SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 60
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे -- मूल-मायरं पियरं पोस एवं लोगो भविस्सइ । एवं खु लोइयं ताय जे पालतिय मायरं ॥४॥ छाया-मातरं पितरं पोषय एवं लोको भविष्यति । एवं खलु लौकिकं तात ! ये पालयन्ति मातरम् ॥ ४॥ अन्वयार्थः--(ताय) हे तात (मायरं पियर) मातरं पितरंजननीजनको 'पोस' पोषय पालयेत्यर्थः ‘एवं' एवं मातापितृपोषणेन 'लोगो' लोकः परलोकः (मविस्सइ) भविष्यति (ताय) हे तात (एवं) एवमेतदेव (खु) खल-निश्चयतः (लोय) लौकिकं लोकाचारः (जे) ये (मायर) मातरम् (पालंति) पालयंतीति । तस्य लोको भातीति ॥४॥ आशय यह है कुटुम्बीजन आकर साधु से कहते हैं हे पुत्र तुम्हारा पिता वृद्ध है, भगिनी छोटी है और भ्राता असहाय है। इन तप को तुम कैसे स्थागते हो ? ॥३॥ शब्दार्थ-'ताय तात' हे तात! 'मायरं पियरं-मातरं पितरं माता और पिता का पोस-पोषय' पोषण करो 'एवं-एवम्' माता पिता का पोषण करने से ही लोगो-लोको' परलोक 'भविस्सइ-भविष्यति' होगा 'ताय-तात' हे तात ! 'एवं-एवम्' यही 'खु-खलु' निश्चय से 'लोइयंलौकिक' लोकाचार है कि 'जे-ये' जो 'मायरं-मातरम्' माता को 'पालंति -पालयन्ति' पालन करते हैं उनको परलोक की प्राप्ति होती है ॥४॥ अन्वयार्थ-हे पुत्र! माता पिता का पालन करो। ऐसा करने से तुम्हारा परलोक सुधरेगा। हे पुत्र ! निश्चय ही यही लोक में उत्तम आचार સંયમના માર્ગેથી વિચલિત કરવા પ્રયત્ન કરે છે. આ પ્રકારના અનુકૂળ ઉપસર્ગો આવી પડે ત્યારે અહ૫સાવ સાધુએ સંયમના માર્ગને પરિત્યાગ કરીને ફરી ગૃહવાસને સ્વીકાર કરી લે છે. ગાથા ૩ हाथ-'ताय-तात' तात! 'मायरं पियरं-मातरं पितरं माता मन पितान 'पोस-पोषय' पोषण ४२। 'एवं-एवम्' माता पितातुं पोषः ४२वाथी १ 'लोगो-छोकः' ५२ 'भविस्सइ-भविष्यति' सुधरशे 'ताय-तातः' इतात ! 'एवं-एवम्' मा 'खु-खलु' निश्चययी 'लोइयं-लौकिक' सोयार छ है जे -ये २ 'मायरं-मातरम्' भाताने 'पालंति-पालयन्ति' पासन ४२ छ, तभने परसाउनी प्राति थाय छे. ॥ ४॥ સૂત્રાર્થ–હે પુત્ર! તું માતાપિતાનું પાલન કર. એવું કરવાથી તારે પરલેક સુધરી જશે. હે પુત્ર! લેકમાં તેને જ ઉત્તમ આચાર ગણવામાં For Private And Personal Use Only
SR No.020779
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages729
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy