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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६०० सूत्रकृतामा मूलम् -पावाइं कम्माई पकुवतो हि सीओदगं तु जइ तं हरिजा। सिझिसु एंगे दग सत्तघाई मुंसं वयंते जलसिद्धिमाह।१७। छाया--पापानि कर्माणि प्रकुर्वतो हि शीतोदकं तु यदि तद्धरेत् । सिदेययु रेके दकसत्वघातिनो मृषा वदन्तो जलसिद्धिमाहुः ॥१७॥ ___ अन्वयार्थ:--(पाबाई कम्माई पकुव्यतो हि) पापानि प्राणातिपातादिकानि कर्माणि प्रकुर्वतः पुरुषस्य (त) तत् पापं (सीतोदगं जइ हरिज्जा) शीतोदकं यदि हरेत् अपगमयेत् तदा (एगे दगसत्तघाई सिझिसु) एके उदकसत्त्वघातिनो नरा अपि सिद्धयेयुः, अतः (मुसं वयंते जलसिद्धि माहु) मृषावदन्तः जलसिद्धि जलस्पर्श न मोक्षो भवतीति वदन्तः मिथ्यावादिनः इति ॥१७॥ 'पावाईकम्माई' इत्यादि। शब्दार्थ-पावाई कम्माई पकुठवतो हि-पापानि कमौणि प्रकुर्वत' यदि पापकर्म करनेवाले पुरुष के 'तं-तत्' उस पाप को 'सीओदगं तु हरिज्जा-शीतोदकं यदि हरेत्' शीतलजलका स्नान यदि दूर करदे तो 'एगे दगसत्तघाई सिझिसु-एके उदकसत्वघातिनः सिद्धयेयुः' जलके जीवों का घात करने वाले मछुवे आदि भी मुक्ति का' लाभकरें अता 'मुसं वयंत जलसिद्धिमाहु-मृषावदन्तः जलसिद्धिम् आहुः' जो जल स्नान से मुक्ति की प्राप्तिहोना कहते हैं वे असत्यवादी है ॥१७॥ ___ अन्वयार्थ-पाप कर्म करनेवाले पुरुष के पाप को यदि सचित्त जल हरले तो जल के जीवों का घात करने वाले भी सिद्धि प्राप्त कर लेगे ! अतएव जो यह कहते हैं कि जलस्पर्श से मोक्ष होता है, मिथ्या कहते हैं ॥१७॥ 'पावाई कम्माइत्यादि शहा---'पावाई कम्माई पकुव्वतो हि-पापानि कर्माणि प्रकुर्वतः' ने पापम ४२११॥ ५३षना 'तं-तत्' ते ५५ने 'सीओदगं तु हरिजजा-शीतोदक यविहरत पालीथी स्नान मात्र २ रे ते! 'एगे दगसत्तघाई सिझिस-एके उदकसत्वघातिनः सिद्धयेयुः' न वानी घात ४२वावा मछपा विशे३ पर मत प्रातरे मेथी 'मुसं वयंत जलसिद्धिमाहु-मृषावदन्तः जरसिद्धिम् आह" જેઓ જલસ્નાનથી મુક્તિ પ્રાપ્ત થવાનું કહે છે તેઓ અસત્યવાદી છે. ૧૭ સૂત્રાર્થ–પાપકર્મ કરનારા પુરુષના પાપને જે સચિત્ત જળ હરી લે, તે જળના અને ઘાત કરનારા જી પણ સિદ્ધિ પ્રાપ્ત કરી લેતા હેત ! तमेव मानत नथी, तथा २५0 ४ भाक्ष भणे छ,' २ લેઓ કહે છે, તે તેમનું કથન મિથ્યા છે. છેલછા For Private And Personal Use Only
SR No.020779
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages729
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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