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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir HT समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ७ उ.१ कुशीलवतां दोषनिरूपणम्-५८५. अन्वयार्थ:-(इह) इहास्मिन् लोके (एगे) एके केचन (महा) मूढाः-विवेक विकलाः (आहारसंपज्जणवज्जणेणे) आहारसंपज्जननवर्जनेन-लवणत्यागेन (मोका पवयंति) भोक्षं प्रदन्ति कथयन्ति (एगे य) एके च केवन मूः सदसद्विवेकविकलाः (सीओदमलेरणेण) शीतोदकसेवनेन मोक्षं प्रदनि तदा (एगे) एके केचन (हुरण) हुतेन-होमकरणेन (मोक्ख पवयंति) मोक्षं प्रवदन्ति इति ॥१२॥ टीका--'इह' मनुष्यलोके मोक्षगमनाधिकारे 'एगे' एके. केचन अज्ञातशास्त्रतत्त्वज्ञाः 'मूढा' मू:-सदसद्विवेकविकला: 'आहारसंपज्जणवजणेणं' आइरसंपज्जननवर्जनेन, आहिगते तृप्त्य इति आहारः ओइनादिः अभ्यवहरणीयं वस्तुजातम् तस्याऽऽहा स्व संपत् रस पुष्टिः, तादी पुष्टि जनयति हति.. आझर___ अन्वयार्थ-इस लोक में कोई कोई मूह जन नमक खाना त्यांगदेने से मोक्ष की प्राप्ति होना.कहते हैं । कोई अज्ञानी शीत सचित्त जल के सेवन से मोक्ष कहते हैं और कोई अविवेकी होम करने से मोक्ष की प्राप्ति होना कहते हैं ॥१२॥ टीकार्थ-मोक्षगमन के अधिकारी इस मनुष्यलोक में शास्त्र के तत्व से अनभिज्ञ एवं सत्-असत् के विवेक से हीन कोई कोई लोग नमक का त्याग कर देने से मोक्ष प्राप्ति होना कहते हैं। मूल गाथा में लवण के लिए 'आहारसंपन्जणण' शब्द का प्रयोग किया है। उसका अर्थ यों है-तृप्ति के लिए जो ओदन आदि का आहरण ग्रहण किया जाना हैं, वह आहार कहलाता है। उस आहार की संपत् अर्थात रस: मुष्टि को जनन-उत्पन्न करनेवाला 'आहारसंपज्जनन' कहलाता है। नमक .. सूत्रा-माम 15 मे ४ भीमान : કરવાથી મોક્ષ મળે છે, તે કઈ અજ્ઞાની જીવ એવું કહે છે કે સચિત્ત શીતળ જળના સેવનથી મોક્ષ મળે છે, તે કઈ અવિવેકી લેકે એવું કહે છે કે હોમ કરવાથી મેક્ષ પ્રાપ્ત થાય છે. ૧૨ ટીકાઈ–મોક્ષગમનના અધિકારી એવા આ મનુષ્યમાં શાસ્ત્રના તત્વથી અનભિજ્ઞ અને સત્ અસના વિવેકથી વિહીન કઈ કઈ પુરું એવું કહે છે કે મીઠાને ત્યાગ કરવાથી મેક્ષ પ્રાપ્ત થાય છે. મૂળ ગાથામાં aq' ने माटे, 'आहारसंपज्जणण' पहनी प्रयोग ४२वामा भन्या छ । અર્થ આ પ્રમાણે થાય છે-તૃપ્તિને માટે જે ભાત આદિ ખાધ પણ લેવામાં આવે છે, તેમને આહાર કહે છે. તે આહારની સંપત એટલે કે તે સહાય वाह (२स)नी पुष्टि ४२ना। ५४ान 'आहार-सम्पज्जनन' माहा२ सम्पत सू०७४ For Private And Personal Use Only
SR No.020779
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages729
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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