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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra હી www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे अन्वयार्थः -- (रायाणो) राजानः = चक्रवदियः (य) च पुनः (रायमा) राजामात्याः मंत्रिपुरोहितप्रभृतयः (माहणा) ब्राह्मणा: (अदुवा ) अथवा (खतिया) क्षत्रियाः=६क्ष्वाकुवंशजमभृतयः ( साहुजीविर्ण) साधुजीविनं निरवद्यभिक्षाजीवनशीलम् (भिक्खुर्य) भिक्षुकं साधुं (भोगेहिं) भोगैः शब्दादिविषयभोगैः (निमंतयंति) निमन्त्रयन्ति भोगेष्वासक्ति फारयन्तीत्यर्थः ||१५|| टीका- 'रायाणी' राजानः = चक्रवच्यदयः 'रायमच्चा' राजामात्यादयः मन्त्रिपुरोहितसामन्तादयः 'माहणा' ब्राह्मणाः = ब्राह्मगत्वजातिमन्तो वेदपारगाः 'अदुवा' अथवा 'खत्तिया' क्षत्रियाः क्ष्वाकुवंशप्रभृतयः, एते सर्वे राजादिपभृतयः, 'भोगेहिं' भोगैश्शब्दादिविषयभोगं भोक्तुम्, 'निमंतयंति' निमन्त्रयन्ति आमन्त्रयन्ति भोगं स्वीकारयन्ति । कं निमन्त्रयन्ति तत्रः ह - 'साहुजीवणं' 'साहुजीविर्ण- साधु जीवितम्' उत्तम आधार से जीवन निर्वाह करने वाले 'भिक्खुयं भिक्षुक' साधु को 'भोगेहि भोगेः' शब्दादि विषयभोगों को भोगने के लिए 'निमंतयंति-निमन्त्रयन्ति' आकर्षित करते हैं ||१५|| अन्वयार्थ - राजा, राजमंत्री ब्राह्मग और इक्ष्वाकुवंशीय आदि क्षत्रीय साधु जीवी अर्थात् निरवद्य भिक्षा से जीवन निर्वाह करने वाले भिक्षु को भोगों के लिए आमंत्रित करते हैं, भोगों में आसक्ति उत्पन्न करते हैं ॥ १५ ॥ टीकार्य - चक्रवर्ती आदि राजा, राजमंत्री - पुरोहित, सामन्त आदि, ब्राह्मण अर्थात् ब्राह्मणस्व जाति वाले तथा वेद के पारगामी तथा क्षत्रिय अर्थात् इक्ष्वाकुवंशीय आदि, यह मथ, शब्द आदि विषयों का उपभोग करने के लिए आमंत्रित करते हैं । किसे आमंत्रित करते हैं ? साधु जीवी को अर्थात् जो सम्पम् चारित्र का पालन करके जीवित रहना चाहता है । } जोविनम्' उत्तम आयारने लवन निर्वाह ठरवावा भिक्खुयं - भिक्षुकम्' साधुने 'भोगेहि - भोगेः' शब्द वगेरे विषय लोगोने लोगवना भाटे निमंतयंतिनिमन्त्रयन्ति' माठवित १२ ॥१५॥ ટીકા”—ચક્રવર્તી આદિ રાજા, રાજમંત્રી, પુરાહિત અને સામન્ત આદિ આગેવાન વેદના પારગામી બ્રાહ્મણા તથા ઈક્ષ્વાકુ આદિ ઉત્તમ કુળમાં ઉત્પન્ન થયેલા ક્ષત્રિયે સાધુ જીવને (સમ્યક્ ચારિત્રનું પાલન કરવા માગતા સાધુને –સયમને માર્ગે જ જીવન વ્યતીત કરવા માગતા સાધુને) શબ્દાદિ વિષયે ના ઉપભાગ કરવાને માટે આમત્રિત કરે છે તેએ તેને ભાગા પ્રત્યે આ વાના For Private And Personal Use Only
SR No.020779
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages729
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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