायए-विराजते' विमान थाय छे. अर्थात शित थाय छे. ॥६॥ For Private And Personal Use Only Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ६ उ.१ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् ४८५ (णगसबसेटे) नगसर्वश्रेष्ठः-सर्वपर्वतेषु प्रधानः (सुरालए) सुरालयो देवलोका (वासिमुदागरे) वासिमुदाकरः-देवलोकवासिनां हर्षजनकः (णेगगुणोववेए) अनेकगुणोपपेतः-प्रशस्तव दिगुणैर्युतः (विरायए) विराजते-शोमते इति ॥९॥ ___टीका-(से) सा (वीरिएणं) वीर्येण-वीर्यान्तरायकर्मणोऽशेषतः क्षयाद आत्मवलेन (पडिपुत्र सीरिए) प्रतिपूर्णवीर्यः (गगसव्वसेट्टे) नगसर्वश्रेष्ठः (सुदंसणेवा) सुदर्शन इव-यथा-सुदर्शनो मेरुः जम्बूद्वीपस्य नाभिभूतः सर्वेषां पर्वतानां मध्ये श्रेष्ठः प्रधाना, तथा-भगवानपि सर्वेभ्योऽपि श्रेष्ठः । यथा-सुरालए) सुरालय:देवलोकः (वासिमुदागरे) वासिमुदाकरः-वासिनां स्वस्मिन्निवसतां देवदेवीना मुदाकरः-हर्षजनकः तथा-(णेगगुणोववेए) अनेकगुणोपपेता-प्रशस्तवर्णरसगन्ध ____ अन्वयार्थ- भगवान् बर्द्धमानस्वामी वीर्य अर्थात् आत्मपल से प्रतिपूर्ण वीर्य वाले हैं, क्योंकि उनका वीर्यान्तराय कर्म समूल क्षीण हो चुका है । वे समस्त पर्वतों में सुदर्शन पर्वत के समान प्रधान हैं। वे देलगगों को प्रमोद देने वाले और प्रशस्त वर्ण आदि गुणों से युक्त होकर विराजमान हैं ॥१॥ टीकार्थ-वीर्यान्तराय कर्म का क्षय हो जाने से भगवान् सम्पूर्ण वीर्यवान् अर्थात् आत्मबल से सम्पन्न हैं। जैसे जम्बूद्वीप की नाभि के समान सुदर्शन मेरु, समस्त पर्वतों में प्रधान है, उसी प्रकार भगवान् भी बल वीर्य आदि गुणों से सब में श्रेष्ठ हैं । जैसे देवलोक अपने में निवास करने वाले देवों और देवियों के लिए मुदाकर-हर्षजनक है, क्योंकि प्रशस्त वर्ण, रस गंध,स्पर्श और प्रभाव आदि गुणों से युक्त સ્વાર્થ–ભગવાન વર્ધમાન સ્વામી અનન્ત વીર્યથી સંપન્ન હતા, એટલે કે આત્મબળથી પ્રતિપૂર્ણ વીર્યવાળા હતા, કારણ કે તેમણે વર્યાન્તરાય કર્મને સદતર વિનાશ કરી નાખ્યું હતું. જેમ સથળ પર્વતેમાં સુદર્શન (સુમેરુ) શ્રેષ્ઠ છે, એ જ પ્રમાણે તેઓ સઘળા લેકેમાં સર્વોત્તમ હતા. તેઓ દેવગણને પ્રમોદ (આનંદ) દેનારા અને પ્રતિ વર્ણ આદિ गुथी विभूषित ता. ॥६॥ ટીકાર્થ–મહાવીર પ્રભુના વીતરાય કર્મને ક્ષય થઈ ગયો હતે, તેથી તેઓ સંપૂર્ણ વીર્યવાન એટલે કે આત્મબળથી સંપન્ન હતા. જેવી રીતે જંબદ્વીપની નાભિના જે સુદર્શન (મેપર્વત સઘળા પર્વમાં શ્રેષ્ઠ છે, એજ પ્રમાણે મહાવીર પ્રભુ પણ બળ, વીર્ય આદિ ગુણેમાં સૌથી શ્રેષ્ઠ છે, જેમ દેવલોકમાં નિવાસ કરનારા દેવતાઓને માટે દેવક આનંદજનક છે, કારણ કે તે દેવક) પ્રશસ્ત વર્ણ, રસ, ગંધ, સ્પર્શ અને પ્રભાવ આદિ For Private And Personal Use Only Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४८६ सूत्रकतासूत्र स्पर्शपभादिगुणैरुपेतः, (विरायए) विराजते, यथा सुरालयोऽनेकगुणैरुपेतो विराजते, स च स्वासिनां सर्वदेव आनन्दकरः तथा-भगवानपि सर्वगुणसम्पन्नः सर्वजीवानामानन्दकरः ॥९॥ ___ष्टान्तभूतमेरुवर्णनाय पाह-(सयं) इत्यादि मूळम्-'सयं सहस्साण उ जोयेणाणं, तिकंडेंगे पंडगेवेजयंते। से जोयणे णवणवइसहस्से, उद्धस्सिओ हेतु सहस्समेग।१०। छाया-शतं सहस्राणां तु योजनानां त्रिकण्डकः पण्डकवैजयन्तः। ___स योजनानि नवनवतिसहस्राणि ऊर्ध्वमुच्छ्रितोऽधः सहस्रमेकम्॥१०॥ होता है उसी प्रकार भगवान् सघ को प्रमोद देनेवाले तथा अनेक गुणों से विभूषित होकर विराजमान हैं। तात्पर्य यह है कि जैसे सुरालय अनेक गुणों से युक्त होकर विराजमान होता है और देवलोकवासियों को सदैव आनन्द देता है, उसी प्रकार भगवान् भी समस्त गुगों से सम्पन्न तथा सर्व जीवों को प्रमोद प्रदान करने वाले हैं ।।९।। दृष्टान्तभूत मेंरु का वर्णन करने के लिए सूत्रकार कहते हैं 'सयं'इत्यादि । शब्दार्थ-'सहस्साण उ जोयणाणं सयं-सहस्राणां योजनानां तु शतम्' वह सुमेरु पर्वत सौहजार योजनकी ऊंचाईवाला है 'तिकंडगे-त्रिकंडका' उसके तीन विभाग हैं 'पडंगवेजयंते-पण्डकवैजयन्तः' उस सुमेरु पर्वत के सबसे ऊपर रहा हुआ पण्डक वन पताका के जैसा शोभायमान हो ગુણેથી યુક્ત હે.ય છે, એજ પ્રમાણે મહાવીર પ્રભુ પણ સૌને પ્રભેદ દેનારા પ્રશસ્ત વર્ણાદિ ગુણેથી સંપન્ન હતા. તાત્પર્ય એ છે કે સુરાલય (દેવલેક રૂપ દેવતાઓનું નિવાસસ્થાન) અનેક ગુણેથી વિભૂષિત હવાને કારણે તેમાં નિવાસ કરનારા દેવ દેવીઓને આનંદ પ્રદાન કરે છે, એ જ પ્રમાણે મહાવીર પ્રભુ પણ સમસ્ત ગુથી સંપન્ન હોવાને કારણે સમસ્ત અને પ્રમાદ પ્રદાન કરનારા હતા. એ છે આગલા સૂત્રમાં મેરુ પર્વતનું દૃષ્ટાન્ત આપવામાં આવ્યું છે, તેથી હવે सूत्र.२ मे२ ५'तनु वन ४२ छ–'सयं' त्या शपथ-'महस्साण उ जोयणाणं सयं-सहस्राणां योजनानां तु शतम्' ते सुभे३ पति र योनी या पानी छ. 'तिकंडगे-त्रिकंडकः' तात्रय . विभाग छ. 'पडंगवेजयंते-पडवैजयन्तः' ते सुभे३ ५'तना भया बाया For Private And Personal Use Only Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ६ उ. १ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् ४८७ अन्वयार्थ:- (सहरसाण उ जोयणाणं सयं) सहस्राणां योजनानां तु शतम्-लक्षयोजनशतमुचै: (विकंडगे) त्रिकण्डः मौमजाम्बूनदबैडूर्येति विभागत्रयवान (पंडगवेजयते) पताकारूपेण पण्डकरनं तत्र व्यवस्थितम् (से) सः - मेरुः (जोयणे णवणवइ सहस्से) योजनानि नवनवतिसहस्राणि (ऊद्धस्सिओ) ऊर्ध्वमुच्छ्रितः (सहस्स मेगं es) erasaat sवस्थित इति ॥१०॥ www Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टीका - ( सहस्सा उ) सहस्राणां तु (जोयणाणं) योजनानाम् (सयं) शतम्, पर्वत मेरुः सहस्रपोजनानां शतम् योजनानामेकं लक्षमित्यर्थः उन्नतः तथा(तिकंडगे) त्रिकण्डकः, तत्र त्रीणि काण्डानि भौमजाम्बूनद वैहर्यमयानि सन्ति (पंडगवैजयंते) पण्डक वैजयन्तः -- पण्डकवनं शिरसि व्यवस्थितं वैजयन्तीरूपं पताकोपमं रहा है 'से- सः' यह मेरु पर्वत 'जोयणे णवणवतिसहस्से - योजनानि नवनवतिसहस्राणि' निन्नानेवे हजार योजन 'उद्धुस्सिओ - ऊर्ध्व मुच्छ्रितः ' ऊपर की ओर ऊँचा है 'सहरसमेगं हेड - सहस्रमेकं अघः' तथा एक हजार योजन भूमि के अंदर के भाग में गढ़ा है ॥१०॥ अन्वयार्थ - मेरु पर्वत एक लाख योजन ऊँचा तथा भौम, जम्बूनद और वैडूर्य इन तीन विभागों वाला है। वहाँ पताका रूप से पण्डक वन रहा हुआ है। वह सुमेरु निन्यानवे (९९) निन्यानवे हजार योजन ऊपर है और एक हजार योजन पृथ्वी के नीचे है ॥ १० ॥ टीकार्थ- सुमेरु पर्वत सौ हजार अर्थात् एक लाख योजन ऊंचा है । उसमें तीन काण्ड हैं- भौमकाण्ड, जाम्बूनदकाण्ड और वैडूर्यकाण्ड, पण्डकवन उसकी पताका के समान स्थित है । वह सुमेरु ७५२ रडेल पांडवन धन्ननी नेम शोलायमान यह रहे छे, 'से- सः ' ते भे३पर्यंत 'जोयणे णवणवतिसहस्से - योजनानि नवनवतिसहस्राणि ' नव्वाशु तर यो 'उद्धुषिओ - ऊर्ध्वमुचितः ७५२नी मालु थे! छे 'महरम मेगं हे - सहस्रमेकं अधः' तथा मे हर योजन लूमिनी अंडरना लागभां हटायेसो हे ॥ १० ॥ સૂત્રા—મેરુ પર્યંત એક લાખ યાજન ઊંચા છે. તેના નીચે પ્રમાણે ત્રણ વિભાગા છે—ભૌમ, જામ્બૂના અને વૈડૂ ત્યાં પડકવન તેની પતાકાના જેવુ' શેલે છે. તે મેરુ પર્યંત જમીનની ઉપર ૯૦૦૦ નવાણુ હજાર ચાજનની ઊંચાઈ સુધી અને પૃથ્વીની નીચે ૧૦૦૦ એક હજાર ચાજન સુધી વ્યાપ્ત છે. ૧૦ન ટીકા સુમેરુ પર્યંત એક લાખ ચૈાજન ઊંચા છે, તેના ત્રણ કાંડ (विभाग) छे. (१) श्रीमगंड, (२) लभ्यूनगंड, भने (3) वैडूर्यकांड पंडवन For Private And Personal Use Only Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ve सूत्रकृताङ्गसूत्रे यस्य स पण्डक वैजयन्तः । (से) स मेरुः लक्षयोजनमध्यात् (जोयणे ) योजनानि ( णवणवई सहस्से) नवनवतिसहस्राणि ( उधुस्सिओ) ऊर्ध्वमुच्छ्रितः उन्नतः, तथा - ( सहरसमेगं सहस्रयोजनमेकम् (हेड) अधो व्यवस्थितः, नवनवतिसहस्रयोजनमृदुर्ध्वमुन्नतः, एकं सहस्रयोजनमधो भूमौ निविष्टः, भौमजाम्बूनद डूये विभागत्रयवान्, यस्य पण्डकवनमेव पताकारूपम्, एतादृशो मेरू पर्वतः सर्वतः श्रेष्ठ इति ॥ १० ॥ मूलम् - 'पुट्ठे णभे चिंटू भूमिबट्टिए, जं सूरिया अणुपरिवध्यंति । - से' वन्ने हुनंदणेय, 'जेंसी रेई वेदयति महिंदी ॥ ११ ॥ छाया - स्पृष्टो नभसि तिष्ठति भूम्यवस्थितो यं सूर्या अनुपरिवर्तयन्ति । स हेमवर्णों बहुनन्दन यस्मिन् रतिं वेदयन्ति महेन्द्राः ॥ ११ ॥ निन्यानवे सहस्र योजन ऊपर अर्थात् पृथ्वी के ऊपर है और एक हजार योजन पृथ्वी के अधोभाग में है । तात्पर्य यह है - सुमेरु पर्वत की कुल ऊंचाई एकलाख योजन की है। उसमें से निन्यानवे हजार योजन पृथ्वी के ऊपर और एक हजार योजन पृथ्वी के नीचे है। उसमें तीन काण्ड हैं-भौम, जाम्बूनद और बैडूर्य । पण्डक वन उसकी पताका के समान है। ऐसा मेरु पर्वत सभी पर्वतों में प्रधान है ॥ १० ॥ 'पुढे भे' इत्यादि । - शब्दार्थ से - सः' वह मेरु पर्वत 'णभे पुढे नभः स्पृष्टः' आकाशको स्पर्श किया हुआ 'भूमिवडिए - भूम्यवस्थितः' पृथ्वी पर 'चिट्ठ तिष्ठति' તેની પતાકાના જેવુ છે. સુમેરુ પર્યંત પૃથ્વીની સપાટી પર ૯૦૦૦ નવાણું હજાર ચાજન ઊંચાઇ સુધી વ્યાપેલ છે. અને એક હજાર ચાજન સુધી તે પૃથ્વીની નીચે વ્યાપેલા છે. 1 તાત્પર્ય એ છે કે સુમેરુ પર્વતની કુલ ઊંચાઈ એક લાખ ચેાજન પ્રમાણ છે. તેમાંથી ૯ નવાણુ હજાર વૈજન પૃથ્વીની ઉપર અને એક હજાર ચૈાજન પૃથ્વીની નીચે છે, તેમાં ભૌમકાંડ, જામ્બૂનઃકાંડ અને વૈસૂર્યકાંડ નામના ત્રણ માંડ છે, પડકવન તેની પતાકાના જેવું શેલે છે એવે! સુમેરુ પર્યંત સઘળા પવ તામાં શ્રેષ્ઠ છે. ! ૧૦૫ 'पुढे णभे' इत्याहि शब्दार्थ- 'से-सः' ते भेइपर्यंत 'णभे पुट्ठे नमः स्पृष्टः' मा अशने स्पर्श. दीने 'भूमिवट्ठिए-भूम्यवस्थितः पृथ्वी ५२ 'चिट्ठइतिष्ठति' स्थिर रहे छे. 'ज यत्' के For Private And Personal Use Only Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र.श्रु. अ. ६ उ.१ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् ४८९ अन्वयार्थ :-(से) स मेरुः (गभे पुष्टे) नमसि स्पृष्टः-नभसि-आकाशे लग्नो व्याप्तः (भूमिवहिए) भूम्यवस्थितः-भूमिमध्ये स्थितः (चिट्टइ) तिष्ठति-स्थितो विद्यते, (ज) यं-मेरुम् (मूरिया) सूर्या:-आदित्या ज्योतिष्काः (अणुपरिवयंति) अनुपरिवर्तयन्ति-परिभ्रमन्ति, स मेरुः (हेमचन्ने) हेमवर्णः-वर्णेन सुवर्णसदृशः, (बहुनंदणे य) बहुनन्दनश्च-अनेकानन्दवनयुक्तः (जंसि) यस्मिन् मेरौ (महिंदा) महेन्द्रा देवाः (रई वेदयंति) रतिमानन्दं वेदयन्ति-अनुभवन्तीति ॥११॥ __टीका-(से) स मेरुपर्वः (णभे) ममसि-आकाशे (पुढे) स्पृष्टः-नभास्पर्शी औन्नत्यात् नमो गछतीतिवत् नभो व्याप्य तिष्ठति । तथा-(यूमिहिप) भूम्यवस्थितः-भूमि चाऽवगाह्य स्थितः, ऊर्धाऽस्तिर्यलोकसंस्पर्शी सुमेरुः । (ज) स्थित रहता है जं-यं' जो मेरु को प्रिया-स्तूः ' आदित्य 'अणु: परिवयंति-अनुपरिवर्तयन्ति' परिक्रमा करते रहते हैं 'हेमबन्ने-हेम वर्णः' यह सुवर्ण के समान वर्णशाला 'बहुनंदने य-बहुलन्दनश्च' अनेक नन्दन वनों से युक्त है 'जसि-यस्मिन् जिप्त मेरु पर 'महिंदा-महेन्द्राः' महेन्द्रलोक 'रति-वेदयंति-रतिं वेदयन्ति' आनन्द का अनुभव करते हैं ॥११॥ - अन्वयार्थ-वह मेरु पर्वत आकाश को स्पर्श करता है और भूमि के भीतर रहा हुआ है । सूर्य आदि ज्योतिष्क उसकी परिक्रमा करते रहते हैं। वह स्वर्णवर्णवाला है, अनेक उद्यानों से युक्त है और महेन्द्र देव वहाँ रतिका अनुभव करते हैं ॥११॥ टीकार्थ-सुमेरु पर्वत आकाशस्पर्शी है-ऊंचाई होने के करण आकाश को व्याप्त करके स्थित है और पृथ्वी की अवगाहना करके भी भे३२ 'सूरिया-सूर्याः' सूर्या 'अणुपरिवयंति-अनुपरिवर्तयन्ति' प्रहसिया रता २७ छ. 'हेमवण्णे-हेमवर्णः' ते सोना सरीमाप पाये'बहुन दने य-बहुनन्दनश्च' भने ननमायायुत छ. 'जति-यस्मिन्' २ ३ ५२' 'महिंदा-महेन्द्राः' भडेन्द्र । रतिवेदयंति'-रतिवेदयन्ति' मानानुभव ४२॥ २९ छ.।११।। સૂત્રાર્થ–તે મેરુ પર્વત આકાશને સ્પશીને રહેલ છે. અને ભૂમિના અંદરના ભાગમાં પણ ફેલાયેલ છે. સૂર્ય આદિ જાતિષિક દેવે તેની પ્રદક્ષિણ કરે છે. તે સુવર્ણન જેવા વર્ણવાળે, અનેક ઉદ્યાનેથી યુક્ત અને મહેન્દ્રાદિ દેવેની રતિક્રીડાનું સ્થાન છે. તે ૧૧ છે ટીકાઈ–મેરુ પર્વત આકાશસ્પર્શ છે. ઘણે ઊંચો હેવાને કારણે તે આકાશ સુધી વ્યાપેલે છે અને તેને ૧૦૦૦ એક હજાર યોજન પ્રમાણ ભાગ स० ६२ For Private And Personal Use Only Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे यं मेरुम् (सरिया) सूर्या:-आदित्याः ज्योतिष्काः सूर्यचन्द्रग्रहनक्षत्रतारारूपाः ते सर्वे (अणुपरिवद्वयंति) अनुपरिवर्तयन्ति, यस्य मेरोः पार्श्वतः सकलज्योतिष्कगणाः परिभ्रमन्ति, (हेमवन्ने) हेमवर्णः, हेम्न:-सुवर्णस्य वर्णः-रूपं यस्य स हेमवर्णः अवतप्तसुवर्णसदृशः । (बहुगंदणे) बहुनन्दनः, बहूनि-चत्वारि नन्दनवनानि यत्र स बहुनन्दनः, यथा-भूमौ भद्रशालपनम् - ततः पश्चशतयोजनान्यारुह्य मेखलायां नन्दनवनम् । ततो द्विषष्टियोजन सहस्राणि पञ्चशताधिकानि अतिक्रम्य सौमनसम् । ततः षट्त्रिंशत् सहस्राणि आरुह्य शिखरे पण्डकवनम् । इति चत्वारि नन्दनवनानि, तैरुपेतः सुमेरुः (जंसि) यस्मिन्-यस्योपरि (महिंदा) महेन्द्राः-देवलोकादागत्य रमणीयगुणेन इन्द्रादि देवाः (रइं वेदयंति) रति वेदयन्ति-रमणक्रीडामनुभवन्ति यत्र मेरौ इन्द्रादयो विहरन्ति, स मेरुः यशसा विभातीति भावः ॥११॥ स्थित है। वस्तुतः वह ऊर्ध्वलोक मध्यलोक और अधोलोक, इस प्रकार तीनों लोकों को स्पर्श करता है। सूर्य, चन्द्र, ग्रह, और तारा ये पाँचों प्रकार के ज्योतिष्कदेव उसकी चारों ओर परिक्रमा करते रहते हैं। वह तपे स्वर्ण के समान वर्ण वाला है। उसमें बहुनन्दन वन अर्थात् अनेक वन संयुक्त हैं भूमि पर भद्रशाल नामक वन है, उससे पाँचसो योजन की ऊँचाई पर मेखला की जगह नन्दनवन है. उससे साढ़े बासठ हजार योजन की ऊंचाई पर सौमनस वन है और उससे छत्तीस हजार योजन ऊपर शिखर पर पण्डा नामक बन है। उस सुमेरु पर्वत की रमणीयता से आकृष्ट होकर उस पर इन्द्र आदि देवगण देवलोक से आकर रमण क्रीड़ा करते हैं । ऐला सुमेरु अपने यश के साथ सुशोभित है ॥११॥ પૃથ્વીની અંદર ફેલાયેલું હોવાથી તે અધલેક સુધી વ્યાપેલે છે. ખરી રીતે તે તે ઊર્ધ્વક, મધ્ય અને અધિક રૂપ ત્રણે લેકને સ્પર્શ કરે છે. સૂર્ય, ચન્દ્ર, ગ્રહ, નક્ષત્રો અને તારા, આ પાંચ પ્રકારના તિષ્ક દેવે તેની ચારે તરફ પ્રદક્ષિણા કરતા રહે છે. તેને વર્ણ તપાવેલા સુવર્ણના જે છે. તેમાં અનેક નન્દનવને આવેલાં છે. ભૂમિપર ભદ્રશાલ નામનું વન છે. ત્યાંથી પાંચસે લેજનની ઉંચાઈ પર, મેખલાની જગ્યાએ નન્દનવન છે, ત્યાંથી દરા હજાર એજનની ઉંચાઈ પર સૌમનસ વન છે. ત્યાંથી ૩૬ હજાર જનની ઊંચાઈ પર-શિખર પર પંડકવન આવેલું છે. તે સુમેરુ પર્વતની રમણીયતાથી આકર્ષાઈને ત્યાં ઈન્દ્ર આદિ દેવગણ દેવકમાંથી આવીને રમણકીડા કરે છે, એ સુમેરુ પર્વત ખૂબ જ યા સંપન્ન અને સુશોભિત છે, ૧૧ For Private And Personal Use Only Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - - समयार्थबोधिनी टीका प्र.श्रे. अ. ६ उ.१ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् १९ मूलम्-से पव्वए सदमहप्पगासे विरायती कंचणमहवन्ने। अणुत्तरे गिरिसु य पवदुग्गे गिरिवरे से जलिए व भीमे॥१२॥ छाया-स पर्वतः शब्दमहासकाशो विराजते काञ्चनमृष्टवर्णः । ___अनुत्तरो गिरिषु च पर्वदुर्गों गिरिवरः स ज्वलित इव भौमः ॥१२॥ अन्वयार्थः-- (से पन्चए) स पर्वतो मेरुः (सहभहप्यगासे) शब्दमहापकाश:शब्दै महान् प्रकाश:-प्रसिद्धि यस्य सः (कंचणमट्ठवन्ने) काञ्चनमृष्टवर्ण:-घर्षित सुवर्णवद्वर्णवान् (अणुत्तरे) अनुत्तर:-सर्व प्रधानः (विरायती) विराजते-शोमते, (गिरिसु य पन्चदुग्गे) गिरिषु च पदुर्ग:- पर्वभि मेंखलादिभिः दुरारोहा ‘से पन्धए' इत्यादि। शब्दार्थ- से पच्चए-स पर्वतः' वह पर्वत 'सहमहापगासे-शब्द महाप्रकाशः' अनेक नामों से अति प्रसिद्ध है 'कंचणमट्टवण्णे-काञ्चनमृष्टः वर्ण:' घर्षितसुवर्ण के जैसा शुद्ध वर्णवाला 'अनुत्तरे-अनुत्तरः' सबपर्वतों में श्रेष्ट 'विरायती-विराजते' और सुशोभित है 'गिरिसु य पव्वदुग्गेगिरिषु च पर्वदुर्ग.' वह सभी पर्वतों में उपपर्वतों के द्वारा दुर्गम है 'से गिरिवरे-असोगिरिवरः' वह पर्वत श्रेष्ट 'भोमेव जलिए-भौमइव ज्वलितः' मणि और औषधियों से प्रकाशित भूप्रदेश के जैसा प्रकाशित रहता है ॥१२॥ ___ अन्वयार्थ-सुमेरु पर्वत शब्दों से महान प्रकाश वाला अर्थात् प्रसिद्ध है। सुवर्ण के समान वर्णवाला है । सर्वश्रेष्ठ होकर शोभायमान 'से पव्वए' त्या शाय-से पव्वए-स पर्वतः' ते ५६ त 'सदमहापगासे-शब्दमहाप्रकाशः' मन नी मयत प्रसिद्ध छे 'कंचगमवण्णे-काञ्चनमृष्ट वर्णः' यति साना सरमा शुद्ध जो 'अणुत्तरे-अनु तरः' मा ४ ५ i Sत्तम 'विरायतीविराजते' भने सुमित छ. 'गिरिसु य पव्वदुग्गे-गिरिषु च पर्वदुर्ग' ते मार पवतामा ५५ तो २ म छ. 'से गिरिवरे-असौ गिरिवरः' ते ५'त श्रेष्ठ 'भोमे जलिर-भौंम इव ज्वलितः' माण भने भोपाधियोथी शित ભૂપ્રદેશ સર પ્રકાશિત રહે છે. ૧૨ સૂવા–તે સુમેરુ પર્વત અનેક શબ્દ (નામ) વડે સુપ્રકાશિત (પ્રખ્યાત) છે. સુવર્ણના જેવાં વર્ણવાળે છે અને સર્વશ્રેષ્ઠ પર્વત રૂપે સુવિ For Private And Personal Use Only Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतासूत्रे (से गिरवरे) स गिरिवरः-पर्वतमधानः (भोमेव जलिए) भौम इव ज्वलित:मण्योषधिमिभूमदेश इव प्रकाशित इति ॥१२॥ टीका-(से) स पर्व तो मेरुः (सहमहपगासे) शब्दमहामकाशः, शब्दैः 'पर्वतराजो मन्दरो मेरुः सुदर्शनः सुरगिरिः सुरपर्वतः' इत्यादि नामधेयः महन् प्रकाशः-प्रसिद्धि यस्य स शब्दमहाप्रकाशः, 'विरायती' विराजते-शोमते, अस्य षोडश नामानि-मेरु:-मेरुदेवयोगात् १, मन्दर:-मन्दरदेवयोगात् २, नन्वेवं मेरोः स्वामिद्वयमापयेत इति चेत् उच्यते-एकस्यापि देवस्य नामद्वय सम्भवान्न दोषः, मनोरमः-रमयतीति रमः, मनसा देवमनसां रम इति मनोरमः, है। मेखला आदि के कारण दुर्गम है । यह पर्वतराज अनेक प्रकार की मणियों और औषधियों से प्रकाशित है ॥१२॥ टीकार्थ--वह सुमेरु पर्वत शब्दों से महान् प्रकाशवाला है अर्थात् अनेक नामों से प्रख्यात है। पर्वतराज, मन्दर, मेरु सुदर्शन, सुरगिरि, सुरपर्वत आदि अनेक नामों से प्रसिद्ध है। उसके सोलह नाम इस प्रकार हैं (१) मेरु-मेरु नामक देव के सम्बन्ध से। (२) मन्दर-मन्दर नामक देव के सम्बन्ध से। प्रश्न-इस प्रकार से तो मेरु के दो स्वामी हो जाएंगे ? उत्तर-एकही देष के दो नाम संभव हैं, अतएव यह कोई दोष नहीं है। (३) मनोरम-अपने अतिशय सौन्दर्य से देवों के मनको रमण कराने बाला होने से। ખ્યાત છે. મેખલા આદિને કારણે તે ઘણે દુમ છે. તે ગિરિરાજ વિવિધ પ્રકારની વનસ્પતિ અને મણિઓથી વિભૂષિત છે. જે ૧ર છે ટીકાર્ય–તે સુમેરુ પર્વત શબ્દોથી મહાન પ્રકાશવાળે છે, એટલે કે અનેક नामाथी अभ्यात छ भ3-पत।, भन्२, भेरु, सुशन, सुगर, સુરપર્વત, આદિ અનેક નામથી પ્રખ્યાત છે. તેનાં નીચે પ્રમાણે ૧૬ નામ છે(3) મે તેને અધિપતિ મેરુ નામને દેવ હોવાથી તેનું નામ મેરુ છે. (૨) મન્દર-મન્દર નામનો દેવ તેને અધિપતિ હોવાથી તેનું નામ મદર છે. પ્રશ્ન-આ પ્રકારે તે મેરુના બે સ્વામી હેવાને પ્રસંગે ઉપસ્થિત થશે. ઉત્તર-મેરુ અને મન્દર એક જ દેવના બે નામ સંભવી શકે છે, તેથી બે સ્વામી હોવાની શંકા અસ્થાને છે. (3) મનોરમ–પિતાના અનુપમ સૌંદર્યને કારણે દેવનાં ચિત્તનું આકર્ષણ કરનારા હેવાને કારણે તેનું નામ મને રમ છે. For Private And Personal Use Only Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ६ उ.१ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् ४९३ स्वस्याऽतिशय स्वरूपत्वात् ३, सुदर्श ना-मुष्ठु शोभनं जम्बूनदमयतया रत्नबहुल. तया च मनोनिवृत्तिकरं दर्शन यस्य स सुदर्शनः४, स्वयंप्रभा रत्नबहुलतया स्वयम् आदित्यादेवि प्रभा-प्राशो यस्य स स्वयंप्रमः५, गिरिराजः-सर्वेषु गिरिषु उच्चत्वेन तीर्थकरजन्माभिषेकाश्रयतया च राजा-गिरिराजः६, रत्नो, वयः-रत्नानां पुत्वाव७, शिलोच्चयः८, मध्यः-लोकस्य मध्यवर्तित्वात् ९, नामिः-लोकस्य नाभिभूतत्वात् १०, आकस्मिका अकस्माद् दृष्टौ पतितायां सत्त्यां हर्षातिशयजनकत्वात् ११, सूर्याऽऽवरी:-मूर्यावर्तनकत्वात् १२, सूर्यावरणः(४) सुदर्शन जाम्बूनदमय होने से तथा रत्नबहुल होने से उसका दर्शन मन को आनन्दप्रद होता है। (५) स्वयं प्रम-रत्नों की बहुलता होने के कारण वह स्वयं सूर्य आदि की भाँति प्रकाशयुक्त है। (६) गिरिराज- समस्त पर्वतों में सर्वाधिक ऊंचा होने से और तीर्थकरों के जम्माभिषेक का स्थल होने से पर्वतों में राजा के समान है। (७) रत्नोच्चय-रत्नों का पुंज है। (८) शिलोच्चय-शिलाओं का समूह होने से । (९) लोक का मध्य होनेसे मध्य है (१०) नाभि-लोककी नाभि के समान । (११) आकस्मिक-अकस्मात् दृष्टि पड़ते ही अतिशय हर्षजनक । (१२) सूर्यावर्त्त-सूर्य उसकी प्रदक्षिणा करने से (૪) સુદર્શન–જબૂનદમય લેવાથી તથા અનેક રત્નથી સંપન્ન હોવાથી તેનાં દર્શન મનને આનંદદાયક થઈ પડે છે, તેથી સુદર્શન નામ પડયું છે. (૫) સ્વયંપ્રભ-તેમાં રત્નની વિપુલતા હેવાને કારણે, તે સૂર્ય આદિની જેમ પ્રકાશયુક્ત હોવાથી તેનું નામ સ્વયંપ્રભ છે. ગિરિરાજ-બધા પર્વ તેમાં વધારેમાં વધારે ઊંચે લેવાથી તથા તીર્થ કોના જન્માભિષેકનું સ્થાન હોવાથી પર્વતના રાજા જેવો છે. (७) रत्ना-यय-रत्नान। ४ छे. (८) शिव्यय-शिवापानी समूह छे. (૯) લોકને મધ્ય હેવાથી તે મધ્ય એ પ્રમાણે કહેવાય છે. (१०) नामि-aisal नाम समान छ, (૧૧) આકસ્મિક-અકસ્માત દૃષ્ટિ પડતાં જ અતિશય હર્ષજનક છે. (૧૨) સૂર્યાવર્ત-સૂર્ય તેની પ્રદક્ષિણ કરે છે તેથી આ નામ પડ્યું છે. For Private And Personal Use Only Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - सूत्रकृतास्त्र सूर्याच्छादकत्वात् १३, उत्तमः सर्वपर्वतेषु श्रेष्ठत्वात् १४, दिगादिः-सकलदिशां विदिशां च मर्यादाकारित्वात् १५, अवतंसका सकलपर्वतशोभाजनक त्वादिति १६, (कंचणमट्टबन्ने) काञ्चनमृष्टवर्णः काञ्चनं-सुवर्णस्तस्येव मृष्टः श्लक्ष्णः शुद्धो वा वर्गों-रूपं यस्य स काञ्चनमृष्टवर्ण:-शुद्धसुवर्णः । एवम् (अणुत्तरे) अनुत्तरः-न विद्यते उत्तरः-प्रधानो यस्य सोऽनुतरः, यदपेक्षया नास्ति कश्चिदन्यः प्रधानः प्रवृद्धः, सर्वेभ्योऽपि श्रेष्ठ इति यावत् । (गिरिमु य पन्यदुग्गे) गिरिषु च पर्व दुर्ग:-गिरिषु मध्ये पर्वभिः-मेखलाभिर्वा दुर्गः साधारणजीरानां दुरवगाहः-सामान्यजीवैरारोदुमशक्यः। तथा-(गिरिवरे) गिरिवर:पर्वतप्रधाना, तथाऽसौ गिरिवरो मणिभिरोषधिभिश्च देदीप्यमानतया (भोमे) (१३) सूर्यावरण-सूर्य को छिपा देने वाला। (१४) उत्तम-सप पर्वतों में श्रेष्ठ। (१५) दिगादि-समस्तदिशाओं और विदिशाओं का उद्भवस्थान होने से उनकी मर्यादा करता है। (१६) अवतंसक- सकल पर्वतों की शोभा का जनक । उस पर्वत का वर्ण शुद्ध स्वर्ण के समान है। वह सभी पर्वतों में श्रेष्ठ है। न उससे अधिक श्रेष्ठ कोई पर्वत है और न उसके समान ही है। वह पर्वतों के मध्य में मेखला आदि के कारण दुर्गम हैं। साधारण जीवों के लिए दुःखावगाह है। वे उस पर चढ़ नहीं सकते। वह पर्वतों में प्रधान है तथा मणियों और औषधियों से देदीप्यमान - (13) सूर्यावरण-सूनदी छे. तेथी भा नाम ५यु . (१४) इत्तम-सभर ५'तामा श्रेष्ठ पाथी मा नाम ५३यु छे. (૧૫) સમસ્ત દિશાએ અને વિદિશાઓનું ઉદ્ભવસ્થાન હોવાથી તેમની મર્યાદા બંધે છે. (૧૬) અવતંસક-સઘળા પર્વતે કરતાં વધારે સુંદર હોવાને કારણે તેનું આ નામ પડયું છે. તે પર્વતને વર્ણ શુદ્ધ સુપર્ણના જેવું છે. તે સાળા પર્વતેમાં શ્રેષ્ઠ છે. કઈ પણ પર્વત સુમેરુ કરતાં શ્રેષ્ઠ નથી એટલું જ નહી પણ કોઈ પણ પર્વત તેના જેવું નથી. સઘળા પર્વતે કરતાં તે વધારે દુર્ગમ છે. મેખલા આદિ કારણે તે દુર્ગમ છે, સાધારણ જીવોને માટે તે તેના ઉપર આરોહણ કરવાનું કાર્ય ઘણું જ દુઃખદ છે તે સઘળા પર્વ તેમાં સર્વોત્તમ છે. મણિઓ તથા ઔષધિઓથી દેદીપ્યમાન હોવાને કારણે તે ભમ (ભૂભાગ)ની જેમ જાવ For Private And Personal Use Only Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र.श्रु. अ. ६ उ.१ भगवतो महाधीरस्य गुणवर्णनम् ४९५ भौम इव ज्वलितो विराजते, मणिभिरोषध्यादिमि यथा भूभागो विराजते तथारत्नादीनां प्रभया अतिशयेन प्रदीप्तो मातीति ॥१२॥ मूलम्-महीइ मम्झंमि ठिए णगिंदे, पन्नायते सूरिये सुद्धलेसे। एवं सिरीए उस भूरिवन्ने, मणोरमे जोएँइ अच्चिमाली॥१३॥ छाया--मह्यां मध्ये स्थितो नगेन्द्रः, प्रज्ञायते सूर्यशुद्रलेश्यः। एवं श्रिया तु स भूरिवों मनोरमो द्योतयत्यचिमालिः ॥१३॥ अन्वयार्थः- (गगिंदे) नगेन्द्रः-नगाना-पर्वतानामिन्द्रः (महीइमझ मि) मह्या पृथिव्यां मध्ये (ठिए) स्थितः (प्रियसुद्धलेसे) मूर्यशुद्धलेश्य:-आदित्य होने से भौम की भांति जाज्वल्यमान है। अर्थात् जैसे कोई भूभाग मणियों एवं औषधियां से विराजमान होता है उसी प्रकार रत्नों आदि की प्रभा से वह अत्यन्त प्रदीप्त रहता है ॥१२॥ 'महीइ मज्झनि' इत्यादि। शब्दार्थ-'नगिंदे-नगेन्द्रः' वह नगेन्द्र पर्वतराज महिह मज्झमिमह्यां मध्ये' पृथ्वी के मध्य में 'ठिए-स्थितः' स्थित है 'सुरियसुद्धलेसेसूर्यशुद्धलेश्यः' वह सूर्य के समान शुद्र कान्तिवाला पन्नाचते-प्रज्ञायते' प्रतीत होता है एवं-एवम्' इसी प्रकार 'सिरिए उ-श्रिया तु' वह अपनी शोभासे 'भूरिवन्ने-भूरिवर्णः' अनेक वर्णवाला और 'मणोरमे-मनोरममनोहर है 'अच्चिमाली-अर्चिमालिः' वह मूर्य के जैसा 'जोयइद्योतयति' सब दिशाओं को प्रकाशित करता है ॥१३॥ __ अन्वयार्थ-वह पर्वतराज पृथ्वी के मध्य में स्थित है, सूर्य के લ્યમાન છે. એટલે કે જેવી રીતે કઈ ભૂભાગ મણિએ અને ઔષધિઓથી યુક્ત હેવાને કારણે ખૂબ જ દેદીપ્યમાન લાગે છે, એ જ પ્રમાણે રત્ન આદિની પ્રભાથી યુક્ત હવાને કારણે સુમેરુ પણ અત્યન્ત દેદીપ્યમાન રહે છે. ૧૨ 'महीइ मज्झमि' त्यादि शहाथ-'नगिंदे-नगेन्द्रः' ते ५ त। 'महिइमझमि-मह्या मध्ये पृथ्वीना भाममा 'ठिए-स्थितः' २३a छे. 'सुरियसुद्धलेसे-सूर्यशुद्धलेश्यः' ते सूर्य सहीपी शुद्ध तिवाणो 'पनायते-प्रज्ञायते' प्रतीत थाय छ. 'एवं-एवम्' मे रीते 'सिरिए उ-श्रिया तु' ते पातानी थी 'भूरिवन्ने-भूरिवर्णः' मने पाये। भने 'मणोरमे-मनोरमः' मना २ छे. 'अच्चिमाली-अर्विमालिः' तस्य नाम 'जोया-द्योतयति' मधील हिशाम्मान प्रशित ४२ छे. ॥१३॥ સૂવા–તે ગિરિરાજ પૃથ્વીની મધ્યમાં આવેલ છે, તે સૂર્યના સમાન For Private And Personal Use Only Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ४९६ सूत्रकृताङ्ग सूत्रे समानतेजाः (पन्नायते) प्रज्ञायते प्रतीतो भवति - ज्ञायते ( एवं ) एवम् ( सिरीए उ श्रिया तु स्वकीयशोभा (भूविन्ने) भूरिवर्ग :- अनेकवर्णवान् (मणोरमे) मनोरम: ( मनोहर : (अचिपाळी) अर्चिमालि:- सूर्य इव (जोएइ) द्योतयति - दशापि दिश प्रकाशयतीति ॥१३॥ टीका - (गगिदे) नगेन्द्र:- पर्वतप्रधानो मेरुनामो नगेन्द्रः (महीमज्झमि ) मां पृथिव्यां मध्यदेशे - रत्नपमापृथिव्यां मध्यदेशे जम्बूद्वीपः । जम्बूद्वीपस्यापि बहुमध्यदेशे सौमनस - विद्युत्प्रभगन्धमादन- नात्यन्त दंष्ट्रा पर्वतचतुष्टयोपेतः पृथ्वीमध्यात आरभ्य उपरिभागपर्यन्तं लक्षयोजनोन्द्रायवान् (१०००००) वर्त्तते तत्र योजनसहस्रं (१०००) पृथिवीमध्ये नवनवतिसहस्रयोजनानि (९९०००) पृथिव्या उपरि बर्त्तते । स समभूमिभागे दशसहस्र योजन विस्तीर्णः, समान शुद्ध लेश्या - वर्ण वाला प्रतीत होता है । इस प्रकार वह अपनी शोभा से अनेक वर्णों वाला एवं मनोरम है । वह सूर्य के समान दशों दिशाओं को उद्योतित- प्रकाशित करता है ॥ १३॥ टीकार्थ- पर्वनों में प्रधान वह मेरु पर्वतेन्द्र रत्नप्रभा पृथिवी के मध्य भाग जम्बूदीप में और जम्बूद्वीप के भी बिल्कुल मध्य भाग में है। वह सौमनस, विद्युत्प्रभ, गंधमादन और माल्यवन्त नामक चार दंष्ट्रा पर्वतों से युक्त, तथा वह पृथिवी मध्य गत मूल भाग से लेकर चोटी पर्यन्त लाख योजन की ऊँचाई वाला है, उसमें से एक हजार योजन की ऊंचाई पृथिवी में है और नवाणु हजार ऊंचा पृथिवी पर है। वह समभूमि भागपर दस हजार योजन विस्तार वाला है, वह अनुक्रम से Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ↑ For Private And Personal Use Only - શુદ્ધ લૈશ્યા અને વર્ણવાળા લાગે છે. આ પ્રકારે તે ખૂબ જ સુંદર અને અનેક વર્ષોવાળે હાવાને લીધે ખૂબ જ મનોરમ છે. તે સૂર્યના સમાન દસે દિશાએ ને ઉદ્યોતિત પ્રકાશિત કરે છે. ॥ ૧૩૫ ટીકા-પતામાં શ્રેષ્ઠ એવા તે મેરુ પર્વતેન્દ્ર રત્નપ્રભા પૃથ્વીના મધ્યભાગ જમૂદ્રીપની ખરાબર મધ્યમાં આવેલે છે. તે સૌમનસ, વિદ્યુત્પ્રભ, ગધમાદન અને માલ્યવન્ત નામના ચાર દુષ્ના પવ તાથી યુક્ત છે. તથા પૃથ્વીની અંદર વ્યાપેલા મૂળભાગથી શરૂ કરીને ટચ સુધીની તેની ઊંચાઇ એક લાખ ચેાજનની છે. એક લાખ ચૈાજનની તેની કુલ ઊંચાઇમાંથી એક હજાર ચાજન જેટલી તેની ઊંચાઇ પૃથ્વીની સપાટીની નીચે છે અને બાકીના ૯ નવાણુ હજાર ચાજનની ઊંચાઇ પૃથ્વીની સપાટીના ઉપરના ભાગમાં છે. સમભૂમિ ભાગ પર તેના વિસ્તાર દસ હજાર યેાજનના છે, આ વિસ્તાર ધીમે ધીમે Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. म.६ उ.१ भगवतो महावीरस्य गुम्णवर्णन ४९७ सोऽनुक्रमेण न्यूनो न्यूनो भवन् शिरसि-एकसहस्त्रयोजनविस्तीर्णोऽवशिष्यते । भूमिमध्ये सहस्रयोजनोच्छापवान् स दशैकादशभागोत्तरनवत्यधिकानि दशसहस्रयोजनानि (१००९०१०) विस्तीर्णः स च क्रमशो न्यूनी भवन् पृथिव्या उपरि दशसहस्रयोजत्रविस्तीणों भरति। तथा चत्वारिंशदयोजनोस्छूितचूडोपशोभितः पर्वतराजः 'ठिए स्थितः स च पर्वतरानः 'सरियसुद्धले से मर्यवच्छुद्ध लेश्या-मूर्य सदृशतेजोवान पन्नायते' प्रज्ञायते-लोकैः ज्ञायते एवं' एवम् 'सिरीए उ' श्रिया तु पूर्वोक्तश्रिया-शोभया तु 'भूरिवाने' भूरिवर्णः-अनेकविधशोभया युक्तः, तथा'मणोरमे' मनोरमः-मनोऽन्तःकरणं, मयतीति रमः, मनसो रम इति मनोरमः, मनोज्ञ इत्यर्थः, 'अचिपाली' अर्चिमालि:- सूर्य इव 'जोए' योतयति, यथा सूर्यः स्वप्रकाशेन सर्वा अपि दिशः प्रद्योतयति, तथा-पर्वतराजोऽपि स्वस्य रस्न सभाभिः घटता घटता चोटी पर एक हजार गोजन विस्तारवाला रह जाता है और भूमि के मध्य में जो एक हजार योजन ऊंचाई है उसका विस्तार चौडाई दश हजार नव्वे योजन और योजन के ग्यारह भागों में से दश भाग (१००९.१०) अधिक है। वह घटता घटता पृथिवी पर आकर उसका दस हजार योजन विस्तार रह जाता है । उसकी चोटी चालीस योजन ऊंची है। वह पर्वतराज सूर्य के समान तेजोवान् है, ऐसा लोगों को प्रतीत होता है। श्री से वह अनेक प्रकार की शोभा वाला है। अतिशय मनोरम है। सूर्य के समान समस्त दिशाओं को अपने प्रकाश से प्रकाशित करता है । स्वयं वह भी रत्नों आदि की प्रभा से प्रकाशित रहता है। आशय यह है कि यह पर्वतराज मेरु इस पृथ्वी के मध्य भाग में अवस्थित है, सूर्य के समान तेजवान् है, विविध वर्णा से विशिष्ट होने ઘટતું જાય છે અને ટોચ પર માત્ર એક હજાર એજનને જ રહે છે. જમીનની નીચે ૧૦૦૦ એજન જેટલી ઉંડાઈ સુધી તેને જે ભાગ વિસ્તરે છે, તેને વિસ્તાર છેક નીચે ૧૦૦૯૦૧૧ જનને છે. આ વિસ્તાર ઘટત ઘટતે પૃથ્વીની સપાટી પર દસ હજાર એજનને થઇ જાય છે. તેનું શિખર ૪૦ જન ઊંચું છે. આ પર્વત લોકોને સૂર્યના સમાન તેજસ્વી લાગે છે. મણિયે વનસ્પતિ આદિની શોભાથી સંપન્ન હોવાને કારણે તે ઘણે જ મનરમ લાગે છે. તે સૂર્યની જેમ સમસ્ત દિશાઓને પિતાના પ્રકાશથી પ્રકાશિત કરે છે. તે પોતે પણ રત્ન આદિની પ્રભાથી પ્રકાશિત રહે છે. તાત્પર્ય એ છે ગિરિરાજ મેરુ આ પૃથ્વીના (જબૂઢીપના) મધ્યભાગમાં આવેલ છે. તે સૂર્યના જે તે જવાન છે. વિવિધ વર્ષોથી યુક્ત હોવાને For Private And Personal Use Only Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गको सर्या दिशः प्रकाशयन् अवतिष्ठते । स हि पर्वतराजो भूमध्ये विद्यमानः सूर्यसमतेजाः अनेक वर्णविशिष्टत्वामनोरमः सर्वा दिशः प्रकाशयन्नवतिष्ठते इति ॥१३॥ __ बहुविधं बहुधा पर्वतराजस्य मेरोणनं कृतं गणधरेण, किन्तु एवंविधवर्णनस्य प्रयोजनं प्रकृते किमिति शङ्का पर्यालोच्य, प्रयोजनमुपदर्शयितुं तमेव मेरुं दृष्टान्तीकृत्य, दार्टान्ति के भगवन्महावीरे योजयितुं सूत्रकार आह-'सुदंसण' इत्यादि । मूलम्-सुदंसणस्सेव जैसो गिरिस्त पवुच्चई महतो पव्वयस्स। एत्तोवमे समणे नायपुत्ते, जाती जसो दंसणनाणसीले॥१४॥ छाया-मुदर्शनस्येव यशो गिरेः पोच्यते महतः पर्वतस्य । एतदुपमः श्रमणो ज्ञातपुत्रो जातियशोदर्शनज्ञानशीलः ॥१४॥ से मनोरम है और समस्त दिशाओं को प्रकाशित करता हुआ सुशोभित है ॥१३॥ ___ गणधर ने पर्वतराज का प्रकारान्तर से अनेक प्रकार का वर्णन किया, किन्तु इस प्रकार के वर्णन का वीरस्तव के इस प्रकरण में क्या उद्देश्य है ? शंकाकार के इस अभिप्राय को ध्यान में रखकर उस प्रयोजन को दिखलाने के लिए, मेरु को ही दृष्टान्त बनाकर दाष्टान्तिक भगवान् महावीर में उसकी योजना करने के लिए कहते हैं'सुदंसण' इत्यादि। शब्दार्थ-महतो पव्वयस्स-महतः पर्वतस्य' महान सुमेरु पर्वत का 'सुदंसणस्स गिरिस्स-सुदर्शनस्य गिरेः' सुदर्शन गिरि का 'जसो-यशः' यश 'पवुच्चइ-प्रोच्यते' कहा जाता है 'समणे नायपुत्ते एवोवमे-श्रमणो કારણે તે ઘણે મને હર લાગે છે તે સમસ્ત દિશાઓને પ્રકાશિત કરતે હેવાથી ઘણે જ સુશોભિત લાગે છે. ૧૩ સુધર્મા ગણધરે પર્વતરાજ સુમેરુનું અહીં વિવિધ પ્રકારે વિસ્તૃત વર્ણન કર્યું છે. હવે પ્રશ્ન એ ઉદ્ભવે છે કે વરસ્તવના આ પ્રકરણમાં આ પ્રકારનું વર્ણન કરવાને ઉદ્દેશ શું છે? આ શંકાનું નિવારણ કરવા માટે મેરુને જ દષ્ટાન બનાવીને દાર્જીન્તિક મહાવીર પ્રભુમાં એવી ચેજના કરવાને भाटे सूत्रा२ ४ छ -'सुदंसण' त्याल ___ -महतो पव्वयस्स-महतः पर्वतस्य' महान् सुभे३ पतना 'सुसणस्स गिरिस्स-सुदर्शनस्य गिरेः' सुशन गरिन। 'जसो-यशः' यश 'पवुरुचइ-प्रोच्यते' वामां आवे छे. 'समणे नायपत्ते एवोवमे-श्रमणो ज्ञातपुत्रः For Private And Personal Use Only Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्रे. श्रु. अ.६ उ.१ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् ४९९ ___ अन्वयार्थः- (महतो पचयस्स) महतः पर्वतस्य-सुमेरोः (सुदसणस्स गिरिस्स) सुदर्शनस्य गिरेः-मेरोः (जसो) यश-कीर्तिः ख्यातिरितिशावत् (पच्चुच्चइ) पूर्तीपदर्शितपकारेग प्रोच्यते । (समणे) श्रमणः (नायपुत्ते) ज्ञातपुत्र:-क्षत्रियवंशजः। (एतोवमे) एतदुपमः-सुमेरुसदृशः (जातीजसोदंसणनाणसीले) जातियशोदर्शनज्ञानशीलः भगवान महावीरो जात्यादौ सर्वश्रेष्ठः ॥१४॥ टीका-'महतो पचयस्स' महतः पर्वतस्य सुमेरोः 'सुदंसणस्स गिरिस्स' मुदर्शनस्य गिरे मेरोः 'जसो' यशः-कीर्तितः ख्यातिरिति यावत् पिवुच्चई' पूर्वोपदशिवप्रकारेण पोच्यते, । 'समणे' श्रमणः 'नायपुत्ते' ज्ञातपुत्र:-क्षत्रियवंशजः। 'एतोवमे' एतदुरमः एतस्यानन्तरोदीस्तिस्य सुमेरोरुपमा विद्यते यस्य सः एतदु. पमा भगवान् महावीरः, 'जातीजसोदसणनाणसीले' जातियशोदर्शनज्ञानशीला, ज्ञातपुत्रः एतदुपमः' श्रमण भगवान् महावीर स्वामी की उपमा इसी पर्वत से दी जाती है 'जातीजसोदसणनाणसीले-जाति यशो दर्शन ज्ञानशील' भगवान् जाति, यश, दर्शन, ज्ञान और शील से सबसे श्रेष्ठ हैं ॥१४॥ - अन्वयार्थ-उस महान् पर्वत सुदर्शन गिरि (मेरु) का यश पूर्वोक्त प्रकार से कहा जाता है । श्रमग ज्ञातपुत्र उसीके समान हैं। अर्थात् जैसे सुमेरु (मेरु पर्वत) सब पर्वतों में श्रेष्ठ है, उसी प्रकार भगवान् महावीर जाति, यश, दर्शन, ज्ञान और शील में सर्वश्रेष्ठ हैं ॥१४॥ ___टोकार्थ-महान सुमेरु पर्वत की ख्याति पूर्वोक्त प्रकार से कही जाती है, क्षत्रिय वंशज-ज्ञातपुत्र महावीरस्वामी इसी पर्वतराज के समान हैं । महान जाति, यश, दर्शन, ज्ञान और शील में भगवान् एतदुपमः' श्रममन् मवीर साभी ने ५' नी उपमा आपामा माछ. 'ज.ती नसोदेसणणसीले-जातियशोदर्शनज्ञानशीलः' लगवान् कति, यश, દર્શન, જ્ઞાન, અને શીલથી સૌથી ઉત્તમ છે. જે ૧૪ સૂત્રાર્થ–તે મહાન પર્વત સુદર્શન (મેરુના યશનું પૂર્વોક્ત પ્રકારે કથન કરવામાં આવ્યું છે. શ્રમણ જ્ઞાતપુત્ર (મહાવીર) તેના સમાન છે. એટલે કે જેમ સુમેરુ પર્વત સઘળા પર્વતેમાં શ્રેષ્ઠ છે, એ જ પ્રમાણે ભગવાન મહા વીર પણ જાતિ, યશ, દર્શન જ્ઞાન અને શીલમાં સર્વશ્રેષ્ઠ છે. ૧૪ ટીકાઈ–મહાન સુમેરુ પર્વતની ખ્યાતિનું પ્રતિપાદન પૂર્વોક્ત કથન અનુસાર કરવામાં આવે છે, ક્ષત્રિયવંશ જ-જ્ઞાતપુત્ર મહાવીર સ્વામી આ પર્વતરાજના જેવો જ છે. જાતિ, યશ, દર્શન, જ્ઞાન અને શીલમાં મહાવીર For Private And Personal Use Only Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्ग सूत्रे जात्या स्वभावेन यद्वा-जास्था जातिमद्भयः, यशसा कीर्त्त्या अशेषयशस्त्रिभ्यः, दर्शनज्ञानाभ्यः, सकलदर्शनज्ञानिभ्यः, शीलेन चारित्रेण सकलचारित्रद्भवः प्रधानः, यथा - सुमेरुः स्वगुणैः सर्वेभ्यः- पर्वनेभ्यः श्रेष्ठः एवं भगवान महावीर स्तीर्थकरोऽपि जातिदर्शनज्ञानयशश्शीलैः सर्वेभ्योऽपि प्रधानः । तथाच - सर्वप्रधानतयैव तदीयपरिचय इति ॥ १४॥ पुनरपि दृष्टान्तद्वारेणैव भगवतः स्वरूपं दर्शयति सूत्रकारः - 'गिरिवरे वा' इत्यादि । मूलम् - गिरिरे वा निसहाऽऽययाणं, रुयए व सेंट्ठे वैलयायताणं । ओवमे से जगभूइपने मुणीणं मंझे तेंमुदाहु पेने ॥ १५ ॥ छाया - गिरिवर इव निषेध आयातानां रुचक व श्रेष्ठो वलयायितानाम् । तदुपमः स जगद्भूतिप्रज्ञो मुनीनां मध्ये तमुदाहुः प्रज्ञाः ||१५|| सर्वोत्तम हैं। अभिप्राय यह है कि जैसे सुमेरु समस्त पर्वतों में प्रधान है, उसी प्रकार भगवान् महावीर तीर्थंकर भी जाति आदि में सर्वप्रधान हैं। इस प्रकार सर्वप्रधानना प्रदर्शित करने के कारण ही यहाँ सुमेरु का परिचय दिया गया है || १४ || सूत्रकार पुनः दृष्टान्त द्वारा ही भगवान के स्वरूप को दिखलाते हैं- 'गरिवरे वा' इत्यादि । शब्दार्थ- 'आययाणं- आयतानां' लम्बे पर्वतों में 'गिरिबरे - गिरिवर रा पर्वतों में श्रेष्ठ 'निसह व निषेव इव' निषध प्रधान श्रेष्ठ है, तथा 'बल'पायताणं - बलवावितानां' वर्तुल पर्वतों में 'रुपए व रुचक इव' जैसे પ્રભુ સર્વોત્તમ છે. તાય એ છે કે જેમ સુમેરુ સમસ્ત પામાં શ્રેષ્ઠ છે, એજ પ્રમાંણુ ભગવાન મહાવીર તી કર પશુ જાતિ આદિની અપેક્ષાએ સ શ્રેષ્ઠ છે. મહાવીર પ્રભુના જેવા જ સુમેરુ પણ સ પ્રધાન ગિરિરાજ છે. આ રીતે સથી પ્રધાનપણુ' બતાવવા માટે અહી સુમેરુનું વર્ણન કરવામાં आयु छे. ॥ १४ ॥ સૂત્રકાર વળી દૃષ્ટાન્તદ્વારા મહાવીર પ્રભુના સ્વરૂપનું જ નિરૂપણુ કરે छे– 'गिरिवरे वा' छत्याहि शब्दार्थ- 'आययाण - अयतानां' सांगा पर्वतामा 'गिरिवरे - गिरिवरः ' पर्वताभां उत्तम 'निसह व निषध इत्र' निषेध, उत्तम छे तथा 'वलयायताणंवलयायितानां वतु' पर्वतामा 'रुयएव - रुचक इव' प्रेम ३२ पर्वत 'से For Private And Personal Use Only Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मयार्थबोधिनी टीका प्र. थु. अ. ६ उ. १ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् ५०१ अन्वयार्थ :- (आययाणं) आयतानां - लम्बायमानानां पर्वतानां मध्ये (गिरिवरे) गिरिवरः - पर्वतश्रेष्ठः (निसह व ) निषेध इव मधानः (वळयाय ताणं) वलयायितानां वर्त्तकानां पर्वतानाम् (रुपए व ) रुचकपर्वत इव (सेट्ठे ) श्रेष्ठः भगवानपि (तमे) दुपम :- तत्सदृशः (जग भूइपन्ने) जगद्भूतिप्रज्ञः - जगति सर्वातिशयबुद्धिमान् (मुणीण मज्झे) मुनीनां मध्ये वर्त्तते, एवं ( पन्ने ) मज्ञाः- तत्स्वरूपज्ञाः (तमुदाहु) तं- भगवन्तमुदाहुः - कथयन्तीति ॥ १५ ॥ 7 - टीका -- यथा- 'आययाणं' आयतानां लम्बायमानानां पर्वतानां मध्ये 'गिरिवरे' गिरिवरः- पर्वतश्रेष्ठः 'निसह' निपवः - प्रधानः, यथा वा 'वलयायताणं' वलयाथितानां वर्तुलानां वलयसदृश वर्तुलानां पर्वतानां मध्ये 'रुपए रुचकः - नामकः पर्वत इव 'सेट्टे' श्रेष्ठः प्रधानः 'तोत्र मे' तदुपमः, तस्य पर्वतस्योपमा विद्यते यस्य रुचक पर्वत 'सेट्ठे- श्रेष्ठ: ' श्रेष्ठ है 'जग भूइपन्ने - जगत् भूतिप्रज्ञः' जगत् में अधिक बुद्धिमान् भगवान् महावीर स्वामी की 'तओमे तदुपम:' वही उपमा है ' पन्ने - प्राज्ञः' बुद्धिमान् पुरुष 'मुगीण मझे-मुनीनां मध्ये ' मुनियों के मध्य में 'तमुदाहु-तमुदाहु:' भगवान् को श्रेष्ठ कहते हैं ।। १५ ।। अन्वयार्थ - जैसे दीर्घाकर (लम्बे आकार वाले) पर्वतों में निषध पर्वत प्रधान है और वर्तुलाकार पर्वतों में रुचक पर्वत प्रधान है, उसी प्रकार समस्त मुनियों में सर्वोत्तम प्रज्ञावान् भगवान् महावीरस्वामी सर्वोत्तम हैं, ऐसा बुद्धिमान पुरुषों ने कहा है ||१५|| टीकार्थ- जैसे आयत अर्थात् लम्बे पर्वतों में गिरिवर निषेध प्रधान है, या जैसे वलयाकार (गोल) पर्वतों में रुचक पर्वत श्रेष्ठ है, उसी प्रकार जगत में समस्त ज्ञानवानों में भगवान् महावीर सर्वश्रेष्ठ श्रेष्ठ' श्रेष्ठ 'जगभूइ पन्ने - जगत् भूतिज्ञः भगत्मा वधारे बुद्धिमान् लगवान् भडावीर स्वाभीती 'तओवमे - तदुपम:' मे४ उपमा है, 'पन्ने-प्राज्ञः ' शुद्धिमान् ३ष 'मुणीण मज्झे-सुनीनां मध्ये' भुनियानी मध्यमां 'तमुदाहुतमुदाहु:' लगवानने श्रेष्ठ ॥ १५ ॥ સૂત્રા—જેવી રીતે દીર્ઘાકાર પતામાં નિષધ પર્યંત શ્રેષ્ડ છે અને થતુળાકાર પતામાં જેમ રુચક પત શ્રેષ્ઠ છે, એજ પ્રમાણે સમસ્ત મુનિઆમાં સર્વોત્તમ પ્રજ્ઞાવાન મહાવીર ભગવાન્ શ્રેષ્ઠ છે, એવુ' બુદ્ધિમાન્ ५३षो से उछु छे. ॥१५॥ ટીકા-જેમ દ્વીધ (લાંબા) પતામાં ગિરિવર નિષધ સર્વોત્તમ છે, અથવા જેમ વયાકાર (વર્તુળાકાર) પતામાં રુચક પર્યંત શ્રેષ્ઠ છે, એજ For Private And Personal Use Only Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ५०२ सूत्रता सः तदुपम: 'जगभूइपन्ने' जगद् भूतिमज्ञः, जगति संसारे भूतिपशः प्रभूतज्ञानवान् ज्ञानेन सर्वश्रेष्ठः 'मुणीण मज्झे' मुनीनां ज्ञानदर्शनचारित्रवतां मध्ये वर्त्तते, एवम् -' पन्ने' प्रज्ञा :- बुद्धिमन्तः पुरुषाः 'तमुदाहु' तं भगन्तं तीर्थकरमेव सर्वोत्तममुदाहुः कथयन्ति । यथा - निषधपर्वत आयतानां पर्वतानां मध्ये श्रेष्ठः, यथा वारुचकपर्वतः - वर्तुळानां पर्वतानां मध्ये संसारे श्रेष्ठतया प्रसिद्ध:, तथा भगवान् तीर्थकरः दर्शनचारित्रवतां मध्ये श्रेष्टः सर्वाऽतिशायी, इत्येवं सर्वे एव सदसद्विवे कशीलाः प्राज्ञाः वदन्तीत्यर्थः ॥ १५ ॥ " - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - मूलम् - अणुत्तरं धम्ममुईरइता, अणुत्तरं झाणवरं झियाइ । सुसुक्क सुक्कं अपगंडसुकं, संखिदुए गंतवदात सुकं ॥१६॥ छाया - अनुत्तरं धर्ममुदी, अनुत्तरं ध्यानवरं ध्यायति । सुशुक्ल शुक्ल मपगण्डशुवलं, शंखेद्वेकान्तावदातशुक्लम् ॥१६॥ ज्ञानवान् हैं तथा समस्त मुनियों में अर्थात् ज्ञानदर्शनचारित्र वाले महापुरुषों में भगवान् महावीर सर्व श्रेष्ठ हैं, ऐसा बुद्धिमान पुरुष कहते हैं। आशय यह है-लम्बे पर्वतों में निषध पर्वत सर्वश्रेष्ठ है, वर्तुलाकार (गोलाकार) पर्वतों में रुचक पर्वत संसार में सर्वप्रधान है, उसी प्रकार तीर्थकर भगवान् महावीर स्वामी भी ज्ञान दर्शन चारित्रवालों में श्रेष्ठ हैं। भगवान सर्वोतम हैं, ऐसा सत् असत् के विवेक से युक्त सभी प्राज्ञ पुरुष कहते हैं ऐसा सुधर्मा स्वामी जम्बू स्वामी से कहते हैं ||१५|| પ્રમાણે જગતના સમસ્ત જ્ઞાનીએમાં ભગવાન મહાવીર સ`શ્રેષ્ઠ જ્ઞાની છે, તથા સમસ્ત મુનિએમાં-એટલે કે જ્ઞાનદર્શન અને ચારિત્ર સપન્ન મહાપુરૂષામાં ભગવાન્ મહાવીર સશ્રેષ્ઠ છે, એવુ બુદ્ધિશાળી પુરૂષા કહે છે. આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે લાંખા પવ તામાં નિષધપવ ત સ શ્રેષ્ઠ છે, વર્તુળાકાર પવ તામાં રુચક પર્વત સશ્રેષ્ઠ છે, એજ પ્રમાણે જ્ઞાન, દન અને ચારિત્રસ...પન્ન પુરૂષામાં ભગવાન મહાવીર શ્રેષ્ઠ છે. For Private And Personal Use Only ભગવાન મહાવીર શ્રેષ્ઠ છે, એવું સત્ અસા વિવેકથી યુક્ત હાય એવાં સઘળા જ્ઞાની પુરૂષા, કોઈ પણ પ્રકારના પક્ષપાત વિના કહે છે, આ પ્રમા૨ે સુધર્મા સ્વામી જંબૂ સ્વામીને કહે છે. ૫ ૧૫ Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ.६ उ. १ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् ५०३ अन्वयार्थः-(अणुत्तरं धम्ममुदीरइत्ता) अनुत्तरं-सर्वत उत्तरं-श्रेष्ठं धर्म-श्रु. चारित्ररूपम् उदीयं-कथयित्वा (अणुत्तरं झाणवरं झियाइ) अनुत्तरं-सर्वश्रेष्ट ध्यानवरं ध्यायति (सुसुक्कसु) सुशुक्लशुक्लम्-अत्यन्त शुक्लवच्छुक्लम् (अपगंडमुक्क) अपगण्डशुक्लं निर्दोषशुक्लम् (संखिकुएगंतवदातसुक्क) शंखेन्दुवदेकान्ताऽवदातशुक्लम्। शंखचन्द्रवत् सर्वथा विशुद्धमिति ॥१६॥ 'अणुत्तरं इत्यादि। शब्दार्थ-'अनुत्तरं धम्ममुदीरइत्ता-अनुत्तरं धर्मसुदीरयित्वा' भगवान महावीर स्वामी सर्वोत्तम श्रुतचारित्र रूप धर्म को कहकर 'अणु त्तरं झाणवरं झियाइ-अनुत्तरं ध्यानवरं ध्यायति' सर्वोत्तम ध्यान ध्यातेथे 'सुसुक्कसुक्कं-सुशुक्लशुक्लं' भगवान का ध्यान अत्यन्त शुक्ल वस्तु के समान शुक्ल था 'अपगंडसुक्कं-अपगण्डशुक्लं' तथा वह दोषरहित शुक्ल था 'संखिंदुएगंतवदातसुक्कं-शखेन्दुवदेकान्तावदातशुक्लम्' वह शंख तथा चन्द्रमा के समान सर्व प्रकार से शुक्ल था॥१६॥ ____ अन्वयार्थ-ज्ञातपुत्र महावीर अनुत्तर श्रुत चारित्र धर्म का कथन करके अनुत्तरध्यान करते थे । उनका ध्यान अत्यन्त शुक्ल वस्तु के समान शुक्ल, दोषवर्जित तथा शंख या चन्द्रमा के समान सर्वथा स्वच्छ और शुद्ध था ॥१६॥ 'अणुतर'' त्या शहाथ-'अणुत्तरं धम्ममुदीरइचा-अनुत्तरं धर्ममुदिरयित्वा' मावान् महावीर स्वामी सर्वोत्तम मेवा श्रुतयारत्र३५ ५' ४ीन 'अनुत्तरं झाणवरं झियाइ-अनुत्तरं ध्यानवरं ध्यायति' सर्वोत्तमध्यान ५२ ता. 'सुसुक्कसुक्कंसुशुक्लशुकं' भगवाननुं ध्यान अत्यत शुस १२तु सरमु शुस हेतु 'अपग'ण्डप्लुक्लं-अपगण्डसुक्लम्' तथा ते निषि शुस तु.. 'संखिदु एगंतव. दातसुक-शंखेन्दुवदेकांतशुक्लम्' शम तथा यद्रमा शभु साथी शु तु । १६॥ સ્વાર્થ-જ્ઞાતપુત્ર મહાવીર અનુત્તર (સર્વોત્તમ) થતચારિત્રરૂપ ધર્મની પ્રરૂપણ કરતા હતા અને અનુત્તર ધ્યાન ધરતા હતા. તેમનું ધ્યાન અત્યન્ત શુકલ વસ્તુના સમાન શુકલ, દોષરહિત, તથા શંખ અથવા ચન્દ્રમાના સમાન સર્વથા સ્વચ્છ અને શુદ્ધ હતું. ૧૬ For Private And Personal Use Only Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५०४ सूत्रकृतानसत्र टीका-'अणुत्तरं' अनुत्तरम्, नास्ति उत्तरः-प्रधानोऽन्यो धर्मों विधते यस्मात् स तमनुत्तरं धर्मम् ‘उदीरइत्ता' उदीर्य, उद-मावल्येन ईरयित्वा-कथयित्वा प्रकाश्य समधानं धर्मम् । 'अणुत्तरं' अनुत्तरम्-सऽितिशायि 'झाणवर' ध्यानवरम्-श्रेष्ठध्यानम् ‘झियाई ध्यायति । तथाहि-उत्पन्न केवलज्ञानो भगवान् योगकाले- अन्तःकरणनिरोधकाले सूक्ष्म काययोगं निरुन्धन् शुक्लध्यानस्य तृतीयभेदं सूक्ष्मक्रियम् अप्रतिपात रूपम् , तथा-समुच्छिन्नक्रियाऽपातपातिरूपं निरुद्धयोगं चतुर्थ शुक्लध्यानभेदम्, व्युपरतक्रियमनिवृत्ताख्यं ध्यायति। तदेव दर्शयति-'सुसुक्कसुक्क' सुशुक्लशुक्लम्, सुष्टु शुक्लबत् शुक्लं ध्यानम् । तथा-'अपगंडसुक्क' आगण्डशुक्लम्-अपगतं गण्डम्-अपद्रत्यं दोषो यस्य तत् अपअण्डशुक्लम्, निर्दोरजतवत् शुभ्रम्-विमलम् , अवा-अपमण्डम्-उदक फेनम् तत्तुल्यम्। तथा-'संखिदुएगंतवदातमुक्क' शंखेन्दुश्द् एकान्तावदातशुक्लम् , ध्यानं ध्यायति । शंखश्वेन्दुश्चेति शंखेन्दू तद्वद् अवदात स्वच्छम् , तादृशं शुक्लं टीकार्थ-जिससे कोई श्रेष्ठ न हो ऐसे सर्वश्रेष्ठ को अनुत्तर कहते हैं। भगवान् अनुत्तर धर्म का प्ररूपण करके अनुत्तर प्रशस्त ध्यान करते थे। यद्यपि सयोगकेलियों में ध्यान स्वीकार नहीं किया गया है. तथापि जब वे योग का निरोध करना प्रारंभ करते हैं तब सूक्ष्मकाय योग का निरोध करते समय सूक्ष्म क्रियाऽप्रतिपाति नामक शुक्ल ध्यान का तीसरा भेद ध्याते हैं और योग का निरोध होजाने पर उनमें समुच्छिन्न क्रिया अप्रतिपाति नामक शुक्ल ध्यान का चौथा भेद होता है। भगवान् का ध्यान शुद्ध रजत के समान शुभ्र, विमल एवं निर्दोष था। अथवा 'अपगण्ड' का अर्थ निदोष ऐसा होता है। उनका ध्यान जल के फेन के समान दोषरहित अर्थात् स्वच्छ था। यह शंख एवं चन्द्र के सदृश एकान्त शुक्ल था। 1 ટીકાઈ–જેના કરતાં શ્રેષ્ઠ બીજે કઈ પણ પદાર્થ ન હોય, એવા પદાર્થને અનુત્તર કહે છે. અહીં શ્રુતચારિત્ર રૂપ ધર્મને અનુત્તર કહેવામાં આવ્યો છે. મહાવીર પ્રભુ આ અનુત્તર ધર્મની પ્રરૂપણ કરીને અનુત્તર પ્રશસ્ત ધ્યાન ધરતા હતા. જો કે સગ કેવલીઓમાં ધ્યાનને સ્વીકાર કર. વામાં આવ્યું નથી, છતાં પણ જ્યારે તે દેગને નિરોધ કરવાને પ્રારંભ કરે છે, ત્યારે સૂક્ષમ કાગને નિરોધ કરતી વખતે “સૂમકિયા અપ્રતિપાતિ' નામના શુકલ ધ્યાનના ત્રીજા ભેદના કાનમાં લીન થાય છે અને રોગનો નિરાધ થઈ જાય ત્યારે સમુચ્છિન્ન કિયા અપ્રતિપાતિ નામના શુકલ ધ્યાનના ચોથા ભેદને તેમનામાં સદ્દભાવ રહે છે ભગવાન મહાવીરનું ધ્યાન શુદ્ધ यांना समान शुद्ध, विमa मने निषि तु. मया-'अपगण्ड'ना भय For Private And Personal Use Only Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ६ उ.१ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् ५०५ शुक्लध्यानं तद्वद् एकान्ततोऽत्रदातं सर्वथा विशुदं शुक्लं शुक्लध्यानोचरं भेदद्वयक ध्यानं ध्यायति । भगवान् महावीरस्वामी सर्वोत्तमं धर्म लोकेभ्यः प्रकाश्य सर्वोत्तम ध्यानं ध्यायति । तदीयं ध्यानं शंखचन्द्रादिवत् अतिशयेन शुद्धमिति ॥१६॥ द्विविधशुक्लध्यानं सम्पाद्य किं कृतमित्यत आह-'अणुत्तरगं' इत्यादि । मूलम्-अणुत्तरम्गं परमं महेसी, असेसकम्मं स विसोहइत्ता। सिद्धिं गई साई मतपत्ते नाणेण सीलेण य दंसणेण।१७। छाया--अनुत्तराम्यां परमां महर्षिरशेषकर्माणि स विशोध्य खलु । सिद्धिं गतिं सादिमनन्तां प्राप्तः ज्ञानेन शोलेन च दर्शनेन ।।१७॥ तात्पर्य यह है कि भगवान महावीर स्वामी जगत् के भन्ध जीवों को धर्म की देशना करके सर्वोत्तम ध्यान करते थे। उनका ध्यान शंख और चन्द्रमा के समान अतिशय शुद्ध था ॥१६॥ दो प्रकार का शुक्लध्यान प्राप्त करके पुनः क्या किया, सो कहते हैं-'अणुत्तरं' इत्यादि। शब्दार्थ-'महेसी-महर्षिः' महर्षि ऐसे भगवान् महावीर स्वामी 'नाणेण सीलेण यदसणेण-ज्ञानेन शीलेन च दर्शनेन' ज्ञान, चारित्र और दर्शन के छारा 'असेसकम्म-अशेषकर्माणि' समस्त कमों को 'विसोहयित्ता-विशोधयित्वा' शोधन करके 'अणुत्तरगं-अनुत्तराम्यां' सर्वोत्तम 'परमं-परमा' प्रधान ऐसी सिद्धिं गति-सिद्धिं गतिः' सिद्धि को प्राप्त નિર્દોષ એ પ્રમાણે થાય છે. તેમનું ધ્યાન પાણીનાં ફીણ જેવું દોષરહિત અર્થાત્ સ્વચ્છ હતું. તે ચન્દ્ર અને શંખના સમાન સંપૂર્ણતઃ શુકલ હતુ. આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે ભગવાન મહાવીર સ્વામી જગતના ભવ્ય અને ધર્મની દેશના દેતા હતા, તથા સર્વોત્તમ ધ્યાન ધરતા હતા. તેમનું ધ્યાન શંખ અને ચન્દ્રમાના સમાન અતિશય શુદ્ધ હતું. મે ૧૬ છે બે પ્રકારનું શુકલધ્યાન પ્રાપ્ત કરીને તેમણે શું કર્યું, તે હવે સૂત્રકાર ५४८ ४३ छ-'अणुत्तर' त्या ___शमा-महेसी-महर्षिः' भरपि मे मावान महावीर स्वामी 'नाणेण सीलेण य दंसणेण-ज्ञानेन शीलेन च दर्शनेन' ज्ञान, यारित्र भने ४शन द्वारा 'असेसकम्भ-अशेषकर्माणि' मा आयाने 'विसोहसित्ता-विशोधयित्वा' शोधन शन 'अणुत्तरगं-अनुत्तरापथा' 'परमं-परमां' श्रेष्ठ मेवा 'सिद्धि गति-सिद्धिं गतिः' सिद्धिन For Private And Personal Use Only Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ५०६ सूत्रकृताङ्गसूत्रे अन्वयार्थ : - ( महेसी ) महर्षिर्भगवान (नाणेण सीलेण य दंसणेण ) ज्ञानेन शीलेन च दर्शनेन (असेसकम्मं ) अशेषकर्माणि (विसोहइत्ता) विशोध्य - शोधयित्वा (अणुतरगं) अनुत्तरायां- सर्वोत्तमाम् (परमं) परमां प्रधानाम् (सिद्धिं गई' सिद्धिंगर्ति - मोक्षगतिम् (साइमनंत पत्ते) सादिमनन्तां प्राप्त इति ॥ १७॥ टीका - - तथा - असौ शैलेश्यापादित शुक्लध्यान चतुर्थ भेदानन्तरं तीर्थ संपादो महावीर (महेसी ) महर्षिः आत्यन्तिकतपश्चरणेन विशुद्धात्मा, (नाणेण ) ज्ञानेन केवलारूपेन 'सीलेण' शीलेन क्षायिकेन चारित्रेण च 'दंसणेण' दर्शनेन, घटत्वादिविशिष्टबोधावगाहितज्ज्ञानम् । सामान्यावबोधावगाद्दिदर्शनं शीलं च यथाख्यात चारित्रम् । स महर्षिः - असेसकम्मं' अशेषकर्माणि - ज्ञानावरणीयाद्यष्ट हुए अर्थात् मोक्षगति को गये 'साहमणंतपत्ते - सादिमनन्ततां प्राप्तः' जिस सिद्धि की आदि है परन्तु अन्त नहीं है ॥ १७ ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अन्वयार्थ - महर्षि महावीर ने ज्ञान, शील ( चारित्र) और दर्शन के द्वारा समस्त कर्मों का विशोधन क्षय करके सर्वोत्तम एवं प्रधान सिद्धि (मुक्ति) प्राप्त की । वह सिद्धि सादि और अनन्त है ॥१७॥ टीकार्थ- शैलेशी अवस्था में शुक्लध्यान के समुच्छिन्न क्रिया अप्रतिपाति नामक चतुर्थ पाये का अवलम्बन करने के पश्चात्, तीव्र तपश्चरण से सर्वधा विशुद्ध आत्मा वाले महर्षि महावीर ने केवलज्ञान नामक ज्ञान के द्वारा, शील अर्थात् क्षायिक चारित्र के द्वारा तथा केवलदर्शन के द्वारा शेष रहे हुए चार भवोपग्राही नाम गोत्र वेद आप्त उरी अर्थात् भोक्षगति प्राप्त मेरी 'साइमनंत पत्ते - सादिमनन्तां प्राप्तः' સિદ્ધિની આદિ છે પણ અંત નથી તેવી સિદ્ધિ ગતિને પ્રાપ્ત કરી. ॥ ૧૭૫ સૂત્રા —ભગવાન મહારે જ્ઞાન, દર્શન અને ચારિત્ર દ્વારા સમસ્ત भेना क्षय उरीने सर्वोत्तम (अनुत्तर) सिद्धि प्राप्त उरी, ते सिद्धि (आहि युक्त) याने आनंत ( तविनानी) छे. ॥१७॥ ટીકાય -શૈલેશી અવસ્થામાં શુકલધ્યાનના ‘સમુચ્છિન્ન ક્રિયા અપ્રતિપાતિ’ નામના ચાથા પાયાનું (ભેદનું) અવલ’મન કરીને તે પછી તીવ્ર તપસ્યા દ્વારા જેમના આત્મા તદ્ન વિશુદ્ધ થયેા હતેા એવા મહિષ મહાવીર કેવળજ્ઞાન નામના જ્ઞાન દ્વારા તથા શીલ દ્વારા-ક્ષાયિક ચારિત્રના દ્વારા, તથા દેવળદર્શન દ્વારા, આકીના ચાર ભવગ્રાહી કાઁના (નામ, ગોત્ર, વેદનીય અને આયુમના) ક્ષય કરીને સર્વશ્રેષ્ઠ અને પ્રધાન એવી સિદ્ધિની પ્રાપ્તિ For Private And Personal Use Only Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ६ उ.१ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् ५०७ कर्माणि 'चिसोहइत्ता' विशोध्य विनाश्य, यथा वह्निस्पर्शात् वणराशिः प्रज्वलितो भवति, तथा-ज्ञान दर्शनचारित्रैः सर्वाण्येव तानि विनाश, 'अणुत्तरगं' अनुत्तराय्या, नास्ति उत्तरः-प्रधानो यस्याः सा अनुतरा, अनुत्तरा चासौ अय्या सर्वोत्तमत्वात्, अग्रे-सर्वत उपरि भवति या सा-अश्या लोकानामग्रे व्यास्थिता, इत्यनुत्तराय्या तां तथाविधाम् । तथा-'परम' परमां सर्वतः प्रधानाम् एतत् पर्यन्तमेव सर्वधर्मानुष्ठानम् । प्राप्तमोक्षस्य कृतकृत्यत्वात् । 'सिद्धिं गई सिद्धिं गति-मोक्षगतिम्। पुनरपि कथं भूता सिद्धिमिति तामेव विशिनष्टि-'साइमणंतपत्ते' सादिमनन्ताम, सादिम्-आदिसहिताम् अनन्ताम्-अन्तो विनाशो न विद्यते यस्याः तां ताही मुक्ति प्राप्तो भवति महर्षिः ॥१७॥ नीय और आयु कर्मों का क्षय करके-जैसे अग्नि के स्पर्श से घांस का ढेर भस्म हो जाता है, उसी प्रकार ज्ञान दर्शन और चारित्र के द्वारा समस्त कर्मों को नष्ट करके सर्व श्रेष्ठ और प्रधान सिद्धि प्राप्त की। जिससे श्रेष्ठ अन्य कोई न हो उसे अनुतर कहते हैं। वह सिद्धि सर्वोत्तम है। वह परम भी है, क्योंकि समस्त धर्मानुष्ठान मुक्तिपर्यन्त ही किया जाता है। मोक्ष प्राप्त होने पर आत्मा कृतकृत्य हो जाती है। वह मुक्ति सादि और अनन्त है, अर्थात् उसकी आदितो है क्योंकि वह कारण जनित है, परन्तु अन्त उमका कभी नहीं होता। ऐसी मुक्ति महर्षि महावीर ने प्राप्त की है ॥१७॥ કરી. જેમાં અગ્નિના સ્પર્શથી ઘાસને ઢગલે બળીને ભસ્મ થઈ જાય છે, એજ પ્રમાણે જ્ઞાન, દર્શન અને ચારિત્ર દ્વારા મહાવીર પ્રભુએ સમરત કર્મોને સર્વથા ક્ષય કરી નાખીને અનુત્તર સિદ્ધિ પ્રાપ્ત કરી. જેના કરતાં શ્રેષ્ઠ અન્ય કઈ પણ વસ્તુ હતી નથી, તેને અનુત્તર કહે છે. સિદ્ધિ એવી સર્વોત્તમ વરતુ હેવાને કારણે તેને અનુત્તર (સર્વોત્તમ) કહી છે. વળી તે સિદ્ધિને પરમ વિશેષણ લગાડવાનું કારણ એ છે કે સમસ્ત ધર્માનુષ્ઠાને મુક્તિપર્યંત જ કરવામાં આવે છે. મેક્ષ પ્રાપ્ત થયા પછી તે આત્મા કૃતકૃત્ય થઈ જાય છે-તેને કંઈ પણ કરવાનું જ બાકી રહેતું નથી. તે મુક્તિ સાદિ અને અનંત છે. તેને સાદિ વિશેષણ લગાડવાનું કારણ એ છે કે તેને આદિ તે છે એટલે કે તે કારણુજનિત છે, પરંતુ મુક્તિને કદી અન્ત નથી, તેથી જ તેને અનંત વિશેષણ લગાડવામાં આવ્યું છે. એવી મુક્તિ મહર્ષિ મહાવીરે પ્રાપ્તિ કરી. ૧ળા For Private And Personal Use Only Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ५०८ www.kobatirth.org मूलम् - रुक्खेसु जाए जह सामली वा, अथ वृक्षादिदृष्टान्तेन पुनरपि भगवत स्वीर्थ करस्य स्तुतिमेवाह- 'रुक्खे' इत्यादि । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir • वेणेसु वा देण मांहु से ", जेस्सि रति वेर्ययंति सुवन्ना । सूत्रकृताङ्गसूत्रे नाणेण सीलेण य भूइपन्ने ॥ १८ ॥ छाया - वृक्षेषु ज्ञातो यथा शाल्मली वा यस्मिन् रतिं वेदयन्ति सुपर्णाः । वनेषु वा नन्दनमाहुः श्रेष्ठं ज्ञानेन शीलेन च भूतिप्रज्ञः ॥ १८ ॥ दृष्टान्त के द्वारा पुनः भगवान् महावीर की स्तुति कहते हैं'रुखेसु' इत्यादि । शब्दार्थ - 'जह - यथा' जैसे 'रुक्खेसु वृक्षेषु' वृक्षों में 'णाए - ज्ञातः' जगत्प्रसिद्ध 'सामलीवा - शाल्मली' सेमल वृक्ष है 'जस्सि यस्मिन्' जिस वृक्ष पर 'सुवन्ना- सुपर्णाः' सुपर्ण लोग अर्थात् भवनपति विशेष 'रईरतिं' आनन्द का 'वेययइ-वेदयन्ति' अनुभव करते हैं' 'वणेसु वा णंदणं माहू - वनेषु वा नन्दनं श्रेष्ठम् आहुः' तथा जैसे वनों में सबसे श्रेष्ठ नन्दन वन को कहते हैं 'नाणेण सीक्रेण य भूहपन्ने ज्ञानेन शीलेन च भूतिप्रज्ञ:' इसी प्रकार ज्ञान और चारित्र के द्वारा उत्तम ज्ञानी भगवान् महावीर स्वामी को श्रेष्ठ कहते हैं ||१८| - For Private And Personal Use Only સૂત્રકાર બીજા દૃષ્ટાન્તા દ્વારા મહાવીર પ્રભુની સ્તુતિ કરે છે - 'रुकखेसु' त्याहि शब्दार्थ - 'जह यथा' ने अभाये 'रुक्खे सु-वृक्षेषु' वृक्षोभां 'णाए-ज्ञासः' भगत्प्रसिद्ध 'सामली वा शामली वा' सोभर नामनु' वृक्ष छे. 'जस्ति' यस्मिन् ' ● वृक्ष ५२ ' सुवन्ना - सुपर्णाः' सुवधु कुमारे। अर्थात् लवनयति विशेष 'रई - रति” यानहने। 'वेययइ-वेदयन्ति' अनुभव रे छे. 'वणेसु वा णंदणं सेट्टमाहु-वनेषु वा नन्दनं श्रेष्ठम् आहुः' तथा प्रेम वनमां नन्दनवनने सोथी उत्तम आहे. न प्रभाये 'नाणेण सीलेण य भूइपन्ने - ज्ञानेन शीलेन च भूतिप्रज्ञः' ज्ञान भने ચારિત્રદ્વારા ઉત્તમ જ્ઞાનવાળા એવા ભગવાન મહાવીર સ્વામીને સર્વાંથી શ્રેષ્ઠ भावे ॥ १८ ॥ Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 'समयार्थबोधिनी टीका प्र. . अं. ६ उ. १ भगवतो महावीरस्यं गुणवर्णनम् ५०९ अन्वयार्थः -- (जह ) यथा - ( रुक्खेसु) वृक्षेषु (गाए ) ज्ञात : - मसिद्ध: ( सोमली वा) शाल्मली - वृक्षः (जसि ) यस्मिन् वृक्षे ( सुवन्ना) सुपर्णाः - भवनपतिविशेषाः (रई) रतिमानन्दम् (वेपयंति) वेदयन्ति - अनुभवन्ति (वणेसु वा णंदणं सेडवाहू) वनेषु वा नन्दनं- मकवनं श्रेष्ठ प्रधानमाहुः कथयन्ति तथैव (नाणेण सीलेन य भूइपन्ने) ज्ञानेन - केवलज्ञानेन शीलेन यथाख्यातचारित्रेण भगवान् महावीरी भूतिमशः - श्रेष्ठ इति ॥ १८ ॥ टीका - (जह ) यथा (रुक्खेसु) वृक्षेषु मध्ये ( गाए ) ज्ञातः प्रसिद्धो लोके देवकुरुषु स्थितः (सामली) शाल्मली नामा वृक्षः प्रतिष्ठितः श्रेष्ठ इति यावत् । तस्य - शाल्म लीवृक्षस्य सर्वश्रेष्ठताकारणं दर्शयति- (जस्सिं ) यस्मिन् शाल्मलीनाम के वृक्षे ( सुत्रमा) सुवर्णा :- भवनातिविशेशः (रवि) रविमानन्दम् (वेययंति) वेदयन्ति - अनुभवन्ति । यथा बा - (वणेसु) भद्रशालौमनपण्डकवनेषु मध्ये (द) नन्दनं तन्नामकं वनम् (सेहूं ) श्रेष्ठम् - देवानां क्रीडास्थानम् (आडु) आहुः कथयन्ति तथैव - (भूइपन्ने) भूतिमशः - प्रवृद्धज्ञानः भगवान् तीर्थकरः अन्वयार्थ - जैसे वृक्षों में शाल्मली वृक्ष प्रसिद्ध है, जिसके ऊपर सुपर्णकुमार जाति के भवनपति रति की अनुभूति करते हैं । जैसे वनों में नन्दनवन प्रधान कहा जाता है, उसी प्रकार ज्ञान और शील में भगवान् महावीर श्रेष्ठ हैं ॥ १८ ॥ टीकार्थ- जैसे वृक्षों में देवकुरु क्षेत्र में स्थित शाल्मली नामक वृक्ष सर्वश्रेष्ठ है, प्रसिद्ध है, क्योंकि उस वृक्ष पर सुपर्णकुमार नामक भवनपति देव आनन्द का अनुभव करते हैं । अथवा जैसे भद्रशाल सौमनस पण्डक आदि समस्त वनों में नन्दनवन सर्वोत्तम है -देवों का क्रीडास्थान है, ऐसा कहा जाता है, उसी प्रकार भूतिप्रज्ञ (जीवरक्षा की સૂત્રા”જેવી રીતે વૃક્ષેામાં શ.મલી વૃક્ષ પ્રખ્યાત છે, અને વનામાં નન્દનવન સર્વોત્તમ છે, એજ પ્રમાણે જ્ઞાન અને શીલમાં મહાવીર પ્રભુ શ્રેષ્ઠ છે. ૧૮ ટીકા દેવકુ ક્ષેત્રમાં શામલી નામનું જે વૃક્ષ થાય છે, તેને સર્વશ્રેષ્ઠ વૃક્ષ ગણવામાં આવે છે, કારણ કે તે વૃક્ષ પર સુકુમાર નામના ભવનપતિ દેવે આનદ અનુમવે છે, અથવા જેમ ભદ્રશાલ. સૌમનસ. પડક આદિ સમસ્ત વનેમાં નન્દનવન સર્વોત્તમ છે, કાણુ કે તે દેવાનુ ક્રીડાસ્થાન ગણાય છે, એજ પ્રમાણે ભૂતિપ્રજ્ઞ (જીવ રક્ષાની બુદ્ધિવાળા) ભગવાન મહાવીર For Private And Personal Use Only Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५१० . सूत्रताङ्गसूत्रे (णाणेण) ज्ञानेन-केवलेन च (सीलेण) शीलेन-यथाख्यातचारित्रेण श्रेष्ठ:प्रधानः । यथा सर्व क्षेषु मध्ये देवकुरु व्यास्थित देवताकोडास्थानत्वेन शाल्मली वृक्षः श्रेष्ठः, श्रेष्ठ च नन्दनं वनानाम् । तथा-सर्वेभ्यो ज्ञानशीलाभ्यां भगवान् महावीरः श्रेष्ठ इति भावः ॥१८॥ मूलम्-थेणियं व सदाण अणुत्तरे उ, चंदो ताराण महाणुभावे। गंधेसुँवा चंदणं माह सेंटे, एवं मुंणीणं अपडिन्न माहु।१९। छाया-स्तनितमिव शब्दानामनुत्तरं तु चन्द्र इव ताराणां महानुभावः । गन्धेषु वा चन्दनमाहुः श्रेष्ठ मेवं मुनीनामप्रतिज्ञमाहुः ॥१९॥ धुद्धि वाले) भगवान महावीर ज्ञान, शील और दर्शन में सर्वश्रेष्ठ हैं, क्योंकि वे केवलज्ञानी, यथाख्यातचारित्रवान् और केवलदर्शवान हैं । तात्पर्य-जैसे देवकुरु क्षेत्र में स्थित शाल्मली वृक्ष देवकीड़ा का स्थान होने से सब वृक्षों में उत्तम कहा जाता है और समस्त वनों में नन्दनवन प्रधान कहा जाता है, उसी प्रकार ज्ञान, शील और दर्शन में भगवान महावीर सब से उत्तम हैं ॥१८॥ 'थणियं' इत्यादि। शब्दार्थ-'सदाण-शब्दाना' शब्दों में 'थणियं-स्तनितम् मेघगर्जन 'अणुत्तरे-अनुत्तरं, प्रधान है और 'ताराणं-ताराणां, ताराओं में 'महाणुभावे चंदो-महानुभाव:-चन्द्र:' जैसे महानुभाव चन्द्रमा श्रेष्ठ है तथा 'गंधेलु चंदणं सेट्ठमाहु-गन्धेषु चन्दनं श्रेष्ठमाहुः' गन्धो मे जैसे જ્ઞાન, દર્શન અને શિલમાં સર્વશ્રેષ્ઠ છે, કારણ કે તેઓ કેવળજ્ઞાની, યથાખ્યાત ચારિત્રવાનું અને કેવળ દર્શનવાન છે. તાત્પર્ય એ છે કે દેવકુરુક્ષેત્રમાં ઉત્પન્ન થતું શાલ્મલી વૃક્ષ દેવેનું કીડાસ્થાન હોવાને કારણે જેમ સમસ વૃક્ષે માં શ્રેષ્ઠ ગણુ ય છે અને એજ કારણે જેમ નન્દનવનને સઘળાં વનમાં શ્રેષ્ઠ ગણવામાં આવે છે, એ જ પ્રમાણે જ્ઞાન, દર્શન અને શીલમાં ભગવાન મહાવીરને સર્વશ્રેષ્ઠ માનવામાં આવે છે. ૧૮ 'थणिय' त्या शाय- 'सदाण-शब्दानां' शोभा 'थणियं-स्तनितम्' मे ना 'अणुत्तरे-अनुत्तरम्' म स श्रेष्ठ छ. तथा 'ताराणं-ताराणां' ताराममा 'महाणुभावे चंदो-महानुभावः चन्द्रः' भ महानुभाव मा श्रेष्ठ छे तथा 'गंधेनु चंदणं सेदमाहु-गन्धेषु चन्दनम् श्रेष्ठमाहुः' मघाम म यहनना For Private And Personal Use Only Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ܐ समार्थबोधिनी टीका प्र. क्षु. अ. ६ उ.१ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् ५११ आन्वयार्थ : – (सहाण) शब्दानां मध्ये (व) यथा (थनियं) स्तनितं - मेघगर्जनम् ( अणुत्तरे) अनुत्तरं - प्रधानं भवति (व) इव यथावा (तारा) ताराणां - नक्षत्राणां मध्ये (चंदो महाणुभावे) चन्द्रो महानुभावः - महातेजस्वी अस्ति, तथा - (गंधे चंद सेमा) गन्धेषु गन्धवत्सु द्रव्येषु चन्दनं - गोशीर्षकाख्यं मलयजं वा श्रेष्ठं प्रधानमाहुः कथयन्ति ( एवं ) एवं तथैव (सुगीणं) मुनीनां - महर्षीणां मध्ये (अपडिन्नमाहु) अरतिज्ञ - प्रतिज्ञारहितं महावीरं श्रेष्ठ माहुः - कथनयन्तीति ॥ १९ ॥ टीका' सहाण शब्दानाम् - वीणामृदङ्गशङ्गतुर्यादिजनितानां मध्ये 'थणियं व' स्तनितमित्र - यथा मेघगर्जनम् 'अणुतरे' अनुत्तरं श्रेष्ट नास्ति उत्तरः- प्रधानो यस्मात् तदनुत्तरम् 'उ' तु पुनः 'इव' - यथा- 'ताराण' ताराणां मध्ये चन्दन का गन्ध श्रेष्ठ है 'एवं - एवम्' इसी प्रकार 'मुणी-मुनीनां' मुनियों में 'अपडिन्नमाहु-अप्रतिज्ञमाहु' कामना से रहित ऐसे भगवान् महावीरस्वामी को श्रेष्ठ कहते हैं ॥ १९ ॥ अन्वयार्थ - जैसे समस्त शब्दों में मेघगर्जन प्रधान है, जैसे नक्षत्रों में महान् अनुभाव- प्रकाशवाला चन्द्रमा प्रधान है, जैसे समस्त गंधवाले पदार्थों में चन्दन - गोशीर्ष या मलयज प्रधान है, ऐसा सभी कहते हैं, उसी प्रकार मुनियों में अप्रतिज्ञ महावीर को बुद्धिमान् लोक सर्वश्रेष्ठ कहते हैं अथात् महावीरस्वामी कभी प्रतिज्ञा नहीं करते थे ' साधुको प्रतिज्ञा करने का आचारांग में मना की है ॥ १९ ॥ टीकार्थ- बीणा, मृदंग, शंख, तुरही आदि वाद्यों के शब्दों में मेघों की गर्जना का शब्द अनुत्तर कहलाता है, जैसे समस्त ताराओं अन्ध श्रेष्ठ छे 'एव' - एवम्' ४ प्रमाणे 'मुणी-मुनीनां' भुनियामां 'अपडिव - न्नमाहु - अप्रतिज्ञामाहुः' अमना रहित सेवा लगवान् महावीर स्वामी ने શ્રેષ્ઠકહેવામાં આવે છે, !! ૧૯ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir સૂત્રા—જેમ સમસ્ત શબ્દોમાં મેઘગર્જનાને ઉત્તમ માનવામા આવે છે, જેમ નક્ષત્રોમાં મહાનુભાવ પ્રકાશવાળા ચન્દ્રમાને સર્વોત્તમ માનવામાં આવે છે, જેમ સમસ્ત સુગન્ધયુક્ત દ્રબ્યામાં ચન્દન (ગેાશી) અથવા મલયજ (મલય પર્વતમાં ઉત્પન્ન થતા ચન્તન) ને શ્રેષ્ઠ ગણવામાં આવે છે, એજ પ્રમાણે સમસ્ત મુનિએમાં અપ્રતિજ્ઞ મહાવીરને સશ્રેષ્ઠ ગણવામાં આવે છે, એટલે કે મહાવીર પ્રભુ કદી પ્રતિજ્ઞા કરતા નહીં, આચારાંગમાં સાધુને પ્રતિજ્ઞા કરવાના નિષેધ કરવામાં આવેલ છે. ૧૯ના टीडार्थ प्रेम वीषा, भृहंग, शाम, आहि वाधीना भवान् ४२तां મેઘાની ગર્જનાના અવાજને શ્રેષ્ઠ ગણવામાં આવે છે, જેમ સમસ્ત તારાઓ, For Private And Personal Use Only Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे 'चंदों' चन्द्रः 'महाणुभावे' महानुभावः-सकलजनमऽह्लादक: परमतेजस्वितया सकलतिमिरनाशकः, ताराणां मध्ये महानुभावश्चन्द्रो यथा श्रेष्ठः। 'वा' यथा वा 'गंधेसु' गन्धवत्सु कोष्ठपुटादि सकलपदार्थेषु मध्ये 'चंदणं' चन्दनम् उक्तश्च 'मलये जायमाना ये सर्वे चन्दनतां गताः । गोशीर्ष चन्दनं जात्या सर्वत्रैव निगद्यते ॥१॥ 'सेटु' श्रेष्ठम् 'आहे' आहुः-कथयन्ति, 'एवं' एवमेव 'मुणीण' मुनीनाम् , संपातज्ञानदर्शनचारित्ररत्नत्रयक्तांमध्ये 'अपडिन्नमाहु' अप्रतिज्ञम्-इहलोकपरलोकविषयकपतिज्ञारहितं-महावीरं-श्रेष्ठमाहुः-कथयन्ति ॥१९॥ मूलम्-जहा सयंभू उदहीण सेढे, नागसु वा धरणिंदमाहु सैटे। खोओदए वा रेसवेजयंते, तबोवहाणे मुणि वेजयंते ॥२०॥ छाया-यथा स्वयम्भू रुदधीनां श्रेष्ठो नागेषु वा धरणेन्द्रमाहुः श्रेष्ठम् । क्षोदोदको वा रसवैजयन्तः तप उपधाने मुनि वैजयन्तः ॥२०॥ में चन्द्रमा समस्त जनों के मन को आह्लाद देने तथा परम उद्योतमय होने से महानुभाव कहा जाता है या कोष्ठ पुट आदि समस्त सुगंधवान् पदार्थों में चन्दन प्रधान कहा जाता है, कहा भी है'मलये जायमाना ये' इत्यादि । ___ मलय पर्वत पर जो भी उत्पन्न हो जाता है, वही चन्दन पन जाता है। गोशीर्ष चन्दन अपनी उत्तम जाति के कारण सर्वत्र प्रशंशित होता है ॥१॥ इसी प्रकार समस्त मुनियों में इह लोक परलोक संबंधी प्रतिज्ञा से रहित महावीर भगवान् सर्वश्रेष्ठ कहे जाते हैं ॥१९॥ નક્ષત્રો અને ગ્રહોમાં ચન્દ્રમાને સૌથી વધારે મહાનુભાવ કહેવામાં આવે છે (કારણ કે ચન્દ્રમાં સમસ્ત જનેતાના ચિત્તને આહ્લાદ દાયક લાગે છે તથા સૌથી વધારે ઉદ્યોતમય છે), તથા જેમ કેષ્ઠ, પુટ આદિ સુગન્ધયુક્ત દ્રામાં ચન્દનને પ્રધાન (ઉત્તમ) કહેવામાં આવે છે, કહ્યું પણ છે કે'मलये जायमाना ये' त्याह- . “મલય પર્વત પર જે કંઈ પણ ઉત્પન્ન થાય છે, એજ ચન્દન બની જાય છે. ગશીર્ષ ચન્દન તેની ઉત્તમ જાતિને કારણે સર્વત્ર વખણાય છે, ૧૫ એજ પ્રમાણે સમરત મુનિએમાં, આ લેક અને પરલોક સંબંધી પ્રતિજ્ઞા (આકાંક્ષા) થી રહિત મહાવીર પ્રભુને સર્વશ્રેષ્ઠ કહેવાયાં આવે છે૧૯ For Private And Personal Use Only Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. थु. अ. ६ उ. १ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् ५१३ अन्वयार्थः - (जहा) यथा ( उदहीणं) उदधीनां समुद्राणाम् मध्ये (सयंभू से) स्वयंभूरमणः समुद्रः श्रेष्ठः प्रधानः (नागेनु) नागेषु नागकुमारेषु (धरणिदं सेमाहु) धरणेन्द्र तन्नामकन्द्र श्रेष्ठ माहुः (खोओदए वा रसवे जयंते) क्षोदोदक:-इक्षु रसोदकः समुद्रो वा रसवैजयन्तो रसवत्सु प्रधानः, तथा - ( तवोवहाणे) तप उपधाने विशिष्टतयविशेषे (मुणि वेजयं ने) मुनिवैजयन्तः- मुनिर्भगवान् महावीरो वैजयन्तःप्रधान इति ||२०|| 'जहा सयंभू' इत्यादि । शब्दार्थ - 'जहा - यथा' जैसे 'उदहीणं उदधीनाम्' समुद्रों में 'सयंभूसेडे- स्वयंभू श्रेष्ठ' स्वयंभूरमण समुद्र श्रेष्ठ है 'नागेसु - नगेषु' तथा नागकुमारों में 'धरणिंदे से आहु-धरणेन्द्रं श्रेष्ठम् आहुः' धरणेन्द्र को श्रेष्ठ कहते हैं 'खोओदए वा रसवे जयंते- इक्षुदको वा रसवैजयन्तः ' इक्षुरसोदकसमुद्र सब रस वालों में उत्तम है तथा 'तोषहाणे- तप उपधाने' इसी प्रकार विशिष्ट तप के द्वारा 'मुणिवे जयंते - मुनिवैजयन्तः ' मुनि श्री भगवान् महावीर स्वामी सबसे प्रधान है | २०|| अन्वयार्थ - जैसे समुद्रो में स्वयंभूरमण समुद्र सबसे प्रधान है, नागकुमारों में धरणेन्द्र नामक इन्द्र प्रधान है, इक्षुरसोदक नामक समुद्र (शेलडी के रस युक्त समुद्र) समस्त रसवानों में श्रेष्ठ है, उसी प्रकार समस्त तपस्वियों में मुनि भगवान् महावीर सर्वश्रेष्ठ हैं ॥२०॥ 'जहा सयंभू' त्याहि शब्दार्थ' - 'जहा-यथा' ने प्रमाणे 'उदहोणं- उदधीनाम्' समुद्रोभां 'सयंभूसेट्ठे- स्वयंभूश्रेष्ठः स्वयंभूरभाष समुद्र श्रेष्ठ छे. 'नागेसु-नागेषु' तथा नामभरोमां 'धिरणिंदे सेट्टे आहु-धरणेन्द्रं श्रेष्ठम आहुः ' घरवेन्द्र श्रेष्ठ 8डे छे. 'खोओदए वा रसवेजयंते - इक्षुदको वा रस वैजयन्तः' क्षुि रसेोडशसमुद्र मधा ४ २सवाणायामां श्रे४ छे तथा 'तवोवहाणे-तप उपधाने' प्रमाणे विशेष प्रारना तप द्वारा 'मुणिवेजय 'ते - मुनिवैजयन्तः ' भुनि श्री महावीर स्वाभी સૌથી પ્રધાન છે ॥ २० ॥ સૂત્રા”—જેમ સમુદ્રોમાં સ્વયંભૂમણું સમુદ્ર સર્વોત્તમ છે, તથા નાગ કુમારામાં જેમ ધરણેન્દ્ર નામના ઈન્દ્ર શ્રેષ્ઠ છે, અને સમસ્ત રસયુક્ત પદાર્થોમાં ઇક્ષુરસાદક નામના સમુદ્ર શ્રેષ્ઠ છે, એજ પ્રમાણે સાસ્ત તપસ્વીએમાં ભગવાન મહાવીર સશ્રેષ્ઠ છે. ારના सु० ६५ For Private And Personal Use Only Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतास्त्रे टीका-'जहा' यथा 'उदहीण' उदधीनाम्-इर्दधि, क्षीरोदधि, घृयोदध्यादि समुद्राणां मध्ये 'सयंभू' स्वयम्भूरमणः, स्वयमेव भवन्तीति स्वयम्भुवो देवा स्तेषामानन्दस्थानं स्वयम्भूरमणः। स समुद्रः सहद्राणां मध्ये यथा श्रेष्ठः । यथा वा-'नागेसु' नागकुमारदेवेषु 'धरमिंद' धरणेन्द्रम् तन्नामकमिन्द्रम् 'सेट्टे आहु' श्रेष्ठमाहुः-कथयन्ति 'खोओदए वा रसवेजयंते' क्षोदोदको वा रसवैजयन्तः, क्षोदः-इक्षुरस इव उदकं जलं यस्य स क्षोदोदकः, स यथा-रसमाश्रित्य स्वकीय रसगतगुणविशेषैः इतरेषां समुद्राणां मुनि पताकेव व्यवस्थितः। तथा-'तवोव हाणे' तप उपधाने-इहलोकपरलोकसंसारहिततीव्रतपसि 'मुगिवेजयंते' मुनिजयन्तः, मनुते-त्रसस्थावरात्मकलोकस्य त्रैकालिकीमवस्थां जानातीति मुनि: टीकार्थ-जैसे इक्षुदधि, क्षीरोदधि, घृतोदधि, आदि समुद्रों में स्वयंभूरमण समुद्र प्रधान श्रेष्ठ है । जो स्वयं ही उत्पन्न होते हैं, वे स्वयंभू कहलाते हैं, अर्थात् देव, वे जिस समुद्र में रमण (क्रीडा) करते हैं, वह स्वयंभूरमण कहलता है । अथवा जैसे नागकुमार देवों में धरण नामक इन्द्र (धरेणेन्द्र) श्रेष्ठ कहा गया है, और जैसे इक्षुरसोद नामक समुद्र रसवाले पदार्थों में प्रधान है, क्योंकि उसका जल इक्षु के रस के समान है, अर्थात् अपने रसगुण की विशिष्टता के कारण सब समुद्रों में वह सर्वोत्तम मानाजाता है, उसी प्रकार ऐहिक और पारलौकिक आकांक्षा से रहित घोर तपस्या के कारण भगवान महावीर पताका के समान मुनियों में प्रशान हैं । जो उस स्थावर रूप लोक की त्रैकालिक ટીકાર્થ–દધિ, ક્ષીર દધિ, વૃદધિ, આદિ સમુદ્રમાં સ્વયંભૂરમણ સમુદ્ર પ્રધાન (શ્રેષ્ઠ) ગણાય છે. જેમાં સ્વયં-એટલે કે પોતાની મેળેજ-પેદા થાય છે, તેમને સ્વયંભૂ કહે છે, એટલે કે દેવેને અહીં સ્વયંભૂ કહ્યા છે. તેઓ જે સમુદ્રમાં રમણ (ક્રીડા) કરે છે, તે સમુદ્રને સ્વયંભૂરમણ કહે છે. મહાવીર પ્રભુને અહી સ્વયંભૂરમણ સમુદ્ર જેવાં સર્વશ્રેષ્ઠ મુનિ કહેવામાં આવેલ છે. અથવા-જેમ નાગકુમાર દેશમાં ધરણ નામના ઈન્દ્રને શ્રેષ્ઠ ગણવામાં આવે છે, અને જેમ ઈક્ષુરસદ નામના સમુદ્રને સમસ્ત રસવાળા પદાર્થોમાં શ્રેષ્ઠ માનવામાં આવે છે (કારણ કે તેનું પાણી શેરડીના રસ જેવું મીઠું છે.) એટલે કે પિતાના રસગુણની વિશિષ્ટતાને કારણે ઈશુરસદ સમુદ્રને સઘળા સમુદ્રોમાં શ્રેષ્ઠ માનવામાં આવે છે, એ જ પ્રમાણે એહિક અને પારલૌકિક આકાંક્ષાઓથી રહિત, ઘેર તપસ્યાને કારણે ભગવાન મહાવીરને પતાકાના સમાન મુનિયામાં પ્રધાન માનવામાં આવે છે, જેઓ ત્રસ સ્થાવર રૂ૫ લેકની For Private And Personal Use Only Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir arraft टीका प्र. शु. अ. ६ उ. १ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् ५१५ सामान्य केवली तस्य बहुवचने मुनय स्तेषां मध्ये भगवान् महावीरः वैजयन्तःपताकेव प्रधानः, सम्पूर्णस्य लोकस्य वैजयन्ती इव उपरि व्यवस्थितः केवलज्ञानादिगुणैस्तपोभिरिति भावः ||२०|| मूलम् - हेत्थीसु ऐरावण माहु णाए, सीही मिंगाणं सलिलाण गंगा । पंक्खीसु वा गेरुले वेणुदेवो, निवाणवादीणिह णायपुते । २१ । छाया - हस्तिजीराव तमाहुः ज्ञातं सिंहो नृपाणां सलिलानां गङ्गा । पक्षिपु वा गरुडो वेणुदेवो निर्वाणवादिना मिह ज्ञातपुत्रः ||२१|| अवस्थाओं को मनन करता है अर्थात् जानता है वह सामान्य केवली कहा जाता है, यहाँ सामान्य केवली शब्द से मुनि विवक्षित है। उनमें तीर्थकर होने से भगवान् महावीर प्रभु प्रधान हैं। आशय यह है कि भगवान् अपनी अद्भुत तपस्या के कारण सम्पूर्ण लोक के ऊपर पताका के समान हैं ॥ २० ॥ 'हत्थी' इत्यादि । शब्दार्थ- 'हत्थीसु - हस्तिषु' हाथियों' में 'णाए ज्ञातं ' जगत्प्रसिद्ध ऐसे 'एरावणमाहु- ऐरावतम् आहुः' ऐरावत हाथी को प्रधान कहते हैं 'मिगाणं सीहो- मृगाणां सिंह: ' मृगो में सिंह प्रधान है 'सलिलाणं गंगा-सलि लानां गंगा' एवं जलों में गंगा प्रधान है अथवा 'पक्खीसु वा गरुले वेणुदेवो - पक्षिषु मध्ये गरुडो वेणु देवः' पक्षियों में वेणु देव गरुड प्रधान ત્રૈકાલિક અવસ્થાઓનુ` મનન કરે છે, એટલે કે જાણે છે, એવા સામાન્ય કૈવલીને અહી મુતિ કહેવામાં આવેલ છે. એવાં મુનિએમાં તીથ કર હવાને કારણે, મહાવીર પ્રભુ શ્રેષ્ઠ છે. તાત્પર્યં એ છે કે ભગવાન મહાવીર પાતાની ધાર તપસ્યાને કારણે સપૂર્ણ લેકની ઉપર પતાકાના સમાન સર્વોચ્ચ સ્થાન ધરાવે છે–તેમની ઘેર તપસ્યાને કારણે સૌથી વધારે યશકીર્તિ ધરાવે છે. ઘરના 'Cafig' Scule - शब्दार्थ- 'हुत्थीमु-हस्तिपु' थियोभां 'णाए - ज्ञातं' ४गत्प्रसिद्ध मेवा 'रावण माहु- ऐरावतम् आहु:' भैरावत हाथीने प्रधान वामां आवे छे. 'मिगाण' सीहो - मृगाणां सिंह:' भृगोभां सिद्ध प्रधान थे. 'सलिलाणं गंगा-सलिलानां गंगा' भेन प्रभाषे नवमां गंगा प्रधान छे अथवा 'पक्खिसु वा गढले वेणुदेवो - पक्षिषु वा मध्ये गरुडो वेणुदेवः' पक्षियेोभां वेणुदेव-३ड प्रधान छे. 'निव्वाणवादी जिह For Private And Personal Use Only Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ५१६ सूत्रकृताङ्ग सूत्रे अन्वयार्थ - ( हत्थी सु) हस्तिषु ( णाए ) ज्ञातं - जगत्मसिद्धम् (एरावणमाहु) --- 9 ऐरावतं शक्रवाहनं प्रधानमाहुः कथयन्ति यथा वा (मिगाणं सीहो) मृगाणां मध्ये सिंहः प्रधानः, तथा भरत क्षेत्रापेक्षया (सलिलाग गंगा) सलिलानां जलानी मध्ये गङ्गा श्रेष्ठा, यथा वा (पक्वीसु वा गरुचे वेणुदेवो) पक्षिषु मध्ये गरुडो वेणुदेवापरनामकः प्रसिद्धः तथा - ( इह ) इह संसारे (निव्वाणादीणिह) निर्माण बादिनामिह मोक्षवादिनां मध्ये (णायपुत्ते) ज्ञातपुत्रो महावीरः प्रधान इति ॥ २१ ॥ टीका- ' इत्थीसु' हस्तिषु 'गाए' ज्ञातं जगत्पसिद्धम्, 'रावण' ऐरावतम् इन्द्रस्य हस्तिनं श्रेष्ठमाहुः, यथा वा 'मिगाणं' मध्ये 'सीडो' सिंह:- केशरादिमान् मृगराजः श्रेष्ठः प्रसिद्धो लोके । यथा वा - 'सलिळाणगंगा' सलिलानां - जलानां है 'निव्वाणवादीणिह निर्वाणवादिना मिह' इस संसार में मोक्षवादियों में 'णायपुत्ते- ज्ञातपुत्र:' भगवान् महावीर स्वामी प्रधान है ॥ २१ ॥ अन्वयार्थ - हाथियों में जगप्रसिद्ध शक्र का वाहन ऐरावत हाथी प्रधान कहा जाता है, अथवा जैसे भरतक्षेत्र की अपेक्षा से मृत पशुओं में सिंह प्रधान है अथवा जलों में गंगा महानदी का जल प्रधान है, अथवा पक्षियों में वेणुदेव अर्थात् गरुड़ प्रसिद्ध है, उसी प्रकार इस लोक में समस्त निर्वाणवादियों में ज्ञातपुत्र महावीर स्वामी प्रधान हैं ॥२१॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टीकार्थ - ऐरावत हाथी जो इन्द्र के वाहन रूप में प्रसिद्ध है, वह समस्त हाथियों में श्रेष्ठ कहलाता है, अथवा जैसे लोक के सब पशुओं में सिंह श्रेष्ठ है, अथवा जैसे जलों में गंगा का जल प्रधान है, अथवा निर्वाणादीनामिह निर्वाश्वाहियो मां-मेटोडे भोक्ष वाहियां 'णायते ज्ञातપુત્ર: ભગવાન્ મહાવીર સ્વામી આજગમાં પ્રધાન છે. ।। ૨૧૫ સૂત્રાય—જેમ સઘળા હાથીયામાં ઈન્દ્રના વાડન રૂપ અરાવત હાથી શ્રેષ્ઠ ગણાય છે, અથવા જેમ ભરતક્ષેત્રમાં સઘળાં પશુએામાં સિંહ પ્રધાન (શ્રેષ્ડ) ગણાય છે, અથવા જેમ ધી નદીએનાં પાણી કરતાં ગગાનદીનું પાણી શ્રેષ્ઠ ગણાય છે, અથવા જેમ પક્ષીએમાં વેણુદેવ અર્થાત્ ગરુડ સૌથી પ્રસિદ્ધ છે, એજ પ્રમાણે આ લેકના સઘળા નિર્વાણુ વાદીઓમાં જ્ઞાતપુત્ર (महावीर) सर्वोत्तम छे. ॥२१॥ ટીકા”—શકેન્દ્રનું વાહન ઐરાવત નામના હાથી છે. તે અરાવત સઘળા હાથીઓમાં શ્રેષ્ઠ કહેવાય છે–જેમ આ લોકના સઘળાં પશુએ માં સિંહ શ્રેષ્ઠ કહેવાય છે. જગતની બધી નદીઓનાં :જળ કરતાં ગંગા મહાનદીનું For Private And Personal Use Only Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 'मार्थबोधिनी टीका प्र. भु. अ. ६ उ. १ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् ५१७ मध्ये यथा - गङ्गासलिलं प्रधानम् । 'एक्खीसु' पक्षिषु मध्ये, यथा- 'वेणुदेवे गरुले ' वेणुदेव द्वितीय नाम विद्यते यस्य इत्थंभूतो गरुडो विशिष्टः- प्राधान्यमुपगतः, एवम्- 'दिव्राणवाईग मिद' इह प्रस्मिन् क्षेत्रे निर्वागिवादिनाम्, तत्र निर्वाणं मोक्ष', सिद्धिक्षेत्र, कपनयनरूपं वा स्वरूपतः तदुपायभूत ज्ञानदर्शन वारित्रतपः प्राप्तिहेतुतो वा वदितुं प्राशयितुं शीलं विद्यते येषां ते निर्माणवादिनः तेषां निर्वाणवादिनां मध्ये 'णायपुते' ज्ञातपुत्रः ज्ञातः क्षत्रियस्तस्य पुत्रः - श्री महावीरस्वामी तीर्थकरः प्रधानः । यथावस्थित निर्वाणार्थमख्यापकत्वात् । यथा हस्तिषु श्रेष्ठ ऐरावतः, यथा वा वन्येषु केशरी, जलेषु गङ्गाजलम् पक्षिषु गरुडः, तथामोक्षत्रादिषु आस्तिक समुदायेषु भगवान महावीर एव श्रेष्ठो नान्यः कश्चनेति ॥ २१ ॥ जैसे पक्षियों में वेणुदेव अपर नामबाला गरुड प्रचान है उसी प्रकार निर्वाणवादियों में ज्ञातपुत्र भगवान् महावीर श्रेष्ठ हैं । यहाँ निर्वाण का अर्थ है मोक्ष या सिद्धिक्षेत्र या समस्त कर्मों का क्षय अथवा निर्वाण के उपाय सम्यग्दर्शन आदि । ज्ञातवंशीय क्षत्रीय होने से भगवान् 'ज्ञातपुत्र या 'नायपुत्त' कहलाते हैं । ज्ञालपुत्र भगवान महा वीर ने मोक्ष के स्वरूप और साधनों का यथातथ्य प्ररूपण किया है, अतएव वे मोक्षवादियों में प्रधान कहे जाते हैं । अभिप्राय यह है कि जैसे हाथियों में ऐरावत, पशुओं में सिंह, नदियों में गंगा और पक्षियों में गरुड़ प्रधान है, उसी प्रकार निर्वाणबादी आस्तिकों में भगवान महावीर ही श्रेष्ठ हैं, ॥२१॥ જળ શ્રેષ્ઠ ગણાય છે. પક્ષીએમાં ગરુડ નામનુ' પક્ષી, કે જેનુ` ખીજુ` નામ વેણુદેવ છે, તે શ્રેષ્ઠ ગણુાય છે. એજ પ્રમાણે જગતના સમસ્ત નિર્વાણુવાદીઓમાં જ્ઞાતપુત્ર ભગવાન્ મહાવીર શ્રેડે છે. અહીં નિર્વાણુ એટલે મેક્ષ અથવા સિદ્ધિક્ષેત્ર અથવા સમસ્ત કર્મોના ક્ષય અથવા નિર્વાણુના ઉપાય રૂપ સમ્યગ્દન આર્દિ અથ ગ્રતુણુ થવા જોઈએ. ભગવાન મહાવીર જ્ઞાતવ’શમાં ઉત્પન્ન થયેલા. હાવાથી તેમને ‘જ્ઞાતપુત્ર’ અથવા ‘નાયપુત્ત’કહેવાય છે. સતપુત્ર ભગવાન્ મહાવીરે મેક્ષના સ્વરૂપનું તથા મેક્ષપ્રાપ્તિનાં સાધનેનુ' યથાથ રૂપે પ્રતિપાદન કર્યુ છે, તેથી જ તેમને શ્રેષ્ડ મેક્ષવાદી કહેવામાં આવ્યા છે. c. તપ એ છે કે જેમ હાથીએમાં અરાવત, પશુએમાં સિંહ, નદીઓનાં જળમાં ગંગાનું જળ અને પક્ષીઓમાં ગરુડ પ્રસિદ્ધ છે, એજ પ્રમાણે નિર્વાણુવાદી આસ્તિકામાં ભગવાનૂં મહાવીર જ શ્રેષ્ઠ છે ૨૧૫ For Private And Personal Use Only Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ५१८ मूलम् - जोहेसुं गाए जह बीससेणे, Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतानं सूत्रे पुप्फेसु वा जेह अरविंद मेहु | खेत्तीण सेट्टे" जंह दैतवक्के, इसी सेट्टे" तेंह वैद्धमाणे ॥ २२॥ छाया - योधेषु ज्ञातो यथा विश्वसेन, पुष्पेषु वा यथाऽरविन्दमाहुः । क्षत्रियाणां श्रेष्ठो यथा दान्तवाक्यः, ऋषीणां श्रेष्ठ स्तथा वर्षमानः । २२ । आन्वयार्थः - (जह 1 ) यथा - ( जाए) ज्ञातो जगत्प्रसिद्ध: (बीससेणे) विश्वसेनः (जोहेसु) योधेषु श्रेष्ठः (जहा) यथा वा (पुप्फे ) पुष्पेषु (अरविंदमाहु) अरविन्दम् 'जोहेसु णाए' इत्यादि । शब्दार्थ- 'जहा - पथा जैसे 'णाए ज्ञातः' जगत प्रसिद्ध 'बीस सेणेविश्वसेनः, विश्वसेन 'जोहेसु-पोद्वेषु' योद्धाओं में 'सेहे श्रेष्ठ' श्रेष्ठ है 'जहा - यथा' जैसे 'पुष्फेसु-पुष्पेषु' पुब्दों में 'अरविंदमाहु-अरविंदम् आहुः' कमलको प्रधान कहते हैं 'जहा -यथा' जैसे 'खत्तीणंक्षत्रियाणां क्षत्रियों के मध्य में 'दंतवक्के सेट्ठे-दान्तवक्यः श्रेष्ठ: ' दान्तवाक्य- चक्रवर्ती श्रेष्ठ है 'तह तथा' इसीप्रकार 'इसीण ऋषीणां' ऋषियों में 'वद्धमाणे सेट्टे-वर्द्धमानो श्रेष्ठ : वर्द्धमान महावीर स्वामी ही श्रेष्ठ है ||२२|| अन्वयार्थ - जैसे योद्धाओं में जगप्रसिद्ध विश्व सेन चक्रवर्ती श्रेष्ठ है जैसे पुष्पों में कमलपुष्प प्रधान है अथवा जैसे क्षत्रियों में दान्तवाक्य चक्रवर्ती श्रेष्ठ है, उसी प्रकार ऋषियों में वर्द्धमान महावीर श्रेष्ठ हैं ॥२२॥ For Private And Personal Use Only 'जो सुनाए ' शब्दार्थ-'जहा-यथा' ? प्रभाये 'णाए - ज्ञातः' ४ प्रसिद्ध 'वीससेणे - विश्वसेनः ' विश्वसेन थडवत 'जोहे सु- योद्धेषु' योध्धायां 'सेट्टे श्रेष्ठः' श्रेष्ठ छे भने 'जहा - यथा' ? प्रभाये 'पुप्फेसु-पुष्पेषु' पुण्याम 'अरवि ंद माहु - अरविन्दम् आहु: ' उभजने प्रधान देशमां आवे छे. 'जहा - यथा'ने प्रमः ये 'खत्तींग - क्षत्रियाणां ' क्षत्रियामां 'दंतवक्के सेट्ठे - दान्तवाक्यः श्रेष्ठः ' हांतवास्य यवर्ती श्रेष्ठ छे. 'तह - तथा' मे प्रभा 'इसीण - ऋषीणां' ऋषियोमा 'वद्धमाणे सेहे - वर्धमानो श्रेष्ठः ' वर्द्धमान महावीर स्वामी श्रेष्ठ छे. ॥ २२ ॥ સૂત્રા—જેમ યે।દ્ધાએ માં જગતવિખ્યાત વિશ્વસેનને શ્રેષ્ઠ ગણવામાં આવે છે, જેમ પુષ્પમાં કમળને શ્રેષ્ઠ ગણુવામાં આવે છે, જેમ ક્ષત્રિયા માં Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. शु. अ. ६ उ. १ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् ५१९ - कमलं प्रधानमाहुः - कथयन्ति ( जहा ) यथा वा (खतीणं) क्षत्रियाणां मध्ये (iaeos सेट्टे) दान्तवाक्यः चक्रवर्ती श्रेष्ठः (तह) तथा (इसीण) ऋषीणां मध्ये ( वद्धमाणे) वर्द्धमानो महावीरः (सेडे) श्रेष्ठः प्रधान इति ॥ २२ ॥ - " टीका- 'जहा ' यथा 'णार' ज्ञातो जगति प्रसिद्धः 'जोहेमु' योधेषु 'वीस सेणे' विश्वसेनः - चक्रवर्ती, यथा योधेषु प्रधानतया लोके प्रसिद्धः । 'जह' यथा वा 'पुष्फेन ' पुण्पेषुचकुलमन्दारकम्पकादिषु बहुषु अरविन्दं - नीलोवलं श्रेष्ठमाहुः, पुष्षाणां गुणाऽवगुणज्ञातारः, 'ज' यथा - 'खसीण' क्षत्रियाणां मध्ये दंतश्वके' दान्तवाक्यः क्षतान्नाशात् श्रायन्ते रक्षन्ति ये ते क्षत्रियाः ते क्षत्रियाणां मध्ये दान्तवाक्यः क्षत्रिय इव दान्ताः उपशान्ताः वाक्यादेव शत्रवो यस्य स दान्तवाक्य:- चक्रार्त्ती । यद्यपि विश्वसेनदान्तवाक्यावुभावपि चक्रवर्त्तिनौ तयोरेकस्यैव कथनेन निर्वाहात् उमः कथनेन पुनरुक्तिरूपा शङ्का , टीकार्थ - जिस प्रकार समस्त योद्धाओं में, जगत् में प्रख्यात विश्वसेन नामक चक्रवर्ती प्रधान कहा जाता है, अथवा जैसे बकुल मन्दार चम्पक आदि बहुत प्रकार के पुष्पों में पुष्पों के गुणावगुणों के ज्ञाता अरविन्द अर्थात् नील कमल के पुष्प को श्रेष्ठ कहते हैं, अथवा जैसे समस्त क्षत्रियों में 'क्षत अर्थात् नाश से त्राण अर्थात् रक्षण करने वाला क्षत्रिय कहलाता है' दान्तवाक्य प्रधान कहा जाता है, क्योंकि जिसके वचन मात्र से शत्रु दान्त अर्थात् उपशान्त होजाएँ उसे 'दान्त वाक्य' कहते हैं । यद्यपि विश्वसेन और दान्तवाक्य दोनों चक्रवर्ती हैं, इनमें से किसी एक का ही ग्रहण करने से काम चल सकता है, अतः दोनों का ही ग्रहण करना पुनरुक्ति है, ऐसी अशंका की जा દાન્તવાકય ચક્રવતી ને શ્રેષ્ઠ ગણવામાં આવે છે, એજ પ્રમાણે સમસ્ત ઋષિએમાં વમાન મહાવીર સ્વામી શ્રેષ્ઠ છે. રસા ટીકા”—જેવી રીતે સમસ્ત ચૈદ્ધાઓમાં વિશ્વસેન ચક્રવત્તા પ્રસિદ્ધ થઈ ગયેા છે, અથવા જેમ બકુલ ચંપા, ગુલામ આદિ સઘળાં લામાં, ફૂલના ગુણુાવગુણુના જાણુકારા, અરવિંદ-નીલકમળને શ્રેષ્ઠ કહે છે, અથવા જેમ સમસ્ત ક્ષત્રિયામાં (ક્ષત એટલે નાશ. નાશમાંથી ત્રાણુ-રક્ષણ કરનારને ક્ષત્રિય કહે છે (દાન્તવાય સર્વશ્રેષ્ઠ ગણુાય છે) કારણ તેના અવાજ માત્ર સાંભળતાં જ શત્રુએ દાન્ત એટલે કે ઉપશાન્ત થઈ જતા. જેનેા અવાજ સાંભળતાં જ શત્રુએ દાન્ત થઈ જાય છે, તેને દાન્તવાકય કહે છે એજ પ્રમાણે ઋષિયામાં શ્રી વર્ધમાન મહાવીર સ્વામી શ્રેષ્ઠ છે. શ’કા–વિશ્વસેન અને દાન્તવાય. ા અને ચક્રવતીએ છે. તેથી અહી પુનરુક્તિ દોષ For Private And Personal Use Only Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir न ५२० जायते तत्राह-योधेषु प्रधानत्शन वाक्यमभावशालित्वात्, अर्थभेदेनोभयोः पार्थक्येन ग्रहणात् न पुनरुक्तिः । 'तह' तथा-'इसीण' ऋषीणां-तपस्विनां मध्ये 'वद्धमाणे' श्रीवर्द्धमानः 'सेहे' श्रेष्ठः, इतः पुरा प्रशस्यप्रशस्यतरमशस्यतमादिना दृष्टान्तेन भगवतः स्वरूपमुवर्णितवान् । तदधुना तानेव दृष्टान्तान् प्रदर्य दार्शन्तिकं भगवन्तं नामग्रहणेन निर्दिष्टवान् । यथा योधेषु विश्वसेनः, यथा वा पुष्पेषु नीलमुत्पलम् , क्षत्रियेषु चक्रवर्ती, तथा तपश्चाता मध्ये भगवान बर्द्धमानस्वामी श्रेष्ठ इति ।।२२। मूलम्-दाणाण से, अभयप्पयाणं, सच्चेसु वा अणवज्जं वयंति । तैवेसु वा उत्तमभचेरं लोगुत्तमे समैणे नायपुत्त॥२३॥ सकती है, किन्तु इनमें से एक योद्धाओं में प्रधान है और दुमरा प्रभा. वशाली वाक्य वाला है। इस प्रकार दोनों के अर्थ में भेद होने से पुनरुक्ति नहीं समझनी चाहिए। उसी प्रकार ऋषियों में श्रीवर्द्धमान श्रेष्ठ हैं। इससे पूर्व प्रशस्य, प्रशस्यतर और प्रशस्यतम आदि दृष्टान्तों द्वारा भगवान् के स्वरूप का वर्णन किया था, अप उन्हीं दृष्टान्तों को दिखलाकर दार्शन्तिक भगवान् का नामोल्लेख करके निर्देश किया है। जैसे योद्धाओं में विश्वसेन, पुष्पों में नीलकमल का पुष्प, क्षत्रियों में दान्तवाक्य चक्रवर्ती प्रधान है, उसी प्रकार तपस्वियों में बर्द्धमान् स्वामी श्रेष्ठ हैं ॥२२॥ થત લાગે છે. બનેમાંથી કઈ પણ એકની ઉપમા આપી હતી તે કામ ચાલી શકત. सभाधान-विश्वसेन योद्धाममा प्रधान तो, भने हन्त ४५ पला. શાળી વાકયવાળા હતા. આ કારણે તે બને ચકાતીઓમાં ખાસ વિશિષ્ટતા હેવાથી અને બંનેના અર્થમાં ભેદ આવતે હેવાથી ઉપમામાં પુનરુક્તિ દોષનો સંભવ રહેતે નથી આગળ પ્રશસ્ય પ્રશસ્યતર, અને પ્રશસ્યતમ આદિ દુષ્ટ તે દ્વારા મહાવીર પ્રભના સ્વરૂપનું વર્ણન કરવામાં આવ્યું છે, હવે એજ દષ્ટાતને આધારે દાર્જીન્તિક ભગવાનના નામનો ઉલ્લેખ સાથે નિર્દેશ કરવામાં આવે છે જેમ દ્ધાઓમાં વિશ્વસેન, પુમાં નીલકમલ, અને ક્ષત્રિમાં દાન્ત વાક શ્રેષ્ઠ ગણાય છે, એ જ પ્રમાણે તપસ્વીઓમાં વર્ધમાન સ્વામી શ્રેષ્ઠ છે. મારા For Private And Personal Use Only Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थघोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ६ उ.१ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् ५२१ .. छाया-दानानां श्रेष्ठमभयपदानं सत्येषु वा अनवद्यं वदन्ति । तप सु वा उत्तमं ब्रह्मचर्य लोकोत्तमः श्रमणो ज्ञातपुत्रः ॥२३॥ अन्वयार्थ:-(दाणाणं) दानानां मध्ये यथा-(अभयप्पयाणं) अभयप्रदानंमाणदानं (सेटं) श्रेष्ठं-प्रधानम् (पच्चेम) सत्येषु वाक्येषु (अणवज्ज) अनवयं-निरवयं-परपीडाऽनुत्पादकं वाक्यं श्रे ठम् (वयंति) वदन्ति-कथयन्ति, (तवेसु) तपस्सु मध्ये (बंभचेरं उत्तम) ब्रह्मचर्य नववाटिकोपेतं ब्रह्मचर्यम् (उत्तम) उत्तम प्रधानं तथैव (समणे) श्रमणः (नायपुत्ते) ज्ञातपुत्रो बर्द्धमानः (लोगुत्तमे) लोको. त्तमः-त्रिलोके वृत्तमः ॥२३। 'दाणाण सेटुं' इत्यादि। शब्दार्थ-'दाणाण-दानानां' मय प्रकार के दानों में 'अभयप्पयाणं -अभयप्रदानम्' अभयदान 'सेहूं-श्रेष्ठम्' उत्तम है 'सच्चेसु-सत्येषु' सत्यवचनों में 'अणवर्ण-अनवद्यम्' जिससे किसीको पीडा न हो ऐसा सत्य श्रेष्ठ है ऐसा 'वयंति-वदन्ति' कहते हैं 'तवेसु-तपरसु' तपों में 'बंभचेरं उत्तमं-ब्रह्मचर्यम् उत्तमम्' नव कोटियुक्त ब्रह्मचर्य श्रेष्ठ है इसी प्रकार 'समणो-श्रामणः' इस लोक में श्रमग भगवान् 'नायपुत्ते-ज्ञातपुत्रः' ज्ञात पुत्र वर्द्धमान स्वामी 'लोगुत्तमे-लोकोत्तमः, सबसे उत्तम नाम श्रेष्ठ है ॥२३॥ _ -अन्वयार्थ-जैसे समस्त दानों में अभयदान प्रधान है, सत्य वाक्यों में अनवद्य अर्थात् जो परपीडाजनक न हो ऐसा निरवद्य वाक्य श्रेष्ठ है और तपो में नववाड़ युक्त ब्रह्मचर्य प्रधान है, उसी प्रकार श्रमण ज्ञातपुत्र वद्धमान महावीर स्वामी तीनों लोकों में उत्तम हैं । २३॥ 'दाणाणं सेटुं' शहाथ-'दाणाणं-दानानां' माघाना हानामा 'अभयप्पयाण-अभयप्रदानम्' असयान सेट्ठ-श्रेष्ठम्' उत्तम छे. 'सच्चेसु-सत्येषु' सत्य पयामा 'अणवज्ज-अनवद्यम्' नाथी ने ५५ पाउन थाय साय श्रेष्ठ छ. से प्रमाणे 'वयंति-वदन्ति' . 'तबेसु-तपस्सु' तपमा 'बमचे उत्तम्-ब्रह्मचर्य उत्तमम्' नादियुत मे ब्रह्म यय श्रेष्ठ छे. सेना प्रमाणे 'समणो-श्रमणः' माम श्र भावान् नायपुत्ते - ज्ञातपुत्रः' ज्ञातपुत्र पद्धभान सभी 'लोगुत्तमे-लोकोत्तमः' माथी उत्तम मत श्रेष्ठ छे. ॥२३॥ સૂત્રાર્થ-જેમ સમસ્ત દામાં અભયદાન શ્રેષ્ઠ છે, જેમ સત્ય વચનમાં અનવદ્ય, એટલે કે કેઈ ને માટે પીડાજનક ન હોય એવાં નિરવઘ વચને શ્રેષ્ઠ છે, એ જ પ્રમાણે શમણ જ્ઞાતપુત્ર વર્ધમાન ત્રણે લોકમાં સર્વોત્તમ છે. મારા स. ६६ For Private And Personal Use Only Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसचे टीका-तथा-'दाणाण' दानानाम् सपरानुग्रहाथै दीयते परस्मै यत्तदानं बदनेकविधम् , तेषां दानानामनेकविधानां मध्ये 'अभयप्पयाणं' अभयदानम् , जीवानां जीवितार्थिनां त्राणकारित्वाद् अभयदानं सर्वतः उत्तमम् । तदुक्तम् 'दीयते म्रियमाणस्य कोटिं जीवितमेव वा। धनकोटि न गृह्णीयात्सों जीवितु मिच्छति' । कोटिस्वर्णादिदानेनाऽपि न तथा तुष्यति जन्तुः यथा-समुपस्थिते मरणे. ऽभयदानेन । तथापि शास्त्रे मन्दमतीनामधिकारात् तेषां सुखाऽवबोधाय एकं कथानकम् अभयदानसम्बद्धं स्वल्पाचसा मस्तौमि । तद्यथा-आसीद् वसन्तपुर___टीकार्थ--अपने और परके अनुग्रह 'उपकार' के लिए जो दिया जाता है वह दान कहलाता है । दान के अनेक भेद हैं, उन सब प्रकार के दानों में अभयदान सब से उत्तम है, क्यों कि जीवन के अभिलाषी जीवों की उससे रक्षा होती है। कहा भी है-'दोयते म्रियमाणस्य' इत्यादि। ____ यदि मरते हुए प्राणी को एक करोड़ मुद्राएँ (मोहर) अथवा जीवन दिया जाय-दोनों में से एक देने को कहा जाय तो वह करोड़ मुद्राएँ (मोहर) लेना पसंद नहीं करेगा, वह जीवन ही की अभिलाषा करेगा। क्यों कि प्रत्येकप्राणी जीवित रहने की ही अभिलाषा करता है। _ मृत्यु उपस्थित होने पर जीव को कोड़ स्वर्णमुद्राएँ (मोहर) देने पर भी वैसा सन्तोष नहीं होता जैसा अभयदान से होता है । फिर भी मन्दमतियों के सुखावबोध के लिए अर्थात् मरलता से समझाने के लिए एक उदाहरण प्रस्तुन किया जाता है। जो इसप्रकार है-- ટીકાર્થ –સ્ત્ર અને પરના અનુગ્રહ (ઉપકાર) નિમિત્તે જે અપવામાં આવે છે, તેને દાન કહે છે. દાનના અનેક ભેદ છે. તે સઘળા પ્રકારનાં દાને માં અભયદાન સૌથી ઉત્તમ છે, કારણ કે જીવવાની અભિલાષાવાળા જીવેની તેના દ્વારા રક્ષા થાય છે. કહ્યું પણ છે કે - 'दीयते म्रियमाणस्य' ऽत्यादि મરણને ભય જેની સામે ઉપસ્થિત થયે હેય એવા કેઈ પણ મનુષ્યને એક કરેડ સેના મોરે અથવા જીવન ન આપવાનું કહેવામાં આવે અર્થાત્ બનેમાંથી એક જ વસ્તુ ગ્રહણ કરવાનું કહેવામાં આવે તે તે સોના મહોરોને પસન્દ કરવાને બદલે જીવનદાન જ પસન્દ કરશે, કારણ કે પ્રત્યેક પ્રાણીને પિતાને છ. જ સૌથી અધિક પ્રિય હોય છે. મૃત્યુ ઉપસ્થિત થાય ત્યારે જીવને કરડે સેનામહોરે આપવામાં આવે તે પણ એટલે સંતેષ થતું નથી કે જેટલે અભયદાન-જીવનદાનમળવાની થાય છે. મન્દીમતિવાળા લેને કઈ પણ વાત સરળતાથી For Private And Personal Use Only Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र.श्र. अ. ६ उ.१ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् ५२३ नामकनगरे राजारिदमनो नामा । स च कदाचित् चतुर्महिपी समुपेतः प्रासाद वातायने क्रीडयाऽऽत्मानं विनोदयंस्तिष्ठति स्म । तेन राज्ञा कदाचित् चौरो रक्तारवीरपुष्पसम्बद्धमुण्डमालो रक्ताऽम्बरपरिधानो रक्तचन्दनोपलिताङ्गः महतवाद्यडिण्डिमो राजपुरुषैः राजमार्गेण नीयमानः सपत्नीकेन दृष्टः । संहतामि स्तामि महिषीभिः पृष्टं किं कृतमनेन, यदर्थं यस्येशी अवस्था लोकैश्च कापि नीयते । अनन्तरं राजपुरुषेण विज्ञापितम् यदयं परद्रव्याऽपहरणमकरोत् । नीतिशास्त्रप्रदर्शितेन यथा परद्रव्याऽपहारको निर्णीतः । अतो मारणाय नीयते वध्य वसन्तपुर नामक नगर में अरिदमन नामका राजा था। एक बार वह अपनी चार रानियों के साथ राजमहल के झरोखे में क्रीडा करता हुआ विनोद कर रहा था। अपनी पत्नियों के साथ राजा की दृष्टि एक चोर पर पड़ी, उसके गले में लाल कनेर के पुरुषों की माला पड़ी थी, उसने लाल रंग के वस्त्र पहना था, लाल चन्दन से उसका शरीर लिप्त था। यह पुरुष वध करने योग्य है, इस प्रकार की डुगडुगी बजाई जा रही थी। ऐसे उस पुरुषको राजपुरुष राजमार्ग से ले जा रहे थे। उसे देखकर रानियों ने मिलकर पूछा-'इसने क्या दुष्कर्म किया है जिसके कारण इसकी ऐसी दशा हुई है और राजपुरुष इसे कहाँ ले जा रहे हैं। राजपुरुष ने उत्तर दिया इसने परकीय द्रव्य का अपहरण किया સમજાવવી હોય, તે ઉદાહરણ આપવું પડે છે. તેથી સૂત્રકાર એક ઉદાહરણ દ્વારા અભયદાનની શ્રેષ્ઠતાનું પ્રતિપાદન કરે છે–વસન્તપુર નામે એક નગર હતું. અરિદમન નામને રાજા ત્યાં રાજ્ય કરતે. તે એક દિવસ તે પિતાની ચાર રાણી એની સાથે રાજમહેલના ઝરુખામાં બેઠે બેઠે વાર્તાવિનેદ કરી રહ્યો હતે. એવામાં રાણીઓની તથા રાજાની દષ્ટિ એક બન્દિવાન ચેર પર પડી. તેના ગળામાં લાલ કનેર (રે) નાં પુષ્પની માળા હતી, તેણે લાલ રંગનાં વસ્ત્રો પહેરેલાં હતાં, તેના આખા શરીર પર લાલ ચન્દનનો લેપ કરેલું હતું, “આ પુરુષ વધ કરવાને ગ્ય છે, એવી ઘોષણા થઈ રહી હતી તેવા ચોરને રાજ પુરુષે રાજમાર્ગ પરથી લઈને જતા હતા. તેને જોઈને રાણીઓએ એક રાજપુરુષને બોલાવીને પૂછયુ આ માણસે છે અપરાધ કર્યો છે કે જેને કારણે તેની આ પ્રકારની દશા થઈ છે ?” શજપુરુષે જવાબ છે-“આ માણસે પારકા દ્રવ્યનું અપહરણ કર્યું છે. For Private And Personal Use Only Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - - - सूत्रकृतागसूत्रे भूमौ । तच्छुवा ताभिरुक्तम्-राजन् ! योऽस्माकं भवता पूर्व बरो दत्तः, दीयता सोऽस्मभ्यमेकदिनाय नेतस्थ किश्चिदुपहरिष्यामहे । प्रहस्य राज्ञाऽपि स्वीकृतम् , ततः प्रथमया महिया कयाऽपि स्नानादिपुदस्सरम्-अलङ्काराऽऽलङ्घतो दीनारसहस्रव्ययेन शब्दादीन् विषथान पायय्यैकमहो यावद् यापितः। द्वितीयदिवसे त्वरमाणयाऽपरया तथैव पञ्चमहलदोनारव्ययेन लालितः । तृतीययाऽपि वृतीदिने दशसहस्रदीनारव्ययेन लालितः पालितः पोषितचौरः । चतुर्थदिने चतुर्थी पट्टमहिषी है। नीतिशास्त्र में प्रदर्शित मार्ग से यह चोर साधित हो चुका है। अतएव इसे मारने के लिए वन भूमि की ओर ले जा रहे हैं। यह सुनकर रानियों में कहा-महाराज ! आपने पहले हमें जो वरदान दिया था, वह इस समय दीजिए, जिससे हम इसका कुछ उपकार कर सके। राजा ने मुस्करा कर स्वीकृति प्रदान की। तब पहली रानी ने स्नान आदि करवाकर, अलंकारों से अलंकृत कर के, एक हजार दीनार (मोहरे) व्यय करके उस चोर को मनोज्ञ शब्द आदि विषयों का उपभोग करवाया । इस प्रकार एक दिन व्यतीत हो गया। दूसरी रानी ने पांच हजार दीनार व्यय करके उसी प्रकार उसे रक्खा। तीसरे दिन तीसरी रानी ने दस हजार व्यय करके चोर का लालन पालन पोषण નીતિશાસ્ત્રમાં પારકા દ્રવ્યનું અપહરણ કરવાનો નિષેધ છે. તે ચાર સાબિત થઈ ચુકયે છે, તેથી તેને મે તની સજા ફરમાવવામાં આવી છે આ સજાને અમલ કરવા માટે અમે તેને વધસ્થાને લઈ જઈએ છીએ. આ પ્રકારને જવાબ સાંભળીને રાણી એ રાજાને વિનંતિ કરી–' મહારાજ ! આપની પાસે અમારું એક વરદાનનું લેણું છે, અમે તે વરદાન દ્વારા આ માણસ ઉપર બની શકે તેટલો ઉપકાર કરવા માગીએ છીએ. તે અત્યારે અમને તે વરદાન માગી લેવા દે”. રાજાએ મંદ મંદ હાસ્ય સહિત તેમની તે વાત મંજૂર કરી. ત્યારે પહેલી રાણીએ તે ચોરને સ્નાન આદિ કરાવીને અલંકારાથી વિભૂષિત કરીને, એક હજાર દીનાર (સેના મહેર) અને તે ચોરને મનેણ શબ્દાદિ વિષ ને ઉપભેગ કરાવ્યું. આ પ્રકારે એક દીન વ્યતીત થઈ ગયે. બીજે દિવસે બીજી રાણીએ પાંચ હજાર સોનામહે રે બચીને તેને એજ પ્રમાણે શબ્દાદિ વિષને ઉપભેગ કરાવ્યો. ત્રીજે દિવસે ત્રીજી રાણીએ દસ હજાર સોનામહેરો ખચીને તે ચારનું લાલન પાલન કરીને તેને સુખ આપવા પ્રયત્ન For Private And Personal Use Only Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ६ उ.१ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् ५२५ राज्ञो मतिमादायाऽभयदानेन मरगादक्षितवती । ता एकदा चतुर्थी महिषी अन्याभि महिषीमिरुपहसिता राज्ञो महिपोणा मन्यतमया त्वया किमपि फिमिति नोपकृतऔर इति । चौरोपकाराऽवगर्व गर्मित गनितानां तासां समक्षनणाऽऽहूयचौरं पृष्टवान् राजा, अहो कथय सत्यम् , कया बहू कृतोऽसि । चौरेगाआदि. तुरीययाऽनया राजन् । अभयमदायि दक्षिणा। अभयमदाने दानश्राणेन पुनीतमिवाऽऽस्मानमवगच्छामि। तत एतावता सिद्धम् यत्-सर्वदानेषु श्रेष्ठमभयदानमेव । 'सच्चेसु' सत्येषु मध्ये यत् 'अणवज्ज' अनवद्यम् परपीडाऽनुत्पादकं तत् सत्य किया। चौथे दिन अपमानिता चौथी रानी ने, जो पट रानी थी, राजा की सलाह लेकर उस चोर की अभयदान देकर रक्षा की। एक दिन शेष रानियाँ बौधी रानी का उपहास करती हुई कहने लगी-तुम बहुत कृपण हो। तुमने उस चोर के लिए कुछ भी व्यय नहीं किया। उन रानियों को चोर को उपकार करने का बड़ा घमण्ड था। इस कारण वे अपने उपकार का खूब खान कर रही थीं। तब राजा ने उस चोर को उनके सामने वुलवा और पूछा-सच-सच बना, किम रानी ने तेरा बहुत उपकार किया है ? चोर ने उत्तर दिया इन चौथी महारानी ने मुझे अभय की दक्षिणा दी। अभयदान पाकर मुझे ऐसा लगा मानों मेरा पुनर्जन्म हुआ है। इस कथानक से सिद्ध है कि मदानों में अभपदान ही श्रेष्ठ है। કર્યો. ચોથે દિવસે ચે થી રાણીએ (પટરાણું એ) રાજાની પાસે વચન માગ્યું કે આ ચોરને અભયદાન દે. રાજાએ તેને અભયદાન દીધું. આ રીતે ચોથી રાણીએ તેને જીવતદાન અપાવ્યું. હવે બીજી ત્રણે રાણીઓએ ચોથી રાણીનો આ પ્રમાણે ઉપહાસ કરવા માંડ-“તમે ખૂબ જ કંજૂસ છે! તમે તે ચોરની પાછળ એક પાઈ પણ ખચી નહીં !” તે શણીઓના મનમાં એ અહંકાર થશે કે અમે ચોર ઉપર ઘ મટે અનુગ્રહ કર્યો છે, તે કારણે તેઓ પિત પિતાના ઉપકારના વખાણ કર્યા કરતી હતી. ત્યારે રાજાએ તે ચોરને પોતાની પાસે બોલાવીને આ પ્રમાણે પૂછયું; “તું કોઈ પણ પ્રકારના સંકેચ રાખ્યા વિના સાચે સાચું કહી દે કે કઈ રાણીએ તારા પર વધારેમાં વધારે ઉપકાર કર્યો છે ?” ત્યારે તેણે જવાબ આપ્યા-” આ ચોથી મહારાણીએ મને અભયદાન અપાવીને મારી રક્ષા કરી છે. અભયદાન મળવાથી મને તે જાણે નવું જીવન भजी आयु छे." આ ઉદાહરણ દ્વારા એ સિદ્ધ થાય છે કે સમસ્ત દાનમાં અભયદાન श्रेष्ठले. For Private And Personal Use Only Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ५२६ सूत्रकृताङ्गसूत्रे वचनमेव श्रेष्ठमिति 'वयंति' वदन्ति शास्त्रतत्ववेत्ता, न तु परिपीडोत्पदकं सत्यं सद्भघोहितमिति कृस्वा तथा चोक्तम् Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 'लोकेऽपि श्रवते वादो यथा सत्येन कौशिकः । पतितो वधयुक्तेन नरके तीव्र वेदने ' ॥ अन्यदपि - 'तद्देव काणं काणत्ति पंडगं पंडगत्ति वा । बाहियं वा विरोगिन्ति तेणं चोरोति नो वदे ।।' नीतिशास्त्रेऽप्युक्तम् - सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयान्न ब्रूयात्सत्यमप्रियम् । सत्यं च नानृतं ब्रूया देव धर्मः सनातनः ॥ १॥ इति, शास्त्र के तत्व के वेत्ता सत्यों में उसी सत्य को श्रेष्ठ कहते हैं जो निरवद्य हो अर्थात् जिससे पर को पीड़ा उत्पन्न न होती हो। जो वचन परपीडाजनक हो वह श्रेष्ठ नहीं है, क्यों कि सत्पुरुषों के लिए जो हितकर हो, वही सत्य कहलाता है। कहा भी है- 'लोकेऽपि श्रूयते वादो' इत्यादि । कौशिक हिंसाकारी सत्य से तीव्र वेदना वाले नरक में पड़ा ऐसा बाद लोक में भी सुना जाता है ॥१॥ और भी कहा है- 'तहेव काणं काणत्ति' इत्यादि । काणे को काणा न कहें, पंडक (नपुंमक) को पंडक न कहे, बीमार को बीमार न कहे और चौर को चोर न कहे, क्योंकि ऐसा कहने से उन्हें पीड़ा पहुँचती है ॥ १ ॥ नीतिशास्त्र में भी कहा है 'सत्यं ब्रूरात् प्रियं ब्रूयात्' इत्यादि । શાસ્રજ્ઞોએ એજ સત્યને શ્રેષ્ઠ કહ્યું છે કે જે નિર દ્ય એટલે કે પરને કદી પણ શ્રેષ્ઠ કહી હાય, તેને જ સત્ય 66 પીડાકારી ન ઢાય. જે વચન પરપીડાજનક હાય તેને શકાય નહીં, કારણ કે સપુરુષોને માટે જે હિતકર सेवा छेउ छेउ - " लेकेिऽपि श्रूयते वादे ।" त्याहि " शिए हिंसाકારી સત્યને કારણે તીવ્ર વેદનાવાળા નરકમાં પડયે, એવી માન્યતા લેકામાં પ્રચલિત છે એટલે કે એવુ લાકો કહે છે ” ૫૫ वजी " तद्देव काण काणत्ति " इत्यादि કાણાને કાણા કહેવાય નહીં, નપુંસકને નપુંસક કહેવાય નહી', ખીમાને ખીમાર ન કહેવાય અને ચોરને ચોર ન કહેવાય કારણ કે તેમ કહેવાથી तेने हुः थाय छे. नीतिशास्त्रमां पशु वु ं छु ं छे है- “सत्य ं ब्रूयात् प्रिय For Private And Personal Use Only Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ६ उ. १ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् ५२७ 'तवेसु' तपःसु मध्ये 'वमचेरं' ब्रह्मचर्यम् नवविधत्राटिकोपेतम् उत्तमं - प्रधानं भवति । तथा - 'समणे' श्रमणः श्रमणः 'नायपुते' ज्ञातपुत्रः 'लोगुत्तमे ' लोकोत्तमः सर्वलोकोत्तमरूपसंपदा सर्वातिशायिन्या शक्त्या क्षायिकज्ञानदर्शनाभ्यां शीलेन च ज्ञातपुत्रो भगवान् श्रमणो महावीरः सर्वोत्तमः । 'दानानामभयं दानं श्रेष्ठ मित्यभिधीयते । परपीडाsनुत्पादकं सत्यं सत्येषु शस्यते ॥१॥ द्वादशविधतपस्सु ब्रह्मचर्यमुत्तमं तथैत्र ज्ञातपुत्रो महावीरो लोकोत्तम:लोकेषूत्तम इत्यर्थः ॥ २३॥ मूलम् - ठिईर्ण सेट्टा लेवसत्तमा वा सभा सुम्मा व सभाण सेट्ठा । सत्य भाषण करे, प्रिय भाषण करे किन्तु अप्रिय सत्य न कहे । सत्य असत्य का मिश्रण करके भी न कहे । यही धर्म है ॥१॥ जैसे शास्त्रों में समस्त तपों में नवबाड़ से युक्त ब्रह्मचर्य को प्रधान कहा है, उसी प्रकार श्रमण ज्ञातपुत्र समस्त लोक में उत्तम हैं । सर्वोत्तम शक्ति, क्षायिकज्ञान-दर्शन और शील में श्रमण भगवान् महावीर सब से श्रेष्ठ हैं। आशय यह सब दानों में अभगदान श्रेष्ठ कहा जाता है, समस्त सत्यवचनों में परपीड़ा न उत्पन्न करने वाला निरवद्य वचन उत्तम कहा जाता है और बारह प्रकार के तप में ब्रह्मचर्य तपश्रेष्ठ कहा जाता है, इसी प्रकार ज्ञातपुत्र महावीर सब लोक में उत्तम हैं ||२३|| ब्रूयात्” " इत्याहि सत्य मेसवु पशु ते प्रीतिर श्रावु लेहये, पशु अप्रिय લાગે એવુ* સત્ય ખેલવુ· નહી. સત્ય અને અસત્યના મિશ્રણવાળાં વાકયો पाशु मोलवा लेायखे नाहीं. शो धर्म छे, ॥१॥ એજ પ્રકારે શાસ્ત્રામાં ખાર પ્રકારનાં તપામાં નવવાડયુક્ત પ્રહ્મચર્ય ને શ્રેષ્ડ તપ કહ્યુ છે. અભયદાન. નિર્ઘ સત્ય વચન અને નવવાયુક્ત બ્રહ્મચય'ની જેમ જ્ઞાતપુત્ર મહાવીર સ્વામી સમસ્ત લેકમાં સર્વોત્તમ છે. સર્વાંત્તમ શક્તિ, શાયિક જ્ઞાનદર્શન અને શીલમાં શ્રમણ ભગવાન્ મહાવીર જ શ્રેષ્ઠ છે તાત્પર્ય એ છે કે જેમ દાનામાં અભયદાન, સત્યવચનમાં પરપીડા ન ઉત્પન્ન કરનારાં નિરવધ વચન, અને માર પ્રકારનાં તપેામાં બ્રહ્મચય તપ શ્રેષ્ઠ ગણાય છે, એજ પ્રમાણે જ્ઞાતપુત્ર મહાવીર સમસ્ત લેાયમાં શ્રેષ્ઠ છે. ૨૩૫ For Private And Personal Use Only Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५२८ सुत्रकृताङ्गसूत्रे निवाण सेट्ठा जह सवधम्मा, जणायपुत्ता परमस्थि णाणी॥२४॥ छाया-स्थितीनां श्रेष्ठा ल सप्तमा वा समा मुधर्मा इव समानां श्रेष्ठा। निर्वाणश्रेष्ठा यथा सर्वधर्मा न ज्ञातपुत्रात परोऽस्ति ज्ञानी ॥२४॥ अन्वयार्थः-'ठिईण' स्थितीनां - स्थितिमताम् 'लवसत्तमा' लसप्तमा-पश्चानुचरविमानवासिन देवा इत्र 'सेट्ठा' श्रेष्ठाः-प्रधानाः 'सभाण' समानां परिषदां मध्ये 'सुहम्मा सभा सेट्ठा' सुधर्मा सभा सर्वतः श्रेष्ठा-प्रधाना यथा वा 'जहा' यथा 'ठिईण सेट्ठा' इत्यादि। शमार्थ-ठिईग-स्थितीनो' जैसे स्थितिवालों में 'लवसत्तमालवसप्तमाः' पांच अनुत्तर विमानवासी देव 'सेट्ठा-श्रेष्ठाः' श्रेष्ठ है तथा 'सभाण-समानां' सब सभाओं में 'सुहम्मा सभा सेट्ठा-सुधर्मा सभा श्रेष्ठा' सुधर्मा सभा सबसे श्रेष्ठ है एवं 'जहा-यथा' जैसे 'सन्च धम्मा-सर्वधर्मा. सब धर्मों में 'निबाण सेट्ठा-निर्वाण श्रेष्ठाः' जैसे मोक्ष श्रेष्ठ है इसी प्रकार ‘ण नायपुत्ता परमत्थि नाणी न ज्ञातपुत्रात् परः अस्ति ज्ञानी' ज्ञातपुत्र भगवान महावीर स्वामी से कोई श्रेष्ठ ज्ञानवाला नहीं है ॥२४॥ अन्वयार्थ--जैसे स्थिति में अर्थात् स्थितिवालों में लवसप्तम अर्थात् पाँच अनुत्तर विमानवासी देव श्रेष्ठ हैं, लय सभाओं में सुधर्मा "ठिईण सेढा " त्याह शा-- ठिईण-स्थितना' २ स्थितिवाणायाम 'सत्तमा-लवस तमाः' पाय मनुत्तर विमानसी है। सेट्ठा श्रेष्ठः' श्रेष्ठ छे. तया 'सभाणसभानां' मधी समासमा 'सुहम्मा सभ सेदुः-सुधर्माममा श्रेष्ठा' सुधमासमा सौथा श्रेष्ठ छ. तर 'जहा-यथा' यथा म 'सव धम्मा-सर्वधर्माः' मया धामा 'निव्वाणसेढा-निर्वाणश्रेष्ठाः' म भक्ष श्रेष्ठ छ. मे प्रमाणे 'ण णायपुत्ता परमत्थि नाणी-न ज्ञातपुत्रात् पर: अस्ति ज्ञानी' ज्ञातपुत्र भगवान् મહાવીર સ્વામીથી કઈ પણ શ્રેષ્ઠ જ્ઞાનવ નું નથી. ૨૪ સૂત્રાર્થ-જેમ સ્થિતિવાળા જેમાં લવસપ્તમને-પાંચ અનુત્તર વિમાન વાસી ને-છેઠ માનવામાં આવે છે, જેમ સઘળી સભાઓમાં સુધર્મા સભાને For Private And Personal Use Only Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ.६ उ. १ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् ५२९ 'सधधम्मा' सर्वधर्माः 'निव्वाण सेट्टा' निर्वाणश्रेष्ठाः-निर्वाणपधानाः सन्ति, तथा'ण णायपुत्ता परमत्थि नाणी' ज्ञातपुत्रमहावीरात् परोऽधिको ज्ञानी नास्तीति ।।२४॥ टीका-- "ठिईण' स्थितीनां-स्थितिमतां मध्ये 'लवसत्तमा' लवसप्तमा:पश्चाऽजुत्तरविमानवासिनो देवाः सर्वोत्कृष्टस्थितिवर्तिनः 'सेट' श्रेष्टा:-प्रधानाः, तथाहि-लवाः शाल्पादिकालिकाः लानक्रिया (छेदन क्रिया) ममिताः कालविभागाः सप्त सप्तसंख्या मान-प्रमाणं यस्य कालस्यासौ लव सप्तम स्तं लासप्तमं कालं यावदा. युष्य प्रभवति सति ये शुभाध्यवसायप्रवृनयः सन्तो मोक्षं न गताः किन्तु देवेषत्पन्ना स्ते लबसप्तमा स्ते च सर्वार्थसिद्धार्थाभिधानानुत्तरविमानवासिनो देशः, अतस्ते लवसप्तमाः कथ्यन्ते । 'समाण' समानां परिपदां मध्ये 'सेट' श्रेष्ठा सभा श्रेष्ठ है जैसे सभी धर्म निर्वाणपधान हैं. उसी प्रकार ज्ञातपुत्र महावीर से अधिक कोई ज्ञानी नहीं है ॥२४॥ टीकार्थ--जितने भी स्थिति वाले हैं, उनमें पाँच अनुत्तर विमानों में वसने वाले देव सर्वोत्कृष्ट स्थिति वाले हैं। शालि आदि की लवनक्रिया (एक मुटि काटने) में जितना समय लगता है, वह लव कहलाता है। मात लवों का मान जितना काल लवसप्तम कहलाता है। अनुत्तर विमानवासी देवों की यह संज्ञा है । इसका कारण यह है कि सात लव की आयु यदि उन्हें अधिक मिल गई होती तो वे अपने शुद्ध परिणामों से मोक्ष प्राप्त कर लेते । किन्तु आयु की इतनी न्यूनता होने से वे मोक्ष प्राप्त न कर सके और अनुत्तर विमानों में देव रूप से उत्पन्न हुए। શ્રેષ્ઠ માનવામાં આવે છે, જેમ સઘળા ધર્મો નિર્વાણપ્રધાન ગણાય છે, એજ પ્રમાણે જ્ઞાતપુત્ર મહાવીર કરતાં અધિક જ્ઞાની અન્ય કોઈ નથી રજા ટકા–સ્થિતિવાળા જેટલાં જીવે છે, તેમાં પાંચ અનુત્તર વિમાનોમાં નિવાસ કરનાર દેવેને સકષ્ટ સ્થિતિવાળા માનવામાં આવે છે. શાલિ (એક પ્રકારની ડાંગર) આદિની લવનક્રિયામાં એક મુઠ્ઠી શાલિ આદિની કાપણી કરવામાં–જેટલો સમય લાગે છે, એટલા સમયને ‘લવ' કહે છે. સાત લવપ્રમાણુ કાળને “લવસપ્તમ કહે છે. અનુત્તર વિમાનવાસી દેને માટે આ સંજ્ઞા પ્રચલિત છે. તેનું કારણ એ છે કે જે તેમને સાત પ્રમાણ અધિક આયુષ્ય મળ્યું છે, તે તેને પિતાના શુદ્ધ પરિણામોને લીધે મેક્ષ પ્રાપ્ત કરી શક્યા હતા. પરંતુ આયુની એટલી ન્યૂનતાને લીધે તેઓ મોક્ષ પ્રાપ્ત કરી શક્યા નહી, અને તેમને અનુત્તર વિમાનમાં દેવ રૂપે ઉત્પન્ન થવું પડ્યું. તેમની સ્થિતિ (આ યુ કાળ) સૌથી વધારે હોય છે. स०६७ For Private And Personal Use Only Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ५३० सूत्रकृताङ्ग सूत्रे 'सुम्मा सभाव' सुधर्मा सभा इव, बहुक्रीडास्थानैर्युक्तत्वात् । 'जह' यथा - सव्व धम्मा' सर्वेऽपि धर्माः 'निव्वाणसेड।' निर्वाणश्रेष्ठा मोक्षमधाना भवन्ति, कुप्रावचनिका अपि निर्माणफलकमेव स्वदर्शनं मुंबते' तथा 'णायपुत्ता' ज्ञातपुत्रात् 'परं' परमधिकम् 'नाणी' ज्ञानी नास्ति सर्वथैव हि भगवान् अपरज्ञानिभ्योऽfaeज्ञानवान अस्तीति ॥ २४ ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मूलम् - पुढोवमे धुणइ विंगयगेही ने सेण्णिहिं कुवइ आसुँपन्ने । तैरिडं समुदं व मेहाभवोघं अभयंकरे वीर अनंतचक्खू | २५ | C छाया - पृथिव्युतमो धुनोति विगतगृद्धिः, न सन्निधिं करोत्याशुप्रज्ञः । तरित्वा समुद्रमित्र महाभयम्, अभयङ्करो वीरोऽनन्तचक्षुः ||२५|| जैसे सभाओं में सुधर्मा सभा श्रेष्ठ है, क्योंकि वह अनेक क्रीडास्थानों से युक्त है । अथवा जैसे सभी धर्म मोक्ष प्रधान हैं, क्योंकि कुप्रावचनिक भी अपने दर्शन को निर्वाण रूप फल देने वाला ही कहते हैं, इसी प्रकार ज्ञानपुत्र से अधिक ज्ञानी कोई नहीं है अर्थात् अन्य ज्ञानियों से वही उत्कृष्ट ज्ञानी हैं ||२४|| 'पूढो मे' इत्यादि । शब्दार्थ - 'पुढो मे - पृथिव्युपमः ' भगवान् महावीरस्वामी पृथ्वीके समान सब प्राणियों के आधार भूत है 'धुगधुनोति' तथा वे आठ प्रकार के कर्मपलों को दूर करने वाले हैं' 'विगमगेही - विगतगृद्धिः, भगवान् बाह्य और आभ्यन्तर वस्तुनों में गृद्धि-आमक्तिरहित है 'आपन्ने - आशुप्रज्ञः' वे शीघ्रबुद्धि वाले हैं 'ण संनिहिं कुब्बइ-न 65 જેમ સભાઓમાં સુધમાં સભા શ્રેષ્ઠ છે, કારણુ કે તે અનેક ક્રીડાસ્થાનાથી યુક્ત છે, અથવા જેમ સઘળા ધર્માં મેાક્ષપ્રધાન છે, કારણ કે કુપ્રાવનિકે પણ પેાતાનાં દર્શનને નિર્વાણુરૂપ ફલ પ્રદાન કરનાર જ કહે છે, એજ પ્રમાણે જ્ઞાતપુત્ર કરતાં અધિક જ્ઞાની કાઈ નથી. તેએ જ સર્વાં કૃદન્ટ જ્ઞાની છે. ારકા पूढे।वमे " धत्याहि शब्दार्थ - 'पुढो मे - पृथिव्युपमः' लगवान् महावीरस्वामी पृथ्वीसरीमा अधा प्राशियोना आधारभूत ता 'घुणइ धुनोति तथा ते आठ प्राश्ना भने दूर खावाला छे. 'विगयगेही- विगतगृद्धिः' लगवान् मा भने माभ्यन्तर वस्तुओमां वृद्धि सहित रहित ता 'आसुरन्ने - आशुप्रज्ञः' तेथे For Private And Personal Use Only Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ.६ उ.१ भगवतो महावीरस्थ गुणवर्णनम् ५३१ ___ अन्वयार्थः --'पुडोवमे पृथिव्युतमा-पृथिवीयत्वप्रगिनामधारी महावीरस्वामी 'धुणई' धुनाति-अपनपत्यष्टप्रकारकं कर्म 'विगयगेही' विगतगृद्धिः-वाद्याभ्यन्तरवस्तुविपयादिधारहितः, 'आसुपन्ने' आशुप्रज्ञः-सर्वत्र सदोपयोगात 'ण संनिहं कुबई' न सन्निधिं करोति-घृतगुडादिकम् 'समुदं व समुदवत् (महाभवोघं) महभवौघम्-चातुर्गतिकसंसारसागरम् (तरिउ) तरित्वा-पारं कृत्वा मोक्षं माप्तः (अभयं करे) प्राणिनामभयङ्करः (वोरे) वीरो भगवान् (अणतचक्खू) अनन्तचक्षुः-अनन्तज्ञानीत्यर्थः ॥२५॥ संनिधि करोति' वे धन धान्य तथा कोषादिका संपर्क नहीं करते हैं 'समुद्देव-समुदवत्' समुद्र के समान 'महाभवोघं-महाभवोघम्' महान् संसारको 'तरिउ-तरित्या पार करके मोक्षको प्राप्त हुए हैं 'अभयंकरेअभयङ्करः' भगवान् प्राणियों को अभयकरनेवाले 'वीरे-वीरः' ऐसे भगवान् वर्द्धमान महावीर स्वामी 'अणंत चक्खू-अनंत चक्षुः' अनन्त ज्ञानवाले हैं ॥२५॥ ___ अन्वयार्थ--भगवान महावीर पृथिवी के समान समस्तप्राणियों के आधार हैं, आठ प्रकार के कर्मों को नष्ट करने वाले हैं, बाह्य एवं आभ्यन्तर वस्तुओं की गृद्धि से रहीत हैं, आशु प्रज्ञ अर्थात सर्वत्र सर्वदा उपयोगवान् हैं, किसी भी वस्तु की सन्निधि न करने वाले हैं, समुद्र के समान महान संसार को पार करके मोक्ष को प्राप्त हुए हैं, अभयंकर हैं और अनन्तज्ञानी हैं ॥२५॥ al मुद्धिा सता 'ण संन्निहिं कुबइ-न संनिधिं करोति' ते धनधान्य तथा ओघाहिना स५६ ४२ता न उता 'समुद्देव-समुद्रवत्' समुद्रनी म 'महाभवोत्र-महाभवोधम्' महान् संसारने 'तरि-तरित्वा' ५२ ४२ मोक्षरामन यु तु. 'अभयंकरे-अभयङ्करः' भगवान् प्राणियाना समय ४२वावाणा 'वीरे-वीरः' मे। समान पर भान् महावी२६वामी 'अगंतचक्खू-अनंतचक्षुः' અનંતજ્ઞાનવાળા છે. જે ૨૫ સૂવાર્થ––ભગવાન મહાવીર પૃથ્વીના સમાન સમસ્ત પ્રાણીઓના આધાર છે, આઠ કર્મોને ક્ષય કરનારા છે, બાહ્ય અને આભ્યન્તર વસ્તુઓની વૃદ્ધિ (લાલસા) થી રહિત છે, આશુપ્રજ્ઞ છે. એટલે કે સર્વત્ર સદા ઉપગવાન છે, કેઈપણ વસ્તુની સન્નિધિ (સંચય) કરનારા નથી, સમુદ્રના સમાન મહાન સંસાર પારને કરીને મને પ્રાપ્ત કરનારા છે, અભયંકર અને અનન્ત જ્ઞાની છે. પારપા For Private And Personal Use Only Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५३२ सूत्रकृताङ्गसूत्रे टीका-'पुढोवमे' पृथ्व्युपमः-पृथ्व्या उपमा विद्यते यस्य स पृथ्व्युपमो. भगवान् महावीरः, यथा खलु पृथिवी सकलपाणिनामाधाररूपा आधारकत्वात् तथा भगवान् सर्वप्राणिनामभयदानात् सदुपदेशदानाद्वा आधारः, अतः पृथिव्याः सादृश्यं भगवतो भवति । अथवा-पथा-पृथिवी सर्वसहा भवति, 'ससहा वसु. मती वसुधो: वसुन्धरा' इत्यमरात्, तथा भगवानपि सोपसर्गान सम्यक सहते, अतोऽपि पृथिव्याः सादृश्यं भवति भगवन्महावीरे । 'धुणई' धुनोति-अपनयति अष्टप्रकारकं कर्म इति । तथा-विगयगेडी' विगतमृद्धिः-विगता विनष्टा बाह्याभ्यन्तरपदार्थेषु गृद्धिः-गृद्धिभावो यस्य स विगतगृद्धिः। 'सणिहिण कुम्बई' सन्निधिं न करोति, सन्निधान सनिधिः, स च द्विविधः, द्रव्यभावभेदात् । ___टोकार्थ- भगवान महावीर पृथ्वी के समान हैं। जैसे पृथ्वी समस्त प्राणियों को आश्रय देने के कारण आधार है, उसी प्रकार भगवार सब प्राणियों को अभय देने तथा सदुपदेश देने के कारण आधार हैं । अतएव भगवान् पृथ्वी के सदृश हैं । अथवा जैसे पृथ्वी 'सर्वसहा' अर्थात् सभी कुछ सहन करने वाली है, अमरकोष में भी कहा हैसर्वसहा, वसुमती, वसुधा, उर्स और बसुन्धरा, यह सब पृथ्वी के नाम हैं। भगवान् समस्त उपसर्गों को सहन करने वाले हैं, इस कारण भी भगवान् में पृथ्वी की सदृशता है। भगवान महावीर आठ कर्मों के विनाशक हैं। वे बाह्य और आभ्यन्तर सभी प्रकार के पदार्थों में गृद्धि (आसक्ति) से मुक्त हैं। वे किसी प्रकार की सनिधि-संचय नहीं करते। सनिधि दो प्रकार की है-द्रव्य सन्निधि और भावसनिधि । घृत, ટીકાથ–મહાવીર પ્રભુ પૃથ્વીના સમાન છે. જેમ સમસ્ત પ્રાણીઓને આશ્રય દેનારી હોવાને કારણે પૃથ્વી તેમને આધાર કહેવાય છે, એ જ પ્રમાણે ભગવાન મહાવીર સમસ્ત જીવને અભય દેનારા તથા તેમને સદુપદેશ દેનારા હોવાને કારણે સમસ્ત જીવોના આધાર છે. તે કારણે તેમને પૃથવીના સમાન ह्या छ. २५५१-२ Yी सर्वसहा" सघनु सडन ४२नारी छे, मेस પ્રમાણે ભગવાન મહાવીર પણ ઘેર પરીષો અને ઉપસર્ગો સહન કરનારા છે. सभषमा ५५ युं छे 3-" सर्वसहा, वसुमती, वसुधा," सुधा, Gh અને વસુરા, આ બધા નામે પૃથ્વીના જ છે. ભગવાન સમસ્ત ઉપસર્ગોને સહન કરનારા હોવાથી તેઓમાં પૃથ્વીની સમાનતા છે. તેથી ભગવાન મહાવીર આઠ કર્મોને ક્ષય કરનારા છે. તેઓ બાહ્ય અને આભ્યન્તર બધા પ્રકારના પદાર્થોમાં વૃદ્ધિભાવ (આસક્તિ)થી રહિત હતા. તેઓ કઈ પ્રકારની સબ્રિષિ For Private And Personal Use Only Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सैमयार्थबोधिनी टोका प्र. श्रु. अ.६ उ. १ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् ५३३ तत्र द्रव्यसनिधिः-गुडादिरूपः। भावसन्निधिस्तु-क्रोधमानमायालोभाः। एतदुभयमपि सन्निधि भगवान्नकरोति । तथा-'आसु पन्ने' आसुप्रज्ञः, आशु-शीधं प्रज्ञा यस्य सः । सर्वत्र सदोपयोगात् , न तु छमस्थवद् मनसा पर्यालोच्य पदार्थविषयकं निर्णयं करोति । एताविशेषणोपपन्नो भगवान् 'समुद्देव' समुद्राद् अपारम् ‘महामवाघ' महाभौघं चातुर्गतिक संसार सागरं बहुदुःखाकुलम् । 'तरि' तरित्वा, सर्वो तमं निर्वाणमासादितवान् । पुनः कथंभूतो भगवान्-तत्राह-'अभयंकरे' अभयङ्करः-अभयं प्राणिनां प्राणरक्षास्वरूपं स्वतः परतः सदुपदेशदानात करोतीति अभयङ्करः । विशेषेण इरयति-द्रीकरोति कर्म इति वीरः, 'अणंतचक्खू' अनन्त चक्षुः-अनन्तं-विनाशरहितं चक्षुरिख चक्षुः-केरलज्ञानं यस्य सोऽनन्तचक्षुः, एतादृग्भगवानिति ॥२५॥ गुड़ आदि के संवय को द्रव्य मनिधि कहते हैं और क्रोध, मान, माथा तथा लोभ को भाव सन्निधि करते हैं। भगवान दोनों प्रकार की सन्निधि नहीं करते। भगवान् आशुप्रज्ञ हैं, क्योंकि उनका उपयोग सभी पदार्थों में सदैव लगारहता है। वे छद्मस्थ के जैसे मन से सोच विचार कर किसी पदार्थ का निर्णय नहीं करते। इस प्रकार के विशेषणों से युक्त भगवान् समुद्र के समान अपार भवप्रवाह को अर्थात् संसार सागर को पार करके सर्वोत्तम निर्वाण को प्राप्त कर चुके हैं । इसके अतिरिक्त भगवान् अभयंकर हैं अर्थात् वे स्वतः सदुपदेश देकर परतः प्राणरक्षा रूप अभय देते हैं। भगवान् वीर (સંચય) કરતા નહીં. સન્નિધિ બે પ્રકારની કહી છે. (૧) દ્રવ્ય સનિધિ અને (૨) ભાવ સનિધિ. ઘી, ગોળ આદિના સંચયને દ્રવ્યસનિધિ કહે છે ક્રોધ, માન, માયા અને લેભને વાવ સનિધિ કહે છે. મહાવીર પ્રભુ આ બન્ને પ્રકારને સંચય કરતા નહીં-તેઓ કઈ પણ પ્રકારને પરિગ્રહ રાખતા ન હતા. મહાવીર પ્રભુ આશુપ્રજ્ઞ હતા, કારણ કે તેઓ સર્વત્ર સદા ઉપગવાન હતા. એટલે કે સમસ્ત પદાર્થોના વિષયમાં શીઘ્ર નિર્ણય કરનારા હતા છઘની જેમ ખૂબ જ વિચાર કરી કરીને તેઓ કંઈ પદાર્થને નિર્ણય કરતા નહીં. આ પ્રકારને ગુણેથી યુક્ત મહાવીર સ્વામી સમુદ્રના જેવા અપાર ભવપ્રવાહને એટલે કે સંસાર સાગરને પાર કરીને સર્વોત્તમ નિર્વાણધામને પ્રાપ્ત કરી ચૂક્યા છે. વળી ભગવાન્ અભયંકર છે, કારણ કે તેઓ પોતે સમસ્ત છાનાં પ્રાણેની રક્ષા કરતા હતા અને તેને પણ જીવરક્ષાને ઉપદેશ આપીને અભય પ્રદાન કરતા હતા. ભગવાન વીર છે અને અનન્ત ચક્ષુ છે, For Private And Personal Use Only Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir % ५३४ सूत्रकृताङ्गसूत्रे मूलम्-कोहं च माणं च तहेव मायं, लोभं चउत्थं अज्झत्थ दोसा। एयाणि वंती अरहा महेसी, न कुम्वइ पावं णे कारवेइ ॥२६॥ छाया-क्रोधं च मानं च तथैव मायां, लोभं चतुर्थ चाध्यात्मदोषान् । एतानि वान्त्वाऽहन महर्षि, नकरोति पापं न कारयति ॥२६॥ अन्वयार्थः- (अरहा महेसी) अहमहर्षि भगवान महावीरः (कोहं च माणं च तहेव मायं) क्रोधं च मानं च तथैव मायाम् (चउत्थं लोभ) चतुर्थ लोभम्-कपायमात्रम् (एयाणि) एतान् क्रोधादीन् (अज्झत्थदोसा) अध्यात्म दोषान्-प्रान्तरदोषान् हैं और अनन्नचक्षु हैं अर्थात् उनका केवलज्ञान अनन्त अविनाशी है। भगवान हन सब विशेषगों से सम्पन्न हैं ॥२५॥ 'कोहं च मागं च' इत्यादि। शब्दार्थ-'अरहा महेपी अरहन्महर्षिः' अरिहंत महर्षि ऐसे श्री महावीर स्वामी कोहं च माणं च तहेव मायं-क्रोधं च मानं च तथैव मानम् ' क्रोध मान और माया 'चउत्थं लोभ-चतुर्थ लोभम् ' तथा चौथा लोभ 'एयाणि--एतानि' इन क्रोधादिरूप 'अज्झत्थ दोमाअध्यात्मदोषान्' अध्यात्म-अपने अंदर के दोषों को 'वंता-वान्त्वा' स्थागकर के 'ण पावं कुइ-न पापं करोति' पाप करते नहीं है ‘ण कारवेइ-न कारयति' और पाको करवाते नहीं हैं ॥२६।।।। એટલે કે તેમનું કેવળજ્ઞાન અનન્ત (અવિનાશી) છે ભગવાન મહાવીર આ સઘળાં વિશેષણથી સંપન્ન છે. પરા " काहं च माण च" त्य.8 Avat - 'अरहा महेसी-अरहन्महर्षिः' भति मावि 4 श्री महावीर भाभी कोई च माणं च तहेव मायं-धं च मानं च तथैव मायाम्' ओध, मान, A२ माया 'घउत्थं लोग-चतुर्थ लोभम्' तथा ये थी सो 'एयाणि-एतानि' An या३५ 'अज्झत्थ दोसा-अध्या मदोषान्' ५४याम-मर्थात् पोताना मन होने वता-बान्ता' त्याहारीने ‘ण पाव कु०३इ-न पापं करोति' ५५४२तानथी 'ण कारवेइ-न कारयति' अने पा५ ७२॥५तानथी ॥२६॥ For Private And Personal Use Only Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र.श्रु. अ.६ उ.१ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् ५३५ (वंता) वान्त्वा परित्यज्य (ण पावं कुबइ) न पापं करोति (ण कारवेइ) न कारयति परैः, सावद्यमनुष्ठानं न करोति स्वयं न वा कारयतीति भावः ॥२६॥ टीका-'कारणाऽमावेन कार्यस्याऽप्यभाशे भवति' इति नियमात् , संसारः कार्यम्-कारणं च चत्वारोऽध्यात्मदोषाः क्रोधादयः--तत्र-कोषादिकपायाणां, कारणानामभावेऽश्यं तत्कार्यस्य संसारस्याऽप्यमाव इति कृत्वा कारणस्य समुच्छेदे कार्यस्य संपारस्यापि उच्छित्ति दर्शयति-'कोहं च' इत्यादि। 'अरहा महेसी' अर्हन्महर्षिः-श्रीनर्द्धमानस्वामी, 'कोहं च' क्रोधं च, तथा-'माणं च' मानं च, तथा-'तहेव' तथैव 'माय' मायाम् 'चउत्थं लोभ चतुथै लोभम् 'एयाणि' एतान् 'अज्झत्थदोसा' अध्यात्मदोषान् 'वंता' वान्त्वा-परित्यज्य 'ण' नैव 'पा' पापम्-माणातिपातादिकं स्वयं करोति मनोव कायैः । 'ण' न वा परेभ्यः ‘कारवे,' कारयति, ____ अन्वयार्थ-अर्हन् महर्षि महावीर क्रोध, मान, माया और चौथे लोभ कषाय इन आन्तरिक दोषों का परित्याग करते थे एवं न स्वयं पाप करते हैं, और न दूसरों से करवाते हैं । २६॥ टीकार्थ- कारण के अभाव में कार्य का भी अभाव होता है, इस नियम के अनुसार कषायों के अभाव में संसार अर्थात् भवभ्रमण का भी अभाव हो जाता है, क्यों कि कषाय रूप अध्यात्मदोष कारण हैं और संसार उनका कार्य है। कारण के अभाव में कार्य का अभाव सूत्रकार दिखलाते हैं-अरिहन्न महर्षि वर्द्धमान स्वामी क्रोध, मान, माया तथा चौथा लोभ, इन अध्यात्म दोषों को त्याग करके न प्राणातिपात आदि पाप स्वयं करते हैं, न दूसरों से करवाते हैं और न पाप. સૂવાર્થ—અહમ્ મહર્ષિ ભગવાન મહાવીર ક્રોધ, માન, માયા અને લોભ રૂ૫ ચારે કષા રૂપ આન્તરિક દેને પરિત્યાગ કરવાવાળા હતા તથા પિોતે પાપ કરતા નહીં અને અન્યની પાસે પાપ કરાવતા નહીં પરદા ટીકાર્થ-કારણને અભાવ હોય, તે કાર્યને પણ અભાવ જ હોય છે, આ નિયમાનુસાર કષાયેન જીવમાં જે અભાવ હેય, તે તેના ભવભ્રમણને પણ અભાવ જ રહે છે, કારણ કે કષાયરૂપ અધ્યાત્મદેષ કારણ છે, અને સંસાર તેમના કાર્ય રૂ૫ છે. કારણને અભાવ હોય તે કાર્યને અભાવ હોય છે, એ વાતનું સૂત્રકાર પ્રતિપાદન કરે છે. અરિહન્ત, મહર્ષિ વર્ધમાન સ્વામીએ કોધ, માન, માયા અને લેભ રૂપ કષાયને-અધ્યાત્મ દેષોને-પરિત્યાગ કર્યો હતે. તેઓ પિતે પ્રાણાતિ For Private And Personal Use Only Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५३६ सूत्रकृताङ्गसूत्रे न वा कुर्वन्तमनुमोदते त्रिकरणत्रियोगः, सावधकर्मानुष्ठाने स्वयं न व्याप्रियते, नवाऽन्य प्रेरयति तादृशकार्यकरणे' न वा कुर्वन्तमनुमोदते एव । कुतः-सावद्यकर्मा ऽनुष्ठानस्य कारणानां क्रोधमानमायलोमानां समूल कार्ष कषितस्यात् । नहि भवति वह्नयभावे धूमस्य सत्त्वम्, तथैव सावधकर्मानुष्ठानकारणमायादीनामभावे, कथमित्र सावधर्म संभवेत् । कारणानामभावे हेतुर्भवति-अत्यम्, महर्षित्वमेवेति ॥२६॥ कर्म करने वाले का अनुमोदन करते हैं, न मन से, न वचन से और न काय से । इस प्रकार भगवान् तीन कारण और तीन योग से न स्वयं सावद्यानुष्ठान में प्रवृत्त होते हैं, न दूसरों को प्रवृत्त करते हैं और न प्रवृत्ति करनेवाले की अनुमोदना करते हैं । इसका कारण यही है कि सावद्य अनुष्ठान के कारण कोच, मान, माया और लोभ का भगवान् ने समूल उन्मूलन (उखेरना-नाशकरना) कर दिया है। अग्नि ही न हो तो धूम कहाँ से होगा? और क्रोध आदि कारणों के अभाव में उनका अरिहन्तत्व और महर्षित्व कारण है। तात्पर्य यह है कि अरिहन्त एवं महर्षि होने के कारण भगवान् निष्कषाप हैं और निष्कषाय होने से सावध अनुष्ठान से दूर रहते हैं।॥२६॥ પાત આદિ પાપકર્મો કરતા નહીં, બીજા પાસે એવાં પાપકર્મો કરાવતા નહી, અને પાપકર્મો કરનારની અનુમોદન પણ કરતા નહીં. મન, વચન અને કાયાથી તેઓ પાપકર્મો કરતા નહી, કરાવતા નહીં અને કરનારની અનમેદના કરતા નહીં. આ પ્રકારે ભગવાન ત્રણ કરણ અને ત્રણ પગ વડે પિતે પણ સાવધ અનુષ્ઠાનમાં પ્રવૃત્ત થતા નહીં અને અન્યને પ્રવૃત્ત કરતા નહી અને સાવદ્ય અનુષ્ઠાનમાં પ્રવૃત્ત થનારની અનુમે દના પણ કરતા નહી. તેનું કારણ એ હતું કે સાવ અડાના કારણભૂત કૌધ માન, માયા અને લેભને તેમણે સંપૂર્ણ રૂપે ઉછેદ કરી નાખ્યું હતું. જેમ અગ્નિને જ અભાવ હોય. તે ધુમાડાને સદ્દભાવ સંભવી શકે નથી, એજ પ્રમાણે ક્રોધ આદિ કાર ના અભાવમાં સાવદ્ય અનુકાને રૂપ કાર્યને પણ અભાવ જ રહે છે કોધ આદિ કારણના અભાવમાં તેમનું અરિહન્તત્વ અને મહર્ષિત કારણભૂત मन्यु तु. તાત્પર્ય એ છે કે અરિહત અને મહર્ષિ હેવાને કારણે મહાવીર પ્રભુ નિષ્કષાય હતા. અને નિષ્કષાય હોવાને કારણે તેઓ સાવધ અનુષ્ઠાનોથી દૂર २३ता ता. ॥२६॥ For Private And Personal Use Only Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र.श्रु. अ. ६ उ.१ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् १६७ मूलम्-किरियाँकिरियं वेणइयाणुवायं, अण्णाणियाणं पडियच ठाणं । से संबवायं इति वेयइत्ता, उवट्टिए संजमदीहरायं ॥२७॥ छाया-क्रियाक्रिये वैयिकाऽनुवाद, मज्ञानिकानां प्रतीत्य स्थानम् । स सर्ववादमिति वेदयिस्वा. उपस्थितः संयमदीर्घरात्रम् ॥२७ अन्वयार्थः-(करियाकिरिय) क्रियाऽकिये-क्रियावाद्यक्रियावादिमतम् (वेगइ. याणुवाय) वैनयिकानुवाद-मतम् (अन्गाणियाण) अज्ञानिकानाम् (ठाणे) स्थान 'किरियाकिरिय' इत्यादि। शब्दार्थ-किरियाकिरियं-क्रियाऽक्रिये' क्रियावादी अक्रियावादी मतको तथा 'वेणइयाणुवायं-वैनयिकानुवाद' विनयवादी के कथनको तथा 'अण्णाणियाण-प्रज्ञानिकानाम्' अज्ञानवादियों के 'ठाणं-स्थानम्' मतको 'पडियच्च-प्रतीत्य' जानकर 'से इति-स इति' वे वीर भगवान् इसप्रकार 'सव्ववायं-सर्ववादम्' सब वादियों के मतको 'वेयइत्ता-वेदयित्वा' जानकर के 'संजमदीहरायं-संथमदीर्घरात्रम्' जीवन भरके लिये 'उचट्टिए-उपस्थितः स्थि । हुए हैं ॥२७॥ ___ अन्वयार्थ क्रियावादियों के, अक्रियावादियों के, वैनयिको के तथा अज्ञानवादियों के मत को जान कर, इस प्रकार से सभी वादों को जान कर भावान महावीर जीवनपर्यन्त संयम में स्थित रहे ॥२७॥ " किरियाकिरिय" त्याह शहा-'किरियाकिरिय-क्रियाऽक्रिये' यपाही मने भयापही भतने तथा 'वेगइयाणुवाय-वैनयिकानुवादम्' विनयाहिना यनने तथा 'अण्णाणि याणं-अज्ञानिकानाम्' अज्ञानयाना 'ठणं-स्थानम्' मतने 'पडियच्च-प्रतीत्य' angla से इति-स इति' ते पा२ भगवान् l प्रभाव 'सव्ववायं-सर्ववादम्' मा याना भतने 'वेदइत्ता-वेदयित्वा' oneीने 'संजमदीहराय-संयमदी. रात्रम' स पन-त 'उपट्ठिए उपस्थितः' स्थित २७या छ. ॥ २७॥ સૂત્રાર્થ–ક્રિયાવાદીઓના, અક્રિયાવાદીઓના, વૈનાયિકેના અને અજ્ઞાનવાદીઓના મતને જાણુંને, આ પ્રકારે સઘળા વ દેને વરૂપને જાણી લઈને, ભગવાન મહાવીર જીવનપર્યત સંયમની આરાધનામાં અવિચલ રહા હતા રછા For Private And Personal Use Only Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतास्त्रे पक्षं मतम् (पडियच्च) प्रतीत्य-ज्ञात्वा (से इति) स वीरः इति एवं प्रकारेण(सन्यवायं) सर्वत्राई-सर्वरतं 'वेयइता' वेदपित्ता-ज्ञात्या (संजमदीहराय) संयम दीर्घरात्रम् (उवहिए) उपस्थिता-यावज्जीवं संयमोत्थानेनोस्थित इति ॥२७॥ ___टीका-किरियाकिरियं' क्रियाक्रिये 'वेणइयाणुवाय' वैनयिकानुवादम् । 'अण्गाणियाणं' अज्ञानिकानाम् 'ठाणं' स्थानम्-पक्षम् , अयवा-स्यीयतेऽस्मिमिति स्थानम्-दुर्गतिगमनादिकं सर्वम् 'पडियच्च प्रतीत्य-परिज्ञाय सम्यगवबुध्येत्यर्थः । क्रियावादिनस्तु-क्रियात एव मुक्ति भवतीति-क्रियामात्रमाचरणीयम् । अक्रिया वादिनः पुनः ज्ञानवादिनी ज्ञानादेव मोक्ष इति क्रियामुज्झांचक्रुः । तथा-विनयादेव मोक्षमाचक्षाणा विनयेन चरन्तीति वैनयिका व्यवस्थिताः । तथा-अज्ञानमेव टीकार्थ-भगवान् ने क्रियावादियों के मत को जाना, अक्रिया. धादियों के मत को जाना, वैनयिकों के बाद को जाना और अज्ञानवादियों के स्थान अर्थात् पक्ष को जाना । अथवा जिसमें स्थिति हो उसे स्थान कहते हैं, इस व्याख्या के अनुमार उनकी दुर्गति में होने वाली स्थिति को जाना अर्थात अज्ञान वाद से दुर्गति को प्राप्ति होती हैं, इस तथ्य को जाना। क्रियावादियों का मन्तव्य है कि अकेली क्रिया से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है, अतएव क्रिया का ही आचरण करना चाहिए । अक्रिया वादी ज्ञानवादी हैं, वे ज्ञान से ही मुक्ति मानते हैं, किया को निरर्थक समझते हैं । विनय से हो मोक्ष कहने वाले और बिनय का ही आचरण ટકાઈ –ભગવાન મહાવીર ક્રિયાવદીઓના મતને જાણ્ય, અક્રિયાવાદીએના મતને જાણ્યો, નચિકેના મતને જાણ અને અજ્ઞાનવાદીઓના સ્થાનને (પક્ષને પણ જાણી લીધું. અથવા જેમાં સ્થિતિ (ઉત્પત્તિ) થાય છે તેને સ્થાન કહે છે. આ વ્યાખ્યા પ્રમાણે જુદા જુદા મતવાદીઓની દુર્ગતિમાં કેવી સ્થિતિ (દશા) થાય છે, તે જાણ્યું. એટલે કે અજ્ઞાનવાદીઓના માર્ગને અનુસરવાથી દુર્ગતિની પ્રાપ્તિ થાય છે, અ, તથ્યને તેમણે જાણ્યું હતું. કિયાવાદીઓની માન્યતા એવી છે કે એકલી ક્રિયા દ્વારા જ મોક્ષની પ્રાપ્તિ થાય છે, તેથી ક્રિયાઓમાં જ પ્રવૃત્ત રહેવું જોઈએ. અક્રિયાવાદીઓ જ્ઞાનવાતી છે. તેઓ ક્રિયાને નિરર્થક માને છે અને જ્ઞાન દ્વારા જ મુક્તિ પ્રાપ્તિ થાય છે એમ માને છે. વિનયથી જ મોક્ષ પ્રાપ્ત થાય છે એવું માનીને વિનયનું For Private And Personal Use Only Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ६ उ.१ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् ५६९ ऐहिकामुनिका लानां कारणमितिकृया, मानिनो व्यवस्थिताः । इत्येवं बहुविधवादिनां मतमवगल्य-ज्ञात्वा, तथा-'से' स भगवान् बर्द्धमानस्वामी 'सवाय' सर्ववाद-सर्वमतम् 'वेयइत्ता' वेदयित्वा-सम्यग् ज्ञात्वा 'उअहिए' उपस्थित:सम्यगुस्थानेन संयमे व्यस्थितोऽभवत् । यथाऽन्ये परवादिनो दोषयुक्ताः शास्त्राणि कृत्वाऽपि वशिष्याणां मलिनोपचाराल्लघुतां प्राप्ताः, हे भगवन् ! ते दोषा स्त्वयि न सन्ति, यि तदोषाणामभावादिति । तदुक्तम्-'यथा परेषां कथका विदग्धाः शास्त्राणि कृत्वा लघु मुपेताः। शिष्यै रनुज्ञामविनोपचार वक्त वदोषास्त्वयि ते न सन्तिः ।१। इति । करने वाले वैनयिक कहलाते हैं। जो लोग अज्ञान को ही इस लोक तथा परलोक में कल्याणकारी मानते हैं, वे अज्ञानवादी कहलाते हैं। __ इस प्रकार विविधवादियों के वादों को विदित करके भगवान् महवीरस्वामी सभी मतों को सम्यक प्रकार से जानकर जीवनपर्यन्त के लिए संयम में स्थित हुए। जैसे दोषयुक्त परवादी शास्त्रों की रचना करके भी अपने शिष्यों के मलीन उपचार से लघुना को प्राप्त हुए हे प्रभो ? वे दोष आप में नहीं हैं। आप पाप के कारणभूत दोषों से सर्वथा रहित हैं। कहा है 'यथा परेषां कथका विदग्धाः' इत्यादि । जैसे दूसरे मतों के कुशल वादी शास्त्र रचकर लघुता को प्राप्त આચરણ કરનારાને વૈયિક કહે છે. જે લેકો અજ્ઞાનને જ આ લોક અને પરલોકમાં કલ્યાણકારી માને છે, તેમને અજ્ઞાનવાદી કહે છે. આ પ્રકારના વિવિધ મતવાદીઓના વદે વિષે મહાવીર પ્રભુએ ખૂબ જ ઊડે અભ્યાસ કર્યો. તે વાદેના ગુણદોષને બરાબર સમજી લીધા. તેમને જ્ઞાન અને ક્રિયા પ્રધાન મૃતચારિત્ર રૂપ ધર્મને જ શ્રેષ્ઠ ગણુને જીવનપર્યત સંયમની આરાધના કરી. જેવી રીતે અન્ય મતવાદીએ દેષયુક્ત શાસ્ત્રોની રચના કરીને પિતાના શિને મલીન આચરણને લીધે વામણું બન્યા-પિતાની મહત્તા ગુમાવી બેઠા, એવું હે પ્રભો ! આપની બાબતમાં બન્યું નથી. આપ તે પાપના કારણ भूत हाथी सवा २डित छ।. यु ५५ -" यथा परेषां कथका विदग्धाः " त्या: જેવી રીતે અન્ય તીથિકેએ, કુશલ શાસ્ત્ર રચના કરવા છતાં પણ, For Private And Personal Use Only Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५७० सूत्रकृताङ्गो __'संनमदीहरायं' संयमदीर्घरात्रम्-जीवनपर्यन्तं संयमोपस्थानेनोस्थितः । क्रियावादिनामक्रियावादिनां वैनयिकानामज्ञानिनां बौदादीनां च मतानि सम्यक् परिज्ञाप, भगवान् तीर्थकरो महावीरस्वामी जीवनपर्यन्तं संयमाऽनुष्ठान ए। युक्तोऽभवत् । परित्यज्य सर्वबादं संयमे एव तत्परोऽपवत् । ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्ष इति विदित्वा ज्ञान क्रिपयोरेव पयत्नः कुतो न तु एक पक्षे एत्र इति भावः॥२७॥ मूलम्-से वारिया इत्थी सराइभत्तं, उवहाणवं दुक्खखयट्टयाए। लोगं विदित्ता आरं परं च, सव्वं पy वारिय संववारं॥२८॥ छाया-स वारयित्वा स्त्रियं सरात्रिभक्ता मुपधानवान दुःखक्षयाय । ___ लोके विदित्वाऽऽरं परंच सर्व प्रभुरितवान् सर्ववारम् ॥२८॥ हुए, क्यों कि उनके शिष्यों ने दोषयुक्त आचरण किया। वे दोष आप में नहीं हैं ॥१॥ क्रियावादियों, अक्रियावादियों, वैनयिकों, अज्ञानिकों एवं बौद्ध आदि के मतों को सम्यक प्रकार से जान कर भगवान महावीर स्वामी जीवन पर्यन्त संयमानुष्ठान में ही उद्यन रहे । ज्ञान और क्रिया से मुक्ति होती है, ऐसा जान कर ज्ञान और क्रिया की साधना के लिए यत्नशील रहे, किसी भी एकान्त पक्ष को उन्होंने स्वीकार नहीं किया।२७/ લઘુતા પ્રાપ્ત કરી છે, કારણ કે તેમના શિષ્યનું આચરણ દેષયુક્ત હતું, હે प्रल ! ते होष मापनामा नथी" ક્રિયાવદિઓ, અક્રિયાવાદિઓ, વૈનાયિકે, અજ્ઞાનિકો અને બૌદ્ધ આદિના મતોને સારી રીતે જાણી લઈને–એક્ષપ્રાપ્તિ માટે તે તેને અગ્ય ગણીને મહાવીર સ્વામી જીવનપર્યત સંધમાનુષ્ઠાનમાં જ પ્રવૃત્ત રહ્યા. જ્ઞાન અને ક્રિયા દ્વારા જ મુક્તિ મળે છે, એવું જાણીને તેઓ જ્ઞાન અને ક્રિયાની સાધનેને માટે જ પ્રયત્નશીલ રહ્યા હતા. કોઈ પણ એકાત પક્ષને તેમણે સ્વીકાર કર્યો નહીં. ારા For Private And Personal Use Only Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संमयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अं. ६ उ.१ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् ५७१ अध्यार्थः -(से पभू) स प्रभुीरः (सराइमत्तं इत्यि वारिया) सरात्रिभक्तां स्त्रियं वारयित्वा-रात्रिभोजनं स्वीसेवनं च परित्यज्य (दुक्खखयट्टयाए) दुःखक्षयार्थम्-कर्मनाशाय (उवहाणवं उपधानवान-तीवारोनिष्ठप्रदेशः (आरं परं च लोगं विदित्ता) आरं च परं च लोकं विदित्वा इह लोकं परलोकं तत्कारणं च ज्ञात्वा (सम्मवारं सव्वं वारिय) सर्ववारं सर्ववारितमान-सर्वमेतत् बहुशो निवारितवान् पुन: पुनः माणातिपातादिनिषेधं स्वतोऽनुष्ठाय पराश्च स्थापितवान् इति ॥२८॥ टीका-'से पभू' स प्रभुभगवान तीर्थकरः 'सराइभत्तं इत्थी वारिया' सरात्रिभक्तां स्त्रियं वारयित्वा, रात्रौ भक्तं भोजनमितिरात्रिभक्तम् , रात्रिभोजन. 'से वारिया' इत्यादि। शब्दार्थ-'से पभू-स प्रभुः वह प्रभु महावीर स्वामी 'सराइमत्तं इस्थी वारिया-सरात्रिभक्तां स्त्रियं वारयित्वा' रात्रि भोजन और स्त्रीको छोड करके 'दुक्खखयघाए-दुःखक्षयार्थम्' दुःख के क्षाके लिये 'उवहा. णवं-उपधानवान्' तपस्या में प्रवृत्त थे 'आरं परं च लोगं विदित्ताआरं परं च लोकं ज्ञात्वा' इमलोक तथा परलोक को जानकर 'सधवारं सव्वं वारिय-सर्ववारं सर्व वारितवान्' भगवानने सब प्रकार के पापको छोड दिया था ॥२८॥ ___अन्वयार्थ-प्रभु महावीर ने रात्रिभोजन के साथ स्त्री सेवन को भी त्याग कर दुःखो का क्षय करने के लिए, तपश्चर्या से युक्त होकर इहलोक परलोक और उनके कारणों को विदित करके सब पापों को पूर्ण रूप से त्याग दिया था ॥२८॥ " से वारिया " त्याह शहाथ- से पभू-स प्रभुः' त प्रभु महावीर स्वामी 'सराइभत्तं इत्थी वारिया-सरात्रिभक्तां स्त्रियं वारयित्ता' रात्रिमा भने सीन छीन 'दुक्खखयट्टयाए-दुःखक्षयार्थम्' मना क्षमाट 'उवहाणवं-उपधानवान्' त५. स्यामा प्रवृत्त ता 'आरं परं च लोग' विदित्ता-आर परच लोकं ज्ञात्वा' मा सो मने पसने धीन 'सव्ववारं सव्वं वारिय-सर्ववार सर्व वारितवान्' मावाने ५५.४ ५४१२५॥५ने छोडी दीया 11 ॥ १८ ॥ સૂત્રાર્થ–મહાવીર પ્રભુએ રાત્રિભેજનની સાથે સેવનને પણ સર્વથા. પરિત્યાગ કર્યો હતો. દુઃખને (ક ) ક્ષય કરવાને માટે, તેમણે ઘેર તપસ્યા કરી હતી. તેમણે આ લેક, પરલોક અને તેમનાં કારણેને જાણ લઇને સમસ્ત પાપને સર્વથા ત્યાગ કર્યો હતે. મારા For Private And Personal Use Only Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५७२ सूत्रकृताङ्गसूत्रे - मित्यर्थः, रात्रि मक्केन रात्रिभोजनेन सहितामिति सरां त्रियं वारयित्वापरित्यज्य 'उवहागनं' उपधानवान - उपधानं घोरं तपः तद्वियते यस्यायों उधानवान् संवृत्तः । किमर्थमुवधानवान् अभवत् तत्राह - 'दुःखखयदुयाए' दुःख क्षयार्थाय - दुःखानां - मानसिककायिकानां क्षयार्थम् । एते हि रात्रिभोजनादयः प्राणिहिंसामूलका स्तदाचरणेन प्राणिहिंसा जायते । हिंसया दुःखमयं भावि, इति पर्यालोच्य रात्रिभोजनादिकं परित्यक्तवान् । तथा तपसि मनो निवेशितवान् । अथवा दुःखपति - सन्तापपतोति दुःखं दुःखकारणं कर्म तस्य क्षयो विनाशस्तस्मै । तथा-'लोगं विदित्ता आरं परंच' किंच लोकं संसारं त्रिदिवा - आरं - इह लोकम्, च- पुनः परं - परलोकम् । यद्वा - आरं - मनुष्यलोकम् परं नार , टीकार्थ - भगवान् महावीर रात्रि भोजन के साथ स्त्री सेवन को स्याग करके घोर तपस्वी बने थे। उनके घोर तपस्वी होने का प्रयोजन क्या था ? इस प्रश्नका उत्तर देते हुए कहा है शारीरिक मानसिक affar दुःखों का क्षय करने के लिए उन्होंने तपोलय जीवन अंगीकार किया था। रात्रि भोजनादि प्राणियों की हिंसा के मूल हैं। इनके सेवन से प्राणियों की हिंसा अनिवार्य है। हिंसा दुःखों की जननी है। ऐसा सोच कर रात्रिभोजनादि समस्त सावयव्यापारों का त्याग कर दिया था और तपस्या में मन लगाया था । अथवा जो दुख देता हैं, संताप पहुँचाता है, उसे दुःख कहते हैं, इस व्याख्या के अनुसार कर्म दुःख के कारण हैं, अतएव कर्मों का क्षय करने के लिए भगवान् ने तप अंगीकार किया था । ટીકા —ભગવાન મહાવીર રાત્રિ ભાજનના અનેÁસેવનને ત્યાગ કરીને ઘાર તપસ્યાએ કરવા લાગ્યા હતા. તેએ શા માટે ઘેર તપાસ્યાએ કરતા હતા ? આ પ્રશ્નના ઉત્તર આપતા સૂત્રકાર કડે છે કે-માનસિક, વાચિક અને કાયિક દુઃખાના ક્ષય કરવાને માટે તેમણે તામય જીવન અગીકાર अयु तु रात्रिलोकन, अग्रानु सेवन, आदि अर्यो द्वारा हिंसा थाय छे. તેમનું સેવન કરનાર લેકે પ્રાણીઓની હિંસા અવશ્ય કરે છે. હિંસા જ દુઃખેાની જનની છે, એવું સમજીને તેમણે રાત્રિèાજન આદિ સમસ્ત સાવદ્ય યાપા રાના પરિત્યાગ કરીને તપસ્યામાં મનને લીન કર્યું હતુ.. અથવા જે દુઃખ ઢે છે. સંતાપ ઉત્પન્ન કરે છે, તેને દુઃખ કહે છે. આ વ્યાખ્યા પ્રમાણે ક જ દુ:ખનું કારણુ છે. એવું સમજીને કાના ક્ષય કરવાને માટે ભગવાન્ મહાવીરે તપ અંગીકાર કર્યુ” હતું. For Private And Personal Use Only Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र.श्र. अ. ६ उ.१ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् ५७३ कादिलोकं दुःखनिदानं ज्ञात्या, स्वरूपतः कारगतश्च ज्ञात्वा, 'सवारं' सर्वेवारम् 'स' सर्वम् 'वारिय' वारितवान-बहुशो निवारणं कृतवान् । नहि स्वयमनवस्थित स्तस्मिन् परान् व्यवस्थापयितुं समर्थों भवतीति । __ यावत्पर्यन्त स्वयमिन्द्रियनिग्रहं न करोति तावदुपदिश्य परानपि इन्द्रियदमनादौ न व्यवस्थापयतीति स्वमनसि निश्चित्य स्वयमेव भगवता इन्द्रियाणि निगृह्य परस्मै उपदिधमिति । तदुक्तम्-- 'ब्रुवाणोऽपि न्याय्यं स्ववचनविरुद्धं व्यवहरन परानाऽलं कश्चिदमयितुमदान्तः सत्यमिति । भवान्निश्वित्यैवं मनसि जगदाधाय सकलं, स्वमात्मानं तावदमयितु मदान्तं व्यवसितः ॥१॥ इति ॥ आर अर्थात् इहलोक और पार अर्थात् परलोक अथवा आर अर्थात् मनुष्यलोक और पार अर्थात् नरकादि लोक को दुःख का कारण जान कर, उन्हें स्वरूप एवं कारणों से पहचान कर त्याग दिया था। __भगवान ने प्रागातिपान आदि पापों का स्वयं त्याग करके दूसरों को भी उस त्याग में स्थापित किया था, क्यों कि जो स्वयं उनमें स्थित न हो वह दूसरों को स्थिा करने में समर्थ नहीं हो सकता । जब तक कोई स्वयं इन्द्रिय निग्रह नहीं करता तब एक उपदेश देकर दूसरों को इन्द्रिय निग्रह आदि में नियोजित नहीं कर सकता, આર એટલે કે આ લેકને અને “પાર એટલે કે પરલકને, અથવા ‘આર એટલે મનુષ્યને અને પાર” એટલે નરકાદિ લેકને દુઃખનું કારણ જાણીને, તેમના સ્વરૂપનો અને તેમની પ્રાપ્તિના કારણેને પૂરે પૂરો ખ્યાલ આવી જવાથી, તેમાં પુનરાગમન ન કરવું પડે એવી પ્રવૃત્તિ કરીને આઠ પ્રકારનાં કર્મોને ક્ષય કરીને-તે એ નિર્વાણ પામ્યા છે. મહાવીર પ્રભુએ પ્રાણાતિપાત આદિ પાપને પિતે ત્યાગ કર્યો હતે અને અન્ય જીને પણ તે ત્યાગ કરવાને ઉપદેશ આપ્યો હતો. એ નિયમ છે કે ઉપદેશક જે વસ્તુના ત્યાગને ઉપદેશ આપતે હેય તેને, ત્યાગ પહેલાં તે તેણે જ કરવો જોઈએ. તેમજ તેના ઉપદેશની અન્ય લેકો પર સારી અસર પડે છે. જ્યાં સુધી કેઈ ઉપદેશક પિતે જ ઇન્દ્રિયને નિગ્રહ કરે નહીં, ત્યાં સુધી અન્યને ઇન્દ્રિયનિગ્રહ આદિ કરવાનું કહેવામાં સફળ થઈ શકે નહીં. આ વાતને For Private And Personal Use Only Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra • ५७४ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे तथा -- तित्थयरो चउनाणी सुरमहिओ मिम्झिन वधूयमि । अणिगृहियबल विरिओ सन्वत्थामेसु उज्जम' || २ || छाया - तीर्थकरश्चनुर्ज्ञानी सुरमहितः सेवितव्येऽवधूते (मोक्षे) अनि तिबलवीर्यः सर्व स्थान उमति ॥ १ ॥ आस्यार्थः -- चतुर्ज्ञानवान देवपूजपस्तीर्थकरो मोक्षप्राप्यै स्वकीयवलवीदिकमुपयुञ्जन् सर्ववलेन सह प्रयत्नं कृतवानिति ॥ अपने मत में इस प्रकार निश्चय करके स्वयं भगवान् ने अपनी इन्द्रियों का निग्रह किया, तत्पश्चात् दूसरों को उसके लिए उपदेश दिया । कहा भी है- ब्रुवाणोऽति' इत्यादि । 'आपने यह निश्चय किया कि कोई न्याययुक्त वचन कहता हुआ भी यदि स्वयं अपने कथन के विरुद्ध आचरण करता है तो दूसरों को इन्द्रियनिग्रह में प्रवृत्ति कराने में समर्थ नहीं हो सकता। इस प्रकार निश्चय करके तथा समस्त जगत् के स्वरूप को ज्ञात करके आप इन्द्रिय निग्रह में तपमें प्रवृत्त रहे ॥ १॥ ॥ और भी कहा है- 'तित्थयरो चउनागी' इत्यादि । चार ज्ञानों से सम्पन्न तथा देवों के भी पूज्य तीर्थकर मोक्ष प्राप्त करने के लिए अपने बल वीर्य का उपयोग करते हुए सम्पूर्ण शक्ति के साथ प्रयत्नशील हुए ' ॥ १ ॥ હૃદયમાં અવધારણ કરીને મહાવીર પ્રભુએ પેાતે જ પહેલાં તે ઇન્દ્રિયાના નિગ્રહુ કર્યાં અને ત્યાર બાદ લેકને ઇન્દ્રિયાના નિગ્રહ કરવાના ઉપદેશ દીધા. उधु पशु है- " ब्रूत्राणोऽपि "त्यादि “ કાઇ ન્યાયયુક્ત વચન કહેવા છતાં પણ જો કહેનાર પે તે જ પાતાના કથન વિરૂદ્ધનું આચરણુ કરે છે, તે કહેનાર (ઉપદેશક) અન્ય લેકને ઇન્દ્રિયનિગ્રમાં પ્રવૃત્ત કરાવવાને શક્તિમ ન થતા નથી. આ પ્રકારના નિશ્ચય કરીને તથા સમસ્ત જગતના સ્વરૂપને જાણી લઈને મહાવીર સ્વામી પેતે જ ઇન્દ્રિ योना निश्रडुमां-तथमां प्रवृत्त थया " वजी मेवु अधु छे है-" तित्थयरो चउनाणं " त्याहि For Private And Personal Use Only 66 સાર જ્ઞાનાથી સ ંપન્ન તથા વેને પણ પૂજય એવા તીર્થંકર માક્ષ પ્રાપ્ત કરવાને માટે પેાતાના ખાવી ને ઉચેાગ કરીને પેતાની સંપૂર્ણ શક્તિ સાથે પ્રયત્નશીલ થયા હતા '' Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir LA DI- - -- - - समयार्थबोधिनी टोका प्र. श्रु. अ. ६ उ.१ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् । ___ भगवान् महावीर स्वामी स्वकीयाऽष्टविधकर्माऽपनेतुं स्त्रिया रात्रियोजनं चपरित्यक्तमान् । तथा तदैव स्वयं तपसि प्रदर्चमानः इहलोकपरलोको स्वरूपतो. हेतुनश्च परिज्ञाय, सर्वाण्यापि सायकऽनुष्ठानानि परित्यक्तवानिति ॥२८॥ __ अथेदानीं सुधर्मस्वामी तीर्थकां गुणान् सम्यक् कथयित्वा, शिष्यानुदिशति-'सोचा य धम्म' इत्यादि। मूलम्-सोच्चा य धम्म अरहंतमास्तियं, समाहिये अटपओवसुद्धं । तं सदहाणा य जणा अणाऊं, ईदा व देवाहित आगमिस्तंति॥२९॥ तिबेमि॥ छाया-श्रु वा च धर्ममहद्भाषितं, समाहितमर्थपदोपशुदम् । तं श्रधानाच जना अनायुग, इन्द्रा इत्र देवाधिषा अगमिष्यन्ति ॥२९॥ इति ब्रवीमि । __तात्पर्य यह है कि भगवान महावीर स्वामी ने अपने आठ प्रकार के कर्मों को दूर करने के लिए स्त्री लेवन का तथा रात्रिभोजन का स्याग किया। निरन्तर तप में उद्यत रहे। इहलोक और परलोक को स्वरूप और कारणों से जान कर समस्त सावधव्यापारों का परित्याग कर दिया ॥२८॥ सुधर्मा स्वामी तीर्थकर भगवान के गुणों का सम्यक् कथन करके अथ शिष्यों को उपदेश देते हैं-'सोच्चा य धम्म' इत्यादि शब्दार्थ-'अरहंतभामियं-अहभाषितम्' श्री अरिहंत देव के द्वारा कथित 'समाहितं-समाहितम्' युक्तियुक्त 'अठ्ठपोषसुद्ध-अर्थ તાત્પર્ય એ છે કે ભગવાન મહાવીર સ્વામીએ પિતાનાં આઠ પ્રકારનાં કને ક્ષય કરવા માટે રાત્રિભોજન, સ્ત્રીસેવન આદિ સાવદ્ય કાર્યોને ત્યાગ કર્યો તથા નિરન્તર તપસ્યા કર્યા કરી. તેમણે આ લોક અને પરાકના સ્વરૂપને તથા કારણેને જા ! લઈને સમસ્ત સાવદ્ય વ્યાપારને પરિત્યાગ કરી નાખ્યા હતા. ૨૮ - મહાવીર પ્રભુના ગુણેનું સમ્યક્ પ્રકારે કથન કરીને સુધમાં સ્વામી પિતાના શિષ્યોને આ પ્રમાણે ઉપદેશ આપે છે. " सोच्चा य धम्म" त्या साथ-'अरहंतभासिय-अर्हद् भाषितम्' श्री मति २१ पामा मावस 'समाहित-समाहितम्' मुहित युत 'अनुपओवमुबं-बर्षपोष For Private And Personal Use Only Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे D जायार्थ:-- ( अरहंतभासियं) अद्वापितं - तीर्थकरमतिपादितम् (समाहियं ) समाहितं युक्तियुक्तम् (अपमृद्ध अर्थ पदोषशुद्धम्-अः पदैश्च निर्दोषम् ( धम्मे सोचा ) धर्मे - श्रुतचारित्रलक्षणं श्रुखा (तं सद्ददाणा ) तं - धर्ममद्भाषितं श्रद्दधानाः तत्र श्रद्धां कुर्वन्तः (जणा) जनाः- लोकाः (अणाऊ ) अनायुषः - अपगतायुःकर्माणः सन्तः मोक्षं प्राप्नुवन्ति - अथवा - ( इंदा व इन्द्रा इव (देवाहिब ) देवाधिपाः- देवस्वामिन: ( आगमिस्संति) आगमिष्यन्ति - भविष्यन्तीति ॥ २९ ॥ टीका - - ' अरहंतमा सियं' अद्भाषितम् 'समाहिये' समाहितम् युक्तियुक्तम् 'अपवसुद्धं ' अर्थपदोषशुद्धम्, अधैः पतिपाद्याभिधेयैः पदेस्तद्वाचकशब्दैः उपपदोषशुद्धं'- अर्थ और पदों से युक्त 'धम्मं सोच्चा धर्म श्रुत्वा धर्म को सुनकर 'तं सदहाणा-तं श्रद्दधानाः' उसमें श्रद्धा रखने वाले 'जणाजनाः' मनुष्य 'अणाउ - अनायुषः' मोक्षको प्राप्त करते हैं अथवा 'इंदाव इन्द्र इव' वे इन्द्र के जैसे 'देवाहिव देवाधिपाः' देवताओं के अधिपति 'आग मिस्संति - आगमिष्यन्ति' होते हैं ||२९| - अन्वयार्थ - अरिहन्त के द्वारा प्ररूपित, युक्तियुक्त, अर्थ और शब्द दोनों दृष्टियों से निर्दोष धर्म को श्रवण करके, उस पर जो श्रद्धा करते हैं, वे भजन आयुकर्म से रहित हो कर मुक्तिकाभ कर लेते हैं अथवा इन्द्र के समान देवों के अधिपति होते हैं ॥ २९ ॥ टीकार्थ- सर्वज्ञ सर्वदर्शी अरिहन्त भगवन्त द्वारा भाषित युक्ति संगत तथा भाव और भाषा अर्थात् वाच्य और वाचक या अर्थ एवं शब्द दोनों ही दृष्टियों से सर्वधा निर्दोष श्रुतचारित्र रूप धर्म को सुन शुद्ध' अर्थ भने पोथी युक्त 'धम्मं सोच्चा-धर्मं श्रुत्वा धर्मने सांभजीने 'वं मद्दाणा - तं श्राधानाः' तेमां श्रद्धा रामवावाणा 'जणा-जनाः मनुष्य 'अणा - अनायुषः ' भोक्षने प्राप्त मेरे छे. अथवा 'इंदाव - इन्द्र इव' तेथे न्द्र नीम 'देवाहिव - देवाधिपाः' देवताओना अधिपति 'आगमिस्संति - आगमि - व्यन्ति' थाय छे ॥ २८ ॥ સૂત્રા અરિહન્ત ભગવાન્ દ્વારા પ્રરૂપિત, યુક્તિયુક્ત, અ` અને શબ્દ અને દષ્ટિએ નિર્દોષ ધંનું શ્રવણુ કરીને, તેના ઉપર જે શ્રદ્ધા રાખે છે, તે ભવ્ય-જીવા આયુકમ થી રહિત થઇને મુક્તિ પ્રાપ્ત કરી શકે છે, અથવા રવાના અધિપતિ ઇન્દ્રની પદવી તે અવશ્ય પ્રાપ્ત કરે છે. રા मार्थ- सर्वज्ञ, सर्वदृशी अरिहन्त भगवन्ती द्वारा लाषित, युक्तिस વર્ષી ભાવ અને ભાષા એટ્લે કે વાચ્યું અને વાચક અથવા અથ અને For Private And Personal Use Only Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनो टोका प्र. श्रु. अ. ६ उ.१ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् ५४ सामीप्येन शुद्ध-निर्दोषम् , तदेवंभूतम् , 'धम्म' धर्मम् दुर्गविधारणाद् धर्म-श्रुतचरित्राख्यम् 'सोचा' श्रुत्वा, तथा 'त' तम्-तादृशं धर्मम् 'सदहाणा' श्रधानाः तत्रं श्रद्धामाधायाऽनुतिष्ठन्ता, 'जणा' जनाः-पुरुषाः 'अगाऊ' अनायुषा-अप गतायुःकर्माण श्वेत्तदा सिद्धा भवन्ति, सायुपश्चेवदा 'इंदा व इन्द्रा इव 'देवा: हिव' देवाधिपाः 'आगमिस्संति' आगमिष्यन्ति, इन्द्रा इव देवाधिपतित्वमश्नुवते, सर्वज्ञतीर्थकरोदितधर्मान् श्रुत्वा श्रद्वया च तदाराधनं कुर्वाणा लोकाः आयुःकर्मणोऽपगमे मुक्ता भवन्ति, अथवा-साभिलाषाश्वेतदा इन्द्रा इव देवानामधिपतयो भवन्तीति भावः ॥२९॥ ___ इत्यहं कथयामि सर्वज्ञभाषितं धर्म भवद्भयः, इत्येवं सुधर्मस्वामी विज्ञापयतिशिष्येभ्य इति इति श्री-विश्वविख्यातजगद्वल्लभादिपद भूपितबालब्रह्मचारि - 'जैनाचार्य' पूज्यश्री-घासीलालबतिविचितायां श्री सूत्रकृताङ्गस्य "समयार्थबोधिन्या. ख्यायां" व्याख्यायां वीरस्तवाख्यं षष्ठमध्ययनं समाप्तम् ॥६-१॥ कर उस पर श्रद्धा करने वाले भव्य पुरुष आयुकर्म से रहित हो जाते हैं तो सिद्धि प्राप्त करलेते हैं। यदि आयुकर्म विद्यमान हो अर्थात कर्म शेष रहगए हों तो इन्द्र के समान देवाधिपति होते हैं। आशय यह है कि तीर्थकर प्ररूपित धर्म को श्रमण करके उस पर: श्रद्धा करने वाले तथा उसकी आराधना करने वाले जन आयु तथा कर्मों से रहित होकर मुक्त हो जाते हैं। कदाचित् वे साभिलाष होकर्मक्षय न कर पाये हों तो देवेन्द्र की पदवी प्राप्त करते हैं ॥२९॥ इस प्रकार में सर्वज्ञोक्त धर्म कथन करता हूँ। छटा अध्ययन समाप्त શબ્દ અને દૃષ્ટિએ સર્વથા નિર્દોષ મુતચારિત્ર રૂપ ધર્મનું શ્રવણ કરીને, તેના ઉપર દઢ શ્રદ્ધા રાખનાર ભવ્ય પુરુષે જે આયુકર્મથી રહિત થઈ જાય, તે સિદ્ધિ (મોક્ષ) પ્રાપ્ત કરે છે. પરંતુ જે તેના આયુકમને સર્વથા ક્ષય ન થઈ જાય એટલે કે કર્મ બાકી રહી જાય તે ઈન્દ્રના સમાન દેવાધિપતિ તે અવશ્ય થાય છે. તાત્પર્ય એ છે કે તીર્થકર પ્રરૂપિત ધર્મનું શ્રવણ કરીને તેના પર શ્રદ્ધા રાખનાર તથા તેની આરાધના કરનાર પુરુષ આયુ તથા કર્મોથી રહિત થઈને મુક્ત થઈ જાય છે. કદાચ તેઓ સાભિ કાષ હાય-કમને પૂરે પૂરાં ક્ષય ન કરી શક્યા હોય, તે દેવેન્દ્રની પદવી તે અવશ્ય પ્રાપ્ત કરે છે. પરંભ આ પ્રકારે હું સર્વોક્ત ધર્મનું કથન કરું છું,” એવું સુધર્મા સ્વામી જંબુસ્વામી આદિ શિષ્યને કહે છે. છે છતું અધ્યયન સમાસ For Private And Personal Use Only Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे अथ सप्तमाध्यरनं प्रारभ्यतेगते षष्ठमध्ययनम् , संमति सप्तममध्ययनमारमते। षष्ठानन्तरमागमिष्यतः सर्तमाध्ययनस्य षष्ठेन सहायं संबन्धः, 'नाऽसंगतं विदध्यात्' इति नियमात् संगति प्रदर्शनमावश्यकं भवति, अतः संबन्योऽवश्यमेव दर्शनीयः । तथाहि-इह व्यतीतानन्तरेऽध्ययने भगवतस्तीर्थकरस्य श्री वर्धमानस्वापिनो गुणाः कथिताः, वाशगुणवन्तः सुशीलाः। एतदनन्तरं सद्विपरीताः कुशीलाः ते कथ्यन्ते, संदनेन संबन्धेनाऽऽयातस्य सप्तमाऽध्ययनस्य प्रथमम् आधगाथाद्वयमाह'पुढधी य' इत्यादि । सातवाँ अध्ययन'छठा अध्ययन समाप्त हुआ। अब सतवाँ प्रारंभ किया जा रहा है। छठे अध्ययन के पश्चात् आने वाले सातवें अध्ययन का उसके साथ यह सम्बन्ध है। असम्बद्ध कथन या कार्य नहीं करना चाहिए, "इस नियम के अनुसार संगति प्रदर्शित करना आवश्यक होता है। अंतः सम्बन्ध दिखलाना चाहिए। पिछले छठे अध्ययन में भगवान् पर्द्धमान के गुणों का कथन किया गया है। वैसे गुणों से जो युक्त होते हैं, वही सुशील कहलाते हैं। उनमे विपरीत हैं, वे कुशीलवान होते है, उनका कथन इस अध्ययन में किया जाएगा। इस सम्बन्ध से प्रास सातवें अध्ययन की दो माथाएँ कहते हैं-'पुढचीष आऊ' तथा एयाई कायाई' इत्यादि। -मध्ययन सातછઠું અધ્યયન પૂરું થયું. હવે સાતમાં અધ્યયનની શરૂઆત થાય છે. છા અધ્યયન સાથે સાતમાં અધ્યયનને સંબંધ હવે બતાવવામાં આવે છે. અસંબદ્ધ કથન કે કાર્ય કરવું જોઈએ નહીં, આ કથન અનુસાર સંગતિ (સંબંધ) પ્રદર્શિત કરવાની આવશ્યકતા રહે છે, તેથી પૂર્વ અધ્યયન સાથેને આ અધ્યયનને સંબંધ પ્રકટ કરવામાં આવે છે. છકા અધ્યયનમાં વધમાન મહાવીર પ્રભુના ગુણેનું વર્ણન કરવામાં આવ્યું. એવાં ગુણોથી જેઓ યુક્ત હોય છે, તેમને જ સુશીલ કહેવામાં આવે છે. પરંતુ તે ગુણે કરતાં વિપરીત ગુણાથી (દેથી) જે યુક્ત હોય છે, તેમને કુશીલ કહે છે. એવાં કુશીલ લેકેનું કથન સાતમાં અધ્યયનમાં કરવામાં આવશે. આ પ્રકારને પૂર્વ અધ્યયન સાથે સંબંધ ધરાવતા આ સાતમાં અધ્યયનની પહેલી બે ગાથાઓ मा प्रमाणे-'पुढवीय आउ०' तथा एयाई कायाई' त्याह - - -- For Private And Personal Use Only Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org मार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ७ उं. १ कुशीलवतां दोषनिरूपणम् मूलम् - पुढवीय आऊ अगणी य वाउ, Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir , ५४९ तणरुक्ख बीया य तसा य पाणा । जे अंडया जे य जराउ पाणा, संवेयया जे रसयाभिहाणा ॥१॥ एयाई कायाई पवेइयाई, एएसु जाणे पडिलेह सायं । एएण कारण य आयदंडे, एएसु या विप्परियासुर्विति ॥२॥ छाया - पृथिवी चाssपश्चाऽग्निश्व वायुः तृणवृक्षबीजाश्व सवगणाः । suडजा ये च जरायुजाः प्राणाः संस्वेदजा ये रसजाभिधानाः ॥ १ ॥ एते कायाः प्रवेदिताः एतेषु जानीहि मत्युपेक्षस्त्र सातम् । एतैः कायें ये आत्माइण्डा एतेषु च विपर्यासमुपयान्ति ॥ २ ॥ शब्दार्थ - 'पुढवी य - पृथिवी व' पृथिवी 'आउ अगणी प बाऊआपः अग्निश्च वायु' जल, अग्नि, और वायु 'तणरुक्खवीया य तसा य पाणा- तृणवृक्षवीजाश्च त्रसाश्च प्राणाः' तृण, वृक्ष, बीज और त्रसप्राणी 'जे अंडपाचाण्डजाः' तथा जो अण्डज 'जे य जाउ पाणाये च जरायुजाः प्राणाः' और जरायुज प्राणी है 'जे संसेपया ये च संस्वेदजाः तथा जो संस्वेदज एवं 'जे रसयाभिहाणाये रसाभिधानाः' जो विक्रिया वाले रससे उत्पन्न होने वाले प्राणी है 'एयाई कायाई पवेइयाई- एते कायाः प्रवेदिता:" इन सबों को सर्वज्ञने जीवका पिण्ड कहा है 'एएस - एतेषु' इन पृथिवीकाय आदिकों में 'सायं जाण - सातं जानीहि ' सुख की इच्छा जानो 'पडिछेह-प्रत्युपेक्ष. For Private And Personal Use Only शार्थ' - 'पुढवी - पृथिवी च' पृथ्वी 'आज अगणी य वाऊ - आपः अमिश्व वायुः' ४, अग्नि भने वायु 'तणरुकखबीया य तथा य पाणा- तृणवृक्षबीजाश्व श्रश्वाश्च प्राणाः तृष्णु, वृक्ष, जी भने स प्राणी 'जे अंडया - ये चाण्डजाः' तथा भेो। म मने 'जेय जराउ पाण:- ये च जरायुजाः प्राणाः' ले ४२ सुन प्राणी छे, 'जे संसेवया - ये च संस्वेदजाः ' तथा यो सस्वेदन तथा 'जे रसयाभिहाणाः- ये च रसजाभिधानाः । रसथी उत्पन्न धवावाजा आशियो छे 'एयाई कायाई पवेइयाई - एते कायाः प्रवेदिताः' यामधाने सर्वज्ञे - लवना पिंड व छे. 'एएसु - एतेषु' मा पृथ्वीभय विगेरेभां 'साथ' जाण-स्वातं जानीहि ' Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ६५० www.kobatirth.org सूत्रकृताङ्गसूत्रे अन्वयार्थ :- ( पुढवी य) पृथिवी च (आऊ अगणी य वाऊ) आप: अग्निश्व वायुः (तणरुक्खचीया य तसा य पाणा) तृणानि - कुशकाशादीनि, वृक्षा: - आम्रादयः बीजानि - यवादीनि च त्रस : द्वीन्द्रियादयः च प्राणाः प्राणिनः, (जे अंडया) ये चाण्डजाः शकुनिप्रभृतयः (जे य जराउपाणा) ये च जरायुजाः - गर्मचर्मजाः प्राणाः (जे संसेयया) ये च संस्वेदजाः - यूका मस्कुणादयः (जे रसयामिहाणा) ये च रसजाभिधानाः - विकृत वस्तुषु जाताः, (एयाई कायाई पवेइयांई) एते पृथिव्यादयः कायाः जीवनिकायाः प्रवेदिताः कथिताः (एएस) एतेषु पृथिवीकायादिषु (सायं जाणे) सातं सुखं जानीहि ( पडिलेह) प्रत्युपेक्षस्व सूक्ष्मरीत्या विचारय (एपेण कारण य आयदंडे ) एतैः कायै ये आत्मदण्डाः एतान् विनाश्य ये आत्मानं स्व' और उसे सूक्ष्म रीति से विचारो 'एएण कारण य आपदंडे - एतैः कायैः ये आत्मदण्डाः' जो उक्त प्राणियों का नाश करके अपने आत्मा को दंड देते हैं वे 'एएस य विपरियासुविंति - एतेषु च विपर्यासमुपया न्ति' इन्हि प्राणीयों में जन्म धारण करते हैं ॥ १-२ ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अन्वयार्थ - पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, कुश काश आदि तृण, आम्र आदि वृक्ष, यव आदि बीज, द्वीन्द्रिय आदि स प्राणी पक्षी आदि अण्डज, जरायुज, जूं खटमल आदि संस्वेदज और रसज अर्थात् बिगड़ी सड़ी वस्तुओं में उत्पन्न होने वाले जन्तु यह सब सर्वज्ञों द्वारा जीवनिकाय कहे गए हैं। इन सब पृथ्वीकाय आदि में साता को जानो. सूक्ष्म रीति से विचार करो। इन जीवों का घात करके जो अपनी सुमनी इच्छा लो 'पहिलेह - प्रत्युपेक्षस्त्र' वियारे। 'एएण कारण य आयदंडे - एतैः कायैः ये मुडे आशियाना नाशारीने पोताना आत्माने विपरिया सुविति एतेषु च विपर्यासमुपयान्ति' भान $23. 11 9-2 || भने तने અને તેને સૂક્ષ્મ રીતે आत्मदण्डाः' येथे उ५२ 'उसाचे छे, तेथे 'एएस य आलियासां जन्मधारय सूत्रार्थ - पृथ्वी, पाथी, अग्नि, वायु, कुश महि वृक्ष; मात्र साहि વૃક્ષ; જવ આદિ ખીજ; દ્વીન્દ્રિય આદિ ત્રસ જીવે, પક્ષી આદિ અંડજ જાયુજ, જૂ, માકડ આદિ સર્વેદજ, અને રસજ એટલે કે બગડી ગયેલી કે સડી ગયેલી વસ્તુઓમાં ઉત્પન્ન થતાં જન્તુએ, આ બધાને સજ્ઞો દ્વારા જીવનિકાય કહેવામાં આવેલ છે. પૃથ્વીકાય આદિ સમસ્ત જીવામાં સાતાને જાશે-એટલે કે તે સઘળા જીવેાને સુખ ગમે છે, એ વાતના સૂક્ષ્મ રીતે વિચાર કરી, જે લેાકી આ જીવાના ઘાત કરે છે, તેઓ પાતાના આત્માને For Private And Personal Use Only Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ७ उ.१ कुशीलवतां दोषनिरूपणम् ५५१ दण्डयति ते (एएसु य विपरियामुर्विति) एतेषु एच पाणिनः कायेषु विपर्यास जन्म उपयान्ति मान्नुवन्ति उत्पत्ति लभन्ते इति । १-२॥ टीका-'पुढवी' पृथिवी-पृथिवीकायिकाः जीवाः, य=च शब्दोऽवान्तरभेदसूचकः । तथाहि-पृथिवीकायिकाः द्विविधाः सूक्ष्माः बादराश्च, ते च प्रत्येक पर्याप्तकाऽपर्याप्तकादिभेदेन द्विधा भवन्ति, तदेवं पृथिवीकायिश चतुर्विधाः। 'आऊ' आप अकायिकाः, एवमपूते नोवायुष्वपि चतुर्विधत्वं ज्ञातव्यम्। 'अगणी य' च अग्निकायिकाः 'वाउ' वायुकायिकाः, सम्मति वनस्पतिकायान् भेदेन दर्शयति । 'तण' तृगानि कुशकाशादीनि, 'रुख' वृक्षा:-आम्रपनसादयः 'बीया' बीजानि शाल्यादीति । एवं लतागुल्मादयोऽपि भेदाः संगृहीता भवन्ति । 'तसा' आत्मा को दण्डित करते हैं, वे इन्हीं कायों में विपर्यास को प्राप्त होने हैं अर्थात् जन्म ग्रहण करते हैं ॥१-२॥ ___टीकार्थ--पृथिवी अर्थात् पृथ्वी को शरीर घनाकर रहने वाले जीव जिनका शरीर पृथिवी ही है। यहाँ 'य' शब्द यह सूचित करता है कि पृथिवीकायिकों में सूक्ष्म और बादर । इन दोनों के ही दो दो भेद हैं-पर्यातक और अपर्याप्तक । इस प्रकार पृथिवीकायिक जीव चार प्रकार के होते हैं। इसी प्रकार अप्कायिक, तेजस्कायिक और वायुकायिक जीवों के चार चार भेद भी समझ लेना चाहिए। वनस्पतिकायिक जीवों के कितने भेद होते हैं सो कहते हैं-तृण अर्थात् कुश, काश आदि । वृक्ष अर्थात् જ શિક્ષા કરે છે. તેઓ એજ જીવનિકામાં જન્મગ્રહણ કરીને પિતાનાં પાપકર્મોનું ફળ ભોગવે છે. એ જ વાત “તેઓ એજ જીવનિકામાં વિપર્યાસ પામે છે,” આ સૂત્રપાઠ દ્વારા વ્યક્ત કરવામાં આવી છે. ૧–રા ટીકાથે–પૃથ્વી આ પદ પથ્વીકાય જીવોનું વાચક છે. પૃથ્વીને જ શરીર બનાવીને રહેનારા ને “પૃથ્વીકાય' કહે છે. અહીં “ય પદ એ સચિત કરે છે કે પૃથ્વીકાચિકેના અનેક ભેદ હોય છે. પૃથ્વીકાયિકેના ચુખ્ય બે मेह (१) सूक्ष्म, भने (२) मा४२ मा मन्नना ५ पर्यात अने सपति નામના અબે ભેદ પડે છે. આ પ્રકારે પૃથ્વીકાયિકના ચાર પ્રકાર પડે છે. એજ પ્રમાણે અપકાયિક, તેજસ્કાયિક અને વાયુકાયિક જીવોના પણ ચાર ચાર ભેદ સમજવા. વનસ્પતિકાયિકાના કેટલાક ભેદે આ પ્રમાણે છેતણ એટલે ઘાસ, કુશ આદિ વૃક્ષ એટલે કે આંબા, ફણસ આદિ, બીજ For Private And Personal Use Only Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकतासूत्रे पस्यन्तीति प्रसाः द्वीन्द्रियादयः । 'पाणा' पाणिनः 'जे' ये च 'अंडया' अण्डनाः अण्डाज्जाताः पतिसरीसृपादयः । 'जे य जराऊ पाणा' ये च जरायुजाः पाणिनः, जरायुजाः जंबालजालपरिवेष्टिता एव जायन्ते मनुष्यगोमहिषादयः, तथा'जे संसेयया' ये संस्वेदनाः संस्वेदाज्जाताः यूकाः मत्कुणकुम्यादयः । 'रसयाभि हाणा' रसनाभिधाना: विकृतवस्तुषु समुत्पन्नाः इति । अनेकभेदभिन्नान् पृथिव्यादिषट्कायान प्रदर्थ तेषां हिंसने दोषं दर्शयितुं सूत्रकार आह-'एयाई' इत्यादि । 'एयाई एते 'कायाई' कायाः एते षड्जीवनिकाया: 'पवेइयाई प्रवेदिताः सर्वज्ञैः आम, पनत आदि बीज अर्थात् शालि जौ आदि । इस कथन से लना गुल्म गुच्छ आदि भेदों का भी ग्रहण कर लेना चाहिये। दीन्द्रिय आदि जो प्राणी त्रास का अनुभव करके एक स्थान से दूसरे स्थान में जाते हैं, वे बस कहलाते हैं । अण्डज (पक्षी) सरीसूप (सर्प) आदि जरायुज (चमड़े की झिल्ली में लिपटे हुए जन्म लेने वाले) जैसे मनुष्य, गाय, भैंस आदि, स्वेदज अर्थात् पसीने से उत्पन्न होने वाले जू, मत्कुण (खटमल) आदि विकृत वस्तुओं में उत्पन्न हो जाने वाले रसज जन्तु, यह सब त्रस जीव होते हैं! __पृथ्वीकाय आदि के भेद कहकर सूत्रकार अब उनकी हिंसा में दोष प्रदर्शित करते हैं-'एयाई' इत्यादि । सर्वज्ञ तीर्थकर ने जीवों के यह पूर्वोक्त छह निकाय कहे हैं। केवल. એટલે કે શાલિ, યવ આદિ આ કથન દ્વારા લતા, ગુલ્મ, ગુચ્છ આદિ ભેદને ગ્રહણ કરવા જોઈએ. - કીન્દ્રિય આદિ જે પ્રાણીએ ત્રાસને અનુભવ કરીને એક જગ્યાએથી બીજી જગ્યાએ જાય છે, તેમને ત્રસ કહે છે. અંડજ એટલે ઇંડામાંથી ઉત્પન્ન થતાં પક્ષીઓ, અને સપ” આદિ છે, જરાયુજ એટલે ચામડાના પાતળા પારદર્શક પડમાં લપેટાઈને જન્મ લેનાર મનુષ્ય, ગાય, ભેંસ આદિ છે, દજ એટલે પરસેવામાંથી ઉત્પન્ન થનાર જં, માકડ આદિ છો, રસજ એટલે સડેલી અથવા વિકૃત વસ્તુઓમાં ઉત્પન્ન થનાર જંતુઓ. આ બધાં જેને ત્રસ જી કહે છે. પૃથ્વીકાય આદિ ભેદોનું નિરૂપણ કરીને હવે સૂત્રકાર તેમની હિંસામાં २९ प ८ रे छ-'एयाई' या. સર્વજ્ઞ તીર્થકરાએ ના પૂર્વોક્ત છ નિકાય કહ્યા છે. કેવળજ્ઞાન For Private And Personal Use Only Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - - समयार्थबोधिनी टीका प्र.श्रु. अ.७ .१ कुशीलवतां दोषनिरूपणम् । तीर्थकरैः कथिताः, तेहि केवलालोकलोकनेन पृथिव्यादिष्वपि जीवान् दृष्ट्वा, सर्वे ते जीवा एव लोकेभ्यः प्रवेदिताः। एतेषु पुरोपदिष्टेषु पृथिवीप्रभृतिजीवनिकायेषु। 'सायं' सात-सुखम् 'जाणे' जानीहि, सर्वेऽपि पाणिनः मुखैपिणो- दुःखविरोधिनश्च भवन्तीति ज्ञात्वा, 'पडिलेड' प्रत्युपेक्षस्व, हे शिष्य कुशाग्रबुद्धया पर्यालोचय, विचारयेति यावत् । 'एएण कायेण य आयदंडे' एता कायः ये आत्मदण्डाः, एभिः कायैः पीडयमानः आत्मा स्वीय एव दण्डयते । एतत्समारंभात् आत्मदण्डो भवति । एतेषां विराधने कृते नाकादिगतिषु पातो भवति । ततश्चात्मा दुःखमनुभाति, मा आत्मा दण्डितः । 'एएमु या विपरियासुविति' एतेषु च विपर्यासमुपयान्ति, ये एतन् नन्ति ते एतेष्येष पुनर्जन्ममरज्ञान रूपी प्रकार से पृथ्वी आदि में जीवों की सत्ता देखकर उन्होंने संसार को दिखलाई है । ___ पृथ्वीकाय आदि सभी जीवनिकायों में साता को समझो अर्थात् कुशाग्रबुद्धि से इसका विचार करो कि सभी प्राणी सुख के अभिलाषी और दुःख के विरोधी हैं अर्थात् छओं जीवनिकायों के जीव सुख चाहते हैं दुःख नहीं चाहते हैं। इन जीवनिकायों को दंडित करना (इनकी विराधना करना) अपनी ही आत्मा को दंडित करना है अथीत इनकी हिंसा से आत्महिंसा (अपनी हिंसा) होती है और नरकादि गतियों में निपात होता (जाना पड़ता है। नरकादि दुर्गतियों में आत्मा को जो दुःख भोगना पड़ता है, वही आत्मा का दण्डित होना है। जो प्राणी इन षट्कायों में से किसी काय की विराधना करता है, उसे उसी काय में वारंवार जन्म मरण करना पड़ता है। अथवा विषરૂપી પ્રકાશ વડે તેમણે પૃથ્વીકાય આદિમાં જીવનું અસ્તિત્વ જોયું છે અને સંસારના લોકો સમક્ષ તેમાં જીવ હોવાનું પ્રતિપાદન કર્યું છે. “પૃથ્વીકાય આદિ સમસ્ત જીવનકાર્યમાં સાતાને સમજે” આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે કુશાગ્ર બુદ્ધિથી એ વાતને વિચાર કરો કે સમસ્ત છ સુખની અભિલાષા રાખે છે, કેઈને દુઃખ ગમતું નથી. છ એ છ નિકાયના જી. સુખ ચાહે છે, તેમને દુઃખ ગમતું નથી. આ ઇવનિકાની વિરાધના કરવી તે પિતાના આત્માને જ દંડિત કરવા બરાબર છે. એટલે કે તેમની હિંસા કરવાથી આત્મહિંસા પિતાની જ હિંસા) થાય છે અને નરકાદિ ગતિઓમાં જવું પડે છે. નરકાદિ દુર્ગતિઓમાં આત્માને જે દુઃખો ભેગવવા પડે છે, એનું નામ જ આત્માનું દંડિત થવું છે. જે માણસ આ છ કાયના જી. માંથી કઈ પણ કાયના જીવની વિરાધના કરે છે, તેને એજ જીવનિકાયામાં स० ७० For Private And Personal Use Only Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे मादिकं लभन्ते । अथवा-विपर्यासमुपयान्ति, विपर्यासो व्यत्ययः। मुखमिच्छता हि कायसमारंभः क्रियते तावता सुखं न भवति । प्रत्युत दुःखमेव जन्यते। पता-परतीथिका मोक्षार्थमेतान् षड्जीवनिकायान विराधयन्ति, तावता न मोक्षो सभ्यते, अपितु तद्विपरीते संसारे एवं परिभ्रमन्ति दुःखमनुभवन्ति इति ॥१-२॥ ___माणिविराधनं कृत्वा यागादिकमनुचरन्तो मोक्षार्थिनो मोक्षमप्राप्य तद्विपरीतं संसारमेव प्राप्नुनवन्ति इत्युक्तं किन्तु केन प्रकारेण ते संसारमाविशन्ति खान प्रकारान उपदर्शयति सूत्रकारः-'जाईपह' इत्यादि। मूलम्-जाईपहं अणुपरिवट्टमाणे तसथावरेहिं विणिघायमति। स जाइजाइं बहुकूरकम्मे जं कुबइ मिजइ तेण बाले॥३॥ छाया-जाति पथमनुवर्तमानस्वसस्थावरेषु विनिघातमेति । स जातिजाति बहुरकर्मा यत्करोति म्रियते तेन वालः ॥३॥ योस को प्राप्त होने का आशय यह है कि सुख की अभिलाषा से जीवों का आरंभ किया जाता है परन्तु आरंभ से सुख न होकर उल्टा दुःख उत्पन्न होता है । अथवा परतीर्थिक मोक्ष के लिए षटू जीवनिकायों की विराधना करते हैं परन्तु उससे मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती संसार में ही परिभ्रमण करना पड़ता है और संसार भ्रमण करते हुए जीवों को विविध प्रकार के दुःखों का अनुभव करना पड़ता है ॥१-२॥ ___ यह कहा जा चुका है कि प्राणियों की विराधना करके यज्ञ याग आदि करनेवाले मोक्षार्थी मोक्ष तो प्राप्त करते नहीं, उलटे संसार में ही परिभ्रमण करते हैं, किन्तु किस प्रकार वे संसार भ्रमण करते हैं, વાર વાર જન્મ મરણ કરવા પડે છે. અથવા–“વિપર્યાસ પામ' આ પદોને ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છે-સુખની અભિલાષાથી જીવને આરંભ (હિંસા) કરવામાં આવે છે, પરંતુ તે આરંભ દ્વારા સુખની પ્રાપ્તિ થવાને બદલે ઊલટ દુઃખની જ પ્રાપ્તિ થાય છે. અથવા પરતીર્થિકે મોક્ષને માટે છ કાયના જીવેની વિરાધના કરે છે, પરંતુ તેથી તેમને મેક્ષની પ્રાપ્તિ તે થતી નથી, પરન્તુ સંસારમાં પરિભ્રમણ કરવું પડે છે અને પરિભ્રમણ કરતાં કરતાં વિવિધ પ્રકારનાં દુઃખને જ તેમને અનુભવ કરવો પડે છે. ગાથાન-રા આગલા સૂત્રમાં એવું પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું કે પ્રાણીઓની વિરાધના કરીને યજ્ઞ, હોમ, હવન આદિ કરનારા મેક્ષાથી જીવો મોક્ષ તે પ્રાપ્ત કરતા નથી, ઊલટાં સંસારમાં જ પરિભ્રમણ કર્યા કરે છે, પરંતુ મોક્ષમાં ન For Private And Personal Use Only Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - समयार्थबोधिनी टीका प्र.श्रु. अ.७ ३.१ कुशीलवतां दोषनिरूपणम् ५५५: - अन्वयार्थः- (जाईपह) जातिपयं-एकेन्द्रियादिजातो. 'अणुपरिमाणे अनुपरिवर्तमानः-जन्ममरणं कुर्वाणः (स) सः जीवः (तसथावरेहि) प्रसस्थावरेषु समुत्पद्य (विणिघायमेति) विनिघातं विनाशमेति प्राप्नोति, (जाइजाई) जातिजातिम्-एकेन्द्रियादिषु अनेकशो जन्म गृहीत्वा (बहुकूरकम्मे वाले) बहुक्रफर्मा बालोऽज्ञानी (जं कुन्नइ तेण मिज्जइ) यत् प्राणातिपातं करोति तेन कर्मणा म्रियते-जन्ममरणं करोति ॥३॥ यह सूत्रकार दिखलाते हैं-'जाईपहं' इत्यादि। शब्दार्थ-'जाईपहं-जातिपथम्' एकेन्द्रिय आदि जातियों में 'अणु. परिवट्टमाणे-अनुपरिवर्तमानः' जन्म मरण को प्राप्त करताहुआ 'से-स' वह जीव 'तस थावरेहि-त्रसस्थावरेषु' त्रस और स्थावर जीवों में उत्पन्न होकर 'विणिघायमेति-विनिघातमेति' नाशको प्राप्त होता है 'जाइ. जाई-जातिजातिम्' एकेन्द्रियादिकों में बार बार जन्म लेकर 'बहुकूरकम्मे बाले-पटुकारकर्मा बाल' बहुत क्रूर कर्म करनेवाला वह बाल-अज्ञानी: जीव 'ज कुव्वा तेण मिज्जइ-यत् करोति तेन म्रियते जो कर्म करता है उसीकर्म से जन्म मरण प्राप्त करता है॥३॥ ___ अन्वयार्थ-एकेन्द्रिय आदि जातियों में परिभ्रमण करता हुआ अर्थात् जन्म मरण करता हुआ वह जीव सस्थावर योनियों में उत्पन्न होकर घात को प्राप्त होता है। एक जाति से दूसरी जाति में જતાં તેને કેવી રીતે સંસાર ભ્રમણ કરે છે, તે સૂત્રકાર હવે બતાવે છેजाईपहं' त्या___-'जाईपह-जातिपथम्' मेन्द्रिय विगेरे गतियोमा 'अणुपरिवमाणे-अनुपरिवर्तमानः' म अने भ२ प्रास२वाय 'से-मः' ते 'तसथावरेहि-त्रसस्थावरेषु' उस मने स्था१२ वामपन्न यन. 'विणिपायमेति-विनिघातमेति' नाशने पास थाय छे. 'जाइजाई-जातिजातिम्' मेन्द्रिय विभा पार पा२ म. सन 'बहुक्रकम्मे बाले-बहूक्रूरकर्मा बालः' या १२ मा ३२वावावा ते मात-मज्ञानी १ ज कुबइ तेण मिज्जइ-यत् करोति न म्रियते' २ ४ ४२ छ, मेक था सन्म मरण पास रे छे ॥३॥ સૂત્રાર્થે–એકેન્દ્રિય આદિ જાતિમાં પરિભ્રમણ કરે છે એટલે કે જન્મ-મરણ કરતે કરતે તે જીવ ત્રસસ્થાવર નીઓમાં ઉત્પન્ન થઈને ઘાત પામતે રહે છે-કણાતે રહે છે. એક જાતિમાંથી બીજી જાતિમાં For Private And Personal Use Only Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org सूत्रकृतासूत्रे : 'टीका- 'जाई' जातिपथम् जातीनामेकेन्द्रियादिजीवानां पन्थाः मार्गः इति जातिपथः तम् ' अणुपरिमाणे' अनुपरिवर्तमानः, एकेन्द्रियादिषु पर्यटन परिभ्रमन् जन्ममरणजरादिकानि वा अनुभवन 'तसथावरेहिं' सस्थावरेषु = त्रसेषु - तेजोवायु द्वीन्द्रियादिषु, स्थावरेषु पृथिव्यपवनस्पतिषु समुत्पत्यनन्तरम् जीवघातादिक्रूरकर्मजनितकटुकविपाकेन बहुशः 'विणिधायमेति' विनिधातमेति - खङ्गादिना विनाशं प्राप्नोति । 'से' सः = प्राप्तदण्डो जीवः । 'जाइजाई' जातिजातिम्= एकेन्द्रियादिषु उत्पत्तिं प्राप्य, 'बहुकूरकम्मे' बहुक्रूरकर्मा=बहूनि नानाविधानि क्रूराणि प्राणातिपातादीनि घोरकर्माणि अनुष्ठानानि यस्य स बहु क्रूरकर्मा भवति । जन्म ग्रहण करके अत्यन्त क्रूरकर्मा वह अज्ञानी अपने ही पापों के कारण मारा जाता है-जन्म मरण करता है || ३ || " - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टीकार्थ-- एकेन्द्रिय आदि जीवों के समूह को जाति कहते हैं, उसका पथ जातिपथ कहलाता है । तात्पर्य यह है कि हिंसाकारी जीव एकेन्द्रिय जाति आदि में पर्यटन करता हुआ कभी तेज, वायु तथा वीद्रिय आदि बसों में और कभी पृथ्वीकाय, अकाय और वनस्पतिकाय रूप स्थावरों में उत्पन्न होता है । वहाँ उत्पन्न होकर जीवहिंसा आदि क्रूर कर्मों के कटुक ( कड़वे ) विपाक (फल) का उदय होने पर अनेकों बार खड्ग आदि के द्वारा घात को प्राप्त होता है। वह जातिजाति में (एकेन्द्रियादिक अनेक जातियों में) भटकता रहता है। अति જન્મ લઈને, તે અત્યન્ત ક્રૂરકર્મા અજ્ઞાની જીવ પાતનાં જ પાપાને કારણે હણાયા કરે છે. આ રીતે જન્મમરણના ફેરા કર્યાં જ કરે છે. ૩૫ ટીકાય એકેન્દ્રિય આદિ જીવોના સમૂહને જાતિ કહે છે, અને તેના પથને જાતિપથ કહે છે. તાય એ છે કે હિંસાકારી જીવ એકેન્દ્રિય જાતિ આદિમાં પટન કરતા રહે છે. આ પ્રમાણે ભવભ્રમણ કરતે તે જીવ કયારેક તેજસ્કાયિકામાં, કયારેક વાયુકાયિકામાં અને કયારેક હ્રીન્દ્રિયાશિમાં ઉત્પન્ન થાય છે. (તેજસ્કાય, વાયુકાય અને દ્વીન્દ્રિય દિને ત્રસ જીવો કહે છે) અને કયારેક તે જીવ પૃથ્વીકાય, અકાય અને વનસ્પતિકાય રૂપ સ્થાવરામાં ઉત્પન્ન થાય છે. ત્યાં ઉત્પન્ન થઈને, જીવહિંસા, આદિ ક્રૂર કર્મોને કડવો વિાક જ્યારે ઉયમાં આવે છે, ત્યારે તેઓને તલવાર આદિ શસ્રો દ્વારા (पूर्व भवना तेमना शत्रुओ द्वारा ) धात श्वाभा यावे छे, अने ते अतिજાતિમાં–એક જાતિમાંથી ખીચ્છમાં (એકેન્દ્રિય આદિ અનેક જાતિઓમાં ભેટ For Private And Personal Use Only : Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समार्थबोधिनी टीका प्र. शु. अ. ७ उ. १ कुशीलवती दोषनिरूपणम् ५५७ इत्थंभूतो विवेकविकळः, वाले=चाल इव बालः यस्यामे केन्द्रियादिषु यत् प्राणिउपमर्दकारिकर्म 'कुors' करोति स तेनैव कुत्सितकर्मणा 'मिज्जइ' म्रियते - हिंस्यते । यद्वा-तेनैव कर्मणा म्रियते खङ्गादिना परिच्छिद्यते । एकेन्द्रियादिक जीवविनाशकारी, तारखेत्र जातिषु जायते म्रियते च । तदनु सस्थावरादिषु बहुशः उत्पद्य तत्रैव चतुर्गतिषु जन्ममरणं करोति न संसारवारमेति ॥३ ॥ क्रूरकर्मकारिणः स्थिति वर्णयति - ' अस्सिंच लोए' इत्यादि । मूलम् - अहिंसच लोए अदुवा परत्था सयग्गसो वा तह अन्नहा वा । संसारमावन्न परं परं ते बंधंति वेदंति य दुनियाणि ॥४॥ छाया - अस्मिश्च लोके अथवा परस्तात् शताग्रशो वा तथा अन्यथा वा । संसारमापन्नाः परं परंते बध्नन्ति वेदयन्ति च दुर्नीतानि ॥ ४ ॥ शय क्रूर कर्म करने वाला वह अज्ञानी जीव अपने ही किये कुकृत्यों से (पापों से मारा जाता है । तात्पर्य यह है कि जो जीव जिस एकेन्द्रिय आदि के जीवों का घात करता है वह उसी जाति में उत्पन्न होकर घात को पाता है मारा जाता है | तपश्चात् स और स्थावरों में वारंवार उत्पन्न होकर जन्म मरण करता रहता है | ऐसा हिंसक जीव संसार से पार नहीं हो पाता | ३ | क्रूर कर्म करने वाले की स्थिति का वर्णन करते हुए कहते हैं'अस्ति च लोए' इत्यादि । शब्दार्थ - ' अस्सि च लोए अदुवा परस्था-अस्मि च लोके अथवा परस्तात्' इस लोक में अथवा परलोक में वे कर्म अपना फल देते हैं તા રહે છે, અતિશય ક્રૂર કર્યાં કરનારા અજ્ઞાની જીવો પાતે કરેલાં કુત્યોને કારણે દડિત થાય છે (છેદન, ભેદન, માર, ઢૂંઢ આદિ વેદના સહન કર્યાં કરે છે) અથવા હણાયા કરે છે. તાપ એ છે કે જે જીવ એકેન્દ્રિય સ્માદ્ધિ જીવોની હત્યા કરે છે, તે જીવ એજ જાતિમાં ઉત્પન્ન થઇને પેાતાના ઘાત થતા અથવા પેાતાની હત્યા થવાના અનુભવ કરે છે. ત્યાર બાદ ત્યાંથી મરીને ત્રસ અને સ્થાવરામાં વારવાર ઉત્પન્ન થઈ ને જન્મમરણ કરતા રહે છે. એવો હિંસક છત્ર સ'સારને પાર કરી શકતા નથી. ાગાથા ગા ક્રૂર કર્મ કરનાર જીવની કેવી હાલત થાય છે, તેનું વર્ણન કરતા સૂત્ર $12 $-arfta' a dig' veule शब्दार्थ' - 'असि च ढोए अदुवा परत्था - अस्मिं च लोके अथवा परस्तात्' આ ઢાકમાં અથવા પલાકમાં એકમ પેાતાનુ ફળ કરનારને આપે છે, For Private And Personal Use Only Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५५८ संत्रतामसूत्र .. अन्वयार्थ-(अस्ति च लोए अदुवा परत्था) अस्मिन् लोके अथवा परस्तात् परलोके कर्म स्वफलं ददाति (सपग्गसो वा तह अन्नहा वा) शताग्रशो वा तथा अन्यथा वा एकस्मिन् एव जन्मनि अनेकजन्मनि वा (संसारमावन्न) संसारमापनास्ते (परं पर) परं परम्-उत्कृष्टात्युत्कृष्टं (दुनियाणि) दुनी तानि-दुष्कृतानि (बंधति) य वेदति) बध्नन्ति च वेदयन्ति-ताश कर्मबन्धनं कुर्वन्ति तत्फलं चानु भवंतीति ॥४॥ , टीका-'मिस्सि च लोए' अस्मिंश्च लोकेन्यानि अशुभकारि कर्माणि तानि अस्मिन्नेव भवे फलं ददति । 'अदुवा' अथवा परस्ताव-परस्मिन् जन्मनि नरकादि दुर्गतौ तानि कर्माणि फलं ददति । 'सयग्गसो वा तह अनहा वा' शताप्रशो वा, 'सयग्गसो वा तह अन्नहा वा-शताग्रशो वा तथा अन्यथा वा वे एक जन्ममें अथवा सेंकडोंजन्मों में फल देते हैं। जिसप्रकार वे कर्म कियेगये हैं उसी प्रकार अपना फल देते हैं अथवा दूसरे प्रकार से फल देते हैं 'संसारमावन्न ते-संसारमापन्नास्ते' संसारमें भ्रमण करते हुए वे कुशील जीव 'परं परं-परं परम्' अधिक से अधिक 'दुन्नियाणि-दुर्नी तानि' दुष्कृत्यों को अर्थात् पापकर्म को 'बंधति य वेदंति-बध्नन्ति च वेद यन्ति' बांधते हैं और अपने पापकर्मका फल भोगते हैं ॥४॥ - अन्वयार्थ--इस लोक में अथवा परलोक में कर्म अपना फल देता है। एक जन्म अथवा अनेक जन्मों में संसार को प्राप्त हुए वे जीव उस्कृष्ट से अति उत्कृष्ट पापों का बन्ध करते हैं और वेदन करते हैं।४। - टीकार्थ-इस लोक अर्थात् इस भव में जो अशुभ कर्म उपार्जित किये गये हैं, वे इसी भव में अपना फल देते हैं अथवा परलोक में 'सयमानो वा तह अण्णहा वा-शताप्रशो वा तथा अन्यथा वा' तो मे જન્મમાં અથવા સેંકડે જન્મમાં ફલ આપે છે. જે રીતે તે કર્મ કરવામાં આવેલ છે. એ જ રીતે ફળ આપે છે. અથવા બીજી રીતે ફળ આપે છે. 'संसारमावन्न-संसारमापन्नास्ते' ससारमा प्रभाय ४२ता वा तशील 9 'परं परं-पर परम्' वधारमा पारे दुन्नियाणि-दुर्भातोनि' हुत्यान अर्थात ५४मन 'बंधति य वेदंति-बध्नन्ति च वेदयन्ति' मा छ भने पोताना પાપ કર્મ નું ફળ ભેગવે છે. ૪ સૂત્રાર્થ-કર્મ પિતાનું ફળ આ લેકમાં કે પરલોકમાં આપે છે. સંસારમાં ભ્રમણ કરતા જીવો એક જન્મમાં અથવા અનેક જન્મોમાં એક એકથી ચડિયાતાં પાપોને બન્ધ કરે છે અને વેદન કરે છે. ૪ ટીકાર્ય–આ લેકમાં એટલે કે આ ભવમાં જે અશુભ કર્મોનું ઉપજન થયું હોય, તેનું ફળ આ ભવમાં જ મળે છે, એવી કઈ વાત નથી. For Private And Personal Use Only Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ७ उ.१ कुशीलवतां दोषनिरूपणम् ५५९ अनेकशतवार तथा अन्यथा वा प्रकारान्तरेण फलं प्रयच्छन्ति । अयं भावा-कि चित्कर्म तस्मिन्नेव जन्मनि फलं ददाति, किंचिच कर्म जन्मान्तरे फलदाद । यथा दुःवविधा कास्य प्रथमश्रुतस्कन्धे कथितं मृगापुत्रस्य विषये, तथा दीर्घकाल स्थितिकं तु कर्म, अपर भवान्तरितं फलं ददति । 'संसारमावान ते' संसारमापन्नाः ते संसारे परिभ्रमन्तस्ते कुशीला जीवाः। परं परम्' अधिकादपि अधिकम्, शिर. श्छेदादिकं दुःखमनुभवन्ति । येन प्रकारेण यत् कृतं तेनैव प्रकारेण एकवार मेव, अनेकशी वा, शतकृत्वः सहस्रकृत्वो वा फलमनुभवत्येव । 'बंधति वेदंति य दुन्नियाणि' बध्नन्ति, वेदयन्ति च दुर्नीतानि, आर्तध्यानं कृत्वा पुनः कर्म वध्नन्ति फल देते हैं। वे सैकड़ों भवों में फल देते हैं अथवा अन्यथा अर्थात् एक भव में भी फल देते हैं । जैसा दुःख विपाक नामक प्रथम श्रुतस्कंध में मृगापुत्र के विषय में कहा गया है, तदनुसार जो कर्म लम्बी स्थिति वाला होता है, वह अगले किसी भव में फल प्रदान करता है। संसार को प्राप्त दुराचारी जीव अधिक से भी अधिक मस्तकछेदन आदि दुःखों का अनुभव करते हैं । जो कर्म जिस प्रकार से किया गया है, वह उसी प्रकार से एक जन्म में या सैकड़ों हजारों जन्मों में फल देता है। दुराचारी जीव कर्मों को बांधते है और वेदते हैं। वेदन करते समय आर्तध्यान करके पुनः नूतन कर्म का बंध करलेते हैं। जब उसका उदय आता है तो फिर आर्तध्यान करते हैं और फिर नवीन कर्म का बन्धन करते हैं। इस प्रकार बन्धन और वेदन का કે આ ભવમાં પણ કર્મ પિતાનું ફળ દે છે, અથવા પરભવમાં પણ ફળ દે છે. સેંકડો ભવમાં પણ ફળ દે છે અથવા એક ભવમાં પણ ફળ દે છે જેવું ખવિપાક નામના પ્રથમ શ્રતસ્કમાં મૃગાપુત્રના વિષયમાં કહેવામાં આવ્યું છે, તે પ્રમાણે જે કર્મ દીર્ઘ સ્થિતિવાળું હોય છે, તે કર્મ પછીના કેઈ ભવમાં ફળ પ્રદાન કરે છે. સંસારમાં ભ્રમણ કરતે દુરાચારી જીવ મસ્તક છેદન આદિ ભારેમાં ભારે દુઓનું વેદન કરે છે. જે કર્મ જે પ્રકારે કરવામાં આવ્યું હોય છે, એજ પ્રકારે તે કર્મ એક જન્મમાં કે અન્ય સેંકડે કે હજારે ભવેમાં ફળ દે છે. દુરાચારી કમેં બાંધે છે અને તેમને દુખ વિપાક વેદતા રહે છે. વેદન કરતી વખતે આર્તધ્યાન કરીને તેઓ પુનઃ નૂતન કર્મને બંધ કરી લે છે. વળી જ્યારે તે ઉદયમાં આવે છે, ત્યારે ફરી આ ધ્યાન કરે છે અને ફરી નવા કર્મને બન્ધ કરે છે. આ પ્રકારે કઈ કોઈ જીવને બન્ધન અને વેદનને પ્રવાહ અનન્તકાળ સુધી ચાલુ રહે છે, For Private And Personal Use Only Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतागसूत्रे तथा स्वकृतकर्मणः फलं भुनन्ति अयं भावः-कुशीलास्ते कर्म कृत्वा यथा कयं. चित्कर्मणां फलमुपभुञ्जन्त्येव एक्दैव, एकजन्मनि वा, अनेकदाऽनेकजन्मनि वा । शतसहस्रजन्मनि था, एवं कर्म कुर्वन्तः फलमुपभुञ्जन्ति । पुनस्तस्कर्म कुर्वन्तो जन्मान्तरमजयित्वा, पुनः कर्मफलमनुभवन्तः संसारे च क्रान्तातिक्रान्ता भवन्ति । तदुक्तम्-'मा होहि रे विसनो जीव ! तुम विमणदुम्भणो दीणो। चितिएण फिइइ तं दुक्खं जं पुरा रइयं ॥१॥ प्रवाह किसी किसी का अनन्त काल तक किसी का लम्बे काल तक और किसी का सदा काल तक चलता रहता है । अनादि काल से यही परम्परा चली आ रही है। उदीर्ण कर्मों को समभाव से सहन किये विना यह प्रवाह अवरुद्ध नहीं होना (नहीं रुकता) आशय यह है-कुशील (पापी) जीव कर्मों का बंध करके किसी न किसी रूप में उनका फल भोगते हैं। कोई उसी जन्म में, कोई अगले जन्म में, कोई एक जन्म में कोई सैकड़ो हजारों जन्म में । वे फलोपभोग के समय रागद्वेष करके नवीन कर्म उपार्जन करते हैं और फिर उस का फल भोगते हैं । इस प्रकार भावकम (रागद्वेष परिणति) से द्रव्यकर्म (ज्ञानावरणीयोदि आठकम) और द्रव्यकर्म से भावकर्म उत्पम होते रहते हैं । दोनों का उभयमुख कार्यकारणभाव बीज वृक्ष की सन्तान के समान अनादि काल से चला आ रहा है । इस अनादि कर्म કોઈને તે પ્રવાહ લાંબા કાળ સુધી ચાલુ રહે છે અને કોઈને સદાકાળ ચાલુ જ રહે છે. અનાદિ કાળથી એક પરંપરા ચાલી જ રહી છે. ઉદીર્ણ (ઉદયમાં આવેલ) કમેને સમભાવથી સહન કર્યા વિના આ પ્રવાહ અવરુદ્ધ થત नवी (मटते। नथी.) - આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે કુશીલ (પાપી) જે કર્મોને અન્ય કરીને કેઈને કોઈ રૂપે તેમનું ફળ ભોગવ્યા કરે છે. કોઈ એજ જન્મમાં, કોઈ પછીના જન્મમાં, કેઈ સેંકડો કે હજારો જન્મમાં કર્મોનું ફળ ભેગવે છે. ફલેપભોગ કરતી વખતે તેઓ રાગદ્વેષ કરીને નવીન કમનું ઉપાર્જન કરે છે, અને પાછું તેનું ફળ ભેગવે છે. આ પ્રકારે ભાવકર્મ (રાગદ્વેષ પરિશુતિ) વડે દ્રવ્ય કર્મ (જ્ઞાનાવરણીય આદિ આઠ કમ) અને દ્રવ્ય કર્મ વડે ભાવકમ ઉત્પન્ન થતાં જ રહે છે. બન્નેનું ઉભયમુખ, કાર્યકારણ ભાવ બીજ વૃક્ષનાં સંતાનની જેમ અનાદિ કાળથી ચાલ્યું જ આવે છે, આ કર્મપ્રવાહને For Private And Personal Use Only Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - -- समयाबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ७ उ. १ कुशीलवतो दोषनिरूपणम् ५६१ जइ पविससि पायालं अडवि व दर गुहं समुदं वा। पुवकयाउ न चुक्कासि अप्पाणं घायसे जइ वि ॥२॥' छाया—मा भा रे विषण्णो जीव ! स्वं विमना दुर्मना दीनः । नैव चिन्तितेन स्फेटते तद् दुःखं यत्पुरा रचितं ॥१॥ यदि प्रविशसि पातालं अटवीं वा दरीं गुहां समुद्रं वा । पूर्वकृतान्नैव भ्रश्यसि आत्मानं घातयसि यद्यपि ॥२॥ गाशी -कर्पोदये सति आर्तध्यानं करोपि, विममा दुर्मनाः कथं भवसि यत् पुरा कर्मरचित्रं कृतं तत् वार्तध्यानेन न त्रुटयति, अतः समतामावर विवेक कुरु पुनरवि दुष्कर्म न हरणीयम्. यतः पालालं गच्छसि, अटी वा गच्छसि प्रवाह को वही जीव नष्ट कर सकते हैं जो कर्म के फल का उपयोग समय आतध्यान नहीं करके पूर्ण समभाव में स्थित रहते हैं। अन्यथा जन्म जन्मान्तर में यह चक्र चलता ही रहता है। कहा है 'मा होहि रे विसनो' इत्यादि। ____अरे जीव तूं कर्म का फल भोगते समय विषाद मत कर, विमन, दुर्मन और दीन न बन । तूं ने पूर्वकाल में अपने लिए जिस दुःख का निर्माण किया है अर्थात् दुःख प्रद कर्म का बंध किया है, वह चिन्ता शोक करने से मिट नहीं सकता ॥१॥ 'जह पविससि' इत्यादि। अगर तूं पाताल में प्रवेश कर जाएगा, विकट अटवी में, खंधक में, गुफा में या समुद्र में भी चला जाएगा तो भी कर्म से छुटकारा नहीं એજ જીવ નષ્ટ કરી શકે છે કે જે ફળને ઉપભેગ કરતી વખતે આર્તધ્યાન કરતું નથી પણ સમભાવપૂર્વક તેનું વેતન કરે છે. જે સમભાવપૂર્વક કર્મના ફળને ઉપગ કરવાને બદલે આધ્યાનપૂર્વક ઉપભેગ કરવામાં આવે, તે જન્મજન્માનરમાં આ ચક્ર (કર્મપ્રવાહ) ચાલુ જ રહે છે. કહ્યું પણ છે કે'मा होहि रे विसन्नो' त्या “અરે જીવ! તું કમનું ફળ ભેગવતી વખતે વિષાદ ન કર, વિમન, મન અને દીન ન બન. તે પૂર્વકાળમાં તારે માટે જે દુઃખનું નિર્માણ કર્યું છે. એટલે કે દુખપ્રદ કર્મને જે બંધ કર્યો છે, તે શક અથવા ચિંતા કરવાથી નષ્ટ થઈ શકતા નથી. ૧ _ 'जइ पविससि' त्या તેનાથી બચવા માટે તે પાતાળમાં પેસી જઈશ, વિકટ અટવીમાં છુપાઈ જઈશ, અંધકમાં (યરામાં) ગુફામાં કે સમુદ્રમાં છુપાઈ જઈશ, તે सु०७१ For Private And Personal Use Only Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५३२ सूत्रकृताङ्गसूत्रे समुद्र वा प्रविशसि तथापि कृतकर्मणः भोगमन्तरेण मुक्तिर्न भवति अतः कर्मबन्धनसमये एव विवेको विधेयः ॥ ४ ॥ सामान्यतः कुशीवान प्रदर्श्य, अतः परं शास्त्रकारः पापण्डिकानधिकृत्य प्रतिपादयति- 'जे माय' इत्यादि । मूलम् - जे मायरं पियरं च हिच्चा समणवए अगणिं समारभिजा । अहाहु से लोए कुसीलधम्मं भूयाई जे हिंसइ आयसाते ॥ ५ ॥ छाया - यो मातरं वा पितरं च हित्वा श्रमपवतेऽग्नि समारभेते । अथाहुः स लोके कुशीलधर्मा भूतानि यो हिनस्ति आत्माते ||५|| पा सकेगा ? यहाँ तक कि अगर तू आत्मघात कर लेगा तो भी पूर्वकृत कर्म तेरा पीछा नही छोड़ेंगे ॥ २ ॥ तात्पर्य यह है कि कर्म उदय होने पर तू आर्त्तध्यान करता उदास होता है, अनमना होता है, किन्तु पूर्वोपार्जिन कर्म आर्त्तध्यान से क्या छूट जाएँगे ? कर्म से छुटकारा पाना है तो कर्म के फल भोगने के समय समभाव का अवलम्बन कर। समता भाव के लोकोत्तर है । रसायन के सेवन से ही कर्मव्याधि से मुक्त हो सकता है। अतएव अपने विवेक को जाग्रत् कर और दुष्कृत करना त्याग दे । पाताल, अटवी या किसी भी सुरक्षित समझे जाने वाले स्थान में जाकर छिप जाने पर भी किये कर्म को भोगे बिना मुक्ति नहीं हो सकती । इस कारण कर्म करते समय ही विषेक का अवलम्बन करना उचित है ॥४॥ પણ તે ક તને છેડવાનું નથી, તે કર્મનું ફળ ભોગવ્યા વિના તારા છુટકાશ થવાના નથી. અરે ! તુ આત્મઘાત કરીને તેમાંથી છુટવાના પ્રયત્ન કરીશ, તા પણ પૂર્વ કૃત કમ તારા પીછા છેડવાનુ નથી.’ ારા તાપય એ છે કે કસ ઉદયમાં આવે, ત્યારે તુ માત્ત ધ્યાન કરે છે, દ્ઘાસ થાય છે, ચિન્તા કરે છે, પરન્તુ શું પૂર્વપાર્જિત કર્મ આત્ત ધ્યાન કવાથી ટે છે ખરું ? જો કમમાંથી છુટકારો મેળવવા હાય, તે કમનુ ફળ ભાગવતી વખતે સમભાવનું અવલંબન લે, સમતાભાવ રૂપ લોકોત્તર સાયનના સેવનથી જ તું કમબ્યાધિમાંથી મુક્ત થઈ શકીશ. તેથી તું જરા વિવેક બુદ્ધિને જાગ્રત કર, અને દુષ્કૃત્યેા કરવાનુ છેાડી દે. પાતાળ, અટવી આદિ કોઇ પણ સુરક્ષિત ગણાતાં સ્થાનામાં જઈને છુપાઈ જવા છતાં પણ કૃતકમાંનુ ફળ ભેગળ્યા વિના છુટકારો થવાના નથી. આ કારણે કમ કરતી વખતે જ વિવેકનું અવલંબન લેવુ', એજ ઉચિત છે. ગાથા For Private And Personal Use Only Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाखण्डी लोगो मार पियरं च ए-अमगाते MAIN समयार्थबोधिनी टीका प्र.श्रु. अ.७ उ.१ कुशोलवतां दोषनिरूपणम् पो अन्वयार्थः-(जे मायरं पियरं च हिच्चा) यः पुरुषो मातरं जननीं पितरं च हित्वा परित्यज्य (समणमए) श्रमणवते-साधुदीक्षामादाय (अगणि समामिग्मा) अग्नि समारभेत-अग्निकायस्य समारम्भं कुर्यात् (जे आयसाते) यः आत्मसात स्वसुखाय (भूयाई हिंसइ) भूतानि हिनस्ति-विराधयति (से लोए) स लोक (कुसीलधम्मा) कुशीकधर्माऽस्तीति (अहाहुः) अथाहुः) तीर्थकरादयः कथयन्ति ।।६।। : सामान्य रूप से कुशीलजनों के विषय में कह कर अब सूत्रकार पाखण्डी लोगों के विषय में कहते हैं- 'जे माय पियरं' इत्यादि। . शब्दार्थ-'जे मायरं पियरं च हिच्चा-यो मातरं पितरं च हित्वा जो पुरुष माता और पिताको छोडकर 'समणधए-श्रमगवते' श्रमणव्रत धारण करके 'अगणिं समारभिज्जा-अग्नि समारभेत' अग्निकायका आरंभ करते हैं तथा 'जे आयसाते- आत्मशाते' जो अपने सुख के लिये 'भूयाइं हिंसह-भूतानि हिनस्ति' प्राणियों की हिंसा करते। 'से लोए-स लोके' वे इस लोक में 'कुसीलधम्मे-कुशीला कुशील धर्म वाले है 'अहाहु-अथाहुः' ऐसा सर्वज्ञ पुरुषों ने कहा है ॥५॥ ___ अन्वयार्थ-जो पुरुष माता और पिता को त्याग करके श्रमणप्रते में उपस्थित हुआ अर्थात् दीक्षित हुमा है। फिर भी अग्नि का आरंभ समारंभ करता है, जो अपने सुख के लिए भूतों का घात करता है, वह पुरुष 'कुशीलधर्म' वाला कहलाता है ॥५॥ સામાન્ય રૂપે કુશીલ જનના વિષયમાં કહીને હવે સૂત્રકાર પાખંડી લેકેના વિષયમાં આ પ્રમાણે કહે છે 'जे मायर पियर' त्या: शहाथ-'जे मायर पियरं च हिच्चा-ये मातर पितर' च हित्वा' २ ५३५ भाता भने पितान छोडसन 'समणव्वर-श्रमणव्रवे' श्रमणबत घार घरी 'अगणि समारभिजा-अग्नि समारभते' अभिय। भामरेछ, तथा जे आयसाते-यः आत्मशात.' र पोताना सुम भाट 'भूयाई हिंसइ-भूतानि हिनस्ति' प्रालियोनी सा रे छे से लोए-सः लोके' ते भाभी 'कुसीलधम्मे-कुशीलधर्मा' शीद या छे. 'अहाहु-अथाहुः' मेश सपा પુરાએ કહ્યું છે. જે ૫ / સૂત્રાર્થ-જે પુરુષ માતા, પિતા આદિને ત્યાગ કરીને શ્રવણુવ્રત-દીક્ષા અંગીકાર કરવા છતાં પણ અગ્નિને આરંભ સમારંભ કરે છે, જે પોતાના સુખને માટે ભૂતને (છ ) સંહાર કરે છે, તે પુરુષને “કેશલધમી કહેવાય છે. પા. For Private And Personal Use Only Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गले टीका-'जे' यः कश्चन धर्मकरणाय उत्थितः 'माय' मातरं 'पियर' पितरम् च 'हिचा' हित्वा-परित्यज्य मावरं भ्रातृपुत्रकलादिकम् सकलपरिवारम् 'समगम्बए' श्रमणवते 'अगणि' अग्निम् 'समारभिज्जा' समारभेत यः। श्रमणव्रतपूनये 'वयं त्यक्तगृहकर्माणः' इत्येवं स्वीकृत्यापि अग्नि मज्वलयति पचनपाचनादौ कतकारितानुमत्या-औद्देशिकादि परिभोगाय वाऽग्निकायसमारम्भं करोति एवंभूतो जनः साधुनामधारी 'से लोए' सः लोके 'कुसीलधम्मे' कुशीलधर्माः, कुत्सितः शीलः आचारः सः एव धर्मों यस्य सः सकुशीलधर्मा 'भूयाई भूतानि-षड्. बीवनिकायान् 'आयसाते' आत्मसुखाय-शीताधपनोदनाय 'जे' या हिंसइ हिनस्ति -विराधयति । तथाहि केचित् साधुनामधारिणोन्यतीथिकाः पंचाग्नि तपन्ति, तथाऽग्निहोत्रादिकर्मणा चाग्नि समारभमाणाः स्वर्गादिकमिच्छन्ति । स 5. टीकार्य-जो लोग धर्म करने के लिए उद्यत हुए हैं, माता पिता को अर्थात् भाई, पुत्र, कलत्र आदि सकल परिवार को त्याग कर श्रम व्रत में दीक्षित हुए हैं, फिर भी अग्नि का आरंभ करते हैं अर्थात् जो श्रमणव्रत की पूर्ति के लिए अग्नि जलाते हैं । अथवा पचन-पाचन भादि का परिभोग करने के लिए समारंभ करते हैं, ऐसे साधुनाम धारी (वेषधारी) लोग कुशीलधर्मी हैं अर्थात् उनका आचार कुत्सित है। अपने सुख के लिए षट् जीवनिकाय की विराधना करते हैं। कोई कोई साधुनामधारी पंचाग्नि तप तपते हैं, तथा अग्निहोत्र आदि कर्म करते हुए अग्नि का आरंभ करके स्पर्ग की अभिलाषा करते हैं। ટીકર્થજે લેકે ધર્મ કરવાને માટે તૈયાર થયા છે, માતા, પિતા, ભાઈ, પુત્ર, પુત્રી, પત્ની આદિ સકળ પરિવારને ત્યાગ કરીને જેમણે શ્રવણ વ્રતની દીક્ષા લીધી છે, છતાં, પણ જે અગ્નિને આરંભ કરે છે. એટલે કે જેઓ શ્રમણવ્રતની પૂતિને માટે અગ્નિ સળગાવે છે અથવા અને પકાવવા માટે અગ્નિ સળગાવે છે, એવા વેષધારી સાધુને કુશીલધમી કહે છે. તેઓ કૃત, કારિત અને અનુમતિના દેષથી યુક્ત શિક આદિ આહારને પરિ ભંગ કરે છે. આ પ્રકારને આહાર તૈયાર કરવામાં જે સમારંભ થાય છે, તેને કારણે તેઓ જીવહિંસામાં કારણભૂત બને છે. આ પ્રકારના કુત્સિત આચારવાળા સાધુને કુશીલધમ કહે છે. તેઓ પિતાના સુખને નિમિત્તે છા કાયના જીવોની વિરાધના કરે છે. કેઈ કઈ સાધુ નામ ધારી પુરુષે પંચાગ્નિ તપ તપે છે, તથા અગ્નિહોત્ર આદિ કર્મ કરીને-અગ્નિને આરંભ કરીનેવર્ગની અભિલાષા કરે છે. For Private And Personal Use Only Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र.श्रु. अ.७ उ. १ कुशीलवतां दोषनिरूपणम् ५६५ मातापितरौ परित्यज्य श्रमणव्रतं स्वीकृत्यापि अग्निकार्य प्रज्यालयति, तथा स्वात्ममुखेच्छया पाणिनमु पहन्ति सः कुशीलधर्मा 'अहं' अथ एवम् 'आहे' बाहुः-तीर्थकरणगधारादयः ॥५॥ - अग्निकायसमारंभे पाणिनामतिपातः कथं भवतीति सूत्रकारः प्रदर्शयति'उज्जालमो पाण' इत्यादि। मूलम्-उज्जालओ पाण निवाय एज्जा, निव्वावओ अगणि निवायवेज्जा। तम्हा उ मेहावि संमिक्खधम्म ण पंडिए अगणि समारभिज्जा ॥६॥ छाया--उज्जालका प्राणान् निगातयेत् निर्वापकोऽग्नि निपातयेत् । तस्मात्तु मेधावी समीक्ष्य धर्म न पण्डितोग्नि समारभेत ॥६॥ तात्पर्य यह है कि जो लोग मातापिता आदि परिवार का परित्याग करके और श्रमण का व्रत अंगीकार करके भी अग्नि का आरंभ करते हैं, तथा अपने सुख की इच्छा से प्राणियों का घात करते हैं, वे कुशीलधर्मी कहलाते हैं। तीर्थकरो एवं गणधरोंने उन्हें कुशीलधर्मी कहा है ॥५॥ अग्निकाय के प्रारंभ में प्राणियों का घात किस प्रकार होता है, यह सूत्रकार दिखलाते है-'उजालमओ पाण' इत्यादि। शब्दार्थ-'उज्जालओ-उज्ज्वालकः' अग्नि जलाने वाला पुरुष 'पाण निवायएज्जा-प्राणान् निपातयेत्' प्राणियों का घात करता है, तथा 'निव्वाव मो-निर्वापक:' अग्नि को बुझाने वाला पुरुष भी 'अगणि તાત્પર્ય એ છે કે જેમાં માતાપિતા આદિ પરિવારને ત્યાગ કરીને શ્રમણવ્રત અંગીકાર કરવા છતાં પણ અગ્નિને આરંભ કરે છે, તથા પિતાના સુખને માટે પ્રાણીઓને ઘાત કરે છે, તેમને કુશીલધમ કહેવાય છે. ગણધરોએ એવાં પાખંડી સાધુઓને કુશીલધમી કહ્યા છેગાથા પ ર અગ્નિકાયના આરંભમાં પ્રાણીઓને ઘાત કેવી રીતે થાય છે, તે સૂત્ર४॥२ वे समा -'उज्जालओ पाण' त्या: शहाथ-'उज्जालो-उज्ज्वालकः' ममि स वाणे ५३५ 'पाणनिवाय. एज्जा-प्राणान् निपातयेत्' प्राणियोनी बात रे छ, तथा निन्याओ-निर्वापक:' For Private And Personal Use Only Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृता अन्वयार्थ:-(उज्जालो) उम्बालक:-अग्नि प्रनालकः (पाण निवायएमना) प्रगान काष्ठादिगतान् जीयान् निभातयेत्-विनाशयेत् , तथा (निबावो) निर्वापकः)-अग्नेः शान्तयिता भी (अगणि निवायवेज्जा) अग्नि - अग्निकार्य निपातयेत् उपहत्येव (तम्हा उ) तस्मात्तु-तस्मात् कारणात् (मेहावी) मेधावी (पंडिए) पंडितः सदसद् विवेकवान् 'धम्म समिक्ख' धर्म श्रुतचारिक्षलक्षणं समीक्ष्य दृष्ट्वा (अगणि) अग्निकार्य (ण समारभिज्जा) न-नैव समारभेत्-अग्निकायसमारम्भ न कुर्यादिति ॥६॥ टीका---'उज्जालओ' उज्ज्वालकोऽग्निपदीपकः पुमान् 'पाण' प्राणान् पाणवत इत्यर्थः 'निवायएज्जा' निपातयेत् यः तपनतापनपचनपरिपाचननिवायवेज्जा-अग्नि निपातयेत्' अग्निकायके जीवोंका घात करता है 'तम्हा उ-तस्मात्तु' इस कारण से 'मेहावी-मेघावी' धुद्धिमान् ‘पंडिएपण्डितः' पंडित पुरुष अर्थात् सत् असत् को जाननेवाला पुरुष 'धम्म समिक्ख-धर्म समीक्ष्य' श्रुतचारित्ररूप धर्म को देख कर अगणि-अग्नि' अग्निकायका 'ण समारमिज्जा-न समारभेत' समारंभ न करे ॥६॥ ___ अन्धयार्थ---अग्नि जलाने वाला काष्ठ आदि में रहे हुए जीवों का घात करता है और उसे बुझाने वाला अग्निकायिक जीवों को घात करता है। अतएव मेधावी पुरुष धर्म का विचार करके अग्निकाय का आरंभ न करे ॥६॥ टीकार्थ-जो पुरुष अग्नि जलाता है, वह प्राणों अर्थात् प्राणियों का घात करता है । तपन, तापन, पचन या पाचन आदि के लिए मशिन मालवावाणी ५३५ ५ 'अगणी निवायवेजा-अग्नि निपातयेत्' अभियानो घात 3रे छे. 'तम्हाउ -तस्मात्तु' मा ४२४थी मेहावी-मेधावी' मुद्धिमान् पाडिए-पण्डितः' पति५३५ मर्थात् सत् मसत् ने जाणे पुष 'धम्म समिक्ख-धर्म समीक्ष्य' श्रुतयारित्र ३५ ५ २ ने 'अगणि-अग्नि अनिडाय न 'ण समारभिज्जा-न समारभेत' सभा २ ॥६॥ સૂત્રાર્થ—અગ્નિ સળગાવનાર માણસ કાષ્ઠ આદિમાં રહેલા જીવન ઘાત કરે છે, અને તેને બુઝવનાર અગ્નિકાય જીવોને ઘાત કરે છે. તેથી મેધાવી પુરુષે એ ધર્મને વિચાર કરીને અગ્નિકાયને આરંભ કર જોઈએ नही ॥६॥ ટીકાથે-જે પુરુષ અગ્નિ સળગાવે છે, તે પ્રાણેને (જીને) ઘાત કરે છે. તાપવા માટે, તપાવવા માટે, ખેરાકને રાંધવા કે રંધાવવા આદિને માટે For Private And Personal Use Only Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र.श्रु. अ. ७ उ.१ कुशीलवतां दोषनिरूपणम् ५६७ या ऽग्नि प्रज्ज्यालयति स अपरान् अग्निकायान् तथा पृथिव्याधाश्रितान स्थावरान् प्रसांश्च विगधयति मनोवाक्कायैः। निव्वावओ' अग्नि निर्वापकः पुरुष 'अगणि' अग्निकार्य जीवम् 'निवायवेज्जा' निपातयेत् विनाशयतीत्यर्थः । अग्निकायं जलादिना निर्वापयन् तदाश्रितान् अन्यांश्च प्राणिनो विराधयेत्। तत्रो उज्जालकनिर्वापको उभावपि षड्जीवनिकायानामपि समारंभको भवतः। उक्तं भगवत-दो भंते ! पुरिसा अन्नमन्नेण सद्धिं अगणिकायं समारमंति, तत्थ णं एगे पुरिसे अगणिकायं उजाले एगेणं पुरिसे अगणिकायं निगावेज्जा, तेसि मंते ! पुरिसाणं कयरे पुरिसे महाकम्मतराए कयरे वा पुरेसे अप्पकम्मतअग्नि जलाने वाला दूसरे अग्निकायिक जीवों का तथा पृथ्वी आदि के आश्रय में रहे हुए स्थावरों और त्रस जीवों का भी मन वचन और काय से विराधना करता है। और जो अग्नि को वुझाता है वह अग्नि काय के जीवों का विनाश करता है । जो जलादि से अग्निकाय को बुझाता है, वह उसके आश्रित अन्य प्राणियों को भी विराधना करता है। इस प्रकार अग्नि को जलाने वाला और बुझाने वाला दोनों ही षदजीवनिकाप समारंभकर्ता है। भगवतीसूत्र में कहा है-'हे भगवान् ! एक साथ दो पुरुष अग्निकाय का आरंभ करते हैं। उनमें से एक अग्नि को प्रज्वलित करता है और एक उसे घुझाता है। हे भगवन् ! इन दोनों पुरुषों में कौन महाकर्म उपार्जन करने वाला है और कौन अल्प कर्म उपार्जन करने वाला है ? દેવતા સળગાવનાર માણસ બીજા અગ્નિકાય જીવોની તથા પૃથ્વી આદિને આશ્રયે રહેલાં રસ અને સ્થાવર જીવોની પણ મન, વચન અને કાયા વડે વિરાધના કરે છે. અને જે માણસ સળગતા અગ્નિને બુઝાવે છે, તે અગ્નિકાય જીવોની વિરાધના કરે છે. જે માણસ જલ આદિ વડે અગ્નિને બુઝાવે છે, તે માણસ જલાદિને આશ્રય કરી રહેલા જીવોની પણ વિરાધના કરે છે. આ પ્રકારે અગ્નિને સળગાવનાર અને બુઝાવનાર, બને માણસે છ કાયના જીવોની વિરાધના કર્તા બને છે. ભગવતી સૂત્રમાં આ વિષયને અનુલક્ષીને ગૌતમ સ્વામીએ મહાવીર પ્રભુને આ પ્રમાણે પ્રશ્ન પૂછે છે-“હે ભગવન! એક સાથે બે પુરુષે અગ્નિકાયને આરંભ કરે છે. તેમાંથી એક અનિને પ્રજવલિત કરે છે અને બીજો તેને બુઝાવે છે. હે ભગવન્! આ બન્નેમાંથી ક પુરુષ મહાકર્મનું ઉપાર્જન કરનાર છે અને કયે પુરુષ અલ્પકર્મનું F - ३२ना। छे ? For Private And Personal Use Only Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५६८ सूत्रकृताङ्गसूत्रे राए। गोयमा तत्व णं जे से पुरिसे अगणिकाणं उज्जाले से णं पुरिसे बहुत पुढविकार्यं समारभइ, एवं भाउकार्य, वाउकार्य, वणस्सइकार्य तसकार्य अप्पतरागं अगणिकार्य समारमति इत्यादि । तथा 'भूषाणं एसमाघाओ हव्यवाही संसओ' इति । यस्मात् अग्निमज्वालने तन्निपि वा पड्जीवनिकायविराधना भवति, 'तुम्हा उ' तस्मात् कारणात् 'मेहावी पंडिए' मेघावी पण्डितः 'धम्मं' धर्मम् = षड्जीवनिकायरक्षणे श्रुतचारित्रधर्म रक्षणं भवतीति 'समिक्ख' समीक्ष्य 'ण' न 'अगणि' अग्निकायम् 'समारभिज्जा' समारभेत कथमपि स्वार्थ परार्थं वा त्रिकर त्रियोगेः नाग्नि प्रज्वालयेत् । न वा विनिर्वापयेदग्निम् इति ॥ ६ ॥ " भगवान् उत्तर देते हैं- हे गौतम! जो पुरुष अनिका को प्रज्य लित करता है, वह बहुत से पृथ्वीकायिक अपकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकाधिक और त्रसकायिक जीवों का आरंभ करता है, इत्यादि । आगम में अन्यत्र भी कहा है कि-'अग्नि, जीवों का घात करने वाली है, इसमें संशय नहीं है।' क्योंकि अग्नि के जलाने और बुझाने में पटू जीवनिकाय के जीवों की विराधना होती है, इस कारण मेधावी आर्थात् कुशलपुरुष धर्म का विचार करके जीवों की हिंसा न करने में धर्म है ऐसा जान कर स्वार्थ के लिए, परार्थ के लिए, तीन करण तीन योग से अग्निकाय का आरंभ न करे न अग्नि को प्रज्वलित करे और न बुझावे और न इनका अनुमोदन करे || ६ || મહાવીર પ્રભુને ઉત્તર-‘હે ગૌતમ ! જે પુરુષ અગ્નિકાયને પ્રજવલિત કરે છે, તે ઘણા પૃથ્વીકાયિક, અપકાયિક, વાયુકાયિક વનસ્પતિકાયિક અને ત્રસકાયિક જીવોના આરંભ કરે છે.' ઇત્યાદિ. આગમનમાં અન્યત્ર પણ એવું કહેવામાં આવ્યુ છે કે‘અગ્નિ જીવોના ઘાત કરનારા છે, તેમાં કાઈ સશય રાખવા જેવું નથી.' અગ્નિને સળગાવવાથી અને આલવવાથી ષટ્ જીવનિકાયના જીવોની વિરાધના થાય છે, તે કારણે મેધાવી (બુદ્ધિશાળી) પુરુષાએ વિચાર કરીને હિસા ન કરવામાં જ ધમ છે, એવુ' જાણીને-સ્વાને માટે કે પાને માટે, ત્રણ કરણ અને ત્રણ ચેગથી અગ્નિના આરંભ કરવો જોઇએ નહી. એટલે કે જીવોની વિરાધના કરવી ન જોઇએ એવુ માનનાર પુરુષે અગ્નિ પ્રજવલિત કરવો પણ નહી અને એલવવો પણ નહીં. તેણે ખીજાની પાસે અગ્નિ પ્રજ્વલિત કરાવવો પણ નહી અને એલવાવરાવવો પણ નહી. તથા અગ્નિ પ્રજવલિત કરનાર કે એલવનારની અનુમેદના પણ કરવી નહી. પ્રા For Private And Personal Use Only Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ७ उ. १ कुशीलवतां दोषनिरूपणम् मूलम् - पुढवी वि जीवा आऊ वि जीवा, पार्णो य संपाइर्म संपयति । संसेrयाँ कटु समस्सिया य ऐए देहे अगणि समारभंते ॥७॥ छाया - पृथिव्यपि जीवा आषोपि जीवाः प्राणाश्च संपातिमाः संपतन्ति । संस्वेदजाः काष्ठपमाश्रिताथ एतान् दहेदग्निं समारभमाणः ॥ ७॥ अन्वयार्थः -- ( पुढची वि जीवा ) पृथिवी मल्लक्षणा साऽपि जीवाः (आऊ वि जीवा ) आप: द्रवलक्षणास्ता अपि जीवाः (संवादमपाणा य संपयंति) संपातिमाः शलमादयश्व प्राणाः संपतन्ति अग्नौ (संसेश्या) संस्वेदजाः - युकादयः (य कट्ट 'पुढची वि जीया' शब्दार्थ - 'पुढवी वि जीवा - पृथिव्यपि जीवाः पृथिवी भी जीव हैं 'आऊ वि जीवा - आपोऽपि जीवाः' जल भी जीव है 'संपाहम पाणा य संपयंति - संपातिमाः प्राणाः संपतन्ति' तथा संपातिम जीव अर्थात् पतंग आदि अग्नि में पढकर मरते हैं 'संसेयया-संस्वेदजा' संस्वेदज अर्थात् यूकादि प्राणी 'य कgaमस्सिया च काष्ठसमाश्रिताः' तथा काष्ठ में रहने वाले जीव 'अगणि समारभते अग्नि समारभमाणः' अग्नि arunt आरम्भ करनेवाला पुरुष 'एए दहे - एतान् दहेत्' इन जीवों को जलाता है ||७|| अन्वयार्थ - पृथ्वी भी जीव है अकाय भी जीव है और पतंग संपातिम भी जीव अग्नि में पड़ जाते हैं। संस्वेदज जीव तथा जो 'पुढवी वि जीवा' शार्थ' - 'पुढवी वि जीवा - पृथिव्यपि जीवाः' पृथ्वी पशु व छे, 'आऊंवि जीवा - आपोऽपि जीवाः' व छे. 'संपाइमपाणा य संपयंति-स पातिमाः प्राणाः संपतन्ति' तथा संपातिभ व अर्थात् पतंग विगेरे व अभिमा थंडीने भरे छे. 'संखेय्या - सस्वेदजाः संस्वे६४ अर्थात् नू विगेरे आली 'य कटुसमस्सिया च काष्ठस माश्रिताः' तथा मरवावाजा व 'अगणि समारभते - अग्नि समारभमाणः' अभियन। सभार'ल अश्वावाणी पुरुष 'एक बड़े - एतान् दहेत्' मा वाने माने छे. ॥ ७ ॥ સૂત્રા—પૃથ્વી પણ જીવ છે, અકાય પણ જીવ છે, અને પતંગિયાં આદિ સંપાતિમ (ઉડતાં) જીવા પશુ અગ્નિમાં પડી જાય છે. અગ્નિની વણધના કરનારા લેાક આ સઘળા જીવાને બાળી નાખીને તેમની હિંસા કરે सु० ७२ For Private And Personal Use Only Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे समस्सिया) च काष्ठसमाश्रिताः ये पाणाः (अगणि समारभंते) अग्नि समारममाणः (एए दहे) एतान उपयुक्तान् जीवान दहेत् विराधयेदिति ॥७॥ __टीका-ननु पृथिव्यामेव जीवा दृश्यन्ते त्रसाः स्थावराश्च ये एते, प्रत्यक्ष सिद्धत्वात् , इति तेषां पाणातिपाते एव दोषः । न तु पृथिवीरूपाः जीवाः समु. पलब्धाः, येन ते स्वीकृताः स्युः। तत्कथमुच्यतेऽग्निपदीपने पृथिवीकायानां विनाशो भवतीति इत्याशंक्य-प्रतिविधीयते सूत्रकारेण-'पुढची वि' इत्यादि। न शंकनीयं केवलं पृथिव्याश्रिता एव जीवाः, किन्तु याऽपि पृथिवी मृत्तिकारूपा, साऽपि जीवा एव । 'पुढवी वि' पृथिव्यपि जीवा एव 'आऊ वि जीवा' आपोऽपि जीवस्वरूपा एव, न केवलं तथाश्रिता एव प्राणिनः । जलाश्रिता अपि काष्ठ के आश्रित रहे हुए हैं, अग्नि का आरंभ करने वाला इन सब प्राणियों का दाह विराधना करता है ॥७॥ ... टीकार्थ-प्रश्न-पृथ्वी में जो त्रस और स्थावर जीव दृष्टिगोचर होते हैं वही जीव हैं, क्योंकि वे प्रत्यक्ष से सिद्ध हैं । अतएव उन्हीं की हिंसा करना दोष है। पृथ्वीकाय रूप जीव तो कभी उपलब्ध नहीं होते जिससे उन्हें स्वीकार किया जाय ? फिर केसे कहा गया है कि भग्नि जलाने में पृथ्वीकायिक जीवों का विनाश होता है ? इस प्रश्नका उत्तर सूत्रकार देते हैं-पृथ्वी भी जीव है, पृथ्वी के आश्रित जो जीव हैं, वही जीव हैं, ऐसी आशंका मत करो, किन्तु मृत्तिका रूप पृथ्वी भी जीव ही है। इसी प्रकार अप्काय भी जीव ही है। ऐसा नहीं कि इन के आश्रित रहे हुए जीव ही जीव हैं। पतंग છે. વળી અગ્નિને આભ કરનારા લેકે સંદજ ની તથા કાષ્ઠની અંદર રહેલા ની પણ વિરાધના કરે છે. પેશા An...प्रश्न-पृथ्वीमा २ स भने स्था१२ वो ष्टगाय२ थाय છે, તેમને જીવ માનવામાં કઈ વાંધો નથી, કારણ કે તેમનું અસ્તિત્વ તે કામયક્ષ દ્વારા સિદ્ધ થાય છે. તેથી તેમની જ હિંસા કરવી, તેને દેષ માની કાય, પરંતુ પૃથ્વીકાય રૂપ જીવનું તે અસ્તિત્વ જ કયાં છે ? તે પછી જ શા માટે કહેવામાં આવ્યું છે કે અગ્નિ સળગાવવાથી પૃથ્વીકાયિક છાને વિનાશ થાય છે ? આ પ્રશ્નને સૂત્રકાર આ પ્રમાણે ઉત્તર આપે છે–પૃથ્વી પણ જીવરૂપ જે છે. એવી આશંકા કરવી જોઈએ નહીં કે પૃથ્વીને આશ્રયે જે જીવે રહેલા છે તેઓ જ જીવ રૂપ છે. મૃત્તિકા (માટી) રૂપ પૃથ્વી પણ જીવ રૂપ જ છે એજ પ્રમાણે અપૂકાય પણ જીવ રૂપ જ છે. એવું માનવું જોઈએ 1. . .. For Private And Personal Use Only Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ७ उ. १ कुशीलवतां दोषनिरूपणम् र प्राणाः पाणिनः, 'संपाइम' संपातिमाः-शलमादयस्तत्र संपतन्ति तेऽपि जीवा एत्र । तथा 'संसेइया' संस्वेदनाः-स्वेदेनदेहाश्रित देहविकाररूपजलेन जायमाना यूकादयोऽपि जीवा एव। तथा-कट्ठसमस्सिया य' काष्ठपमाश्रिताः घुणकम्यादयः माणिना, एते सर्वेऽपि जीवा एव। 'अगणि' अग्निम् 'समारभंते' समारममाणः 'एए' एतान्-उपर्युक्तान् पद्दपि जीननिकायान् ‘दहे' दहे-ये हि काठाघाश्रिता जीवास्ते सर्वेऽपि दह्यन्ते बह्निमज्वालने । तथा च ये बहिमज्वालकास्ते षडपि जीवनिकायजीवान् विराधयन्ति, अतो बहिकायसमास्यमो महादोषायेति ॥७॥ ___ एतावता येऽग्निकायविराधकास्तापसास्तथा-पाकादिव्यापारादमिहत्ता बौद्धभिक्षवः पार्श्व स्थादयः ते निराकृताः । इदानीं ये वनस्पतिकायान् विराधयन्ति, तानधिकृत्याऽऽह सूत्रकारः-'हरियाणि' इत्यादि । मुम्ल-हरियाणि भूयाणि विलंबगाणि, आहार देहा य पुढो सियाई । आदि जो संपातिम अर्थात् उडनेवाले हैं, वे भी जीव हैं तथा जू मादि संस्वेदज, जो पसीने से उत्पन्न होते हैं, वे भी जीव हैं। काष्ठ के सहारे रहनेवाले घुन, कृमि आदि भी जीव हैं । जो अग्नि का आरंभ करता है वह सभी पूर्वोक्त जीवों को जलाता नष्ट करता है, अग्नि जलाने पर काष्ठ के आश्रित सभी जीव जल मरते हैं। अन्य जीवों की विराधना भी होती है । अतः अग्नि को जलाना महादोष का कारण है ॥७॥ નહીં કે પાણીમાં રહેલાં છ જ જીવ રૂપ છે. તેઓ તે જીવરૂપ છે જ પરતુ અમુકાય પણ જીવ રૂપ જ છે. પતંગિયા આદિ જે સંપાતિમ (ઉડનારા) જીવે છે, તેઓ પણ જીવરૂપ જ છે. એ જ પ્રમાણે જે આદિ સં. દજ (પરસેવામાંથી ઉત્પન્ન થનારા) જીવે પણ જીવ રૂપ જ છે કાષ્ઠને આશ્રયે રહેનાર કીડા, કૃમિ આદિને પણ જીવરૂપ જ માનવા જોઈએ. જે માણસ અગ્નિને પ્રજવલિત કરે છે, તે પૂર્વોક્ત સઘળા જીવોને બાળીને તેમની હિસા કરે છે. અગ્નિને સળગાવવાથી કાષ્ઠને આશ્રયે રહેલાં સઘળા છો તે બની જ મરે છે, એટલું નહી પણ અન્ય જેની પણ વિરાધના થાય છે તેથી જ અનિના આરંભને-અગ્નિ પ્રજવલિત કરવાના કાર્યને મહાદોષનું કારણ કરે વામાં આવેલ છે. જેના For Private And Personal Use Only Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra २५७३ www.kobatirth.org जे छिंदती आयसुहं पंडुच्च, Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir teres पांगभि पाणे बहुणं तिवाई ॥८॥ --- छाया - हरितानि भूतानि विलंबकानि आहारदेहाच पृथक श्रितानि । छिनस्यात्मसुखं प्रतीस्य प्राणानां बहूनामतिपाती ॥८॥ इस कथन से अग्निकाय के विराधक तापसों का, पाक आदि कियाओं से निवृत न होनेवाले बौद्ध भिक्षुओं का तथा पार्श्वस्थ आदि का निराकरण किया। अब सूत्रकार वनस्पतिकाय की विराधना करने वालों के विषय में कहते हैं - 'हरियाणि' इत्यादि । शब्दार्थ - 'हरियाणि भूयाणि - हरितानि भूतानि हरित दूर्वाकुर आदि भी जीव हैं 'विलंबगाणि - विलम्बकानि' जीव के आकार से परिणमते हुवे वे भी 'पुढोसियाई - पृथक् श्रितानि' मूल स्कंध, शाखा और पत्र आदिके रूप से अलग अलग रहते हैं' 'जे आयसुहं पड्डु - आत्मसुखं प्रतीत्य' जो पुरुष अपने सुखके लिये 'आहार देहा य आहारदेहा च' आहार करने के लिये और शरीर की पुष्टि के लिये 'छिंदती - छिनत्ति' इनका छेदन करके विनाश करता है 'पागभि पाणे बहुणं तिवाई - प्रागल्भ्यात् प्राणानां बहूनामतिपाती' वह घृष्ट पुरुषबहुत प्राणियों का नाश करता है ॥८॥ આ કથન દ્વારા અગ્નિકાયની વિરાધના કરનારા તાપસેા ન, રસાઈ રાંધવા આદિ ક્રિયાઓમાંથી નિવૃત્ત નહી' થનારા મૌદ્ધ ભિક્ષુઓના તથા પાર્શ્વસ્થા (શિથિલાચારીએ) આદિના મતનું ખડન કરવાંમાં આવ્યુ. હવે સૂત્રકાર વનસ્પતિકાયની વિરોધના કરનારાઓના વિષયમાં આ પ્રમાણે કહે છે -'farfor, scule For Private And Personal Use Only शब्दार्थ - 'हरियाणि भूषाणि - हरितानि भूतानि' इति इर्षा बरे। विगेरे पशु ७१ छे. 'विलंबगाणि - विलम्बकानि वा अस्थी परिशुभता भेना तेथे 'पुढोसियाई - पृथक्षितानि' भूज, सुध, शाखा अने पत्र विगेरे ३ हा हा रखे छे. 'जे आयमुह पडुच्च ये आत्मसुखं प्रतीत्य' ने पु३ष पोताना शुभ भाटे 'आहारदेहा य - आहारदेहा च' महा२ ४२वा भाटे तथा शरीरनी पुष्टि भाटे 'छिदती - छिनत्ति' या वनस्पतियानु छेदन कुरीने तेनेो विनाश रे छे. 'पागभिपाणे बहूणं तिबाइ-प्रागल्भ्यात् प्राणानां बहुनामतिपाती' ते પૃષ્ટ પુરૂષ ઘણા પ્રાણિયાના વિનાશ કરે છે, ॥ ૮॥ Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सिमेयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अं. ७ उ. १ कुशीलवतां दोषनिरूपणम् ५७३ अन्धयार्थः-(हरियाणि भूयाणि) हरितानि दुर्वा कुरादीनि भूतानि जीवाः (विलंबगाणि) विलम्बकानि जीवाकारेण परिणम्यमानानि (पुढो सिगाई) पृथकमूलस्कंधादि स्थानेषु श्रितानि व्यवस्थितानि (जे आयमुहं पड्डुच्च) य: आत्ममुख प्रतीत्याश्रित्य (आहारदेहाय-आहारार्थ देहापचयार्थम् (छिंदती) छिनत्ति विनाशपति (पागन्भि पाणे बहुणं तिवाई) मागल्भ्यात् धायावष्टंभात् बहूनां माणानां जीवानाम् अतिपाती विराधको भवतीति ॥८॥ टीका-'हरियाणि' हरितानि-दुर्वा तनि, एतान्यपि भूयाणि भूतानि-कुतचैतेषु जीवत्वमिति ? तत्र वच्मि-यथा जीवन् देहधारी आहारादिकमर्जयति । तथेमे हरिसजीवा अपि आहारादीनां प्राप्तौ बर्धन्ते, तदभावेहा समुपयान्ति तत आहारा. दीनाम्-अभ्यवहरणे वृद्धिदर्शनात् हरितादीनि भूतान्येव । तथा-'विलंवगाणि' अन्वयार्थ-दूर्वा अंकुर आदि हरितकाय भी जीव हैं। वे जीव की अवस्थाओं को धारण करते हैं। मूल, स्कंध आदि अवयवों में पृथक रहते हैं। जो मनुष्य अपने सुख के लिए, आहार के लिए या शरीरपोषण के लिए उनका छेदन करते हैं, वे धृष्टता का अवलम्बन करके बहुत प्राणियों के विरोधक होते हैं ॥८॥ टीकार्थ-हरितकाय भी जीव हैं । वे जीव कैसे हैं ? इस प्रश्न का उत्तर देते हैं-जैसे मनुष्य भादि देहधारी जीव आहार करते हैं, उसी प्रकार वनस्पति जीव भी आहार करते हैं और आहार की प्राप्ति होने पर वृद्धि को प्राप्त होते हैं। जैसे मनुष्य का शरीर आहार के अभाव में क्षीण होता है, उसी प्रकार वनस्पति का शरीर भी आहार के अभाव में क्षीण होता है। इस प्रकार आहार की प्राप्ति और अप्राप्ति में शरीर - સૂવાદ-દૂર્વા અંકુર આદિ હરિતકાય પણ જીવે જ છે. તેઓ જીવની અવસ્થાઓને ધારણ કરે છે. મૂળ, સ્ક ધ આદિ અવયમાં જુદા જુદા રહે છે. જે મનુષ્ય પિતાના સુખને માટે, આહારને માટે કે શરીરના પોષણને માટે તેમનું છેદન કરે છે, તેઓ ધૃષ્ટતાનું અવલંબન લઈને અનેક ના વિરાધક બને છે. ટીકાર્થ – હરિતકાય પણ જીવ છે એટલે કે સજીવ છે. તેને સજીવ શા કારણે કહેવાય છે તે હવે સમજાવવામાં આવે છે. જેવી રીતે મનુષ્ય આદિ દેહધારી જી આહાર કરે છે, એ જ પ્રમાણે વનસ્પતિ છે પણ આહાર કરે છે, અને આહારની પ્રાપ્તિ થાય તો જ વૃદ્ધિ પામે છે. જેવી રીતે આહાર ન મળે તે મનુષ્યનું શરીર ક્ષીણ થઈ જાય છે, એ જ પ્રમાણે વનસ્પ તિનું શરીર પણ આહારને અભાવે ક્ષીણ થઈ જાય છે. આ પ્રકારે આહારની For Private And Personal Use Only Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir DASI सूत्रकृतानपत्रे विलंबकानि, विलम्बन्ते धारयन्तीति विलम्बकानि एतानि जीवाकारं धारयन्ति । तथाहि-यया कलल -बुबुर-मांस पेशी-गर्भ-प्रसव-बाल-कौमार-यौवन-जरामस्यातो मनुष्यो भवति । तथैर वृक्षवनस्पत्यादयोऽपि जाता, अभिनाः, संजातरसा: पुवानः कथयन्ते । परतश्च त एव पुनः परिपक्याः शुष्काः मृताश्चेति व्यवहियन्ते । या या अवस्था मनुष्याणांतास्ता एव वृक्षवनस्पतीनामपि भवन्ति। अतोऽपि सर्वे जीषा एव । ततो हरितान्यपि जीवाकारं विलंबन्ते एव । 'पुढोसियाणि' पृथक् श्रितामि, एतानि, मूलशाखास्कन्धपत्रादि भेदेषु संख्येयासंख्येयानन्तभेदभिन्नानि वनस्पकी वृद्धि और हानि देखने से धनस्पतिकाय सजीव सिद्ध होता है। इसके अतिरिक्त ये जीव की विविध अवस्थाओं को धारण करते हैं। यथा-कलल, बुद्बुद, मांसपेशी गर्भ, प्रसव, बाल, कुमार, यौवन और जरा अवस्थाएँ मनुष्य में होती हैं, अतएव मनुष्य सजीव है, उसी प्रकार वनस्पति में भी जात (उत्पन्न) अभिनव (नूनन) संजातरस, युवा आदि अवस्थाएँ होती हैं । तत्पश्चात् वे शुष्क, परिपक्व और मृत कहलाते हैं। इस प्रकार जो जो अवस्थाएँ मनुष्य में होती है, वही सब वनस्पति में होती हैं, इस कारण वे भी जीव हैं। वनस्पतिकायिक जीव वनस्पति के मूल, शाखा, स्कंध, पत्र आदि अवयवों में संख्यात, असंख्यात एवं अनन्त संख्या में आश्रित होकर रहते हैं । ऐसा नहीं है कि सम्पूर्ण वृक्ष में एक ही जीव हो । પ્રાપ્તિ અને અપ્રાપ્તિને લીધે વનસ્પતિને શરીરની વૃદ્ધિ અને હાનિ થતી જોવામાં આવે છે, તેથી સિદ્ધ થાય છે કે વનસ્પતિકાય સજીવ છે વળી વનસ્પતિકાય પણ જીવની વિવિધ અવસ્થાઓ ધારણ કરે છે. કલલ (વીર્ય અને शातिना समुहाय शरी२६५७ मतावानी भ१२था) मांसपेशी, , प्रसप, બાલ્યકાળ, કુમાર, યૌવન અને જરા, આ બધી અવસ્થાએાને જેમ મનુષ્યમાં સદ્ભાવ હેય છે, એજ પ્રમાણે વનસ્પતિમાં પણ જાત ( ઉત્પા) અભિનય નૂતન) સંજાતરસ, યુવા આદિ અવસ્થાઓને સદૂભાવ હોય છે. ત્યાર બાદ પરિપકવ, શુષ્ક અને મૃત આ અવસ્થામાં પણ આવે છે. આ પ્રકારે મનુબમાં જે જે અવસ્થાઓના સદૂભાવ છે, તે બધી અવસ્થાઓને વનસ્પતિમાં પણ સદ્દભાવ હોય છે. તે કારણે વનસ્પતિની સજીવતા સિદ્ધ થાય છે. વન સ્પતિકાયિક જી વનસ્પતિનાં મૂળ, શાખા, કંધ. પત્ર આદિ અવયમાં સંખ્યાત, અસંખ્યાત અને અનન્ત સુધીની સંખ્યામાં આશ્રય લઈને રહેતા હોય છે. એવું માનવું જોઈએ નહીં કે આખા વૃક્ષમાં એક જ જીવ હોય છે. For Private And Personal Use Only Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. भ.७ उ. १ कुशीलवतां दोषनिरूपणम् ५७५ तिकायाश्रितानि भवन्ति । न तु संपूर्णवृक्षेषु एक एन जीवः । 'जे आयसुखं पड्डुच्च' यः प्राणी आत्मसुखं प्रतीत्य, आत्मसुखार्थम् । तथा-'आहारदेहाय' भोजनाय देहपुष्टयर्थ वा, आत्मसुख ज्ञात्वा। 'छिंदती' छिनत्ति छेदयति-'पागनिम' मागल्भ्यात् विवेकं विहाय धृष्टतामाश्रित्य 'पाणे बहुणं तिवाई' प्राणिनां बहूनामतिपाती भवति । एकस्यापि वनस्पतिकायस्य विराधने कृते बहवो जीवा विराधिता भवन्ति, तदतिपातात् निरनुक्रोशतया न धर्षों नवाऽऽश्ममुखं । किन्तु चातुर्गतिकभ्रमगरूपयापमेव कालमिति ॥८॥ मूलम् जाइं च बुद्धिं च विणासयंते, बीयाइ अस्संजय आयदंडे । अहाहु से लोएँ अणज्जधैम्मे, बीयाइ जे हिंसइ आयसाए ॥९॥ छाया--जाति च वृद्धिं च विनाशयन् बीजान्यसंयत आत्मदण्डः। अथाहुः स लोकेनार्यधर्मा बीजानि यो हिनस्त्यात्मसाताय ॥९॥ जो लोग अपने सुख के लिए अथवा आहार के लिए या देह का पोषण करने के लिए इन जीवों का छेदन भेदन करते हैं, वे धृष्टता करके बहुत प्राणियों के घातक होते हैं, क्यों कि एक वनस्पति शरीर का छेदन करने से बहुत से जीवों की विराधना होती है । इस विराधना के कारण निर्दयता होने से न धर्म होता है और न आस्मा को सुख की प्राप्ति होती है । केवल चार गतियों में भ्रमण का कारण पाप ही होता है ॥८॥ - જે લેકે પિતાના સુખને માટે અથવા આહારને માટે અથવા શરીરનું પિષણ કરવાને માટે આ જીનું છેદન ભેદન કરે છે, તેઓ ધૂછતા કરીને (વનસ્પતિમાં જીવ નથી એવી બેટી માન્યતાને વળગી રહેવાની મૂર્ખતા કરીને) ઘણાં જ એના ઘાતક બને છે, કારણ કે એક જ વસ્પતિકાયનું છેદન કરવાથી પણ ઘણું જ જીવોની વિરાધના થતી હોય છે. આ પ્રકારની વિરાધના કરનાર છવ પિતાની નિર્દયતાને લીધે પાપકર્મનું જ ઉપાર્જન કરે છે અને તેના આત્માને સુખની પ્રાપ્તિ થતી નથી. તેને આ પાપકર્મોને કારણે ચાર ગતિઓમાં ભ્રમણ જ કર્યા કરવું પડે છે. દ્રા, For Private And Personal Use Only Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे अन्वयार्थः--जे असं नए) यः असंयतः-गृहस्था (आयसाए) आत्मसाताय आत्मसुखाय (बीयाइ हिंसइ) बीजानि हिनस्ति-विराधयति, तथा (जाई च बुड्रिं च विणासयंते) जातिम् अंकुरादीनामुत्पत्ति तथा तेषामेव वृद्धि विनाशगन् (आय. दंडे) आत्मदण्डः स्वात्मन एव दण्डको भवति, (लोए से अणज्जधम्मे अहाहु) लोके स अनार्यधर्मा अथ इति आहुः उक्तवन्तः तीर्थकरा इति ॥९॥ 'जाइं च बुद्धिं च' इत्यादि। शब्दार्थ-'जे असंजए-यः असंयतः' जो असंयमी पुरुष 'आयसाए-आत्मसाताय' अपने सुख के लिये 'बियाइ हिंसइ-बीजानि हिनस्ति' बीज का नाश करता है तथा 'जाई च बुड्रिंच विणासयंते-जातिम् च वृद्धिं च विनाशयन्' अंकुर की उत्पत्ति तथा वृद्धि का विनाश करता है 'आपदंडे-आत्मदंड' वस्तुतः वह पुरुष उस पापके द्वारा आने आत्मा को ही दण्ड देनेवाला बनता है 'लोए से अणज्जधम्मे अहाहुलोके स अनार्यधर्मा अथाहुः तीर्थकरों ने उसे इस लोक में अनार्य धर्म वाला कहा है । ९॥ अन्वयार्थ-जो असंयमी पुरुष अपने सुख के लिए बीजों का हनन करता है, वह बीज की उत्पत्ति और वृद्धि का विनाश करता हुआ अपनी आत्मा को दंडितकरता है। तीर्थंकर ऐसे पुरुष को अनार्य: धर्मी कहते हैं। 'जाई च वुइटिं च' त्याह शहाथ-'जे असंजए-यः असंयतः' असंयमी ५३१ 'आयसाएआत्मसाताय' चाताना सुभ भाट 'बियाइ हिसइ-बीजानि हिनस्ति' भी ना नाश 3रे छे. 'जाईच वुदि च विणासयते-जातिम् च वृद्धि च विनाशयन्' अरनी पत्ति तथा वृद्धि विनाश रे छे. 'आयदंडे-आत्मदंड:' वास्तविशते मेवा Y३५ त पापना पाताना मामाने हैं ना। मन छ. 'लोए से अणजधम्मे अहाहु-लोके स अनार्यधर्मा अथाहु' तीथ मे तेमाने सामi અનાર્ય ધર્મવાળે કહેલ છે. ૯ સૂવાથ–-જે અસંયમી પુરુષ પોતાના સુખને માટે બીજને ઘાત કરે છે. તે બીજની ઉત્પત્તિ અને વૃદ્ધિને પણ વિનાશ કરતે થી પિતાના આત્માને જ દંડિત કરે છે. તીર્થકરોએ એવા પુરુષને અનાર્યધમી छो छ. ॥६॥ For Private And Personal Use Only Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. शु. अ. ७ उ. १ कुशीलवतां दोषनिरूपणम् ५७७ टीका--'जे असंनए' योऽसंयतो गृहस्थः मत्रजितो वा 'आयसाए' आत्मसाताय- सातं सुखम् - आत्मनः सुखम् तदर्थम् यः आत्मसुखमुद्दिश्याऽसंयतो नरः 'बीयाइ हिंस' बीजानि हिनस्ति विनाशयति । 'जाईं च बुद्धिं च विणासयले ' बीजस्य जाति उत्पत्ति 'बुद्धि' अंकुरानन्तरं जातां वृद्धि विनाशयन् 'आयदंडे ' आत्मदण्डः, बीजानामुत्पत्तिवृद्धिविनाशकारी, तेन पापेन आत्मानमेव दण्डयति इति वस्तुत आत्मदण्डः 'लोए से अगजधम्मे अहाहु' लोके सोडनार्यधर्मा - इति आहु स्वीर्थंकराः । तीर्थकरा हि एवमुक्तवन्तो ये लोके हरितादिजीवानां विराधकाः, ते सर्वेऽपि अनार्यधर्माणः । ये आत्मसुखमुद्दिश्य जीवान् विराधयति तथा बीज संबन्धिफलपुष्पपर्णस्वजीवानां विनाशका न तेषां विनाशका वस्तुतः परविराधकाः आत्मानमेव विराधयन्ति । तीर्थकरास्तान् अनार्यधर्माण: कथितवन्तः । तेषां विराधनेन नात्मसुखम् किन्तु विराधनाजनितपापेन दुःखमेव केवलमिति भावः ||९| मूलम् - गब्भाइ मिज्जति बुया बुवाणा मेरा पैरे पंचसिहा कुमारा । जुवाणगा मज्झिम थेरगाय चैयंति ते" आउक्खए पेलीणा ॥१०॥ छाया - गर्भे श्रियन्ते ब्रुवन्तोऽब्रुवन्तथ नराः परे पंचशिखाः कुमाराः । युवानो मध्यमाः स्थविराश्च त्यजन्ति ते आयुःक्षये प्रलीनाः ॥ १० ॥ टीकार्थ- जो पुरुष अपने सुख के लिए बीज का घात करता है, वह बीज संबंधी फल, पुष्प, आदि का भी विनाशक है। ऐसा परविराधक वस्तुतः अपनी ही आत्मा की विराधना करता है। तीर्थकर उसे आना धर्मी कहते हैं । उन जीवों की विराधना करने से आत्मा को सुख की प्राप्ति नहीं होती वरन् विराधनाजनित पाप से दुःख ही होता है ॥९॥ ટીકાથ—જે પુરુષ પાતાના સુખને માટે ખી ના ઘાત કરે છે તે ખીં સખ‘ધી કુલ, પુષ્પ, પત્ર આદિના પશુ વિનાશક બને છે. આ પ્રકારે પની વિરાધના કરનાર પુરુષ પાતાના આત્માની જ વિરાધના કરે છે, તીથ કરે એ એવા પુરુષને અના ધર્મી કહ્યો છે, તે જીવાની વિરાધના કરવાથી આત્માને સુખની પ્રાપ્તિ થતી નથી, ઉલટાં વિરાધનાજનિત પાપકમ ને કારણે દુઃખની જ પ્રાપ્તિ થાય છે. ાગાથા દ્વા सु० ७३ For Private And Personal Use Only Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ne सूत्रकृतासूचे अन्वयार्थ:-(गमाइ मिज्जति) गर्भ नियन्ते हरितवनस्पतिछेदका (बुया बुयाणा) ब्रुवन्तोऽब्रुवन्तश्च-व्यक्तवाचोऽध्यकवाचच नियन्ते (परे णरा) परे नराः वयाऽन्ये-पुरुषा (पंचसिहा कुमास) पंचशिखाः कुमारा:-कुमारावस्थायामेव'गभाई मिति' इत्यादि। शब्दार्थ-'गम्भाइ मिजाति-गर्भ म्रियते' हरी वनस्पतिका छेदन करने वाला जीव गर्भ में ही मरजाता है 'वुयाबुयाणा-ब्रुवन्तोऽब्रुवन्तश्च' तथा कोई स्पष्ट बोलने की अवस्था में और कोई अस्पष्ट बोलाने की अवस्था में ही मरजाते है 'परे णरा-परे नराः' तथा दूसरे पुरुष पंच.सिहा कुमारा-पंच शिखाः कुमाराः' पांच शिखाशले कुमार अवस्था में ही मरजाते हैं 'जुवाणगा मज्झिम थेरगाय-युवानः मध्यमाः स्थविरश्च' कोई युवान होकर तथा कोई आधी उमर वाला होकर एवं कोई वृद्ध होकर मरजाते हैं 'आउखए पलीणा ते चयंति-आयुः क्षये प्रलीना: ते त्यति' इस प्रकार बीज आदि का नाश करने वाले प्राणी सभी अवस्थाओं में आयु क्षीण होने पर अपने शरीर को छोड़ देते हैं ॥१०॥ ___ अन्वयार्थ जो पुरुष वनस्पतिकाय की विराधना करते हैं, उनमें से कोई परभंव में गर्भ में ही मर जाते हैं, कोई स्पष्ट बोलने की अवस्था . 'गब्भाई मिजंत' या:------ Aval -'गभाइ भिज्जंति-गर्भ नियन्ते' बीतरी पतिनु छेदन ४२वाया। ८५ सभा भरी लय छे. 'बुया बुगाणा- ध्रुवन्तोऽब्रुवन्तश्च' તથા કેઈ સ્પષ્ટ બેલવાની અવસ્થામાં અને કંઈ અસ્પષ્ટ બેલવાની અને स्थानी भरी जय छे. 'परे णरा-परे नराः' तथा wlad y३. “पंचमिहा .कुमारा-पंचशिखाः कुमाराः' पांय शिमााणा-यात पाल्य अवस्थामा भ नय छे. 'जुवाणगा. मझिमथेरगा य-युवानः मध्यमाः - स्थविराश्च' अध યુવાન થઈને તથા કેઈ અધિ- ઉમરવાળા થઈને અને કઈ વૃદ્ધ બનીને भरी तय छे. 'आउक्खये पलीणा ते चयंति-आयुःक्षये प्रलीनाः ते त्यजन्ति' मा રીતે બી વિગેરેને નાશ કરવાવાળા પ્રાણી બધી જ અવસ્થાઓમાં આયુષ્ય ક્ષીણ થાય ત્યારે પિતાના શરીરને છોડી દે છે. ૧૦ . સૂત્રાર્થ–જે પુરુષ વનસ્પતિકાયની વિરાધના કરે છે, તેમાંથી કઈ પરભવમાં ગર્ભમાં જ મરી જાય છે, કેઈ તેતડું બોલવાની અવસ્થામાં મારી For Private And Personal Use Only Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ७ उ. १ कुशीलवतां दोषनिरूपणम् ५७९ नियन्ते, (जुवाणगा मज्झिमथेरगा या युगाना मध्यमा स्थविराव (आउखए पलौंणा ते चयंति) आयुक्षिये ते मलीनारत्यंति-भनेन प्रकारेण स्वशरीर स्वमन्तीति ॥१०॥ टीका-वनस्पतिजीवानां ये विराधकास्तपा कीदृशं फलं भवतीति निकासी मॉलक्ष्य तत्फले कथयति सूत्रकारः। भो ? शिष्यों ? ये खलु वनस्पतिवान् विराधयन्ति ते अनियताऽऽयुषो भवन्ति अकाले मृत्युभाजो भवन्ति । तथाहि ह ये वनस्पतिकायोपमई कार प्राणिनस्ते बहुजन्मसु 'गन्माई' गर्ने एवं 'मिज्जति' नियन्ते, कललयुट्युइमांसपेशी गर्भावस्थायामेव ' मृत्युमुखं प्रविशन्ति न गर्भादपि तावद्विनिःसृता' भवन्ति । केचन पुन: "बुयायुवाणा ब्रुवन्तोऽब्रुन्त. श्च नियन्ते । गर्भाद्विनिर्गतानां स्पष्टवाचः प्रयोगात् पूर्वमेव मरणमुपयान्ति, में कोई तुतलाने की अवस्था में कोई कुमार अवस्था में, कोई युवावस्था में, प्रौढ़ अवस्था में या स्थविर अवस्था में मरते हैं । अर्था । किसी भी अवस्था में उन्हें मरना पड़ता है।॥१०॥ . टीकार्थ-वनस्पतिकाय के विराधक को किस प्रकार का फल भोगना पड़ता है ? इस जिज्ञासा को लक्ष्य में रखकर सूत्रकार फल कहते हैं-हे शिष्यो ! जो वनस्पतिजीवों की विराधना करता है, वह अनियत आयु वाला होता है, अकाल मृत्यु का भागी होता है। वनस्पतिघातक कोई-कोई बहुत जन्मों में गर्भावस्था में ही मर जाते अर्थात् कलल, बुद्बुद, मांसपेशी, गर्भ अवस्था में ही मृत्यु.को प्राप्त हो जाते हैं। वे गर्भ से बाहर नहीं निकल पाते। कोई गर्भ से बाहर निकलते हैं तो अस्पष्ट उच्चारण करने की अवस्था में या स्पष्ट उच्चारण જાય છે, કોઈ સ્પષ્ટ બેલવાની અવસ્થામાં મરી જાય છે, કે કુમારાવસ્થામાં મરી જાય છે, કોઈ યુવાવસ્થામાં, તે કઈ પ્રૌઢાવસ્થામાં અને કઈ સ્થવિર અવસ્થામાં મરી જાય છે. એટલે કે કઈ પણ અવસ્થામાં તેમને મરવું તે પડે છે. ૧૦મા ટીકાઈ–વનસ્પતિકાયની વિરાધના કરનારને કેવું ફળે ભેગવવું પડે છે ? આ પ્રશ્નને ઉત્તર આપતા સૂત્રકાર કહે છે કે હે શિ ! જે મનુષ્ય વનસ્પતિ છની વિરાધના કરે છે, તે અનિયત સુવાળો હોય છે, અથવા અકાળ મૃત્યુ પણ પામે છે. વનસ્પતિજીને ઘાત કરનાર કે કોઈ જ તે ઘણાં ખરાં જમાં ગર્ભાવસ્થામાં જ મરણ પામે છે. એટલે કે કુલા, બ ખુદ માંસપેશી કે ગમ અવસ્થામાં જ મરણ પામે છે. એટલે કે તેઓ ગર્ભમાંથી બંહાંર તે નીકળી જ શકતા નૃથી, એવી કઈ કઈ છે જે ગો માંથી બહાર નીકળે છે તે સ્પષ્ટ ઉચ્ચારણું કરવાની તાતી ભાષા +- - - - . JH C For Private And Personal Use Only Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५० सूत्रकृताङ्गसूत्रे स्केचन कवन विशिष्टवाचो भूत्वा म्रियन्ते । तथा-'परे णरा' परे नराः 'पंचसिहा कुमारा' पंचशिखाः कुमाराः । केचनाऽकृतशिखाकर्माण एवं म्रियन्ते, केचन पुनः कौमारमासाद्य म्रियन्ते 'जुवाणगा' युवान एव केचन म्रियन्ते । मज्झिम' मध्यमाः - अवयस्का एवं मृत्युशरणमाविशन्ति । 'थेरगा य' स्थविराव केचन माय वृद्धावस्थां विविधरोगेण मरणमुपयान्ति । तस्मादेवं सर्वास्त्रप्यवस्थासु पड़fatafat विराधकाः 'आउक्खए ' आयुषः क्षये 'पलीणा' प्रलीनाः - विविधव्याधिमस्ताः 'चयंति' त्यजन्ति देहं त्यजन्ति म्रियन्ते विविधदुःख ज्वालाज्वलिताः भवन्ति । अथवा - मलीनाः व्याविग्रस्ताः सन्तः आयुस्त्यजन्ति । एवमेव परेपि षड्जीवनिकायविराधका विविधदुःखदावाग्निदग्धा अनियतायुर्भाजो मवन्तीति ॥१०॥ मूलम् संबुज्झहा जंत वो माणुस त्तं दैटुं भयं बालिसेणं अलंभो । एतदुक्खे जरिए व लोए संकम्मुणा विप्परिया सुवे ॥ १२१ ॥ - करना प्रारंभ करते ही मर जाते हैं कोई पंचशिखा कुमार अवस्था में अर्थात् चुड़ाकर्म संस्कार होने से पहिले मर जाते हैं कोई युवावस्था में मरते हैं, कोई प्रौढ होकर मरते हैं कोई वृद्धावस्था में विविध व्याधियों के शिकार होकर मरते हैं । इस प्रकार वनस्पतिकाय के जीवों की हिंसा करने वाले सभी अवस्थाओं में मरते हैं। वे विविध प्रकार के दुःखों की ज्वालाओं में जलते हैं । इसी प्रकार छहों जीवनिकायों के विराधकों के विषय में जानना चाहिए अर्थात् वे भी अल्पायु एवं अनियतायु होकर मृत्यु को प्राप्त होते हैं ॥ १० ॥ ખેલવાની) અવસ્થામાં જ મરણ પામે છે અથવા સ્પષ્ટ ખોલવાની અવસ્થાના પ્રાર’ભ થતાં જ મરણ પામે છે. કાઈ પ`ચશીખા કુમારાવસ્થામાં જ એટલે કે બાળ મેવાળા લેવરાવ્યા પહેલાં જ મરણ પામે છે. કાઇ યુવાવસ્થામાં જ મરણુ પામે છે, કાઈ પ્રૌઢ અવસ્થામાં મરે છે અને કાઈ વિવિધ વ્યાધિઓના શિકાર અનીને વૃદ્ધાવસ્થામાં મરણ પામે છે. આ પ્રકારે વનસ્પતિકાયના જીવાની હિંસા કરનાર સઘળી અવસ્થાએમાં મરે છે. તેએ વિવિધ પ્રકારનાં દુઃખાની જ્વાળામાં મળ્યા કરે છે. આ પ્રકારનું કથન છએ જીવનિકાયના વિરાધકોના વિષે પણ સમજવુ' જોઇએ. એટલે કે તે જીવાની હિંસા કરનારા લેક પણ અપાયુ ઢાય છે અને અનિયત ઉમરે કે અકાળે મૃત્યુને ભેટનારા હોય છે. ૫ ૧૦૫ For Private And Personal Use Only Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ७ उ. १ कुशीलवतां दोष निरूपणम् ५८१ छाया-संबुध्यध्वं जंतवो मनुष्यत्वं दृष्ट्वा भयं बालिशेनालभ्यः। एकान्तदुःखो चरित इव लोकः स्वकर्मणा विपर्यासमुपैति ॥११॥ अन्वयार्थ:- (जंतवो) हे जन्तवः हे पाणिनः (माणुसत्तं) मनुष्यत्व-मनुजभवं दुर्लभ (संबुज्झहा) संबुध्यध्वं-जानीत (भयं दटुं) भयं तिर्यगादिभक्संबंधि दुःखं दृष्ट्वा (बालिसेणं अलंभो) बालिशेन विवेकरहितपुरुषेण अलभ्या उत्तमविवेको न लभ्यते इत्यति जानीत (लोए) अयं लोकः (जरिए व) ज्वरित इव (एगंतदुक्खे) 'संधुज्झहा जंतवो' इत्यादि। शब्दार्थ-'जंतयो-जंतक' हे जीवों 'माणुसत्तं-मनुष्यत्वं' मनुष्य भव की दुर्लभताको 'संबुझहा-संधुध्यध्वं' समझलो 'भयं दद्दु-भयं दृष्ट्वा भय को अर्थात् नरक तथा तिर्यंच आदि योनि के भय को देखकर 'चालिसेणं अलंभो-धालिशेनालभ्यः' विवेकहीन पुरुष को उत्तम विवे. कका अलाभ जानकर थोध प्राप्त करो 'लोए-लोकः' यह लोक 'जरिए वज्वरित इव' घर से पीडित के जैसा 'एगंतदुक्खे -एकान्तदुःखी' सब प्रकार से दुःखी है 'सकम्मुगा विपरियासुवेइ-स्वकर्मणा विपर्यासमुपैती' यह अपने कर्मसे सुख को चाहता हुआ दुःख को ही प्राप्त करता है॥११॥ ___अन्वयार्थ-हे जीवो ! मनुष्यभव दुर्लभ है, इस तथ्य को समझो। यह भी समझलो कि अज्ञानी जनों को विवेक की प्राप्ति नहीं होती। तिथंच आदि भवों संबंधी भय दुःख को देख कर यह समझो कि यह लोक ज्वरग्रस्त की भाँति एकान्त रूप से दुःखी हो रहा है। वह अपने 'मबुझहा जंतवो' त्याह शा- 'जंतवो-जंतवः' ३ को 'मणुस्सत्तं-मनुष्यत्वं' मनुष्यसनी samana 'संबुज्ज्ञहा-संबुध्यध्वम्' सम । 'भयं दद्रु-भय दृष्ट्वा' मरने अर्थात् न२४ तथा तिय" विगेरे योनीना मयने न४२ 'बालिसेणं अलंभोबालिशेनालभ्यः' विवे बिनाना ५३१ने उत्तम विना ARM सभने माघ पनि 'लोए-लोकः' भी 'जरिएव-ज्वरित इव' ताथी पी। पाभेanीम ‘एगंतदुक्खे-एकान्तदुःखी' मधी शतमी छे. 'सकम्मुणा विपरियासवेइ-स्वकर्मणा विपर्यास मुपैति' मा पोताना भथा सुमन २छता ! દુઃખને જ પ્રાપ્ત કરે છે. ૧૧ છે સૂત્રાર્થ–હે જી ! મનુષ્યભવ દુર્લભ છે, આ તથ્યને સમજે. વળી એ વાત પણ સમજી લે કે અજ્ઞાની જનોને વિવેકની પ્રાપ્તિ થતી નથી. તિર્યંચ આદિ ભોના ભય તથા દુખેને જોઈને એટલું તે સમજી લે કે આ લોક જવરમાં જકડાયેલાની જેમ એકાત રૂપે દુઃખને અનુભવ કરી રહ્યો For Private And Personal Use Only Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५८२ सूत्रकृतासूत्रे एकान्तदुःखी विद्यते (सकम्मुणा धिपरियासुवेइ) स्वकर्मणा-वसुखमिच्छमपि विपर्यासं दुःखमुपैति प्राप्नोनीति ॥११॥ .. टीका--प्राण्युपमई का मनियताऽऽयुष्मत्वं संपधार्य सुधर्मस्वामी जीवानुविश्य कथयति । हे जन्तोः जीवा भिव्यपाणिनः 'संवुशहा' संबुध्यध्वं घोध प्राश्नुत यूयम् , नहि कुशीलपाषण्डिनो लोका: स्वपरषाणाय · भवन्ति लोकाना। 'माणुस्स खेत नाई कुलाखबारोग्गमाउयं बुद्धी। सवणोबगह सद्धा संजमो य लोगंमि दुल्लहाई ।। -- छाया--मानुष्यं क्षेत्रं जातिः कुलं रूपमारोग्यमायुः बुदिः। अत्रणावग्रहः श्रद्धा संयमश्र, लो के दुलमानि ॥१॥ ही कर्मों से विपर्यास को प्राप्त हो रहा है अर्थात् सुख की इच्छा करता हुआ भी दुःख को प्राप्त हो रहा है ॥११॥ टीकार्थ-जीवों का उपमर्दन करने वालों की आयु की अनियतता का विचार करके स्तुधर्मा स्वामी संसारी जीवों को उद्देश्यकरके कहते हैं-हे भव्य जीवो! समझो, बूझो, बोध प्राप्त करो । कुशल एवं पाखण्ड में प्रवृत्त लोग स्व-पर का त्राण (रक्षा) करने में समर्थ नहीं है, अतएव समीचीन (सत्य) धर्म के स्वरूप को समझों। कहा है-'माणुस्स खेत्तजाई' इत्यादि। मनुष्यत्व आर्यक्षेत्र, उत्तम जाति, उत्तम कुल, रूप, आरोग्य, दीर्घ आयु, बुद्धि, धर्म का अमण, धर्मग्रहण, श्रद्धा और संयम की प्राप्ति होना इस लोक में अति दुर्लभ है ॥१॥ છે. તે પિતાનાં જ કર્મોનાં ફળ રૂપે વિપરીત દશાને અનુભવ કરી રહ્યો છે એટલે કે સુખની ઈરછા કરવા છતાં પણ દુઃખનો જ અનુભવ કરી રહ્યો છે. ૧-૧ -वानु ७५म (At) ४२ना२ना मायुनी अनियमितતાને વિચાર કરીને, સુધર્મા સ્વામી સંસારી અને ઉદ્દેશીને આ પ્રમાણે -३ सय ! समन, मूडी, मोघ मास ४३१. शास मन પાખંડી લેકે પિતાનું કે પરનું ત્રાણ (રક્ષણ) કરી શકતાં નથી, તેથી ધર્મના साय॥ २१३५ने समन. ४ ५ छे 3-'माणुस्सखेत्त जाई' या 'मनुष्यत्व, माय क्षेत्र, उत्तमति, उत्तम, ३५, माय, ही भायु, બુદ્ધિ, ધર્મ શ્રવણ, ધર્મગ્રહણ, શ્રદ્ધા અને સંયમની પ્રાપ્તિ થવી તે આ alvi Mति म छ.' ॥१॥ For Private And Personal Use Only Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir “समयार्थबोधिनी टीका प्र. शु. अ. ७ उ. १ कुशीलवतां दोषनिरूपणम् ५८३ तदेवं यो धर्म नाचरति तस्य मानुष्यमतिदुर्लभम् । अतो- 'माणुसतं मनुष्यखम् दुर्लभं जानीहि । तथा जन्मजरामरणरोगशोकादि नारकादिषु चाऽतितीत्रम् | 'भयं दट्ठु' भयं दृष्ट्वा 'वालिसे अलंभो' बालिशेन सदसद्विवेकहीनेन पुरुषेण अलभ्यः लघुयोग्य धर्म इत्येदपि दृष्ट्रा विच । तथा निश्चितमग 'एकांत एक दुःखः , : मेर लोकानाम् ' जरिए व' ज्वरित इव यथा ज्वराक्रान्तः एकान्तं दुःखमेाऽनुभवेत्, तथा 'लोए' अयमपि लोको दुःखभाजनम् इत्यवगम्य । 'संबुज्झहा ' संबुध्यध्वम् सम्यग् बोधं प्राप्नुत, सर्वथा दुःखसंकुलोऽयं संसारिनिवहः । क्षुधितो अन्नाभावे यथा पांडय ने, विपासिनो जलमन्तरा, वृश्चिकदष्टः प्रतिक्षणं पीडयते तथैवायं लोको ज्वराकान्त इव सर्वया दुःखितो भवतीति । एवं दुख 24 इस प्रकार जो धर्म का आचरण नहीं करता उसे मनुष्य भव की प्राप्ति होना अत्यन्त दुर्लभ है। इस कारण मनुष्यत्व को दुर्लभ समझो। तथा नारक आदि भव में जन्मजरामरण रोग शोक आदि के दुःख को देखकर तथा अविवेकी जन धर्म को प्राप्त नहीं कर पाते, इस बात का विचार करो । तथा यह भी विचार करो कि यह लोक उसी प्रकार दुखी और संतप्त हो रहा है जैसे ज्वरग्रस्त प्राणी । यह सब विचार -करके सम्प्रकं बोध को प्राप्त करो। जैसे भूखा मनुष्य अन्नके अभाव में पीड़ा का अनुभव करता है 'पिपासा से हमाकुल पुरुष जल के बिना छटपटाता है, बिच्छू का मा प्रतीक्षण तड़कता रहता है, उसी प्रकार यह लोक ज्वराकान्त की भाँति सर्वथा दुःखों से पीड़ित रहता है, इस प्रकार दुःखों से आकुल इस लोक આ પ્રકારની સઘળી અનુકૂળતા મળત્રા છતાં જે માણસ ધર્મનુ માચરણ કરતા નથી, તેને ફરી મનુષ્ય ભવની પ્રાપ્તિ થવી અત્યન્ત દુર્લભ कारणे मनुष्यत्वने हुईल समन्ने, तथा नार, तिर्यय हि लवोमां જન્મ, જરા, મરણ, રેગ, શેક આદિના દુઃખને દેખીને પણ અવિવેકી માણુસા ધર્મને પ્રાપ્ત કરી શકતા નથી, આ વાતના વિચાર કર. તથા એવા વિચાર પણ કરવા જોઈએ કે આ લેાક જવરગ્રસ્ત જીવનાં જેવા જ દુ:ખી અને સતત છે. આ બધી બાબતોના વિચાર કરીને સમ્યક, બોધને 1 र 24 C 5 प्राप्ति ४. * જેવી રીતે,ભૂખ્યા માણસ અન્નના અભાવને લીધે પીડાના અનુભવ કરે छे, भेभ तृषार्थीी व्यथये पुरुष पाणीने माटे तरमूड़ियां भरे है, प्रेम वाछीओ उण माय हाय सेवा पुरुष उनी पीडाथी प्रतिक्षण तर હતા રડે છે, એજ પ્રમાણે આ લેાક (આ લેાકના જીવા) વરગ્રસ્ત વ્યક્તિની જેમ નિરન્તર દુઃખાથી પીડાતા જ રહે છે. આ પ્રકારે દુઃખોથી 2 For Private And Personal Use Only Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ५८४ सूत्रकृताङ्ग सूत्रे संकुले लोके क्रूरकर्मकारी 'सरुम्गुणा' स्वकृतपाणातिपातादिकूरकर्मणा । विपरियासवे' विपर्यासमुपैति सुखमिच्छता प्राणातिपातादिकमाचरता दुःखमापद्यते - चातुर्गतिकः संसारः परिभ्रम्यते ॥ ११॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मूलम् - ईहेग मूढा पवियंति मोक्खं आहारसंपजणवजणेणं । एंगे ये सीओद सेवणेणं हुएण एंगे पंवयंति मोक्खं ॥ १२ ॥ छाया - इहैके मूढा प्रवेदयन्ति मोक्ष पाहारसम्पज्जननवर्जनेन । एके च शीतोदकसेवनेन हुतेन एके प्रवदन्ति मोक्षम् ॥१२॥ में क्रूर कर्म करनेवाला जीव अपने ही किये पाप कर्मों के द्वारा विपर्यास को प्राप्त होता है अर्थात् सुख पाने की अभिलाषा से हिंसा आदि पापों का आचरण करता है, किन्तु उन पापों के परिणामस्वरूप उलटा दुःखों का ही भागी होता है - संसार में परिभ्रमण करता है || ११|| 'हा' इत्यादि । शब्दार्थ - 'इह - इह' इस जगत् में अथवा इस मोक्ष के संबंध में 'एगे - एके' कोई 'मूढा - मूढाः' मूर्ख जन ' आहार संपज्जणवज्जणेणंआहारसं वज्जननवर्जनेन' नमक खाना छोड देने से 'मोक्खं पवयंति - मोक्षं प्रवदन्ति' मोक्ष प्राप्ति होना कहते हैं 'एगे य एके च' और कोई 'सी भोग से बणे - शीतोदक सेवनेन' शीतल जल का सेवन करनेसे मोक्ष होना कहते हैं 'एगे - एके' कोई 'हुएण हुतेन' होम करने से 'मोक्खं पश्यंति' मोक्षं प्रवदन्ति' मोक्ष होना कहते हैं ॥ १२ ॥ - પીડાતા આ લેકમાં ક્રૂર કર્યાં કરનારા જીવે પાતે કરેલાં પાપકમેનેિ કારણેજ વિપરીત દશાને અનુભવ કરે છે. આ કથનના ભાવાથ એ છે કે સુખ પ્રાપ્ત કરવાથી અભિલાષાથી હિ'સા આદિ પાપાનુ આચરણુ કરે છે, પરંતુ તે પાપાના પરિણામ સ્વરૂપે સુખને બદલે દુઃખાના જ ઉપલેગ કરે છે. એટલે કે સ'સારમાં પરિભ્રમણ કર્યાં કરે છે અને જન્મ, જરા, મરણ આદિ દુઃખાના અનુભવ કર્યા કરે છે. ૫૧૧૫ C इहे शब्दार्थ मूढा' 'त्याहि | 'इइ - इह' मा भगत्मा अथवा આમાક્ષના સબધમાં 'पगे - एके' 'मूढा - मूढाः ' भू' बेडी 'आहार संपज्ञ्जण त्रज्ञणेणं- आहार संपजनन वर्जनेन' भी भावानुं छोड़ी हेवाथी 'मोक्ख' पवयं'ति - मोक्ष' प्रवदन्ति' भोक्षनी आप्ति थवानु' डे छे, 'एगे य- एके च' भने । 'सीओदगसेवणेणशीतोदकसेवनेन' 'डा पाखीनु सेवन उरवाथी भोक्ष थवानु' ४डे हे 'एगे-एके' | 'हुएण- हुतेन' डोभ ४२वाथी 'मोक्ख' पवयंति - मोक्ष' प्रवदन्ति' भोक्ष થવાનું કહે છે. ૫ ૧૨૫ For Private And Personal Use Only Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir HT समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ७ उ.१ कुशीलवतां दोषनिरूपणम्-५८५. अन्वयार्थ:-(इह) इहास्मिन् लोके (एगे) एके केचन (महा) मूढाः-विवेक विकलाः (आहारसंपज्जणवज्जणेणे) आहारसंपज्जननवर्जनेन-लवणत्यागेन (मोका पवयंति) भोक्षं प्रदन्ति कथयन्ति (एगे य) एके च केवन मूः सदसद्विवेकविकलाः (सीओदमलेरणेण) शीतोदकसेवनेन मोक्षं प्रदनि तदा (एगे) एके केचन (हुरण) हुतेन-होमकरणेन (मोक्ख पवयंति) मोक्षं प्रवदन्ति इति ॥१२॥ टीका--'इह' मनुष्यलोके मोक्षगमनाधिकारे 'एगे' एके. केचन अज्ञातशास्त्रतत्त्वज्ञाः 'मूढा' मू:-सदसद्विवेकविकला: 'आहारसंपज्जणवजणेणं' आइरसंपज्जननवर्जनेन, आहिगते तृप्त्य इति आहारः ओइनादिः अभ्यवहरणीयं वस्तुजातम् तस्याऽऽहा स्व संपत् रस पुष्टिः, तादी पुष्टि जनयति हति.. आझर___ अन्वयार्थ-इस लोक में कोई कोई मूह जन नमक खाना त्यांगदेने से मोक्ष की प्राप्ति होना.कहते हैं । कोई अज्ञानी शीत सचित्त जल के सेवन से मोक्ष कहते हैं और कोई अविवेकी होम करने से मोक्ष की प्राप्ति होना कहते हैं ॥१२॥ टीकार्थ-मोक्षगमन के अधिकारी इस मनुष्यलोक में शास्त्र के तत्व से अनभिज्ञ एवं सत्-असत् के विवेक से हीन कोई कोई लोग नमक का त्याग कर देने से मोक्ष प्राप्ति होना कहते हैं। मूल गाथा में लवण के लिए 'आहारसंपन्जणण' शब्द का प्रयोग किया है। उसका अर्थ यों है-तृप्ति के लिए जो ओदन आदि का आहरण ग्रहण किया जाना हैं, वह आहार कहलाता है। उस आहार की संपत् अर्थात रस: मुष्टि को जनन-उत्पन्न करनेवाला 'आहारसंपज्जनन' कहलाता है। नमक .. सूत्रा-माम 15 मे ४ भीमान : કરવાથી મોક્ષ મળે છે, તે કઈ અજ્ઞાની જીવ એવું કહે છે કે સચિત્ત શીતળ જળના સેવનથી મોક્ષ મળે છે, તે કઈ અવિવેકી લેકે એવું કહે છે કે હોમ કરવાથી મેક્ષ પ્રાપ્ત થાય છે. ૧૨ ટીકાઈ–મોક્ષગમનના અધિકારી એવા આ મનુષ્યમાં શાસ્ત્રના તત્વથી અનભિજ્ઞ અને સત્ અસના વિવેકથી વિહીન કઈ કઈ પુરું એવું કહે છે કે મીઠાને ત્યાગ કરવાથી મેક્ષ પ્રાપ્ત થાય છે. મૂળ ગાથામાં aq' ने माटे, 'आहारसंपज्जणण' पहनी प्रयोग ४२वामा भन्या छ । અર્થ આ પ્રમાણે થાય છે-તૃપ્તિને માટે જે ભાત આદિ ખાધ પણ લેવામાં આવે છે, તેમને આહાર કહે છે. તે આહારની સંપત એટલે કે તે સહાય वाह (२स)नी पुष्टि ४२ना। ५४ान 'आहार-सम्पज्जनन' माहा२ सम्पत सू०७४ For Private And Personal Use Only Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ५८६ सूत्रकृताङ्गसूत्रे संपज्ञ्जनमं लवर्ण, लक्षणेन हि भोजनस्य रसपुष्टि, संपाद्यते । तस्य लवणस्य वर्जनं स्थानः तेन - आहार संपज्जन वर्जनेन केवलळवण परित्यागेनैव मोक्खं' मोक्षम् 'पति' मवदन्ति, मोक्षप्राहिले रणवर्जनेन हि भवति । तदुक्तं A Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 'लवणविहूणा य रसा, चवखूविहीणा य इंदियग्गामा । धम्मो दाइ रहिओ सोक्खं संतोसरहियं नो ॥ S छाया - लवणविहीनाश्च रसाः चक्षुर्विहीनाश्चेन्द्रियग्रामाः । धर्मो दया रहितः सौख्यं संतोष रहितं नो ॥ तथा 'एगे य' एके च 'सीओदगसेवणे गं' शीतोदकसेवनेन मोक्षं प्रवदन्ति, शीतजलसेवनेन सचित्ताका पपरिभोगेन । तत्र एवं वदन्ति यथा जलं बाह्यमलं शरीरादपनयति, तथा - आन्तरमल अध्यपनयति । दृश्यते हि भूरजसाऽऽच्छन्नवस्त्रस्य मलापनयनं जळेन भवति । तथाऽन्तराशुद्धिरप्युदका देव सम्पाद्यते इति । तथाआहार की रसपुष्टि करता है, उसके विना बहुमूल्य आहार भी नीरस रहता है। कहा है- लवणविणा य रसा इत्यादि । 'लवण रहित रस, नेत्र रहित इन्द्रियां, दया से रहित धर्म और सन्तोष रहित सुख तुच्छ हैं' | तथा कोई कोई शील (सचित) जल के सेवन से मोक्ष कहते हैं। उनका कथन है-जैसे जल शरीर के बाहय मल को दूर करता हैं, उसी प्रकार आन्तरिक मल को भी निवारण करता है। रेत या धूल मे गेंदले पत्र का मैल जल से घुलजाना है, यह प्रत्यक्ष देखा जाता है, उसी प्रकार आन्तरिक शुद्धि भी जल से ही होती है। જનન' અથવા 'માહાર સ'પત્' કહે છે. મીઠું' આહારમાં રસપુષ્ટિ કરે છે. શ્રીઢા વિના બહુમૂલ્ય આડ્ડાર પણ નીરસ (સ્વાદ વિનાના-ફીક) લાગે છે. ag ng 'aanfagui a zar' Feuils વણુ રહિત રસ, નેત્ર રહિત ઇન્દ્રિયા, દયારહિત ધર્મ અને સત્તાષ રહિત સુખ તુચ્છ છે.' તથા કોઇ કાઇ માણસા એવુ' કહે છે કે શીત (સચિત) જળના સેવનથી મેાક્ષ મળે છે. તે એવી દલીલ કરે છે કે-જેમ જળ શરીરના બાહ્ય મળનું નિવારણ કરે છે, એજ પ્રમાણે આન્તરિક મળતું પણ નિવારણ કરે છે, જ, ધૂળ આદિ વડે ગંદાં થયેલાં કપડાંના મેલ જેમ પાણી વડે ધાવાઈ જાય છે, એ વાત તેા પ્રત્યક્ષ દેખી શકાય છે, એજ પ્રમાણે પાણી વડે ગાન્તકિ શુદ્ધિ પણ થઈ શકે છે. For Private And Personal Use Only Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समायोधिना टीका प्र. दु. अ. ७ उ.१ कुशीलवतां दोषनिरपणम् 'एगे' एके तापसाः 'हुएण' हुतेन-हवनेन 'मोक्खं' मोक्षम् ‘पवयंति' प्रदन्ति । यथा हि वह्निः स्वर्णादीनां मलमपनयति, तथा-अग्निहोत्रं जुहुयादित्यग्निहोत्रा ऽग्निरपि आत्मनो मलमपनीय गमयति मोक्षमिति ॥१२॥ लवणाहारादिपरिवर्जनान्मोक्षो भवतीत्यसंबद्धमलापिनां म्तमपनेतुं सूत्रकार आह-'पाश्रो सिणाणादिसु' इत्यादि। मूलम्-पाओ सिणाणाइसु नत्थि मोक्खो खारस्स लोणस्स अणासणेणं। ते मज्जमंसं लसुणं च भोञ्चा अनत्थ वासं परिकप्पयंति ॥१३॥ छाया-प्रातः स्नानादिषु नास्ति मोक्षः क्षारस्य लक्षणस्याऽनशनेन । ते मद्यं मांसं लशुनं च भुक्त्वा अन्यत्र वास परिकल्पयन्ति ॥१३॥ और कोई कोई तापस हवन से मोक्ष प्राप्ति मानते हैं। उनका कहना है कि अग्नि स्वर्ण आदि के मल को हटा देती है, उसी प्रकार अग्निहोत्र की अग्नि भी आत्मा के मैल को दूर करके मोक्ष में पहुंचा देती है ॥१२॥ __ लवण का त्याग करने से मोक्ष होता है, इत्यादि असम्बद्ध प्रलाप करने वालों के मत का निराकरण करने के लिए सूत्रकार कहते है-- ____ 'पाओ सिणाणादिसु' इत्यादि। शब्दार्थ--'पाओ सिणाणादिसु-प्रातः स्नानादिषु' प्रातः काल के स्नान आदिसे 'मोक्खो नस्थि-मोक्षो नास्ति' मोक्षमाप्ति नहीं होती है કોઈ કઈ તાપસ એવું માને છે કે હવન કરવાથી મોક્ષ મળે છે તેઓ એવું પ્રતિપાદન કરે છે કે જેમ અગ્નિ સુવર્ણ આદિને મેલ દૂર કરીને તેની શુદ્ધિ કરે છે, એ જ પ્રમાણે અગ્નિહોત્રની અગ્નિ પણ આત્મા પરના મેલને દુર કરીને મેક્ષપ્રાપ્તિ કરાવે છે. ગાથા ૧૨ મીઠાને ત્યાગ કરવાથી, સચિત્ત જળનું સેવન કરવાથી અને હેમહવન કરવાથી મોક્ષ પ્રાપ્ત થાય છે, ” આ પ્રકારની પૂર્વોક્ત માન્યતાઓનું नि२४२९५ (मन) ४२वा माटे सूत्र४२ ४ 0 3-'पाओ मिणाणादिस' इत्याहि Avan-'पाओ सिणाणादिसु-प्रातः स्नानादिषु' प्रातान विगरेचा 'मोक्खो नत्थि-मोक्षो नास्ति' भाक्षनी प्रति यती नथी तथा "बाप For Private And Personal Use Only Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir . .१८८ सूत्रकृताङ्गसूत्रे वयार्थः - (पाओ सिणाणादिम) मातः स्नानादिषु प्रभातस्नानेन (मोक्खो मरिय) मोक्षो नास्ति (खारस्स लोणस्स अणासणेणं) क्षारस्य लवणस्यानशनेन वर्जने नापि मोक्षी न भवति, (ते) ते अन्यतीथिकाः (मज्जमंस लसुण च भोचा) मद्य मांस लशुनं च भुक्त्वा (अन्नत्थ) अन्यत्र मोक्षात् भिन्नस्थाने संसारे (वासं परिकपेयात) वास स्वकीय निवासं परिकल्पयन्ति चातुर्गतिके संसारे परिभ्रमंति ।१३। टीका-'पाओ सिणाणादिसु' पातः स्नानादिषु 'मोक्खो' मोक्ष:-अशेषकर्मक्षयरूपः, 'गत्यि' नास्ति-न भवति, प्रभातकालिकसलिलाऽवंगाहेन तेषां निशील/कथमपि मोक्षो न संभवति । प्रत्युत शीतोदकपरिभोगेनाऽपां कायानां तथा 'खारस्स लोणस्त अणासणेणं-क्षारस्य लवणस्यानशनेन' माकन खाने से भी मोक्ष नहीं होता 'ते-ते' वे अन्यतीर्थी 'मजमसंवतुणं च भोच्चा-मद्यं मांसं लशुनं च भुक्त्वा' मद्य, मांस, और लशुन वाकर 'अन्नस्थ-अन्यत्र' मोक्षसे अन्यस्थान अर्थात् संसार में 'वासं.परिकप्पयंति-वासं परिकल्पयन्ति' चतुर्गतिवाले इस संसार में भ्रमण करते रहते हैं ॥१३ - अन्वयार्थ-प्रभातकालीन स्नान करने से मोक्ष नहीं मिलता, क्षार लवणं न खाने से भी मोक्ष नहीं मिलता। अन्यतीर्थिक मद्य, मांस और लहसुन का उपभोग करके अन्यत्र अर्थात् मोक्ष से भिन्न संसार में परिभ्रमण करते हैं ॥१३॥ टीकार्थ--प्रभातकाल में स्नान करने से किसी भी प्रकार अशेष कों का क्षय अर्थात् मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता । प्रत्युत सचित्त जल लोणस्न अणासणेणं-क्षारस्य लवणस्यानशनेन' भी नापाथी मोक्ष यता नयी. ते-३' में मन्यताथ 'मज्जमंसं लसुणं च भोच्चा-मद्यं मांस लशुनं च भुक्त्वा' भध, मांस, मने सामने 'अन्नत्य-अन्यत्र' मोक्षथी अन्य स्थान अर्थात् સંસારમાં જ ભ્રમણ કરતા રહે છે. ૧૩ સૂત્રાર્થ–પ્રાતઃકાળે સ્નાન કરવાથી મોક્ષ મળતો નથી, તથા લવણયુક્ત મર્જનનો ત્યાગ કરવાથી પણ મોક્ષ મળ નથી, અન્ય તીર્થિક મદ્ય, માંસ, અને લસણને ઉપયોગ કરીને અન્યત્ર જ (મેક્ષથી ભિન્ન એવા સંસારમાં) પરિભ્રમણ કર્યા કરે છે. ૧૩ ટીકાઈ-પ્રભાત કાળે સ્નાન કરવાથી કઈ પણ પ્રકારે કર્મોને ક્ષય ' થતું નથી એટલે કે તેના દ્વારા મોક્ષપ્રાપ્તિ થતી નથી. ઊલટાં તેમ કરનાર For Private And Personal Use Only Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Sarafaat टीका प्र. श्रु. अ. ७ उं. १ कुशोलवतां दोषनिरूपणम् ५८९ जलाश्रितजीवानां चोपमर्दो जायते, न च जीवानां विनाशात् कदाचिदपि मोक्षावाः संभवति 1 न वा जलं मलमपनेतुं सामथ्र्य धारयति । अथ कथंचिद्वामलं निराकुर्यादपि किन्तु आन्तरकर्मममपनेतुं न कुतोऽपि सामर्थ्यम् । यतो हिम विनाशः संभवति । भावशुद्धिरहितस्यापि ययन्तर्मलापनयन भवेत्तदाऽनायासेन जलेन मत्स्यादीनां सिद्ध पुत्र मोक्षः स्यात् । तथा'खारस्स कोणस्स अणासणेणं' क्षारलवणस्याऽनशनेन लवणपरित्यागमात्रेणाऽपि मोक्षो नैव । लवणोप मोगरहितानां मोक्षो भवतीत्ययुक्तमेव । न चाऽयं नियमों लवण के परिभोग से अपकायिक जीवों का तथा जल के आश्रित रहे हुए अन्य जीवों का उपमर्दन होता है। जीवों की हिंसा करने से कदापि मोक्ष की प्राप्ति का संभव नहीं है। जल में मल को दूर करने का सामर्थ्य भी नहीं है। कदाचित् वह बाह्य मल को किसी प्रकार दूर भी करता हो, तथापि आन्तरिक मल को दूर करने की शक्ति तो उसमें हो ही कैसे सकती है ! आन्तरिक मल का विनाश तो भावों की शुद्धि से ही हो सकता है । जो भावों की शुद्धि से रहित है, उसका आन्त रिक मेल भी यदि जल से दूर हो जाय तो सदैव जल में रहने वाले मत्स्य आदि को अनायास ही मोक्ष की प्राप्ति हो जाय ! इसी प्रकार खारे लवण को न खाने से अर्थात् लवण का त्याग कर देने मात्र से ही मोक्ष प्राप्ति की आशा नहीं की जा सकती । अतएव लवण न खाने वालों को मोक्ष प्राप्त हो जाता है, यह कथन अयुक्त માણસેા કર્મોનું ઉપાર્જન કરે છે, કારણ કે સચિત્ત જળના ઉપયાગ કરવાથી માયિક જીવેાનું તથા જળના આશ્રયે રહેલાં અન્ય જીવોનું ઉપમદન થાય છે. જીવોની હિઁસા કરવાથી કદી પશુ મેાક્ષની પ્રાપ્તિ સ`ભવી શકતી નથી. વળી જળમાં મળને દૂર કરવાનું સામર્થ્ય પણ નથી. કદાચ તે બાહ્ય મને કોઈ પણ પ્રકારે દૂર કરી શકતું હાય, પરન્તુ અન્તકિ મળને દૂર કરવાની શક્તિ તેમાં કેવી રીતે ડાઇ શકે ? આન્તરિક મેલના નિકાલ તા ભાવાની શુદ્ધિ દ્વારા જ થઈ શકે છે. જે વ્યક્તિ ભાવોની શુદ્ધિથી રહિત હાય, તેના આન્તરિક મે પણ જો પાણીથી દૂર થઇ જતા હાય, તા સદૈવ પાણીમાં જ નિવાસ કરનારાં માછલાં, મગર, કાચબા આદિને તે અનાય.સે જ મેાક્ષ મળી જાત ! એજ પ્રમાણે મીઠાના અથવા તવયુક્ત ભાજનને ત્યાગ કરવા માત્રથી જ મેાક્ષ પ્રાપ્તિની આશા રાખી શકાય નહી. તેથી લવણુ ન ખાનાંરને મેાક્ષની પ્રાપ્તિ થાય છે, એવું કથન પણુ ખરાબર નથી. વળી એવા પણ For Private And Personal Use Only Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५६० सूत्रकृतात्सूर्य एव रसजनक इति सितशर्करा घृतादिपदार्थेषु रसजनकत्वात् । किंच द्रश्यतो लवणवर्जनेन भावतो वा तद्वनैनेन मोक्षोपलब्धिः शंक्या । तत्र नाद्यः, यद्येवं तदाSeaणके देशे सर्वेषामेव मोक्षोऽयत्नसिद्धः स्यात् । न च - ३ष्टापतिः। दृष्टेष्टाभ्यां विरोधात् । द्वितीये तु भावादेव ततो भाव एव प्रधानं किं लवणवर्जनेन मोक्षः । तथा - ते मूर्खा :- सदसद्विवेक विकला : 'मज्जमंसं' मयं मांसं 'लसुणं च ' कशुनं च है । इसके अतिरिक्त यह भी नियम नहीं कि लवण ही रसजनक है। मिश्री, शर्करा घृत आदि पदार्थ भी रसोत्पादक होते हैं। इसके अतिरिक्त यहाँ यह शंका उत्पन्न होती है कि द्रव्य से गण का त्याग मोक्ष का कारण है या भाव से ? प्रथम पक्ष तो समी. चीन नहीं है, क्यों कि जिस देश में लवण नहीं पाया जाता वहाँ के सभी निवासी द्रव्यतः लवणत्यागी होते हैं, अतएव उन सभी को मोक्ष प्राप्त हो जाना चाहिए। यदि कहो कि यह आपत्ति हमें इष्ट है, सो ठीक नहीं, क्यों कि यह मानना प्रत्यक्ष और अनुमान से विरुद्ध है । अगर कहो कि भाव से लवणत्याग करना मोक्ष का कारण है तो फिर भाव ही मोक्ष का कारण ठहरा। ऐसी स्थिति में लवणत्याग का क्या महत्व रहा ? कई अज्ञानी मद्य, मांस और लहसुन खाकर संसारवास ही बढाते हैं। નિયમ નથી કે લવણુ જ રસજતક છે. સાકર, ખાંડ, ઘી આદિ પદાર્થો પશુ रसात् डेय छे. વળી અહી એવી પણ શંકા ઉદ્ભવી શકે છે કે ‘દ્રવ્યની અપેક્ષાએ લવના ત્યાગ કરવાથી મેાક્ષ મળે છે, કે ભાવની અપેક્ષાએ તેના ત્યાગ કરવાથી મેક્ષ મળે છે ? પ્રથમ પક્ષ (દ્રવ્યની અપેક્ષાએ લત્રણના ત્યાગ કરવાથી માક્ષ મળે છે, એવી માન્યતા) ખરાખર નથી, કારણુ કે જે દેશમાં લવશુ જ મળતું નથી, તે દેશમાં નિવાસ કરનારા સઘળા લેડી દ્રવ્યની પેક્ષાએ લત્રણ ત્યાગી જ હોય છે, તે તે સઘળા લેાકેાને મેક્ષપ્રાપ્તિ થતી હશે, એવું માનવાના પ્રસ`ગ ઉપસ્થિત થશે ! ને આપ એવી દલીલ કરતા હા કે એ તા ઇષ્ટાપત્તિ છે,’ તેા એ વાત પણ ઉચિત નથી, કારણ કે એવું માનવુ' તે પ્રત્યક્ષ અને અનુમાનથી વિરૂદ્ધ છે, જો તમે એવુ માનતા હૈ કે ભાવતઃ લવણત્યાગ કરવાથી મેક્ષ મળે છે, તા ભાવ જ મેાક્ષનુ' કારણુ સિદ્ધ થશે ! એવી સ્થિતિમાં લત્રત્યાગનું શું મહત્વ રહે છે ? કેટલાક અજ્ઞાની લેકે માંસ, મદિરા અને લસણુ ખાઈને સ‘સારવા સમાં જ વૃદ્ધિ કરતા હાય છે. For Private And Personal Use Only Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - - समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. म.७ उ.१ कुशीलवता दोषनिरूपणम् ५९१ 'भोचा' भुक्त्वा अनस्थ वासं' अन्यत्र वासम्-अन्यत्र मोक्षादन्यत्र संसारे वासम् अवस्थानं परिकल्पयन्ति समन्तानिष्पादयन्ति । ज्ञानदर्शनचारित्ररूपमोक्षमार्ग तिरस्कृत्य, जीववधयानकर्मणि प्रवृत्ताः जीववधननिताऽशुभक मसालिताः सदैव नरकमार्ग परिशोधयन्ति । नहीह प्रातः स्नानेन, न वा लवणवर्जनेन मोक्षोपलब्धिः। किन्तुक्त तथाकारी लशुनादिकाशुचि वस्त्वम्यवहरणासंसारे परिभ्र. मन्तीति पर्यवसितोऽर्थः ॥१३॥ सामान्यतस्तेषां कुशीलानां मतं निराकृत्य सांपतं विवेषतो निराकर्तुमाह'उद्गेण इत्यादि । मूलम्-उदगेण जे सिद्धिं मुदाहरंति सायं च पायं उदगं फुसंता। उदगस्स फासेण सिया य सिद्धी सिम्झिसु पॉणा बहवे देंगंसि ॥१४॥ छाया-उदकेन ये सिदि मुदाहरन्ति, सायं च मातरुदकं स्पृशन्तः। ___ उदकस्य स्पर्शन स्याच्च सिद्धिः, सिद्धयेयुः माणाः बहव उदके।१४॥ आशय यह है कि ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूप मोक्षमार्ग को त्याग कर जीववध की प्रधानता वाले कार्य में जो प्रवृत्त हैं, वे अपने अशुभ कर्मों से युक्त होकर मदेव संसार का मार्ग बढाते हैं। वास्तव में न तो मातःकाल स्नान करने से मोक्ष मिलता है, न नमक का त्याग करने से ही । परन्तु ऐसा करने वाले तथा मद्य, मांस, लहसुन और अनन्तकाय वनस्पति आदि अशुचि वस्तुओं का भक्षण करने वाले संसार में ही परिभ्रमण करते हैं ॥१३॥ सामान्य रूप से कुशीलों का मत का निराकरण करके अब विशेष આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે જ્ઞાન, દર્શન અને ચારિત્ર રૂપ મોક્ષમાને ત્યાગ કરીને, જેઓ જીવહિંસાની પ્રધાનતા વાળા કાર્યમાં પ્રવૃત્ત રહે છે, તેઓ અશુભ કર્મોનું ઉપાર્જન કરીને, સદૈવ સંસારને માર્ગ વધારતા રહે છે. ખરી રીતે તે પ્રાતઃકાળે સ્નાન કરવાથી પણ મોક્ષ મળતું નથી, લવણને ત્યાગ કરવા માત્રથી પણ મક્ષ મળતું નથી, પરંતુ એવું કરનાર છે તથા માંસ, મદિરા, લસણ અને અનન્તકાય વનસ્પતિ આદિ અશુચિ પદાર્થોનું ભક્ષણ કરનારા માણસે સંસારમાં જ પરિભ્રમણ કર્યા કરે છે. ગાથા ૧૩ સામાન્ય રૂપે કુશલેના મતનું ખંડન કરીને હવે વિશેષ રૂપે ખંડન १२वाने भाटे सूत्र२ मा प्रमाणे प्रतिपाहन रे छे-'उद्गेण त्यात For Private And Personal Use Only Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गमले अन्वयार्थः-(जे) ये केचन (सायं च पायं उदगं फुमंता) सायंकाले प्रातः प्रमाते उदकं शीतजलं स्पृशन्तः स्नानादिक्रियां जलेन कुन्तः (उदगेण सिद्धि मुदाहरति) उदकेन-जलेन सिद्धिं मोक्षमुदाहरन्ति कथ न्ति ते मिथ्यावादिनः (उदगम्स फासेण सिद्धि सिया) उदकस्य स्पर्शेन यदि सिद्धिः स्यात् तदा (दगंसि) उदके-जले निवासिनः (बहवे पाणा) बहवोऽने के मस्स्यमकरादयः प्राणाः जीवाः (सिज्मंसु) सिद्धयेयुः सिद्धा भवेयु न तु एवं भवतीति ॥११॥ रूप से निराकरण करने के लिए सूत्रकार कहते हैं-'उदगेण' इत्यादि । शब्दार्थ-'सायं च पायं उदगं फुसंता-सायं च प्रातः उदकं स्पृशन्ता'. सायंकाल एवं प्रातः काल में जलका स्पर्श करते हुए 'जे उद्गेश सिद्धि मुदाहरन्ति-ये उदकेन सिद्धि मुदाहरति' जो लोग जलस्नान से मोक्षकी प्राप्ति होना कहते हैं वे मिथ्यावादी हैं 'उदगम फासेण मिद्धी मियाउदकस्य - स्पर्शन सिद्धिः स्यात्' जलके स्पर्श से यदि मुक्ति मिले, तो 'दगंसि-उदके' जल में रहने वाले 'बहवे पाणा-बहवे प्राणाः' बहुत से जलचर प्राणी 'सिझंप्लु-सिद्धयेयुः' मोक्षगामी हो जाते अर्थात् मोक्ष प्राप्त कर लेते ।।१४। . ......... - अन्वयार्थ-सायंकाल और प्रातः काल सचित्त जल का स्पर्श करते हुए जो लोग जल से मोक्ष कहते हैं, वे मिथ्यावादी हैं। यदि जल के स्पर्श से सिद्धि होती है, तो जल में निवास करनेवाले अनेक मकर आदि जलचर प्राणी सिद्धि प्राप्त कर लेते। किन्तु ऐसा होता नहीं है ॥१४॥ Avt-'सायं च पायं उदगं फुसंता-सायं च प्रातः उदकं स्पृशन्तः' सांग .: संपारे ५inai k५0 ४२तय:'जे उदगेण सिद्धिमुदाहरति-ये उदकेन सिद्धिमदाहरति' बनानथा म.क्ष प्राप्त थवानुयाई , तमा मिथ्यावाही ॐ. 'उदगस फासेण सिद्धी सिया-उदकस्य स्पर्शेन सिद्धिः स्यात्' पाणीना २५शया ने भुति भने त 'दगंसि-उदके.' पालीमा २७वा 'बहवे पाणाबहवे प्राणाः' या प२० १५२ प्रालियो ‘सिझिसु सिध्येयुः' मामाभी 45 જાત અર્થાત મોક્ષ પ્રાપ્ત કરી લેતા. આ ૧૪ सूत्राथ-प्रातःले भने सायाने अथित्त जने। १५२५ ४२नारे "લે કે એવું કહે છે કે જળનું સેવન કરવાથી મોક્ષ મળે છે, તેઓ મિથ્યાવાદી છે. જે જળના સ્પર્શથી સિદ્ધિ મળતી હેત, તે જળમાં રહેનાર મગર આદિ અનેક જળચર પ્રાણીઓ સિદ્ધિ પ્રાપ્ત કરત! પરતું એવું બનતું તેથ. ૧૪ For Private And Personal Use Only Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. शु. अ. ७ उ.१ कुशीलवतो दोषनिरूपणम् ॥ टीका-'जे' ये केचन मूढाः 'सायं' सायम्-सायंकाले 'पाय' प्रात:प्रातः काले 'उदगं' उदकम् 'फुसंता' स्पृशन्त:- जलेन स्नानादिकुर्वन्तः, 'उदकेन जले। 'सिद्धिं' सिद्धि-मोक्षम् ‘उदाहरंति' उदाहरन्ति-कथयन्ति । ते सम्यक न प्रतिपादयन्ति । यदि, 'उदगस्स' उदकस्य 'फासेण' स्पर्शेन-शीतजलेन सिद्धी सिद्धि मोक्षः 'सिया य' स्यात् च, तदा 'दगंसि' उदके 'बहवे' बहवः 'पाणा' प्राणिनः मत्स्यमकरादयः 'सिझिमु' सिद्धयेयुः-सिद्धिं प्राप्नुयुः, परन्तु नैवं दृश्यते । यदप्युक्तम्-वाह्यमलापनयनसामयं दृष्टम् , तदप्यसम्यक् । यथोदकमनिटमलमपसारयति, एषप्तभिमतमपि कुंकुमचन्दनादिकं शरीरगतमपनयति। तथाप्रकृतेऽपि यदि पापं नाशयिष्यति तहि तावत्या युक्त्या पुण्यमप्यानेष्यतीति ____टीकार्थ--जो कोई अज्ञानीजन सन्ध्या के समय और प्रभात के समय जल का स्पर्श करते हुए अर्थात् जलस्नान करते हुए जल से ही सिद्धि मोक्ष की प्राप्ति कहते हैं, उनका कथन समीचीन नहीं है। अगर जलस्नान करने से मोक्ष प्राप्त होता तो जल में तो बहुत से जल. चर प्राणी रहते हैं, जो मत्स्य भक्षण आदि क्रूर कर्म करते हैं, दयाहीन होते हैं, वे भी मोक्ष प्राप्त कर लेते! ___ जल बाहय मैल को दूर करने में समर्थ होता है, यह आपका कथन भी संगत नहीं । जल जैसे अनिष्ट मल को दूर करता है उसी प्रकार इष्ट कुंकुम चन्दन आदि को भी शरीर से अलग कर देता है। अत! स्नान करने से जैसे पाप दूर होता है, उसी प्रकार पुण्य भी धुल ટીકાઈ–જે અજ્ઞાની છે એવું કહે છે કે પ્રાત:કાળે અને સંધ્યાકાળે જળસ્નાન કરવાથી મોક્ષની પ્રાપ્તિ થાય છે, તેમનું કથન સાચું નથી. આ પ્રકારનું પ્રતિપાદન કરનારા લોકે મિથ્યાવાદી જ છે. જે જળસ્નાન કરવાથી જ મોક્ષ મળતા હતા, તે જળચર પ્રાણીઓને તે મેક્ષ જ મળત. જળમાં મગર આદિ અનેક પ્રાણીઓ રહે છે, જેઓ મત્સ્યભક્ષણ આદિ કર કોઈ કરતાં હોય છે. એવાં નિર્દય પ્રાણીઓ શું મોક્ષ પ્રાપ્ત કરી શકે ખરાં ? પાપકર્મોનું સેવન કરનારને મોક્ષ મળવાનું સંભવી શકે જ નહી. જળ બાહ્ય મેલને દૂર કરી શકવાને સમર્થ છે, એવું આપનું કથન પણ સંગત નથી, જળ જેમ અનિષ્ટ મેલને દૂર કરે છે, એ જ પ્રમાણે કુકમ ચન્દન આદિ ઈષ્ટ પદાર્થોને પણ શરીરથી અલગ કરે છે. આ પ્રમાણે એ વાતને પણ સ્વીકાર કરવાનો પ્રસંગે ઉપસ્થિત થશે કે જેમ સ્નાન કરવાથી પાપ દૂર થઈ જાય છે, એ જ પ્રમાણે પુણ્ય પણ છેવાઈ જશે ! सू० ७५ For Private And Personal Use Only Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतागसूत्रे मह निष्टमापयेत। चिोदास्तानं ब्रह्मचारिणां दोपाधायकमेव। तथाचोक्तम् स्नानं मदर्पकरं कामांग प्रथमं स्मृतम् । तस्मात्कामं परित्यज्य न ते स्नान्ति दमे रताः॥१॥ अपिद-त्रोद। क्लिनमात्रो हि स्नात इत्यभिधीयते । स स्नातो यो व्रतस्नातः स बाह्याम्पन्तः शुचिः ॥२॥ स्नानं कामोद्दीपकं प्रथम कामांगं कथितं तस्मात् दमे रताः जितेन्द्रिया: कामं परित्यज्य जले स्नानं नाचरन्ति ॥१॥ जले नातो नरो न स्नात इति कथ्यते किन्तु संयमात्मक व्रते स्नानं करोति चारित्रवान् भवति बाह्याभ्यन्तरः स स्नात इति कथ्यते इति भावः ॥१४॥ जाएगा! यह महान् अनिष्ट की प्राप्ति होगी। इसके सिवाय ब्रह्मचारियों के लिए जलस्नान दोष जनक ही है। कहा भी है--स्नानं मददपकरम्' इत्यादि। ..स्नान मद एवं दर्प की वृद्धि करने वाला है और काम के अंगों में प्रथम अंग माना गया है। अतएव काम के त्यागी संयमी पुरुष स्नान नहीं करते।' ___ और भी कहा है-'नोदकक्लिन्नगात्रोहि' इत्यादि। . ... 'जल से शरीर को गिला कर लेने वाला स्नात (नहाया हुआ) नहीं कहलाता । वास्तव में स्नात यह है जो व्रतों से स्नात है अर्थात् अहिंसा आदि व्रतों का धारक है। व्रतस्नात पुरुष भीतर और बाहर से शुचि होना है अर्थात् शौच के लिए उसे जलस्नान की आवश्यकता नहीं होती ॥१४॥ વળી બ્રહ્મચારીઓને માટે જલસ્તાન દેષજનક જ છે. કહ્યું પણ છે है-'स्नान मददर्पकरम्' त्या સ્નાન મદ અને દર્ય (અહંકાર)ની વૃદ્ધિ કરનાર છે. કામના અંગમાં નાનને પ્રથમ અંગરૂપ કહ્યું છે. તેથી કામને (મૈથુનનો ત્યાગ કરનાર सभी पुरुष स्नान ४२ता नथी.' मे ५ यु छ ४-नगदकक्लिन्नगात्रोहि' इत्याहि. “પાણી વડે શરીરને ભીનું કરનાર માણસને સ્નાત (હાલે) કહેવાતે નથી. વાસ્તવમાં સ્નાત તે તેને જ કહેવાય છે કે જે વ્રતથી સ્નાત હોય, એટલે કે-અહિંસા આદિ વ્રતનું પાલન કરનારને જ સ્નાત કહેવાય છે. વ્રતસ્નાત પુરુષ બહારથી અને અંદરથી વિશુદ્ધ હોય છે એટલે વિશુદ્ધિને માટે તેને જલરનાનની આવશ્યક્તા જ રહેતી નથી કે ૧૪ છે For Private And Personal Use Only Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सैमयार्थबोधिनी टीका प्र.शु. अ. ७ उ.१ कुशीलवतां दोषनिरूपणम् ६९५ मूलम्-मच्छा य कुम्मायसरीसिवाय मग्गू य उद्या दग रक्खासीया अहाणमेयं कुसला वैयंति उदगेणंजेसिद्धि मुदाहरंति।१५॥ छाया-मत्स्याच कूर्माश्च सरीसृपाश्च मद्वश्वोष्ट्रा उदकराक्षसाश्च । .... ____ अस्थानमेतत्कुशला वदन्ति उदकेन ये सिदि मुदाहरन्ति ॥१५॥ अन्वयार्थः- (मच्छा य कुम्मा य सरी सिवा य) मत्स्याश्च कूर्माश्च सरीसृपाथ -जलसाः गोधादयश्च (मग्गू य उठा दगरक वसा य) मद्गवः जलकाका 'मच्छा य कुम्मा य' इत्यादि। शब्दार्थ-'मच्छा य कुम्मा य सरीसिवा य-मत्स्या श्च कूर्मास सरीसृपाश्च' मत्स्य, कच्छप और सरीसृप 'मग्गू य उट्ठा दगरक्खसाय-- मदवः उष्ट्रा! उदकराक्षसाश्च' मद्गु नामके काक की आकृतिवाला जलचर, ऊंट के आकारका जलचर विशेष एवं जलराक्षस जो जल के स्पर्श से मुक्ति होती हो तो ये सब मुक्ति गामी हो जाते 'जे उदगेणये उदकेन' अतः जो उदकसे अर्थात् जलके स्पर्शादि से 'सिद्धिमुदा हरंति-सिद्धिं उदाहरति' मुक्ति की प्राप्ति बताते हैं 'अट्ठाणमेयं-एतत् अस्थानम्' उनका कथन अयोग्य है ऐसा 'कुसला वयंति-कुशला वदन्ति' मोक्षका तत्व जानने वाले पुरुष कहते हैं ॥१५॥ अन्वयार्थ--मत्स्य, कूर्म, जलसर्प भोगा, जलमृग, उष्ट्र, उदकराक्षस (जलमानव की अकृति के जलचा) आदि सभी जलचर मुक्त हो जाते 'मच्छा य कुम्माय' इत्यादि श14-'मच्छा य कुम्मा य सरीसिवा य-मत्स्याश्च कूर्माश्च सरीसृपाध' - मत्स्य, २७५-४२१मन सरीसृ५-स। 'मन्गू य उद्या दगरक्खसाय-मद्वः उष्ट्राः उद्राक्षमाश्च' भशु मर्थात् घोडानी मातिवाणु य२ प्रारी, ઊંટના આકારનું જલયર પ્રાણી, તથા જલરાક્ષસ જે પાણીના સ્પર્શથી મુક્તિ थती य तो A मा भुतगामी १६ त 'जे उदगेण-ये उदकेन' अत: मा ४थी मात् पाणी मालिका 'सिद्धिमुदाहरंति-सिद्धिम् उदाहरति' भुस्तिनी मालित मताव छे. 'अट्ठाणमेयं-एतत् अस्थानम्' तेयानु ४थन गये. श्य छ. मे प्रमाणे 'कुसला वयंति-कुशला वदन्ति' भाक्षना तत्पने तापामा પુરૂષે કહે છે. તે ૧૫ છે સૂત્રાર્થ જે જળના પર્શી મુક્તિ મળતી હત, તે માછલાં, કાચબા, જલસર્પ, જળઘોડા, જલમૃગ, જળઊંટ, જળર ક્ષસ આદિ સધળાં For Private And Personal Use Only Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतलियो उष्ट्राच च उदकराक्षसा मनुष्याकृतयो जलचरविशेषाः एते सर्वेपि मुक्ताः भवेयुः यदि जलस्पर्शेन मोक्षो भवेत्तदा अतः (जे उदगेण) ये वादिनः उदकेन जलस्पर्शादिना (सिद्धिमुदाहरंति) सिद्धि मोक्षमुदाहरति कथयन्ति (अट्ठाणमेयं) एतत् अस्थानम् अयुक्तमिति (कुसला वयंति) कुशला तीर्थकरगणधरादयः वदन्ति कथयन्तीति ॥१५॥ टीका-'मच्छा य' मत्स्याश्च 'कुम्मा य' कूर्भाश्च-कच्छपाः, य=च 'सरीसिवा य सरीसृपाः-जलसर्पाद्यः, 'मग्गू य' मद्गवः जलकाकाः 'उट्टा' उष्ट्राः उष्ट्राकृतयो जलचरविशेषाः, एवम् 'दगरकावसा य' जलराक्षसाः-मानुषाकतयोजळचरविशेषाः। एतेषां मत्स्यादीनां सदैव जलमवगाहमानानां सर्वात्मना जलसंयोगाद सघ एव मोक्षो भवेत् यदि जलसंयोगेन मुक्ति समीहेत, नस्वेवं दृश्यते, श्रूयते, उपपद्यते वा, तस्मात् ये 'उदगेण उदकेन 'सिद्धि मुदाहरंति' सिद्धिप्रदि जल के स्पर्श से मुक्ति होती ! अतएव जो वादी जल के स्पर्श से मुक्ति कहते हैं, वे अयुस्त कहते हैं। ऐसा तीर्थकर गणधर आदि कुशल पुरुषों का कथन है ॥१५॥ टीकार्थ--मत्स्य (मच्छ), कूर्म (कच्छप), सरीसृप (जलसर्प आदि) मद्गु (काक के आकार का जलचर), उष्ट्र (उष्ट्र के आकारका जलचर) उदकराक्षस (जलमानुष की आकृति के जलचर) इत्यादि प्राणी सदैव जल में अवगाहन किये रहते हैं और पूर्ण रूप से जल के साथ उनका संयोग होता है। ऐसी स्थिति में उन्हें झटपट मोक्ष मिल जाना चाहिए! किन्तु न तो ऐसा देखा जाता है, न सुना जाता है और न संगत ही है। अतएव जो जल से सिद्धि कहते हैं, જળચર પ્રાણુમુક્ત જ થઈ જાત! પણ એવું બનતું નથી, તેથી જે પર મતવાદીઓ જળના સ્પર્શથી મુક્તિ મળવાનું કહે છે, તેઓ મિથ્યાવાદી જ છે. તેમની તે માન્યતા ખોટી જ છે, એવું તીર્થકર, ગણધર આદિ કુશળ પુરૃષનું કથન છે. ૧પ टी -भक्ष्य (भ७६i), म (यमा), सरीस५ (स५ मा) મદુરા (કાગડાના આકારનું જળચર) ઉદ્ર-ઊંટના આકારનું જળચર ઉદક રાક્ષસ (માણસના જેવા આકારનું જળચર), ઈત્યાદિ પ્રાણીઓ સદા પાણીમાં જ નિવાસ કરતા હોય છે, અને પાણી સાથે તેમને પૂર્ણ રૂપે સગ હોય છે. જે જળના સ્પર્શથી મુક્તિ મળતી હોત, તે આ પ્રાણીએને તે તરત મોક્ષ મળી જ જોઈએ. પરંતુ એવું કદી જોવામાં પણ For Private And Personal Use Only Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लिमयार्थबोधिनी टीका प्र. Q. अ. ७ उ.१ कुशीलवतां दोषनिरूपणम् ५५७ सदाहरन्ति मोक्षं कथयन्ति 'एय' एतत् कथनम् 'अट्ठाणे' अस्थानम्-अयुक्तं प्रमाणरहितमित्यर्थः । इत्येतत् ‘कुमला' कुशला:-अभिज्ञा मोक्षमार्गज्ञातारः तीर्थकरमणपरादयः 'वयंति' बदन्ति कथयन्तीति ॥१५॥ मूलम्--उदयं जइ कम्ममलं हरेज्जा एवं सुहं इच्छामित्तमेव। अंधं च णेयारमणुस्सरिता पाणाणि चेवं विणिहंति मंद॥१६॥ . छाया--उदकं यदि कर्ममलं हरेदेवं शुभम् इच्छामात्रमेव । अन्धं च नेतारमनुसृत्य प्राणिन 3 विनिम्नन्ति मन्दाः ॥१६॥ जनका कथन अयुक्त है। ऐसा मोक्ष मार्ग के ज्ञाता तीर्थंकरों और गणधरों का कथन है ॥१५॥ 'उदयं जहकम्ममलं' इत्यादि। शब्दार्थ-'उदयं जइ कम्ममलं हरेज्जा-उदकं यदि कर्ममलं हरेत्' जल यदि कर्म मलको नाशकरे तो 'एवं-एवम्' इसी प्रकार 'सुह-शुभं' पुण्य को भी हर लेगा 'इच्छमित्तमेव-इच्छामात्र मेव' इस लिये जल कर्ममल को हरता है यह कहना इच्छामात्र है 'मंदा मन्दाः' सदस विवेकसे रहित ऐसे मूर्ख जीव 'अंधंच णेयारमणुस्सरित्ता-अन्धं च नेतारमनुमृत्य' अन्धे नेता के पीछे पीछे चल कर 'पाणाणि चेव विणि. इंति-प्राणिनश्चैवं विनिम्नन्ति' जलस्नान आदिके द्वारा प्राणियों की हिंसा करते हैं ॥१६॥ આવતું નથી, સાંભળ્યું પણ નથી અને એવું સંભવી શકતું પણ નથી. તેથી જેઓ જળના સેવનથી સિદ્ધિ પ્રાપ્ત થવાનું કહે છે, તેમનું કથન અયુક્ત જ છે, એવું મોક્ષમાર્ગના જાણકાર તીર્થક અને ગણધનું કથન છે. મે ૧૫ __'उद्य' जई कम्ममलं' त्या शा --'उदयं जइ कम्ममलं हरेजा-उदकं यदि कर्ममलं हरेत्' पर से मना भजन नाश ४२ तो 'एवं-एवम्' मा प्रमाणे 'सुहं-शुभम्' १९५२ ५६ देशे 'इच्छामित्तमेव-इच्छामात्रमेव' ते ॥२ सम भन्नु ७२५ ४रे छ, मेम ३ ते ४ावाजानी २छा मात्र छे. 'मंदा-मन्दाः' सहसद्विवेथी २ति ॥ भूम । 'अंधं च नेयारमणुरमरित्ता-अन्धं च नेतारमनुसृत्य' मा नेतानी ५७ ५७ यासीन 'पाणाणि चेव विणिहंतिप्राणिनश्चैवं विनिम्नन्ति' सनान विगैरे ॥२॥ प्राणियोनी सा रे छ.॥१६॥ For Private And Personal Use Only Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताले अन्वयार्थ:--(उदयं जइ कम्ममलं हरेज्जा) उदकं जलं यदि कर्ममलं यदि कर्ममलं हरेत् विनाशयेत् तदा (एवं) एवमेव (सुह) शुभं पुण्यमपि हरेत् अतः (इच्छामित्त मेव) जलं कर्ममलं हरेदिति इच्छामात्रमेव न यौक्तिकं (मंदा) मन्दा:-सदस. द्विवेकविकलाः (अंच णेयारमणुसरित्ता) अन्धं च नेतारमनुसृत्य प्राप्य (पाणाणि चे विणिहंति) पाणिनो जीवानेव केवलम् एवम् विनिम्नन्ति विराधयन्ति नत्वन्यत् किमपोति ॥१६॥ टीका-'जई यदि 'उदगं' उदकं जलम् 'कम्ममलं' कर्ममलम्, अशुभ पापम्-हरेज्जा' हरेत् विनाशयेत्, एवं तहि तज्जलम् 'मुह शुभं पुण्यमपि हरेत, अथ पुण्यं नापहरेत् एवं कर्ममलमपि नापहरेत् अत इच्छामात्रमेतत् यत् जलं कर्मापहारीति, नहि जलं वस्त्रमेव द्रवयति, अपि तु शरीरमपि क्लेदयति । ___ अन्वयार्थ--जल यदि कर्ममल का हरण करे तो वह शुभ अर्थात् पुण्य को भी हर लेगा, अतएव यह मन्तव्य उनकी इच्छा मात्र है, युक्ति संगत नहीं है। अज्ञानी जन अन्धे-अविवेकी नेताका अनुसरण करके केवल प्राणियों का ही घात करते हैं । वे ऐसा करके कोई सिद्धि माप्त नहीं कर सकते ॥१६। ____टीकार्थ--अगर जल कर्म रूपी मल को, अशुभ को-पाप को हरता है तो वह शुम अर्थात् पुण्य को भी धो डालेगा। अगर जल पुण्य का हरण नहीं कर सकता तो पाप को भी हरण नहीं कर सकता। अतएव यह कहना कि जल पाप को हर लेता है, उनकी इच्छा मात्र ही है। जल केवल वस्त्र को ही गीला नहीं करता वरन् शरीर को भी गीला સૂત્રાર્થ-જે પાણી વડે કર્મમળનું હરણ થતું હોય, એટલે કે જો જળના સ્પર્શથી કર્મમળ દૂર થઈ જતું હોય, તે તે જેમ અશુભને દૂર કરે છે તેજ પ્રમાણે શુભને (પુને) પણ હરી લેત, તેથી જળથી મળ કે પાપ દૂર થવાની તેમની માન્યતા માત્ર કલ્પિત જ હોવાને કારણે યુક્તિસંગત નથી. અજ્ઞાની માણસે આંધળા (સમ્યક જ્ઞાનથી રહિત, અવિવેકી) નેતાનું અનુક. પણ કરીને પ્રાણીઓની હિંસા કર્યા કરે છે. એવું કરવાથી તેમને સિદ્ધિ (भेक्ष) भजी शती नथी. ॥१॥ ટીકાર્યું–જે જળ કમરૂપી મળને (અશુભને, પાપને) ધંઈ નાખતું હોય, તે તે શુભને (પુને) પણ જોઈ જ નાખત! જે જલ પુણ્યનું હરણ ન કરી શકતું હોય, તે પાપનું હરણ પણ ન કેવી રીતે કરી શકે? અર્થાત્ ન જ કરી શકત તેથી “પાણી પા૫નું નિવારણ કરે છે,” એવું તેમનું કથન માત્ર કાલ્પનિક જ લાગે છે. પાણી માત્ર કપડાંને જ ભીંજવતું નથી, પણ શરીરને For Private And Personal Use Only Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समपार्थबोधिनी टीका प्र. भु. भ. ७ उ. १ कुशीलवतां दोषनिरूपणम् तद्वत्याणिनां पापं पुण्यं च विनाशयिष्यत्येव विनाश्वस्वस्योभयत्रापि तुल्यत्वाद जले च नाशकत्वस्य सद्भावात् । एवं स्थिते स्मत्तिमतमनुसृत्य स्नानादिकं कुर्वन्ति, ते यथा जात्यन्धाः अन्यं जात्यन्धं नेतारमनुसृत्य गच्छन्तः कुपथाश्रिता भवन्ति, सथेमेपि नाभिमतं स्थानं प्राप्नुवन्ति एवं स्मार्तमार्गानुसारिणः 'मंदा' मन्दा= सदसद्विवेक विकलाः 'पाणाणि' प्राणिनः जलरूपान् जळाश्रितान पुतरकादीन् 'विणिति, विनिघ्नन्ति - व्यापादयन्ति । अवश्यं जलक्रियया जलकागजलाश्रितजीवानां विराधनासंभवात् ॥ १६ ॥ करता है । इसी प्रकार यदि पाप को नष्ट करेगा तो पुण्य को भी नष्ट करेगा, क्यों कि नष्ट होने योग्य दोनों ही हैं। स्मार्त्तमत का अनुसरण करके स्नान को धर्म एवं मोक्ष का कारण मानते हैं, वे वैसे हैं जैसे एक जन्मान्ध किसी दूसरे जन्मान्ध नेता का अनुसरण करके चलना हुआ कुपथगामी होता है । ऐसे लोग अभीष्ट स्थान पर नहीं पहुँच सकते । इस प्रकार स्मार्त्त मत के अनुयायी विवेक से विकल होकर जलकायिक और अन्य जलाश्रित पूतरक आदि प्राणियों का घात करते हैं, क्यों कि जल संबंधी क्रिया से जलकायिक और जलाश्रित जीवों की अवश्य ही विराधना होती है ॥ १६॥ પણ ભીજવે છે. એજ પ્રમાણે જો તે પાપને નાશ કરતું હાય, તે પુણ્યને પણ નષ્ટ કરત જ, કારણ કે તે બન્ને નષ્ટ થવા ચૈાગ્ય છે. માત્ત મતને અનુસરીને સ્નાનને ધર્મ અને મેક્ષનું કારણ માનનારા લેાકેા, જન્માન્ય માણસનું અનુસરણ કરનારા જન્માન્ય માણસા જેવાં જ છે. જેમ આંધળાનું અનુસરણ કરનારા માણસે ખાટા માર્ગે ચડી જવાને કારણે નિયત સ્થાને પહેાંચી શકતા નથી, એજ પ્રમાણે સ્માર્ત્તમતના અનુયાયીઓ પણ સ્નાનને ધનું કારણુ માનવા છતાં, તે મા”નું અવલમ્બન લઈને મેક્ષ પ્રાપ્ત કરવાને બદલે સ'સારમાં પરિભ્રમણુ જ કર્યા કરે છે. કારણ કે તેઓ વિવેકથી વિઠ્ઠીન હાવાને કારણે સ્નાન દ્વારા જીવવ ુંસા થાય છે, એવુ' સમજતા નથી. તેથી અકાયક જીવાની તથા પાણીને આશ્રયે રહેલા જીવાની હિંસા કરે છે, અને તેના દ્વારા હિં'સાજનિત પાપકમાંનું ઉપાર્જન કરીને સસારમાં ભ્રમણ કર્યાં કરે છે. જલ સાઁબધી ક્રિયા (સ્નાનાદિ) વડે જલકાયિકા અને જલાશ્રિત જીવાની વિરાધના અવશ્ય થાય છે, એવુ' સમજીને સ્નાનાદિના ત્યાગ જ કરવા જોઈએ પ્રગાથા ૧૬૫ 35.2 For Private And Personal Use Only Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६०० सूत्रकृतामा मूलम् -पावाइं कम्माई पकुवतो हि सीओदगं तु जइ तं हरिजा। सिझिसु एंगे दग सत्तघाई मुंसं वयंते जलसिद्धिमाह।१७। छाया--पापानि कर्माणि प्रकुर्वतो हि शीतोदकं तु यदि तद्धरेत् । सिदेययु रेके दकसत्वघातिनो मृषा वदन्तो जलसिद्धिमाहुः ॥१७॥ ___ अन्वयार्थ:--(पाबाई कम्माई पकुव्यतो हि) पापानि प्राणातिपातादिकानि कर्माणि प्रकुर्वतः पुरुषस्य (त) तत् पापं (सीतोदगं जइ हरिज्जा) शीतोदकं यदि हरेत् अपगमयेत् तदा (एगे दगसत्तघाई सिझिसु) एके उदकसत्त्वघातिनो नरा अपि सिद्धयेयुः, अतः (मुसं वयंते जलसिद्धि माहु) मृषावदन्तः जलसिद्धि जलस्पर्श न मोक्षो भवतीति वदन्तः मिथ्यावादिनः इति ॥१७॥ 'पावाईकम्माई' इत्यादि। शब्दार्थ-पावाई कम्माई पकुठवतो हि-पापानि कमौणि प्रकुर्वत' यदि पापकर्म करनेवाले पुरुष के 'तं-तत्' उस पाप को 'सीओदगं तु हरिज्जा-शीतोदकं यदि हरेत्' शीतलजलका स्नान यदि दूर करदे तो 'एगे दगसत्तघाई सिझिसु-एके उदकसत्वघातिनः सिद्धयेयुः' जलके जीवों का घात करने वाले मछुवे आदि भी मुक्ति का' लाभकरें अता 'मुसं वयंत जलसिद्धिमाहु-मृषावदन्तः जलसिद्धिम् आहुः' जो जल स्नान से मुक्ति की प्राप्तिहोना कहते हैं वे असत्यवादी है ॥१७॥ ___ अन्वयार्थ-पाप कर्म करनेवाले पुरुष के पाप को यदि सचित्त जल हरले तो जल के जीवों का घात करने वाले भी सिद्धि प्राप्त कर लेगे ! अतएव जो यह कहते हैं कि जलस्पर्श से मोक्ष होता है, मिथ्या कहते हैं ॥१७॥ 'पावाई कम्माइत्यादि शहा---'पावाई कम्माई पकुव्वतो हि-पापानि कर्माणि प्रकुर्वतः' ने पापम ४२११॥ ५३षना 'तं-तत्' ते ५५ने 'सीओदगं तु हरिजजा-शीतोदक यविहरत पालीथी स्नान मात्र २ रे ते! 'एगे दगसत्तघाई सिझिस-एके उदकसत्वघातिनः सिद्धयेयुः' न वानी घात ४२वावा मछपा विशे३ पर मत प्रातरे मेथी 'मुसं वयंत जलसिद्धिमाहु-मृषावदन्तः जरसिद्धिम् आह" જેઓ જલસ્નાનથી મુક્તિ પ્રાપ્ત થવાનું કહે છે તેઓ અસત્યવાદી છે. ૧૭ સૂત્રાર્થ–પાપકર્મ કરનારા પુરુષના પાપને જે સચિત્ત જળ હરી લે, તે જળના અને ઘાત કરનારા જી પણ સિદ્ધિ પ્રાપ્ત કરી લેતા હેત ! तमेव मानत नथी, तथा २५0 ४ भाक्ष भणे छ,' २ લેઓ કહે છે, તે તેમનું કથન મિથ્યા છે. છેલછા For Private And Personal Use Only Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - समयार्थबोधिनी का प्र. श्रु. अ. ७ उ.१ कुशीलबतां दोषनिरूपणम् ॥ टीका--पाबाई' पापानि-पापोपादानभूतानि 'कम्माई' कर्माणि-प्राण्युपमर्दकारीणि 'पकुव्वतो हि' पकुवतः पुरुषस्य 'नई' यदि 'सीओदर्ग' शीतोदकस 'तू' तु-यदि तु तत् पापं 'हरेज्जा' हरेदपनयेत् यधुदकावगाहनेन पापमपगच्छे तर्हि 'एगे' एके दगसत्तघाई' उदकसत्त्वघातिनः-उदकान्तःस्थायिजीवानां इन्तारः जलमवगाहमाना मत्स्यादिजीवघातका धीवरा अपि 'सिझिम' सिद्धयेयुः-मोक्षभाजो भवेयुः किन्तु न च ते सिद्धा भवन्ति, अतः ये 'जलसिद्धिमाहु' जलावगाहनात् सिद्धिर्भवतीति, एवमाहुः ते 'मुसावयते' मृषावादिनः केवलम् । अयं भार:-दुःखजनकाऽऽवरितकर्मणां विनाशेच्छया ये पुन जलकायानां विराधनं स्नानादिकमाचरन्ति, पूर्वकृतवापानि पयितुं न ते प्रत्युत पारमेवार्जयन्ति न पुन-, स्तत् क्षपयन्ति । नहि पङ्केन पङ्कप्रक्षालनं शास्त्र सिद्धमनुभवसिद्धं वा इति ॥१७॥ टीकार्थ-पाप के कारणभूत प्राणी हिंसा करने वाले कर्मों को करने वाले पुरुष के पापों को यदि शीतल उदक हर लेता है. तो कोई कोई मत्स्य आदि जल के जीवों का घात करने वाले धीवर आदि का भी पापकर्म नष्ट हो जाते और पाप के नष्ट होने से वे लोक सिद्धि प्रास कर लेते। मगर वे सिद्धि प्राप्त नहीं करते। अतएव जल में अवगाहन करने से सिद्धि होती है, ऐसा जो कहते हैं, वे मिथ्या कहते हैं। ... आशय यह है जो लोग दुःखजनक कर्मों को विनाश करने की इच्छा से जलकाय के जीवों का विनाश करते हैं अर्थात् स्नानादि करते है, वे उलटा पाप ही उपार्जन करते हैं, पापकर्मों का क्षय नहीं करते। ટીકાર્યું–હિંસક કર્મો કરનાર પુરુષનાં પાપને જે શીતલ પાણી હરી લેતું હોય, તે માછલાં આદિ જળચર પ્રાણીઓને ઘાત કરનાર માછીમાર આદિના પાપે પણ નાશ પામતા હશે, અને પાપના નાશ થવાથી તેઓને સિદ્ધિ પ્રાપ્ત થતી હશે એવું માનવું પડશે. પરંતુ એવાં પાપકર્મો કરનારને મુક્તિ મળતી નથી, એ વાતને તે સૌ સ્વીકાર કરે છે. તેથી જળનો સ્પર્શ કરવાથી–અથત સ્નાન કરવાથી મોક્ષ મળે છે, એવું છે કે કહે છે, તે भनथी, ५ मिथ्या (प) छे. તાત્પર્ય એ છે કે જે લોકે દુઃખજનક કમેને વિનાશ કરવાની ઈચ્છાથી જલકાયના જીની વિરાધના કરે છે, એટલે કે સ્નાનાદિ કરે છે, તેઓ પાકને નાશ કરવાને બદલે ઊલટાં પાપકર્મોનું ઉપાર્જન જ કરે છે. કીચડથી કીચડને સાફ કરવાની વાતને કે શા સ્વીકાર કરતું નથી सू० ७६ For Private And Personal Use Only Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुभकृताङ्गले अपि च-शीतोदकोपभोगेन सिद्धिमिच्छतां मतं निराकृत्याऽनन्तरं ये तेजस्कायविराधनेन सिद्धि प्रतिपादयन्ति, तन्मतं निराकर्तुमाह-'हुएण जे सिद्धि इत्यादि। भूम-हएण जे सिद्धि मुंदाहरंति सायं च पायं अगणि फुसंता। एवं सिया सिद्धि हवेज तम्हा अगणिं फुसंताण कुकैम्मिपि ॥१८॥ छाया- हुतेन ये सिद्धि मुदाहरन्ति सायं च प्रातरग्नि स्पृशन्तः। एवं स्यात् सिद्धि भवेत् तस्मादग्नि स्पृशतां कुकर्मिणामपि ॥१८॥ कीचड़ से कीचड़का धुलना न किसी शास्त्र से सिद्ध है, न अनुभव से ही । इसी प्रकार पाप से पाप का विनाश होना संभव नहीं है ॥१७॥ . सचित्त जल के उपयोग से सिद्धि मानने वालों के मत का निराकरण करके अब जो अग्निकाय की विराधना से सिद्धि का कथन करते हैं उनके मत का प्रतिषेध करते हैं-'हुएण जे' इत्यादि। .. शब्दार्थ-सायं च पायं अगणिं फुसंता-सायं च प्रातः अग्नि स्पृ. शन्तः' सायंकाल एवं प्रातः काल अग्नि का स्पर्श करते हुए 'जे-ये' जो लोक 'हुएण सिद्धि मुदाहरति-हुतेन सिद्धिमुदाहरन्ति' होम करने से मुक्ति की प्राप्ति कहते हैं वे भी असत्यवादी ही है कारण की एवं सिया सिद्धि-एवं स्यात् सिद्धिः' यदि अग्नि के सेवन से सिद्धि मिले तो 'अगणि फुसंताण कुकम्मिणं पि हवेज्ज-अग्नि स्पृशतां * અને અનુભવથી પણ એ વાત સિદ્ધ થતી નથી. એ જ પ્રમાણે પાપથી પાપનું નિવારણ થવાનો સંભવ નથી. ગાથા ૧ળા : સચિત્ત જલને ઉપભેગ કરવાથી સિદ્ધિ પ્રાપ્ત થાય છે, એવું માનનાશ લોકોના મતનું નિવારણ કરવામાં આવ્યું. હવે અગ્નિકાયની વિરાધનાથી-હેમ હવન કરવાથી મોક્ષ મળે છે. એવું માનનારા લેકના મતનું सूत्रधार उन ४ छ 'हुएण जे' त्या vt-'सायं च पायं अगणि फुसंता-सायं च प्रातः अग्निं स्पृशन्तः' સાયંકાલ અને પ્રાતઃકાલ અગ્નિને સ્પર્શ કરતાં કરતાં “-” જે લેકે दुषण विद्धिमुदाहरंति-हुतेन सिद्धिमुदाहरंति' म ४२वायी भुति प्राप्त सानु छ, तभी ५५ मसत्यवाही । छे. २०१४-एवं मिया सिद्धिएवं स्यात, सिद्धिः' ने मनाना सेवनयी सिद्धि भणे तो 'गणि फुसंताण कम्मिमपि इवेज-अग्नि स्पृशता, कुकर्मिणामपि भवेत' निन। २५२३ ४२१। For Private And Personal Use Only Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 'समयार्थबोधिनी रीका मे. श्रु. अ. ७ उ.१ कुशीलवतां दोषनिरूपणम् अन्वयार्थ:--(सायं च पायं अगर्गि फुसंता) सायंकाले प्रातः प्रभातकाल अग्नि स्पृशन्तः अग्निहोत्रादिकं कुर्वन्तः (जे) ये (हुएण सिद्धि मुदाहरन्ति) हुन इवनेन सिद्धि मोक्षमुदाहरंति कथयन्ति तेऽपि मृषावादिन एव यतः (एवं सिया सिद्धि) एवं हुतेन यदि सिद्धि मोक्षः स्यात् भवेत् तदा (अगणि फुसंताण कुकम्मिणपि हवेज्ज) अग्नि स्पृशतां कुकर्मिणाम् अङ्गारदाहककुंभकारादीनामपि सिद्धिर्भवेदिति ॥१८॥ टीका-'जे' ये पुरुषाः 'हुएण' इवनेन ‘अग्निहोत्रं जुहुयात्स्वर्गका एतादृशविधिवाक्यमनुरुध्य, अगौ हवनीयघृतादीनां प्रक्षेपात्मकयागद्वारेण' "सिद्धिमुदाहरंति' सिद्धि प्रतिपादयन्ति । यद्यपि-अग्निहोत्रं जुहुयात् इति विधिकुकर्मिणामपि भवेत्' अग्नि का स्पर्श करनेवाले कुर्मियों को भी मोक्ष मिलजाय अर्थात् कुंभकार आदि को भी मोक्ष प्राप्तिहोजाय ॥१८॥ ... अन्वयार्थ--सायंकाल और प्रातः काल अग्नि का स्पर्श करने वाले अर्थात् होम आदि करने वाले जो लोग होम से सिद्धि मानते हैं, वे भी मृषाभाषी हैं। क्यों कि इस प्रकार से यदि सिद्धि हो तो अग्नि का स्पर्श करने वाले कुकर्मियों को भी सिद्धि प्राप्त हो जाएगी॥१८॥ ___टोकार्थ--कोई कोई लोग 'अग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकाम:' अर्थात् स्वर्ग का अभिलाषी अग्निहोत्र करे इस प्रकार के विधियों की प्रेरणा से, हवन के द्वारा अर्थात् हवन करने योग्य घी आदि को अग्नि में प्रक्षेप करने रूप यज्ञ के द्वारा सिद्धि प्राप्त होना कहते हैं । 'यद्यपि अग्निવાળા કુકમિને પણ મોક્ષ મળી જાત અર્થાત કુંભાર વિગેરેને પણ મેક્ષની પ્રાપ્તિ થઈ જાય છે ૧૮ છે સત્રાર્થ-જે લેકે એવું કહે છે કે સાયંકાળે અને પ્રાત:કાળે અનિને સ્પર્શ કરવાથી એટલે કે હોમ હવન કરવાથી મોક્ષ મળે છે, તે લેકે પણ મૃષાભાષી છે, કારણ કે આ પ્રકારે જે મોક્ષ મળતો હોય, તે અગ્નિને સ્પર્શ કરનારા કુકમી એને (પાપીઓને) પણ મેક્ષ મળતો હવે જોઈએ. ૧૮ -'अग्निहोत्र जुहुयात् स्वर्गकामः' ५५ प्राप्त ४२ हाय तो અગ્નિહોત્ર કરો આ પ્રકારનાં વિધિ વાથી પ્રેરિત થઈને કેટલાક લેકે હોમ હવન દ્વારા એટલે કે અગ્નિમાં આહુતિ આપતા એગ્ય ધી આદિ દ્ધા ને અગ્નિમાં હેમીને અથવા તે પદાર્થને અગ્નિમાં હોમવા રૂપ યજ્ઞ દ્વારા અગ્નિનું યજન કરવાથી સિદ્ધિ પ્રાપ્ત થાય છે. એવું માને છે. જો કે For Private And Personal Use Only Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३०४ संत्रकृताङ्गसूत्रे माक्यम्, अग्निहोत्राख्यकर्मणा स्वर्गमाप्तिमेव वदन्ति न तु मोक्षम् । यतो हि 'मोक्षस्य तन्मतेऽविधेयत्वात्, तस्य कर्मजन्यत्वाऽभावात, । तथापि-निष्कामतया क्रियमाणमग्निहोत्रादिकं मोक्षं प्रयोजयतीति मीमांसकमतमाश्रित्य प्रतिपादितमिति न कोऽपि विरोधः। किं कुर्वन्त एवमुदाहरन्ति तत्राह-सायंचेत्यादि, 'सायं सायंकाले 'पाय' मात: मातःकाले 'अगणि' अग्निम् 'फुसंता' स्पृशन्तः, 'सायं प्रातर्विधिवत् संस्कृताग्नौ हवनीयद्रव्याहुतेः प्रक्षेपं कुर्वन्तः 'एवं' एवं तर्हि 'सिदि' सिद्धि मोक्षः 'सिया' स्यात्, भवेच्चेत् यदि संस्कृते समिद्धतमेऽग्नौ हविःप्रक्षेपान्मुक्तिमिलेत् तदा 'अगणि' अग्निम् (फुसंताणं' स्पृशताम् 'कुकम्मिणंपि' होत्र जुहुयात् स्वर्गकामः' यह वाक्य अग्निहोत्र कर्म से स्वर्ग की प्राप्ति ही प्रतिपादित करता है, मोक्षपाप्ति का विधान नहीं करता, क्योंकि उनके मत में मोक्ष विधेय नहीं है। वह कर्मजन्य नहीं है। तथापि निष्कामभाव से किया जाने वाला अग्निहोत्र आदि कर्म मोक्ष का प्रयोजक होता है, ऐसा मीमांसकों का मत है। इस मत को लक्ष्य करके यहाँ प्रतिपादन किया गया है। अतएव कोई विरोध कहीं समझना चाहिए। क्या करते हुए वे ऐसा कहते हैं ? इसका उत्तर यह है कि सायंकाल और प्रातः काल अग्नि का स्पर्श करते हुए। सायंकाल प्रातः कालीन विधि से संस्कृत अग्नि में द्रव्य की आहुति का प्रक्षेप करते हुए वे ऐसा कहते हैं। किन्तु ऐसा करने से यदि मुक्ति मिलती 'अग्निहोत्र जुहुयात् स्वर्गकामः' मा वाध्य २५ मे प्रतिपादन ४२. વામાં આવ્યું છે કે અગ્નિહોત્ર કર્મ દ્વારા સ્વર્ગની પ્રાપ્તિ થાય છે. મોક્ષની પ્રાપ્તિ થાય છે, એવું પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું નથી, કારણ કે તેમના મતમાં મેક્ષ વિધેય નથી. તે કર્મજન્ય નથી છતાં પણ મીમાંસકને એ મત છે કે નિષ્કામભાવે કરવામાં આવતું અગ્નિહોત્ર આદિ કર્મ મેક્ષનું પ્રયોજન હોય છે. તે મતને અનુલક્ષીને અહીં ઉપર મુજબ પ્રતિ પાંદન કરવામાં આવ્યું છે. તેથી હેમ હવન આદિ દ્વારા મોક્ષની પ્રાપ્તિ थाय थे,' येवो 'अग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्ग कामः' मा सूत्रने ५ ४२वामा કે વિરોધ સમજવો જોઈએ નહીં. શું કરતાં કરતાં તેઓ એવું કહે છે ? આ પ્રશ્નનો ઉત્તર આ પ્રમાણે છે–પ્રાતકાળે અને સાયંકાળે અગ્નિને સ્પર્શ કરતાં તેઓ એવું કહે છે એટલે કે પ્રાતઃકાળે અને સાયંકાળે સંસ્કૃત અગ્નિમાં ઘી, જવ આદિની For Private And Personal Use Only Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - सैमयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ७ उ.१ कुशीलवतां दोषनिरूपणम् १०५ कार्मिणामपि अंगारदाहककुंभकारलौहकारादीनामपि सिद्धि भवेत् । अयं भावः-यदि अग्निसंस्पर्शनादेव मोक्षः सिध्यति, तदा-अंगारदाइकुशल कुंभकाराऽयस्करादीनामपि अनायासेन मोक्षः सिद्धयेत् । न च ते न संस्कृतेऽग्नौ प्रतिमाऽऽहुतिः, आस्तेषान्नमुक्ति । संस्कृते एवाऽग्नौ जुहुयादिति मदीयशास्त्रमर्यादा, इति वाच्यम् । यथा याजका अग्नौ हानीयं द्रव्य पक्षिप्य भस्मसानयंति, तेऽपि कुंभकारादयस्तथैवाचरन्तीति ततो (याज कात्) द्वयोविशेषाऽभावः। कुम्भकारामस्कारादीनां वैदिकानां च समानत्वात् । यदप्युच्यते 'अग्निमु वा वै देवाः' इत्यहो तो अग्नि का स्पर्श करने वाले, अंगारदाहक कुंभकार, लोहकार आदि कुकर्मियों को भी सिद्धि मिल जानी चाहिए। . ___अभिप्राय यह है-अग्नि के स्पर्श मात्र से मोक्ष प्राप्त हो जाताई तो अंगार जलाने वाले कुंभारों आदि को भी अनायास ही मोक्ष प्राप्त हो जाना चाहिए। शंका-कुंभार लुहार आदि संस्कृत अग्नि में आहुति प्रक्षेप नहीं करते, अतएव उन्हें मुक्ति नहीं मिलती । हमारे शास्त्र की मर्यादा यह है कि संस्कृत अग्नि में ही होम किया जाय । समाधान--जैसे यज्ञकर्ता अग्नि में होमने योग्य घृतादि द्रव्य का प्रक्षेप करके उसे भस्म करदेते हैं, उसी प्रकार कुंभार आदि भी करते हैं। अतएव यज्ञाता और कुंभार आदि में कोई विशेषता नहीं है। આતિ આપીને અગ્નિ હિત્ર કર્મ કરવાથી મોક્ષ મળે છે. પરંતુ જો એવું કરવાથી મોક્ષ મળતું હોય, તે અગ્નિને સ્પર્શ કરનારા અંગાર દાહક કુંભાર, લુહાર આદિ કુકર્મીઓને પણ સિદ્ધિની પ્રાપ્તિ થઈ જવી જોઈએ. તાત્પર્ય એ છે કે અગ્નિને સ્પર્શ કરવા માત્રથી જ જે મોક્ષ મળી જતે હેય, તે અગ્નિ સળગાવનાર કુભાર, આદિને પણ અનાયાસે જ મેક્ષ પ્રાપ્ત થઈ જ જોઈએ. શંકા-કુંભાર, લુહાર અદિ સંસ્કૃત અગ્નિમાં આહુતિ આપતા નથી, તેથી તેમને મુક્તિ મળતી નથી અમારા શાસ્ત્રની એવી મર્યાદા છે કે સંસ્કૃત અગ્નિમાં જ હેમ કરી જોઈએ. સમાધાન–જેવી રીતે યકર્તા અગ્નિમાં હેમવા યોગ્ય ઘી આદિ દ્રવ્યોને પ્રક્ષેપ કરીને તેમને ભસ્મ કરી નાખે છે, એ જ પ્રમાણે કુંભાર આદિ પણ કરે છે. તેથી યજ્ઞકર્તા અને કુંભાર આદિમાં કઈ વિશેષતા નથી. For Private And Personal Use Only Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूकतानि ग्नौ घृतादीनां प्रक्षेपे देवास्तुष्यन्ति तदपि न युक्तम्, यदि देवानां मुखमग्नि स्तदा, यथा तत्र प्रक्षिप्तान् घृतादीन् देवा भक्षयन्ति, मक्षयिष्यन्त्येवाऽशुचि. पदार्थानपि मुखे अग्नौ प्रति तान् । ततो मन्ये कुपिताः भवेयुः । किंचाऽसंख्याता देवार, बहूनां मुखैकेन भोजनं न सम्भाव्यते, इत्यं क्वाप्यदृष्टत्वात् । कथमे केनमुखेन पदार्थान् भुजेरन्निति। तस्माधाझिकानां प्रलापोऽयम् यदग्नौ प्रक्षेपान्मुक्तिरिति ॥१८॥ जैसे वैदिक अग्निकर्म करते हैं, उसी प्रकार वे भी करते हैं, दोनों में समानता है। ____'अग्निमुखा वै देवाः' अर्थात् देवों का मुख अग्नि है, इस कथन के अनुमार अग्नि में घृत आदि का प्रक्षेप करने से देवों की तुष्टि होती है, यह कथन भी युक्तियुक्त नहीं है। यदि देवों का मुख अग्नि है तो अग्नि में प्रक्षिप्त किये हुए घुन आदि का देव भक्षण करते हैं, उसी प्रकार अग्नि में प्रक्षिप्त अशुचि पदार्थों का भी वे भक्षण करेंगे! ऐसा करने से वे कुपित भी हो जाएँगे! इसके अतिरिक्त देव असंख्यात हैं। बहुतेरे देवता एक ही मुख से भोजन करें, यह संभव नहीं है। ऐसा कहीं देखा भी नहीं जाता। आखिर एक ही मुख से अनेक देव किस प्रकार पदार्थों को खाएँगे? अतएव अग्नि में प्रक्षेप करने से मुक्ति होती है, यह याज्ञिकों (मीमांसकों) का प्रलाप मात्र ही है ॥१८॥ જેવી રીતે વૈદિક ધર્મને માનનારા લેકે અગ્નિકર્મ કરે છે. એ જ પ્રમાણે તેઓ (કુંભાર આદિ પણ કરે છે તેથી બનેમાં સમાનતા છે. 'अग्निमुखा वै देवाः' मेटले देवान भुम अनि छ,' आयन અનુસાર અગ્નિમાં ઘી આદિની આહુતિ આપવાથી, દેવેની તુષ્ટિ થાય છે હે પન થવાથી રીઝે છે), આ કથન પણ યુક્તિયુક્ત લાગતું નથી. જે - દેવનું મુખ અગ્નિ હોય, તે જેવી રીતે અગ્નિમાં નાખવામાં આવેલ ધી આદિતું દેવે ભક્ષણ કરે છે, એ જ પ્રમાણે અગ્નિમાં હેમવામાં આવેલ અશુચિ (अशुद्ध) पहायानु५५ ते लक्ष ४२al ed ! मे ४२पाथी तो पाय. માન પણ થતા હશે ! વળી દેવો તે અસંખ્યાત છે. તે અસંખ્યાત દેવો એક જ મુખ વડે ભેજન કરતા હોય, એવું સંભવી શકે નહીં. એવું કયાંય જોવામાં આવ્યું નથી. એક જ મેઢા વડે અનેક દેવો કેવી રીતે પદાર્થોને ખાતા હશે? તેથી એવું માનવું પડશે કે “અગ્નિમાં ઘી આદિની આહુતિ આપવાથી મોક્ષ મળે છે, એવી યાજ્ઞિકની મીમાંસકેની) માન્યતા ખરી નથી પણ મિથ્યામલાપ રૂપ જ છે. ગાથા૧૮ For Private And Personal Use Only Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सार्थबोधिनी टीका प्र. भु. अ. ७ ड. १ कुशीलवतां दोषनिरूपणम् ६०७ पार्थक्येन कुशीळानां मतान्युक्तानि, अतः परं सामान्येन तेषामपररीत्या निराकर्तुमाह - 'अपरिवख' इत्यादि । मूलम् - अपरिक्ख दिट्ठे हु सिद्धी एहिंति ते घायमर्बुजमाणा । भूपहिं जाणं पंडिलेह सातं विजं गहाय तसथावरेहिं । १९ । छाया -- अपरीक्ष्य दृष्टुं नैत्रं सिद्धि रेष्यन्ति ते घातमबुद्ध्यमानाः । भूतैर्जानीहि प्रत्युपेक्ष्य सातं विद्यां गृहीत्वा सस्थावरैः ॥ १९ ॥ पृथक पृथक रूप से कुशीलों के मत का दिग्दर्शन कराया गया । इसके बाद दूसरे प्रकार से सामान्य रूप से उनका निराकरण करते हैं— 'अपरिक्ख' इत्यादि । शब्दार्थ- 'अपरिक्ख दिहूं-अपरीक्ष्य दृष्टम्' जलावगाहन और अग्नि होत्र आदि से सिद्धि माननेवाले लोगों ने बिना परीक्षा ही इस सिद्धान्त को स्वीकार कर लिया है 'गहु सिद्धी-न एवं सिद्धि:' इस प्रकार से सिद्धि नहीं मिलती है 'अबुज्झमाणा ते घायं एहिति अबुद्धयमानाः ते घातमेष्यन्ति' यथार्थ वस्तुतत्वको न समझने वाले वे लोग संसार को प्राप्त करेगे 'विज्जं गहाय-विद्यां गृहीत्वा' ज्ञानको ग्रहण करके 'पडिलेह - प्रत्युपेक्ष्य' और विचार करके 'तसथावरेहिं भूएहिं - सस्थावरैः मूतैः' त्रस और स्थावर प्राणियों 'सातं - सातं' सुख की इच्छा 'जाणं - जानीहि ' जानो ॥ १९ ॥ અલગ અલગ રૂપે કુશીલધી એના મતનું નિરૂપણ કરીને તેનું ખંડન કરવામાં આવ્યું. હવે સામાન્ય રૂપે તેમના મતનું નિરાકર (ખંડન) श्वामां आवे छे- 'अपरिक्ख' त्याहि शब्दार्थ' – 'अपरिक्ल दिट्ठ-अपरीक्ष्य दृष्टम्' बसावगाहुन भने अग्नि હૈત્ર વિગેરેથી સિદ્ધિ માનવાવાળા ઢાકામ વિના વિચાર્ય' જ મા સિદ્ધાન્તના स्वी४२४ छे. 'गहु सिद्धी-ण एवं सिद्धि:' मा होते सिद्धि प्राप्त थती नथी. 'अबुझमाणा ते घायं पहिति - अबुध्यमानाः ते घातमेव्यन्ति' यथार्थ १तत्वने न सभवावाजा थे बोडो संसारने प्राप्त ४२. 'बिब्जं गहाय-विद्यां 'गृहीत्वा' ज्ञानने श्रथ उरीने 'पडिलेह - प्रत्युप्रेक्क्ष्य' मने विचार मरीने 'तसथावरेहिं भूएहि -स्थावरैः भूतैः' त्रस भने स्थावर आशियोमा 'सातं - बासं' gull fyi 'art-amfe' mğı. 11941 For Private And Personal Use Only Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताह अन्वयार्थ :--(अपरिक्ख दि8) अपराक्ष्य युक्तिविकलं दृष्टमेतत् (गहु सिद्धी) नहि जलावगाहनेन ग्निहोत्रेण च सिद्धि मोक्षो भवति (अबुज्झमाणा ते घायं एहिति) अबुद्ध यमाना वस्तुतत्त्रमजानन्तः ते वादिनः घातं संसारमेष्यन्ति प्राप्स्यन्ति (विज्ज गहाय) विधां गृहीत्वा ज्ञानमासाद्य (पडिलेहा) प्रत्युपेक्ष्य-विचार्य (तसथावरेहिं भूएहि) सस्थावरः भूतैः प्राणिभिः प्रसस्थावरेषु माणिषु (सात) सातं सुखं (जाणं) जानीहीति ॥१९॥ टीका--'अपरिक्व दिह' अपरीक्ष्य दृष्टम् जलाऽवगाहनाऽग्निहोत्रादिभ्यो मोक्षो भवतीति मन्यमानाः तादृशपापकं शास्त्रमपरीक्ष्यैव स्वीकृतवन्तः 'गहु' नैव-सिद्धि मोक्षः, पूर्वोक्तमकारेग जलाऽगाहनादिना कथमपि संभवेन् । पूर्वोक्तकर्मणां हिंसा बाहुल्यात् । 'अबुज्झमाणाते' अबुद्धयमानाः पराथमबुद्धयमानाः मागिवधादिना जायमानं पापमेव धर्मबुद्धया. कुस्ते-वादिनः। 'घायं' घातम्-धात्य अन्वयार्थ-जल में अवगाहन कहने से मोक्ष होता है, इत्यादि पूर्वोक्त मन्तव्य विना परीक्षा किये ही स्वीकार किया गया है। वस्तु तत्व को न जानते हुए वे वादी घात को अर्थात् संसार को प्राप्त करेंगे । सम्यग्ज्ञान को प्राप्त करके और भलीभाँति विचार करके यह समझो कि त्रस और स्थावर प्राणियों में भी सुख की अभिलाषा होती है ॥१९॥ टीकार्थ--जल में अवगाहन करने से या अग्निहोत्र करने से सिद्धि प्राप्त होती है, ऐसा मानने वालों ने इस प्रकार की प्ररूपणा करने वाले शास्त्र को परीक्षा किये विना ही स्वीकार किया है। ऐसा करने से सिद्धि प्राप्त नहीं हो सकती, क्यों कि ये जलागाहन आदि कर्म हिंसा સૂત્રાર્થ-જલનાન, હમ હવન આદિ કરવાથી મોક્ષ પ્રાપ્ત થાય છે.” આ પ્રકારના મન્તવ્યને કેટલાક લેકે પૂરી કસોટી કર્યા વિના સ્વીકાર કરે છે. વસતતવના ખરા સ્વરૂપને નહી સમજનાશ તે પરમતવાદીઓ સંસારમાં પરિભ્રમણ કર્યા કરે છે. સમ્યજ્ઞાનની પ્રાપ્તિ કરીને અને સૂક્ષમ વિચાર કરીને વાત બરાબર સમજી લેવી જોઈએ કે બસ અને સ્થાવર જીવોમાં પણ સુખની અભિલાષા હોય છે. ૧૯ - ટીકાથ-જલમાં અવગાહન કરવાથી તેની અદિના પાણીમાં ખાન કરવાથી અથવા અગ્નિહોત્ર કર્મ કરવાથી સિદ્ધિ પ્રાપ્ત થાય છે, એવી માન્યતા ધરાવનારા લોકોએ આ પ્રકારની પ્રરૂપણ કરનારાં. શાસ્ત્રોની પરીક્ષા કર્યા વિના જ આ માન્યતાઓને સ્વીકાર કર્યો હોય છે. પરંતુ એવું કરવાથી સિદ્ધિની પ્રાપ્તિ થતી નથી, કારણ કે જળના આદિ કાર્યો દ્વારા જીવોની હિંસા For Private And Personal Use Only Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. म.७ इ. १ कुशीलवतां दोषनिरूपणम् ६०९ न्ते निःश्यन्ते जीवा अस्मिन्निति घातः संसार: चातुर्गतिका, समारम् । ते 'एहिति' एष्यन्ति प्राप्स्यन्ति । अप्कायतेजस्कायजीवानामुपमर्दैन तेषां जीकानों विनाशोऽश्यंभावी । विनाशेन तेषां वधिकादीनां संसार एव स्यात् सिद्धिस्तु कथमपि न भविष्यतीत्यभिपायः। यस्मादेवं तस्मात् 'विज विद्यां ज्ञानं सदसद्धि चाररूपं 'पढमं नाणं' इतिवचनात् 'गहाय' गृहीत्वा तसथावरेहि त्रसस्थावरभूतैः कथमिदानी मुखं पाप्यते इति 'पडिलेह' प्रत्युपेक्ष्य 'जाण' जानीहि अबबुदयस्व । सर्वेऽपि प्राणिनः सुखमिच्छन्ति द्विपन्ति च दुःखम् , ततः केन प्रकारेण तेषां जीवानां सुखाणिनां दु: खोत्पादकेन कर्मणा सुखोत्पत्तिः? न स्यात्कथमपि सुखम् , की बहुलता वाले हैं। जो परमार्थ को नहीं जानते और धर्मवुद्धि से प्राणातिपात आदि पापों का आचरण करते हैं, वे घात को प्राप्त होते हैं। जिसमें प्रागीघात को प्राप्त होते हैं, ऐसा चतुर्गतिक संसार 'घात' कहलाता है। वे उसी को प्राप्त होते हैं । अप्रकाय और तेजस्काय के जीवों के उपमर्दन से उनका विनाश ओता है और जीवधिनाश से विनाशकों को संसार भवभ्र प्रण ही होता है प्तिद्धि किसी भी प्रकार प्राप्त नहीं हो सकती अतएव विद्वान पुरुष इस बातका विचार करे कि त्रस और स्थावर जीव किस प्रकार सुख प्राप्त कर सकते हैं? ऐसा विचार करके जाने कि सभी जीव सुख की इच्छा करते हैं और दुःख से द्वेष करते हैं । क्यों कि दुःख अप्रिय है फिर दुःखजनक कार्य से उनको सुख की प्राप्ति किस प्रकार हो सकती है? થાય છે. જેઓ પરમાર્થને (વસ્તુતત્વને જાણતા નથી અને ધર્મબુદ્ધિથી પ્રાણાતિપાત આદિ પાપકર્મો કરે છે, તેઓ ઘાતને પ્રાપ્ત કરે છે, એટલે કે સંસારમાં પરિભ્રમણ કર્યા કરે છે. જેમાં પ્રાણી ઘાતને પ્રાપ્ત કરે છે, એવા ચતર્ગતિક સંસારને “ઘાત” કહેવાય છે. અપકાય અને તેજસ્કાયના જીવન ઉપમર્દનથી તેમને વિનાશ થાય છે, અને જીવને વિનાશ કરનારને (વિનાશકને) સંસારમાં ભવભ્રમણ જ કરવું પડે છે, જીવહિંસા કરનારને સિદ્ધિ કોઈ પણ પ્રકારે પ્રાપ્ત થતી નથી. તેથી વિદ્વાન પુરુષે એ વાતને વિચાર કરવો જોઈએ કે ત્રસ અને સ્થાવર જ કયા પ્રકારે સુખ પ્રાપ્ત કરી શકે છે. બુદ્ધિશાળી પુરુષોએ એ વાત સમજવી જોઈએ કે સઘળા જીવે સંખની ઈચ્છા રાખે છે, કેઈને દુખ ગમતું નથી. દુખ પ્રત્યે તેઓ દ્વેષ ભાવની દષ્ટિએ દેખે છે. જે તેમને દુખ અપ્રિય હોય તે તેમને દુખમી ઉત્પન્ન થાય એવું કાર્ય કરવાથી સુખની પ્રાપ્તિ કેવી રીતે થઈ શકે તાપી For Private And Personal Use Only Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे - ये अग्निहोत्रेण जलावगाहनेन वा मुक्ति प्रतिपादयन्ति, न ते परिपश्यन्ति, सम्वत पमिन भवति सिद्धिः कर्मभिः अत इमे बुद्धिविकलाः सकलाः संसारमेवासारं प्राप्स्यन्त्येमिः क्रियाकलापैः। अतो ज्ञानमवाप्प सस्थावरभूतेष्वपि सुखाssकांक्षित्वं विचार्य नैतेषामुपमर्दनाय कदापि प्रयत्नो विधेय इति भावः ॥१९॥ ये पुनः कुशीला अशीलाश्च प्राणिनां हिंसया सुखमिच्छन्ति ते संसारे बक्ष्यमाणप्रकारेण दुःखमेवाऽनुभवन्तीति दर्शयति सूत्रकारः-'थति' इत्यादि । मूलम्-थणंति लुप्पंति तस्संति कम्मी पुढो जगा परिसंखाय भिक्खू। तम्हा विऊ विरंतो आयगुत्ते तसे या पडिसंहरेज्जा ॥२०॥ छाश-स्तनंति लुप्यन्ते त्रसन्ति कर्मिणः पृथक् जगाः परिसंख्याय भिक्षुः । तस्माद्विद्वान् विरत आत्मगुप्तो दृष्ट्वा सांश्च प्रतिसंहरेत् ॥२०॥ आशय यह है कि जो अग्निहोत्र या जल में स्नान करने से मोक्ष मानते हैं, वे नहीं जानते कि इन कार्यों से मुक्ति नहीं मिलती अतएक ये सब बाल जन अपने कार्यों से असार संसार को ही प्राप्त करेगें। अतएव ज्ञान प्राप्त करके और त्रप्त एवं स्थावर जीवों में भी सुख की अभिलाषा है, ऐसा विचार करके उनके उपमर्दन (विराधना) की कभी प्रवृत्ति नहीं करनी चाहिए ॥१९॥ ____ जो कुशील या अशील पुरुष प्राणियों की हिंसा करके सुख की इच्छा करते हैं, वे आगे कहे अनुसार संसार में दुःख काही अनुभव કે અગ્નિહોત્ર કર્મ અથવા જળસ્નાન કરવાથી મોક્ષ મળે છે, એવું માનનારા અજ્ઞાની લોકે એ વાત જાણતા નથી કે તે કાર્યો વડે મુક્તિ મળતી નથી. તેથી તે સઘળા બાલ જ (અજ્ઞાન લોકો) પિતાનાં જ પાપકર્મોને પરિણામે આ અસાર સંસારમાં જ ભ્રમણ કર્યા કરશે. તેથી જ્ઞાન પ્રાપ્ત કરીને અને બસ અને સ્થાવર જીવોને પણ સુખ વહાલું છે, એ વિચાર કરીને તેમની વિરાધના થાય એવી પ્રવૃત્તિ કરવી જોઈએ નહીં. ગાથા ૧૯ - જે કુશીલ અથવા અશીલ પુરુષે પ્રાણીઓની હિંસા કરીને સુખની ઈચ્છા કરે છે, તેઓ હવે પછીના સૂત્રમાં બતાવ્યા પ્રમાણે સંસારમાં દુઃખને For Private And Personal Use Only Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इ. १ कुशी (कम्मी गति समयार्थबोधिनी टीका प्र. . अ.७ उ. १ कुशीलवतां दोषनिरूपणम् ६१ __ अन्वयार्थः-- (कम्मी जगा) कर्मिणः सपापाः जन्तवः (पुढो) पृथक् पृथक (वणंति) स्तनंति रुदन्ति (लुप्पंति) लुप्यन्ते खड्गादिना छिद्यन्ते (संति) व्यस्य न्ति-भयत्रस्ताः पलायन्ते (तम्हा) तस्मात् कारणात् (विऊभिक्खु) विद्वान भिक्षुः (विरतो) विरतः पापानुष्ठानात् (मायगुत्ते) आत्मगुप्त:-मनोवाकायगुप्तः (तसे य दडं) प्रसान् स्थावरांश्व दृष्ट्वा परिज्ञाय (पडिसंहरेजा) माणिविरा धनातो निवृत्तो भवेदिति॥२०॥ करते हैं, यह दिखलाते हुए सूत्रकार कहते हैं-'थणंति' इत्यादि। शब्दार्थ-'कम्मी जगा-कर्मिणः जन्तवः' पाप कर्म करनेवाले प्राणी 'पुढो-पृथकू' अलग अलग थणंति-रतनंति' रोदन करते 'लुप्पंति-लुप्यन्ते' तलवार आदि के द्वारा छेदन किये जाते हैं 'तसंति-- ज्यस्यन्ति' डरते हैं 'तम्हा-तस्मात्' इसलिये 'विउ भिक्खू-विज्ञान भिक्षुः विद्वान् मुनि 'विरतो-विरतः पाप से निवृत्त 'आयगुत्ते-आत्मगुप्तः' तथा आत्मा की रक्षा करने वाला वने 'तसे य दर्छ-त्रासांच दृष्ट्वा स और स्थावर प्राणी को देख कर 'पडिसंहरेज्जा-प्रतिसंहरेत्' उनके घातकी क्रिया से निवृत्त हो जाय ॥२०॥ ___अन्वयार्थ--पापी प्राणी रुदन करते हैं, छेदे जाते हैं, त्रास पाते हैं, इस कारण विद्वान्, पाप से विरत एवं आत्मगुप्त पुरुष प्रस और स्थावर जीवों को जानकर जीवहिंसा से निवृत्त हो जाय ॥२०॥ જ અનુભવ કરે છે. એ વાત બતાવવાને માટે સૂત્રકાર કહે છે કે'थणंत्ति' त्या va-'कम्मी जगा-कर्मिणः जन्तवः' ५।५ ४ ४२१ प्राणीयो 'पुढो-पृथक्' हा हा 'थणंति-स्तनन्ति' ३४न ४२ छे. 'लुप्पति-लुप्यन्ते' तयार विगरे । छन ४२शय छे. 'तसंति-व्यस्यन्ति त्रास पामेछ. 'तम्हा-तस्मात' तथा 'विउ भिक्खू-विद्वान् भिक्षुः' विद्वान् भुनि 'विरतो-विरतः' पा५या निवृत्त २४ 'आयगुत्ते-आत्मगुप्तः' तथा मामानी ६क्षा ४२१।पापा भने 'तसेय दट्टु-सांश्च-दृष्ट्वा' स भने स्था१२ प्राणी ४२ 'पडिसंहरिज-पतिसंहरेत्' ते साना धातनी याथी निवृत्त 25 गय. ॥ २०॥ સૂત્રાર્થ–પાપી પ્રાણીઓને રુદન કરવું પડે છે, તેમનું છેદન કરાય છે, તેમને ત્રાસ સહન કરવો પડે છે, તે કારણે વિદ્વાન પુરુષે પાપમાંથી નિવૃત્ત થવું, અને આત્મગુપ્ત પુરુષ ત્રસ અને સ્થાવર જીવેને જાણીને જીવહિં. સામાં પ્રવૃત્ત ન થાય અર્થાત્ જીવહિંસાને ત્યાગ કરે. ૨૦ For Private And Personal Use Only Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुत्रकृताङ्गसूत्रे टीका--'कम्मी जगा' कर्मिणो जन्तवः कर्माणि सन्ति येषां ते कर्मिण: जन्मः 'पुढो' पृथक् पृथक् पुरुषाऽधमाः अग्निकार्य विराध्य समस्तपड्जीवनिराधका अग्निहोत्रादिभिः सुखमिच्छन्ति, किन्तु षड्जीवनिकायविराधका amhataria, ते नरकादिगतिं प्राप्य तत्र नरकपालैस्तीव्र वेदनया परिपी"यते । ततोऽसवेदनया संतप्यमानाः 'थणंति' स्वनन्ति, अशरणास्ते करुणमाक्रन्दन्ति । तथा तत्र नरकवालेः शस्त्रादिना 'लुपति' लुध्यन्ते - तीक्ष्णखङ्गादिमि छिद्यन्ते, छेदनादिभिः कदर्थ्यमानास्ते 'तस्संति' प्रस्यन्ते - पलायन्ते ताकद - येनाव्यापारं दृष्ट्वा 'सम्हा' तस्मात्कारणात् 'विऊ भिक्खू' विद्वान् ज्ञानवान् मिक्षुः साधुः, 'परिसंखाय' परिसंख्याय = ज्ञपरिज्ञया ज्ञात्वा अग्न्यारंमं दुर्गतिदाकमिति ज्ञात्वा मत्याख्यानपरिज्ञया परित्यज्य 'विरतो' विरतः - पापानुष्ठानात् टोकार्थ-सकर्मा अर्थात् पापी अधम पुरुष अग्निकाय की विराधना करके छहों कार्यों के विराधक होते हैं। वे अग्निहोत्र आदि से सुख की इच्छा करते हैं किन्तु षट्काय की विराधना से नरक को ही प्राप्त होते हैं और वहाँ परमधार्मिकों द्वारा तीव्र वेदनाएँ देने से पीड़ित होते हैं । वहाँ असह्य वेदनाओं से संतप्न होते हुए रुदन करते हैंकारण होकर करुण क्रन्दन करते हैं । तथा परमधार्मिकों के द्वारा लक्ष्ण खड्ग आदि शस्त्रों से छेदे जाते हैं और छेदे जाने से पीड़ित होकर इधर उधर भागते हैं । अतएव निर्दोष भिक्षा ग्रहण करने वाला साधु ज्ञपरिज्ञा से अग्निकाय के आरंभ को दुर्गतिदायक जानकर प्रत्याख्यान परिज्ञा से त्याग करे । सम्यग्ज्ञानवान्, पाप के अनुष्ठान से ટીકા—સકર્મો પુરુષ અર્થાત્ પાપી અધમ પુરુષ અગ્નિકાય જીવાની વિરાધના કરવામાં પ્રવૃત્ત થઈને છએ નિકાયના જીવેાની વિરાધના કરે છે. તેઓ અગ્નિહોત્ર કર્મ કરીને સુમની ઈચ્છા રાખે છે, પરન્તુ છકાયના જીવાની વિરાધના કરવાને કારણે તેમને નરકગતિમાં જ નારક રૂપે ઉત્પન્ન થવું પડે છે. ત્યાં પરમાધામિક અસુરો તેમને ખૂબ જ યાતનાએ પહોંચાડે છે. ત્યાં અસહ્ય વેઢાનાઓથી ત્રાસી જઇને તેએ રુદન કરે છે-અશરણ દશાને અનુભવ કરતા થકા કરુણાજનક ચિત્કાર અને આક્રંદ કરે છે. પરમાધાર્મિક તીક્ષ્ ખગ આદિ શઓ દ્વારા તેમનું છેદન કરે છે. આ પીડાથી ત્રાસી જઇને તેઓ આમ તેમ નાસ ભાગ કરે છે, પરન્તુ નરકના દુ:ખામાંથી તેઓ છુટકારા પામી શકતા નથી. પ્રાણીએની હિંસાના આ દુઃખપ્રદ ફળને જાણીને, નિર્દોષ શિક્ષા ગ્રહણ કરનાર સાધુએ પરિજ્ઞા વડે અગ્નિકાયના આરભને ફુગ મેં તિદાયક જાણીñ, પ્રત્યાખ્યાન પરિજ્ઞાથી તેના ત્યાગ કરવા જોઈ એ. For Private And Personal Use Only Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org समयार्थबोधिनी टीका प्र. . अं. ७ उ. १ कुशीलवतां दोषनिरूपणम् ६१३ 'आयगुत्ते' आत्मगुप्तः- अनुभाऽनुष्ठानाद= गुप्तो रक्षित आत्मा येन स आत्मगुप्तः, 'मनोवाक्कायैर्गुनः । ' तसे या' असाच च शब्दात् स्थावरांच 'द' दृष्ट्वा परिज्ञाय - तेऽपघात कारिणीं क्रियां 'पडिसंहरेज्जा' प्रतिसंहरेत् = परित्यजेदित्यर्थः ॥ २० ॥ इतः परं स्वयूथिकान कुशीलानुद्दिश्य कथयति सूत्रकारः - 'जे धम्म ' इत्यादि । मूलम् - जे धम्मलद्वं विणिहाय भुंजे वियंडेण साहहु य जे सिणाई । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जे धोवई सयईव वेत्थं अहां से गांगणिस्स दूरे ॥ २१॥ छाया -- यो धर्म लब्धं विनिधाय मुझे विकटेन संहृत्य च यः स्नाति । यो धावति चयति च वस्त्रमथाहुः स नाग्न्यस्य दूरम् ॥२१॥ विरत, मन वचन काय से अपनी आत्मा को अशुभ अनुष्ठान से गोपन करने वाला त्रस और स्थावर जीवों को जान कर उनका उपघात करने वाली क्रिया का त्याग करें ||२०|| इसके पश्चात् स्वयूधिक कुशीलों को लक्ष्य करके सूत्रकार कहते हैं- 'जे धम्म' इत्यादि । V शब्दार्थ - 'जे - यः' जो साधुनामधारी 'धम्मल - धर्मलब्धम्' धर्म से मिला हुआ अर्थात उद्देशक, क्रीत आदि दोषों से रहित आहारका 'विणिहाय - विनिधाय' छोडकर 'भुंजे - भुंक्ते' उत्तम प्रकार का भोजन करता है तथा 'जे-य:' जो साधु 'विघडेण - विकटेन' अचित्त जलसे भी સભ્યજ્ઞાનથી યુક્ત, પાપના અનુષ્ઠાનથી વિરત (નિવૃત્ત) અને મન, વચન અને કાયાથી પાતાના આત્માનુ' અશુભ અનુષ્ઠાનથી ગાપત કરનાર (આત્મ ગુપ્ત પુરુષ) ત્રસ અને સ્થાવર જીવાને જાણીને તેમના ઉપઘાત (હિ'સા) કર નારી ક્રિયાઓના ત્યાગ કરે. ારના હવે સૂત્રકાર સ્વયૂથિક કુશીલાને અનુલક્ષીને આ પ્રમાણે ઉપદેશ આપે छे- ' जे धम्म ' इत्याहि , शब्दार्थ' – 'जे - ये' ने साधु नाम धारी 'धम्मलद्ध' - धर्मलब्धम्' धर्म थी भणेसा अर्थात् उद्देश, डीत, विगेरे दोषो विनाना भाडारने 'विणिहायविनिधाय' छोडीने 'भुंजे भुंक्ते' उत्तम प्रारनं लोभन उरे छे, तथा 'जे-ये' > साधुये। 'बियडे - विकटेन' अथित्त भणथी या ' साइड - संहृत्य' म'गोलु For Private And Personal Use Only Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रता - अन्वयार्थ:--(जे) यः साधुः (धम्मलदं) धर्मलब्धम्-दोषरहितमाहारम् (विणिहाय) विनिधाय (भुंजे) मुले (जे) यः-भिक्षुः (वियडेग) विकटेन-अचिर्स जलेनापि, (साहटु) संहृत्यांगान्यपि (सिणाइ) स्नाति-देशसर्वस्नानं करोति (ज) यः (धोबई) धावति-वस्त्रं पादौ वा (लूसयइ वत्थं) च पुनः वस्त्रं स्वकीयं लूपयति शोभार्थ दीर्घ वस्त्रं इस्वं करोति इस्वं वा दीर्घ करोति (आहाहु) अथाहुः तीर्थकरगणधरादय आहुः कथयन्ति (से णागणियस्स दूरे) स एतादृशव्यवहारवान् नान्यस्य निर्ग्रन्थमावस्य दूरे वर्तते इति ॥२१॥ 'साइटु-संहृत्य' अंगो को संकोच करके भी 'सिणाइ-स्नाति' स्नानकर ता है तथा 'जे-य:' जो 'धोवई-धावति' अपने वस्त्र अथवा पैर आदि को धोता है 'लूसयई वत्थं-लूषयति च वस्त्रम्' और शोभा के लिए बडे वस्त्र को छोटा अथवा छोटे वस्त्र को वडा करता है 'अहाहु-अथाहुः' तीर्थकर तथा गणधरों ने कहा है कि 'से नागणियस्स दूरे-स नाम्यस्य दरे' वह संयम मार्ग से दूर है ॥२१॥ ___ अन्वयार्थ--जो साधु धर्मलब्ध अर्थात् निर्दोष आहार को रखकर सनिधि करके अर्थात् संचित कर पीछेसे भोगता है, तथा जो अचित्त जल से भी स्नान करता है, वस्त्र या पैरों को धोता है, जो शोभा के लिए लम्बे वस्त्र को छोरा या छोटे को लम्बा करता है, वह निर्ग्रन्यभाव से दूर रहता है, ऐसा तीर्थकर और गणधर कहते हैं।२१। सायन श२ प 'सिणाइ-स्नाति' स्नान ४२ छे. तथा 'जे-ये' या 'धोबई-धावति' पाताना पो मया ५१ विगैरेने धुसे छे. 'लूसयई वत्थलूषयति च वस्त्र' मने लाने भाटे मोटर पखने नानु म! नाना पने मोटु ४२ छ 'अहाहु-अथाहुः' ती २ तथा धराये खुले है-से नागणियस दूरे-म नाम्न्यस्य दूरे' ते संयम माथी २४ छ. ॥ २१ ॥ સૂત્રાર્થ–જે શિથિલાચારી સાધુ એટલે કે નિર્દોષ આહારને સંગ્રહ કરીને (સંચય કરીને) ભેગવે છે, જે અચિત્ત જળ વડે સ્નાન કરે છે, જે વસ્ત્ર અને હાથ પગ જોવે છે જે શોભાને માટે લાંબા વસ્ત્રને ટૂંકુ અને દૂધ વસ્ત્રને લાંબુ કરે છે, તે સાધુ નિર્ચભાવથી દૂર રહે છે, એવું તીર્થકરો અને ગણધરોનું કથન છે. ૨૧ For Private And Personal Use Only Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ७ उ. १ कुशीलवतां दोषनिरूपणम् ६१५ टीका -- जे' ये केचन शीतलविहारिणः 'धम्मलद्धं' धर्मलम् - धर्मेण माशम् आहारं जलं च 'विणिदाय' विनिधाय व्यवस्थाप्य आधाकर्मिको देशिकक्रयक्रीतादि द परहितमपि विशुद्धं लभ्यमानम् आहारादिकं संनिधिं कृत्वा 'मुंजे' भुंजते । तथा 'वियडे' विकटेन अचित्तजलेनापि 'जे' ये च भिक्षवः 'साहदु' संहृत्याङ्गानि संकोच्य परिशुद्धेऽपि देशे 'सिणाई' स्नान्ति-स्नानं कुर्वन्ति तत्र देशस्नानं शोभामक्षिवादिधावनं सर्वस्नानं संपूर्णशरीरपरिमार्जकम् तथा 'जे' यः कश्चित् 'वस्थं' वस्त्रम् 'घोवई' धावति प्रक्षालयति कारणमन्तरेण 'लूपयतीव' लुषयति, शोभार्थं दीर्घं वस्त्रं ह्रस्वं करोति, ह्रस्वं च सान्धाय दीर्घीकरोति । स्वार्थ परार्थ वा एवं वस्त्रं पयति । 'से' एवंभूतः सः 'णागणियस्स' नाग्न्यस्य-निर्ग्रन्थ भावस्य संयमानुष्ठानात् 'दुरे' अतिदूरे वर्तते इति 'अहाहु' अथ आहुस्तीर्थकरादयः । यो हि शीतलाचारी दोषरहितमप्याहारं संनिधिं कृत्वा भुङ्क्ते तथा अचित्त , टीकार्थ- जो शीतलविहारी अर्थात् शिथिलाचारी धर्म से प्राप्त आहार और जल को रखकर अर्थात् आधाकर्मिक, औद्देशिक, क्रयक्रीत आदि दोषों से रहित आहार की भी सन्निधि अर्थात् संचित करके भोगता है, जो अचिन्त जल से भी, अंगो को संकोच कर शुद्ध जगहं में भी स्नान करता है अर्थात् शोभा के लिए आँख भौंह आदि धोकर देशस्नान करता है और सम्पूर्ण शरीर को धोने वाला सर्वस्नान करता है, जो वस्त्र को विना कारण धोता है, जो शोभा के लिए दीर्घ वस्त्र को ह्रस्व (छोटा) या हस्व (छोटा) वस्त्र को दीर्घ करता है, ऐसा पुरुष निर्ग्रन्थभाव अर्थात् संयम के अनुष्ठान से अत्यन्त दूर रहता है। ऐसा तीर्थकर आदि कहते हैं। ટીકા જે શિથિલાચારી સાધુ ધલબ્ધ આહાર અને પાણીને, એટલે કે ધાક, ઔદ્દેશિકા, યક્રીત આદિ દેષાથી રહિત આહાર પાણીને પણ સંગ્રહ કરીને (સંચય કરીને) ભાગવે છે, જે સાધુ ચિત્ત જળ વડે પણ • અગાને સ’કાચીને શુદ્ધ જગ્યામાં પણ સ્નાન કરે છે, એટલે કે શાભાને માટે આંખ, ભ્રમર આદિ ધાઈને દેશસ્નાન કરે છે, અને આખા શરીરને ધાનારું સસ્નાન કરે છે. જે બાહ્ય વજ્રને વિના કારણે ધાવે છે, જે શૈાશાને માટે લાંખા વજ્રને કાપીને ટૂંકું કરે છે અને ટૂંકા અને સાંધીને લાંબુ કરે છે, એવા સાધુ નિગ્ર"થભાવથી એટલે કે સયમના અનુષ્ઠાનથી અત્યન્ત દૂર २३ छे, मेवु तीर्थ । भने गरेको ४ छे, For Private And Personal Use Only Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताशा जलेनाऽपि, अचित्तदेशेऽपि स्नाति । तथा-यः शोभायं पादौ वस्त्रं वा प्रक्षालयति, एवं इस्वं वस्त्रं दीर्थी करोति, दीर्घ न इस्वयति स संयमादतिरे भवतीति गणधरतीर्यकराः कथयन्ति इति भावः ॥२१॥ कुशीलान् तदावारांश्च कथयित्वा एतत्पतिपक्षभूताः शीलवन्तः प्रतिपाद्यन्तें सूत्रकारेण 'कम्मं परिन्नाय' इत्यादि। मूलम्-कम्मं परिन्नाय दगंसि धीरे विथडेण जीविज य आदिमोक्खा सेवीयं कंदाइ अभुंजमाणेविरते सिंणाणाइसुइस्थियासु।२२। छाया--कर्म परिज्ञायोदके धीरो विकटेन जीवेच्चादिमोक्षम् । स बीजकन्दान् अभुनानो विरतः स्नानादिषु स्त्रीषु ।।२२॥ आशय यह है कि जो शिथिलाचारी दोषरहित आहार की भी सनिधि करके भोगता है, जो अचित्त जल से भी और अचित्त देश में भी स्नान करता है तथा जो शोभा बढाने के लिए लम्बे वस्त्र को छोटा और छोटे को लम्बा करता है, वह सचम से दूर रहता है। ऐसा तीर्थकर गणधरों का कथन है ॥२१॥ __ कुशीलों और उनके आचारों का कथन करके उनसे विपरीत शीलवानों (आचारवानों) का प्रतिपादन करते हैं-'कम्मं परिमाय' इत्यादि। शब्दार्थ-धीरे-धीरः' धीर पुरुष 'दगमि-उदके जलस्नानमें 'कम्म परिन्नाय-कर्म परिज्ञाय' कर्मबन्ध को जानकर 'आदिमोक्खं આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે જે શિથિલાચારી સાધુ દેષરહિત આહારની પણ સન્નિધિ કરીને તેને ઉપભેગ કરે છે. જે અચિત્ત જળ વડે શરીરના અમુક ભાગોને ધોવા રૂપ દેશસ્નાન કે બધાં ભાગને છેવા રૂપ પૂર્ણ સ્નાન કરે છે, જે શોભાને માટે વસ્ત્રને કાપીને ટૂંકું કરે છે, કે સાધીને લાંબું કરે છે, તે સંયમથી દૂર જ રહે છે, એવું તીર્થકર અને ગણધરોએ કહ્યું છે. માટે સયમની આરાધના કરનાર સાધુએ નિર્દોષ આહારને પણ સંચય કરે જોઇએ નહી, અચિત્ત જળ વડે પણ સ્નાન કરવું જોઈએ નહીં તથા કપડાને શેભા વધારવા માટે કાપવું કે સાંધવું જોઈએ નહીં. ગાથા ૨૧ કુશીલ અને તેમના આચારોનું કથન કરીને હવે સૂત્રકાર તેમનાથી વિપરીત એવાં શીલવાના (આચારવાને) પ્રતિપાદન કરે છે - 'कम्भं परिन्नाय' ४त्याह... शहाय-धीरे-धीरः' धीर पुरुष दर्गनि-उदके' मनानमा 'कम्म परिमाय-कर्म परिज्ञाय' भन्ने नान 'आदिमोक्ख-बादिमोक्ष' संसा For Private And Personal Use Only Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. शु. अ. १ कुशीलवतां दोषनिरूपणम् ६१० अन्वयार्थ : - - ( धीरे ) धीरः- साधुः (दर्गसि) उदकस्नाने (कम्मं परिवार्य) पार्म - कर्म-बन्धनं परिज्ञाय ज्ञात्वा (आदिमोक्खं) आदिमोक्षं- आदितः संसारतो मो मोक्षपर्यन्तं (णि) विकटेन प्रामुकजलेन ( जीविज्ञ) जीवेत् जीवनं धारयेत् 'से' सः (बीयकंदाइ) बीजकन्दान् सावधान ( अभुं जमाणे) अभुञ्जानः (सिण)णासु) स्नानादिषु ( इत्थियासु) स्त्रीषु (विते) विरतः - रितो भवेत् एभिरे बसेदिति ॥ २२ ॥ टीका- 'धीरे' धीरः- धीरा स्थिरा बुद्धिर्यस्य स धीरः, धिया विवेकबुद्वया राजते परिवृतो भवति यः स धीरो वा बुद्धिमान 'उदगंसि' उदके जलस्नाने आदिमोक्षं' संसार से मोक्षपर्यन्त 'विडेय - विकटेन' प्रासुक जलके द्वारा 'जीविज्ज- जीवेत्' जीवन धारण करे 'से- सः' वह साधु 'बीवकंदाईवीजकन्दान' बीज कंद आदिको 'अभुंनमाणे अभुञ्जानः भोजन न करता हुआ 'सिणाणाइसु- स्नानादिषु' स्नान आदि से तथा 'इस्थियासुस्त्रीषु' स्त्री आदिसे 'विरते- विरतः' अलग रहे ।। २२ । अन्वयार्थ -- साधु जलस्नान से कर्मबन्धन जानकर संसार से मोक्ष पर्यन्त प्रासुक जल से ही जीवन धारण करे। बीजों और कन्दों का उपभोग न करता हुआ स्नानादि से और स्त्रियों से विरत रहे ||२२|| टीकार्थ - जिसकी बुद्धि स्थिर हो वह धीर कहलाता है अथवा जो घी अर्थात बुद्धि से राजित शोभित होता है, वह धीर कहलाता है। ऐसा धीर पुरुष जलस्नान से कर्मबन्धन जानकर जब तक संसार से रथी भोक्ष पर्यन्त 'वियडेण - विकटेन' प्रासु જલ द्वारा 'जीविज- जीवेत्' वन धारष्णु रे 'से- सः' ते साधु 'बीयकंदाइ - बीजकंदान' भी ६ विश्नो 'अभुंजमाणे- अभुञ्जानः' महार या विना 'सिणाणाइसु - स्नानादिषु' स्नान विगेरेभां तथा 'इत्थीयासु - स्त्रीषु' स्त्री विगेरेथी 'विरते - विरतः ' भाग रहे ॥ २२॥ સૂત્રા જળસ્નાનને લીધે ક્રમના અન્ય થાય છે—કર્માનું ઉપાર્જન થાય છે, એવું સમજીને સાધુએ જીવન પર્યન્ત (સ'સાર ભ્રમણમાંથી મુક્ત થઈને સિદ્ધિ પ્રાપ્ત કરે ત્યાં સુધી) પ્રાત્સુક (અચિત્ત) જળ વડે જ પોતાનું જીવન ધારણ કરવું જોઈએ, તેણે બી અને કન્દના ઉપભાગ કરવા જોઇએ નહી, સ્નાનાદિન ત્યાગ કરવા જોઈએ અને સ્ત્રીઓથી દૂર રહેવુ જોઇએ. રા ટીકા”—જેની ત્રુદ્ધિ સ્થિર હાય છે. તેને ધીર કહેવાય છે. અથવા ઘી' એટલે બુદ્ધિ અને ખીર એટલે બુદ્ધિથી ાજિત-બુદ્ધિથી થેભતા પુરુષ. એવા ધીર પુરુષ એવુ' સમજી શકે છે કે જલસ્નાન કરવાથી કૉનુ सू० ७८ For Private And Personal Use Only Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir “सूत्रकृतामने कर्म 'परिमाय' परिज्ञाय-जलस्नाने कृते सति कर्मबन्धनं भवतीति निकाय 'आदिमोक्ख' आदिमोक्षम् , आदिः संसारस्तस्मान्मोक्षो विरामः इति मादिमोक्षः तम् । संसारविरामपर्यन्तम्-यावज्जीवनमित्यर्थी, 'वियडेग' विकटेन-सिलतण्डुलगोधूमादिधावन नलेन तथा अचित्तोष्णोदकेन प्राणधारणं निर्वहेत् । पुनः किं कुनि 'बीयकंदाइ' बीज कन्दान्-बीजकन्दमूलहरित-शाकफला. दीन सचित्तान् 'अभुंजमाणे' अभुनानः एतेषां बीजादीनां भोजनमकुर्वाणः । तथा 'सिणाणाइसु इथि गम विरते' स्नानादिषु-स्नानाऽभ्यङ्गोद्वर्तनादिशास्त्रनिषिद्धक्रियासु, तथा 'इस्थियामु' स्त्रीषु 'विरते' विस्तः, एतेभ्यः सर्वथैव निवृत्ति कुर्वाणः, यश्चवंभूतः सर्वेभ्योऽपि आश्राद्वारेभ्यो विरतः असौ साधुः विलक्षणः कुशीलदोषः न संस्पृष्टो भवति । तदभावान संपारचक्रे परिभ्रमति कारणाऽभावाद । विराम न हो जाय तब तक अर्थात् जीवन पर्यन्त तिल तंदुल गेहूँ आदि के धोवन से या अचित्त जल से प्राण धारण करे। तथा पीज, कन्द, मूल, हरित, शाक फल आदि सचित्त वनस्पति का सेवन न करता हुआ स्नान उबटन मालिश आदि शास्त्रनिषिद्ध क्रियाओं से एवं स्त्रियों से विरत रहे । जो ऐसा होता है अर्थात् समस्त आश्रय द्वारों से विरत होता है वह विलक्षण साधु कुशील दोषों से स्पृष्ट नहीं होता और दोषों के अभाव से संसार चक्र में नहीं घूमता, संसार का अभाव हो जाने से दुःख का अनुभव नहीं करता, दुःखित होकर रोता नहीं है और नाना प्रकार के उपायों से विनष्ट नहीं होता है। जो ઉપાર્જન થાય છે, તેથી જયાં સુધી સંસારમાં ભ્રમણ બંધ ન થાય ત્યાં સુધી એટલે કે મોક્ષ પ્રાપ્ત થાય ત્યાં સુધી એ ધીર પુરુષ પોતાનાં પ્રાણ ટકાવવાને માટે જ પ્રાસુક જળને ઉપભોગ કરે છે. એ પુરુષ ભાતનું ધાવણ, તલનું ધાવણુ, ઘઉંનું વણ આદિ અચિત્ત જળને જ પીવા માટે ઉપયોગ કરે છે તથા તે બીજ, કન્દ, મૂળ, હરિત, શાક, ફળ આદિ સચિત્ત વનસ્પતિનું પણ સેવન કરતો નથી, સ્નાન કરતા નથી, ઉબટન (શરીરે ચણાના લેટ અદિનું મર્દન) પણ કરતો નથી અને માલિશ પણ કરતે નથી. કારણ કે આ બધી ક્રિયાઓને શાસ્ત્રોએ નિષેધ ફરમાવ્યું છે. વળી તે સ્ત્રીઓથી દૂર રહીને બ્રહ્મચર્ય વ્રતનું બરાબર પાલન કરે છે. જે સાધુ આ પ્રકારે સમસ્ત આશ્રવ દ્વારથી વિરત થઈ જાય છે, એ :વિલક્ષણ સાધુ કુશીલથી (દેથી) પૃષ્ટ થતો નથી એટલે કે કોઈ પણ દેષ કરતે નથી આ પ્રકારે દેને અભાવ થઈ જવાને કારણે તેને સંસાર ચક્રમાં ભ્રમણ કરવું પડતું નથી. એવા પુરુષનાં સંસારને અભાવ થઈ જવાને કારણે તેને For Private And Personal Use Only Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - 'समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ७ उ. १ कुशीलवतां दोषनिरूपणम् कर न दुःखमनुभवति, न वा दुःखितः स्तनति, विनश्यति वा नानाविधैरपायरिति । बुद्धिमन्तो प्रवचनारिशीलन जनितसंप्राप्त विशुद्रोदयुद्धविवेकाः स्नानादीनि विषिष कर्मबन्ध जनकानीति विभाव्य, यामोक्षं न प्राप्नुवन्ति तावत्पर्यन्तं सावधक्रिया. परिवर्जयेयुरिति भावः ॥२२॥ पुनरपि कुशीलानेवाऽधिकृत्य सूत्रकारो वदति-'जे मायरं च' इत्यादि । मूकम्-जे मायरं पियरं च हिच्चा, गारं तेहा पुत्तपसुंधणं च । कुलाइं जे धावइ साउगाई अहाहु से सामणियस्स दूरे।।२३॥ छाया----यो मातरं पितरं च हिवा, अगारं तथा पुत्रपशुं धनं च। ___ कुलानि यो धारति स्वादुकानि अथाहुः स श्रामण्यस्य दूरे ॥२३॥ बुद्धिमान हैं, प्रवचन के परिशीलन से जिनका विवेक जागृत होगया है, वे स्नान आदि को कर्मबन्ध का कारण जान कर, जब तक मोक्ष न हो जाय तब तक सावध व्यापारों का त्याग करें।२२। सूत्रकार पुनः कुशीलों को लक्ष्य करके कहते हैं-'जे मायरंच' इत्यादि। शब्दार्थ-'जे-या' जो 'मायरं पिघरं च-मातरं पितरं च माता एवं पिताको 'हिच्चा-हित्वा' छोडकर 'तहागारं पुत्तपसुं धणं च-तथा अगारं पुत्रपशून् धनं च' तथा घर, पुत्र पशु और धनको छोडकर 'साउगाई कुलाई धावह-स्वादुकानि कुलानि धावति' स्वादिष्ट भोजन દુખેને અનુભવ કરવું પડતું નથી, વેદનાઓને કારણે રુદન કરવું પડતું નથી, અને જન્મ જરા અને મરણનાં દુઃખ વેઠવા પડતાં નથી. કારણ કે એ પુરુષ તે સિદ્ધિ પ્રાપ્ત કરી લે છે. જે બુદ્ધિમાન છે, પ્રવચનના પરિ શીલનથી જેમને વિવેક જાગૃત થઈ ગયા છે, તેમણે સ્નાનાદિને કમબન્ધના કારણરૂપ જાણુંને, જીવન પર્યત (મેક્ષપ્રાપ્ત થાય ત્યાં સુધી), તેને ત્યાગ કરવું જોઈએ અને સાવદ્ય વ્યાપારને પણ-જીવહિંસા થતી હોય એવી પ્રવૃત્તિઓને પશુ-ત્યાગ કરવું જોઈએ. ગાથા ૨૨ા સૂત્રકાર ફરી કુશલ યુથિકને અનુલક્ષીને એવું કહે છે કે'जे मायर च' त्याहि शहा -'जे-यो 'मायर पियर च-मातरं पितरं च भाता मन मिताने 'हिच्चा-हित्य' छोडी 'तहागार पुसपसु धणं -तथा अपार' पुत्रपशून धनं च' तथा १२, पुत्र, पशु, भने धनने हैन 'सागाईलाईधावइ-स्वादुकानि कुलानि धावति' हिट ना बरोमा . For Private And Personal Use Only Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतान अन्वयार्थ : -- (जे) यः (मायरं पियरं च) मातरं पितरं च (हिच्चा ) हित्वास्वरित्यज्य ( तहागारं पुत्तपसुं धणं च ) तथा आगारं गृहं पुत्रम् पशुं गवादिकं -नं सुवर्णादिकं परित्यज्यापि (साउगाई कुलाई धाव) स्वादुकानि स्वादिष्ट भोजनयुतानि कुलानि गृहाणि धावति गच्छति (से) सः एतादृशः साधुः (सामणियस्स) श्रामण्यस्य = श्रमणभावस्य (दूरे) दुरे - अतिदूरे विद्यते इति ( अहाहु) अथाहुः कथयति तीर्थकरादयः ॥ २३ ॥ टीका- 'जे' यः अपरिणतसम्यग् धर्मा 'माय' मातरम् 'पियरं' पितरम् च "हिया' हिस्वा परित्यज्य ' तहा' तथा 'गारं' अगारं गृहम् 'पुत्तपसुं' पुत्रं पशुम्, गोमहिषादिकम् 'धनं च' धनं च सुवर्णादिकम्, परिश्यज्य सम्यगुत्थानोत्थितः प्रव्रज्यामादाय तद्भूरिभारवदनेऽसमर्थो हीनसस्तथा । 'साउगाई' स्वादुकानि - स्वादु भोजनवन्ति 'कुलाई' कुलानि, गृहाणि 'जे' यः 'धावह' धावति, प्रव्रज्यामादा'वाले घरों में दौडता है 'से-सः' वह 'समाणियस्स - श्रामण्यस्य । 'भ्रमणस्व से' 'दूरे दूरे' अत्यंत दूर है ऐसा 'अहाहु - अथाहु: ' . तीर्थकरोंने कहा है ॥२३॥ अन्वयार्थ - जो माता, पिता, पुत्र, पशु, धन और गृह का स्थाग . करके भी रस लोलुपी बन कर स्वादिष्ट भोजन वाले घरों में जाता है, ऐसा साधु साधुता से दूर ही रहता है। ऐसा तीर्थकर . गणधर कहते हैं ||२३॥ टीकार्थ - जिस जीवन में धर्म सम्यक् प्रकार से परिणत नहीं हुआ है, ऐसा जो साधु माता, पिता को त्यागकर तथा घर, पुत्र, गाय, भैंस आदि पशुओं और सुवर्ण आदि धन को त्याग कर दीक्षित हुआ है, वह यदि स्वादु भोजन वाले घरों में भोजन लेने जाता है अर्थात् “ से - सः' ते 'सामणियम्स - श्रामण्यस्य' श्रमात्वथी 'दूरे दूरे' अत्यंत दूर छे तेभ 'अहाहु - अथाहु: ' तीर्थ शोधु छे. ॥ २३ ॥ ने सूत्रार्थ - भाता, पिता, पुत्र, पशु, धन भने गुडना त्याग સ્રથમ ગ્રહણ કરવા છતાં પણ જે સાધુ રસલાલુપ બનીને, જ્યાંથી સ્વાદિષ્ણુ ભાજન મળતુ હાય વાં ઘરમાં જ જાય છે, એવા સાધુ સાધુતાથી દૂર જ રહે છે, એવું તીથ કરે અને ગણધા કહે છે. રા ટીકા જેના જીવનમાં ધર્મ સમ્યક્ પ્રકારે પરિણત થયા નથી, એવા ફ્રાઈ પુરુષ માતા, પિતા, પુત્ર આદિ પરિવારના તથા ગાય, ભેંસ આદિ પશુળાના તથા સુવણુ આદિ ધનના અને ઘર ખારને! ત્યાગ કરીને પ્રત્રજ્યા અંગીકાર કરવા છતાં પશુ સ્વાદલેાલુપતાના ત્યાગ કરી શકતા નથી. એવા For Private And Personal Use Only Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -समयार्थबोधिनी टीका प्र. भु. अ. ७ उं. १ कुशीलवतां दोषनिरूपणम् સ 1 याऽपि तद्भारवहन समर्थ: जिह्वा लोलुपतया स्वादुभोजनमाप्तये धनिनां गृई धावति । 'से' सः - शीतलाचारी 'सामणियस्स' श्रामण्यस्य निर्ग्रन्थभावस्य दूरे भवतीति । 'अहाहु' अथाहुः - वीर्यकरगणधरादयः । यः कश्चित्सुदुस्त्यज मातृ पितृ - पशुधनादीन् परित्यज्य साधुभावं गतोऽपि स्वादुभोजनाशया तादृशभोजनमापकधनिनां गृहविशेषे दूराद्दूरतरं गच्छति । गत्वा परमान्नमानीय जिह्वालौल्यं शिथिलयन्नापि न शिथिलपति प्रत्युत हविषा कृष्णवर्मेव वर्द्धयति, हीनसत्वस्य . सोऽपि निर्ग्रन्थस्याऽतिदूरे मवत्येवं तीर्थकरादयः प्रतिपादयन्ति ॥ २३ ॥ गृहत्यागी होकर भी जिवालोलुपता के कारण धनवानों के घर में भिक्षा के लिए जाता है, वह साधुपन से दूर ही रहता है। तीर्थकर गणधर आदि महापुरुष ऐसा कहते हैं । सारांश यह है कि बड़ी कठिनाई से त्यागे जाने वाले माता, पिता, पुत्र, धन और गृह आदि को भी त्याग कर जो साधु बना है, वह यदि जिहालोलुप होकर सुस्वादु भोजन के लिए धनियों के घरों में भिक्षा के लिए जाता है तो संयम से दूर ही हो जाता है। वह स्वादिष्ट भोजन लाकर जिह्वालोलुपता को शान्त करना चाहता हुआ भी जिहालोलुपता को अधिक बढाता है। जैसे घी अग्नि को बढाता है। ऐसा तीर्थकरों ने प्रतिपादन किया है ||२३|| સાધુ એવાં ઘરમાં ભિક્ષા વહેારવા જાય છે કે જ્યાંથી સ્વાદિષ્ટ લેાજન મળે છે, એટલે કે સ્વાદલેાલુપતાને કારણે તે ધનવાનાને ઘેર જ ભિક્ષા લેવા જાય છે. એવા સાધુને સાધુ જ કહી શકાય નહી' કારણુ કે તે પુરુષમાં સાધુના શુષ્ણેાના અભાવ હાય છે, એવું તીથંકર આદિ મહાપુરુષોએ કહ્યું છે. V तात्पर्य मे छे है माता, पिता, पुत्र, पशु, धन, घर माहिना त्याग કરવા ઘણું! જ મુશ્કેલ છે. એવે કષ્ટપ્રદ ત્યાગ કરીને જેણે સયમ અ'ગીકાર કર્યાં છે એવા સાધુ પણ જો સ્વાદલોલુપ થઈને સ્વાદિષ્ટ લેાજનને માટે ધનવાનના ઘરમાં જ ભિક્ષા ગ્રહણ કરવા માટે જાય, તે તે સંયમના વિરાધક જ અને છે. આ પ્રકારે જિહવાલેાલુપતાને શાન્ત કરવા માગતા તે સાધુ જિહવા લેલુપતાને શાન્ત કરવાને ખલે તેને વધારતા જ રહે છે. જેમ અગ્નિમાં ઘી હામવાથી અગ્નિ અધિક પ્રજવલિત થાય છે, એજ પ્રમાણે સ્વાદિષ્ટ ભેજન ખાવાથી તેની સ્વાદલેલુપતા વધતી જ જાય છે અને તે વધારેને વધારે શિથિલાચારી થતા જાય છે, એવું તીર્થંકર આદિ મહાપુરુષાએ કહ્યુ` છે. ારા For Private And Personal Use Only Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सू पुनरप्याह सूत्रकारः- 'कुलाई' इत्यादि । मूलम् - कुलाई जे धावइ साउंगाई अधाति धम्मं उदराणु गिद्धे । अहाहु से आयरियाण सर्व ले जे लाएजा असणस्स हेॐ । २४| छाया - कुलानि यो धावति स्वादुकानि आख्याति धर्ममुदरानुगृद्धः । अथाहुः स आचार्याणां शतांशो य आलापयेदशनस्य हेतोः ||२४|| अन्वयार्थ:- (उदाराणु गिद्धे) उदरानुगृद्धः - उदरभरणव्यग्रः सन् (जे) यः पुरुषः ( साउगाई कुलाई घावइ) स्वादुकानि - स्वादुभोजनविशिष्टानि कुलानि - गृहाणि - धावति गच्छति (धम्मं आघाति) धर्म धर्मकथामाख्याति कथयति (से आयरियाम सूत्रकार फिर कहते हैं- 'कुलाई' इत्यादि । शब्दार्थ -- 'उदाराणुगिद्धे - उदारानुगृद्धः' उदर पोषण में तत्पर 'जेघः' जो पुरुष 'साउगाई कुलाई घावह स्वादुकानि कुलानि धावति' स्वादिष्ट भोजन प्राप्त होनेवाले घरों में जाते हैं तथा वहां जाकर 'धम्मं आघाति-धर्म आख्याति' धर्मका कथन करते हैं 'से आयरियाण सयंसे - सः आचार्याणां शतांशः' वे आचार्यके शतांश भी नहीं हैं 'जे असणस्स हेऊ लावयेज्जा - यः अशनस्य हेतोः आलापयेत्' तथा जो भोजन के लोभ से अपने गुणों का वर्णन करता है वे भी आचार्यों के शतांश भी नहीं हैं ||२४| अन्वयार्थ — जो उदरासक्त (पेट भरा) हो कर स्वादिष्ट भोजन वाले घरों में जाना है और वहाँ जाकर धर्मोपदेश करता है, वह साधु For Private And Personal Use Only सूत्रार कुशीसोने अनुसक्षीने विशेष उथन रे - 'कुलाई' इत्याह- श६ थ -- 'उदाराणु गिद्धे-उद रानुगृद्धः ' उह२ घोषशुभां तत्र 'जे-य:' ने पु३ष 'साउगाई' कुलाइ धात्रइ - स्वादुकानि कुलानि धग्वति' स्वाद्दिष्ट लोन प्राप्त. धवावाणा घशेषां भय हे तथा त्यांने 'धम्मं आघाति-धर्म आख्याति' धर्मनुं उधन रे छे. 'से आयरियाण वयंसे - सः आचार्याणां शतशः ' तेथे मायर्यांनी शतांश पशु नथी 'जे अम्लणस्सहेऊ लावयेज्जा-यः अशनस्य हेतोः आलापयेत्' तथा भेो लेोभनना बोलथी पोताना गुनु वासुंन पुरे छे, તેએ પશુ આચાર્યના શતાંશ પણ હાતા નથી. ।। ૨૪ ।। સૂત્રા་—જે સાધુ ઉત્તર ભર (ભેાજન મેળવવાની લેવુપતાથી યુક્ત) થઇને સ્વાદિષ્ટ ભેજન મળે એવાં ધરામાં જાય છે અને ત્યાં જઈ એ ધમાં Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र.श्रु. अ. ७ उ.१ कुशीलवता दोषनिरूपणम् ६२३ सयंसे) सः आचार्याणां शतांशः शतभागन्यून इत्यर्थः (जे असगस्स हेऊ लावएज्जा) या अशनस्य भोजनस्य हेतोः कारणात् आलापयेत् स्वकीयगुणानिति ॥२४॥ ___ टीका-'उदराणुगिद्धे' उदरानुमृद्धः, उदरे अनुगृद्रः, उदरभरणाय व्यग्रचित्तः 'जे' यः कश्चित् साधुः 'साउगाई' सादुकानि-सुस्वादुमिष्टान्नभोजनविशिष्टानि 'कुलाई' कुलानि-धनिनां कुलानि 'धावइ' धावति-गच्छति तथा कृला आहारमानेतुं तद्गृहं प्रविश्य, तस्मै यद्रोचिष्यते कथानकादिकं तत्तस्मै आख्याति । 'धम्मं अघाति' धर्मम् आख्याति-सुन्दरगीति गिरा वर्णयति । अयं मावा-यो हि उदरंभरः भोजननिमित्तं दानश्रद्धाविनयवति महति कुले तस्पाङ्गणं गत्वा महतीः कथाः कथयति, स सर्वथा कुशील एव शेष:-कथं कथमपि याचार्यों का शतांश भी नहीं है अर्थात् सौवाँ भाग भी नहीं है। जो आहार के लिए अपने गुणों की प्रशंसा करवाता है, वह भी आचार्य का शतांश भी नहीं है ॥२४॥ टीकार्थ-जो उदर में गृद्ध है अर्थात् पेट भरने में तत्पर है और सुस्वादु मिष्टान्न भोजन वाले घरों में जाता है और आहार लेने के लिए उन घरों में प्रवेश करके धर्मकथा करता है, वह आचार्यों के या आर्यों के शतांश भाग भी नहीं है। यहाँ 'शत' शब्द उपलक्षण है, अतएव ऐसे रसलोलुप वक्ता को आचार्य का लाखवाँ भाग भी नहीं समझना चाहिए । तात्पर्य यह है कि जो उदर भर भोजन के उद्देश्य से दान श्रद्धान और विनय वाले किसी बडे घर में जाकर लम्बी પદેશ રે છે, તે સાધુ આચાર્યોને શાંશ પણ નથી એટલે કે આચાર્યને ગુણેને તે સાધુમાં અભાવ હોવાથી તેનામાં આચાર્યના સૌમાં ભાગની પણ યેગ્યતા નથી. જે સાધુ આહારને માટે પોતાના ગુણોની પ્રશંસા કરે છે કે કરાવે છે. તે સાધુમાં પણ આચાર્યના ગુણેના સેમાં ભાગને પણ સદુભાવ जात नथी ॥२४॥ ટીકાથ– જે સાધુ પિતાનું પેટ ભરવાની લાલસાથી પ્રેરાઈને, સ્વાદિષ્ટ ભજન પ્રાપ્ત થાય એવાં ઘરમાં જ જાય છે, અને તે ઘરમાં પ્રવેશ કરીને - ધર્મોપદેશ દે છે, તે સાધુ આચાર્યોના સેમાં ભાગની બરાબર પણ નથી. અહી શત પદ ઉપલક્ષણ માત્ર છે, તેથી એવા રસલુપ વક્તાને આચાર્યને લાખો ભાગ ગણી શકાય નહીં. આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે જે સાધ | સ્વાદિષ્ટ ભોજન મેળવવાની ઈચ્છાથી, દાન, શ્રદ્ધા અને વિનયથી સંપન્ન કઈ , ધનવાન ગૃહસ્થના ઘરમાં પ્રવેશ કરીને લાંબી ધમકથા કરે છે એવા સાંત્રને For Private And Personal Use Only Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६२४ सूत्रकृताङ्ग सूत्रे " साधुभिरीटकर्म न कर्त्तव्यम् । 'से' सः आयरियाण' आचार्यागाम् आर्यागां वा ( सयं से) शतांशः शतमितिपदमुपलक्षणम् तेन स वक्ता - आचार्याणां शतसहस्वादपि अधोदेशे वर्त्तते इत्यवगन्तव्यम् । तथा 'जे, यः 'असणरूप' अशनस्य, इहापि अशनपदमुपलक्षणम् तेन वस्त्रादीनामपि संग्रहो ज्ञेयः । तेन अशनः खादेः 'हेऊ' हेतोः 'लावएज्जा' आलापयेत् । अस्याऽयमर्थः - य आहाराय वस्त्रप्राप्तये वा स्वकीयगुणान् परद्वारा प्रख्यापयेत् सोऽप्याचार्यगत गुणेभ्यः सहस्रांशादयधोऽधो वर्तते साधुत्वरहितो भवति । स्वीयं गुणं स्वमुखादेत्र यो वर्णयति, स तु कः कथंभूतश्रेति ज्ञानिन एवं जानन्ति । अधमादप्यधम इति । यः उदरंभरी लोके स्वादु भोजनकोभेन लुब्धः स्वाद्मोजन प्राप्तियोग्यं धनिनो गृहमासाद्य तत्र धर्मलम्बी धर्मकथा करता है, उसे सर्वथा कुशील ही समझना चाहिए । साधुओं को ऐसा कर्म कदापि नहीं करना चाहिए । इसके अतिरिक्त जो अन्न के लिए और उपलक्षण से वस्त्र आदि के लिए अपने गुणों को दूसरे के द्वारा प्रशंसा करवाता है, वह भी आचार्य के गुणों के शतांश या सहस्त्रांश भाग में नहीं है। वह साधुता से रहित है। जो अपने मुख से अपने गुण का वर्णन करता है, वह कौन और कैसा होता है, यह तो ज्ञानी ही जानते हैं । वस्तुतः वह अधम से भी अधम है । आशय यह है कि जो उदरंभरा पेटभरा स्वादिष्ट भोजन प्राप्त करने के उद्देश्य से किसी धनाढ्य के घर जाता है और उत्तम भोजन તદ્ન કુશીલ જ સમજવેા જોઇએ. સાધુઓએ એવુ કર્મી કઢી કરવુ लेईयो नहीं. વળી અન્નને માટે (ઉપલક્ષણથી વજ્રને માટે પણ ગ્રહણ કરી શકાય) સાધુ પેાતાના ગુણ્ણાની ખીજાં લેાકા દ્વારા પ્રશંસા કરાવે છે અથવા પોતે જ પાતાના ગુણાની પ્રશંસા કરે છે, તે સાધુમાં પશુ આચાર્યના શતાંશ, સહસ્રશ કે લક્ષાંશ ગુણ્ણાનેા પશુ સદ્ભાવ હાતા નથી. તે પશુ સાધુના રહિત હાવાને કારણે કુશીલ જ ગણાય છે. જેએ પેાતાને માઢ પેાતાના જીગ્નેાની પ્રશંસા કરે છે, તેઓ કાણુ અને કેવાં હોય છે, તે તેા જ્ઞાનીએજ જાણું છે. ખરી રીતે તે એવાં પુરુષ અધમમાં અધમ હોય છે. આ કથનનું તાપય એ છે કે જે ઉદરભર (સ્વાદ લેલુપ) સાધુ, સ્વાષ્ટિ શોજન પ્રાપ્ત કરવાની લાલચે કોઈ ધનવાત્ માસના ઘેર જઇને, ઉત્તમ For Private And Personal Use Only Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ७ उ. १ कुशीलवतां दोषनिरूपणम् १२५ कथा कथ गति, स साधुभावाद्भ्रष्टः । यस्तु पुनराहारवस्त्रार्थ स्वकीयान् गुणान परेण ख्यापयति, सोऽप्यधमः । यश्च स्वगुणं स्वेनैव प्रकाशयति स तु अधमाधम इति भावः ॥२४॥ पुनरप्याह-णिक्खम्म दीणे' इत्यादि । मूलम्-णिक्खम्म दीणे परभोयणमि मुहमंगलीए उदराणुगिद्धे। नीवारगिद्धे व महावराहे अदूरए एहिई घातमेव ॥२५॥ छाया-निष्क्रम्य दीनः परभोजने मुखमांगलिक उदरानुगृद्धः । नीवारगृद इत्र महावराहः अदुर एष्यति घातमेव ॥२५॥ पाने के विचार से वहाँ धर्मकथा करता है, वह साधुता से भ्रष्ट होजाता है और जो आहार वस्त्र आदि के लिए अपने गुणों को दूसरों से प्रकट करवाता है, वह भी अधम है। जो अपने गुणों को अपने ही मुख से प्रकट करता है वह अधमाधम है ॥२४॥ शब्दार्थ-'णिक्खम्म-निष्क्रम्य' जो पुरुष घर से निकलकर 'परभोयणमि दीणे-परभोजने दीन:' अन्यके भोजनकेलिये दीन बनकर 'मुहमंगलीए-मुखमांगलिकः? भाट के जैसा दूसरेकी प्रशंसा करता है 'नीवारगिद्धेव महावराहे-नीवारगृद्ध इव महावराइ' वह तण्डल के दानों में आसक्त महान सुअर के जैसा 'उदाणुगिद्धे-उदरानुगृद्धः' उदर पोषण में तत्पर है 'अदूरए-अदरे' वह शीघ्र ही 'घायमेव-घातामेव' नाशको ही 'एहिह-एष्यति' प्राप्त होते है ॥२५॥ ભજન પ્રાપ્ત કરવાની ઈચ્છાથી, ધમકથા કરે છે. તે સાધુના ધર્મનું–આચારનું પાલન નહીં કરવાને કારણે “સાધુ” કહેવાને પાત્ર નથી. વળી જે અધ આહાર, વસ્ત્ર આદિને માટે બીજાની પાસે પોતાના ગુણોની પ્રશંસા કરાવે છે, તે પણ અધમ છે. જે પોતાનાં ગુણે પિતાને જ મઢે પ્રકટ કરે છે તેને તે અધમમાં અધમ કહી શકાય. ગાથા ૨૪ "णिक्खम्म दीणे' याह Nati-'णिक्खम्म-निष्क्रम्य' २ ५३५ ३२थी नीजान 'परभोयणसि दीणे-परभोजने दोनः' मन्यना सासन भाट हीन मनीन 'मुहमंगलीएमुखमांगलिकः' भाटनी म भानना १माए ३ छ 'नीवार गिद्धेव महावरा हैनीवारगृद्ध इव महावराहः' त यामाना शुभ मासरत भाटा सुनी म 'उदराणुगिद्धे-उदरानुगृद्धः' ४२ पौषशुभ त५२ छ, 'अदूरए-अदूरे' tal 'थायमेव-घातमेव' नाशने । 'एहिद-एष्यति' प्राप्त थाय छे. ॥२५॥ सू० ७९ For Private And Personal Use Only Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे अन्वयार्थ:-(णिक्खम्म) निष्क्रम्य-संयमं गृहीत्यापि (परभोयणमि दीणे) परभोजने दीन:-पराहारविषये दैन्यमुपगतः (मुहमंगलीए) मुखमांगलिक:-अन्यस्य प्रशंसकः (नीवारगिद्धेव महावराहे) नीवारगृद्धो महावराह इव तण्डुलकणासक्तशूकरवत् (उदराणुगिद्धे) उदारानुगृद्धः उदरपोषणे तत्परः, (अदूरए) अदूरे-अतिसमीपे (घायमेव) घातं विनाशमेव (एहिइ) एष्यति-माप्स्यतीत्यर्थः ॥२५॥ टीका-यो हि पुरुषः स्वकीयं गृहकलनधनधान्यादिकं परित्यज्य 'णिक्खम्म निष्क्रम्य गृहानिस्सृत्य संयमं गृहीत्वेत्यर्थः 'पर मोयणमि' परभोजने, परकीयाहारविषये 'दीणे' दीन:-दैन्यमुपगतः रसनेन्द्रियवशवर्ती चारणवत् । 'मुहमंगलीए' मुखमांगलिकः मुखेन मंगलानि प्रशंसावाक्यानि वदति यः स मुखमालिका, मुखेन परमशंसाकारकः, प्रशंसाप्रकारो यथा पुनः कहते हैं-'णिक्खम्म दीणे' इत्यादि। अन्वयार्थ--जो संयम को ग्रहण करके भी परकीय आहार में दीन है, मुख मांगलिक अर्थात् दूसरे की प्रशंसा करता है, यह तन्दुल. कणों में आसक्त महाशूकर के समान उदरपोषण में तत्पर होकर शीघ्र ही विनाश को प्राप्त होगा ॥२५॥ टीकार्थ--जो पुरुष अपने गृह, पत्नी, धन, धान्य आदि का त्याग करके और संयम को धारण करके परकीय आहार के विषय में दीनता "को प्राप्त है, रसना इन्द्रिय का दास है अर्थात् रसलोलुप है तथा जो मुखमांगलिक है अर्थात् मुख से प्रशंसावचन बोलना है, यथा-'पुण्यात्मा दीनलोकाना' इत्यादि। સૂવાથં–જેઓ સંયમ ગ્રહણ કરવા છતાં પણ પરકીય આહારના -વિષયમાં દીનતા બતાવે છે, જેઓ મુખમાંગલિક છે એટલે કે આહાર મેળવિવા માટે દાતાની પ્રશંસા કરનારા છે, તેઓ તદુલ કણમાં (ખાના ‘દાણામાં) અસક્ત થયેલાં મહાશૂકરની જેમ ઉદર પોષણ માટે લેલુપ થઈને વિનષ્ટ થાય છે-સિદ્ધિ પ્રાપ્ત કરવાને બદલે સંસારમાં ભ્રમણ કરીને દુઓનું વેદન કર્યા કરે છે. પારા ટીકાઈ—જે પુરુષ માતા, પિતા, પત્ની, પુત્ર ધન, ઘર અદિને ત્યાગ કરીને સંયમ અંગીકાર કરવા છતાં આહાર પ્રાપ્તિને માટે દીનતા બતાવે છે, વાદલોલુપ બનીને (રસના ઈદ્રિયના દાસ બનીને) જેઓ દાતાની શંસા કરે છે, તેઓ પણ સંયમથી ભ્રષ્ટ થઈને પિતાને જ વિનાશ નેતરે છે. તેઓ દાતાની કેવી પ્રશંસા કરે છે તે હવે પ્રકટ કરવામાં આવે છે For Private And Personal Use Only Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र.श्रु. अ. ७ उ. १ कुशीलवतां दोषनिरूपणम् 'पुण्यात्मा दोनलोकानां दारिद्रयहरणे प्रभुः। दूरे मेरुरदूरे त्वं कल्पवृक्षोऽजडः किलः ॥१॥ एवं मुखेन पुण्यकार्य स्वं बहुधनं व्ययसि इत्यादीनि प्रशंसावाक्यानि वदति एतादृशो मुखमांगलिकः । दीनतां गत इति यावत् । तदुक्तम् सो एसो जस्स गुणा वियरंति निवारिया दसदिसाम्। इहरा कहासु सुच्चसि पच्चक्खं अन्ज दिह्रोसि ॥१॥ छाया-स एषः यस्य गुणाः विचरन्ति निगरिता दशदिशासु । इतरासु कथासु श्रयते प्रत्यक्षमध दृष्टोतीति ॥१॥ स एव भवान् यस्य कीर्तिर्दिक्षु प्रसृता प्रथममहं भवन्तं कथायामेवा भुवम् , अब तमेव भवन्तं प्रत्यक्षतः पश्यामीति भावः । ___ आप तीनलोक में पुण्यात्मा हैं, दीन जनों की दरिद्रता को दरै करने में समर्थ हैं । मेरु दूर है परन्तु आप दूर नहीं हैं । सब की सब कमनाओं को पूर्ण करने वाला कल्पवृक्ष आपके समान हो सकता है, परन्तु उसमें न्यूनता यह है कि वह जड़ है । आप में जड़ता नहीं है। इस प्रकार आप मेरु और कल्पवृक्ष से भी पढकर हैं। ___ आप पुण्य कृत्यों में बहुत धनव्यय करते हैं, इस प्रकार प्रशंसा करनेवाला मुखमांगलिक कहलाता है। कहा भी है-'सो एसो जस्स गुणा' इत्यादि। 'ओहो ! आप वही हैं। जिन के गुण दसों दिशाओं में विचरण कर रहे हैं ! आप का नाम अभी तक तो कथा कहानियों में सुनाथा, आज आपको साक्षात् देखा। 'पुण्यात्मा दीनलोकानां' त्याह “આપ ત્રણે લોકમાં સૌથી મહાન પુણ્યાત્મા છે. આપ દીનજનેની દીનતા દૂર કરવાને સમર્થ છે, મેરુ દૂર છે, પણ આપ દૂર નથી. આપ સૌ સઘળી કામનાઓ પૂર્ણ કરનાર કલ્પવૃક્ષ સમાન છે પરંતુ ક૯પક્ષમાં તે આપના કરતાં એક ન્યૂનતા છે. કલ્પવૃક્ષ તે જડ છે, પરંતુ આપ જડ નથી. આ રીતે આ૫ મેરુ અને કલ્પવૃક્ષ કરતાં પણ મહાન છે' આપ દાન આદિ પુરા કાર્યો પાછળ ખૂબ જ ધન વાપરે છે. આ પ્રકારે દાતાની પ્રશંસા કરનારને 'भुसमावि' उपाय 2. यु ५५ छ है-'सो एसो जस्स गुणा' त्याह અરે, આપ તે એવાં પુરુષ છે કે જેના ગુણો દસે દિશાઓમાં વ્યાપી ગયો છે, આપનું નામ અત્યાર સુધી તે કથા, વાર્તાઓમાં જ સાંભળ્યું For Private And Personal Use Only Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org सूत्रकृताङ्ग सूत्रे अनेन प्रकारेण 'उदराणुगिद्धे' उदरानुगृद्धः = उदरभरणान्नं प्रति स्पृहावान् विनाशमेति । क इव तत्राह - ' नीवार गिद्धेव महावराहे' नीवारगृद्ध इव महावराहः, धान्यम् तस्मिन् गृद्ध आसक्तः, आसक्त चित्तपरिवारमादाय महावराहः स्थूलकाय: शुकर इवाऽतिसंकटे प्रविष्टः सन् 'अदूर९' अदूरे अतिशीघ्रम् 'घातमेव' विनाशमेव 'एहि ' एष्यति, माध्स्यति । अवश्यमेव विनाशमेवष्यति नाsन्या गतिरस्ति । यथा वराहो जिहालोलुपतया मोज्यासक्तोऽतिसंकटस्थानं प्राप्य विनश्यति, तथैवाऽयं मुखमांगलिक इव उदरपोषणार्थं परगृहं घावन संसारसंकटमापतितो विनाशमेव प्राप्स्यतीति । यः स्वीयं गृहादिकमुत्सृज्य ; Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इस प्रकार पेट के लिए जो दूसरों की प्रशंसा करता है, वह मुखमांगलिक विनाश को प्राप्त होता है । इस अर्थ को समझाने के लिये उपमा का प्रयोग करते हैं- नीवार नामक जंगली धान्य में आसक्त स्थूलकाय शूकर जैसे परिवार सहित संकट में पड़कर शीघ्र ही विनाश को प्राप्त होता है, विनाश को प्राप्त होने के अतिरिक्त उस की दूसरी कोई गति नहीं, है उसी प्रकार वह उदरंभरी भी विनाश को ही प्राप्त होता है । आशय यह है - जैसे शूकर जिहालोलुप होकर भोजन में आसक्त होता है और संकटस्थान को प्राप्त करके प्राणों से रहित होता है उसी प्रकार मुखमांगलिक साधु भी उदर गृद्ध रसलोलुप होकर पराये घरों , તુ', આજ આપને સાક્ષ!ત્ જોવાની તક મળી છે. ' આ પ્રકારે પેટને ખાતર જે અન્યની પ્રશ ́સા કરે છે, તે મુખમાંગલિક સયમના માગેથી ભ્રષ્ટ થઈ ને શીઘ્ર વિનાશ પામે છે. આ વાતને સમજાવવા માટે સૂત્રકારે નીચેની ઉપમાના પ્રયાગ કર્યું છે. નીવાર (તાબ્દુલ જેવુ" જંગલી ધાન્ય)માં આસક્ત થયેલું સ્થૂળ કાય સૂવર જેવી રીતે પિરવાર સહિત સંકટમાં (શિકારીની જાળમાં) પડીને પેાતાના વિનાશ નાતરે છે, એજ પ્રમાણે ઉદરભરી (સ્વાદિષ્ટ ભાજનની લાલસાવાળા) સાધુ પશુ વિનાશને જ નાતરે છે. આશય એ છે કે જેમ સૂત્રર જિહવાલોલુપ બનીને-તાંદુલ આદિ ભેજનમાં આસક્ત થઈને સંકટ સ્થાનમાં (જાળમાં) ફસાઈ જાય છે અને પેાતાના પ્રાણે ગુમાવી બેસે છે, એજ પ્રમાણે મુખમાંગલિક સાધુ પણ ઉત્તર ગૃદ્ધ (ભોજન મેળવવાની લાલસાવાળા) થઈ ને કાં ા દૈન્યભાવ પ્રકટ કરીને ભિક્ષા માગે છે, કાં તેા દાતાની પ્રશ'સા કરીને દાતા પાસેથી સ્વાદિષ્ટ ભેજન પ્રાપ્ત કરવાની આશા રાખે છે. એવા દૈન્ય ભાવયુક્ત મુખમાંગલિક સાધુ સાધુઓના For Private And Personal Use Only Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. म. ७ उ. १ कुशीलवता दोषनिरूपणम् ६२९ परगृहं भोजनाय प्रवर्तते, चारणवत् स्तुतिवाक्यानि प्रयुंजानो भक्ष्यासक्तवराह इव शीघ्रमेव विनश्यति संसारं भ्रमिष्यतीति भावः ॥२५॥ पुनरप्याह-'अन्नस्स पाणस्स' इत्यादि। मूलम्-अन्नस्स पाणसिंह लोइयस्स अणुप्पियं भासइ सेवमाणे। .. पासस्थयं चेव कुसीलयं च निस्सारए होई जहा पुलाए।२६। छाया-अन्नस्य पानस्यैहलौकिकरयाऽनुप्रियं भाषते सेवमानः।। पार्श्वस्थतां चैव कुशीलतां च निस्सारो भवति यथा पुलाकः ॥२६॥ में जाकर पेट भरने में तत्पर रहता है वह संसार रूपी संकट में पड़ता है। वह शीघ्र विनाश को प्राप्त होगा अर्थात् संसार परिभ्रमण करेगा।२५। पुनः कहते हैं-'अन्नस्त पाणस्स' इत्यादि। शब्दार्थ-'अन्नस्स पाणस्स-अन्नस्य पानस्य' अन्न तथा पान 'इहलोह. यस्स-ऐहलौकिकस्य' अथवा वस्त्र आदि इस लोकके पदार्थ के निमित्त 'सेवमाणे-सेवमान:' सेवा करता हुआ जो पुरुष 'अणुप्पियं भासहअनुप्रियं भाषते' प्रियभाषण करता है वह 'पासस्थियं चेव कुसीलयं चपार्श्वस्थतां कुशीलतां च' पार्श्वस्थ भावको तथा कुशीलभाव को प्राप्त होता है 'जहा पुलाए-यथा पुलाक' तथा यह भूसाके जैसा 'निस्सारए होइ-निस्सारो भवति' सार रहित होजाता है अर्थात् संयम से परिभ्रष्ट हो जाता है ॥२६॥ આ ચારોનું પાલન નહીં કરી શકવાને કારણે સંસાર રૂપ સંકટમાં ફક્સાઈ જાય છે. એટલે કે એ સાધુ સંસારમાં પરિભ્રમણ કરતે રહે છે અને સંસારનાં દુખે ભેગાવ્યા કરે છે. મેક્ષ રૂપી પરમસુખને તે ગુમાવી બેસે છે. જે ૨૫ કુશલેના વિષયમાં સૂત્રકાર આ પ્રમાણે વિશેષ કથન કરે છે'अन्नस्स पाणस्स' त्यादि शहाथ-'अन्नस्स पाणस्स-अन्नस्य पानस्य' मथ। भन्न तथा पाम 'इहलोइयस्स-ऐइलौकिकस्य' अथवा पर विगेरे भी ना पहा निमित्त 'सेवमाणे-सेवमानः' सेवनी भरे ५३५ 'अणुप्पिय भासइ-अनुप्रिय भाषते' (प्रिय भाष ४२ छ, ते 'पासस्थिय चेव कुसीलय च-पार्श्वस्थतां कुशीलतां च' पाश्वरथ मापन तथा शासनाने प्राप्त थाय छे. 'जहा पुलाए-यथा पुलाकः' तथा ते मुसांना 'निस्सारए होइ-निस्सारो भवति' सा२ । मनी mय छे. अर्थात् सयमयी परिष्ट 2 14 छ. ॥ २६ ॥ For Private And Personal Use Only Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६३० सूत्रकृताङ्गसूत्रे ___ अन्वयार्थः--(अन्नस्स पाणस्स) अन्नस्य भोज्यवस्तुनः पानस्य-जलस्य (इहलोइयस्स) ऐहलौकिकरप कृते वस्त्रादिकृते वा (सेवमाणे) सेवमानः-सेवा कुर्वन् सेवकवत् (अणुप्पियं भासइ) अनुप्रियं सेव्यार्थमिष्टवचनम् भाषते वदति सः (पासत्थयं चेव कुसीलयं च) पार्श्वस्थतां कुशीलतांच गच्छति (जहा पुलाए) यथा पुलाकः पलालः तथा (निस्सारए होइ) निस्सारो भवति-संयमात् परिभ्रष्टो भवतीति ॥२६॥ टीका--या कुशीलः, 'अन्नस्स' अन्नस्य 'पानस्स' पानस्य जलादेः कृते 'इहलोइयस्स ऐहलौकिकस्याऽन्यस्य वैहिकार्थस्य वस्त्रादेः कृते 'अणुप्पियं' अनुप्रियम् 'भासई' भाषते यस्य वदान्यस्य यद्यत् प्रियं तत्पुरतस्तत्तदेव भापते दातुः मनोगतं पियमेव सेवकादिवत् वदति । 'सेवमाणे' सेवमानः आहारवस्त्राद्यर्थ पुस्तकज्ञानशालो. पाश्रयाययं वा दातारमनुसेवमानः सर्वमेतस्कर्तुं स्वीकरोति । सचैव भूतः सदाचाररहितः 'पासत्थयं चेत्र कुभीलयं च' पार्श्वस्थतां कुशीलतां च गच्छति। तथा'निस्सारए' निःसारः 'होई' भवति निर्गतासारः चारित्राख्यो यस्य स निस्सारः। अन्वयार्थ-जो अन्न के लिए पानी के लिए अथवा इहलोक संबंधी वस्त्र आदि के लिए दाता की सेवक के समान सेवा करता चाटुकारी करता रहता है, वह पार्थस्थता और कुशीलता को प्राप्त होता है। घह भूसे के समान निस्सार अर्थात् संयम से रहित होता है ॥२६॥ टीकार्थ-अन्न के लिए पानी के लिए अथवा इहलोक संबंधी वस्त्र आदि पदार्थ के लिए जो प्रियभाषण करता है, दाता को जो जो प्रिय है, उसके समक्ष वही वही कहता है अर्थात् उसकी प्रशंसा करता है अथवा आहार वस्त्रपात्रादि के लिए दाता की सेवा करता है, ऐसा सदाचार हीन साधु पार्श्वस्थ या कुशील होता है। वह पुलाक अर्थात् સૂત્રાર્થ—જે અન્નને માટે, પાણીને માટે અથવા આ લેક સંબંધી વસ્ત્રાદિને માટે દાતાની સેવકની જેમ સેવા કરે છે અથવા ખુશામત કરે છે, તે સાધુ પાશ્વથ (શિથિલાચારી) અને કુશીલ બની જાય છે. તે ભૂસાના જે નિસાર-સંયમથી રહિત થઈ જાય છે. ૨૬ ટીકાર્થ–જે સાધુ અન્ન, પાણી, વસ્ત્ર આદિને માટે દાતાની સેવા કરે છે, અથવા દાતાને ખુશ કરવાને માટે મીઠી મીઠી વાત કરે છે, દાતાને પ્રિય લાગે એવાં વચને બોલે છે–દાતાની પ્રશંસા કરે છે, અથવા દાતાની ખુશામત કરે છે, એ સદાચાર હીન સાધુ પાર્શ્વસ્થ અથવા કુશીલ હોય છે. For Private And Personal Use Only Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ७ उ. १ कुशीलवतां दोषनिरूपणम् ६३१ अथवा - निर्गतः सारो यस्मात् निःसारः । 'जहा' यथा 'पुलाए' पुलाक', पलालो धान्यानामाधारदण्ड: पळालड़व, अौ भवति । एवं कर्त्ता कुशीलः साधुःसाधुवेषधारी, राजवेपधारिनटवत् यथा स्वसाराद्वान्याद्धीनः पलालो निस्सारः, तथाऽयमपि संयमानुष्ठानं सारं निस्वार्थी आत्मानं निस्सारी करोति । एतादृशोऽसौ लिंगमात्राऽवशिष्टः शिष्टानां बहूनां स्वयूथ्यानां तिरस्कारास्पदं पदं प्रतिष्ठते । परलोके चाऽनेकविधानि यातनास्थानानि संतिष्ठते इति ॥ २६ ॥ | पलाल के समान निस्सार होता है, अर्थात् उसका चारित्र रूप सार हट जाता है या उसमें से चारित्र सार निकल जाता है । इस प्रकार का कृत्य करने वाला कुशील साधु अर्थात् साधुवेषधारी राजा का वेष धारण करने वाले नट के समान है । जैसे सारभूत धान्य के न रहने पर पलाल निस्सार हो जाता है, उसी प्रकार वह साधु भी संयमानुष्ठान रूपी सार से रहित होकर अपनी आत्मा को निस्सार बना लेता है । इस प्रकार निस्सार बना हुआ साधु केवल वेष मात्र से साधु रहजाता है और इहलोक में अपने ही गच्छ के अनेक शिष्ट साधुओं के तिरस्कार को प्राप्त होता है। परलोक में अनेक प्रकार के यातनास्थानों को प्राप्त करता है ॥२६॥ તે પરાળ (સા)ના સમાન નિસ્સાર હાય છે, એટલે કે જેમ ભૂંસામાં સત્વ હેતુ નથી, એજ પ્રમાણે એ માણસમાં પણ ચારિત્ર રૂપ સાર (સત્ર) નીકળી જવાથી તેનું જીવન પણ નિસ્સાર બની ગયુ હોય છે. આ પ્રકારના કુશીલ સાધુ, સાધુ કહેવાને પાત્ર પણ હતેા નથી. તે સાધુમાં સાધુનાં લક્ષણાના અભાવ હાવાને કારણે તે વૈષધારી સાધુ જ ગણાય છે. રાજાના વેષ ધારણ કરનાર નટને જેમ વેષધારી રાજા કહેવાય છે, તેમ એવા પુરુષને વૈષધારી સાધુ કહેવાય છે. જેવી રીતે સારભૂત ધાન્યને અલગ પાડવાથી બાકી રહેલુ પરાળ નિસ્સાર થઈ જાય છે, એજ પ્રમાણે સયમાનુ ષ્ઠાન રૂપ સારથી રહિત સાધુને આત્મા પણ નિસ્સાર બની જાય છે. આ પ્રકાર નિસ્સાર અનેલા સાધુ કેવળ વૈષધારી સાધુ જ ગણાય છે. એવા નિસ્સાર સાધુ આ લેકમાં પેાતાના ગચ્છના અનેક શિષ્ટ સાધુઓના તિરસ્કાર પામે છે, એટલું જ નહી. પશુ પલાકમાં અનેક પ્રકારના યાતનાસ્થાના પ્રાપ્ત કરે છે-દ્રુતિમાં ઉત્પન્ન થઈને અનેક યાતનાએ સહુન ३२. गाथा २६॥ For Private And Personal Use Only Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - सूत्रकृताङ्ग सम्मति साधु कल्पमाहमूलम्-अण्णातपिंडेणऽहियालएज्जा, जो पूर्वणं तवसा आवहेज्जा। सदेहि रुबेहिं असज्जमाणे, सव्वेहिं कॉमेहि विणीय गेहि ॥२७॥ छाया--अज्ञातपिण्डेनाऽधिस हेत, न पूननं तपमाऽऽबहेत् । शब्दै रूपै रसज्जन् सर्वैः कामैः विनीय गृद्धिम् ॥२७॥ अन्वयार्थः--यत एवमतः साधुः (अण्णातपिंडेण अहियासएज्जा) अज्ञातपिण्डे. नानातपिण्डद्वारा अधिसहेत संयमयात्रां निर्वहेत् (तवसा पूर्वणं णो आवहेज्जा) तपसा पूजनं स्वकीयसत्कारं नावहेत् नो ब्रूयात् (सद्देहिं रूबेहि असज्जमाण) साधु का आचार बताते हैं-'अण्णातभिडे गऽहियास एजा' इत्यादि। शब्दार्थ--'अण्णातपिंडेण अहियासहेजा-अज्ञातपिण्डेन अधि. सहेत' साधु अज्ञातपिण्डके द्वारा अपना निर्वाह करे 'तवसा पूधणं णो आवहेज्जा-तपसा पूजनं न आवहेत्' और तपस्या के द्वारा पूजा की इच्छा न करे 'सद्देहिं रूपेहिं असज्जमाणे-शब्दैः रूपैः असज्जन्' तथा शब्द और रूपमें आसक्त न होताहुआ 'सर्वहि-सर्वैः' सभी 'कामेहि-कामः' विषय रूपी कामनाओं से 'गेहि-गृद्धिम्' आसक्तिको 'विणीय-विनीय दूर करके संयमका पालन करें ॥२७॥ ___ अन्वयार्थ-साधु अज्ञातपिण्ड के द्वारा संयम यात्रा का निर्वाह करे । तपस्या के द्वारा सत्कार सन्मान की अभिलाषा न करे। मनोज्ञ हवे सूत्र२ साधुना मायारो मतावे छे-'अण्णातपिंडेणऽहियासएज्जा' शहाथ-'अण्णातपिडेण अहियासज्जाए-अक्ष तपिण्डेन अधिसहेस' साधु सातारा पोताना निवड ४२ 'तवसा पूयणं णो आवहेज्जा-तपसा पूजनं न आवहेत्' तया तपस्या द्वारा पूजनी ४२छा न १२ 'सहि स्वेहि असज्जमाणे-शब्दैः रूपैः असज्जन्' तथा श६ भने ३५मां भासत या विना 'सव्वेहि-सवैः' मा 'कामेहि-कामैः' विषय३५ी मनायोथी 'गेहि-गृद्धिम्' भासहितने 'विणीय-विनीय' (२ ४ीन सयभनु पालन ४२ ॥२७॥ - સૂત્રાર્થ–સાધુએ અજ્ઞાત પિંડ દ્વારા સંયમયાત્રાને નિર્વાહ કરે જોઈએ. તપસ્યાઓ દ્વારા સત્કાર સન્માનની ઈચ્છા કરવી જોઈએ નહીં. For Private And Personal Use Only Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ७ उ.१ कुशोलवतो दोषनिरूपणम् ॥ शब्दै गादि जनितमनोज्ञशब्दैः रूपै मनोज्ञैः अपज्जन आसक्तिमकुर्वन (सव्वेदि) सर्वः (कामेहिं) कामैः-इच्छामदनरूपैः (गेहि) गृद्धि मासक्तिम् (विणीय) विनीयअपनीय संयम पालयेदिति ॥२७॥ ___टोका---'अण्णातरिडेग' अज्ञातपिण्डेन-वृत्या लब्धेन अज्ञातश्चासौ पिण्डः अन्तप्रान्तः पयुषितः तेन, अज्ञातेभ्यः पूर्वाऽपरपरिचयरहितेभ्यः प्राप्तपिण्डः इत्यज्ञातपिण्डस्तेन 'अहियासएज्जा' अधिसहेत-संयमयात्रां निर्वहेत् । तथा'तवसा' तपसा तपसा-तास्यया वा आत्मनः पूषणं पूजनम् 'गो' न 'आवहेज्जा' आवहेत-न वा गच्छन् । अन्नप्रान्तेन लब्धेनाऽलब्धेन दैन्यं न कुर्यात्, न वा-उस्क. टेन लब्धाहारेण मदमपि कुर्यात् । न वा भादरसत्कारार्थ तपः कुर्यात् । अथवा-मान शब्दों और रूपों में आसक्ति न करता हुमा, समस्त कामभोगों की गृद्धि को दूर कर के संयम का पालन करे ॥२७॥ __टीकार्य-जो पिण्ड अर्थात् आहार अन्त प्रान्त रूखा सूख। शीतल (वासी) हो वह अथवा जो पूर्वकालीन परिचित न हो, उससे ग्रहण किया हुभा हो वह अज्ञातपिण्ड कहलाता है। इस प्रकार साधु भिक्षावृत्ति से प्राप्त आज्ञातपिण्ड से अपनी संयमयात्रा का निर्वाह करें । तपश्चार्या करके उससे अपनी मान सन्मान की इच्छा न करें। यदि अन्तमान्त आहार मिले अथवा न मिले तो भी दीनता धारण न करें । उत्तम और पर्याप्त आहार पाकर अभिमान न करें। सत्कार सन्मान पाने की कामना से तप न करें जो तप मोक्ष का साधन है, મનેશ શબ્દો અને રૂપમાં તેણે આસક્ત થવું જોઈએ નહીં. સમસ્ત કામભેગોની વૃદ્ધિ (લાલસા)ને ત્યાગ કરીને, તેણે સંયમનું પાલન કરવું જોઈએ. રછો -२ पिड अथवा भाडा२, सन्त, प्रान्त, सू, सू, 31, વાસી હોય તેને, અથવા પૂર્વકાલીન પરિચય ન હોય એવા દાતા પાસેથી ગ્રહણ કરવામાં આવે છે, તે આહારને અજ્ઞાતપિડ કહે છે. સાધુએ ભિક્ષાવૃત્તિ દ્વારા પ્રાપ્ત થયેલા, આ પ્રકારના અજ્ઞાતપિંડ દ્વારા પોતાની સંય. મયાત્રાને નિર્વાહ કરે જોઈએ. સાધુએ તપસ્યા કરવી જોઈએ, પરંતુ તપસ્યા દ્વારા માન સન્માનની ઈચ્છા રાખવી જોઈએ નહીં. અનઃપ્રાત આહારની પણ કદાચ પ્રાપ્તિ થાય કે ન થાય, છતાં પણ દૈન્યભાવ ધારણ કરે જોઈએ નહીં. ઉત્તમ અને પર્યાપ્ત આહાર મળી જાય, તે અનિમાન કરવું જોઈએ નહીં. સત્કાર અને સન્માન મેળવવાની ઈચ્છાથી તપ કરવું નહીં ? सू० ८० - For Private And Personal Use Only Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूप्रकृताङ्गसूत्रे -सम्मानसत्कारनिमित्तत्वेन मोक्ष कारणं तपो नैव निष्फली कुर्यात् । तथाचोक्तम् 'परं लोकाधिक धाम-तपःश्रुतमिति द्वयम् । तदेवाणित्वनिर्लप्त सारं तृणलवायते ॥१॥ इति । परलोके उत्तमस्थानदायकं तपः श्रुतं च आभ्यां सांसारिकपदार्थमिच्छन् अनयोः सामर्म निः सरति, तत इमौ शुष्कतृणवत् निःसारौ भवत इति भावः ।। यथा च रसेषु तथैव रूपादावपि, आसक्तिं न कुर्यात् इत्यत आह-'सद्देहि' शब्दैः-वेणुवीणादिशब्दैः ‘रूवेहि' रूपैश्च 'असज्जमाणे' असंजन आसक्तिमकुर्वन् , तथा 'सम्वेहि कामेहि सर्वेभ्यः कानैः सर्वेभ्यः कामेभ्यः इत्यर्थः 'गेहि गृद्धिम्आसक्तिम् 'वणीय' विनीय 'अपनीय' परित्यज्येत्यर्थः अनुकूले शब्दे आसक्ति विधूय तथा प्रतिकूलेषु शब्दादिषु द्वेषम कृष्णा मोक्षमार्गे मनो विदध्याद । साघुउसे मान सन्मान सत्कार का साधन बना कर निष्फल न करें। कहा भी हैं-'परं लोकाधिकं धाम' इत्यादि। ___'तप और श्रुत लोक से भी उत्तम अर्थात् लोकोत्तर स्थान (मोक्ष) को देने वाले हैं। इनके तप श्रुत के द्वारा जो सांसारिक पदार्थों की इच्छा करता है, वह इनके तप और श्रुत तिनके (तृणके) के समान निस्सार हो जाते हैं।' . जैसे रसों में आसक्ति करना योग्य नहीं, उसीप्रकार वेणु वीणा भादि के शब्दों में तथा रूप आदि में भी आसक्ति नहीं करनी चाहिए। मतपच कहते हैं-वेणु वीणा आदि वाद्यों के तथा स्त्री आदि के शब्दों में और रूपों में आसक्ति धारण न करता हुआ तथा समस्त कामતપ મોક્ષપ્રાપ્તિનું સાધન છે, તેને માન સન્માન અને સંસ્કારનું સાધન બનાવીને નિષ્ફળ કરવું જોઈએ નહીં. કહ્યું છે કે 'परं लोकाधिक धाम' त्याहि તપ અને શ્રત લેકથી પણ ઉત્તમ સ્થાનની (લોકેત્તર સ્થાન રૂપ એક્ષની) પ્રાપ્તિ કરાવે છે. જેને પિતાના તપ અને શ્રત દ્વારા સાંસારિક પદાર્થોની અભિલાષા કરે છે, તેમનાં તપ અને શ્રત તૃણ (પરાળ)ની જેમ નિસ્સાર થઈ જાય છે. - જેમ રસમાં આસક્ત થવું તે સાધુને માટે યોગ્ય નથી, એજ પ્રમાણે વેચવીણા વગેરેના શબ્દોમાં તથા રૂપ આદિમાં પણ તેણે આસક્ત થવું જોઈએ નહીં. તેથી જ કહ્યું છે કે-વેણુ, વણા આદિ વાદ્યોમાં, તથા શ્રી ગાદિના શબ્દોમાં અને રૂપમાં અસક્તિ રાખ્યા વિના, તથા સમસ્ત કામ For Private And Personal Use Only Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ७ उ.१ कुशीलवतां दोषनिरूपणम् रज्ञातपिण्डद्वारा स्वकीयसंयमायात्रा निर्वहेत, तपो द्वारेण सकारात्मकख्याति नेवाभिलषेत्, एवं शब्दरूपरसादिविषय भोगानिवृत्तो भूत्वा शुद्धसंयममनुपालये इति भावः ॥२७॥ पुनरप्याह--'सवाई संगाई' इत्यादि । मूलम्-सव्वाइं संगाई अइच्च धीरे, सवाई दुक्खाई तितिक्खमाणे। अखिले अंगिद्धे अणिएयचारी अभयंकरे भिक्खू अणाविलप्पा ॥२८॥ छाया-सर्वान संगानतीत्य धीरः, सर्वाणि दुःखानि तितिक्षमाणः। " अखिलोऽगृद्धोऽनिकेतवारी, अभयंकरो भिक्षुरनाविलात्मा ॥२८॥ भोगों में अनासक्त रहता हुभा अर्थात् मनोज्ञरूप आदि में राग और अमनोज्ञ में देष का त्याग करके मोक्षमार्ग में ही मन को स्थापित करें। तात्पर्य यह है हि साधु अज्ञातपिण्डद्वारा अपनी संयमयात्रा का निर्वाह करे, तपस्या के द्वारा पूजा रूपाति की कामना न करे तथा शब्द, रूप, रस आदि इन्द्रियों के विषयों से निवृत्त होकर शुद्ध संयम का पालन करें । २७॥ पुनः कहते हैं-'सब्वाइं संगाई' इत्यादि। शब्दार्थ--'धीरे भिक्खू-धीरः भिक्षुः' बुद्धिमान् साधु 'सव्वाई संगाई हच्च-सर्वान् संमान् अतीत्य' सब प्रकार के सम्बन्धों को ભેગે પ્રત્યે અનાસક્ત ભાવ ધારણ કરીને, એટલે કે મને રૂપ આદિમાં રાગ અને અમને જ્ઞ રૂપ આદિમાં શ્રેષને ત્યાગ કરીને સાધુએ મેક્ષમાર્ગ રૂપ સંયમમાં જ મનને એકાગ્ર કરવું જોઈએ-સંયમની આરાધના જ ક્ય કરવી જોઈએ. તાત્પર્ય એ છે કે સાધુએ અજ્ઞાત પિંડ દ્વારા પિતાની સંયમયાત્રાને નિર્વાડ કરે, તપસ્યા દ્વારા માન અને સત્કારની કામના ન કરવી, શબ્દ, રસ, રૂપ આદિ ઈન્દ્રિયેના વિષયોથી નિવૃત્ત થઈને શુદ્ધ સંયમનું જ પાલન કરવું જોઈએ. ગાથા ૨૭ साधुन मायाशेनुसू५४२ विशे५ ५५५ रे छ–'सब्वाई संगाईया' शहाथ-धीरे भिक्खु-धीरः भिक्षुः' मुद्धिमान साधु 'सव्वाई संगाई अइच-सर्वान् संगान् अतीत्य' ५५ १२ना समपान छोडी 'सव्वाई For Private And Personal Use Only Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे - अन्वयार्थः-(धीरे भिक्खू) धीरो विवेकी भिक्षुः साधुः (सब्वाइं संगाई अइच) सर्वान संगान सम्बन्धान अतीत्य परित्यज्य (सबाई दुक्खाई तितिक्खमाणे) सर्वाणि दुःखानि-शीतोष्णादिरूपाणि परीपहोपसर्गननितानि तितिक्षमाणोऽधितहन (अखिले अगिद्धे अणिएयचारी) अखिलो ज्ञानदर्शनचारित्रै संपूर्णः अगृद्धः कामेषु तथा अनिकेतचारी अप्रतिबद्धविहारी (अभयंकरे) अभयंकरो भूतानामभयदाता (अणाविलप्पा) अनाविलात्मा विषयकपायरहितः संयम पालयेत् इति ॥२८॥ छोडकर 'सव्वाई दुक्खाई तितिक्खमाणे-सर्वाणि दुःखानि तितिक्षमाण' सय प्रकार के दुःखों को सहन करता हुआ 'अखिले अगिद्धे अणिएयचारी-अखिलो अगृद्धः अनियतचारी' ज्ञान दर्शन और चारित्र से सम्पूर्ण तथा विषय भोगों में आसक्त न होता हुआ एवं अप्रतिबद्ध विहारी 'अभयंकरे-अभयंकरः' प्राणियों को अभय देनेवाला 'अणाविलप्पा-अनाविलात्मा' तथा विषयकषयों से अनाकूल आत्मा. वाला होकर सम्यक् प्रकारसे संयमका पालन करता है ॥२८॥ -- अन्वयार्थ--धैर्यवान् भिक्षु समस्त संगों सम्बंधों से अलग रहकर समस्तदुःखों को सहन करता हुआ, ज्ञान दर्शन चारित्र तप से सम्पूर्ण होकर, कामभोगों में अनासक्त, अप्रतिबद्धविहारी, अभयंकरप्राणियों को अभयदाता और विषय कषाय से रहित होकर संयम का पालन करें ॥२८॥ दुक्खाइ तितिक्खमाणे-सर्वाणि दुःखानि तितिक्षमाणः' मा ना माने सहन ३२ता थ.! 'अखिले अगिद्धे अणिएयचारी-अखिलोऽगृद्धः अनियतचारी' જ્ઞાનદર્શન અને ચરિત્રથી સંપૂર્ણ તથા વિષયભોગેમાં આસક્ત ન થતા २४ तथा अप्रतिमविहारी 'अभय करे-अभय'कर' प्राणियोन समय मा५. qian 'अणाविलप्पा-अनाविलात्मा' तथा विषय पायाथी मनापूण मात्माવાળા થઈને સમ્યક્ પ્રકારથી સંયમનું પાલન કરે છે. જે ૨૮ . ... सूत्रा-धेयवान साधुसे समस्त गाना (Aधाना) त्या परीने, સમસ્ત દુઃખને સહન કરતા થકા, જ્ઞાન, દર્શન, ચારિત્ર અને તપથી પરિ. પૂર્ણ બનીને, કામ પ્રત્યે અનાસક્ત ભાવ રાખીને, અપ્રતિબદ્ધ વિહારી, અભયંકર (પ્રાણીઓને અભયદાતા) અને વિષય કષાયથી નિવૃત્ત થઈને સંયમનું પાલન કરવું જોઈએ, ૨૮ For Private And Personal Use Only Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अं. ७ उ.१ कुशीलवतां दोषनिरूपणम् ६३७ टीका-धीरे-धीरो बुद्धिमान् 'भिक्खू भिक्षुः-निरवद्यभिक्षणशीलः साधु 'सवाई' सन् 'संगाई' संगान 'अइच्च' अतीत्य-आन्तरान् स्नेहस्वरूपान् बाह्यान् द्रव्यपरिग्रहलक्षगान संबन्धान परित्यज्य 'सवाई' सर्वाणि 'दुक्खाई दुःखानि शारीरमानसानि परिग्रहपरीपहोपसर्गजनितानि 'तितिक्खमाणे तितिक्षमाण अधेितहन् 'अखिले' अखिल:-ज्ञानदर्शनचारित्रसंपन्नः 'अगिद्धे' अमृद्ध कामादिवैकारिकपदार्थेषु आसक्तिरहितः । 'अणिएयचारी' अनिकेतचारी, अपतिबद्धविहरणशीलः। तथा 'अभयंकरे'अभयंकरः-जीवानां सदैवाऽभयदाता । एतावता सर्वहिंसानिवृत्तः । एवम् 'अणाविलप्पा' अनाविलात्मा-अविल: कषायादिपरिवृतः न आविलोऽनाविळा, कषायादिभिरकलुषीकृतः, अनाविलश्चासौ आत्माचेति अनाविलामा । सर्वदा कषायरहितः । मोक्षमार्गानुयायी भवेदिति । बुद्धिमान् साधुः सर्व संबन्धं परित्यज्य परिषहोपसर्गजनितदुःखानि सहमानः टीकार्थ-बुद्धिमान साधु रागादि रूप आन्तरिक संगको और द्रव्यपरिग्रह रूप बाह्य संग को त्याग कर, समस्त शारीरिक, मानसिक, तथा परीषह उपसर्गजनित दुःखों को सहन करता हुमा, ज्ञान दर्शन चारित्र तप से परिपूर्ण समस्त परपदार्थों में आसक्ति रहित, अनियत. चारी अर्थात् अप्रतिबद्ध विहारी अथवा अनिकेतचारी एक जगह घर घनाकर न रहने वाला समस्त जीवों को अभयदाता अर्थात् सम्पूर्ण हिंसा से निवृत्त तथा कषाय आदि विकारों से अकलुषित आत्मा हो कर मोक्षमार्ग का अनुयायी हो। ___ तात्पर्य यह है कि-साधु समस्त सम्बन्धों को त्याग कर परीषहों तथा उपसर्गों से उत्पन्न होने वाले दुःखों को धैर्य के साथ सहन करें। ટીકાર્થ–બુદ્ધિમાન સાધુએ રાગાદિ રૂપ આન્તરિક સંગને અને દ્રય પરિગ્રહ રૂપ બાહ્ય સંગને ત્યાગ કરે જોઈએ. તેણે શારીરિક, માનસિક અને પરીષહ તથા ઉપસર્ગો દ્વારા જનિત સમસ્ત દુબેને સમભાવપૂર્વક સહન કરતા થકા જ્ઞાન દર્શન ચારિત્ર તપથી પરિપૂર્ણ થઈને, સમસ્ત પર પદાર્થોમાં આસક્તિને ત્યાગ કર જોઈએ અને અનિયતચારી (અપ્રતિબદ્ધ વિહારી) અથવા અનિતિચારી (એક જગ્યાએ ઘર બનાવીને ન રહેનાર) થવ જોઈએ. તેણે સમસ્ત જીવોના અભયદાતા થવું જોઈએ એટલે કે હિંસાન સંપૂર્ણ રૂપે ત્યાગ કર જોઈએ અને કષાય આદિ વિકારોને પરિત્યાગ કરીને મોક્ષમાર્ગ રૂપ સંયમની આરાધના કરવી જોઈએ. તાત્પર્ય એ છે કે સાધુએ સમસ્ત સંબંધને ત્યાગ કરીને પરિવહ અને ઉપસર્ગો દ્વારા ઉત્પન્ન થતાં દુઃખેને શૈર્ય પૂર્વક સહન કરવા જોઈએ. For Private And Personal Use Only Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६३८ सूत्रकृताङ्गसूत्रे ज्ञानदर्शन वारित्राख्यरत्नत्रयसंयुतः कस्मिन्नपि विषयेऽनासक्तोऽपतिबद्धविहारी सर्वेश माणिनिवहानां सदैव सर्वथाऽभयं प्रयच्छन् विषयकषायाभ्याम्-अनाकुलीकृतः संयमैकरतो भूयादिति भावः ॥२८॥ पुनरप्याह-'भारस्स जत्ता' इत्यादि । मूलम्-भारस्स जत्ता मुणी भुजएज्जा, कंखेज पावस्स विवेगं भिक्खू । दुक्खेण पुढे धुयमाइएज्जा, संगौमसीसवै परं दमेजा॥२९॥ छाया-भारस्य यात्रायै मुनि भुञ्जीत काक्षेत् पापस्य विवेकं भिक्षुः । दुःखेन स्पृष्टो धुलमादीत संग्रामशीर्ष इव परं दमयेत् ॥२९॥ . रत्नत्रय से युक्त हो और किसी भी विषय में मूर्छित न हो । अप्रतिबद्ध विहार करे और प्राणीमात्र को अभयदाता हो। उसकी आत्मा विषय एवं कषाय से मलीन न हो । एक मात्र संयम में ही निरत-त. पर रहे ॥२८॥ और भी कहते हैं-'भारस्स जत्ता' इत्यादि । शब्दार्थ--'मुणी-मुनिः' साधु 'भारस्स-भारस्य' संयमरूपी भार की 'जत्ता-यात्राये' रक्षा के लिये 'मुंजएजा-मुंजीत' आहार लेवें 'भिक्खू-भिक्षुः साधु 'पावस्स विवेगं कंखेज्ज-पापस्य विवेक काङ क्षेत्' अपने किये हुए पापको त्यागने की इच्छा करे 'दुक्खेण पुढे धुयતેણે જ્ઞાનદર્શન અને ચારિત્ર રૂપ નત્રયથી યુક્ત થઈને શબ્દાદિ વિષયમાં આસક્ત થવું જોઈએ નહીં. તેણે અપ્રતિબદ્ધ વિહારી થવું જોઈએ અને હિંસાથી નિવૃત્ત થઈને પ્રાણીમાત્રના અભયદાતા થવું જોઈએ. તેને આત્મા વિષયે અને કષાયથી કલુષિત થવું જોઈએ નહીં. તેણે સંયમાનુષ્ઠાને માં જ પ્રવૃત્ત થવું જોઈએ. ગાથા ૨૮ સાધુના આચારોનું વિશેષ નિરૂપણ કરતા સૂત્રકાર કહે છે કે'भारस्स जत्ता' याह शा---'मुणी-मुनिः' साधुसे 'भा रस-भारस्य' सयभ३५ मारनी 'जत्ता-यात्रायै' २६१ ४२११ मा भुंजएज्जा-मुंजित' मा२ सेव! 'भिक्खू-भिक्षुः' सधु 'पावस्त्र विवेगं कंखेजा-पापस्य विवेकं काऽक्षेत्' पोते रे पापने त्यापानी ४२७। ४२ 'दुक्खेण पुढे धुयम इएज्जा-दुःखेन स्पृष्ट: धुतम् आददीत' For Private And Personal Use Only Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 'समर्थबोधना टीका प्र. श्रु. अ. ७ उ. १ कुशीलवतां दोषनिरूपणम् ६३९ अन्वयार्थ :- (मुणी) मुनिः साधुः ( भारस्स ) भारस्य - संगममारस्य ( जत्ता) यात्रायें निर्वाहार्थम् (भुंजना) मुंजीत आहारं कुर्यात् ( भिक्खू ) भिक्षुः (पावस विवेकं खेज्ज) पापस्य कर्मणः विवेकं पृथग्भावं कांक्षे अभिलषेत ( दुक्खेण पुट्ठे घुमाइएज्जा) दुःखेन पीडया स्पृष्टो व्याप्तः सन् धु संयमं मोक्ष वा आदी गृह्णीयात ( संगामसीसेव परं दमेज्जा) संग्रामशीर्षे रणभूम इव परं कर्मशत्रुम् दमयेत् दमनं कुर्यादिति ॥ २९ ॥ LOVE Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टीका- 'मुणि' मुनि:-जिनाज्ञामननशील :-'भारस्स' संयमभारस्य जत्ता= यात्रा यात्रार्थं पंचमहावत निर्वाहार्थम् 'एज्जा' भुञ्जीत आहारं कुर्याद, तावदेव भोक्तव्यं यावता शरीरं पचलेत् न तु शरीरवृद्धये भुञ्जीत । तथा-'पावस्स' माइएज्जा- दुःखेन स्पृष्टः धुनम् आदद्दीत' तथा दुःखसे स्पर्श पाता हुआ संयम अथवा मोक्षमें ध्यान लगावें' 'संगाम सीसेव परं दमेज्जा-संग्रामशीर्ष इव परं दमयेत्' युद्धभूमि में सुभट पुरुष शत्रु के योद्धा को दमन करता है इसी प्रकार साधु कर्मरूपी शत्रुओं को दमन करते रहे ||२९|| अन्वयार्थ - मुनि संयम की यात्रा का निर्वाह करने के लिए आहार करें, पाप कर्म के पृथक्श्व की आकांक्षा करे । दुःख से स्पृष्ट होकर संयम या मोक्ष को ग्रहण करे । जैसे योद्धा संग्राम के अग्रभाग में शत्रु का दमन करता है, उसी प्रकार कर्मशत्रु का दमन करे ||२९|| टोकार्थ - जिन भगवान् की आज्ञा का मनन करने वाला मुनि कहलाता है । ऐसा मुनि पंच महाव्रत रूप संयम यात्रा का निर्वाह करने તથા દુ:ખથી સ્પર્શ પામીને સંયમ અર્થાત્ માક્ષમાગ માં ધ્યાન લગાવે 'संगामखीसेव पर' दमेज्जा - संग्रामशीर्ष इव पर दमयेत्' युद्धभूमिमां सुलट પુરૂષ શત્રુના ચેહાનું દમન કરે છે, એજ પ્રમાણે સાધુ ક રૂપી શત્રુઓનું દમન કરતા રહે ! ૨૯ !! સૂત્રા—મુનિએ સયમયાત્રાના નિર્વાહ કરવા પુરતા જ માહાર લેવે જોઇએ. તેણે પાપકમેકને આત્માથી અલગ કરવાની જ કામના સેવવી જોઇએ. દુઃખ આવી પડે, ત્યારે સમભાવ પૂર્વક દુઃખ સહન કરીને સયમ અથવા માક્ષમાગ માં અવિચલ રહેવું જોઈએ. જેવી રીતે ચેદ્ધો સંગ્રામના અગ્રભાગમાં ઊભા રહીને શત્રુનુ દમન કરે છે, એજ પ્રમાણે તેણે કશત્રુનું દમન કરવુ' જોઇએ. રા ટીકા જિનેન્દ્ર ભગવાનની આજ્ઞાનું મનન કરનાર સાધુને મુનિ કહે છે. એવા મુનિએ પાંચ મહાવ્રત રૂપ સયમયાત્રાના નિર્વાહ કરવાને માટે જ For Private And Personal Use Only Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६४० सूत्रकृताङ्गसूत्रे पापस्य, पूर्वाचरिताऽशुभकर्मणः 'विवेग' विवेकं पृथभाव पार्थक्यम् ‘कंखेज्ज' आकांक्षेत, तया 'दुक्खेण' दुःखेन-दुःखयतीति दुःखं परीपहोपसर्गजनिता पीड़ा, तेन 'पुढे' स्पृष्टः-व्याप्तोऽपि सन् 'धुयमाइएज्जा' धुतमाददीत, धुतं-संयमम् मोक्षं वा गृह्णीयात् । 'संगामसीसे' संग्रामो रणः तस्य शिरसि पुरोमागे इव 'परं दमेज्जा' परं शत्रु दमयेत् । यथा-कश्रिदतुलपराक्रमः सुभटः संग्रामाग्रभागेस्थितः शत्रुभिर्वाध्यमानोऽपि तेषां बाधां धैर्येण सहन् तान् विनाशयति । एवमेवदान्तः साधुरपि संयममार्गे स्थितः परिषहादिभिरनवरतं बाध्यमानोऽपि कर्मशत्रु सहसा विनाशयेत् ॥इति।।२९।। पुनरप्याह- 'अविहम्ममाणे' इत्यादि। मूलम्-अविहम्ममाणे फलगावतही समागमं कंखति अंतकस्स। णिधूय कम्मण पवंचुवेइ अक्खक्खए वा सगडंत्तिबेमि॥३०॥ के लिए ही आहार करें । उसे उतना ही आहार करना चाहिए जिससे शरीर काम देता रहे । वह शरीर की पुष्टि के लिए न खाएँ । तथा पूर्वोपार्जित अशुभ कर्म को पृथक करने की आकांक्षा करें। जब दुःख अर्थात् परीषह उपसर्गजनित पीड़ा से स्पृष्ट हो तो संयम को अथवा मोक्ष को ग्रहण करें । जैसे अनुपम पराक्रमवान् सुभर संग्राम के अग्रभाग में स्थित होकर शत्रुओं द्वारा वाधित होकर भी उस बाधा को धैर्य के साथ सहन करता है और शत्रुभों का विनाशकरता है, इसी प्रकार दमनशील साधु संयममार्ग में स्थित होकर परीषहों आदि से पीड़ित होने पर भी कर्म शत्रु भों को विनष्ट करने में पराक्रम करें ।२९। આહાર લેવો જોઈએ. તેણે એટલે જ આહાર લેવું જોઈએ કે જેથી શરીર કામ દેતું રહે. તેણે શરીરની પુષ્ટિને માટે કે સ્વાદલપતાને કારણે ખાવું જોઈએ નહીં. તેણે પૂર્વોપાર્જિત કર્મોને આત્માથી અલગ કરવાની જ અભિ. લાષા કરવી જોઈએ. જ્યારે દુઃખ આવી પડે એટલે કે પરીષહ કે ઉપસર્ગ. જનિત પીડા આવી પડે, ત્યારે તેણે સમભાવ પૂર્વક તેને સહન કરીને સંય. મન અથવા મેક્ષના માર્ગ પર અવિચલ રહેવું જોઈએ. જેવી રીતે અનુપમ પરાક્રમથી યુક્ત સુભટ, સંગ્રામના અગ્ર ભાગમાં દૃઢતા પૂર્વક ખડે રહીને, શત્રુઓ દ્વારા ગમે તેવી મુશ્કેલીઓ ઊભી કરવામાં આવે તે પણ થી તેમને સામને કરીને, શત્રુઓને વિનાશ કરે છે, એ જ પ્રમાણે દમનશીલ સાધુ પણ સંયમમાર્ગમાં દઢ રહીને, પરીષહે આદિ દ્વારા પીડિત થવા છતાં પણ, કર્મશત્રુઓને વિનાશ કરવામાં જ પ્રયત્નશીલ રહે છે. અગાથા ૨લા For Private And Personal Use Only Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समार्थबोधिनी टीका प्र. थु. अ. ७ उ. १ कुशीलवतां दोषनिरूपणम् छाया - अपि हन्यमानः फलकावतष्टः समागमं कांक्षत्यन्तकस्य । निर्घुण कर्म न पैति अक्षय इन शकटमिति ब्रवीमि ॥२॥ अन्वयार्थः - ( अविम्ममाणे) साधुः अपि हन्यमानः उपसर्गादिभिः पीडय मानोषि (फळगावती) फलकावद:- फलकवत् तनूकुतः (अंतकस्य समागमं और कहते है- 'अवि हम्ममाणे इत्यादि । शब्दार्थ- 'अविस्ममाणे- अपि हन्यमानः साधु परीषद एवं उप सर्गों के द्वारा पीडा पाता हुआ भी उसे लहन करे 'फलानडी-फल arents: ' जैसे काष्ठ की पटिया दोनों तरफले छोली जाती हुई रागद्वेष नहीं करती है उसीप्रकार बाह्य एवं अभ्यन्तर तपसे कष्ट पाता हुआ भी रामदेव न करे fasta aमागमं कंखति - अन्तकस्य समागमं कांक्षति' मृत्यु के आनेकी प्रतीक्षा करे 'णिधूय कम्मं-कर्म निर्धूय' इस प्रकार से कर्म को दूर करके साधु 'ण पवंचुवेह-न प्रपञ्चम् उपैति ' जन्म, मरण और रोग, शोक आदि को प्राप्त नहीं करता है 'अक्खक्खए वा सगडं-अक्षक्षये शकटमित्र' जैसे अक्ष (धुरा) के टूट जाने से गाडी आगे नहीं चलती है 'सिबेमि इति ब्रवीमि ऐसा मैं कहता हूं ||२०|| अन्वयार्थ - - उपसर्गों द्वारा पीड़ित होने पर भी साधु ष्ठ के पटिये के जैसे रागद्वेष न करे, किन्तु समभाव से मृत्यु की प्रतीक्षा करें। सूत्रार साधुय्याने हे छे- 'अवि हम्ममाणे' इत्याहि शवार्थ–‘अवि हम्ममाणे- अपि इन्यमानः साधु परीषड भने उपसर्गो द्वारा पीडा यामीने तेने सडन रे 'फलगावतट्टी - फलकावतष्टः' भ લાકડાના પાટિયા અને ખાજુથી છેલાવા છતાં પણ રાગદ્વેષ કરતા નથી એજ પ્રમાણે ખ!હ્ય અને આભ્યંતર તપથી કષ્ટ પામીને પણ રાગદ્વેષ ન કરે 'अंतरस समागमं कखति - अंतकस्य समागमं कांक्षति' परंतु भात भाववानी शड लु 'णिधूय कम्मं - कर्म निर्धूय' या तिथी उसने दूर अरीने साधु 'ण पवंचुवेइ - न प्रपश्वम् उत' जन्म, भरथु भने रोग, शोक, विगेरने प्राप्तं उरता नथी 'अक्खक्खए वा सगडं-अक्षक्षये शकटमिव' प्रेमाक्ष उत घसराना तूटि भवाथी गाडी भागण यासी शती नथी. 'त्तिवेमि इति ब्रवीमि ' એ પ્રમાણે હું કહું છું ॥ ૩૦ ॥ સૂત્રા—ઉપસર્ગોં દ્વારા પીડિત થવાના પ્રસંગ આવી પડે, તે પણ સાધુએ કાષ્ટના પાટિયાની જેમ રાગદ્વેષ કરવા જોઈએ નહીં, પરન્તુ સમભાઁ सू० ८१ For Private And Personal Use Only Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे कंग्वति) अन्तकस्य मृत्योः समागममागमनं पण्डितमरणं कांक्षति आकाङ्क्षति (णिधृय कम्म) कर्म नि यानीय (ण पवंचुवेइ) प्रपञ्चम् संसारम् न उपैति न प्राप्नोति (अक्खक्खए वा सगडं) अक्षक्षये शकटामिव गव्यादिकम् (त्तिबेमि) इति बीवीमि, इति ॥३०॥ ___टीका-परीषहादिभिः 'हम्ममाणे' हन्यमानः 'अवि' अपि पीडामुपगतो पि सम्यक् तस्य सहनं कुर्यात् । 'फलगावतही फलकावतष्टः, फलकं काष्ठखण्डः उभाभ्यामपि पार्श्वभ्यां तष्ठो घर्षितो घर्षणमनुमत् । अथवा, यथा काष्ठखण्डः शीतातपाभ्यां पराभूयमानोऽपि न वेपने, सुखं दुःखं वा नाऽनुभवति । तथा-साधुरपि बाह्याभ्यन्तरतपोभ्यां निष्टपदेसन्-आविष्ठेत्' एवंभूतः सन् अंतकस्स' अन्तं विनाश करोतीति, अन्तको मृत्युः तस्य 'समागम' समागमम् आगमनम् पण्डितमरणरूपं 'कावति' कांक्षति-अभिलपति । एवम्-'कम्म अष्ट. विधं कर्म ज्ञानावरणीयादिकं गिधूय' नितरां निध्य विनाश्य 'ण' न 'पवंचुवेइ' ऐसा करने वाला साधु भवभ्रमण को प्राप्त नहीं होता जैसे धूरा टूटजाने पर गाड़ी आदि आगे नहीं चलती । ऐसा मैं कहता हूँ ॥३०॥ टीकार्थ--साधु यदि परीषह से पीड़ित हो तो उसे सम्धक प्रकार से सहन करें। जैसे काठ का पटिया दोनों ओर से छीला जाने पर भी या काष्ठ का खण्ड सी गर्मी से पराभूत होकर भी कम्पित नहीं होता या रागद्वेष के वशीभूत नहीं होता, उसी प्रकार उपसर्ग आदि से पीड़ित होता हुआ भी साधु राग द्वेष से रहित होकर मृत्यु की प्रतीक्षा करता है अर्थात् समाधि मरण की अभिलाषा करें। ऐसा करके वह વથી મૃત્યુને ભેટવા તૈયાર રહેવું જોઈએ. જેમ ધૂરા તૂટી જાય ત્યારે ગાડી આગળ વધી શકતી નથી, એ જ પ્રમાણે કમેનો સદન્તર ક્ષય થઈ જવાથી ભવભ્રમણ પણ ચાલુ રહી શકતું નથી, એવું તીર્થકરે ક કથન છે. હું તે કથનનું જ અનુકથન કરી રહ્યો છું. ૩૦ ટીકા–ગમે તેવાં ઉગ્નપરીષહોને પણ સાધુએ સમભાવપૂર્વક સહન કરવા જોઈએ. જેમ લાકડાના પાટિયાને બને તરફથી છેલવામાં આવે, અથવા તેને ગમે તેવી ઠંડી ગરમી સહન કરવી પડે, તે પણ તેને લાક ડાના પાટિયા પર કઈ પ્રભાવ પડતું નથી, એજ પ્રમાણે ઉપસર્ગ આદિ દ્વારા ગમે તેવી પીડા સહન કરવાને પ્રસંગ આવે, તે પણ સાધુ રાગદ્વેષથી રહિત થઈને, મૃત્યુની પ્રતીક્ષા કરે છે, એટલે કે સમાધિ મરણની અભિલાષા કરે છે. એવું કરવાથી તે જ્ઞાનાવરણીય આદિ આઠે પ્રકારનાં For Private And Personal Use Only Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org संमयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ७ उ. १ कुशीलवतां दोषनिरूपणम् ६४३ प्रपचं समुपैत्ते, प्राञ्चं जरामरणादि पञ्च्यते विस्तार्यते यस्मिन् स प्रपञ्चः संसारस्तं न प्राप्नोति । 'अक्खक्खर' अक्षक्ष - अस्त्र क्षये विनाशे सति 'सगडं ' शकटम् इव । यथा शकटम् - भक्षस्य रथचक्रयोजकाऽयोदण्डस्य विनाशे सति तभ गच्छति । तथा साधुरपि संसारमुपगच्छतीति । एवं तीर्थकरोदितं तुभ्यमहं कथयामि, इति सुधर्मस्वामी - स्वशिष्येभ्यः कथयति ||३०|| " इति श्री विश्वविख्यात जगद्वल्ल मादिपद भूषित बालब्रह्मचारि - 'जैनाचार्य ' पूज्य श्री - घासीलालवतिविरचितायां श्री सूत्रकृताङ्गसूत्रस्य “समयार्थबोधिन्याख्यायां " व्याख्यायां कुशी परिभाषाख्यं सप्तममध्ययनं समासम् ॥ ७-१ ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्मों को विनष्ट करके जरा जन्म मरण के प्रपंच से मुक्त होता हैं। जैसे गाड़ी धुरा के टट जाने पर आगे नहीं जाती, उसी प्रकार साधु भी कर्मों का क्षय हो जाने से संसार को प्राप्त नहीं होता अर्थात् भवभ्रमण आगे नहीं करता । तीर्थकरोक्त ही मैं तुम्हें कहता हू, ऐसा सुधर्मा स्वामी अपने शिष्यों से कहते हैं ||३०|| जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजी महाराजकृत 'सूत्रकृताङ्गसूत्र' की समयार्थबोधिनी व्याख्या के कुशील परिभाषा नामका सातवां अध्ययन समाप्त ॥ ७- १॥ કર્મના ક્ષય કરીને જન્મ જરા અને મરણના દુઃખમાંથી મુકત થઈ જાય છે. જેમ પૂરા તૂટી જાય તે ગાડી આગળ ચાલી શકતી નથી, એજ પ્રમાણે કાંના ક્ષય થઈ જવાને કારણે તે સાધુને પણ ભવભ્રમણ ચાલૂ રહેતું નથી. ‘તીથકોએ આ પ્રમાણે જે ઉપદેશ આપ્યા છે, તેનુ' જ હું આપની સમક્ષ અનુકથન કરી રહ્યો છું' એવું સુધર્મા સ્વામી પાત્તાના શિષ્યાને કહે છે. ાગાથા કુંભા જૈનાચાય જૈનધમ દિવાકર પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ કૃત ‘સૂત્રકૃતાંગસૂત્ર’ની સમયા એધિની વ્યાખ્યાના કુશીલ પરિભાષા નામનું ।। સાતમું અધ્યયન સમાપ્ત શાછ-૧ા 5 For Private And Personal Use Only Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूले ॥ अथाऽष्टमं वीर्याध्ययनं पारम्यते ॥ गतं. सप्तममध्ययनम्, अतः परमष्टममारभ्यते । अस्य चायमभिसम्बन्धः, रह प्रक्रान्ताऽध्ययने कुशीलास्तद्विरोधिनः सुशीलाश्च व्याख्याताः। एतयोः सुशीलकु गोलयोः सुशीलत्वं कुशीलत्वं च संयम बीर्यान्तरायाणामुदयात्तत्तत् क्षयोपशमाच्च भवतीत्यतो वीर्यप्रतिपादनायाऽष्टमम्ध्ययनं प्रारभ्यते। अनेन सम्बन्धेनाऽऽयातस्याऽष्टमाऽध्ययनस्याऽऽदिमा गाथा-'दुहा वेयं' इत्यादि। मूलम्-दहा वेयं सुयक्खायं वीरियं ति पवुच्चई। किंर्नु वीरस्सं वीरत्तं के चेय" पवुच्चाई ॥१॥ छाया-द्विधा वेदं स्वाख्यातं वीर्यमिति पोच्यते ।। किं नु वीरस्य वीरत्वं कथं चेदं हि मोच्यते ॥१॥ आठवें अध्ययन का प्रारंभसातवाँ अध्ययन समाप्त हुआ। अब आठवाँ प्रारंभ किया जाता हैं। इसका सम्बन्ध इस प्रकार है-सातवें अध्ययन में कुशील और स्तुशील साधु की व्याख्या की गई है। सुशील की सुशीलता और कुशील की कुशीलता संयम वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम तथा उदय से होती है। अतः वीर्य का प्रतिपादन करने के लिए अष्टम अध्ययन का आरंभ किया जाता है। इस सम्बन्ध से प्राप्त अष्टम अध्ययन का यह आय सूत्र है-'दुहावे' इत्यादि। शब्दार्थ--'वेयं वीरयंति पयुच्चह-वेदं वीर्यमिति प्रोच्यते' वे आगे स्पष्टरूप से वीर्य को कहाजायगा 'दुह सुधक्खायं-द्विधा स्वा. આઠમા અધ્યયનને પ્રારંભ સાતમું અધ્યયન સમાપ્ત થયું. હવે આઠમા અધ્યયનને પ્રારંભ કર વામાં આવે છે. આ અધ્યયનને સંબંધ આ પ્રમાણે છે.—સાતમા અધ્યકચનમાં કુશીલ અને સુશીલ સ્વભાવવાળા સાધુનું કથન કરવામાં આવેલ છે. સુશીલનું સુશીવ પશુ અને કુશીલનું કુશીલ પણું સંયમને વીતરાયકર્મના ક્ષપશમ તથા તેના ઉદયથી થાય છે. તેથી વિર્યનું પ્રતિપાદન કરવા માટે આ આઠમા અદયયનને પ્રારંભ કરવામાં આવે છે.-આ સંબંધથી આવેલ આઠમા मध्ययननु प सूत्र 'दुहावेय” त्यात. शा--- 'वेयं वीरियत्ति पवुच्वइ-वे वीर्यमिति प्रोच्यते' वे पछी २५ष्ट३५थी वायथन४२वामा मा4. 'दुहा सुयक्लायं-द्विधा स्वाख्यातम्' For Private And Personal Use Only Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. शु. अ. ८ उ. १ वीर्यस्वरूपनिरूपणम् ६४५ ... अन्वयार्थः--'वेयं पीरियं ति पचुच्चई' वा इदं वीर्यमिति पोच्यते तत् 'दुहा मुश्क्वायं' द्विधा-द्विषकारेण स्वाख्यात-सम्यग्रूपेण कथितम् (वीरस्सवीरत्तं किं नु) वीरस्य-मुमटस्य वीरत्वम् (किं नु) किं नु-कथं भवति, अथवा(कहं चेयं पबुच्चई) कथा-केन पहारेण तत्-वीरत्वमुच्यते-कथ्यते इति ॥१॥ टोका--'वेयं' वा इदम् 'पीरियं ति' वीयमिति 'दुहा' द्विधा-द्विप्रकारेण 'सुयक वाय' स्वाख्यातं-सुकथितम् । वेयमित्यत्र वा शब्दो-वाक्यालङ्कारे भवति, 'इदं शब्दस्य प्रत्यक्षविषये शक्ति.' इदमस्तु सन्निकृष्टे तदिति परोक्षे विजानीयादिति नियमात् । तथा च इदं बुद्धया सन्निकृष्टं प्रत्यक्षमायम्, वीयम्. द्विधा-द्विपकारकं प्रकारद्वयेन विभिन्न भेदद्वयभिन्नं, भेदद्वयविशिष्टं ख्यातम्' इसे तीर्थकरोंने दो प्रकारका कहा है 'वीरस्स वीरतं किं नुवोरस्य वीरत्वम् कि नु' वीर पुरुषको वीरता क्या है ? 'कहं चेयं प. च्चह-कथं चेदं प्रोच्यते' किस कारण से वह वीर ऐसा कहा जाता है ?॥१॥ ___अन्वयार्थ-जो वीर्य कहा जाता है, वह दो प्रकार का कहा है। धीर का वीरत्व क्या है ? वह किस प्रकार से वीर कहा जाता है ? ॥१॥ टीकार्थ--वीर्य दो प्रकार का कहा गया है। 'वेयं' यहां 'वा' शब्द धाक्य के अलंकार अर्थ में है। 'इदम्' शब्द की शक्ति प्रत्यक्ष विषय में है, क्यों कि ऐसा नियम है कि-'इदम्' शब्द समीप अर्थ में और 'तत्' शब्द परोक्ष अर्थ में प्रयुक्त होता है। अतः इदम्' का अर्थ है-बुद्धि से समीप-प्रत्यक्ष जैसा। मान तीये मे ५४.२नु । छे 'वीरस्स वीरत्तं किं नु-वीरस्य वीरत्वम् किं नु' पी२५३५नी वीरता के शु छ ! 'कहं चेय पवुच्चइ-कथं चेदं प्रोन्यते' કયા કારણથી તેઓ વીર એ પ્રમાણે કહેવાય છે? ના - અન્વયાર્થ-જેને વીર્ય કહેવામાં આવે છે. એવું તે વીર્ય બે પ્રકારનું કહેવાય છે. વિરનું વરપણુ શું છે ? તે કયા પ્રકારથી વીર એ પ્રમાણે उपाय छ ? ॥१॥ t-वीयमे ५४२नु वामां आवे छे. 'वेय' माडियां 'वा' શબ્દ વાક્યના અલંકાર અર્થમાં આવેલ છે. ઈદમ શબ્દ પ્રયોગ પ્રત્યક્ષ विषम थाय छ. म यो नियम छ -'इदम् !' शहने। सभी५-10 વાચક અર્થમાં અને “તત્! શબદને પરોક્ષ અર્થમાં પ્રવેશ થાય છે. જેથી गडियां 'इदम्' मे ४ मथ-मुद्धिनी सभी५ अर्थात् प्रत्यक्ष वा छ, For Private And Personal Use Only Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६४६ सूत्रकृताङ्गसूत्रे वीर्यम् । 'पवुच्चई' प्रोच्यते-कथ्यते तीर्थकरादिभिः, 'सुयक्खाय' स्वाख्यातम्सुष्टु आख्यातं कथितमिर र्थः, विशेषेग ईरयति प्रेरयति निष्कासयति अहितं येन तबीयमिति कथ्यते, जी स्य शक्तिविशेषः 'वीरस्स' वीरस्य सुभटस्य 'किनु' कि शब्दः जिज्ञासार्थः, नु शब्दो वितर्कवाची। 'वीरत्त' वीरत्वं किम्, केन प्रकारेणाऽसौ सुभटो वीर इति कथ्यते। 'कह' कथम्-केन प्रकारेण 'चे' च इदं वीरत्वम् 'पवुच्चई प्रोच्यते, यदिदं वीर्य द्विधाविभक्तमिति तत् कि केन वा कारणेन भवति, किंवा तस्य स्वरूपमिति । तीर्थकरगगधराभ्यां वीर्यस्य द्वौ भेदी कथयेते, तत्र जिज्ञास्यते-वीराणां केयं वीरता, कथं वा स वीर इत्याख्यायते इति भावः ॥१॥ ___यह वीर्य दो प्रकार का तीर्थंकरो आदि ने कहा है। वीर्य जीव की एक विशिष्ट शक्ति है । जो विशेष रूप से प्रेणा करता हैं-अहित को हटाता है, वह वीर्य कहलाता है। 'नु' शब्द जिज्ञासा के अर्थ में है, वितर्क का वाचक है। अर्थात् यहां यह प्रश्न उपस्थित होता है कि वीर पुरुष की वीरता क्या है ? किस प्रकार से वह सुभट वीर कहा जाता है ? दो प्रकार का जो बीर्य कहा गया है वह क्या है और किस कारण से होता है ? उसका स्वरूप क्या है ? __ आशय यह है-तीर्थकर और गणधर धीर्य के दो भेद कहते हैं। यहाँ यह जिज्ञासा होती है कि वीरों की वीरता क्या है ? किस कारण से वीर पुरुष वीर कहलाता है ? ॥१॥ આ વીય તીર્થકર વિગેરે એ બે પ્રકારનું કહેલ છે. વીર્ય જીવની એક વિશેષ પ્રકારની શક્તિ છે. જે વિશેષ રૂપે પ્રેરણા કરે છે-અર્થાત્ અહિતને હટાવે છે. બે વિર્ય કહેવાય છે. “ગુ' શબ્દ જીજ્ઞાસાના અર્થમાં છે. અને વિતકને વાચક છે, અર્થાત્ અહિયાં એવો પ્રશ્ન ઉપસ્થિત થાય છે કે વિરપુરૂષનું વીરપણું શું છે ? અર્થાત્ કઈ રીતે તે સુભટ અર્થાત્ વિર કહેવાય છે? વાય કે જે બે પ્રકારનું કહેલ છે, તે શું છે ? અને કયા કારણથી બે પ્રકારનું થાય છે ? તેનું સ્વરૂપ કેવું છે ? કહેવાને હેતુ એ છે કે તીર્થકર અને ગણધરો વીર્યના બે ભેદે કહે છે, અહિયાં એવી જીજ્ઞાસા થાય છે વીરોનું વીરપણું એ શું છે ? કયા કારણથી વીર પુરૂષ “વીર એ પ્રમાણે કહેવાય છે ? લો For Private And Personal Use Only Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ८ उ. १ वीर्यस्वरूपनिरूपणम् भेदप्रदर्शरपूर्वकमेव वीर्यस् रूम ह -कम्म मेगे पवेदंति' इत्यादि । मूलम्-कम्म मेंगे पैवेदति अकम्नं वावि सुवया। एएहिं दोहि ठाणेहि जेहिं दीसंति मच्चिया॥२॥ छाया-कमै के प्रवेदयन्त्यकर्म वापि सुव्रताः । आभ्यां द्वाभ्यां स्थानानं याभ्यां दृश्यन्ते माः ॥२॥ अन्वयार्थ:-(एगे कम्मं पवेदेति) एके केवन कमैव वीर्य प्रवेदयन्ति कथयन्ति (सुव्यया अकम्मं वा वि) हे सुव्रताः ! केचन अकर्म एव वीर्य कथयन्ति (मच्चिया) मीः (एए हिं) आभ्याम् (दोहिं ठाणेदि) द्वाभ्यां स्थानाभ्याम् (दीसंति) दृश्यन्ते इति ॥२॥ अथ भेद निरूपण करते हुए वीर्य का स्वरूप कहते हैं'कम्म मेगे पवेदंति' इत्यादि। शब्दार्थ-'एगे कम्मं पवेदेति-ए के कर्म प्रवेदयन्ति' कोई कर्म को वीर्य ऐसा कहते हैं 'सुन्वया अकम्मं वावि-सुव्रताः अकर्म वापि' और हे सुत्रतो! कोई अकर्म को वीर्य कहते हैं 'मच्चिया-माः ' मर्त्य लोक के प्राणी 'एएहि-अभ्या' इन्हीं दोहिं ठाणेहि-द्वाभ्यां स्थानाभ्याम् दो स्थानों से 'दीसंति-दृश्यन्ते' देखे जाते हैं ॥२॥ ___अन्वयार्थ हे सुव्रतों ! (अच्छे व्रतवाले भव्यो') कोई कर्म को ही वीर्य कहते हैं, कोई अकर्म को वीर्य कहते हैं। इन्ही दो भेदों में मनुष्य देखे जाते हैं ॥२॥ के लेहोर्नु नि३५ ४२तi वीयर्नु २१३५ ४९ छ. 'कम्ममेगे पवेति' त्यादि शहाय-'एगे कम्म पवेदंति-एके कर्म प्रवेदयन्ति' ३६ भने वाय' मे प्रमाणे छे. 'सुव्वया अकम्मं वावि-सुव्रताः अकर्म वापि' भने सा। प्रतपणा 'भुनिया' 5 समन पीय से प्रभारी छे. 'मच्चिया-माः ' भृत्युसन प्राणी 'एएहि-आभ्यां' मा 'दोहि ठाणेहि-द्वाभ्याम् स्थानाभ्यम्' में स्थानाची 'दीसंति-दृश्यन्ते' हेमाय छे. ॥२१॥ અવયાર્થ–હે સુત્રને (સારાવત વાળા ભ) કેઈ કર્મને જ વીય કહે છે, કેઈ અકર્મને વીર્ય કહે છે ? એ બે ભેદે વાળ મનુષ્યો જોવામાં आवे छे. ॥२॥ For Private And Personal Use Only Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ક , सूत्रकृताङ्गो ____टीका-'एगे एके विद्वांसः 'काम' कमैंत्र वीर्यमिति 'पवेद' प्रवेदयन्तिकथयन्ति, क्रियते-स्वघयत्ने। निषायते इति कर्म, क्रियाया अनुष्ठानम्, तदेव कम वीर्यमिति प्रतिपादयन्ति । अथवा-अनुष्ठाने मवर्तकं तज्जन कम्, अष्टमकारमेव वीर्यमिति प्रतिपादयनि। तपाहि-औदायिकमाननिष्पन्न कर्मेत्युपदिश्यते। औदयिकोऽपि भावः कर्मों दयनिष्पन्न एव। 'गुब्बया' मुखताः वा शब्दः स्वार्थे । 'अम्म' अक अपि वीर्यमिति कस्यन्ति, ल विद्यते कर्म तद् अमर्म, वीर्यान्तरायक्ष पनि जीप भाविकं वीम् । अपि शब्देन चारित्रमोहनीयोपक्रमक्षयोपशमजनितं च वीर्यम्, एखून पण्डितली नितिभावः । 'एएहि' एताभ्याम् 'दोहि' द्वाभ्याम् 'ठाणेहि' स्थानापाम्, सकर्मकाऽर्मका पादितवालपण्डितवीर्याचा व्यवस्थित वीर्यमित्यभिधीयते । जेहि' याभ्यां स्थानाभ्यां ययो ; स्थानयोः 'मिचिया' मा-पर गधगो मनुष्याः टीकार्थकोई विद्वान् कर्म को ही वीर्य कहते हैं। उनका कथन है कि अपने प्रयत्न से जो निष्पादित किया जाता है, वह कर्म है । वही कर्म वीर्य कहलाता है। अथवा अनुष्ठान में प्रवृत्ति कराने वाला वीर्य आठ प्रकार का है। औदयिकभाव मे निष्पन्न कर्म है और औदयिक भाव भी कर्मोदय से उत्पन्न होता है। कोई सुव्रत कर्मरहित को भी वीर्य कहते हैं । वीर्यान्तराय कर्म के क्षय से उत्पन्न होने वाला जीव को स्वाभाविक वीर्य है । 'अपि' शब्द से चारित्रमोहनीय के क्षयोपशम से उत्पन्न वीर्य भी ग्रहण कर लेना चाहिए। धीर्य के यही दो भेद हैं। इनमें से कर्म वीर्य बालवीर्य कह लाता है और अकर्मवीय पण्डितवीर्य भी कहा जाता है। इन्हीं दो ટીકાળું—કઈ વિદ્વાન કર્મને જ કરીયે” કહે છે, તેનું કથન એવું છે કે–પિતાના પ્રયત્નથી જ સંપાદિત કરવામાં આવે છે, તેને કર્મ કહેવાય છે. અને એ કર્મ જ વીય' કહેવાય છે. અથવા અનુષ્ઠ નમાં પ્રવૃત્તિ કરાવ. નાર વીર્ય આઠ પ્રકારનું કહેલ છે. ઔયિક ભાવથી યુક્ત કર્મ છે. અને દયિક ભાવ કર્મના ઉદયથી ઉત્પન્ન થાય છે. કેઈ સુવ્રત કર્મથી રહિતને પણ “વીર્ય' કહે છે. વર્ષાન્તરય કર્મને. ક્ષય થવાથી ઉત્પનન થવાવાળા જીવને સ્વાભાવિક વય હોય છે. અહિયાં 'अपि' शपथी यास्त्र माडनायना क्षयोपशमश्री पन्न येस पीय ५९ प्रह४२वामा मावस छे. या मे लेहो पाय' छे. मामांथी ' વી” એ બાલવીય કહેવાય છે, અને “અકર્મવીર્ય' એ પંડિતવીર્ય કહેવાય છે. આ બે ભેદ વાળા મનુષ્ય જોવામાં આવે છે. જે પ્રમાણે અનેક પ્રકા For Private And Personal Use Only Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ८ उ. १ वीर्यस्वरूपनिरूपणम् ६४२ 'दीसति' दृश्यन्तेऽपदिश्पन्ने वा । तथा हि-अनेकपकारककर्मसु प्रयत्नं कुर्वाण मुल्लाहवाला दिसम्पानं मयं दृष्ट्वा वीर्यवानमित्ये । मादिश्यते । तया-भावरण कर्मणां क्ष वादनन्दल मोऽसमित्यादिश्यते, दृश्यते च इति । शियानानन्तरं श्री सुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिस्मृतिशिडावर्गमुद्दिश्य कथयति-हे शुन्य ! काबि क बो मिति विमन्ति, केचनाऽकर्मएव वीजति प्रतिपादयनित । मन प्रकारेणी द्विषा विज्यते, आभ्यामेव भेदाभ्यां में अस्वी पारियाने इति ॥२॥ ____ इह पानीय कारो का चारा नौ बार मालादितम् । इदानीं कारणे कामोपचारादेव समादं धर्म वेनाऽपविशवाह-सूयकार:-'पमायं कम्ममायु' इत्यादि। मूछन्-मा कम्म मासु अमायं तहाऽवरं। तभावादेर्शओ शादि बालं पंडि में या॥३॥ छाया-मादं कर्म आहु रप्रसाद तथाऽपरम् । . तदाबादेशतो चापि बालं पण्डितमेव वा ॥३॥ भेदों से या भेदों में मनुष्य दिखाई देते हैं। जैसे अनेक प्रकार के कृत्यों में प्रयत्न करने वाले बल आदि से सम्पन्न पुरुष को देखकर 'यह वीर्यशा है ऐसा कहा जाता है और कर्मों का क्षय होने से 'यह अनन्त बल से सम्पन्न है। ऐसा कहा जाता है। शिष्य के प्रश्न के अनन्तर श्रीसुधर्मा स्वामी, जम्बू स्वामी आदि शिष्यवर्ग को लक्ष्य करके कहते हैं-हे सुवलो! कोई-कोई कर्म को ही वीर्य कहते हैं और कोई अकर्म को ही वीर्य कहते हैं । इस प्रकार वीर्य के दो भेद हो जाते हैं। इन्ही दो भेदों में सभी मनुष्यों का समावेश हो जाता है ॥२॥ રના કૃત્યમાં પ્રયત્ન કરવા વાળા બળ વગેરેથી યુક્ત પુરૂષને જોઈને “આ વીર્ય વાળે છે એ પ્રમાણે કહેવામાં આવે છે. અને કર્મોને ક્ષય થવાથી આ અનંત બળ વાળે છે.” એ પ્રમાણે કહેવામાં આવે છે. શિષ્ય પ્રશ્ન કર્યા પછી સુધર્મા સ્વામી, જંબૂ સ્વામી વિગેરે શિષ્ય વર્ગને ઉદેશીને કહે છે કે-હે સુત્ર ! કઈ કઈ કર્મને જ વીથ કહે છે. આ રીતે વીર્યના બે ભેદો થઈ જાય છે. આ બે ભેદમાં જ સધળા મેનુ બેને સમાવેશ થઈ જાય છે. આ सू० ८२ For Private And Personal Use Only Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ६५० सूत्रकृताङ्गसूत्रे अन्वयार्थः - ' पमायं कम्म मासु' प्रमादं मद्यविषयकषायादिकं कर्म आहुः - कथयन्ति तीर्थकरादयः 'तहा अप्पमायं अवरं' तथा - अप्रमादम् अपरम् अकर्म आहुः 'तभावादेसओ वा वि' तद्भावादेशतः तयोः - बालवीर्यपण्डितवीर्ययोः सत्वादेव 'बाल पंडियमेत्र वा बालवीर्य पण्डितवीर्य वा भवतीति ॥ ३॥ टीका - ' पमायें' प्रमादम् - प्रकर्षेण माद्यन्ति शुमानुष्ठानरहिता भवन्ति जीवा येन स ममादो मद्यादिः । उक्तञ्च Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कारण में कार्य का उपचार करके कर्म को ही बल-वीर्य कहा गया 'है, अब प्रमाद को ही 'कर्म' कहते हैं। यहां भी कारण में कार्य का पचार से प्रमाद को कर्मत्व से समझना चाहिए । सूत्रकार यही कहते -' पमायं कम्ममा हंसु' इत्यादि । शब्दार्थ - ' पमायं कम्ममासु प्रमादं कर्म आहुः' तीर्थंकरोंने प्रमादको कर्म कहा है 'तहा अप्यमायं अवरं तथा अप्रमादम् अपरम्' तथा अप्रमाद को अकर्मकहा है 'तभावादेसओ वावि-तद्भावादेशतो. वाऽपि इन दोनों की सत्ता से ही 'बालं पंडियमेव वा बालं पण्डितमेवा' बालवीर्य तथा पण्डितवीर्य होता है ॥ ३ ॥ - अन्वयार्थ — तीर्थकर आदि महापुरुष मथ आदि प्रमाद को कर्म कहते हैं तथा अप्रमाद को अकर्म कहते हैं। प्रमाद के सद्भाव से बालवीर्य और अप्रमाद के होने से पण्डितवीर्य कहा जाता है ॥३॥ કારણમાં કાર્યને ઉપચાર કરીને કને જ છે, હવે પ્રમાદને જ ક્રમ કહે છે.! આમાં પશુ થવાથી પ્રમાદને કમ પણાથી સમજવા જોઇએ. 'पमायं कम्म मासु' छत्याहि - ખાલવીય કહેવામાં આવેલ કારણમાં કાના ઉપચાર સૂત્રકાર એજ કહે છે કે शब्दार्थ - - ' पमायं कम्म माहंसु प्रमादं कर्म आहुः' तीर्थ मे प्रभाहनेम्भव छे. 'तहा अप्पमायें अपरं तथा अप्रमादम् अपरम्' तथा अप्रभाहने शुभ छु' छे. 'तब्भावादेसओ बाबि-तद्भवादेशतो वापि' मा मन्नेनी सत्ताथी 'बालं पंडियमेव वा - बालं पंडितमेव वा' वीर्य तथा पंडितवीर्य थाय छे. ॥३॥ અન્વયા -તીથ કર વિગેરે મહાપુરૂષો મદ્ય વગેરે પ્રમાદને કમ કહે છે. તથા અપ્રમાદને એકમ કહે છે. પ્રમાદના સદ્ભાવથી ખાલવીય અને અપ્રમાથી પંડિતવીય કહેવામાં આવે છે. ારૂાા For Private And Personal Use Only Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ८ उ. १ वीर्यस्वरूपनिरूपणम् ६५१ 'मज्जं विसयकसाया णिहा विगहा य पंचमी मणिया। एस पमाय पवाओ णिहिट्ठो बीयरागेहिं ॥१॥ छाया-मयं विषयकषायौ निद्राविग्रहश्च पश्चमी भणिता। एते प्रमादाः प्रवादो निर्दिष्टो वीतरागैः ॥१॥ इति । एतादृशं प्रमादं मधादिकं कौयादानभूतम् । 'कम्म' कर्म-आहुः कथयन्ति तीर्थकरादयः, 'तहा' तथा 'अपमाय' अपमादम् 'अबरं' अपरस् अकर्म आहु:-कथयन्ति ते एवाऽऽचार्याः। अयं भाव-प्रमादवतो जीवस्य कर्मबन्धनं भवति । कर्मसहितस्य यत् क्रियाऽनुष्ठानं तबालवीर्य भवति । तथा-प्रमादरहितस्य जीवस्य कर्माऽभावो भवति । कर्माऽभावसहितस्य यत् कर्माऽनुष्ठानं तत् पण्डितवीर्यं भवति । एतदेव टीकार्थ--जिसकी सत्ता के कारण जीव शुभ अनुष्ठान से रहित होते हैं, वह मद्य आदि प्रमाद कहलाता है। कहा भी है-'मज्ज विसय कसाया' इत्यादि। 'मद्य, विषय, कषाय, निद्रा और पांचवीं विकथा, यह पाँच प्रकार के प्रमाद वीतराग देवों ने कहे हैं । ॥१॥ - यह मद्य आदि प्रमाद कर्मों के जनक हैं। इसी कारण तीर्थकर आदि इन्हें कर्म कहते हैं और प्रमादपरित्याग को अकर्म कहते हैं। ___ आशय यह है कि-प्रमादवान् जीव को कर्मबन्धन होता है और कर्मयुक्त जीव का जो क्रियाव्यापार है, वह बालवीर्य है । जो जीव प्रमाद से रहित है, उसको कर्मों का अभाव हो जाता है और कर्माभाव वाले जीव का अनुष्ठान पंडितवीर्य कहा जाता है । आशय यह ટીકાર્ય–જેની સત્તાથી જીવ શુભ અનુષ્ઠાનથી રહિત થાય છે. તે મધ विगेरे प्रमा हेवाय छे. ४थु ५५ छे 3-'मज्ज विसयकसाया' रियाल મા, વિષય, કષાય, નિદ્રા, અને પાંચમી વિકથા આ પાંચ પ્રકારના પ્રમાહ વીતરાગ દેવે એ કહેલ છે. આ મધ વિગેરે પ્રમાદ કર્મોના જનક-ઉત્પન્ન કરવાવાળા છે. તેજ કારણથી તિર્થ કરો વિગેરે તેને કમ એ પ્રમાણે કહે છે. અને પ્રમાદના પરિત્યાગને અકર્મ કહે છે. કહેવાને હેતુ એ છે કે-પ્રમાદવાળા જીવને કર્મનું બંધન થાય છે. અને કર્મવાળા જીવને જે ક્રિયારૂપ વ્યાપાર છે, તે બાલવીય કહેવાય છે. જે જીવ પ્રમાદથી રહિત હોય છે, તેને કમેને અભાવ થઈ જાય છે. અને કર્મના અભાવવાળા જીવના અનુષ્ઠાનને પંડિત વીર્ય કહેવાય છે. અર્થાત્ પ્રમત્ત For Private And Personal Use Only Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सण्डितवीय वातवीयामा कार्ययोः भामभव्यानाति । सूत्रकृताङ्गसूत्रे वाळवीर्य पण्डितवीर्य चेति । प्रमादवतः सकर्मणो वीर्य वालवीर्य प्रमादरहितस्य कर्माऽभाववतो वीर्य पण्डितवीर्यमिति विवेकः । 'मावादेसभो वावि तद्भावादेशतो वापि, तयो बालवीर्यपण्डितवीर्ययोः भाव:-सत्ता तद्भाव स्तेन तद्भावेन पालः पण्डित इति व्यवहारो भवति' बालवीर्यमभव्यानामनावपर्यवसितम्, भव्यानामनादिसपर्यवसितम्, पण्डितवीर्यन्तु सादिसपर्यवसितमिति । तीर्थकरा: प्रमादं कर्म-इति कथितवन्तः तथा-अपमादमकर्म, इत्युक्तवन्तः । अतः प्रमादेन बालवीर्यं भवति, भवतिचाऽप्रमादेन पण्डितवीर्यमिति निष्कर्षः ॥३॥ तत्र प्रमादवतः सकर्मणो जीवस्य यद्वीयं तद्वाल वीर्यमिति तदेव दर्शयति अत्रकार:-'सत्थमेगे तु' इत्यादि । मूलम्-सत्थ मेगे तु सिक्खंता अतिवायाय पाणिणं। एंगे मंते अहिज्जती पाणभूय विडियो ॥४॥ कि प्रमत्त और सकर्मा जीव का बालवीर्य तथा अप्रमत्त और अकर्मा जीव का पण्डितवीर्य है । वोये के साथ 'बाल' या पण्डित' जो विशेपण लगाया गया है, वह प्रमाद और अप्रमाद के कारण ही है। - अभय जीवों का बाल भीर्थ अनादि अनन्त है, भव्य जीमों का अनादिसान्त है अर्थात् वह सदाकाल से पाला भाता है किन्तु भी उसका अन्त आजाता है। पण्डित शादि-शान्त ही होता है। ... निष्कर्ष यह है कि सीकर भगवन्तों ने प्रमाद को कर्म और अप्रमाद को अकर्म कहा है। अतएव प्रमाद के कारण बालवीर्य और अप्रमाद के कारण पण्डित बीर्य होता है ।।३।। અને કમ વાળા જીવનું બલવીર્ય અને અપ્રમત્ત અને અક- કર્મ વિનાના नु पडित' पीछे सायनी साथे 'बल । લગાડવામાં આવે છે. તે પ્રમાદ અને અપ્રમાદના કારણથી જ હોય છે. - અભવ્ય જીવેનું બાલવીય અનાદિ અને અનંત છે. ભવ્ય છાનું અનાદિ સાત્ત છે. અર્થાત્ તે સદા કાળથી ચાલ્યું આવે છે, પરંતુ કોઈ વખત તેને અન્ય આવી જાય છે, પંડિતવીય સાદિ-સાન્ત જ હોય છે, આને સાર એ છે કે-તીર્થકર ભગવંતોએ પ્રપદ ને કર્મ અને અપ્રમાદ ને અકર્મ કહેલ છે. તે જ પ્રમાદને કારણે બે લવીર્ય અને અપ્રાદને કારણે ५डितवीय डाय छ. ॥३॥ For Private And Personal Use Only Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ८ उ. १ वीर्यस्वरूपनिरूपणम् ६५३ छाया-शास्त्रमे के तु शिक्षन्ते अतियाताय पाणिनाम् ! एके मन्त्रान् अधीयते प्राणभूतविकेटकान ॥४॥ अन्वयार्थः- (एगे पाणिणं अतिवायाय) एके तु प्राणिनां जीनाम् अतिपाताय विराधनाय 'सत्थं' शास्त्र-धनुर्वेदादि 'सिक्खा ' शिक्षन्ते-गृह्णन्ति, 'एगे' एके (पाणभूषविहे डिणो) पाणभूमविदेटकान तत्र प्राणाः द्वीन्द्रियाः भूतानि पृथिव्यादीनि, तेषां वि-विविश्वम् अनेक प्रकारकं हेट कान्-बाधकान् ‘मंते' मन्त्रान 'अहिज्जती' अधीयते-पठन्तीति ॥४॥ टीका-'एगे एके पुरुषाः, रागद्वेषाऽपहनमानसा, जीवानां विनाशकारकम् 'सत्थं' शस्त्रं-खङ्गादिपहरणम्, अथवा--'सत्य' शास्त्रम्-धनुर्वेदादिकम् 'सिक्खंता' प्रमादवान् एवं सकर्मक जीव का वीर्य बालवीर्य है, यही सूत्रकार दिखलाते हैं-~-'सत्यमेगे उ' इत्यादि। शब्दार्थ--- 'एगे पाणिं अतिवायाय-ए के प्राणीनां अतिपाताय' कोई प्राणियों का वध करने के लिये 'सत्-शस्त्रम्' तलवार आदि शस्त्र अथवा धनुर्वेदादि मिक्वंता-शिक्षन्ते' सीखते हैं 'एगे-एके' तथा कोई 'पाणभूपविडियो-प्राणभूतविठकान्' प्राणी और भूतों को मारनेवाले 'मंते-मन्त्रान्' मन्त्रों को 'अहिज्जेति-अधीयते' पढते हैं।॥४॥ ___ अन्वयार्थ-- कोई कोई प्राणियों की विराधना करने के लिए धनुवेद आदि शास्त्र सीखते हैं। कोई प्राणों और भूतो के लिए बाधाकारी मंत्रों का अध्ययन करते हैं ॥४॥ टीकार्थ--राग और द्वेष के कारण जिनामा चित्त अभिभूत हो गया है, ऐसे कई पुरुष जीवों का विनाश करने वाले 'सस्थ' अर्थात् खड्ग પ્રમાદવાળા અને કર્મવાળા જીવને બળવીર્ય છે. એજ હવે સૂત્રકાર प्रगट ४२ ४. 'मत्थमेगे उ' त्यादि ___ --- 'एगे पाणिणं अतिवायाय-एके प्राणिनां अतिपातायो । प्रालि योनी १५ ४२१। भाटे ‘सत्थं-शस्त्रम्' तपा२ विगैरे शस्त्र अथवा धनु । विशेष सिखंता-खिभन्ते' शीमेले. 'एगे-एके' तथा 'पाणभूय विहेडियो -प्राणभूतविहेटकान्' प्राell 4 भूताने भारावा' 'मते-मन्त्रान्' भत्रीन 'अहिज्जेति-अधीयते' शीमे छे. ॥४॥ ___ qया--- । यतिपादियोनी वियना (स.) ७२१॥ માટે ધનુર્વેદ વિગેરે શસ્ત્રવિદ્યા શીખે છે, કઈ વ્યક્તિ પ્રાણ અને ભૂતને બાધા કારક મંત્રોનો અભ્યાસ કરે છે. જો ટકાથ–રાગ અને દ્વેષના કારણે જેએનું ચિત્ત પરાજીત થયેલ છે, એવા કે પુરૂષ અને નાશ કરવા 'રથ' અર્થાત્ ખગ વિગેરે For Private And Personal Use Only Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६५४ सूत्रकृताङ्गसूत्रे शिक्षन्ते - सोचनास्तादृशं शस्त्रं शास्त्रं वा अभ्यसन्ति । अथवा 'ए' एके एतादृशं शस्त्रं शास्त्रं वा शिक्षयन्ति परानुपदिशन्ति । एतत्सर्वं शिक्षितं सत् 'पाणिणं' प्राणिनां - जीवानाम् 'अदिवायाय' अतिपाताय भवति, अतिपातो विनाशस्तदर्थं भवति । तदीयशास्त्रे केन प्रकारेण परो हिंसनीय इत्येव निवेदितम् । तथोक्तम् - मुष्टिना छादयेल्लक्ष्यं मुष्टौ दृष्टिं निवेशयेत् । इतं लक्ष्यं विजानीयाद्यदि मूर्धा न कम्पते ॥ १ ॥ इत्यादि । एवं कथमरीणां मारणं, कथं परवञ्चनं, कामादिविषयः कथं सेव्यते ? आदि शस्त्रों की अथवा धनुर्वेद आदि शास्त्रों की शिक्षा लेते हैं और खूब उद्यम करके उन्हें सीखते हैं । अथवा इस प्रकार के शस्त्र या शास्त्र को वे दूसरों को सिखलाते हैं। यह सीखा हुआ या सिखलाया हुआ शस्त्र या शास्त्र प्राणियों की हिंसा का कारण बनता है, क्यों कि उन शास्त्रों में यही कहा जाता है कि किस प्रकार दूसरों का वध किया जाय ! कहा भी है-'मुष्टिना छादयेल्लक्ष्यं' इत्यादि । अपनी मुट्ठी से लक्ष्य को आच्छादित कर ले और मुट्ठीपर दृष्टिजमाले | अगर मुर्धा पर कम्म न हो तो लक्ष्य को विंधा हुआ ही समझे ||१|| इत्यादि । इस प्रकार उस शास्त्र में यही प्ररूपण किया है कि किस प्रकार शत्रुओं का घात किया जाय ? कैसे दूसरों को धोखा दिया जाय ? શસ્ત્રોની અથવા ધનુર્વેદ વિગેરે શાસ્ત્રોની શિક્ષા ગ્રહણ કરે છે, અને ખૂબ ઉદ્યમ કરીને તે શીખે છે, અથવા તેવા પ્રકારના શસ્ત્ર અથવા શાસ્ત્રને તેઓ ખીજાઓને શીખવાડે છે. આ પ્રકારથી શીખેલા કે શીખવાડેલા શસ્ત્ર અથવા શાસ્ત્ર પ્રાણિયાની હિંસાનુ` કારણ બને છે, કેમકે-એ શાસ્ત્રામાં એજ કહે. વામાં આવે છે કે—બીજાની હિંસા કઇ રીતે કરી શકાય ? કહ્યું પણ છે કે'मुष्टिना छादयेक्ष्य छत्याहि અર્થાત્ પેાતાની મુડી વડે લક્ષ્યને આચ્છાદિત કરીલેય અને મુઠી પર નજર સ્થિર કરી લે. અથવા માથા પર કમ્પ ન થાય તેા લક્ષ્ય વિ ધાયેલજ સમજવુ’. ॥૧॥ આ રીતે તે શાસ્ત્રમાં એ જ નિરૂપણ કરવામાં આવેલ છે કે-કેવી રીતે શત્રુઓના ઘાત કરી શકાય ? કેવી રીતે બીજાને દગા દઈ શકાય ? અર્થાત્ ગફલતમાં નાખી શકાય ? કામાદિ અશુભ અનુષ્ઠાન જ એ શાસ્ત્રના For Private And Personal Use Only Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ६५५ समार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ८ उ. १ वीर्यस्वरूपनिरूपणम् इत्यादि । area शास्त्राभ्यासेन सावये एवं कर्मणि तदध्येतृणां प्रवृत्तिर्भवति । तदेतत्पूर्व प्रदर्शितशस्त्रशास्त्राभ्यासेन जायमानं वीर्यं बालवीर्यमित्यभिधीयते । तथा - एके केन पापोदयात् 'मंते' मन्त्रान् मारणकार्ये विनियुज्यमानान् अश्वमेध - नरमेध - गोमेध - श्येनादियागार्थम्, 'अहिज्जेती' अधीयते, तेषामध्ययनं कुर्वन्ति अध्यापयन्ति च । कथंभूतान मन्त्रान् 'पागभूय विहेडिगो' माणभूतविहे टकान् प्राणिनः - द्वीन्द्रियादयः, भूतानि पृथिव्यादीनि तेषां विविधप्रकारेण हेटकान मारकान मन्त्रान् पठन्तीति ॥४॥ मूलम् - मायिणो कट्टु माया य कामभोगे समारभे । हंता छेत पगर्भित्ता आयसायानुगामिणो ॥५॥ छाया - मायिनः कृत्वा मायाश्च कामभोगान् समारभन्ते । हन्तारश्छेत्तारः कर्त्तयितार आत्मसातानुगामिनः ॥५॥ 9 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कामादि विषयक अशुभ अनुष्ठान ही उस शास्त्र का विषय है । जो ऐसे शस्त्र या शास्त्रका अभ्यास करते हैं, उनकी प्रवृत्ति सावध कर्मों में ही होती है इन शास्त्रों के अभ्यास से उत्पन्न होनेवाला वीर्य बालवीर्य कहलाता है । तथा कोई कोई लोग पापकर्म के उदयसे मन्त्रों को मारण कार्य में प्रयुक्त करते हैं और अश्वमेध, नरमेध, गोमेध, एवं श्येनयाग आदि में प्रयुक्त करने के लिये उन्हें पढते हैं और पढाते हैं वे मंत्र कैसे है ? सोकहते हैं - 'प्राणभूयविहे डिगो' हीन्द्रियादिप्राणी, और पृथिवी आदि भूतों को मारने वाले हैं ऐसे मन्त्रों को पढ़ते पढाते हैं ||४|| વિષય છે. જેઓ આવા પ્રકારની શસ્ત્ર વિદ્યા અથવા શાસ્ત્રને અભ્યાસ કરે છે, તેએાની પ્રવૃત્તિ સાવદ્ય કર્મોમાં જ હોય છે. આવા પ્રકારના શાઓના અભ્યાસથી ઉત્પન્ન થવાવાળા વીય ને માલવીય કહેવામાં આવે છે. તથા કેાઈ કાઈ લેાકેા પેાતાના પાપ કર્મના ઉદયથી મ ંત્રાને મારણુ કામાં પ્રયુક્ત કરે છે, અને અશ્વમેઘ, નરમેઘ, ગામેષ, અને સ્પેન યાગ વિગેરેમાં પ્રયુક્ત કરવા શીખે છે. અને શીખવાડે છે. એ મ`ત્રો કેવા છે ? ते तावतां डे छे- 'पाणभूयविहे डिणेा मे धन्द्रिय वगेरे आणी पृथ्वी आहि भूताने भारवा वाणा होय छे, तेवा मंत्रीने शीपेशीजवाड़े छे. ॥४॥ For Private And Personal Use Only Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ६५६ www.kobatirth.org सूत्रकृताङ्गसूत्रे अन्वयार्थ : - ( माथिको माया य कटु) मायिनः- परवश्चकाः मायाश्र कृत्वा ( कामभोगे समारभे ) कामभोगान् शब्दादिविषयरूपान् समारभन्ते कुर्वन्तिसेवन्ते, -तथा-(आयसायाणुगामिणो ) आत्मसातानुगामिनः स्वीयमुखमि च्छन्तः (हंता) हन्तारः (छत) छेतारः (विधवा) कर्तविवारी भरतीति ॥५॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टीक - 'माइणो' मानि माया परमासाद्य येते मानि 'माया' मयाः 'कट्टु' कृता- परधनवनितादिभ्म् अपहृत्य 'कामभोगे' -- 'मायिणो कट्टु' इत्यादि । शब्दार्थ - 'माथिणो माया य कट्टु-माथिनः मागाव कुम्या' माया करनेवाले पुरुष माया अर्थात् छल कपट करके 'कामभोगे समारभेकामभोगान् समारभन्ते' कामभोगों का सेवन करते हैं 'आघाताणुगामिणो आत्मसातानुगामिनः' तथा अपने सुबकी इच्छा करनेवाले वे 'हंता - हन्तार:' प्राणियों का हनन करनेवाले 'छेसा- छेतारः' छेदन करनेवाले 'पति-प्रकर्तयितारः' और कर्तन करनेवाले होते हैं ॥५॥ अन्वयार्थ - मायावी लोग मायाचार करके शब्दादि विषयरूप कामभोगों का सेवन करते हैं। ये अपने सुख की इच्छा करते हुए जीवों का हनन करते हैं, छेदन करते हैं और विदारण- कर्त्तन करते हैं ॥५॥ टीकार्थ- माया का सेवन करनेवाले माधी (कपटी) या मायावी कहलाते हैं। ऐसे मायावी जल मात्रा करके पराये घन स्त्री आदिका ' मायिणो कट्टु ' त्याहि शब्दार्थ - मायिणो माया य कटु-मायिनः माया कृत्वा ' मायाच श्वावाजा पु३ष भाया अर्थात् छरी ने 'कामभोगे समारभे - कामभोगान् समारमन्ते' अभलोगो सेवन उरे छे. 'आयस्राताणुगामिणो - आत्मशातानुगामिनः ' तथा पोताना सुमनी इच्छा वा वाणा येथे 'हंता - हन्तारः' प्रायेोतुं डेनन उदवा वाणा छेत्ता- छेतारः' छेहन उरवावाला 'पगन्भिता - प्रकर्त्तयितारः' અને ન કરવા વાળા હાય છે. પા અન્વયા—માયાવી લેકે માયાચાર કરીને શબ્દાદ્રિ વિષય રૂપ કામલેગેાનું સેવન કરે છે. તેએા પેાતાના સુખની ઇચ્છા કરીને અન્ય જીવાની હિંસા કરે છે, છેદન કરે છે, અને વિદ્યારણ-કન્તન કરે છે. ૧ ટીડાથ માયાનું સેવન કરવાવાળા માયી (કપી) અથવા માયાવી કહેવાય છે. એવા માયાવી માણસે માયા કરીને પારકા ધન સ્ત્રી વગેરેનુ For Private And Personal Use Only Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ८ उ.१ वीर्य स्वरूपनिरूपणम् कामभोगांश्च 'समारभे' समारभन्ते-सेवन्ते, परवञ्चनयाऽन्यदीयधनादिभिः कामभोगादीनां सेबनं कुर्वन्ति : तथा-'भायसायाणुगामिणो' आत्मशातानुसार मिनः-आत्मनः कृते सातं सुखं तदनुगामिनः, कषायकलुषितान्तरात्माना आत्मनः सुख लक्षीकृत्य अन्येषां माणिनाम् । 'हंता' हन्तार:-विराधयितारा, 'छेत्ता' छे गार:-छेदनकर्तारी भवति । कर्णनासिकादीनाम् 'पगभित्ता' पार्न यितारः पृष्ठोदरादीनाम् । आत्मसुखार्थ हननादिव्यापारं कुर्वन्ति, इति ।।५।। ... हननन्छेदनादिकं केन प्रकारेण कुर्वन्ति, नदेव मूत्रकारो दर्शयति-'मणसा पचसा चेव इत्यादि। मूलम्-मासा वचसा चव कायसा चेव अंतसो। आरओ परओ वावि दुशा निव य असंजया ॥६॥ छाया--मनसा वचसा चैत्र कायेन चैव अन्तशः। ___ आरतः परतो वापि द्विधाऽपि चाऽसंयताः ॥६॥ अपहरण करते हैं और कामभोगों का सेवन करते हैं, अर्थात् दूसरे के धन आदि से काम भोगों को भोगते हैं। तथा अपने ही सुख के लिए प्रयत्न करनेवाले वे कषाय से कलुषित चित्त होकर अन्य प्राणियों की विराधना करते हैं, उनके कान नाक आदि का छेदन करते हैं, पी, पेट आदि को चीरते या काटते हैं । अपने ही सुख के लिए वे यह सब पाप क्रियाएँ करते हैं ॥६॥ ___ वे इस प्रकार हनन एवं छेदन आदि करते हैं, सूत्रकार यह दिख लाते हैं-'मणसो वचसा चेव' इत्यादि। शब्दार्थ-असं जया-असंयताः, असंयमी पुरुष 'मणसा वचसा चेव कायला-मनसा वचसा चैध कायेन' मन, वचन और कायसे હરણ કરે છે, અને કામોનું સેવન કરે છે, અર્થાત્ બીજાઓના ધની વિગેરેથી કામગ ભેગવે છે, અને પિતાના જ સુખ માટે પ્રયત્ન કરનારા તેઓ કષાયથી મલિન ચિત્ત વાળા થઈને બીજા પ્રાણિની વિરાધના -હિંસા ४२ छ, आन-न विगैरेनु छ रे छ, पी8 (स) पेट ३ थी , તેઓ પોતાના જ સુખ માટે આવા પ્રકારની પાપક્રિયાઓ કરતા રહે છે પણ તેઓ હનન અને છેદન કઈ રીતે કરે છે ? વિગેરે બતાવતાં સૂત્રકાર 'मणसा वचसा चेव' ॥ ४ छ. शाय--'असंजया-असंयतः' मसयभी ५३५ 'मणमा वचसा वर कायसा-मनसा वचसा च कायेन' भन, क्यन भने यथी 'अंतसो-अन्तशः! For Private And Personal Use Only Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतागसूत्रे १ अन्वया--(असंजया) असंयता:-असंयमिनः (मणसा वचसा चेव कायसा) मनसा वचसा चैव कायेन-कृतकारितानुमतिभिः (अंतसो) अन्तश:-कायेनाशकॉषि मनसेव पापानुष्ठानानुमत्या (भारओ पर भी वावि) आरतः परतो बॉपि-इहलोकपरलोकार्थम् (दुहा वि) द्विधापि स्वयं करणेन परकारणेन च जीवपिराधका भवन्तीति ।।६।। टीका-'असंजया' असंपता मनोवाकायैः पुरुषाः परवञ्चकाः। 'मणसा' मनसा 'वयसा' वचसा 'चेव' च एव, तथा कायसा' कायेन-शरीरेण, अनेन शरीरवाङ्मनसा प्रवर्त्तने कारणत्वं दर्शितम् । 'अंतसो' अन्तशः-शरीरादिभिरसमथा अपि चिन्तनमात्रेणैव परघातमिच्छन्ति कालशौकरिकवत् 'आरओ' 'अंतसो-अन्तशः' कायाकी शक्ति न होने पर मनसे ही 'आरओ परओ वावि-आरतः परतः वापि' इसलोक एवं परलोक दोनों के लिये 'दुहावि-विधापि' करने और कराने दोनों प्रकार से जीवों का घात कराते हैं।।६॥ - अन्वयार्थ-असंयमी पुरुष मन से, वचन से और काय से, तथा स, कॉरित और अनुमोदन से एवं काय से असमर्थ होने पर मन से पाप के अनुष्ठान की अनुमोदना करके, इस लोक और परलोक दोनों के लिए स्वयं करने और कराने से दोनों प्रकार से जीवों के विराधक होते हैं ॥६॥ ..ट्रोकार्य-जो पुरुष मन, वचन और काय से असंयमी हैं-परवंचक (दूसरे को ठगने वाले) हैं, वे मन, वचन, काय से और शरीर से असमर्थ होने पर चिन्तन मात्र से दूसरों के घात की इच्छा करते हैं। तपय त अर्थात् यिनी २४ती न पाता भनथी 'आरओ पर ओवा विबारवः परतः वापि' भाले र मन ५ १४ मे मन्ना भाटे 'दुहावि-द्विधापि' म भने शव के भन्ने ५२थी वान धात २ . ॥६॥ .. भन्याय-- मयभी ५३॥ मनथी, क्यनयी मने आयायी तथा त, પરિત અને અનુમે દનધી તથા કાયથી અસમર્થ–અશક્ત થાય ત્યારે મનથી જ પોપનાં અનુષ્ઠાનની અનુમે દના કરીને આલોક અને પરલેક બને માટે પિત કરવા અને કરાવવાથી અર્થાતુ બેઉ પ્રકારથી જીવેની વિરાધના કરે છે. દા ટીકાર્યું–જે પુરૂષ મન, વચન, અને કાયાથી અસંયમી હોય છે. પરહાશક-બીજાને ઠગવાવાળા હોય છે, તેઓ મન વચન અને કાયાથી અને જીસી અશક્ત થાય ત્યારે વિચાર માત્રથી બીજાઓના ઘાતની ઈચ્છા કરે છે, For Private And Personal Use Only Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir न समयाथोधिनी का प्र. श्रु. अ. ८ उ.१ वीर्यस्वरूपनिरूपणम् आरतम्-इहलोके मुखार्थम् 'परओ' परत:-परलोकाय परलोकमा 'दुहा वि' द्विधापि-स्वयं करणेन, परकारणेन च । स्वयमाचरन्ति पाद्वारापति च । रागद्वेषान्धःपुरुषो मनोवाकायैः, तथा शरीरशक्त्यभावे बचनेन, केमनसा वा, ऐहिकपारलौकिकयो द्वयोरेव कृते प्राणिघातं स्वयं करोति पत्र कारयतीति भावः ॥६॥ हिंसाजनितपापस्य फलं दर्शयति-'वेराई कुम्बई वेरी' इत्यादि। मूलम् राई कुवई 'वेरी, तो वेरहिं रज्जई। पावोगा य आरंभा दुक्खफासा य अंतसो ॥७॥ छाया-वैराणि करोति वैरी ततो वैरैः रज्यते । पापोपगाश्च आरम्भा दुःखस्पर्शाश्व अन्तशः ॥७॥ इस विषय में कालशौकरिक का उदाहण प्रसिद्ध है। वे इस लोकी सुख के लिए और परलोक के सुख के लिए दोनों प्रकार से अर्थात् वर्ष घात करके और दूसरों से घात करवा कर प्राणियों की हिंसा करते हैं। आशय यह है कि राग और द्वेष से अन्धा पुरुष मन, कान, काय से और शारीरिक शक्ति न हो तो सिर्फ वचन से या केशल मन से, इस लोक और परलोक के लिए स्वयं जीववध करता है और दूसरों से भी करवाता है ।।६।। __ अब हिंसा जनित पाप का फल दिखलाते हैं'वेराई कुव्वई वेरी' इत्यादि। शब्दार्थ--'वेरी वेराई कुबह-वैरी वैराणि करोति' जीवघात करने આ સંબંધમાં કાલશૌકરકનું ઉદાહરણ પ્રસિદ્ધ છે. તેઓ આ લેકના સુખ માટે અને પરલેકના સુખ માટે બને પ્રકારથી અર્થાત્ સ્વયં વાત કરીને તથા બીજાએથી ઘાત કરાવીને પ્રાણિની હિંસા કરે કરાવે છે. ' કહેવાનો હેતુ એ છે કે-રાગ અને દ્વેષથી આંધળા બનેલ પુ જન, વચન અને કાયા (શરીર) થી અને શારીરિક શક્તિ ન હોય તે કેવુળ. વચન માત્રથી અથવા કેવળ મનથી આ લેક અને પાક માટે રવયં જેની હિંસા ४२ छ, अन मी यो पासे ५३ डिसा ४२रावे. छ. ॥ ६ ॥ वे बिसी २ ॥२॥ ५५नु ण ता ..छ. वेसई ऊबाई वेरी' त्यादि शा--'वेरी वेराई कुलवई वैरी वैराणि. करोति' et disual For Private And Personal Use Only Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्र अन्वयार्थ:-- (वेरी वेराई कुवई) वैरी-जीवोपमर्दनकारी-वैराणि-जन्मसानुग्धीनि करोति (तो वेरेहिं रजई) ततः वैरै। नवीनरैः रज्यते सम्बध्यते (चारमा य पावशेषगा) आरंभाः सावधानुष्टानरूपाः पापोपगा:-पापम् उपसामी. पेन गच्छन्तीति, 'अंतसो दुक्खफासा' अन्तशः दुःखस्पर्शाः नवीनं "दुःव मुत्पादयन्तीति ।।७। टीका - 'वेरी' वैरी-पडूजीपनिकायोपमर्दकारी पुरुषः 'वेराई' वेराणि यं हिनस्ति तेन सह धैरभावम् 'कुम्बई' करोति, यं माणिविशेष मेकदा हिनस्ति तेन सह जन्मशतानुबन्धीनि वैराणि बध्नाति । 'तओ' ततः पुनरपि 'वेरेहि वैरैः वाला पुरुष, अनेक जन्म के लिये जीवों के साथ वैर करता है तो वेरेहिं रजनद-ततः वैरैः रज्यते' फिर वह दूसरा नया वैर करता है 'आरंभा पावोगा-आरंभाः पापोपगा:' जीवहिंसा पाप उत्पन्न औरती है 'अंजसो दुक्खफासा-अन्तशः दुक्खस्पर्शाः' और अन्त में दु.ख देती है ॥७॥ ३ अन्वयार्थ--वैरी अर्थात् जीवों की हिंसा करने वाला सैकड़ों अन्मों तक चालू रहने वाला पैर बाँधता है। फिर नया वैर उत्पन्न करता है। आरंभ पापरूप होते हैं और अन्त में दुःख को उत्पन्न करते हैं ॥७॥ टीकार्थ-षट् जीवनिकायों का उपमनकारी अर्थात् छकायों की विराधना करने वाला पुरुष, जिसकी हिंसा करता है, उसके साथ धेरभाव उत्पन्न करता है । अर्थात् जिस प्राणी का एक वार घात करता है, उसके साथ सेकड़ों जन्मों तक चालू रहने वाला विधि-वैर घाँधता ५३५ अने: म भाट वानी स.थे ३२ ४३ छ. 'तो वेरे हे रज्जइ-ततः वैरैः रज्यते' ते ५७ ते मी न ३२ ४२ छे. 'आरंभा पावोवगा-आरंभाः: पापोरगाः' ७१ डिस५५५ ५-३ छ. 'अंतसो दुःखफासा-अन्तशः दुक्खस्पर्शा:' भने छेटे म हे छ. ७.. 1. અન્વયાઈ–વેરી અર્થાત જીવોની હિંસા કરવાવાળાઓ સેંકડે જન્મ સુધી ચાલુ રહેનારૂં વેર બાંધે છે. અને નવું વેર ઉત્પન્ન કરે છે. અારંભ પાપરૂપ હોય છે, અને અને દુખ પ્રાપ્ત કરે છે. માદા - ટીકાર્થ–ષડૂજીવનિકોનું ઉપમર્દન (હિંસા) કરવાવાળા અથવું કાની વિરાધના કરવાવાળા પુરૂષ, જેની હિંસા કરે છે, તેની સાથે વેરભાવ ઉત્પન કરે છે. અર્થાત્ જે પ્રાણીને એકવાર ઘાત કરે છે, તેની સાથે સેંકડો For Private And Personal Use Only Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. शु. अ. ८ उ. १ वीर्यस्वरूपनिरूपणम् ६६१ 'रज्जई' रज्यते, वैरपरम्परया सम्बद्धयते । एकस्मिन् येन कृतं बैरं जन्मान्तरे समपकरोति, ततः पुनरपि तेन सह वैरं करोति, इति वैरपरम्परा सर्वदेवाऽनुदिनं बर्द्धत एव । कथं वैरपरम्परायाः समुद्भव इत्यत आह- 'पावोगा 'पापोपगाः, पारसामीप्येन गच्छन्तीति पापोपगाः । के पापोपगाः- तत्राहआरम्भाः आरभ्यन्ते – संपाद्यन्ते इति आरम्भाः सावधकर्मानुष्ठानस्वरूपाः, Career आरम्भाः 'अंतसो' अन्तशः - स्वविपाकोदयसमये 'दुक्खफासा' दुःखस्पर्शाः, दुःख स्पृशन्तीति-दुःखहपर्शाः - दुःखजनका भवन्ति । जीवहिंसाकर्त्ताऽनेक जन्मनि तेन सह वैरं करोति । इदानीं य एनं मारयति स जन्मान्तरे तं हिनस्ति, हैं और फिर बैर की परम्परा से सम्बद्ध होता है- नया नया चैर बाँधता जाता है | जिसके साथ वैर बाँधा है, वह एक जन्म में उसका बदला लेता है । उस समय फिर नवीन वैर बँध जाता है। इस प्रकार वैर का प्रवाह जन्म जन्मान्तर तक चलता ही रहता है और बढता ही जाता है । इस वैर परम्परा के उद्भव का कारण दिखलाते हुए सूत्रकार करते हैं - पापों को उत्पन्न करने वाले आरंभ अपने विपाकोदय के समय दुःख के जनक होते हैं। अभिप्राय यह है कि जीवों की हिंसा करने वाला साथ वर बांधता है । इस समय जो जिस जीव को जन्मान्तर में मारने वाले को मारता है । उन जीवों के मारता है, वह आज का बध्य कल बधक बन जाता है और बधक बध्य बन जाता है । अर्थात मारने वाला जिस जीव को मारता है दूसरे जन्म में वह જન્મ સુધી ચાલુ રહેનારો વિરોધ-વેર ભાવ ખાંધે છે, અને પછી તે વેરની પર પરાથી બંધાયેલેા રહે છે, અને નવુ નવું વેર બાંધતા જાય છે. જેની સાથે વેર બાંધ્યુ છે, તે એક જન્મમાં તેના બદલા લેય છે, ત્યારે પાછુ નવું વેર બંધાય છે, આ રીતે વેરના પ્રવાહ (વેણુ) જન્મ જન્માન્તર સુધી ચલતે જ रहे छे. अने वृघता रहे छे. આ વેરની પરપરા ઉત્પન્ન થવાનુ` કારણુ ખતાવતાં સૂત્રકાર કહે છે કેપાપાને ઉત્પન્ન કરવાવાળા આરંભ પોતાના વિપાકના ઉડ્ડય વખતે દુઃખ કારક હાય છે. For Private And Personal Use Only કહેવાના અભિપ્રાય એ છે કે-જીવોની હિંસા કરવાવાળાઓ તે જીવોની સાથે વેર બાંધે છે. આ જન્મમાં જે જેને મારે છે, તે જન્માન્તરમાં અર્થાત્ બીજા જન્મમાં મારવા વાળાને મારે છે. આ જ વધ્યું (મરન ૨) કાલે વધક (भाश्वावणे) मनी लय छे अर्थात् भावावाणी ने अपने भारे छे, ખીજા Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ६१२ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इन्वारं निस्तीति संबद्धा वैरपरम्परा । यतो हि हिंसा पापमुत्पादयनि प्रापफलं दुःखमिति व्या हिंसा हितांमित्राषिभिरिति ॥७॥ - संपेरायं नियच्छति तदुक्कडकारिणो । रोगदोसस्सिया बाला पाव कुब्वति ते बहुं ॥८॥ ક્ષા छाया सांपर यकं नियच्छन्ति भारमदुष्कृतकारिणः । रागद्वेषाश्रिता बाळाः सम्यं कुर्वन्ति ते बहु ॥ ८ ॥ अन्वयार्थः - ( अतदुक्कडकारिणो ) आत्मदुष्कृतकारिणः- स्वपापविधायिनः सन्तः (संपरायं नियच्छंति) साम्परायिकं कर्म नियच्छन्ति - बध्नन्ति ( रामदोस जीव मारने वाले को मारता है। इस प्रकार जो परम्परा चल पड़ती है, उसका सैकड़ों भवों तक अन्त नहीं आता । हिंसा पाप को जन्म देती है और पाप दुःख का जनक होता है। अतएव जो अपना हित चाहते हैं, उन्हें हिंसा का सर्वथा त्याग कर देना चाहिए ||७|| 'संरा' इत्यादि । शब्दार्थ -- अत्तदुक्कडकारिणो- आत्मदुष्कृतकारिण:' स्वयं पापकरने वाले जीव 'संपरायं नियच्छंति-सांपरायिकम् नियच्छन्ति' सांपराधिक कर्म बांधते हैं 'रागदोसस्सिया ते बाला - रागद्वेपाश्रिताः ते बाला:' राग और द्वेष के आश्रयसे वे अज्ञानी 'बहु पावं कुव्वंति - बहु पापं कुर्वन्ति' बहुत पापकर्म करते हैं ॥ ८ ॥ अन्वयार्थ -- स्वयं पाप करने वाले जीव साम्परायिक (संसार परि જન્મમાં તે જીત્ર મારનારને મારે છે. આ રીતની જે પરંપરા ચાલુ થાય છે तेनो मत से डे। लवे। सुधी भावतो. नथी. हिंसा पापने उत्पन्न करे छे, मने पाया होय छे. तेथी के धरछे छे. तेथे હિં'સાને હુંમેશાં ત્યાગ કરવો જોઇએ. ઘણા पोतानु हित 'संरा' इत्याहि शब्दार्थ -- 'अत्तदुक्कडकारिणो - आत्मदुष्कृतकारिणः' पोते 'संररायं नियच्छं ते सांवरायिकम् नियच्छन्ति' सांप 'रामदोसस्त्रिया से बाल' - रागद्वेषाश्रिताः ते बालाः' राम भने द्वेषना माश्रयथी ते पाश्ववाणा धेछे उर्भ - zulu fag qrá gsåfa-ag 919 gåfa' ug - अन्वयार्थ-स्त्रयं पाय उरवा पाणी ७१ my sal se §. 11 पाय (संसारना For Private And Personal Use Only Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६३ पापपलपानरूपणम् समायबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ८ उ.१ वीर्यस्वरूपनिरूपणम् स्सिया) रागद्वेषाश्रिता:-कषायकलुषितान्तरात्मानः (ते बाला) ते बाला:-सद सद्विवेकविकला अज्ञानिनः (बहुपावं कुच्वंति) बहु-अनन्तं पापम् अप्सद्वेध कुर्वन्ति-विदधतीति ॥८॥ टीका-'अत्तदुक्कडकारिणो' आत्मदुष्कृतकारिणः, आत्मना स्वयमेव दुष्कृतकर्मफर्तारः सावधकर्मानुष्ठानमाचरन्तः 'संपरायं णियच्छंति' सांपरायिकं नियच्छन्ति । द्विविधं हि कर्म भवति-ईपिथम् सांपरायिकं च। तत्र-संपराया:बादरकपायाः, तेभ्य भागतं यत् सांपरायिकम्, तादृशं कर्म जीवोपमर्दनात् आत्मदुष्कृतकारिणोऽभद्राः पुरुषाः नियच्छन्ति-बघ्नन्ति । कथंभृतास्ते ये तादृशं साम्परायिकं कर्म अनुबध्नन्ति, तबाह-रागहोसस्सिया' रागद्वेषाश्रिताः कषायकलुषितान्तरात्मानः रागद्वेषाभ्यो युक्ताः सन्तो जीवान् हिंसन्ति नरकादिकुगति हेतुकर्म अनुबध्नन्ति च। तथाविधं कर्म रागद्वेषात्मककषायकलषिताऽन्त:करणा', अत एक बालाः सदसद्विवेकविकला:, 'पावं' पापम् अष्टादशभेदरूपं विविधासद्बदनीयजनकम्। 'बहु' अनेकविधम् 'ते कुचंति' ते कुर्वन्ति । स्वेनैत्र भ्रमण के) कर्म का बन्ध करते हैं। वे अज्ञानी रागद्वेष से मलीन होकर बहुत पाप उपार्जन करते हैं ॥८॥ टीकार्थ--जो स्वयं पापकर्म का आचरण करते हैं, वे साम्परायिक कर्म को बांधते हैं । कर्मबन्ध दो प्रकार का है ईर्यापथ और साम्परायिक । जो कर्मबन्धन बादर कषाय से होता है, वह साम्परायिक कहलाता है। जीवहिंसा से साम्परायिक कर्म का पन्ध होता है। जो जीव रागद्वेष के आश्रित हैं अर्थात् जिनकी अन्तरात्मा कषायों से कलुषित हैं और इस कारण जो हिंसा करते हैं, वे नरक आदि दुर्गतियों के कारणभूत कर्म का बन्ध करते हैं। ऐसे कर्म अनेक પરિભ્રમણ) કરને બંધ કરે છે, તેઓ અજ્ઞાની અને રાગ દ્વેષથી મલીન થઈને ઘણા જ પાપનું ઉપાર્જન કરે છે. ટીકાર્ય–જે એ સ્વયં પાપ કર્મનું આચરણ કરે છે, તેઓ સાંપાયિક કર્મને બાંધે છે. કર્મબંધ બે પ્રકારના છે, ઈર્યાપથ અને સાંપરાયિક જે કમને બંધ બાદર કષાયથી થાય છે, તે સાંપરાયિક કહેવાય છે. જીવહિંસાથી સાંપરાયિક કમને બંધ થાય છે. જે જીવ રાગ દ્વેષથી યુક્ત હોય છે. અર્થાત્ જેઓને આમા કરાયથી મલીન થયેલે છે, અને તે કારણથી જેએ હિંસા કરે છે, તેઓ નક વિગેરે દુર્ગતિના કારણભૂત કમને બપ કરે છે. એવા કર્મો અને For Private And Personal Use Only Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे पापकर्माऽनुष्ठातारः चतुर्गतिभ्रमणहेतुकं साम्परायिकं कर्म बनन्ति, तश-राग द्वेषकषायकलुषितान्तःकरणाः कुर्वन्ति-अनेकविध कर्म इतिमानः ॥८॥ ___ तदेव बाळवीर्यमुपदर्थ तदुपसंहरबाह-'एयं' इत्यादि । मूलम्-एवं सकामवीरियं बालाणं तु पंवेइयं । इत्तो अम्मीरियं पंडियाणं सुणेह में ॥९॥ छाया-एतत्सकर्मवीर्य बालानां तु पवेदितम् । . __अतोऽकर्मवीयं पण्डितानां शृणुत मे ॥९॥ प्रकार के असाता रूप दुःख को उत्पन्न करने वाले होते हैं । सत् के विवेक से रहित अज्ञानी जीव ही ऐसे कर्म उपार्जन करते हैं। .. तात्पर्य यह है कि स्वयं पाप कर्म का अनुष्ठान करने वाले अज्ञानी जीव चतुर्गति में भ्रमण करने के कारण साम्परायिक कर्म का बन्ध करते हैं तथा जो राग द्वेष से कलुषित हैं, वे अनेक प्रकार के कर्म उपार्जन करते हैं ॥८॥ इस प्रकार बालवीर्य को दिखला कर उपसंहार करते हैं'एयं सकम्मवीरियं' इत्यादि । शब्दार्थ-'एयं-एतत्' यह 'बालाणं तु-यालानां तु अज्ञानियों का 'सकम्मवीरियं पवेड्यं-सकर्मवीर्य प्रवेदितम्' स्वकर्मवीर्य कहागया है 'इत्तो-अत:' अब यहां से 'पंडियाणं-पंडितानाम्' उत्तम साधुओं का 'अकम्मवीरियं-अकर्मवीर्यम्' अकर्मवीर्य 'मे-मे' मेरेसे 'सुणेह-शृणुन' हे शिष्यो सुनो।।९। પ્રકારની અશાતા (અશાંતિ) રૂપ દુઃખને ઉત્પનન કરવાવાળા હોય છે. સત અસના વિવેક વિનાના અજ્ઞાની છવજ એવા કર્મોનું ઉપાર્જન કરે છે. કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કેપિત-પાપકર્મનું અનુષ્ઠાન કરવાવાળા અજ્ઞાની જીવો ચતુર્ગતિમાં ભ્રમણ કરવાને કારણે સાંપરાવિક કમને બંધ કરે છે તથા જેઓ રાગદ્વેષથી મલીન થયેલા છે, તેઓ અનેક પ્રકારના કર્મોનું ઉપાર્જન (પ્રાપ્તિ) કરે છે. કેટલા " આ રીતે બાલવીર્યને બતાવીને ઉપસંહાર કરતાં કહે છે કે'एय सकम्मवीरिय” त्यादि शहाय--'एय-एतत्' मा 'बालाणं तु-बालानां तु' ज्ञानिया नु' 'सकम्म वीरिय पवेइयं-सकर्मवीर्यम् प्रवेदितम्' २१ पीय sa2. 'इत्तो-अतः' स्वे डिंथी पंडियाण-पंडितानाम्' उत्तम साधुमे। 'अकम्मवीरियं-अकर्मवीर्यम्' मम पीय 'मे-में' भारी पसिया 'सुणेह-श्रुणुव' शिष्य!! तमे साल For Private And Personal Use Only Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. थु. अ. ८ उ. १ वीर्यस्वरूपनिरूपणम् अन्वयार्थः -- (एयं) एतत् - पूर्वोपदर्शिनम् (बालाणं तु) बालानां तु (सम्मेबीरियं पवेइयं ) सकर्मवीर्य मवेदितं - कथितम् ( इतो) अतः परम् (पंडियाणं) पण्डितानाम् ( अकम्प्रवीरियं) अकर्मवीर्यम् (मे) मे मतः (मुणे) गुणुत है शिष्याः ! इति ||९|| टीका- 'एयं' एवत्पूर्वं यत्प्रतिपादितम् । तथाहि जीवोपमर्दनाय केवन शस्त्रं शाखं च शिक्षन्ते । तथाऽपरे प्राणिविराधनाभिचारिकान्मन्त्रानचीयते । ततोऽपरे पुनर्मायाविनोऽनेकमकारिका मायामुद्भाव्य कामभोगार्थमर्थिनः समारम्वानारमन्ते । अन्ये पुन वैरिणं लक्षीकृत्य तथाविधं कर्माऽनुतिष्ठन्ति, यावती वंशपरम्परा धेरै । एवं विचिनो नराः तथा कुर्वन्ति यथा परम्परा बद्धवैरा जायते । एत सर्वम् 'वाळणं' बालानां सदसद्विवेकविकलानाम् । 'सम्वीरियं' सकर्मवीर्यम् 'पवेश्यं प्रवेदितम् - कथितम् । अन्वयार्थ शिष्यो ! यह पूर्वोक्त अज्ञानी जीवों का सकर्म वीर्य कहा गया, इसके अनन्तर पण्डित ज्ञानी जनों का अकर्मवीर्य मुझसे सुनो ॥९॥ टीकार्थ- इससे पूर्व कहा जा चुका है कि कोई कोई पाल जीव जीवों की हिंसा के लिए शस्त्र एवं शास्त्र का अभ्यास करते हैं। कोई प्राणियों की विराधना करने वाले मंत्रों का अध्ययन करते हैं। कोई कोई कामभोग के अभिलाषी माघाची माघाचार करके आरंभ समारंभ करते हैं। कोई अपने शत्रु को लक्ष्य करके ऐसे कृत्य करते हैं जिनसे वंशपरम्परागत वैर बँध जाता है। यह सब सत् असत् के विवेक से रहित बालजीवों का सकर्मवीर्य અન્વયા - હું શિષ્યા ! આ પહેલાં કહેલ પ્રકારથી અજ્ઞાની જીવાનું સક્રમ વીર્ય કહેવામાં આવેલ છે. હવે પંડિતા-જ્ઞાનીજનાનુ ક વી કહું છું તે તમા સવે મારી પાસેથી સાંભળેા. માલ્યા ટીકા”—આનાથી પહેલાં કહેવામાં આવેલ છે કે-કેઈ કાઈ ખાલ અજ્ઞાની જીવ જીવની હિંસા કરવા માટે શસ્ત્ર અને શાસ્ત્રના અભ્યાસ કરે છે. કાઈ કે ઈ પ્રાણિયાની વિરાધના કરવાાળા મંત્રીનું અધ્યયન કરે છે. કોઈ કાઇ કામભોગોની ઈચ્છા વાળા માયાવી માયાચાર કરીને અ ૨ભ સમારંભ કરે છે. કાઈ પેાતાના શત્રુને ઉદ્દેશીને એવા પાપ કૃત્યા કરે છે. જેથી વશ પર પરાગત વેર ખંધાઇ જાય છે. આ બધુ' સત્ અસા વિવેક રહિત ખાલજીવાનુ` સકમ વીર્યં કહેલ છે. ८४ For Private And Personal Use Only Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतामसूत्रे Karj r) इत्या तु शब्देन प्रमादवतां वीर्यपि संगृहीतम् । 'इत्तो' अतःपरम् 'डिपाणं' पण्डितानाम् 'अम्मचीरियं' अकर्मवीर्यम् 'मे' मम कथयतः 'सुखेड' शृणुत यूयमिति शेषः । एतावता प्रबन्धेन बालानां जीवावां सकर्मवीर्य प्रदर्शितम् , अतःपरं पण्डितानामकर्मवीर्य कथयामि, तद्भवन्तः शृण्वन्तु इति ।९। ___उक्तं बालवीर्य साम्म पण्डितवीर्यमाह-दगिए' इत्यादि। मलम्-दबिए बंधणुम्मुके सम्बओ छिन्नबंधणे। पणोल्ल पावकं कम्मं सल्लं कंतति अंतसो॥१०॥ . छाया-द्रव्यो बन्धनोन्मुक्तः सर्वतश्छिन्नबन्धनः । मणुध पापकं कर्म शल्यं कृन्तत्यनेकशः ॥१०॥ कहा गया है। मूल में आये हुए 'बालाणं तु' में 'तु' शब्द से प्रमाद्वान् जीवों के वीर्य का भी संग्रह किया गया है। बालवीय के प्ररूपण के पश्चात् मैं पण्डितों का अकर्मवीर्य कहूँगा, उसे तुम सब सुनो।९॥ अष पण्डितवीर्य का कथन करते हैं-'दयिए' इत्यादि। शब्दार्थ--'दधिए-द्रव्यः' मुक्ति जाने योग्य पुरुष 'पंधणुम्मुक्केधनोन्मुक्तः' बन्धनसे मुक्त 'सबओ छिन्नबंधणे- सर्वतश्छिन्नबंधना' तथा सब प्रकारसे बन्धनको नष्ट करता हुआ 'पावकं कम्मं पणोल्लपापकं कर्म प्रणुद्य' पापकर्मको छोड़कर 'अंतसो सल्लं कंतति-अंतशः शल्यं कृन्तति' अपने समस्त कर्मों को नष्ट कर देना है ॥१०॥ भूगमा अस बालाणां तु' । ५४मा 'तु' ५४थी प्रभावान्, वाना પીએને પણ સંગ્રહ થયેલ છે. - બાલવીર્યનું નિરૂપણ કરીને હવે હું પંડિતેના અકર્મવીર્ય વિશે કહીશ તે તમે સાંભળે ત્યા ... वे 'दब्विा' या था द्वारा पारितवाय ४थन ४२पामा भाव छे. .. शहाय-दविए-द्रव्यः' भुति 11 १२वान याय ५३५ 'बंधणुम्मुक्केबंधमेन्मुक्तः' मधमयी मुद्रत 'सबओ छिन्नबंधणे-सर्वतश्छिन्नबंधनः' तथा rand अपनाना रीने 'पावकं कम्मं पणोल्छ-पाप कर्म प्रणुद्य' पा मन छीन 'अंतसो सल्लं कंतति -अन्तशः शल्यं कृन्तति' पोताना सघा ને ખાસ કરી દે છે. ૧ભા For Private And Personal Use Only Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ८ उ. १ वीर्यस्वरूपनिरूपणम् अन्वयार्थः- (दबिए) द्रव्यः-मुक्तिगमनयोग्यो भव्यः (मुक्के) बन्धनात्-कपायात्मकादुन्मुक्तो रहितः (सव्यओ छिनबंधणे) सर्वसश्छिन्नबन्धनः (पावकं कम्म) पापकं कर्म (पणोल्ल) प्रणुध-अपनीय (अंतसो सरल सति) अन्तश:-अन्नतो गत्मा शल्यं शेषं कम कुन्तति-अपनयतीति ॥१०॥ टीका-'दविए' द्रव्यो-मुक्तिगमनयोग्यो मुनि:-'द्रव्ये भव्ये' इति वचनात् द्रव्यपदं मुक्तिगमनयोग्यं महात्मानमुपस्थापयति । अथवा-रागद्वेषरहित. स्वात् द्रव्यभूतो द्रव्यस्वरूपतां गतः सर्वथा कपायैः रहितः । यथा पाषाणादि दिया रागद्वेषरहितं भवति, तद्वत् यो रागद्वेषरहितः स द्रव्य इव द्रव्यः कथ्यते । अथा वीवराग इव वीतरागः, ईषत्कषायवान् । तथोक्तम् "किसका बोत्तुं जे सरागधम्मंमि कोइ अक्साई। संते वि जो कसाए निगिण्हइ सोऽवि तत्तुल्लो' ॥१॥ अन्वयार्थ--मुक्तिगमन के योग्य, कषाय रूप धन से रहित, सप प्रकार के संशयों से रहित भव्य जीव पापकर्मों को हटाकर अन्ततः शल्य को अर्थान् शेष रहे कर्मों को काट डालता है ॥१०॥ टीकार्थ--जो मुक्तिगमन के योग्य हो वह 'द्रव्य' कहलाता है। क्योंकि-'द्रव्यं च भव्य' ऐसा कहा गया है। अतएव यहाँ 'दव्य' पद का अर्थ है-मोक्षगमन करने योग्य महात्मा। अथवा रागद्वेष से रहित होने के कारण जो द्रव्य स्वरूप को प्राप्त हो अर्थात् सर्वथा निष्कषाव हो, वह भी 'द्रव्य' कहलाता है । या जो वीरता के समान वीतराम अर्थात् अल्पकषायवान् हो, उसे भी द्रव्य कहते हैं। कहा भी है. 'कि सक्का वोतु जे' इत्यादि । अन्वयार्थ -भुतिमा पान. यो-य, ४१६५३५ मधनयी हित, २४ પ્રકારના સંશ વિનાના ભવ્ય જીવે પાપ કર્મને હટાવીને અન્તતઃ શલ્યને અર્થાત્ બાકી રહેલા કમેને છેદી નાખે છે. ૧થા ટીકાર્ય–જેઓ મુક્તિમાં જવાને ગ્ય થયેલા હોય તે દ્રવ્ય કહपाय 2. भ3-'द्रव्य च भव्ये' २॥ प्रमाणे ४७ छे. मडिया द्र०य पहने। અર્થે મોક્ષમાં જવાને એગ મહાત્મા આ પ્રમાણે થાય છે, અથવા રાગદ્વેષ વિનાના હોવાના કારણે જે એ દ્રવ્યના સ્વરૂપને પ્રાપ્ત કરે અર્થાત્ સર્વ કષાય વિનાના હોય તે પણ “દ્રવ્ય' કહેવાય છે, અથવા જે વીતરાગને સખા વીતરાગ અર્થાત્ અલ્પ કષાયવાળા હોય તેને પણ દ્રવ્ય કહે છે. કહ્યું પણ छ -'कि सका वोक्तुं जे' यह For Private And Personal Use Only Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे छाया--किं शक्या वक्तुं यत् सराग धर्मे कोऽप्यकषायः । ___ सतोपि यः कषायात् निगृह्णाति सोऽपि तत्तुल्यः ॥१॥ सरागधर्म य: स्थितः, षष्ठसप्तमगुणस्थानवान् किं कश्चित् कषायरहितो भवति किमिति प्रश्ना, भवतीत्युत्तरम्, कषायस्य विद्यमानत्वेऽपि यः कषायम् उदयत् निवर्तयति सोऽपि वीतरागसदृश एवेति भावः ॥ ..किस्वरूपोऽयं द्रव्यस्तत्राह-'बंधणुम्मुक्के' बन्धनोन्मुक्तः, बन्धनात् कषायस्वरूपात् उन्मुक्तो रहित इति बन्धनोन्मुक्त । कर्मस्थितिजनकत्वात् कषायाः कर्मबन्धनशब्देनोक्ता भवन्ति। तथोक्तम्-'बंधट्टिईकसायवसा' बन्धस्थितिः कषायवशा-बन्धस्थितिः कषायाधीनेत्यर्थः। तथा-'सबओ छिन्नबंधणे' सर्वतः-सर्वप्रकारेण छिन्न-नाशितं बन्धनं येन स सर्वतश्छिन्नबन्धनः । सर्वप्रकारेण नाशितकषायः। तथा-'पावकं' पापकम् 'कम्म' कर्म-ज्ञाना वरणीयादिकमष्टविधम् 'पणोल्ल' प्रणुय-विनाश्य, 'सल्लं' शल्यम्-शरीरे त्रुटित. जो सरागधर्म में अर्थात् रागयुक्त अवस्था में (छठे सातवें गुणस्थान में) वर्तमान है, उसे भी क्या अकषाची कहा जा सकता है ? इसका उत्तर यह है कि सत्ता में विद्यमान कषायों का भी जो निग्रह करता है, वह भी वीतराग या अकषायी कहा जा सकता है। ऐसा 'द्रव्य' महात्मा किस प्रकार का होता है ? इस प्रश्न का उत्तर देते हैं-वह बन्धनों से विमुक्त होता है कषाय क्रमस्थिति के जनक है, अतएव धर्मबन्धक कहलाते हैं । कहा भी है कि कर्मों में जो स्थिलि पड़ती है, वह कषाय के कारण ही पड़ती है। इसके अति. रिक्त यह छिन्नधन होता है अर्थात् उसके बन्धन-कषाय सर्वथा नष्ट हो जाते हैं। वह ज्ञानादरणीय आदि पपकर्मों को दूर करके, , જેઓ સરાગ ધર્મમાં અર્થાત્ રાગયુકત અવસ્થામાં (છઠ્ઠા સાતમા ગુણ સ્થાનમાં) વર્તમાન છે, તેને પણ શું અકષાયી કહેવાય છે ? આ પ્રશ્નને ઉત્તર એ છે કે-જેઓ સત્તામાં રહેલ કષાયોનો પણ નિગ્રહ કરે છે. તે પણ વીતરાગ અથવા અકષાયી કહી શકાય છે. - આ પ્રકારના દ્રવ્ય મહાત્મા કેવા પ્રકારના હોય છે? આ પ્રશ્નને ઉત્તર આપે છે-તે બંધનોથી વિમુક્ત છૂટેલા) હોય છે. કષાય-કર્મ સ્થિતિના ઉત્પત્તિ રૂપ છે. એટલા જ માટે કર્મ બંધન કહેવાય છે. કહ્યું પણ છે કે“કમાં જે સ્થિતિ આવે છે, તે કષાયના કારણે જ આવે છે, તે શિવાય તે છિન્નબંધન હોય છે. અર્થાત તેના બંધન-કષાયે સર્વથા નાશ પામે For Private And Personal Use Only Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संमयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ८ . १ वीर्यस्वरूपनिरूपणम् ६६९ वाणाग्रभाग इव दुःखदायि शेषकं कर्म 'कंतति' कृन्तति-नाशयति-अपगमयति 'अंतसो अन्तशा-निरवशेषतः । मुक्तिगमनयोग्यो भव्यजीवः सर्ववन्धनानि नाशयित्वा, एवं पापं कर्म विनाश्य अष्टप्रकारकं संसारस्थितिकारणं कर्म अपगमयतीति भानः ॥१०॥ - यमाश्रित्य पुरुषधौरेयः कर्मरूपं शल्यं छिनत्ति, तदुपदर्शनायाऽऽह सूत्रकार:'नेयाउयं सुयक्खाय' इत्यादि। मूलम् -नेयाउयं सुयक्खायं उवादाय समीहए। भुजो भुज्जो दुहावासं असुहत्तं तेहा तहा ॥११॥ छाया--न्यायोपेतं स्वाख्यातमुपादाय समीहते । भूयो भूयो दुःखावास मशुभत्वं तथा तथा ॥११॥ अन्त में, शरीर के अन्दर टूटे हुए वाण की नौक के समान पीड़ा पहुँचाने वाले शेष कर्मों को भी नष्ट कर देता है। ___तात्पर्य यह है कि मुक्तिगमन के योग्य भव्य जीव सर्व बन्धनों को नष्ट करके एवं पापकर्म को दूर करके संसार में स्थिति के कारणभूत आठों प्रकार के कर्मों को हटा देता है ॥१०॥ जिसका आश्रय लेकर महापुरुष कर्मरूप शल्प का उन्मूलन करता है, उसे सूत्रकार दिखलाते हैं-'नेयाउयं सुयक्खाय' इत्यादि। शब्दार्थ-'नेपाउयं सुयक्खायं-न्यायोपेतं स्वारुपातम्' सम्यग् ज्ञानदर्शन और चारित्रको तीर्थंकरोंने मोक्ष का नेता (मोक्ष देनेवाला) कहा है 'उबादाय समीहए उपादाय समीहते'विद्वान् पुरुष, उसे ग्रहण कर मोक्षके છે તે જ્ઞાનાવરણીય વિગેરે પાપ કર્મને દૂર કરીને છેવટે શરીરની અંદર તૂટેલા બાણની અણીની જેમ પીડા પહોંચાડનારા બાકી રહેલા કર્મોને પણ નાશ કરે છે. કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે-મુક્તિમાં જવાને ગ્ય ભવ્ય જીવ સર્વ બંધનોને નાશ કરીને તથા પાપ કર્મને દૂર કરીને સંસારમાં સ્થિતિના કારણે રૂપ આઠ પ્રકારના કર્મોને હટાવી દે છે. ૧૧ જેને આશ્રય લઈને મહાપુરૂષે કર્મરૂપ શલ્યને નાશ કરે છે, તે વિષય सतातi सूत्रा२ ४७ छ -'नेबाउय' सुयक्खाय' त्यादि। शा--'नेयाउयं सुयखाय-न्यायोपेत स्वाख्यातम्' सन्य ज्ञान, शिन अने यात्रि २ तायशेये मोक्षमi as पापाm छ. 'उवादाय समीहए-उपादाय समीहते' विद्वान् ५३५ २२ अ श२ मोक्षने मारे For Private And Personal Use Only Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ... अन्वयार्थ:--स पूर्वोक्तो द्रव्यः (नेयाउयं सुयक्खाय) न्यायोपेतं स्वाख्यासम् सम्यगदर्शनज्ञानचारित्रमेव मोक्षमार्गः तीर्थकरैराख्यातस्तम् (उवादाय समीहए) उपादाय समीहते ज्ञानादिकं गृहीत्वा मोक्षाय प्रयतते (भुज्जो भुज्जो दुहावास) बालवीय भूयो भूयो दुःखावासं ददाति (तहा तहा असुहत्त) तथा तथा यथा यथा दुःख भुजते तथा तथा अशुभत्वमशुभविचार एवं वर्द्धते इति ॥११॥ टीका--स पूर्वोक्तो द्रः 'नेयाउयं' न्यायोपेतम्, न्यायः-ज्ञानदर्शन चारित्राख्यो मोक्षमार्गः, तेनोपेतम्-युक्तम्, अथवा-न्याय:-श्रुवचारित्ररूपो धर्मस्तेन युक्तम् 'सुयक्खाय' स्वाख्यातम्, सुष्ठु सम्यक् आख्यातं तीर्थकरादिभिः लिये उद्योग करते हैं 'भुज्जो भुजो दुहावास-भूयो भूयो दुःखावासं' थालवीर्य चार बार दुःख देता है 'तहा तहा असुहत्तं-तथा तथा अशु. भत्वम् बालवीर्य वाला पुरुष ज्यों ज्यों दुःख भोगता है त्यों त्यों उसको अशुभ ही पढता है ।।११॥ अन्वयार्थ--सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र तप को तीर्थकरों ने मोक्षमार्ग कहा है। विवेकशील पुरुष उसे ग्रहण करके मोक्ष के लिए यत्न करते हैं । पालवीय पुन: पुन: दुःख प्रदान करता है। बाल जीव ज्यों जनों दुःख भोगता है, त्यो त्यो उसका अशुभ विचार बढता ही जाता है ॥११॥ ___टीकार्थ--न्यायोपेतज्ञानदर्शन और चारित्र तप जो मोक्ष का मार्ग है उनसे युक्त हो वह नेता है अथवा श्रुन-चारित्र रूप धर्म नेता है, क्योंकि वह मोक्ष में कारण है । उस नेता या मोक्षमार्ग का तीर्थ कर आदि ने सम्यक् प्रकार से कथन किया है । उद्यो॥ ४२ छे. 'भुज्नो भुजो दुहावासं-भूयो भूगे दुःखावासं' मालवीय पार वार हुम छे. 'तहा तहा असुहत्तं-तथा-तथा अशुभत्वम्' मालवीय वाणे . પુરૂષ જેમ જેમ દુઃખ ભોગવે છે તેમ તેમ તેને અશુભજ વધે છે. ૧૫ અન્વયાર્થ–સમ્યગ દર્શન, જ્ઞાન, અને ચારિત્ર તપને તીર્થકરોએ મક્ષ માર્ગ કહેલ છે. વિવેકી પુરૂષ તે માર્ગનું અવલંબન કરીને મોક્ષ માટે પ્રયત્ન કરે છે. બાલવીયે વારંવાર દુખ દેનારૂ હોય છે બાલ જી જેમ જેમ દુઃખ ભેગવે છે, તેમ તેમ તેના અશુભ વિચારો વધતા જાય છે. ૧૧ ટીકા–ાપિત જ્ઞાન દર્શન, ચારિત્ર અને તપ વિગેરે જે મોક્ષના માર્ગો છે, તેનાથી યુક્ત હોય તેજ નેતા છે. અથવા શ્ર–ચારિત્રરૂપ ધર્મ નેતા છે. કેમ કે તે મોક્ષમાં કાર છે, તે નેતા અથવા મેક્ષ માર્ગનું તીર્થકર વિગેરે એ સારી રીતે કથન કરેલ છે. For Private And Personal Use Only Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्यबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ.८ उ. १ वीर्यस्वरूपनिरूपणम् कथितम् 'उवावाय' उपादाय-श्रद्धया स्वीकृत्य-समीहए' समीहते- सम्यग् रूपेण ईइते मोक्षार्थसाधको द्रव्यः चेष्टते ध्यानाध्ययनादौ प्रयतते । धर्मध्यानावरोहणाय धर्मादौ प्रयतमानो भवति। बालवीयं च 'भुमो भुज्जो' भूयो भूयःवारं वारम् 'दुहावासं' दुःखावासम्, दुःखमावासयति-इति दुःखावासः दुःखकस्थानम् येन येन प्रकारेण बालवीर्यवान् दुःखजनकनरकनिगोदादौ परिभ्रमति 'तहा तहा' तथा तथा-तेन तेन प्रकारेणाऽस्य बालवीर्यस्य अशुभाध्यवसायित्वात् 'अमुहत्त' अशुभत्वम्-अशुभत्वमेव प्रवर्धते । इत्थं संसारस्वरूपं विचारयतो मुनेः धर्माऽनुष्ठानादावेव मतिः प्रवर्तते, इति। सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रतशंति मोक्ष. मार्गः, इति तीर्थकरैरुपदिष्टः, अतो मोक्षार्थी तं मोक्षमार्गमेवाऽऽदाय विचरति, ___ तात्पर्य यह है कि सम्यग्ज्ञान, दर्शन चारित्र और तप या श्रुत और चारित्र रूप धर्म ही मोक्ष का कारण है, ऐसो तीर्थकरों आदि ने उपदेश किया है । उस मोक्ष कारण को श्रद्धापूर्वक स्वीकार करके मोक्षार्थी पुरुष ज्ञान ध्यान आदि क्रियाओं में प्रवृत्ति करता है। इसके विपरीत बालवीर्य पुनः पुनः दुःखों का कारण होता है। बालवीर्यवान् पुरुष नरक-निगोद आदि में परिभ्रमण करता है । जैसे-जैसे वहां दुःखों को भोगता है, वैसे वैसे उसकी अशुभता अर्थात् परिणामों की मलीनता बढती जाती है । इस प्रकार संसार के स्वरूप का विचार करने वाले मुनि की धर्मध्यान अनुष्ठान में ही प्रवृत्ति होती है। __ आशय यह है कि सम्यग्दर्शन, ज्ञान चारित्र और तप मोक्ष के मार्ग हैं, ऐसा तीर्थंकरों का उपदेश है । अतएव मोक्षार्थी मोक्षमार्ग को તાત્પર્ય એ છે કે-સમ્યક્ જ્ઞાન; દર્શન ચારિત્ર અને તપ અથવા શ્રત અથવા ચારિત્ર રૂપ ધર્મ જ મે ક્ષનું કારણ છે આ પ્રમાણે તીર્થકર વિગેરે એ ઉપદેશ આપેલ છે. આ મેક્ષ માર્ગને શ્રદ્ધા પૂર્વક સ્વીકાર કરીને મોક્ષની ઈરછાવાળા પુરૂષો જ્ઞાન, ધ્યાન વિગેરે ક્રિયાઓમાં પ્રવૃત્તિ કરે છે. આથી ઉલટા બાલ વીર્ય–અજ્ઞાની વારંવાર દુઃખના કારણ રૂપ થાય છે. બાલવીચુંવાળા પુરૂષે નરક-નિગોદ વિગેરેમાં પરિભ્રમણ કરતા રહે છે. ત્યાં જેમ જેમ દુઃખે ભગવે છે, તેમ તેમ તેનું અશુભ પણ અર્થાત્ પરિણામેનું મલીન પણું વધતું જાય છે. આ રીતના સંસારના સ્વરૂપને વિચાર કરવાવાળા મુનિ ધમ–દયાનના અનુષ્ઠાનમાં જ પ્રવૃત્તિ કરે છે. . કહેવાનો આશય એ છે કે-સમ્યગ જ્ઞાન, દર્શન, ચારિત્ર અને તપ એ મેક્ષના માર્ગો છે. આ પ્રમાણે તીર્થકરેએ ઉપદેશ આપેલ છે, તેથી જ For Private And Personal Use Only Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६७२ सूत्रकृताङ्गसूत्रे मोक्षार्थं प्रवर्तते इति, बालवीर्य तु जीवस्य दु: वदायि, दुःखमुपभुञ्जानस्य बालवीर्यमस्थानं नरकादिकमेव वर्द्धते इति भावः ||२१|| मूलम्-ठाणी विविठाणाणि इस्संति में संसओ । अणियत्ते अयं वासे णायएंहिं सुहीहि यँ ॥ १२ ॥ छाया - स्थानिनो विविधस्थानानि त्वक्ष्यन्ति न संशयः । अनियतोऽयं वासो ज्ञातकैः सुहृदमिव ॥ १२ ॥ अन्वयार्थः - ( ठाणी) स्थानिनः स्थानवन्तः इन्द्रचक्रवच्योदयः (विविह ठाणाणि चहस्संति ण संसओ) विविधस्थानानि - नानाप्रकारकोतममध्यमस्थानानि ही अंगीकार करके विचरते हैं, मोक्ष के लिए ही प्रवृत्ति करते हैं इससे विपरीत जो बालवीर्य है, वह दुःख देने वाला है। दुःख को भोगने वाला बालवीर्यवान् पुरुष नरक आदि गतियों को ही बढता है । ११ । 'ठाणी' इत्यादि । शब्दार्थ - 'ठाणी - स्थानी' उच्चपद पर रहे हुवे सभी विविह ठाणाणि estसंति ण संसओ विविधस्थानानि त्यक्ष्यन्ति न संशयः' अपने अपने स्थानों को छोडदेंगे इसमें संदेह नहीं है 'णाइएहिं य सुहोहि' जातिभिः सुहृद्भिश्च तथा ज्ञाति और मित्रों के साथ 'अयं वासेअयं वासः' जो संवास है वह भी 'अणिघते-अनियतः ' अनियत है ॥ १२ ॥ अन्वयार्थ – उत्तम स्थान के धनी इन्द्र चक्रवर्ती आदि नाना प्रकार के उत्तम मध्यम अधम स्थानों को त्याग देगे, इसमें संशय नहीं है। મેાક્ષની કામનાવાળા મેક્ષ માના જ સ્વીકાર કરીને વિચરે છે. તેએ મેાક્ષ માટે જ પ્રવૃત્તિ કરે છે, અ નાથી વિપરીત જેએ માલવીય છે, તે દુઃખ આપવાવાળા હોય છે, દુઃખ ભાગનાર ખાલવીય વાળા પુરૂષ નારક વિગેરે ગતિયાનેજ વધારે છે. ૫૧૧૫ 'ठाणी' त्यिाहि शब्दार्थ - 'ठाणी - स्थानी ! २ प ५२ रडेला धान 'विविधठाणाणि संविण संसओ - विविधस्थानानि त्यक्षन्ति न संशय:' येत पोताना स्थानाने छोडी देशे तेमां संशय नथी. 'णाइएहिं य सुहीहि - ज्ञातिभिः सुहद्विश्व' तथा ज्ञातियो भने मित्रोनी साथै 'अयं वासे - अयं वासः' ने सौंवास छे ते पशु 'अणिय-मनियतः' अनियत छे. ॥१२॥ અન્વયા—ઉત્તમ સ્થાનવાળા ઈન્દ્ર, ચક્રવતી વિગેરે અનેક પ્રકારના ઉત્તમ, મધ્યમ, અને અધમ સ્થાનાને ત્યાગ કરશે તેમાં સશય નથી, જ્ઞાતિ For Private And Personal Use Only Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिना टीका प्र. श्रु. अ. ८ उ.१ वीर्यस्वरूपनिरूपणम् त्यक्ष्यत्ति नात्र संशयः, तथा-'णायएहिं सुहीहि य' ज्ञातकैः बन्धुभिः सुहृदमि मित्रैश्च सह 'अयं वासे' अयं वास:-सहवासः सोऽपि 'अणियत्ते' अनियतोऽनित्य एवेति ॥१२॥ टीका---'ठाणी' शानिनः-स्थानं विद्यते येषां ते स्थानिनः-स्थानाधि पतयः । २था देवलो के-इन्द्र प्रभृत्यः, मसुरलोके चारयादयः । तथा-तत्र तत्र स्थानेऽन्येऽपि स्थानिनः । विविठाणागि विविधस्थानानि-अनेकविधानि डकीयोग्योपयुक्तानि 'चहरसंति' त्वयन्ति--ये ये दि स्थाजितपुग्यबलात् यत् यादृशं स्थानमा लभन्त भोगेन क्षात् पुमायाप्ती, निमित्ताऽभावेन नैमितिक तादृशस्थानमवश्यमेव तेग परित्यतं भवे । गहि ताशविशिष्यानेषु पुण्याहावे कथमपि कस्यापि अवस्थितिः संभाव्यते । ए| संसओं' न संशषः, एतस्मिन् ज्ञातजनों और मित्र जनों के साथ जो सहवास है, वह भी अनित्य ही है ॥१२॥ __टोकार्थ-स्थानी का अर्थ है-स्थान के अधिपलि। जैसे देवलोक में इन्द्र आदि तथा मनुष्यलोक में चक्रवर्ती आदि उत्तम स्थान के स्वामी हैं। इसी प्रकार विभिन्न स्थानों में दूसरे दूसरे जीव स्थानी हैं। वे सब अपने २ स्थानों का परित्याग कर देगें। उन स्थानों पर सदैव उनका अधिपतित्व नहीं रहने वाला है। पुण्य के बल से जिस प्राणी ने जिस स्थान को प्राप्त किया है, भोगने के पश्चात पुण्य का क्षय होने पर वह स्थान त्यागना पड़ता है। क्योंकि जब निमित्त नहीं रहता तो नैमित्तिक भी नहीं रहता है। जिस पुण्य के कारण जो स्थान प्राप्त हुआ है, उस पुण्य के अभाव में वह स्थान टिका नहीं रह सकता । इस विषय में लेशमात्र भी संशय જને, અને મિત્રજનોની સાથે જે સહવાસ હોય છે, તે પણ અનિત્ય જ હાય છે. ૧૨ા ટીકા–સ્થાનીને અર્થ સ્થાનના અધિપતિ એ પ્રમાણે થાય છે. જેમ દેવલોકમાં વિગેરે તથા મનુષ્ય લેકમાં ચકવર્તી વિગેરે ઉત્તમ સ્થાનના સ્વામી છે, એ જ પ્રમાણે જુદા જુદા સ્થાને માં બીજા બીજા છે સ્થાની છે, તેઓ બધા પિત પિતાના સ્થાનેને ત્યાગ કરશે. તે સ્થાન પર હંમેશાં તેઓનું અધિપતિપણું રહેવાનું નથી. પુણ્યના બળથી જે પ્રાણીએ જે સ્થાન પ્રાપ્ત કરેલ છે, તે સ્થાન ભેગવ્યા પછી પુણ્યને ક્ષય થયા પછી તે સ્થાનને ત્યાગ કરે પડે છે, કેમકે જ્યારે નિમિત્ત રહેતું ન હોય તે નૈમિત્તિક નિમિત્તવાળ પણ રહેતો નથી. જે પુણયના કારણે જે સ્થાન પ્રાપ્ત થયું છે, તે પુણ્યના અભાવમાં તે સ્થાન ટકી શકતું નથી. આ સંબંધમાં सू० ८५ For Private And Personal Use Only Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे विषये मनागपि सन्देहो नास्ति । अवश्थं तादृशस्थानस्य प्रबंसः। तथा-'गायएहिं' ज्ञातकै 'मुहीहिप' सुहृद् मिश्च 'अयं वासे' अयं वासोऽवस्थितिः सोऽपि-'अणियत्ते' अनियतः:-अनित्यः, बान्धव दिभिरेका परिदृश्यमानो योऽयं वासः, सोऽप्यनित्य एव । तथा चोक्तम् 'अशाश्वतानि स्थानानि सर्वाणि विधि चेह च । देवाऽसुरमनुष्याणा मद्धपश्च नुवानि च ॥१॥ अपि च- मुचिरतरमुपिया बान्धी वियोग', मुचिरमपि हि रत्वा नास्ति भोगेषु तृप्तिः । सुचिरमपि सुपुष्टं याति नाशं शरीरं, सुचिरमपि विचिन्त्यो धर्म एकः सहायः ॥१॥ देवासुरमनुष्याणां सर्वाणि स्थानानि ऋद्धयादिकानि च अनियतानि भवन्ति, चिरकालं बान्धवैः सह वसनपि ततो वियोगो भवति चिरकालं रत्वाऽपि के लिए अवकाश नहीं है। जातिजनों और सुहृद् जनों का जो सहवास है, वह भी अनित्य है, सदेव रहने घाला नहीं है। कहा भी है'अशाश्वतानि स्थानानि' इत्यादि। 'समस्त स्थान अशाश्वत हैं, चाहे वे देवलोक में हों, चाहे इस मनुष्यलोक में हों । देदो, असुरों और मनुष्यों की समस्त ऋद्धियां और समस्त सुख भी अशाश्वत हैं।' और भी कहा है-'सुचिरतरमुषित्वा' इत्यादि। __'बन्धु पान्धवों के साथ चिरकार पर्यन्त निवास करने पर भी आखिर वियोग होता ही है। चिरकाल (रहुतकाल) तक भोग भोगने લેશમાત્ર પણ સંશયને અવકાશ રહેતું નથી. તિજ અને મિત્રજનોનો જે સહવાસ છે, તે પણ અનિત્ય જ છે. તે હમેશાં રહેવાવાળે હોતે નથી. घु ५६ छ-'अशाश्वतानि स्थानानि इत्यादि “સઘળા સ્થાને આશાધન છે. ચાહે તે દેવલોકમાં હોય અથવા ચાહે તે મનુષ્ય લેકમાં હેય દેવે, અસુરો, અને મનુષ્યની સઘળી અદ્ધિ અને સઘળું સુખ પણ અશાશ્વત છે. ___ भाई ५५ घुछ है-'सुचिर तर मुषित्वा०' ७० मधुपानी सा2 aint કાળ સુધી નિવાસ કરવા છતાં પણ આખરે વિયેગજ થાય છે, ચિરકાળ (લાંબા કાળ) સુધી ભેગ ભેગવવા છતાં પણ ભેગેથી તૃપ્તિ થતી For Private And Personal Use Only Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टोका प्र. श्रु. अ. ८ उ.१ वीर्यस्वरूपनिरूपणम् ६७५ तिन भाति, चिरकालं पोपितमपि शरीरं नष्ट भाति अतो धर्म एक एव सहायको नान्य इति भावः । सर्वत्र या विभूपि मोऽपि प्रातः यो दृष्टः स एव सायंतने ज्वलितचितामारुह्य शेतेऽतः अनियतोऽयं संसारात इति । चकारेण अन्येऽपि द्विपदचतुष्पदधनधान्यादयो विषया अनित्या एव । एतावता सर्वत्र वैराग्यबुद्धि भावयेदिति शास्त्रकारः प्रतिपादयति-वैराग्येनाऽनित्यमोगादिभ्यो मति परावर्त्य मोक्षे निवेशयेत् । विशिष्ट स्थानमवाप्पापि स्थानिनोऽद्यापि पल्योपमसागरोप. पर भी भोगों से तृप्ति नहीं होती है। चिरकाल (बहुतकाल) तक भली भाँति पुष्ट किया हुआ शरीर भी नाश को प्राप्त हो जाता है और चिरकाल पर्यन्त चिन्तन करने योग्य धर्म ही एक मात्र परलोक में सहायक होता है।' ___ जो मनुष्य प्रातः काल सम्पूर्ण वैभव से विभूषित देखा गया, वही सन्ध्या के समय जाज्वल्यमान चिता पर शयन करता (सोता हुआ) देखा जाता है । इस प्रकार यह संसार वाप्त अनियत है । गाथा में आया हुआ 'च' पद से द्विपद, चतुष्पद, धन, धान्य आदि विषय और इनका संयोग भी अनित्य समझना चाहिए । शास्त्रकार का आशय यह है कि संसार के समस्त पदार्थों में वैराग्यभाव स्थापित करना चाहिए। वैराग्य के द्वारा अनित्य भोगों की ओर से अपनी बुद्धि को हटाकर मोक्ष में ही लगाना चाहिए। आशय यह है कि-संसारी जीव संसार के सर्वोत्कृष्ट स्थान को प्राप्त करके भी आज, कल या पल्योगन-सागरोपम के पश्चात् आयु का નથી. લાંબાકાળ સુધી સારી રીતે પુષ્ટ કરેલ શરીર પણ નાશ ને પ્રાપ્ત કરે છે. અને ઘણુ સમય સુધી વિચારવામાં આવેલ ધર્મજ એક માત્ર પરલેકમાં સહાય કરનાર બને છે. જે મનુષ્યને સવારે સંપૂર્ણ વૈભવથી ભાયમાન જે હોય તેજ મનુષ્ય સંધ્યાકાળે બળ બળતી ચિતા પર સૂતેલું જોવામાં આવે છે, આ રીતે આ સંસારવાસ અનિત્ય છે ગ થામાં આવેલ “ર' પદથી બે પગવાળા, ચાર પગવાળા, ધન, ધાન્ય વિગેરે વિષયો તથા તેને સંગ પણ અનિત્ય જ માનવે જોઈએ, શાસ્ત્રકારને હેતુ એ છે કે-સંસારના સઘળા પદાર્થોમાં વિરાગ્યભાવ ઉત્પન્ન કરે જોઈએ. વૈરાગ્ય દ્વારા અનિત્ય ભોગેની તરફથી પિતાની બુદ્ધિ હટાવીને મે ક્ષમાર્ગ તરફ જ પ્રેરવી જોઈએ. સંસારી જીએ સંસારના સર્વોચ્ચ સ્થાનને પ્રાપ્ત કરીને પણ આજ અથવા કાલ કે પછી પોપમ સામરેપમ પછી આયુનો ક્ષય થાય ત્યારે For Private And Personal Use Only Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे मास्ते स्व स्वस्थानं स्वायुषः क्षयेऽवश्यं त्यक्ष्यन्ति । तथा-योऽव्ययं मोहाधायको बन्धुवान्धव सह संगासो मन्येऽनित्य एव सोऽपीति विभावनीयो बुद्धिमताऽनित्ये मति न विधेया कदापि, अपि तु मोक्षार्थमेव प्रयत्नो विधेय इति भावः ॥१२।। मूलम्-एवमादाय मेहावी अप्पणो गिर्द्धि मुद्धरे। आरियं उवसंपजे संवधम्म मकोवियं ॥१३॥ छाया--एवमादाय मेधावी आत्मनो गृद्धि मुद्धरेत् । __ आर्यमुपसंपधेत सर्वधर्मेरकोपितम् ।।१३॥ क्षय होने पर अवश्य हो उस स्थान का परित्याग करते हैं । इसके अतिरिक्त बन्धु बान्धवों के साथ जो संवास है, वह भी सदा बना रहने वाला नहीं-उसे भी किसी समय त्यागना ही पड़ता है । । ऐसा विचार कर वुिमान् पुरुष अनित्य पदार्थों में अपनी बुद्धि न लगावे, परन्तु मोक्ष के लिए ही प्रयत्न करे ॥१२॥ 'एवमादाय मेहावी' इत्यादि । शब्दार्थ-'मेहावी-मेधावी' बुद्धिमान् पुरुष एवमादाय-एपमादाय' सब स्थान अनित्य है ऐसा विचार करके 'अप्पमो मिद्धि मुद्धरे-आत्मनः गृद्धिम् उद्धरेत् अपनो मानव बुद्धि को इटाई 'सवयम्भमकोवियं-सर्व धर्मेरकोपितम्' सय कुनीकि धर्मों से दूषित नहीं किये हुए 'आरियं उपसंपज्जे-आर्यम् उपसंपद्येत' इस आर्य धर्म को ग्रहण करे ॥१३॥ તે સ્થાનને ત્યાગ કરે જ પડે છે. તે સિવાય બંધુજન કે જ્ઞાતિજન સાથે સંવાસ છે, તે પણ સદાકાળ બળે રહેતું નથી. તેને પણ કોઈ સમયે ત્યાગ કરવું જ પડે છે. આ પ્રમાણેનો વિચાર કરીને બુદ્ધિશાળી પુરૂષે અનિત્ય પદાર્થોમાં પિતાની બુદ્ધિ જોડવી ન જોઈએ. પરંતુ મેક્ષ માટે જ પ્રયત્ન કરતા રહે ૧રા 'एवमादाय मेहावी' त्यादि शा---'मेहावी-मेधावी' युद्धिमान ५३५ 'एवमादाय- (वमादाय' ५५॥ स्थान मनिय छ तेम विया२ रीने 'अपणो मिद्धिमुद्धरे-आत्मनः गृद्धिम् उद्धरेत्' पोतानी भयमुद्धिने टीवी है 'सव्वधम्ममकोवियं-सव धमैरको. पितम्' मध.४ मुनाथि यथा इपित नही ४२वा 'आरियं उनसंपज्जेआर्यम् उपसंपद्येत' मा माय माना थी२ ४२ ॥१३॥ For Private And Personal Use Only Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र.श्रु. अ. ८ उ.१ वीर्यस्वरूपनिरूपणम् ६७७ ___अन्वयार्थः--(मेहावी) मेधावी-मर्यादाव्यवस्थितः (एवमादाय) एवम्-अनिस्यानि सर्वाणि स्थानानि इत्येवं ज्ञात्वा (अप्पणो गिद्धिमुद्धरे) आत्मन:-स्वस्य गृद्धि-गाथै ममत्वम् उद्धरेत्-निःसारयेत् (सुधधम्म मकोवियं) सर्वधर्मेरकोपितंदोषरहितम्, यद्वा सर्वधर्मेषु (आस्यि उवसंज्जे) आर्य-तीर्थकरमार्गम् उपसंपद्येत -स्वीकुर्यात्, इति ॥१३॥ टीका--'मेहावी' मेधावी-मर्यादान्तर्वत्तिमुनिः सदसद्विवेकवान् वा, ‘एवं' एवम्-पूर्वोक्तक्रमेण सर्वाणि, अपि स्थानान्यनित्यानीत्येवम् 'आदाय' सम्यगवबुध्य 'अपणो' आत्मनः सम्बन्धिनीम्-कटुकविषयिणीम् 'गिद्धि' गृद्धि-गृद्धि भावम् 'उद्धरे' उद्धरेद-पुत्रकलत्रादिकमस्माकम् , अहं तेषामित्यादि ममत्वबुद्धि परित्यजेत् कथमपि कुत्रापि ममेति बुद्धिं न कुर्यात् । 'आरिय' आर्यम् आरात्दुरं यातः सर्वहेयधर्मेभ्य इति आर्यः, हेयधर्मे दुःखदातृत्वं विद्यते, अन्वयार्थ--ज्ञानी पुरुष ऐसा जान कर अर्थात् समस्त स्थानों और संयोगों को अनित्य समझकर अपनी ममता हटाले और सब धर्मों में निर्दोष आर्य मार्ग (तीर्थंकर प्रतिपादितमार्ग) को स्वीकार करे ॥१३॥ टीकार्थ-मेधावी आर्थात् मर्यादा में रहा हुआ अथवा सत्-असत् के विवेक से विभूषित मुनि पूर्वोक्त प्रकार से समस्त स्थानों को अनित्य जान कर अपनी गृद्धि उनसे हटाले-ये पुत्र कलत्र आदि मेरे हैं और मैं उनका हूँ, इस प्रकार की ममता का त्याग कर दे। किसी भी पदार्थ में किसी भी प्रकार की ममत्व बुद्धि धारण न करे और आर्यमार्ग को स्वीकर करे। जो समस्त हेय धर्मों से दूर हट गया है, અન્વયાર્થ–જ્ઞાની પુરૂષે એવું માનીને અર્થાત્ સઘળા સ્થાને અને ગોને અનિત્ય માનીને પિતાનું મમત્વ હટાવી અને સઘળા ધર્મોમાં નિદેવ આર્યમાર્ગ (તીર્થંકર પ્રતિપાદિત કરેલ માર્ગ)ને સ્વીકાર કરે ૧૩ ટીકાઈ–મેધાવી અર્થાત્ મર્યાદામાં રહેલા અથવા સત્ અસત્ રૂપ વિવેકથી શોભાયમાન મુનિ પૂર્વોક્ત પ્રકારથી સઘળા સ્થાને ને અનિત્ય માનીને પિતાની વૃદ્ધિ (આસક્તિ) તેમાંથી હટાવીલે આ પુત્ર કલત્ર-સ્ત્રી વિગેરે સૌ મારાં છે, અને હું તેઓને છું, આવા પ્રકારનું મમત્વ–મારા પણને ત્યાગ કરે કોઈ પણ પદાર્થમાં કોઈ પણ પ્રકારના મારા પણાની બુદ્ધિ ન રાખે અને આર્ય માર્ગને સ્વીકાર કરે. જેઓ સઘળા હેય (ત્યાગ કરવા લાયક) ધર્મોથી દૂર હરિ ગયા હેય For Private And Personal Use Only Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६७८ सूत्रकृताङ्गसूत्रे तदस्मिन्न विद्यतेऽतोऽयं सर्वधर्मेभ्यो रे भवति । अथवा-आरात्-अतिसमीप यात इति आर्यः अयं हि ज्ञानदर्शनस्वरूपत्वात्, स्वात्मन्येव व्यस्थितो धर्मइति भवति सर्वेभ्यः समीपवर्ती नहि-आत्मनोधिकः कश्चित् समीपवर्ती । अतोऽयमार्यों ज्ञानदर्शनचारित्रस्वरूपो मोक्षमार्गः । यद्वा-आर्याणां तीर्थकराणामयमार्योंमार्गः, तादृशमार्यमार्गम् 'उवसंपज्जे' उपसम्पधेत-आश्रयेत् । कथंभूतं मार्ग तत्राह-'साधम्ममकोवियं साधर्मेरकोरपितम्, सर्वैः कुक्तिधर्भरकोपितम्अपितम् । स्वप्रभावेणैव दयितुमशक्यत्वात्, प्रतिष्ठा प्राप्तम् । अथवा-सर्वधर्मः स्वभावैरनुष्ठानस्वरूपरकोपितम्, कुत्सितकर्त्तव्याऽभावात् । यद्वा-सर्वैः धर्म बौद्धादिभिरकोपितम् । नहि-अस्मै कोऽपि कुप्यति यस्मादिदम् अर्हत्मवचनं सर्ववह आर्य कहलाता है। हेयधर्म (हिंसादि लक्षण त्यागनेयोग्य धर्म) दुःख देने वाले हैं, अत: वह उसमें नहीं पाये जाते। अथवा 'आरात्' का अर्थ है अत्यन्त समीप, उसे जो प्राप्त हो वह आर्य । ज्ञान दर्शन चारित्र ता रूप धर्म आर्य धर्म कहलाता है, क्यों कि वह अपनी आत्मा में ही रहता है। आत्मा से अर्थात् स्व-स्वरूप से अधिक समीपवर्ती अन्य कोई नहीं होता। इस व्याख्या के अनुसार ज्ञान दर्शन चारित्र और तप रूप मोक्षमार्ग आर्यमार्ग है । अथवा आर्यों अर्थात् तीर्थकरों का मार्ग आर्य मार्ग कहलाता है। यह आर्यमार्ग समस्त कुर्षित धर्मों से अदृक्ति है। अपने प्रभाव के कारण ही किसी के द्वारा दूषित नहीं किया जा सकता । अथवा समस्त बौद्ध आदि धर्मों के द्वारा अकोपित है। इस पर कोई मुपित नहीं हो सकता, છે, તેઓ આર્ય કહેવાય છે. હેય ધમાં હિંસાદિ લક્ષણાવાળો ત્યાગ કરવા ચિગ્ય ધર્મ) દુઃખ દેનાર હોય છે. તેથી તે તેઓમાં હોતો નથી. ____424t 'आरात्'ने। म त्यत नvी मे प्रमाणे य छे तेरे પ્રાપ્ત કરે તે આર્ય, જ્ઞાન, દર્શન, ચરિત્ર, તપ રૂપ ધમ આર્ય ધર્મ કહેવાય છે. કેમકે તે પિતાના આત્મામાં જ રહે છે આત્માથી અથત રૂપથી વધારે નજીકમાં રહેનાર બીજું કઈ પણ હેતું નથી. આ વ્યાખ્યા પ્રમાણે જ્ઞાન, દર્શન, ચારિત્ર અને તરૂપ મેક્ષમાગ આર્ય માર્ગ કહેવાય છે. અથવા આ અર્થાત તીર્થકરોને માર્ગ આર્યમાર્ગ કહેવાય છે. આ આર્યમાર્ગ સઘળા કુતિ-ખેરાતકવાળા ધર્મોથી નિર્દોષ છે. પોતાના પ્રભાવના કારણ થીજ તે કેઈનથી પણ દૂષિત-દેવળો કરી શકાતો નથી. અથવા બૌદ્ધ વિગેરે સઘળા ધર્મો દ્વારા અકોપિત છે, અર્થાત્ તેના પર કોઈ કોપયુક્ત થઈ For Private And Personal Use Only Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ८ उ.१ वीर्यस्वरूपनिरूपणम् धर्माणां समाहाररूपम् नैगमनयेन नैयायिकमतस्य, ऋजुत्रेण बौद्धस्य, संग्रहेण वेदान्तिनां मतस्य संगृहीतत्वात् । अतः सोऽपि स्वस्वप्रतिपाद्यमेाऽत्र पश्यति, अतः कथं कोऽपि कुप्येत्, अनेकान्तवादे एकान्तवादस्य समाविष्टत्वात्, सर्वमपिउच्चपदम् अनित्यमेवेति समधार्य विवेकशीलो ममत्वबुद्धिं सर्वतो विसृज्य सर्वधर्माऽदुपितज्ञानदर्शनचारित्रात्मकधर्ममेव स्वीकुर्यात् । यतोऽयं धर्मः झटिति पापको भवति, अजयलस्य मोक्षस्य भावाऽबोधः ॥१३॥ मूलम्-सह संमईए णचा धम्मसारं सुणेत्तुं वा। समुवट्रिए उ अणगारे पञ्चक्खाय पावएं ॥१४॥ क्योंकि अहम भगशन का प्रवचन विविध नय दृष्टियों का समन्वय करके उन्हें यथायोग्य स्वीकार करता है । वह समस्त एकान्तवादों को अपने में समाविष्ट कर लेता है। जैसे नैगमनय से नैयायिक वैशेषिक मत का, ऋजुत्र नय से बौद्धों के क्षणिकवाद का और संग्रह नय से वेदान्तियों के अद्वैतवाद का संग्रह करता है। अतएव जिनप्रवचन में सभी अपने अपने मन्तव्य को उसी प्रकार पाते हैं । फिर कोई क्यों इस पर कुपित होगा ? तात्पर्य यह है कि जगत् के समस्त पद अनित्य हैं, ऐसा समझ कर विवेकवान् पुरुष उन सब से अपनी ममत्व बुद्धि हटाले और सब धर्मों में निर्दोष ज्ञान दर्शन चारित्र और तपरूप धर्म को स्वीकार करे । यह धर्म दुर्लभ मोक्ष को भी शीघ्र प्राप्त करा देता है ॥१३॥ શકતા નથી. કારણ કે-અનત ભગવાનનું પ્રવચન જુદા જુદા પ્રકારના નન્ય દષ્ટિના સમન્વય કરીને તેને યથાયોગ્ય રીતે સ્વીકાર કરે છે. જેમકે-નેગમનયથી તૈયાયિક, વૈશેષિક મતને, અજુ સૂત્રનયથી બૌદ્ધોના ક્ષણિકવાદને અને સંગ્રહાયથી વેદાન્તિના અદ્વૈતવાદને સંગ્રહ કરે છે. તેથી જ જે પ્રવચનમાં દરેક પિત પિતાના મન્તને તેજ રીતે જોઈ શકે છે. પછી કઈ પણ આના પર કેમ કુપિત થાય? કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે-જગતના સઘળા પદાર્થો અનિત્ય છે, એવું સમજીને વિવેકશીલ પુરૂષ તે બધા પરથી પિતાની બુદ્ધિ હટાવીલેય અને દરેક ધર્મોમાં નિર્દોષ જ્ઞાન, દર્શન, ચારિત્ર અને પરૂપ ધર્મને સ્વીકાર કરે, આ ધર્મ દુર્લભ અર્થાત્ અપ્રાપ્ય એવા મોક્ષને પણ જલદીથી પ્રાપ્ત કરાવી દે છે. ૧૩ For Private And Personal Use Only Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ६८० www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुत्रकृताङ्गसूत्रे छाया- - सह समस्या ज्ञात्वा धर्मसारं श्रुत्वा वा । समुपस्थितस्त्वनगारः मत्याख्यातापकः ॥ १४ ॥ अन्ध्यार्थ:-- 'सहसमईए' सह सन्मत्या स्वाभाविकस्वबुद्धया 'धम्मसारं ' धर्मसारं धर्मस्य श्रुतचारित्रारूपस्य सारं तत्रम् (बच्चा) ज्ञात्वा - अनुध्य इला पुत्रवत् एवम् - (मृणेत्तु वा) जावा-चिलाती पुत्रवत् श्रुत्वा (समुट्ठिए अणगारे) समुत्थितः - उत्तरोत्तरगुणसंपत्तये समुपस्थितोऽनगारः मर्द्धमानपरिणामः (पच्चकखायपावर) प्रत्याख्यातपापकः- निराकृतसावधानुष्ठानो भवतीति ॥ १४ ॥ टीका-दोपाsकलङ्कित धर्मस्य ज्ञानं यथा भवति तदेवाह सूत्रकार:- 'सह संमईए) इत्यादि । (सह संमई २) सह समस्या - सह - आत्मना सह वर्तते या - 'सह संमईए' इत्यादि । शब्दार्थ - सह संमईए सह सन्मत्या' अच्छी बुद्धि के द्वारा 'सुणेत्तु वा श्रुत्वा वा' अथवा सुनकर 'धम्मसारं धर्मसारम्' धर्म के सच्चे स्वरूपको 'णच्चा - ज्ञात्वा' जानकर 'समुवट्टिएउ अणगारे - समुपस्थितस्त्वनगारः' आत्माकी उन्नती करने में तत्पर साधु 'पञ्चक्वायपाचए- प्रत्याख्यातपापकः पापका प्रत्याख्यान करके निर्मल आत्मावाला होता है || १४ || अन्वयार्थ - अपनी स्वाभाविक निर्मल बुद्धि से इलापुत्र के समान धर्मको जानकर तथा धर्मसार - श्रुतचारित्र रूप सारको चिलानी पुत्र के सामान श्रवण करके ज्ञान और क्रिया की उत्तरोत्तर प्राप्ति के लिए उद्यत अनगार सावद्य अनुष्ठान का त्याग करे || १४ || For Private And Personal Use Only 'हम' शब्दार्थ –'सह संमईए - सह सन्मत्या' सारी बुद्धि द्वारा 'सुणेत्तु वाश्रुत्वा वा' अथवा सलगीने 'धम्मसारं - धर्म सारम्' धर्मना साया स्व३पने 'णच्चा - ज्ञात्वा' लगीने 'समुत्रट्ठिएउ अणगारे - समुपस्थितस्त्वनगारः सात्मानी उन्नती उरवामां तत्यर मेव। साधु 'पच्चखाय पावए - प्रत्याख्यातपापकः' पायनु પ્રત્યાખ્યાન કરીને નિમ ળ આત્માવાળા થાય છે. ૧૪મા અન્વયા —પે.તાની સ્ત્રાભાવિક નિમલ બુદ્ધિથી ઇજ્ઞાપુત્રની જેમ ધર્માંત્વને જાણીને અથવા ધર્માંસાર-શ્રુતચારિત્રરૂપસારને ચિલાતીપુત્ર પ્રમાણે શ્રવણ કરીને જ્ઞાન અને ક્રિયાની ઉત્તરોત્તર પ્રાપ્તિ માટે પ્રયત્નવાળા અનગારે સાવઘ અનુષ્ઠાનને ત્યાગ કરવેા, ૫૧૪ા ટીકા--નિર્દેષ ધર્મોનું જ્ઞાન જે ઉપાયાથી થાય છે, તેનું કથન વે Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org MA समयार्थबोधिनी टीका प्र. शु. अ. ८ उ. १ वीर्यस्वरूपनिरूपणम् ઘા [सं-सम्यग् मतिः सा परोपदेशमन्तरेग समुत्पन्ना मतिरित्यर्थः तथा यद्वा श्रुतावधिज्ञानेन, ज्ञानं हि स्वपराबोधकं भवति, तेन ज्ञानेन सह 'धम्मसारं ' धर्मसारम्सर्वप्राणत्राणलक्षणम् | 'णच्चा' ज्ञात्वा तीर्थकरादिभ्यो धर्मसारं ज्ञात्वा इळापुत्रबत् 'सुणेस्तु वा' अथवा पिलातीपुत्रवत् श्रुत्वा धर्मसारं धर्मसारमतिपच्यनन्तरं पूर्वभवोपार्जित कर्मणः क्षयाय पण्डितवीर्यसंपन्नः सर्वकारककषायात्मकबन्धनविरहितो बालवीर्यविमुक्त उत्तरोत्तरगुणप्राप्त्यर्थम् । 'समुट्ठिए उ' समुपस्थितः तु मोक्षमार्गे स्थितः 'अणगारे ' अनगारः - गृहादिभ्यो रहितः प्रवर्द्धमानपरिणामः | 'पञ्चकत्वायगाव' प्रत्याख्यातपावकः- प्रत्याख्यातं पापकं प्राणातिपातादिलक्षणं कर्म येन स प्रत्याख्यातापारको भवतीति । सकीय निर्मलबुद्धघा - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टीकार्थ- निर्दोष धर्म का ज्ञान जिन उपायों से होता है, वह सूत्रकार कहते हैं - जो मति परोपदेश के बिना स्वभावतः उत्पन्न होती है, उसे यहाँ 'सहसम्मति' कहा गया है, । अथवा विशिष्ट मतिज्ञान मज्ञान और अवत्रिज्ञान 'सहसन्मति' कहलाते हैं। इनसे धर्म का सार समस्त प्राणियों की रक्षा रूप तत्र जाना जाता है । जैसे इला पुत्र ने दूसरों से धर्म को जाना था, क्यों कि ज्ञान स्व और पर दोनों का बोधक होता है । अथवा चिलातीपुत्र के समान कोई-कोई श्रवण करके भी धर्म को जानते हैं। इनमें से किसी भी उपाय से धर्म के सार को जान कर पूर्वभवों में उपार्जित कर्मों का क्षय करने के लिए पण्डि तब से युक्त, सब प्रकार के कषाय बन्धन से रहित और बालवीर्य से विमुक्त होकर उत्तरोत्तर गुणों की प्राप्ति के लिए बढ़ते चढ़ते સૂત્રકાર કરે છે.-જે મતિ પુરેપદેશ વિના સ્વભાવથીજ ઉત્પન્ન થાય છે, તેને मडियां 'सह सन्मति' 'हे छे. अथवा विशेष प्रकार भतिज्ञान, श्रुतज्ञान मने अवधि ज्ञान' 'सहसन्मति' हेवाय छे तेनाथी धर्म सार सघना પ્રાણિયાની રક્ષા રૂપ તત્વ જાણી શકાય છે. જેવી રીતે ઇલાપુત્ર ખીજાઓની પાસેથી ધમ જાણ્યા હતા કેમકે જ્ઞાન સ્વ અને ૫૨ બન્નેના મેધ કરાવવા વાળું હાય છે, અથવા ચિત્રા પુત્ર પ્રમાણે કાઇ કાઈ શ્રવણુ કરીને પણ ધમ તત્વને જાણી લે છે, આમાંથી કાઈ પણ ઉપાયથી ધમ ના સારને જાણીને પૂ ભવામાં ઉપાર્જન કરેલા કર્માંના ક્ષય કરવા માટે પણ્ડિતીયથી યુક્ત, બધા જ પ્રકારના કષાય અન્યનથી રહિત અને ખાલવીય થી છૂટી જઈને ઉત્તરોત્તર ગુણાની પ્રાપ્તિને માટે વધતા એવા પરિણામાથી મુનિ માક્ષમાગ ને પ્રાપ્ત કરે, તે સઘળા પ્રાણાતિપાત વિગેરે પાપાના ત્યાગ કરનારા થાય सू० ८६ For Private And Personal Use Only Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे मात्वा गुरूपदेशादिना सत्यधर्मस्वरूपं श्रुत्वा, ज्ञानादिगुणोपार्जने संलग्नः पापं. परित्यज्य विमलास्मा भवति साधुरिति ॥१४॥ मूलम्-जं किंचुंबक्कम जाणे आउखेमस्स अप्पण। तस्सेव अंतराँ खिप्पं सिक्वं लिक्खेज्ज पंडिए ॥१५॥ छाया-यं कंचिदुपक्रमं जानीयाद आयुः क्षेमस्य आत्मनः । ___ तस्यैवान्तरा क्षिप्रं शिक्षा शिक्षेत पण्डितः ॥१५॥ अन्वयार्थ:-- (अपणो आउखेमस) आत्मनः-स्वस्यायुःक्षेमस्य-स्वायुषः (जं किंचुवककम जाणे) यत् किञ्चिदुपक्रमं जानीयात्-स्वायुषः क्षयकालं ज्ञात्वा (तस्सेव अंतरा) तस्यै वान्तरा-तन्मध्ये एव (खिप्पं) क्षिप्रं-शीघ्रम् (पण्डिए) पण्डितः परिणामों से मुनि मोक्षमार्ग में उपस्थित हो। वह समस्त प्राणातिपात आदि पापों का त्यागी हो। ... आशय यह है कि साधु अपनी ही निर्मल बुद्धि से अथवा गुरु आदि के उपदेश से सत्य धर्म के स्वरूप को जानकर, ज्ञानादि गुणों के उपार्जन में तत्पर और पापों का परित्याग कर के निर्मल होता है ॥१४॥ 'जं किंचुवकमं जाणे' इत्यादि। शब्दार्थ-'अप्पणो आउखेमरस-आत्मनः आयुः क्षेमस्य' विद्वान पुरुष अपनी आयुका 'जंक्किम जाणे-भत किंचित् उपक्रमं जानीयात्' क्षयकाल यदि जाने तो 'तस्लेव अंरा-तस्यैव अन्तरा' उसके अंदर ही 'खिप्पं-क्षिप्रं' शीघ्र 'पंडिए-पण्डितः' विहान मुनि 'सिक्ख-शिक्षा' संलेखनारूप शिक्षा 'सिक्खेज्जा- शिक्षेन' ग्रहण करे ॥१५॥ अन्वयार्थ-ज्ञानवान् पुमन अपनो आयु का कोई उपक्रम आयु કહેવાનો આશય એ છે કે સાધુ પિતાની જ નિમલ બુદ્ધિ વડે અથવા ગુરૂ વિગેરેના ઉપદેશથી સત્ય ધર્મના સ્વરૂપને જાણીને જ્ઞાન વિગેરે ગુણોના ઉપાર્જનમાં તત્પર રહીને તથા પિનો ત્યાગ કરીને નિર્મળ બની જાય છે. ૧ઠા जं किंचुवक्कम जाणे' / शहाथ - 'अपणो आउकरपस्स-आत्मन: आयुःक्ष्यस्य' विद्वान् ५३१ पोताना मायुष्यने। 'ज किंचुवकम जाणे-यत् किंचित् उरक्रमं जानीयात्' क्षय ने Mat तो 'तस्सेव अंतरा-तस्यैव अन्तरा' तेनी म४२ ४ 'खिप्प-क्षिप्रे' हीया 'पंडिए-पण्डितः' ५डित मुनि सिक्खं-शिक्षा' समना ३५ शिक्षाने 'सिक्खेज्जा-शिक्षेत' अरय ४३. ॥१५॥ અવયાર્થ-જ્ઞાનવાન પુરૂષ પિતાના આયુષ્યને કેઈ ઉપકેમ એટલે કે For Private And Personal Use Only Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ...समयार्थबोधिनी टीका प्र. थु. अ. ८ उ. १ वीर्यस्वरूपनिरूपणम् - विवेकी (सिक्खं) शिक्षां संलेखना रूपाम् (सिक्खेज्जा) शिक्षेत - ग्रहणशिक्षया यथावन्मरणविधि विज्ञाय आसेवन शिक्षया आसेवेत इति ॥ १५ ॥ टीका- 'अपणो' आत्मनः - स्वस्य 'आउकखेमस्स' आयुः क्षेमस्य, 'जं किचुवकमं' ये कञ्चनोपक्रमम् उक्रम्यते संततं क्षयं प्राप्यते आयु न स उपक्रमः, तं यं कश्चन, 'जाणे' जानीयात् 'तस्स' तस्यैव तस्योपक्रमस्य मरणकालस्य वा 'अंतरा' मध्ये एव 'खिप्पे ' शिवम् - शीघ्रम् झटिति अनाकुलः सन् 'सिक्खा' शिक्षाम् - संलेखना रूपाम्, भक्तपरिज्ञेङ्गितमरणादिकां वा, 'पंडिए' पण्डित विवेकी 'सिक्खेज्न' शिक्षेत तत्र ग्रहणशिक्षा यथावन्मरणविधिं ज्ञात्वा, आसेवना शिक्षा तु असे देत । पण्डितो यदि केनापि प्रकारेण स्वायुषः क्षयकालं 1 को कम करने वाला कारण, जाने तो उसी बीच शीघ्र ही संलेखना रूप शिक्षा का सेवन करे अर्थात् समाधिमरण धारण करले ||१५|| टीकार्थ -- जिस कारण से आयु का संगीन हो जाता है अर्थात् दीर्घकाल में भोगने योग्य आयु शीघ्र भोगी जाती है, उस विष, शस्त्र, अग्नि जल आदि कारण को उपक्रम कहते हैं । साधु जब अपनी आयु का कोई उपक्रम जाने तो इसी बीच अर्थात् मृत्यु से पूर्व ही विलम्ब किये बिना ही, संलेखना ग्रहण करले आर्थात् भक्तपरिज्ञा, इंगित मरण या पादपोपगमन आदि संथारा धारण करले । ज्ञपरिज्ञा से मृत्यु की समीचीन विधि को जानकर आसेवन परिज्ञा से उसका सेवन करे । आशय यह है कि- ज्ञानी पुरुष किसी प्रकार अपनी आयु का अन्त આયુષ્યને આછું કરવાવાળુ કારણ જાણે તે તેજ વખતે જલદીથી સ'લેખના રૂપ શિક્ષાનું' સેવન કરે. અર્થાત્ સમાધિમરણુ ધારણ કરીલે. ૧પમા ટીકા જે કારણથી આયુનું સવન થઈ જાય છે,-અર્થાત્ લાંબા કાળ સુધી લેગવવાના યુષ્યને જલદીથી ભેગવી લેવાય છે, તે વિષ, શસ્ત્ર, અગ્નિ, જળ, વિગેરે કારણેાને ઉપક્રમ કહે છે. સધુ જ્યારે પેાતાના આયુજ્યના કાઈ ઉપક્રમ જાણે તા તેની વચમાં એટલે કે મૃત્યુની પહેલાંજ વગર વિલમ્બે સલેખનાના સ્વીકાર કરીલે અર્થાત્ ભક્તપરિજ્ઞા, ઈંગિતમરણ, અથવા પાપે પગમન વિગેરે સાંથારો ધારણ કરીલે. રિજ્ઞાથી મૃત્યુના વિધીને સારી રીતે જાણને આસેવન પરજ્ઞાથી તેનુ સેવન કરે. કહેવાના આશય એ છે કે જ્ઞાની પુરૂષ કઈ પણ પ્રકારે પેાતાના For Private And Personal Use Only Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्र जानीयात, तदा स्वायुषः क्षयात् पूर्वमेव संलेखनारूपां शिक्षा गृहीयात्, इति भावार्थः ॥१५॥ मूलम्-जहा कुंमे सअंगाई संए देहे समाहरे। एवं पावाई मेहावी अझंपेण समाहरे ॥१६॥ छाया-यथा कूर्मः स्वाङ्गानि स्वस्मिन् देहे समाहरेत् । एवं पापानि मेघावी अध्यात्मना समाहरेत् ॥१६॥ अन्वयार्थ:-(जहा) यथा (कुंमे) कूर्मः-कच्छपः (सअंगाई) स्वाङ्गानिहस्तपादादी नि (सए देहे समाहरे) स्वके देहे-स्वशरीरे एवं समाहरेत्-संकोचयेत् (एवं मेहावी) एवमेव मेधावी-मर्यादावान् सदसद्विवेकी वा (पावाई) पापानिसावधानुष्ठानानि (अज्झप्पेण) अध्यात्मना-सम्यग् धर्मध्यानादिभावनया (समा हरे) समाहरेत्-संकोचयेदिति । १६॥ आया जान ले तो आयु के क्षय से पहले ही संलेखना करले और पण्डितमरण अंगीकार करे । १५॥ 'जहा कुंमे स अंगाई' इत्यादि । शब्दार्थ-'जहा-यथा' जैसे 'कुंमे-कूर्मः' कछु भा 'सअंगाई-स्वाङ्गानि' अपने अंगों को 'सए देहे समाहरे--स्वके देहे समाहरेत्' अपने देह में सीकोड लेता है एवं मेहावी-एवं मेधावी' इसीप्रकार बुद्धिमान् पुरुष 'पावाई-पापानि' पापों को 'अज्झप्पेण-अध्यात्मना' धर्म ध्यान आदि की भावनासे 'समाहरे-समाहरेत्' संकुचित् करदे ॥१६॥ ___ अन्वशर्थ-जैसे कछुभा अपने अंगों को अपने देह में सकोड આયુષ્યનો અંત આવેલે જાણે તે આયુના ક્ષયની પહેલાંજ સંલેખના કરીલે અને પંડિત મરણ સ્વીકારી લે ૧પ 'जहा कुंमे ख अंगाई' शहा .. 'जहा-यथा' म 'कुंमे-कूर्मः' ४ायमा 'सअंगाई- स्वाङ्गानि' पोताना गाने 'सए देहे समाहरे-स्वके देहे समाहरेत्' पोताना शरीरमा सभापी से छ, 'एव मेहावी-एवं मेधावी' मे०८ प्रमाणे मुद्धिमान ५३५ 'पावाईपापानि' पापाने 'अज्झप्पेण-अध्यात्मना' धर्म ध्यान पोरे मापनाथी 'समाहरे समाहरेत्' सथित घरी है ॥१६॥ અયાર્થ-જેવી રીતે કાચબા પિતાના અંગેને પિતાના દેહમાં For Private And Personal Use Only Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org - समयार्थबोधिनी टीका प्र. शु. अ. ८ उ. १ वीर्यस्वरूपनिरूपणम् ટ टीका - अपि च- अन्यदपि - 'जहा' यथा येन प्रकारेण 'कुंमे' कूर्म:कच्छपः 'सअंगाई' स्वाङ्गानि - स्वशिरश्चरणादीनि - स्वशरीरावयवान 'सए देहे? स्वस्मिन् शरीरे 'समाहरे' समाहरेत्' यतः कुतोऽपि दिग्देशात् समुपामच्छसि भयेन स्वावयवं स्वावयविनि शरीरे प्रवेशयति । एवं तथा तेन प्रकारेण 'मेहाची' मेधावी मर्यादावान् सदसद्विवेकवान् 'पावाई' पापानि स्वकीयानि स्वावयवमायाणि 'अझ पेण' अध्यात्मना संप्राप्ते मरणसमये सम्यग् धर्मध्यानादिभावनया 'समाहरे' समाहरेत् स्वस्मिन्नुपसंहरेत्, समुपस्थिते मरणसमये सम्यक्सं लेखनया संलेखितकायः पण्डितमरणेन स्वात्मानमुपसंहरेदिति । यथा हि-समागच्छति भये लेता है, उसी प्रकार मेधावी (धारणा बुद्धि वाला अथवा विवेकी) पुरुष पापों को धर्मध्यान आदि की भावना से संकुचित करले ||१६|| टीकार्थ -- यहाँ 'जहाँ ' शब्द दृष्टान्त के अर्थ में है। जिस प्रकार कच्छप अपने सिर पग आदि अंगों को अपने ही शरीर में गोपन कर लेता है अर्थात् किसी भी प्रकार का भय उपस्थित होने पर अपने अवयवों को शरीर में समालेता है, उसी प्रकार मेधावी अर्थात् मर्यादावान् अथवा सत् असत् के विवेक से युक्त पुरुष अपने पापों को धर्मभावना से सिकोड़ दे । अर्थात् मृत्यु का समय उपस्थित होने पर सम्यक् प्रकार से अपनी काया का संलेखन करके पण्डितमरण से अपने शरीर का परित्याग करे । अभिप्राय यह है - जैसे भय उपस्थित होने पर कछुआ अपने अंगों સર્કાચી લે છે, એજ પ્રમાણે બુદ્ધિશાળી (ધારણા બુદ્ધિવાળા અથવા વિવેકી) ઘમ ધ્યાન વગેરે ભાવનાથી પાપને સકુચિત કરીલે. ॥૧૬॥ टीअर्थ - मडियां 'जहा' से यह दृष्टान्तना अर्थभां वपरायेव छे, भे રીતે કાચમા પોતાના માથુ, પગ વિગેરે અંગોને પેાતાના જ શરીરમાં સમાવી લે છે. અર્થાત્ કોઇ પણ પ્રકારના ભય ઉપસ્થિત થાય ત્યારે પોતાના અવયવને શરીરમાં સમાવી લે છે, એ પ્રમાણે મેધાવી અર્થાત્ મર્યાદાવાન અથવા સત્ સત્તા વિવેકને જાણુનાર પુરૂષ પાતાના પાપાને ધમભાવનાથી સ`કાચી લે અર્થાત મૃત્યુના સમય આવે ત્યારે સમ્યક્ પ્રકારથી પેાતાના શરીરનુ સલેખન કરીને પતિ મરણુથી પાતાના શરીરને પરિત્યાગ કરે. કહેવાના અભિપ્રાય એ છે કે-જેમ ભય ઉપસ્થિત થાય ત્યારે કાચબે Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६८६ सूत्रकृताङ्ग सूत्र कच्छपः स्वावयवं स्वशरीरे संकोचयति, तद्वत् तथा विज्ञाय विद्वान् मरणसमयेशरणं स्वकीयाsसदनुष्ठानं स्वस्मिन् धर्मध्यानभावनया संकोचयेत् ॥१६॥ मूलम् - साहरे हत्थ पाए य मैणं पंचिंदियाणि य । पावकं च परिणामं भासादोसं च तारिसं ॥ १७॥ छाया - 'संहरेद्धस्तौ पादौ च मनः पञ्चन्द्रियाणि च । पापकं च परिणाम भाषादोषं च तादृशम् || १७॥ अन्वयार्थ :- (हस्थपाए य साहरे) हस्तौ च पादौ संकोचयेत् 'मणं पंचि को अपने शरीर में संकुचित कर लेता है, (ऊर्णनाभि नामक कीट के समान) उसी प्रकार विद्वान पुरुष अनिवार्य मरण का समय आया जानकर धर्मध्यान की भावना से असद् अनुष्ठान को त्यागदे | ॥ १६॥ 'साहरे हत्थपाए य' इत्यादि । शब्दार्थ - 'हस्थ पाए साहरे - हस्तौ पादौ च संहरेत्' साधु अपने हाथ पैरको संकुचित 'स्थिर' रखे 'मणं पंचे दिद्याणि य-मन पञ्चेन्द्रि याणि च' और मन तथा पांचइन्द्रियों को भी उनके विषयों से निवृत्त रक्खे 'पावकं च परिणामं - पापकं परिणामं' तथा पापरूप परिणाम और 'तारिसं भासादोसं च तादृशं भाषादोषं च' तथा पापरूप परिणाम और पापमय भाषादोष भी वर्जित करे || १७॥ अन्ययार्थ- हाथों को, पर्गों को, पांचों इन्द्रियों को, पापमय પેતાના અંગોને પેાતાના શરીરમાં સમાવી લે છે. સ``ચી લે છે, (ઉણુના મના ક્રીડ.ની જેમ) એજ પ્રમાણે વિદ્વાન પુરૂષ અનિવાય મરને સમય આવેલે જાણીને ધર્મધ્યાનની ભાવનાથી અસત્ એવા અનુષ્ઠાનનેા त्याग ४२ ॥१६॥ ‘algt geyang a' Jul शब्दार्थ –'हत्थपाए सोहरे - हस्तौ पादौ च संहरेत् ! साधु पोताना हाथ भगने समुचित (स्थिर) राजे 'मणं पंचेदियाणि य-मनः पञ्चेन्द्रियाणि च तथा भन भने यांचे न्द्रियाने पशु तेमना विषयोथी निवृत्त राजे 'पावकं च परिणामं - पापकं परिण में' तथा पापश्य परिणाम भने 'तारिस भासादे सचस. ददृशभाष देषि च ' तथा पापश्य परिणाम भने पाप भय भाषाद्दोषना પણ ત્યાગ કરે ૫૧૭ાા अन्वयार्थ — डाथोने, पंगोने, भनने यांचे इन्द्रियाने पायभय मध्यव For Private And Personal Use Only Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ८ उ.१ वीर्यस्वरूपनिरूपणम् ६८७ दियाणि य) मनः च-पुनः पञ्चेन्द्रियाणि-श्रोत्रादीनि समाहरेत्. तथा- (पावकं च परिणाम) पापकं च-पापस्वरूप परिणाम तथा (तारिसं भासादोसं च) तादृशं पापात्मकं भाषादोषं च संहरेदिति ॥१७॥ टीका-पूर्वमूत्रोक्तमेवार्थ विस्तरेण प्रतिपादयति-समुपस्थिते मरणसमये यथा-संछिन्नमूलबाधनो वृक्षो व्यापारविरहितो भूवि निश्चलस्तिष्ठति तथा ज्ञात्वा मरणकालं विद्वान् 'हस्थपाए य' हस्तौ पादौ च स्वकीयो 'समाहरे' संहरेत्-व्यापाराग्निवर्तयेत्, कर्मकराभ्यां हस्ताभ्यां पद्भयां वा कमप्य शुभं व्यापार न कुर्यात्, चेष्टभानोऽपि छिन्नमूलवृक्षवत् निश्चलं शरीरं भुवि व्यवस्थापयेत् । '५'च तथा-'म' मनः 'पंनिदियाणि' पञ्चेन्द्रियाणि श्रोत्रेन्द्रियादीनि अशुभव्यापारान्निवर्तयेत् । स्व विषयेभ्य इन्द्रियाणां विरतिं कुर्यात् । इन्द्रियद्वारा रागतो विषयान्नाऽऽददीतेत्यर्थः । एवं केवलं बाह्यकरणस्यैवोपरामो न, किन्तु मन अध्यवसाय को और पापमय भाषादोष को संहरण करे अर्थात् इनकी प्रवृत्ति को रोक दे॥१७॥ टीकार्थ -पहले वाले सूत्र में कथित अर्थ यहां विस्तार से प्रतिपादन किया गया है । जिसका मूल काट डाला गया है, ऐसा वृक्ष हलन चलन से रहित होकर भूतल पर निश्चल पड़ा रहता है, उसी प्रकार मरणकाल उपस्थित होने पर विधान मृत्यु को निकट आती देख कर अपने हाथों और चरणों के व्यापार को रोक दे। हाथों और चरणों से कुछ भी व्यापार न करे। छिन्नमूल (कटे हुए. वृक्ष की भांति चेष्टा करता हुआ भी शरीर को पृथ्वी पर निश्चल रक्खे । इसी प्रकार मन को और श्रोत्र आदि पांचों इन्द्रियों को अशुभ व्यापार से निवृत्त करले, अर्थात् इन्द्रियों के किसी भी विषय में राग द्वेष न करे। સાયને અને પાપમય ભાષાષને સંહરણ કરે અર્થાત્ તેઓની પ્રવૃત્તિને રોકી દે. ટીકાર્થ–પહેલાના સૂત્રમાં કહેલ અર્થનું અહિયાં વિસ્તારથી પ્રતિ. દન કરવામાં આવેલ છે જેનું મૂળ કાપી નાખવામાં આવેલ છે, એવું વૃક્ષ હલન ચલન વિનાનું થઈને પૃથ્વી ઉપર સ્થિર પડ્યું રહે છે, એજ પ્રમાણે મરણકાળ પ્રાપ્ત થાય ત્યારે વિદ્વાન પુરૂષે મૃત્યુને નજીક આવેલું જોઈને પિતાના હાથ અને પગની પ્રવૃત્તિ રોકી દે છે. હાથ અને પગથી કાંઈ પ્રવૃત્તિ કરતા નથી, છિન્નમૂળ (કપાયેલ) ઝાડની માફક શરીરને પૃથ્વી પર સ્થિર રાખવું, એજ પ્રમાણે મનને તથા કાન વિગેરે પાંચ ઇન્દ્રિયોને અશુભ પ્રવૃત્તિથી રોકી દે. અર્થાત ઇન્દ્રિયોના કેઈ પણ વિષયમાં રાગદ્વેગ ક નહિં કેવળ ઇન્દિની બ હ્ય (બહાર)ની પ્રવૃત્તિથી જ રોકાવું તેમ For Private And Personal Use Only Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे सोऽन्तःकरणस्यापि-अपदनुष्ठानेभ्यो विरतिं कुर्यात् । मनसापि कमपि पदार्थ न सेवेत । 'पावकं च परिणाम' पापकं च प्राणातिपातादिरूपं परिणामम्, तथा-'तारिसं' तादृशं पापरूपम् 'भासादोस' भाषादोषं च संहरेत, मनोवाकायगुप्तः सन् दुर्लभं सत्संघमं पण्डितमरणं वाऽ प्राप्य अशेषकर्मक्षयार्थ सम्यगनुपालयेदिति ॥१७॥ मूलम्-अणुं माणं च मायं च तं पडिन्नाय पंडिएं। सातागारवणिहुए उवसंतेऽणीहे धरे ॥१८॥ छाया--अणु मानं च मायां च तत्परिज्ञाय पण्डितः । सातागौरवनिभृत उपशान्तोऽनीहश्चरेत् ॥१८॥ केवल बाह्य इन्द्रियों के विषय से ही उपरत न हो परन्तु अन्तःकरण मन को भी असत् अनुष्ठान से विरत करले । मन से किसी परपदार्थ का सेवन न करे, अप्रशस्त संकल्प विकल्प न करे, जीवन मरण की कांक्षा न करे । रागद्वेष न करे । पापरूप परिणाम को तथा भाषा संबंधी दोषों को भी त्याग दे। तात्पर्य यह है कि मन, वचन और काय का गोपन करके, दुर्लभ संयम को प्राप्त करके समस्त कर्मों का क्षय करने के लिए पण्डितमरण का सम्यक प्रकार से पालन करे ॥१७॥ 'अणुंमाणं च मायं च' इत्यादि । शब्दार्थ-'अणुं माणं च मायं च-अणुं मानं च मायां ध' साधु थोड़ा भी मान और माया न करे 'तं परिण्णाय-तत्परिज्ञाय' मान और माया का धुरा फल जानकर 'पंडिए-पण्डितः' विद्वान् पुरुष 'सातागारનહીં પણ અતઃકરણ અને મનને પણ બેટા અનુષ્ઠાનેથી રિકી દે મનથી કેઈન પણ પારકા પદાર્થનું સેવન ન કરવું. અપ્રશસ્ત સં૫ વિકલપ કરવા નહીં જીવન મરણની ઈરછા ન કર. શગદ્વેષ ન કરે. પાપરૂપ પરિણામને અથવા ભાષા સંબંધી દેને પણ ત્યાગ કરે. કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે મનવચન, અને કાયનું ગેપન (છૂપાવવું) કરી ને દૂર્લભ એવા સંયમને પ્રાપ્ત કરીને સઘળા કમેને ક્ષય કરવા માટે પંડિત મરણનું સારી રીતે પાલન કરવું. ૧૭ળા अणुं माणं च माय ध' त्यादि An:--'अjमाणं -अणुं मानं च मायाँ च' साधु थाई ५ भान अनभायाया न शो 'तं परिण्णाय-तत्परिज्ञाय' मान भने मायानुं मम ३० For Private And Personal Use Only Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ८ उ.१ वीर्यस्वरूपनिरूपणम् अन्वयार्थ:-(अणुं माणं च मायां च) अणु-स्वल्पमपि मानम्- अहङ्कार, मायां च न कुर्यात् (तं पडिनाय) तं-मानं मायां च परिज्ञाय-एतयोः कटुकफलं ज्ञपरिज्ञया ज्ञात्वा प्रत्यख्यानपरिज्ञया परित्यजेन (पंडिए) पण्डितो विद्वान् (सावागावणिहुए) सातगौरवनिभृतः-सातागौरव-सुखशीलता तत्र निभृतः-तदर्थ. मनुयुक्तः (उपसंते) उपशान्तः-रागद्वेषेभ्यो निवृत्तः (अणिहे) अनीह-मायापपं. चरहितः (नरे) चरेत् ॥१८॥ टीका--संयमे उत्कर्षतया पराक्रममाणं संयमिनं यदि कश्चिदागत्य सस्का रादिना निमन्त्रयेत् । नानिमंत्रणासरे समीयामोत्कर्ष न कुर्भात इति दर्श यितुं सूत्रकार आह-(अणुं माणं च इत्यादि । (अणु म णं) अणुमानम्. अणुमितिस्वल्पमपि 'माणं' मानम्-अहङ्कारम् -पहताधि चक्र दिना सत्कार्यमाणः वणिहुए-सानागौरवनिभृता' सुग्छ शीलताले रहिल 'उपसंते-उप. शान्तः' तथा शान्त अर्थात् रागद्वेष हित होकर 'अजिहे-अनीह' एवं मायारहित होकर 'चरे चरेत' विचरण करे ॥१८॥ अन्वयार्थ-ज्ञानी पुरुष लेश मात्र भी मान और माया न करे। मान और माया के कटुक फल को ज्ञपरिज्ञा से जान कर प्रत्याख्यानपरिज्ञा से उसको त्याग दे। सुखशीलता में उद्यत न हो कर, उपशान्त अर्थात् राग और द्वेष से निवृत्त हो कर तथा माया प्रपंच से रहित होकर विचरे ॥१८॥ टोकार्थ--संयम में उत्कृष्ट पराक्रम करने वाले संयमी के समीप आकर यदि कोई सस्कार के साथ निमंत्रण करे तो ऐसे अवसर पर वह अभिमान न करे, यह प्रकट करने के लिए सूत्रकार ने कहा हैonetने 'पंडिए-पण्डितः' विद्वान ५३५ 'सातागारव णिहुए-सातागौरवनिभृतः' सुम भने la विनाना थ७२ 'वसंते-उपशान्तः' शांत अर्थात् रागद्वेष विनाना थईने 'अणिहे-अनीहः' भाय। २डित य४ने 'चरे-चरेत्' विय२९५ ४२ ॥१८॥ અન્વયાર્થ–જ્ઞાની પુરૂષે લેશમાત્ર પણ માન અને માયા ન કરવી, તથા માન અને માયાના કડવા ફળને જ્ઞપરિણાથી જાણીને પ્રત્યાખ્યાન પરિણાથી તેનો ત્યાગ કરે. સુખપણામાં પ્રવૃત્તિવાળા થવું નહિં તથા ઉપશાંત અર્થાત રાગદ્વેષથી નિવૃત્ત તથા માયા અને પ્રપંચથી દૂર રહીને વિચરવું. ૧૮ - ટીકાથ– સંયમમાં ઉત્તમ પરાક્રમ કરવાવાળા સંયમીની સમીપ આવીને જે કોઈ સત્કાર પૂર્વક નિમંત્રણ કરે છે તેવા અવસરે તેણે અભિમાન કરવું નહિં આ વાત બતાવવા માટે સૂત્રકારે કહ્યુ છે કે મોટામાં મોટા ચક્રવતી For Private And Personal Use Only Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे स्तोकमपि अहङ्कारं साधु न कुर्यात् । मानोहि संयममासादशिखरात् पातने वज्रमिव हेतुः । अथवा-सर्वोत्तमे पण्डितमरणेऽहमेव समर्थो नान्य इत्येवं गर्यो न विप्रेयः। सथा-'मायं च' मायां च-मायामपि न कुर्यात्, स्वल्पापि माया मुनिना न कर्त्तव्या, किमुत महती माया, आस्या अपि पतनकारणत्वादेव । एवं क्रोधलोभावपि वर्जनीयौ। 'तं पडिन्नाय पंडिए' तं परिज्ञाय पण्डितः, यत्र मान स्तत्र क्रोध इति मानादिकं हि तालपुट विषमिव प्रतिभवकारकं ज्ञपरिक्षया ज्ञात्वा, कषायान् कषायाणां परिणामं च परिज्ञाय-ज्ञात्वा 'पंडिए' पण्डितः कषायान् स्वात्मनिष्ठान् प्रत्याख्यानपरिज्ञया विषवत् परित्यजेत् । अयं भावः-यत्र माना तत्र क्रोधो यत्र माया बड़े से बड़े चक्रवर्ती आदि के द्वारा सत्कार करने पर भी साधु स्वल्प भी अभिमान न करे। मान संयम रूपी प्रसाद के शिखर से गिराने में वज्र के समान है-पतन का कारण है। अथवा साधु को यह अहंकार नहीं करना चाहिए कि मैं ही सर्वोत्तम पण्डितमरण करने में समर्थ हूँ। इसी प्रकार साधु को माया भी नहीं करनी चाहिए ! महती माया की तो बात ही क्या, स्वल्प माया का आचरण करना भी उचित नहीं है। माया भी पतन का कारण है। क्रोध और लोभ भी त्याज्य है। जहां मान होता है वहां क्रोध भी अवश्य होता है । अतएव इन चारों कषायों को तालपुट नामक विषम के समान पराभवकारी परिज्ञा से जान कर तथा कषायों के परिणाम को भी जानकर पण्डित पुरुष प्रत्याख्यान परिज्ञा से विष के समान त्याग दे। વિગેરે દ્વારા સત્કાર કરવામાં આવે તે પણ સાધુએ જરા પણ અભિમાન ન કરવું. માન-સંયમરૂપ પ્રમાદના શિખરથી પાડવામાં વજ સરખું છે.અર્થાત્ પતનનું કારણ છે. અથવા સાધુએ એ અહંકાર કરે ન જોઈએ કે-હુંજ પંડિતમરણમાં શક્તિમાન છું. એ પ્રમાણે સાધુએ માયા પણ કરવી ન જોઈએ. મોટી માયાની તો વાત જ શી ? જરા સરખી માયાનું આચરણ કરવું તે પણ ગ્ય નથી. માયા પણ પતનનું જ કારણ છે. કેધ અને લોભ પણ ત્યાગ કરવા યોગ્ય છે. જ્યાં માન હોય છે, ત્યાં કોઇ પણ અવશ્ય હોય છે. જે તેથી આ ચારે કષાયોને તાલપુટ નામના વિષની જેમ પરાભવકારી જ્ઞપરિણાથી જાણીને તથા કક્ષાના પરિણામને પણ સમજીને પંડિત પુરૂષ-પ્રત્યાખ્યાન પરિણાથી વિષ જેવા માનીને તેને ત્યાગ કરે તે જ હિતાવહ છે. For Private And Personal Use Only Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र.श्रु. अ. ८ उ.१ वीर्यस्वरूपनिरूपणम् तत्र लोभ इति ज्ञपरिज्ञश ज्ञात्वा प्रत्याख्यानपरिज्ञया सकलकषायं त्यजेत् । तथा'सातागारणिहुए' सातगौरवनिभृतः, सातगौरवं सुखशीलता तत्र निभृतः-तदर्थमन्युक्तः, सुखार्थ कदाचिदपि उपायं न कुर्यात् 'उपसंते' उपशान्तः, कषायाऽग्निजयात् शान्तीभूतः शब्दादि विषयेभ्योऽनुकूलपति कूलवेदनीयेभ्योऽरक्तद्विष्ठतयोपशान्तो जितेन्द्रियत्वात्तेभ्यो निवृत्त इति । तथा-'अणि हे' अनीहः-ईहारहितः निहन्यन्ते -व्यापाद्यन्ते संसारपाणिनोऽनया-इति ईहा, माया, न विद्यते मायारूपा ईहा यस्याऔ अनीहः-मायाप्रपञ्चरहितः 'चरे' चरेत्-यथोक्तगुणविशिष्टः साधुः संयमानुष्ठानं कुर्यात् । तदेवं मरणकालेऽन्पसमये वा पण्डितः सर्वदा पश्चमहाव्रतेपु समुद्यतो भवेत् । यद्यपि ब्रतानि सर्वाण्येव गरीयांसि ।, तथापि आशय-जहां मान होता है वहां क्रोध होता है और जहां माया होती है वहां लोभ भी होता है । ज्ञपरिज्ञा से इस तथ्य को जान कर प्रत्याख्यानपरिज्ञा से समस्त कषायों का परित्याग कर दे।। इसके अतिरिक्त सातागौरव का अर्थात् आरामतलबी का भी त्याग कर दे। सुख के लिए किसी भी प्रकार का उपाय न करे। यह उपशान्त हो अर्थात् कषायों की अग्नि को जीत ले, शीतलीमूत हो, अनुकूल और प्रतिकूल शब्द आदि विषयों में न राग और न देष करे अर्थात् जितेन्द्रिय होकर उनसे निवृत्त हो जाय । वह अनीह हो अर्थात् ईहा (माया) से रहित हो सब गुणों से युक्त होकर साधु संयम का अनुष्ठान करे। ____मरण के समय या अन्तिम समय पण्डित पुरुष पाँच महाव्रतों में કહેવાનો આશય એ છે કે-જ્યાં માન હોય છે, ત્યાં ક્રોધ અવશ્ય હોય છે, અને જ્યાં માયા હોય છે, ત્યાં લેભ પણ હોય છે. જ્ઞપરિજ્ઞાથી આ તથ્ય-સત્ય સમજીને પ્રત્યાખ્યાન પરિણાથી સઘળા કષાયોને ત્યાગ કરે. આ શિવાય સાતાગીરવ અર્થાત્ આરામપણાનો પણ ત્યાગ કરી દે. સુખ માટે કોઈ પણ પ્રકારને ઉપાય ન કરવો, તે ઉપશાંત હોય અર્થાત્ કષાયે ના અગ્નિને જીતી લેય, શીતલીભૂત હોય અનુકૂળ અથવા પ્રતિકૂળ શબ્દ વિગેરે વિષયમાં રાગ અથવા ઠેષ ન કરે. અર્થાત્ જીતેન્દ્રિય થઈને તેનાથી નિવૃત્ત થઈ જાય તે અનીહ થાય અત્ ઈહ (માયા)થી રહિત થાય દરેક પ્રકારના મયા પ્રપંચથી દૂર રહે. આ બધા ગુણેથી યુક્ત થઈને સાધુએ सयभनु मनुन ४२. મરણના સમયે અથવા અતિમ સમયે પંડિત પુરૂષ પાંચ મહાવ્રતમાં For Private And Personal Use Only Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे तेष्वपि प्राणातिपातविरतिः सर्वेभ्यः श्रेष्ठा, एतस्या सर्वानुकूलस्वात्, अत एवस्था एवं गरीयस्त्वं प्रतिपादितं शास्त्रे - 'उडूमहे तिरियं वा, जे पाणा तस्थावरा । सन्वत्थ विरिति कुज्जा, संतिनिव्वाणमाहिये ॥१॥ छाया - ऊर्ध्वमधस्तिर्यगू वा, ये प्राणा, खसस्थावराः । सर्वत्र विरतिं कुर्यात् शान्तिनिर्वाणमाख्यातम् ॥ १॥ इति सर्वत्र ऊधस्तिर्यगू वा प्राणिनः सन्ति तेभ्यो विरतिं कुर्यात् तेषां प्राणप्रियाणां प्राणिनां प्राणान् नानिपातयेत् इत्येवं कुर्वतः शान्तिस्वरूपो मोक्षो भक्तीत्याख्यातं तीर्थंकरादिभि रितिभावः ॥ साधुषदपि मानं मायां वा न कुर्यात् । मानमाययोः फलं न समीचीनमिति विचार्य पण्डितः सुखभोगादिकं न समीहेत । तथा क्रोधादिकषायान् परित्यज्य सर्वदा संयमानुष्ठ! नैकरतो भवेदिति भावः ॥ १८ ॥ विशेष रूप से उद्यत बने । यद्यपि सभी व्रत महान् हैं, तथापि प्राणातिपातविरति उन सब में श्रेष्ठ है, क्योंकि वह सभी जीवों के अनु कूल है। इसी कारण शास्त्र में इसकी गुरुता या महत्ता का प्रतिपादन किया गया है उनहे तिरियं वा' इत्यादि । ऊर्ध्व दिशा में, अधोदिशा में अथवा तिर्छौ दिशा में जो प्राणी हैं, प्रमाण प्राणियों के प्राणों का अतिपात नहीं करना चाहिए । ऐसा करने से शान्तिस्वरूप मोक्ष प्राप्त होता है, ऐसा तीर्थंकरों आदि ने कहा है । तात्पर्य यह है कि- साधु भी स्वल्प भी मान और मायाचार न करे। मान और माया का फल अच्छा नहीं होता, ऐसा विचार कर વિશેષ પ્રકારથી ઉક્ત અને, જો કે સઘળા ત્રતા મહાન છે, તે પશુ પ્રાણાતિપાત વિરતિ બધામાં સર્વોત્તમ છે કેમકે-તે સઘળા જીવાને અનુકૂળ છે. તે કારણથી શાસ્ત્રમાં તેના ગુરૂપણાનું અથવા મોટા પણાનું પ્રતિપાદન કરે છે. 'उडूढम है तिरिय' वा' धत्याहि ઉધ્વ ક્રિશામાં, અધેાદિશામાં થયા તિર્દીદિશામાં જે પ્રાણીઓ છે, તે પ્રાણિચેના પ્રિય પ્રાણાના અતિપાત (નાશ)ન કરવા જેઇએ. તેમ કરવાથી शांती स्त्र३५ भोक्ष प्राप्त थाय छे, थेप्रमाणे तीर्थ १२ विगेरे हे छे. કહેવાનું તાત્પય એ છે ?-સધુએ સ્વલ્પ પણ માન અને ન કરવા જોઇએ. માન અને માયાનું ફળ સારૂં' હાતું નથી. આ પ્રમાણે માયાચાર For Private And Personal Use Only Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र.शु. अ. ८ उ. १ वीर्यस्वरूपनिरूपणम् मूलम्-पाणे य णाइवाएज्जा अदिनं पि य णादए। सादियं णे मुंसं बूया एस धम्मे वुसीमओ॥१९॥ छाया--प्राणांश्च नातिपातयेत् अदत्तमपि च नाऽऽददीत । ___ सादिकं न मृपा ब्रूया देष धमों वृषिमतः ॥१९॥ अन्वयार्थः-पाणे य णावारज्ज!) प्राणान् पविधजीवनिकायान् नाति पातयेत्-न विराधयेत् (अदिन्नं पि य पादप) च पुनः अदत्तमपि नाददीत-परे गादत्तं दन्तशोधनमात्रमपि न गृह्णीयात् (सादियं मुसं ण वूया) सादिकं मायाँ कृत्वा मृषा न ब्रूयात् (बुपीमओ एस धम्मे) वृषिमतः-संयमिनः तीर्थकरस्य वा प्रारनिर्दिष्टो धर्मः श्रुत बारित्ररूप इति ॥१९॥ ज्ञानी पुरुष सुख भोग आदि की अभिलाषा न करे। तथा क्रोधादि कषायों को त्याग कर मदेव समभाव के ही अनुष्ठान में तत्पर रहे।१८॥ 'पाणे प णाइवाएज्जा' इत्यादि। शब्दार्थ-'पाणे य णाहवाएज्जा-प्राणान् नातिपातयेत्' प्राणियों का घात न करे 'अदिन्नं पिय णादए-अदत्तमपि च नाऽऽदीत' न दी हुई चीज न लेवें 'सादियं मुसं ण ब्रूया-सादिकं मृषा न ब्रूयात्' माया करके मिथ्या न बोले 'बुसीमओ एस धम्मे-वश्यस्य एषः धर्मः' जितेन्द्रिय पुरुषको यही धर्म है ॥१९॥ ___ अन्वयार्थ-प्राणियों की हिंसा नहीं करनी चाहिए, अदत्तादान अर्थात् पर के द्वारा विना दिये हुए तृणमात्र भी नहीं ग्रहण करना વિચાર કરીને જ્ઞાની પુરૂષે સુખ લેગ વિગેરેની ઈચ્છા કરવી નહીં. તથા ક્રોધ, માન માયા અને તેમને ત્યાગ કરીને હરહમેશા સમભાવના અનુષ્ઠાનમાં તત્પર રહેવું જોઈએ. ૧૮ 'पाणे य णाइवाएज्जा' त्यादि २०७४ा- 'पाणे य नाइवाएज्जा-प्राणान् नातिपातयेत्' प्राणायाना धात न ४३ 'अदिन्नं पि य णादए-अदत्तमपि च नाऽऽददीत' याच्या विनानी यी नसे 'सादियं मुसं ण बूया-सादिकं मृषा न ब्रूय त्' भाया परीन न बोले 'बुसीम ओ एस धम्मे-वश्यस्य एषःधर्म' तेन्द्रिय ५३पना मे४ ५ छ. ॥१६॥ જ અન્વયાર્થ–પ્રાણીની હિંસા કરવી ન જોઈએ. અદત્તાદાન–અર્થાત અન્ય દ્વારા આપ્યા વિના એક તૃણમાત્ર પણ લેવું ન જોઈએ. માયા કરીને For Private And Personal Use Only Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गमा टीका--'पाणे य' प्राणांश्च 'गारवाएज्जा' नातिपातयेत्, सर्वजन्तूना सविषयेभ्यः माणाः केनाऽपि मूल्येन न लभ्यन्ते । एतादृशान् सर्वतो वैलक्षण्यमुगतान् सर्वतः प्रियांश्च मागिनां प्राणान् कथमपि न विराधयेत् 'अदिन्नं पि य' अदत्तमपि च 'गादए' नाददीत, यदन्यदीयं वस्तु तत्तु तत्स्वामिन आज्ञामन्तरा सत्यपि कार्यगौरवे न गृह्णीयात् । 'सादियं' सादिकं-समायम्, आदिना सह. वर्तते इति सादिकम् । 'मुसं' मृषावादम् 'ण बूया' न ब्रूयात्, मृपावादस्य कारण मादिर्माया, नहि मायामन्तरेण मृषाचादो भवति । दृश्यते हि मृषावादी मृषा भाषणात माक् मायामेवाङ्गीकरोति । ततश्च मायाविशिष्टं मृपावादं परित्यजे. दिति । तत्रापि वश्च नार्थं प्रयुज्य मनो मृपावादः परिहरणीयः । एष धर्मों वृषिमता, चाहिए, माया करके असत्यभाषण नहीं करना चाहिए, यही तीर्थंकर भगवान का धर्म है ॥१९॥ टीकार्थ-किसी भी प्राणी के प्राणों का घात करना उचित नहीं है, क्योंकि प्राण अनमोल हैं । किसी भी प्राणी के प्राण किसी भी मूल्य पर प्राप्त नहीं किये जा सकते। ऐसे अद्भुत और सभी को प्रिय प्राणों की विराधना न करे। अन्य की वस्तु उसके स्वामी की आज्ञा के बिना, कैसा भी कार्य क्यों न हो, नहीं ग्रहण करना चाहिए। तृण भी विना आज्ञा के नहीं ले सादिक अर्थात् सकारण मृषावाद न करे। मृषावाद का कारण माया है, क्यों कि माया के बिना कोई मृषावाद नहीं करता। मृषावादी मृषायाद करने से पहले माया का ही अवलम्बन करता है। आशय यह है कि माया से युक्त मिथ्या भाषण नहीं करना चाहिए। જઈ વચન બેલવું ન જોઈએ આજ તીર્થકર ભગવાને ઉપદેશેલ ધર્મનું રહસ્ય છે. ૧૫ ટીકાર્થકઈ પણ પ્રાણિના પ્રાણને ઘાત કરે એગ્ય નથી. કેમકે પ્રાણે અમૂલ્ય છે કઈ પણ પ્રાણિના પ્રાણે કઈ પણ કીંમતથી પ્રાપ્ત થઈ શકતા નથી. આવા અદૂભૂત અને દરેકને અત્યંત વહાલા એવા પ્રાણેનિ વિરાધના (હિંસા) કરવી નહિં તથા ગમે તેવું મહત્વનું કાર્ય હોય તે પણ અન્યની વસ્તુ તેના સ્વામીની રજા સિવાય લેવી ન જોઈએ. એક તણખલું પણ વિના આજ્ઞા લેવું નહિ. સાદિક અર્થાત્ સકારણ પણ જુઠું બોલવું નહીં. મૃષાવાદનું કારણ માયા છે કેમકે માયા વિના કેઈ અસત્ય બોલતા નથી. જઠ બેલનારા જુહુ બાલતાં પહેલાં માયાનું જ અવલંબન કરે છે. કહેવાને ભાશય એ છે કે-માયા યુક્ત અસત્ય ભાષણ કરવું ન જોઈએ, For Private And Personal Use Only Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सार्थबोधिनी टीका प्र. शु. अ. ८ उ. १ वीर्यस्वरूपनिरूपणम् ६९५ " एषः प्राक् परिदर्शितः श्रुनचारित्राख्यः, वृषिमतः तीर्थकरस्यायं धर्मः । अथवा जितेन्द्रियस्याऽयं धर्मः । प्राणिहिंसां न कुर्यात्, अदत्तं न आददीत । सकपटं मृषावादं न वदेत्, अयं धर्मो जिनेन्द्रस्येति संक्षिप्तार्थः ॥ १९॥ मूलम् - अतिक्कमं तु वायाए मणसां विन पत्थए । सओ संडे देने आयाणं सुसमाहरे ॥ २० ॥ छाया - अतिक्रमं तु वाचा मनसापि न प्रार्थयेत् । सर्वतः संवृतो दान्तः आदानं सुसमाहरेत् ||२०|| पूर्वोक्त नचारित्र रूप धर्म वश्य अर्थात् अपनी आत्मा को बशीभूत करने वाले पुरुष प्रधान तीर्थकरों का है । अथवा यह धर्म जितेन्द्रिय का है । भावार्थ यह है कि प्राणियों की हिंसा न करे, अदत्त को ग्रहण न करे और कपटयुक्त मिथ्याभाषण न करे, यह जिनेन्द्र का धर्म है | १९| 'अइक्कमं तु वाघाए' इत्यादि । शब्दार्थ - - ' अइक्कमंतु - अतिक्रमन्तु' किसी जीव को पीडा पहुंचाने की 'वाघाए - वाचा' वाणी से 'मणसा वि-मनसापि मनसे भी 'न पत्थर-न प्रार्थयेत्' इच्छा न करे 'सम्बओ संबुडे सर्वतः संवृतः ' परंतु बाहर और भीतर दोनों ओर से गुप्तर हे 'दंते-दान्तः' तथा इन्द्रियों का दमन करता हुआ साधु 'आयाणं- आदानम्' सम्यक ज्ञानादि मोक्ष के कारणको 'सुसमाहरे - सुसमाहरेत्' ग्रहणकरे ||२०|| પહેલાં કહેલ શ્રુત ચરિત્ર રૂપધમ વસ્ય અર્થાત્ પેાતાના આત્માને વશ કરવાવાળા પુરૂષ શ્રેષ્ઠ એવા તીથ કરાના છે. અથવા તે આ જીતેન્દ્રિ यो धर्म छे. કહેવાના ભાવ એ છે કે-પ્રાણિયેની હિંસા કરવી નહિ, વિના આપેલ વસ્તુને લેવી નહી. અને કપટવાળું મિથ્યા ભાષણુ (અસત્ય)ન ખાલે આ જીનેન્દ્ર દેવ બતાવેલ શ્રેષ્ઠ ધમ છે. ૧૯ા 'अइकमं तु वायाएं' इत्याहि शब्दार्थ- 'अइकमं तु - अतिक्रमन्तु' अर्ध वने पीडा पडयाडवालु 'बायाए - वाचा' वाणीद्वाणा मनसा वि-मनसापि' भनथी पशु 'न पत्थए न प्रार्थयेत्' छिन रे 'सन्बओ संबुडे सर्वतः संवृतः' परंतु महार भने महर भन्ने तरइथी गुप्त रखे 'दंते- दान्तः' तथा न्द्रियानु मन उरतो व साधु ‘आयाणं- आदानम्' सभ्य ज्ञान विगेरे भोक्षना भरने 'सुसमाहरेसुसमाहरेत्' | अरे ॥२०॥ For Private And Personal Use Only Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे ___ अन्वयार्थ:-(अतिकम तु) अतिक्रमंतु-प्राणिपीडनं महावतातिक्रमं वा (वायाए) वाचा-वाण्या (मणमा वि) मनसापि (न पत्थर) न पार्थयेत् -नशामिल दित्यर्थः, (सनो संवुडे) सर्वतः बाह्याभ्यन्तरतः संवृतो गुमः (दंने) दान्तः -इन्द्रिय नो इन्द्रियदमनयुक्तः (आयाणं) आदानम्-मोक्ष कारणं सम्यम्-ज्ञानादिकम् (सुसमाहरे) मुसमाहरेत्-गृह्णीयादिति ॥२०॥ टीका-अपि च 'अतिकम तु' अतिक्रम-माणिनां पीडम्, महाव्रतस्याऽतिक्रमं वा । अथवा-साहंकारेण मनसा परेषां तिरस्करणम्, एतादृशमरिक्रमम् । 'वायाए वचसा 'मणसा' मनसा 'वि' अपि न पत्याएन प्रार्थयेन् । प्राणातिपातादिपरपीडाजनकं कर्म कथमपि न कुर्यात् वाचा मनसा वा। वाण मनपोः प्रतिषेधात् कायिकातिक्रमणाप्रावस्तु अर्थादेव सिद्धः, तदेव मशेवाकायैः साधु वचन से अथवा मन से भी अतिक्रम की अर्थात् किसी को पीडा पहुँचाने की अथवा महावतों का उल्लंघन करने की अभिलाषा न करे। वह पूर्ण रूप से संबर युक्त हो, इन्द्रियमन को दमन करने वाला हो और आदान अर्थात् मोक्ष के कारण सम्यग्ज्ञान आदि को ग्रहण करे।२०) टीकार्य--अतिक्रम का अर्थ है-प्राणियों को पीड़ा देना और महाव्रतों का उल्लंघन करना अथवा अहंकारयुक्त मन से दूसरों का तिर. स्कार करना। साधु इस प्रकार का अतिक्रम करने की वचन से और मन से भी इच्छा न करे। प्राणातिपात आदि परपीड़ाजनक कार्य वचन या मन से भी न करे। जब वचन और मन से अतिक्रमण करने का निषेध कर दिया तो कायिक अतिक्रमण का स्याग तो स्वतः सिद्ध ही हो અન્વયાર્થ– સાધુએ મન અથવા વચનથી પણ અતિક્રમની અર્થાત કેઇને પિડા પહોંચાડવાની ઈચ્છા કરવી નહીં તથા મહાવ્રતના ઉલ્લંઘન કરવાની પણ ઈચ્છા ન કરવી. તેણે પૂર્ણ રૂપથી સંવરયુક્ત થઈને, તથા ઇંદ્રિય અને મનનું દમન કરવાવાળા થઈને આદાન-અર્થાતું, મોક્ષના કારણ રૂપ સમ્યફ જ્ઞાન વિગેરેને ગ્રહણ કરવા ૨૦ ટીકાર્થ—અતિક્રમ એટલે પ્રાણિઓને પીડા પહોંચાડવી. તથા મહાવ્રતનું ઉલંઘન કરવું અથવા અહંકાર યુક્ત મનથી બીજાઓને તિરસ્કાર કરે. આવા પ્રકારના અતિક્રમ કરવાની મનથી કે વચનથી પણ સાધુએ ઈરછા ન કરવી, પ્રાણાતિપાત વિગેરે અન્યને પીડા પહોંચાડનાર કાર્ય મન અથવા વચનથી ન કરવા. જ્યારે મન અને વચનથી પણ અતિક્રમ કરવાને નિષેધ કરવામાં આવ્યું, તે કાયિક (શરીરથી) અતિક્રમને ત્યાગ તે સ્વતઃ સિદ્ધ થઈ જાય For Private And Personal Use Only Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ८ उ. १ वीर्थस्वरूपनिरूपणम् ६९७ कृतकारितानुमतिभिश्व नवमभेदमतिक्रमं कथमपि न कुर्यात् । तथा सम्बओ' सर्वतः बाह्यत आभ्यन्तरतथ, 'संबुडे' संवृतः - गुमः, तथा-'देते' दान्तःइन्द्रियनोइन्द्रियदमनकारकः, एवंभूतः सन् 'आयाणं' आदानम् - उपादानं-मोक्ष स्य कारणम्, सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूपम् 'सुसमाहरे' सुनमाहरेत् सु-सुष्ठु - उद्युक्तः सम्प विस्रोत सिकारहितः सन् आहरेत्-आददीत । मनसा वचसा वा कस्यापि प्राणिनः पीडनं नेच्छे किन्तु वाह्याभ्यन्तरतो गुप इन्द्रियनिग्रहं कुर्वन् समितिगुप्त्या संयमपालनं कुर्यादिति भावः ॥ २० ॥ मूलम् --केडं च कजमाणं च आगमिस्तं च पावगं । सर्व तं णाणुजाणंति आयगुत्ता जिइंदिया ॥ २१ ॥ छाया - कृतं च क्रियमाणं च आगमिष्यच्च पापकम् । सर्व तं नानुजानन्ति अस्वगुप्ता जितेन्द्रियाः ॥ गया। इसका अभिप्राय यह हुआ कि मन, वचन और कार्य से तथा कृत, कारित और अनुमोदना से नौ भेद वाला अतिक्रम न करे । तथा बाह्य और आभ्यन्तर रूप से संवृत हो, इन्द्रियों का और मन का दमन करने वाला हो। इन विशेषणों से युक्त होकर साधु मोक्ष के कारण सम्यग्दर्शन, ज्ञान चारित्र और तप को शंकारहित होकर ग्रहण करे | भावार्थ यह है कि साधु किसी भी प्राणी को पीड़ा देने की इच्छा न करे । भीतर और बाहर से गुप्त हो दान्तेन्द्रिय हो और समिति गुप्ति आदि का पालन करे ||२०|| 1 છે. અર્થાત્ શરીરથી ડિસા ન કરવી તેમ કહેવાની આવશ્યકતાજ ઉપસ્થિત थती नथी. કહેવાના આશય એ છે કે-મન, વચન, અને કાયાથી તથા કૃતકારિત અને અનુમેદનાથી નવ પ્રકારના અતિક્રમ કરવે! નહી' તથા બાહ્ય અને અભ્યતર રૂપથી સંવૃત રહેવુ'. ઇંદ્રિયા અને મનનુ દમન કરવુ. આ વિશેષશેાથી યુક્ત થઈને સાધુએ મૈાક્ષના કારણુ સમ્યગ્ દર્શન જ્ઞાન, ચારિત્ર અને તપ વિના શકાએ ગ્રહણ કરવા, આ કથનના ભાવાથ એ છે કે-સાધુએ કોઇ પણ પ્રાણીને પીડા પહેાં. ચાડવાનીઇચ્છા ન કરવી. બહાર અને આદરથી ગુપ્ત રહેવુ. દાન્તેન્દ્રિય થઇને સમિતિગુપ્તિ વિગેરેનું પાલન કરવું, ારા सू० ८५ For Private And Personal Use Only Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे अन्वयार्थः-(आयगुत्ता जिइंदिया) अत्तगुणाः, आत्मा अंकुशेन मनोवाकायनिरोधेन गुप्तो येषां ते आत्मगुप्ताः, जितेन्द्रियाः (कडं च) कृतं च-अनुष्ठितम् (कज्जमाणं) क्रियमाणं च वर्तमानकाले (आगमिस्सं च) आगमिष्यत् चभविष्यकाले करिष्यमाणं च (पावगं) पापकम्-प्राणातिपातादिकम् , (सव्वं तं गाणुजाणंति) सर्व तत् कर्म नानुजानन्ति-नानुमोदन्ते इति ॥२१ टीका-'आयगुत्ता' आत्मगुप्ताः, आत्मा अङ्कुशेन मनोवाकायनिरोधेन गुप्तो रक्षितो येषां ते आत्मगुमाः। तथा-'निइंदि:।' जितेन्द्रियाः-जितानि कडं च कजमाणं च' इत्यादि। शब्दार्थ--'आयगुत्ता जिइंदिया-आरमगुप्ता जितेन्द्रियाः' गुप्तात्मा जितेन्द्रिय पुरुष 'कडं च-कृतं च' किया हुआ 'कज्जमाणं-क्रियमाणम्' किया जाता हुआ अथवा 'आगमिस्सं-आगमिष्यत्' कियाजाने वाला 'पावगं-पापक' जो पाप है 'सव्वं तं णाणुजाणंति-सर्व तन्नानुजानन्ति' उन सभी का अनुमोदन नहीं करते हैं ।२१। . अन्वयार्थ-जो महापुरुष आत्मगुप्त अर्थात् अशुभ मन वचन काय का निरोध करके प्रात्मा को गोपन करने वाले तथा जितेन्द्रिय है, वे भूतकाल में कृत, वर्तमान में किये जाते हुए और भविष्यत् काल में किये जाने वाले सम्पूर्ण पार की अनुमोदना नहीं करते हैं ॥२१॥ टीकार्थ-जिन्होंने अप्रशस्त मन वचन और काय के व्यापार का निरोध करके अपनी आत्मा का गोपन किया है, वे आत्मगुप्त कहलाते 'कडं च कज्जमाणं च त्या Avart-आयगुत्ता जिइंदिया-आत्मगुप्ता जितेन्द्रियाः' गुप्तात्मा सते. द्रय ५३५ 'कडं च-कृच' रेस 'कन्जमाणं-क्रियमाणम्' ४२पामा मातु अथवा 'आगामिरसं-आगामिष्यत्' ४२खामा मापना३' 'पावगं-पापक' २ ५५ छ, सव्वं तं ण णुजाणंति-रूवं तन्नानुजानन्ति' भयानुं मनमोहन ४२ता नथी. ॥२१॥ અન્વયાર્થ– જે મહાપુરૂષ આત્મ ગુપ્ત અર્થાત્ અશુભ મન, વચન અને કાયને નિરોધ કરીને અર્થાત્ રોકીને આત્માનું ગેપન કરવાવાળા તથા જીતેન્દ્રિય છે, તેઓ ભૂતકાળમાં કરેલા, અને વર્તમાનમાં કરાતા તથા ભવિધમાં કરવામાં આવનારા સમગ્ર પપિની અનુમોદના કરતા નથી. પારા - ટીકાર્યું–જેઓએ અપ્રશસ્ત એવા કાયના વ્યાપારને નિરોધ કરીને અથત રોકીને પિતાના આત્માનું ગેપન-રક્ષણ કરેલ છે, તેઓ આત્મગુપ્ત For Private And Personal Use Only Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्श्वबोधिनी टोका प्र. श्रु. अ. ८ उ. १ वीर्यस्वरूपनिरूपणम् स्ववशे आनीतानि इन्द्रियाणि श्रोत्रादीनि तथा नोइन्द्रियं मनो ये स्ते जितेन्द्रियाः, यैः स्वेन्द्रियाणि स्वाधिकारे कृतानि - श्वंभूता उदारचेतसः 'कर्ड' कृतं यदपरैरनार्ययै भूतकाले कृतं सम्पादितम् । तथा - 'कमाण' क्रियमा णम् वर्त्तमानकाले सम्पाद्यमानम् । तथा - ' आगमिस्सं च' आगमिष्यत् चआगामिन भविष्यत्काले करिष्यमाणं च 'पावर्ग' पापकं पापयुक्तं कर्म प्राणावि पातादिकं यद् भवेत् 'सव्वं तं' तत्सर्व पापं कर्म 'णाणुजाणंति' नानुजानन्ति तादृशपापकर्मणोऽनुमोदनं न कुर्वन्ति आत्मगुमा जितेन्द्रिया मुनय इति भावः ॥ २१ ॥ मूलम् - जे याबुद्ध महाभागा वीरों असमन्तदंसिणो । असुद्धं तेसिं परक्कतं सफेलं होइ सव्वसो ॥२२॥ हैं। जो श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसना और स्पर्शन इन्द्रिय को तथा मन को अपने वश में कर चुके हैं, वे जितेन्द्रिय कहे जाते हैं। इस प्रकार के आत्मगुप्त और जितेन्द्रिय पुरुष, साधु के उद्देश्य से अनार्थी के समान लोगों द्वारा कृन आहार, वस्त्र, पात्र, वसति आदि का, वर्तमान काल में साधु के निमित्त किये जाते हुए तथा आगामी काल में किये जाने वाले पापकर्म का अनुमोदन नहीं करते । तात्पर्य यह है कि आनार्थजन यद्यपि अपने स्वयं के लिए पापकर्म करते हैं, करेंगे या भूतकाल में उन्होंने किया है, जैसे किसी को मारा, मारता है या मारेगा, तथापि ज्ञानी पुरुष उसकी अनुमोदना नहीं करते हैं ||२१|| आडवाय छे, भेखो श्रोत्र- छान-यांना रसना, म भने स्पर्शन चन्द्रि અને તથા મનને પે!તાને આધિન કરેલ છે, તેઓ જીતેન્દ્રિય કહેવાય છે. આવા પ્રકારના આત્મગેાપન કરવાવાળા તથા જીતેન્દ્રિય પુરૂષા સાધુને ઉર્દૂશીને અનાચની સમાન લેાકેા દ્વારા કરાયેલ આહાર વસ્ત્ર, પાત્ર, વસતિ, આદિના વમાનકાળમાં સાધુને નિમિત્તે કરવામાં આવતા, તથા ભવિષ્યકા ળમાં કરવામાં આવનારા પાપકર્મોનું અનુમાન કરતા નથી. કહેવાનુ તાત્પર્ય એ છે કે-અનાય જને! જો કે પેાતાના માટે પાપ ક કરે છે. ભવિષ્યમાં કરશે અથવા ભૂતકાળમાં પાપકમ કર્યુ છે, જેમ કેકાઈ એ કાઈ ને માયુ મારતા હોય અને મારશે. તે પણ જ્ઞાનીપુરૂષ તેનું અનુમાદન કરતા નથી. ૫૨૧ For Private And Personal Use Only Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७०० सूत्रकृताङ्गस्त्रे छाया-ये चाऽबुद्धा महाभागा वीरा असम्यक्त्वदर्शिनः । - अशुद्धं तेषां पराक्रान्तं सफलं भवति सर्वशः ॥२२॥ अन्वयार्थः--(जे याऽबुद्धा) ये चाऽबुद्धाः-धर्म प्रति अविज्ञातपरमार्थाः (महामागा) महाभागाः-जगत्पूजनीयाः (वीर।) वीराः-सुभटा, अपि (असमत्सदसिणो) असम्यक्त्वदर्शिनः-मिथ्यादृष्टयः सन्ति तदा-(तेसिं परक्कतं असुद्ध) तेषां बालानां तपो दानादिषु पराक्रान्तं पराक्रमणमुद्यमरूपम् तत् अशुद्धम्अविशुद्धिकारि प्रत्युत कर्मबन्धनाय (सनसो सफलं होइ) सर्वशः-सर्वप्रकारेण सफलं कर्मबन्धायैव भवतीति ॥२२॥ 'जे य बुद्धा इत्यादि। . शब्दार्थ--'जे याऽबुद्धा-ये चाऽबुद्धाः' जो पुरुष धर्म के रहस्यको नहीं जानते हैं 'महाभागा-महाभागाः' किन्तु जगत् में पूजनीय माने जाते हैं 'वीरा असंमत्तदंसिणो-वीराः असम्यक्त्वदर्शिनः' एवं शत्रु की सेना को जीतनेवाले वीर है 'तेसिं परक्कंतं असुद्धं-तेषां परा. कान्तम् अशुद्धम्' उनका तपदान आदि में उद्योग अशुद्ध है 'सब्यसो सफलं होइ-सर्वशः सफलं भवति' और वह कर्मबन्ध के कारणरूप होता है ॥२२॥ अन्वयार्थ--जो पुरुष जगत्पूजनीय हैं, वीर हैं किन्तु धर्म के परमार्थ को नहीं जानते और मिथ्यादृष्टि हैं, उनका तप दान आदि अशुद्ध है और वह कर्मबन्ध रूप फल का जनक है ॥२२॥ 'जे याऽबुद्धा' त्यादि शहा- 'जे याऽयुद्धा-ये चाऽबुद्धाः' रे ५३५ ५म ना २७२यने olya नथी 'महाभागा-महाभागाः' ५२ तुगतमा पूछनीय भानामा भाव छ. वीरा असमत्तदसिणा-वीराः असम्यक्त्वदर्शिनः' तथा शत्रुनी सेनाने तवावाणा पीर छ, 'सि परकंतं असुद्धं- हेषां पराक्रान्तम् अशुद्धम्' तेभनी तप, दान विगेरेमा धोn शुद्ध छे. 'सव्वसो सफलं हे।इ-सर्वशः सफलं भवति' भने તે કર્મબંધના કારણરૂપ થાય છે પરરા - अन्याय-२ ५३२॥ गगनीय छे, वीर छ, परतु यम ना ५२. માર્થને જાણતા નથી. અને મિથ્યા દૃષ્ટિવાળા હોય તેઓનું તપ, દાન, વિગેરે અશુદ્ધ કહેવાય છે, અને તે કર્મ બન્યરૂપ ફળ આપનારું છે. પારરા For Private And Personal Use Only Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. म. ८ उ. १ वीर्यस्वरूपनिरूपणम् ot टीका--अपि च 'जे' ये 'य' च 'अबुद्धा' अबुद्धाः-धर्मविषयकबोधविकलाः, शुष्कव्याकरणतर्फ तत्सदृश तदन्यशास्त्रविषयकज्ञानेन संजाताभिमाना आत्मानं पण्डितं मन्यमानाः, परन्तु पारमार्थिकवस्तुविषयकपरामर्शविकलस्वाद अबुद्धाः। न च शुष्कतर्कनानमात्रेण सम्यक्त्वमन्तरेण भवति कथमपि सत्त्वाबोधः । उक्तश्च 'शास्त्रावगाहपरिघट्टनतत्परोऽपि, नैवाऽबुधः समधिगच्छति वस्तुतत्वम् । नानाप्रकाररसभोगगताऽपिद:, स्वाद रसस्य मुचिरादपि नैत्र वेत्ति ॥११॥ अबुद्धा बालवीर्यवन्तः। तथा-'महाभागा' महाभागाः- महासत्करणीयाः, महान्तश्च ते भागा इति महाभागाः, अत्र भागशब्दः, सत्कारार्थंकः । ततम ___टीकार्थ--शुष्क व्याकरण तर्क तथा इसी प्रकार के अन्य शास्त्रों के ज्ञान से जिन्हें अभिमान उत्पन्न हो गया है, जो अपने आपको पण्डित मानते है, परन्तु पारमार्थिक वस्तु के ज्ञान से रहित हैं वे वास्तव में अबुद्ध हैं, क्यों कि सम्यक्त्व के विना शुष्क तर्क मात्र से तत्व का बोध प्राप्त नहीं होता। कहा भी है--'शास्त्रावगाह परिघट्टान तत्परोपि' इत्यादि। ___जैसे नाना प्रकार के रसों में डूब रहने वाली चाटू दीर्घ काल पर्यन्त भी रसों के स्वाद को नहीं जान पाती, इसी प्रकार विविध शास्त्रों का अवगाहन करने पर भी अवुध पुरुष तत्व के ज्ञान से वंचित (रहित) ही रहता है।' इस प्रकार जो अवुद्ध है अर्थात् बालवीर्यवान् है यह महाभाग अर्थात् अत्यन्त सस्कार करने योग्य हो महाभाग्यवान् हो, पूर्वभष ટીકાર્ય–શુષ્ક એવા વ્યાકરણ, તક તથા એવા પ્રકારના અન્ય શાસ્ત્રોના જ્ઞાનથી જેઓને અભિમાન ઉત્પન્ન થયેલ હોય, જેએ પિતાને પંડિત માનતા હોય પરંતુ પરમાર્થિક વસ્તુના જ્ઞાનથી રહિત હોય તેઓ વાસ્તવિક રૂપે અબુદ્ધ જ છે કારણ કે-સમ્યક્ત્વના જ્ઞાન વિના શુષ્ક એવા તમાત્રથી તત્વને माध प्रास या नथी. यु. ५९ छे है-'शास्त्रावगाहपरिघट्टनतत्परोऽपि' ઈત્યાદિ જેમ અનેક પ્રકારના રસોમાં ડૂબી રહેનાર ચાટુ (ગ્રેડ) લાંબા કાળ સુધી તેમાં પડી રહેવા છતાં પણ અને સ્વાદને જાર્થી શકતી નથી. તે રીતે અનેક શાસ્ત્રોનો અભ્યાસ કરવા છતાં પણ અબુધ પુરૂષ તત્વના સાચા ज्ञानथी कथित विनानी) २३ छ. આવા પ્રકારના જેઓ અબુધે છે. અર્થાત બાલવીયવાન છે, તે મહાભાગ અર્થાતુ અત્યન્ત સત્કાર કરવાને યોગ્ય હોય અથવા મહાભાગ્યવાન For Private And Personal Use Only Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ७०२ कृतार्कसूत्रे महासत्करणीया लोके । अथवा भागो भाग्यम्, तथा महद्भाग्यं विद्यते येषां ते महाभागाः । परलोके सुकृतं समुपार्जितं यद् बलात् इहलोकेऽधुना तज्जनितं सुखं भवति । 'वीरा' पर सैन मर्दने समर्थाः सन्ति किन्तु - 'असमत्तदं सेणो' असम्यक्त्वदर्शिनः, न सम्यक् द्रष्टुं शीलं येषां तेsसम्यक्त्वदर्शिनः मिथ्यादृष्टय इति यावत् । ' तेर्सि' तेषामसम्यक्स्वदर्शिनाम् । 'परक्कतं' पराक्रान्तम्, तपोदानाध्ययनादिषु प्रयत्नादिकं तत् ! 'असुद्धं' अशुद्धम् अविशुद्धिकारि । तैः कृतं तपःप्रभृति शुभानुष्ठानमपि बन्धनाय एव । कुनैधकृत चिकित्सावद् विपरीत फलजनकम् | यद्यपि तपःप्रभृतिक विशिष्टफलाय भवति किन्तु तेषां मिथ्यादृष्टीन तपोऽपि बन्धनायैव । भावोपहतत्वात् सनिदानत्वाद्वा । यथैकरसमपि जलं ततद्भूभागविकारान् आसाद्य मिष्टं तिक्तं लवणाक्तं भवति तत् तत्तत्तेषां पराक्रान्तम् । J Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir में उपार्जित सुकृत के बल से इस भव में सुख का अनुभव कर रहा हो और वीर अर्थात् शत्रुसेना का मर्दन करने में समर्थ हो किन्तु मिथ्यादृष्टि हो तो उसका पराक्रम अर्थात् तप दान अध्ययन आदि में किया हुआ प्रयत्न अशुद्ध है। वह तप आदि शुभानुष्ठान भी कर्मबन्धन का ही कारण होता है। जैसे कुवैद्य के द्वारा की हुई चिकित्सा विपरीत फल प्रदान करने वाली होती है। यद्यपि तप आदि का विशिष्ट निर्जरा रूप फल होता है तथापि मिध्यादृष्टि के लिए वे भी कर्मवन्ध के ही कारण होते हैं, क्यों कि वे भावना से दूषित (अर्थात् सद् विवेक से रहित) होते हैं अथवा निदान से युक्त होते हैं। जल में एक ही प्रकार का स्वाभाविक रस सर्वत्र होता है, परन्तु भिन्न भिन्न प्रकार के भूभागों के संसर्ग से वह कहीं मीठा कहीं खारा हो હાય, પૂ`ભત્રમાં પ્રાપ્ત કરેલા સુકતના ખળથી આ ભવમાં સુખનેા અનુભવ કરી રહ્યા હાય તથા વીર અર્થાત્ શત્રુના સૈન્યનું મન કરવામાં સમ હોય પરંતુ મિથ્યા ષ્ટિવાળા હૈાય તે તેનું પરાક્રમ અર્થાત તપ, દાન, અધ્યયન વિગેરેમાં કરેલ પ્રયત્ન અશુદ્ધ છે. તે તપ વિગેરે શુભ અનુષ્ઠાન પણ ક અન્યના કારણે રૂપન્ન થાય છે. જેમ કુવૈદ્ય દ્વારા કરવામાં આવેલ ચિકિસા ઉલ્ટા ફૂલને આપવા વાળી થાય છે, જો કે તપ વિગેરેનું વિશેષ પ્રકારની નિર્જરા રૂપલ હાય છે. તા પણ મિથ્યાષ્ટિવાળાને માટે તેએ પણ કમ અંધના કારણ રૂપજ હોય છે. કેમ કે તેએ ભાવનાથી દૂષિત (અર્થાત્ તૂ વિવેક વિનાના) હેાય છે, અથવા નિદાનવાળા હોય છે. જલમાં એકજ પ્રકારના સ્વભાવિક રસ જ સર્વત્ર હાય છે. પરંતુ અલગ અલગ પ્રકારના મ ભાગાના સંસર્ગથી તે કયાંક મીઠું અને કયાંક ખારૂ થઈ જાય છે. એજ For Private And Personal Use Only Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ८ उ. १ वीर्यस्वरूपनिरूपणम् ७०३ 'सम्रसो' सर्वशः-सर्वा, अपि क्रिया, 'सफलं होई' सफलं भवति, फलेन कर्मबन्धनेन युक्तं तदीयं पराक्रान्तमिति ॥२२॥ ___ बालवीर्यवतः पराक्रान्तं दर्शयित्वा तदनु पण्डितवीर्यवन्तमधिकृत्य शास्त्रकारः कथयति-'जे य बुद्धा' इत्यादि। मूलम्- य बुद्धा महाभागा, वीरों संमत्तदंसिणो। सुद्धं तेर्सि परकंतं, अंफलं होइ सव्वसो ॥२३॥ छाया-ये च बुद्धा महाभागाः, वीगः सम्यक्त्वदर्शिनः । शुद्ध तेषां पराक्रन्त, मफलं भवति सर्वशः ॥२३॥ जाता है, उसी प्रकार तप भी विभिन्न स्थानों में विभिन्न प्रकार का फल प्रदान करता है। यही कारण है कि मिथ्यादृष्टियों का पराक्रम अर्थात् मिथ्यादृष्टियों की सब क्रिया कर्मबन्धन रूप फल को उत्पन्न करता है ।२२। बालवीर्यवान के पराक्रम को दिखलाकर शास्त्रकार अब पण्डित. वीर्यवान् के विषय में कहते हैं-'जे य बुद्धा' इत्यादि। शब्दार्थ-'जे य-ये च' जो लोग 'बुद्धा-बुद्धाः' पदार्थ के सच्चे स्वरूप को जाननेवाले 'महाभागा-महाभागाः' घडे पूजनीय 'वीरावीराः' कर्मविदारण करने में निपुण 'संमत्तदंसिणो-सम्यक्त्वदर्शिनः' तथा सम्यकदृष्टि है 'तसि परक्कंत-तेषां पराकान्तम्' उनका उद्योग 'सुद्धं-शुद्धम् निर्मल 'सन्धसो अफलं होह-सर्वशः अफलं भवति' और सब प्रकरसे अफल अर्थात् कर्मका नाशरूप मोक्ष के लिये होता है ॥२३॥ રીતે તપ પણ જુદા જુદા સ્થાનમાં જુદા જુદા પ્રકારનું ફળ આપે છે. એજ કારણ છે કે મિથ્યા દષ્ટિવાળાઓનું પરાક્રમ અર્થાત મિથ્યા દૃષ્ટિઓની બધી જ ક્રિયા કર્મબજ રૂ૫ ફળને જ ઉત્પન્ન કરે છે. મારા બાલવીર્યવાનના પરાક્રમને બતાવીને શાસ્ત્રકાર હવે પંડિત વીર્યવાનના समयमा थन ४२.-'जे य बुद्धा' इत्यादि शहा- 'जे य-ये च'२ 'बुद्धा-बुद्धाः पाना सारा १३५ने नावाणा 'महाभागा-महाभागाः' ५९०४ पूछनीय 'वीग-वीराः' भन विहा२४ ४२१ामा 'समत्तदमिणेा-सम्यक्त्वदर्शिनः' तथा अन्य टि. anा छ, 'तेसि परक-तेषां पराक्रान्तम्' तेमाने। यो 'सुद्ध-शुद्धम्' निभा 'सव्वसो अफलं हाई-सर्वशः अफलं भवति' भने मची रीत १३ अर्थात् ફર્મના નાશરૂપ મોક્ષને માટે થાય છે. કારણ For Private And Personal Use Only Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ७०४ सूत्रकृताङ्गसूत्रे अन्वयार्थः -- (जे य) ये च (बुद्ध) बुद्धा:- स्वयं बुद्धा, बुद्धबोधिता वा ( महाभागा ) महाभागाः- महापूजनीयाः (वीरा) वीराः कर्मविदारणसमर्थाः ( संमसिणो) सम्यक्त्वदर्शिनः - परमार्थतरवेदिनः (तेसि परवकंतं) तेषां पराक्रान्तमुद्योगः (सुद्धं) शुद्धमवदातं कर्मबन्धं प्रति (सव्वलो अफलं दोइ) सर्वशः - सर्वथैव अफलं भवति पापफलजनकाभावात् तत् निरनुबन्धनिर्जरार्थमेव भवतीति भावः ॥ २३॥ टीका--'जे य' ये केचन महापुरुषाः 'बुद्धा' बुद्धा:- संबुद्धाः परोपदेशमन्तरेणैव पदार्थपरमार्थज्ञानवन्तः तीर्थकराः । यद्वा-बुद्धबोधिता गणधरादयः, 'महाभागा महाभागाः - महासत्कणीयाः । 'वीरा:- कर्मणां विनाशने सदा सामतो ज्ञानादिभिर्गुणैर्वा सदा शोभमानाः | 'संमत्तदसिणो' सम्यक्त्वदर्शिनःयथावस्थित पदार्थज्ञानवन्तः । ' तेर्सि' तेषां - जगन्माननीयानां यत् 'परक्कत' पराक्रान्तम्- तपः संयमाद्यनुष्ठानं तत् 'सुद्धं' शुद्धं विशुद्धं निर्मलं - कषायादिदोष Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अन्वयार्थ - जो स्वयं बुद्ध हैं अथवा बुद्धबोधित हैं, महाभाग पूजनीय हैं, वीर अर्थात् कर्मविदारण में समर्थ हैं और सम्यक्त्वदर्शी परमार्थ के ज्ञाता हैं, उनका पराक्रम सर्वथा कर्मबन्धन रूप फल से रहित होता है-निर्जरा का ही कारण होता है ॥ २३ ॥ टीकार्थ जो महापुरुष दूसरे के उपदेश के बिना स्वयं ही बोध को प्राप्त कर परमार्थ को जानने वाले हैं, जैसे तीर्थकर, अथवा जिन्होंने दूसरे ज्ञानियों से ज्ञान प्राप्त किया है, जैसे गणधर आदि तथा जो महान सत्करणीय हैं, जो कर्मों को नष्ट करने के सामर्थ्य से युक्त हैं, या ज्ञानादि गुणों से विभूषित हैं, जो पदार्थों के यथार्थ स्वरूप को जानते हैं, उनका पराक्रम अर्थात् तप, अध्ययन, यम, नियम आदि અન્વયા —જેએ સ્વયં બુદ્ધ છે. અથવા બુદ્ધ એષિત છે. મહાભાગ પૂજનીય છે, વી૨ અર્થાત્ કના વિદ્યારણમાં સમથ છે. અને સમ્યકૃત્વદર્શી પરમાર્થને જાણવાવાળા છે, તેઓનું પરાક્રમ સથા કબંધ રૂપ ફળ વિનાનુ ડાય છે.-અર્થાત્ નિર્જરાના કારણુ રૂપ જ હોય છે. ાથા ટીકા--જે મહા પુરૂષા ખીજાતા ઉપદેશ વિના પાર્તજ મેધ પ્રાપ્ત કરીને પરમાને જાગુત્રવાળા છે, જેમકે તીથક, અથવા જેએએ બીજા જ્ઞાનીચા પાસેથી જ્ઞાન પ્રાપ્ત કરેલ છે, જેમકે ગણુધર, વિગેરે તથા જેએ મહાન્ સત્કાર કરવાને ચેગ્ય હોય છે, જેએ કર્મીને નાશ કરવાવાળા સામથી યુક્ત છે, અથવા જ્ઞાન વગેરે ગુણેાથી યુક્ત હાય છે, જેઓ પદાર્થીના यथार्थ (वास्तव) २१३ लाये छे, ते राइम अर्थात् तप, मध्य For Private And Personal Use Only Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ८ उ.१ वीर्यस्वरूपनिरूपणम् रहितं तद अफलं पापफलाजनकं भवति निर्जरार्थमेव सर्व भवतीति भावः। सस्यक्वतां सर्वमेव संयमतपःप्रधानमनुष्ठानं भवति संयमास्याऽनाश्रवरूपत्तांत, तथा-तपपो निर्जराफलकत्वात् । तथोक्तं भगवता भगवत्याम् 'संजभे अणण्हयफले तवे वोदाणफले ॥ईत २३॥ मूलम्--सेसि वि तंबोण सुद्धो, निक्खंता जे महाकुला। जन्नेवन्ने वियाणंति, न सिलांग पवेजइ ॥२४॥ छागा--तेपा मपि तपो न भुद्धं, निष्क्रान्ता थे महाकुलाः । यन्नाऽये विजानन्ति, न श्लोक प्रवेदयेत् ।।२४॥ अनुष्ठान शुद्ध कपायादि दोषों से रहित और निर्जरा के लिए ही होता है। सम्यक्त्ववान् पुरुष का सभी अनुष्ठान संथम तप प्रधान होता है, भगवती सूत्र में भगवान ने कहा है 'संयम का फल आप्रव का रुक जाना है और तप का फल कर्म की निर्जरा होना है ॥२३॥ 'तेसिं वि तबो ण सुद्धो' इत्यादि। शब्दार्थ--'तेसिं वि तवो ण सुद्धो-तेषामपि तपो न शुद्धं' उनका तप भी शुद्ध नहीं है 'जे महाकुलानिवखना-ये महाकुलाः निष्क्रान्ताः' जो महाकुल वाले प्रव्रज्यालेकर पूजा सत्कार के लिये तप करते हैं 'जन्नेवन्ने वियाणंति-यत् नैव अन्ये विजानन्ति' इसलिये दान में श्रद्धा रखनेवाले दूसरेले ग जिसमें जाने नहीं, इस प्रकार आत्मार्थी को संप. થન, યમ, નિયમ વિગેરે અનુષ્ઠાન શુદ્ધ એટલે કે કષાય વિગેરે દેથી હિત અને નિજ આપવાવાળા જ હોય છે. સમ્યકત્વવાળા પુરૂષના સઘળા - અનુષ્ઠાને સંયમ અને ત૫ પ્રધાન જ હોય છે. ભગવતીસૂત્રમાં ભગવાને કહ્યું છે કે-સંયમનું ફળ આવને રોકવું તે છે. અને તપનું ફળ કર્મની નિર્જરા થવી તે છે. પરવા 'तेसि वि तो ण सुद्धो' त्यात सन्हा -'सि वि तवो ण सुद्धो-तेषामपि तपो न शुद्धं' भनु त५ ५५ शुद्ध नथी. 'जे महाकुला निक्खंता-ये महाकुलाः निष्क्रान्ताः २ मण प्रवृल्या सन पूजसने माटे त५ ५२ छ, 'जन्नेवन्ने वियाणवि. यत् नैव विजानन्ति' तेथी दानमा श्रद्धा सा भीnait तो नही सु० ८९ For Private And Personal Use Only Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ७०६ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे 'अन्वयार्थः -- (तेसिंवितवो ण सुद्धो) तेषां तपोऽपि न शुद्धम् (जे महाकुला 'निक्खता) ये महाकुलाः - इक्ष्वाक्क दिकुलोत्पन्नाः प्रव्रज्यामादाय निष्क्रान्ताः लोकसत्कारार्थ तपः कुर्वन्ति (जन्नेवन्ने त्रियाणंति) यत् नैव अन्ये विजानन्ति :क्रियमाणमपि तो नान्ये जानन्ति तत् तथाभूतमात्मार्थिनो विधेयम् (न सिलोगं पवेज्जए) न श्लोकम् आत्मश्लाघां नैव मवेदयेत् - प्रकाशयेदिति ॥२४॥ -- टीका - - ' तेर्सि वि तेषामपि 'तो' तपः संयमानुष्ठानं च 'ण सुद्धो' न शुद्धम् - न पवित्रम् 'जे य' ये च 'महाकुला' महाकुलाः- लोके प्रसिद्धा इक्ष्वा कुपभृतिकुले समुत्पन्नाः तेषामपि तपः सत्कारायर्थे वा सम्यक् प्रकीर्तितम् । 'जन्ने बन्ने विषाणति' यत् क्रियमाणं तपः 'नेवन्ने' नैवान्ये- दानश्रद्धावन्तोऽपरे न 'त्रियाणंति' विजानन्ति तथा श्रेयोऽर्थिभिः कर्त्तव्यम् 'न सिलोग श्लोकं - करना चाहिये 'न सिलोगं पवेज्जए-न श्लोकम् प्रवेदयति' तथा तप-स्थियों को अपनी प्रशंसा भी न करनी चाहिये ||२४|| अन्वयार्थ -- उनका तप शुद्ध नहीं है जो इक्ष्वाकु आदि बड़े कुलों में जन्म लेकर, दीक्षित हो कर निकले हैं किन्तु लोक सत्कार के लिए तप करते हैं। अतएव साधु को ऐसा तप करना चाहिए कि दूसरों को उसका पता ही न चले अर्थात् जिसमें इस लोक और परलोक की आशंसा (वांछा) न हो, उसे अपनी प्रशंसा भी नहीं करनी चाहिए | २४| टीकार्थ -- जो लोकप्रसिद्ध इक्ष्वाकु आदि महाकुलों में उत्पन्न हुए हैं और प्रव्रज्या अंगीकार करके गृहत्यागी बने हैं किन्तु लौकिक सरकार सन्मान पाने की कामना से प्रेरित हो कर तप करते हैं, उनका भी तप त्रिशुद्ध नहीं है । आत्मकल्याण के अभिलाषी को ऐसा तप करना ते प्रमाणे आत्मथिं मे तय ४२ हाये. 'न सिलोग' पवेज्जए-न लोकम् प्रवेदयति' तथा तपस्विये पोतानी प्रशंसा पशु १२वी न हो ॥२४॥ અન્નયા —જે ઈક્ષ્વાકુ વગેરે પ્રસિદ્ધ વશમાં જન્મ લઈને દીક્ષિત થઇને નીકળ્યા છે, પરંતુ લેકના સત્કાર માટે તપ કરે છે, તેઓનુ તપ શુદ્ધ નથી. એથી કરીને સાધુએ એવુ· તપ ક ્વુ. ઐઇએ કે- મીજાઓને તેની જાણું જ ન થાય, અર્થાત્ જેમાં આ લેાક અને પરલેાકની આશંસા (ઈચ્છા) ન હોય, તેણે પેાતાની પ્રશંસા પણ કરવી ન જોઈએ. ા૨૪૫ ટીકા—જેએ લાક પ્રસિદ્ધ ઈક્ષ્વાકુ વગેરે મહાકુળામાં ઉત્પન્ન થયા હાય છે, અને પ્રવ્રજ્યા સ્વીકારીને ગૃહનેા ત્યાગ કરવાવાળા બન્યા હાય છે, પરંતુ લૌકિક સત્કાર અને સન્માન મેળવવાની ઇચ્છાથી પ્રેરઇને તપ કરે છે, તેઓનું તપ પણ શુદ્ધ હેતુ નથી. આત્મકલ્યાણને ઇચ્છનારાઓએ એવું For Private And Personal Use Only Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ.८ उ.१ वीर्यस्वरूपनिरूपणम् Gov स्वकीयमशंसां स्वमुखान्नैव-कथमपि 'पवेज्जए' प्रवेदयेत्-कथयेत्, अहमेतार आसम्-इदानीं तपसा प्रवृद्ध इत्यादि स्वप्रशंसां नैव कुर्यात् । 'तपः क्षरति-नश्यति कीर्तनात्' इति नीत्या । ये च महति कुले प्राप्त जन्मानः स्वतपः प्रशंसन्ति, अथवा -सत्कृतिपूजोपलब्धये तप कुर्वन्ति, तेषां तत्तपः ततःप्रभृति क्षीयते चौराग्रे धनप्रकाशनवत् अतः सत्साधुभिः स्वीयं तपो गोपनीयमेव, न पुनः स्वमुखेनाख्यातव्यमिति ।२४॥ मूलम्-अप्पपिंडासि पाणासि, अप्पं भासेज्ज सुवए । खंतेऽभिनिव्वुडे दंते, वीयगिद्धी संदा जए॥२५॥ चाहिए जिसे गृहस्थ आदि जान भी न सकें । तथा अपने मुख से अपनी प्रशंसा कदापि नहीं करनी चाहिए कि मैं ऐसा था और अब ऐसा उग्र तप कर रहा हूँ। इत्यादि । क्यों कि स्वयं प्रशंसा करने से तप भंग हो जाता है-निष्फल बन जाता है। ___ आशय यह है-जिन्होंने महान कुलों में जन्म लिया है और जो दीक्षित हो कर तप तो करते हैं किन्तु अपने तप की प्रशंसा करते हैं या सत्कार पूजा के निमित्त ही तपस्या करते हैं उनका तप क्षीण हो जाता है। अतएव मोक्षाभिलाषी साधुओं को अपना तप गुप्स ही रखना चाहिए, चोर के सामने अपने धन को प्रकट करने के समान अपने मुख से तप की प्रशंसा नहीं करना चाहिए ॥२४॥ તપ કરવું જોઈએ કે જેથી ગૃહસ્થ વિગેરે જાણી પણ ન શકે, તથા પિતાના મુખેથી પોતાની પ્રશંસા કઈ પણ સમયે કરવી ન જોઈએ કે-હું આવા પ્રકારને હતું, અને હાલમાં આવું ઉગ્ર તપ કરી રહ્યો છું. ઈત્યાદિ કેમ કે સ્વયં પ્રશંસા કરવાથી તપને ભંગ થઈ જાય છે. અર્થાત્ તપનુષ્ઠાન નિષ્ફળ થઈ જાય છે. કહેવાનો આશય એ છે કે જેઓએ શ્રેષ્ઠ માં જન્મ ધારણ કરેલ છે, અને જેઓ દીક્ષા ધારણ કરીને તપતે કરે છે, પરંતુ પિોતે કરેલા તપની પ્રશંસા (વખાણ) કરે છે, અથવા સરકાર-પૂજાને માટે જ તપનું આચરણ કરે છે, તેઓનું તપ ક્ષીણ થઈ જાય છે તેથી જ મેક્ષની કામના વાળા સાધુઓએ પોતાનું તપ ગુપ્ત જ રાખવું જોઈએ જેની સામે પોતાનું ધન બતાવવાની જેમ પોતાના મુખેથી પોતાના તપની પ્રશંસા કરવી नन. ॥२४॥ For Private And Personal Use Only Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतानसूत्रे छाया--अल्पपिण्डाशी पानाशी, अल्पं भाषेत सुव्रतः। क्षान्तोऽभिनिवृतो दान्तो, वीतगृद्धिः सदा यतेत ॥२५॥ अचयार्थ:--(अप्पपिंडासि) अल्पपिण्डाशी-अल्पाहारकरणशीलः (पाणासि) पानाशी-अल्पजलाभ्यवहरणवान् (सुब्बए) सुव्रता-साधुः (अप्पं मासेज्ज) अल्पंपरिमितं च भाषेत (खते अभिनिव्वुडे) क्षान्तः-शान्तिप्रधानः अभिनितो लोभादिजयान्निरातुरः (दंते वीतगिद्धी सदा जए) दान्तो-जितेन्द्रियः बीतगृद्धिःआशंसादोषरहितः सदा-सर्वदा सर्वकालं संयमानुष्ठाने यतेत-यत्नं कुर्यादिति।२५। 'अपपिंडासि' इत्यादि। शब्दार्थ--'अप्पपिंडासि-अल्प पिण्डाशी' साधु उदर निर्वाह के लिये अल्प आहार करे 'पाणासि-पानाशी' और जल पान भी थोडा करे 'सुब्बए-सुव्रता' साधु पुरुष अप्पं भासेज्ज-अल्पं भाषेत' थोडा पोले अर्थात् विना प्रयोजन न बोले 'खंते अभिनिचुडे-क्षान्तः अभि. निर्वृतः' एवं क्षमाशील लोभादि रहित 'दंते वीत गिद्धी-दान्तः बीतगृद्धि' जितेन्द्रिय और विषय भोग में आसक्ति रहित होकर सदा संयमका अनुष्ठान करे ॥२५॥ ___ अन्वयार्थ-साधु अल्पाहारी हो, अल्प जल का पान करे, अल्प भाषण करे, क्षमाशील हो, लोभ आदि को जीत कर आतुरतारहित हो, जितेन्द्रिय हो और गृद्धि रहित हो। सदा संयमानुष्ठान में उद्योग करने वाला हो ॥२५॥ 'अप्परिडासि' या Avai --अप्पपिंडासि-अल्पपिण्डाशी' साधु १२ निर्वाड भाटे ५६५ माहार ४३ 'पाणासि-पानाशी' ने १३५ ५५५ थोड ४३ 'सुब्बए-सुव्रतः' साधु ५३५ 'अप्पं भाज्ज-अल्पं भाषेत' या माये मात् प्रयो १२ मे.नही खते अभिनिव्वुडे- क्षान्तः अभिनितः' क्षमाशील थी हित 'दंते वीतगिद्धी-दान्तः वीतगृद्धिः' तेन्द्रिय तथा विषयलागोभी मालित विनाना થઈને સદા સંયમનું અનુષ્ઠાન કરે પરપા અનયાર્થ–સાધુએ અલપાહારી હોવું જોઈએ, અપજલનું પાન કરવું જોઈએ અ૮૫ બેલિવું જોઈએ. લેભ વિગેરેને જીતીને આતુર પણ વિના રહેવું. જીતેન્દ્રિય થવું અને ગૃદ્ધિ-આસક્તિ વિના રહેવું. તથા હમેશાં સંય. મના અનુષ્ઠાનમાં ઉદ્યોગ પરાયણ રહેવું જોઇએ. પર પા For Private And Personal Use Only Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र.श्रु. अ. ८ उ.१ वीर्यस्वरूपनिरूपणम् टीका-- 'अप्पपिंडासि' अल्पपिण्डाशी, अल्पं पिण्डम् अशित-भोक्तुं शीलं यस्य सोऽल्पपिडाशी, अन्तमान्तादिकस्यापि अत्यल्पस्यैव भोजनशीलः। तथा'पाणासि' अल्पपानाशी-आहारवदल्पजलाशी, उक्तंच भोजनविषये "हे जंव तंत्र पीय जत्थ व तत्थ व सुहोवगयनिहो । जेणेव तेणेव संतुट्ट वीरा मुणिओसि ते अप्पा ॥१॥ अट्ठ कुक्कुडिअंडगमेत्तप्पमाणे कवठे आहारं आहारेमाणे अप्पाहारे इत्यादि । छाया--यद्वा तद्वा अशित्वा यत्र वा तत्र वा सुखोपगतनिद्रः। येन वा तेन वा सन्तुष्टः हे वीर ! ज्ञातोऽस्ति त्वयाऽऽस्मा ॥१॥ - अष्ट कुक्कुटाण्डकपमाणान् कवलानाहारमाहरनल्पाहार इत्यादि। टीकार्थ--साधु को स्वल्प आहार करना चाहिए । अन्त प्रान्त आहार भी अधिक नहीं करना चाहिए। आहार के समान जल का पान भी अल्प करना चाहिए। भोजन के परिणाम के विषय में आगम में कहा है-'जो भी मिल गया उसे खा लिया, जहाँ-तहाँ-कहीं भी सुख की नींद से सो लिया जो भी प्राप्त हो गया उसमें संतुष्ट रहा! हे वीर! तूने आस्मा को पहिचाना है ॥१॥ ___ मुर्गी के अण्डे के बराबर आठ कवल प्रमाण आहार करने वाला अल्पाहारी कहलाता है, बारह कवल प्रमाण आहार करने वाला अपार्द्ध अवमोदरिक कहलाता है, सोलह कवल प्रमाण आहार करनेवाला विभाग प्राप्त आहारी कहलाता है, चोयोस कवल प्रमाण आहार करने वाले ટીકાર્ય–સાધુએ અલ્પ એટલે કે સૂક્ષ્મ પ્રમાણમાં આહાર કરવો જોઈએ. અતપ્રાન્ત અ હાર પણ વિશેષ પ્રમાણમાં લેવો ન જોઈએ. આહાર પ્રમાણે જળ પણ અલ્પ પ્રમાણમાં લેવું જોઈએ. આહારના પ્રમાણના સંબંધમાં આગમમાં કહ્યું છે કે જે કાંઈ પ્રાપ્ત થયેલ આહાર હોય તેને લઈને નિર્વાહ કરી લે. જ્યાં ત્યાં કોઈ પણ સ્થળે સુખ પૂર્વકની નિદ્રાથી સુઈ જવું. અને જે કાંઈ પ્રાપ્ત થઈ આવે તેનાથી સંતોષ માની લે. હે વીર તે આત્માને ઓળખ્યા છે. ના મરઘાના ઇંડાની બરાબર આઠ કેળિયાના પ્રમાણુવાળા આહારને ગ્રહણ કરવાવાળાને અપ આહારી કહેવામાં આવે છે. બાર કેળિયાના પ્રમાણવાળા આહાર કરવાવાળાને અપાદ્ધ અવમેરિક કહેવામાં આવે છે. સેળ કેળિયા પ્રમાણ આહાર કરવાવાળાને બે ભાગ પ્રાપ્ત આહાર લેવાવાળે કહેવામાં For Private And Personal Use Only Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७१० सुत्रकृताङ्गसूत्रे यद्वा तद्वा आहारमाहाय्यं यत्र तत्र सुखनिद्रा मासादितः, येन तेन प्रकारेण सन्तुषः, अतस्त्वयाऽऽत्मा ज्ञात इति भावः। एकैककवलस्य न्यूनताकरणेन ऊनोदरता कर्तव्या। एवमेव पाने, पात्रादिसंयमोपकरणेऽपि ऊनोदरता विधेया। तथा चोक्तम् - 'थोवाहारो थोवणियो य जो! होइ योवनिदो य। ___ थोबोवहि उवगरणो, तस्स हु देवा वि पणमंति' ॥१॥ अवमोदरिक कहलाता है, तीस कवल प्रमाण आहार करने वाला प्रमाण प्राप्ताहारी कहलाता है और बत्तीस करल आहार करने वाला सम्पूर्णाहारी कहा जाता है । प. सूत्र उ. ८॥ अरस विरस आदि का भेद न करके जो भी आहार निर्दोष प्राप्त हो जाय, उसे ही ग्रहण करले । प्रशस्त अप्रशस्त भूमि का विकल्प न करके कहीं भी सुख की नींद से सो ले और जो भी मिल जाय उसी में सन्तुष्ट रहे। ऐसी उदासीन वृत्तिवाला महापुरुष ही आत्मा का ज्ञाता होता है। ___ एक एक कवल की कमी करके ऊनोदरता करनी चाहिए। इसी प्रकार पानी तथा संपम के उपकरण पात्र आदि में ऊनोदरता करनी चाहिए । कहा भी है-'योवाहारो थोवभणिो ' इत्यादि। આવે છે. ચોવીસ કેળીયાના પ્રમાણવાળા આહાર લેનારને અમેરિક કહે. વાય છે, ત્રીસ કેળીયાને પ્રમાણવાળે આહાર લેવા વાળાને પ્રમાણમાતાહારી કહેવાય છે. અને બત્રીસ કોળિયાના આહારવાળાને સંપૂર્ણાહારી કહે. पाय छे. ॥०य. सू. 36 અરસ વિરસ વિગેરેને ભેદ કર્યા વિના નિર્દોષ રીતે જે કાંઈ આહાર પ્રાપ્ત થઈ જાય, તેને જ ગ્રહણ કરી લે. પ્રશસ્ત અથવા અપ્રશસ્ત ભૂમિનો વિકલ્પ ન કરતાં જ્યાં સુખ પૂર્વકની નિદ્રા આવે ત્યાં સુઈ જવું. અને જે કંઈ મલે તેનાથી સંતેષી રહેવું. આવી ઉદાસીન વૃત્તિવાળા મહાપુરૂષ જ આત્મતત્વને જાણવાવાળા થાય છે. એક એક કળીયાને કેમ-છો કરીને ઉનેદરતા કરવી જોઈએ. આજ પ્રમાણે પાણી તથા સંયમના ઉપકરણ પાત્ર વિગેરેમાં ઉનેદરપણું કરવું नसे. यु. ५५ छ 3--थोवाहारो थोवभणियो' त्या १६५ मा १२. For Private And Personal Use Only Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७११ . समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ८ उ.१ वीर्यस्वरूपनिरूपणम् छाया---स्तोकाहारः स्तोकमणितश्व, यो भवति स्तोकनिद्रश्च । स्तोकोपधिकोपकरणः, तस्मै खलु देवा अपि प्रणमन्ति ॥ 'मुन्नए' सुव्रतः-मुष्ठु महान तपालको मुनिः 'अप्प' अल्पमेव 'भासेज्जा' भाषेत-अल्पं हितं सत्यं च वदेत् न बहु वदेदितिभावः । 'खते' क्षान्त:-क्रोधादीनामुपशमात् शान्तिप्रधानो भवेत् । तथा-'अभिनिव्वुडे' अभिनिवृतः-लोभमानमायादीनामान्तरशत्रूणां जयकरणात, उपशान्तो भवेत्। तथा-दंते' दान्तः, जितेन्द्रियो भवेत् । एवम् 'वीतगिद्धी' वीतगृद्धिः, वीता-विगता गृद्धि:अमिकाइक्षा यस्य स वीतगृद्धिः-आशंसा दोषरहितः 'सदा जए' सदा यतेत सदासर्वकालमेव यतेत-संयमानुष्ठाने यत्नं कुर्यात् : साधुभिः संयमयात्रानिर्वाहार्थ मल्प. ___ जो अल्पाहारी, अल्पभाषी, अल्पनिद्रालु, अल्पउपधिमान और अल्प उपकरणवान होता है, देवता भी उसको नमस्कार करते हैं। हे सुव्रत ! (सुन्दर व्रतवाले शिष्य) अल्प, हितकर और सत्य ही पोलो अधिक नहीं। क्रोध, मान, माया, लोभ आदि आन्तरिक शत्रुओं को जीत कर उपशान्त होओ, जितेन्द्रिय बनो। जिसके कषायों का उच्छेद (विनाश) नहीं हुआ, जिस का मन वशीभूत नहीं हुआ और इन्द्रियों का गोपन नहीं हुआ, उसकी दीक्षा आजीविका का साधन मात्र है ॥१॥ इसी प्रकार साधु गृद्धि से रहित हो और कामवासना से रहित हो। इस प्रकार वह सर्वदा ही संयम के अनुष्ठान में संलग्न बना रहे। વળ, અ૫ બેલનાર, અલ્પ નિદ્રા લેનાર અલ્પ ઉપધિવાળો તથા અલ્પ ઉપકરણવાળો હોય છે, તેવા પુરૂષને દેવે પણ નમસ્કાર કરે છે. હે સુવત! (સુંદર વ્રતવાળા શિષ્ય) અલ્પ, હિતકર અને સત્યજ બોલે વધારે પડતું નહીં. કોઇ વિગેરે કલાને ઉપશાંત કરીને ક્ષમાશીલ બને ક્રોધ, માન, માયા, લેભ વિગેરે આંતરિક શત્રુઓને જીતીને ઉપશાન બને, જીતેન્દ્રિય બને જેઓના કષાયોને ઉચ્છેદ (નાશ) થયેલ નથી જેઓનું મન - વશ થયેલ નથી. અને ઇન્દ્રિયનું ગેપન થયેલ નથી તેની દીક્ષા કેવળ આજીવિકાના સાધન માત્ર જ છે. ૧૫ આજ પ્રમાણે ગુદ્ધિ (આસક્તિ)થી રહિત થવું. તથા કામવાસનાથી રહિત બનવું. અને એ જ પ્રમાણે હમેશાં જ સંયમના અનુષ્ઠાનમાં પ્રવૃત્ત શીલ બનવું. For Private And Personal Use Only Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७१२ सूत्रकृताङ्गसूत्रे मेगन्नं पानं चाऽभ्यवहरगीयम्, तथा-हितं मितमिष्टं वा सत्यमेव वक्तव्यम् । क्षान्तेन दान्तेन विषयविनिव्रतात्मना संयमानुष्ठानतत्परेण भवितव्यमिति भावः ॥२५॥ मूलम्-झाणजोगं समाहटु कायं विउसेज्ज सबसो। तितिक्खं परमं णचा आमोक्खाय परिव ए जासि॥ तिबेमि॥२६॥ छाया--ध्यानयोगं समाहृत्य कायं व्युत्मजेत्सर्वशः। तितिक्षां परमां ज्ञात्वा आमोक्षाय परिव्रजेत् ॥ इति ब्रवीमि ॥२६॥ आशय यह है-साधु को उदर पूर्ति के लिए अल्प आहार तथा परिमित आहार पानी का सेवन करना चाहिए, परिमित सत्य वचनों का ही प्रयोग करना चाहिए शान्त दान्त और विषयों से विरक्त होना चाहिए । सदा संयमपरायग रहना चाहिए ॥२५॥ 'झाणजोगं समाहर्ट्स' इत्यादि । शब्दार्थ-'झाणजोग-ध्यानयोगम्' साधु चित्त निरोध लक्षण वाले धर्मध्यानादि को 'समाहटु-समाहृत्य' ग्रहण करके 'सब्यसो कायं विउसेजज-सर्वशः कायं व्युत्मजेत्' सब प्रकार से शरीरको बुरे व्यापरोसे रोके 'तितिक्ख परमं णच्चा-तितिक्षां परमां ज्ञात्वा' परीषह तथा उपसर्ग के सहन को सबसे उत्तम समझकर 'आमोक्खाए-आमो क्षाय' मोक्ष की प्राप्ति पर्यन्त संयमका अनुष्ठान करे 'त्तिबेमि-इति ब्रवीमि' ऐसा मैं कहता हूँ ॥२६॥ કહેવાનો આશય એ છે કે-સાધુએ ઉદર પૂર્તિ માટે અલ્પ આહાર તથા પરિમિત આહાર પાણીનું સેવન કરવું જોઈએ. પરિમિત સત્ય વચન જ બોલવા જોઈએ. શાન્ત દાન્ત અને વિષયેથી વિરકત બનવું જોઈએ. સર્વદા સંયમ પરાયણ રહેવું જોઈએ. પાપા 'झाणजोग समाहटु' त्यहि शहाथ-'ज्ञाणजोग-ध्यानयोगम्' साधु वित्त निरोध लक्षाणाम ध्यान.विरेने 'समाहदटु-समाहृत्य' घडए ४ीने 'सव्वसे। कायं विउसेज- सर्वशः कायं व्युत्सृजेत्' या प्रारथी शरीरने १२५ व्यापारथी 0 'तितिक्खं परमं णच्चा-तितिक्षां परमां ज्ञात्वा' परीष भने 6५ । २ हनने ५५.था तम समलने 'आमोक्खाए-आमोक्षाय' भाक्षनी प्राति पय-त सयभनु अनुडान घरे. 'त्तिबेमि-इति ब्रवीमि' को प्रमाणे छु. ॥२६॥ For Private And Personal Use Only Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समथार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ८ उ. १ वीर्यस्वरूपनिरूपणम् ७१३ अन्वयार्थ:--'झाणजोग) ध्यानयोग-ध्यानं मनोनिरोधलक्षणं धर्मध्यानादिकम् , तत्र योगः-विशिष्टमनोवाकायव्यापार स्तम् (समाहर्ट्स) समाहृत्य सम्य. गुपादाय (सनसो कार्य विउसेज्ज) सर्वशः-सर्वप्रकारेण कायं-देहमकुशलयोगप्रवृत्तं व्युस्सृजेत्-परित्यजेत् (तितिकावं परमं गच्चा) तितिक्षा-परीपहोपसर्गसहनलक्षणां परमां-प्रधानां ज्ञात्वा (आमोक्खाय परिवरज्जासि) आमोक्षायमोक्षपर्यन्तम् अशेषकर्मक्षयो यावद्भवेत्तावत्पर्यन्तं परिव्रजेद-संयमानुष्ठानं कुर्यात् (निवेमि) इति ब्रवीमि ॥२६॥ __टीका--अध्ययनार्थमुपसंहरन्नाह-'झाणजोग' इत्यादि । 'झाण' ध्यानम्मनसो निरोधस्वरूपम्, धर्मध्यानादिकं वा-तस्मिन् ध्याने योग:-विलक्षणमनोवाकायव्यापारः, तं तादृशं शनयोगम् 'समाहर्ट्स' समाहृत्य-सम्यगुपादाय 'कार्य' शरीरम्-अकुशलकाययोगमवृत्तम् 'विउसेज्ज' व्युत्सृजेत्-परित्यजेत् । 'सबसो' सर्वतः सर्वप्रकारेण कस्यापि-कथमपि यथा पीडा न भवेत् । तथा हस्तपादादि पारयेत् । तथा-'तितिक्वं' तितिक्षा-शान्ति परीषहोपसहनस्वरूपाम् 'परम' ___ अन्वयार्थ-ध्यानयोग को सम्यक् प्रकार से ग्रहण करके, पूर्णरूपेण काय का व्युत्सर्ग करे अर्थात् शरीर को अकुशल व्यापार में प्रवृत्ति न होने दे । तितिक्षा अर्थात् विविध प्रकार के परीषहों और उपसर्गों संबंधी सहिष्णुता को उत्तम समझ कर समस्त कर्मों का क्षय जब तक न हो जाय तब तक संयम का पालन करे। त्ति बेमि-ऐसा मैं कहता हूँ ॥२६॥ टीकार्थ---अध्ययन के अर्थ का उपसंहार करते हुए सूत्रकार कहते हैं-ध्यान अर्थात् चित्त के व्यापार के निरोध या धर्मध्यान आदि में योग को धारण करके. अकुशल व्यापार में प्रवृत्त शरीर का परित्याग करे। અન્વયાર્થ– સારી રીતે ધ્યાન ને ગ્રહણ કરીને પૂર્ણ રૂપથી કાયને ત્યાગ કરે. અર્થાત્ શરીરને અકુશલ પ્રવૃત્તિમાં પ્રવૃત્ત બનવા ન દે. તિતિક્ષા અર્થાત અનેક પ્રકારના પરીષહ અને ઉપસર્ગ સંબંધી સહિણુ પણાને ઉત્તમ સમજીને સમસ્ત કર્મોને ક્ષય જ્યાં સુધી ન થાય ત્યાં સુધી સંયમનું पासन ४२ 'त्ति बेमि' मा प्रमाणे ४७. ॥२६॥ ટીકાર્ય–અધ્યયનના અર્થને ઉપસંહાર કરતાં કહે છે કે-ધ્યાન અથવા ચિત્તના વ્યાપારનો નિરોધ (કવું) અથવા ધર્મધ્યાન વિગેરેમાં વેગને ધારણ કરીને, અકુશળ વ્યાપારમાં પ્રવૃત્ત શરીરને ત્યાગ કરે. પિતાના स० ९० For Private And Personal Use Only Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतास्त्रे परमाम्-प्रधानां सर्वत उत्कृष्टामिति यावत् ‘णचा' ज्ञात्वा 'आमोक्खाय' आमोक्षाय-मोक्षपर्यन्तं यावन्मोक्षं न लभते तावत्पर्यन्तम् 'परिव्वएज्जासि' परिव्रजेत्संयमानुष्ठानं कुर्यात् । साधुयानयोगमाश्रित्याऽशुभमनोवाक्कायव्यापारविवर्जितः- उपसर्गादि सहमानः अशेषकर्मक्षयं यावत् संयमपालने तत्परो भवेदिति भावः। 'त्तिवेमि' इत्यहं ब्रवीमि । इति सुधर्मस्वामिवाक्यम् ॥२६॥ इति श्री-विश्वविख्यातजगद्वल्लभादिपदभूषितबालब्रह्मचारि - जैनाचार्य' पूज्यश्री-घासीलालव्रतिविरचितायां श्री मुत्रकृताङ्गसूत्रस्य "समयार्थबोधिन्या ख्यायां" व्याख्यायां वीर्याख्यानम् अष्टममध्ययनं समाप्तम् ॥८-१॥ अपने हाथ पग आदि अवयवों का ऐसा प्रयोग करे कि किसी प्राणी को तनिक भी पीड़ा न पहुँचे । तथा सहनशीलना को सर्वोत्कृष्ट जान कर जब तक समस्त कर्मों का क्षय न हो जाय तष तक संयम का पालन करे। आशय यह है कि साधु ध्यान योग का अवलम्बन करके मन वचन काय की प्रवृत्ति को रोक दे और उपसर्ग आदि को सहन करता हुआ कर्मक्षय पर्यन्त संयमपालन में तत्पर रहे। सुधर्मा स्वामी जम्बू स्वामी से कहते हैं-हे जम्बू ! जैसा मैंन भगवान से सुना है ऐसा मैं तुझे कहता हूँ ॥२६॥ जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजी महाराजकृत 'सूत्रकृता गावूत्र' की समयार्थयोधिनी व्याख्या का आठवाँ अध्ययन समाप्त ॥८-१॥ હાથ પગ વિગેરે અવયવોને એ પ્રગ કર કે કોઈ પણ પ્રાણિને જરા પણ પીડા ન થાય, તથા સહનશીલ પણાને સર્વોત્તમ માનીને જ્યાં સુધી સમસ્ત કર્મોને ક્ષય ન થઈ જાય ત્યાં સુધી સંયમનું પાલન કરવું. કહેવાને આશય એ છે કે-સાધુએ ધ્યાન વેગનું અવલખન કરીને મન, વચન અને કાયની પ્રવૃત્તિને રોકી દેવી તેમજ ઉપસર્ગ વિગેરેને સહન કરતા થકા કમ ક્ષય સુધી સંયમ પાલનમાં તત્પર રહેવું. સુધમાં સ્વામી જંબૂવામીને કહે છે કે-હે જંબૂ જે રીતે મેં ભગવાન પાસેથી સાંભળ્યું છે તે જ પ્રમાણે મેં તમને કહેલ છે. જૈનાચાર્ય જૈનધર્મદિવાકર પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ કૃત સૂત્રકૃતાંગસૂત્રની સમયાર્થ બેધિની વ્યાખ્યાનું આઠમું અધ્યયન સમાપ્ત ૮-૧ For Private And Personal Use Only Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पृ. ૭ पंक्ति ૫ सूत्रकृताङ्गसूत्र भा. दूसरे का शुद्धिपत्रक भाषा अशुद्धि ગુજરાતી १४२ हिन्दी ગુજરાતી ફૂસયેલી हिन्दी करको भाति भांति ફસાયેલી घरको ૩૧ ३८ ८० १०३ ૧ ४ ९ ३ वचक - वधक संस्कृत कट्ट रागः एकरयं १३२ कटु तत्र रागः एकात्यं जैनाचार्य चापरात जैनाचाय १५२ चापरहने ૧૯૪ ૧ તિરકસ ११८ કષાન કષાયોના २२४ हाता होता पूति पूर्ति ५१८ मूल हिन्दी ५८६ ५९४ ६१२ ५ ५ १ संस्कृत ગુજરાતી खत्तीण से जहा इसको वासुदेव दंतवक्के देव समझना। शील शीतल थम प्रथम कम्मी जगा कम्मी जणा એટક એટલે કે શ્રતની પિતાવી પિતાની ધને ઘાને આલે આવેલે ५ શ્રતની ९४ ११७ ૧૨૧ ११ 3 ૫ , , , For Private And Personal Use Only Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ૧૭૦ ૫ પ્રતિપદન ૨૧૪ મામાં ૩૧૫ અવે આવ્યા છે. ૩૧૫ પ્રતિપાદન આત્મા આવે આવ્યા છે. લેઢાના મોટી વૈક્રિય લેઢાના ૩૮૨ મેટી વક્રિય ૪૩૧ ૪૩૨ ૪૫૮ ४८१ ૫૦૭, ५२६ ૫૨૭ નિરધ ૫૧૮ જ્ઞાતા પુત્ર જ્ઞાત પુત્ર શંકનુ શંકાનું હેય છે. હોય છે. મોક્ષ શસ્ત્રોએ શસ્ત્રોએ નિરવદ્ય दंतवक्के सेटे ને બદલે વાસુ દેવ સમજના ઉડે અભ્યાસ કર્યો કેવલ જ્ઞાનથી જાણે વિરોધના જળરક્ષણ જળ રાક્ષસ ખુશામત ખુશામત અનુમદન અનુક્રમ સામરોપમ સાગરેપમ ५६१ પ૭ર ५९५ ६५८ समाप्त For Private And Personal Use Only Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only