SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 578
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृता अन्वयार्थ:-(उज्जालो) उम्बालक:-अग्नि प्रनालकः (पाण निवायएमना) प्रगान काष्ठादिगतान् जीयान् निभातयेत्-विनाशयेत् , तथा (निबावो) निर्वापकः)-अग्नेः शान्तयिता भी (अगणि निवायवेज्जा) अग्नि - अग्निकार्य निपातयेत् उपहत्येव (तम्हा उ) तस्मात्तु-तस्मात् कारणात् (मेहावी) मेधावी (पंडिए) पंडितः सदसद् विवेकवान् 'धम्म समिक्ख' धर्म श्रुतचारिक्षलक्षणं समीक्ष्य दृष्ट्वा (अगणि) अग्निकार्य (ण समारभिज्जा) न-नैव समारभेत्-अग्निकायसमारम्भ न कुर्यादिति ॥६॥ टीका---'उज्जालओ' उज्ज्वालकोऽग्निपदीपकः पुमान् 'पाण' प्राणान् पाणवत इत्यर्थः 'निवायएज्जा' निपातयेत् यः तपनतापनपचनपरिपाचननिवायवेज्जा-अग्नि निपातयेत्' अग्निकायके जीवोंका घात करता है 'तम्हा उ-तस्मात्तु' इस कारण से 'मेहावी-मेघावी' धुद्धिमान् ‘पंडिएपण्डितः' पंडित पुरुष अर्थात् सत् असत् को जाननेवाला पुरुष 'धम्म समिक्ख-धर्म समीक्ष्य' श्रुतचारित्ररूप धर्म को देख कर अगणि-अग्नि' अग्निकायका 'ण समारमिज्जा-न समारभेत' समारंभ न करे ॥६॥ ___ अन्धयार्थ---अग्नि जलाने वाला काष्ठ आदि में रहे हुए जीवों का घात करता है और उसे बुझाने वाला अग्निकायिक जीवों को घात करता है। अतएव मेधावी पुरुष धर्म का विचार करके अग्निकाय का आरंभ न करे ॥६॥ टीकार्थ-जो पुरुष अग्नि जलाता है, वह प्राणों अर्थात् प्राणियों का घात करता है । तपन, तापन, पचन या पाचन आदि के लिए मशिन मालवावाणी ५३५ ५ 'अगणी निवायवेजा-अग्नि निपातयेत्' अभियानो घात 3रे छे. 'तम्हाउ -तस्मात्तु' मा ४२४थी मेहावी-मेधावी' मुद्धिमान् पाडिए-पण्डितः' पति५३५ मर्थात् सत् मसत् ने जाणे पुष 'धम्म समिक्ख-धर्म समीक्ष्य' श्रुतयारित्र ३५ ५ २ ने 'अगणि-अग्नि अनिडाय न 'ण समारभिज्जा-न समारभेत' सभा २ ॥६॥ સૂત્રાર્થ—અગ્નિ સળગાવનાર માણસ કાષ્ઠ આદિમાં રહેલા જીવન ઘાત કરે છે, અને તેને બુઝવનાર અગ્નિકાય જીવોને ઘાત કરે છે. તેથી મેધાવી પુરુષે એ ધર્મને વિચાર કરીને અગ્નિકાયને આરંભ કર જોઈએ नही ॥६॥ ટીકાથે-જે પુરુષ અગ્નિ સળગાવે છે, તે પ્રાણેને (જીને) ઘાત કરે છે. તાપવા માટે, તપાવવા માટે, ખેરાકને રાંધવા કે રંધાવવા આદિને માટે For Private And Personal Use Only
SR No.020779
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages729
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy