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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिमी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. ४ स्खलितस्य साधोरुपदेशः १५१ सात-मोक्षसुखं निरतिशयाऽपरिच्छिन्नम् । सातेन-विषयजनितमुखेनैव जायते । तथा च वचारो वदन्ति-- 'सर्वाणि सत्वानि सुखेरतानि सर्वाणि दुःखाच समुद्विजन्ते । ___ तस्मात्सुखार्थी च सुखाय दद्यात् सुखपदाता लमते मुखानि ॥१॥ न केवलं सुखादेव, सुखमित्यत्र वचनमेव प्रमाणम् , किन्तु युक्तयोऽपि भवन्ति । तथाहि-कारणमनुसरति कार्यम् , यादृशं कारणं नाहगेव भवति कार्यम् , न तु तद्विपरीतम् , यथा वटवीजात् वटांकुरमेव जायते, न तु अस्मादन्यस्य विजातीयस्य । एवमैहलौकिक वादेव मोक्षसुख स्यानतु लोचादि दुःखात् कथमपि तद्विजातीएवं अनन्त सुख विषय जनित सुख से ही उत्पन्न होता है। कहने वाले कहते भी हैं--'सर्वाणि सत्त्वानि सुखेरतानि' इत्यादि। संसार के समस्त प्राणी सुख में रत हैं, सब दुःख से घबराते हैं, अतएव जो सुख का अभिलाषी है वह दूसरों को सुख पहुँचावे । जो दूसरों को सुख देता है वह स्वयं सुख प्राप्त करता है ॥१॥ __ सुख से सुख की प्राप्ति होती है, इस विषय में केवल वचन ही प्रमाण नहीं है बल्कि युक्तियां भी विद्यमान हैं । वह इस प्रकार हैंकार्य कारण का अनुसार करता है । जैसा कारण होता है वैसा ही कार्य होता है उससे विपरीत नहीं होता। जैसे वट के बीज से वट का ही अंकुर उत्पन्न होता है । अन्य वीज से अन्य विजातीय अंकुर उत्पन्न नहीं होता । इसी प्रकार लौकिक सुख से ही मोक्ष का सुख हो सकता है, लोच आदि के दुःख को सहन करने से नहीं । दुःख मेnath 3 –'सर्वाणि सत्त्वानि सुखेरतानि' त्या-- 'ससारमा समस्त प्राgी। सुममा २त (प्रवृत्त) छे. पाहुयथा ગભરાય છે, તેથી એવું કહી શકાય કે જે સુખની અભિલાષા રાખતા હોય તેણે સૌને સુખ આપવું જોઈએ. જે બીજાને દુઃખ દે છે તે પોતે જ भी थाय छे. ॥१॥ સુખ દ્વારા જ સુખની પ્રાપ્તિ થાય છે, આ કથનનું માત્ર વચન દ્વારા જ પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું નથી, પણ તક, દલીલ આદિ દ્વારા પણ તેઓ તેનું સમર્થન કરે છે-કાર્ય કારણનું અનુસરણ કરે છે. જેનું કારણ હોય છે, તેવું જ કાર્ય થાય છે-કારણથી વિપરીત કાર્ય સંભવી શકતું નથી. વડના બીજમાંથી વડનું જ બીજ ઉત્પન્ન થઈ શકે છે. કોઈ પણ બીજ વિજાતીય અંકુરની ઉત્પત્તિ કરી શકતું નથી. એ જ પ્રમાણે લૌકિક સુખ વડે જ For Private And Personal Use Only
SR No.020779
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages729
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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