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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ७ उ. १ कुशीलवतां दोष निरूपणम् ५८१ छाया-संबुध्यध्वं जंतवो मनुष्यत्वं दृष्ट्वा भयं बालिशेनालभ्यः। एकान्तदुःखो चरित इव लोकः स्वकर्मणा विपर्यासमुपैति ॥११॥ अन्वयार्थ:- (जंतवो) हे जन्तवः हे पाणिनः (माणुसत्तं) मनुष्यत्व-मनुजभवं दुर्लभ (संबुज्झहा) संबुध्यध्वं-जानीत (भयं दटुं) भयं तिर्यगादिभक्संबंधि दुःखं दृष्ट्वा (बालिसेणं अलंभो) बालिशेन विवेकरहितपुरुषेण अलभ्या उत्तमविवेको न लभ्यते इत्यति जानीत (लोए) अयं लोकः (जरिए व) ज्वरित इव (एगंतदुक्खे) 'संधुज्झहा जंतवो' इत्यादि। शब्दार्थ-'जंतयो-जंतक' हे जीवों 'माणुसत्तं-मनुष्यत्वं' मनुष्य भव की दुर्लभताको 'संबुझहा-संधुध्यध्वं' समझलो 'भयं दद्दु-भयं दृष्ट्वा भय को अर्थात् नरक तथा तिर्यंच आदि योनि के भय को देखकर 'चालिसेणं अलंभो-धालिशेनालभ्यः' विवेकहीन पुरुष को उत्तम विवे. कका अलाभ जानकर थोध प्राप्त करो 'लोए-लोकः' यह लोक 'जरिए वज्वरित इव' घर से पीडित के जैसा 'एगंतदुक्खे -एकान्तदुःखी' सब प्रकार से दुःखी है 'सकम्मुगा विपरियासुवेइ-स्वकर्मणा विपर्यासमुपैती' यह अपने कर्मसे सुख को चाहता हुआ दुःख को ही प्राप्त करता है॥११॥ ___अन्वयार्थ-हे जीवो ! मनुष्यभव दुर्लभ है, इस तथ्य को समझो। यह भी समझलो कि अज्ञानी जनों को विवेक की प्राप्ति नहीं होती। तिथंच आदि भवों संबंधी भय दुःख को देख कर यह समझो कि यह लोक ज्वरग्रस्त की भाँति एकान्त रूप से दुःखी हो रहा है। वह अपने 'मबुझहा जंतवो' त्याह शा- 'जंतवो-जंतवः' ३ को 'मणुस्सत्तं-मनुष्यत्वं' मनुष्यसनी samana 'संबुज्ज्ञहा-संबुध्यध्वम्' सम । 'भयं दद्रु-भय दृष्ट्वा' मरने अर्थात् न२४ तथा तिय" विगेरे योनीना मयने न४२ 'बालिसेणं अलंभोबालिशेनालभ्यः' विवे बिनाना ५३१ने उत्तम विना ARM सभने माघ पनि 'लोए-लोकः' भी 'जरिएव-ज्वरित इव' ताथी पी। पाभेanीम ‘एगंतदुक्खे-एकान्तदुःखी' मधी शतमी छे. 'सकम्मुणा विपरियासवेइ-स्वकर्मणा विपर्यास मुपैति' मा पोताना भथा सुमन २छता ! દુઃખને જ પ્રાપ્ત કરે છે. ૧૧ છે સૂત્રાર્થ–હે જી ! મનુષ્યભવ દુર્લભ છે, આ તથ્યને સમજે. વળી એ વાત પણ સમજી લે કે અજ્ઞાની જનોને વિવેકની પ્રાપ્તિ થતી નથી. તિર્યંચ આદિ ભોના ભય તથા દુખેને જોઈને એટલું તે સમજી લે કે આ લોક જવરમાં જકડાયેલાની જેમ એકાત રૂપે દુઃખને અનુભવ કરી રહ્યો For Private And Personal Use Only
SR No.020779
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages729
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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