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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatith.org www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Acharya Shri Kailassagarsuri ।ए' इत्यादि। समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. २ अनुकूलोपसर्गनिरूपणम् १ मूलम्-चोइया भिक्खुचरियाए अचयंतो जवित्तये। ' तत्थ मंदा विसीयंति उजाणसि व दुब्बला॥२०॥ छाया--नोदिता भिक्षुचर्ययाऽशक्नुवन्तो यापयितुम् । ___ तत्र मन्दा विषीदन्ति उद्यान इव दुर्बलाः ॥२०॥ अन्वयार्थः--(भिक्खुचरियाए) भिक्षावर्यया (चोइया) नोदिताः (जवित्तए) यापयितुम् (अचयंता) अशक्नुवन्तः (तःथ) तत्र-तस्मिन् संयमे (मंदा) मन्दाः अभिप्राय यह है-हे साधो ! आपने दीर्घकालपर्यन्त संयम का अनुष्ठान किया है, अतएव अब स्त्री वस्त्र आदि का उपभोग करने पर भी आप को दोष नहीं लगेगा। इस प्रकार प्रलोभन देकर और विषयभोगों के लिए आमंत्रित करके राजा आदि लोग साधु को पतित करते हैं, जैसे वधक-शिकारी अन्न के कणों से लु भाकर शकर को फंसाते हैं ।।१९। 'चोइया भिक्खुचरियाए' इत्यादि । शब्दार्थ--'भिक्खुचरियाए-भिक्षाचर्यया' साधुओं की मामाचरी को पालन करने के लिए 'चोइया-नोदिताः' आचार्य आदि के द्वारा प्रेरित किए हुए 'जवित्तए-यापयितुम् एवं उस सामाचारी के पालनपूर्वक अपना निर्वाह 'अचयंता-अशक्नुवन्तः' नहीं कर सकते हुए 'मंदा-मन्दाः' अज्ञानिजन 'तत्थ-तन्त्र' उस संयम में 'विसीयंति-विषी. આ કથનને ભાવાર્થ એવો છે કે- સાધે! આપે દીર્ઘકાળ પર્યન્ત સંયમની આરાધના કરી છે, તેથી હવે સ્ત્રી, વસ્ત્ર, આદિને ઉપભોગ કરવા છતાં પણ આપને દોષ લાગશે નહીં! આ પ્રકારના પ્રલોભને દ્વારા રાજા આદિ પૂર્વોક્ત લેકે સાધુને વિષયભેગો પ્રત્યે આકપીને તેનું પતન કરે છે. જેવી રીતે શિકારી રેખાના કણ બતાવીને કરને ફસાવે છે, એ જ પ્રમાણે લેક ગોપભેગની સામગ્રી દ્વારા સાધુને લલચાવીને તેને સંયમના માર્ગથી ચલાયમાન કરે છે. છેલલા 'चोइया भिक्खुचरियाए' त्या शाय-- भिक्खुचरियाए-भिक्षाचर्यया' साधुमानी समायारीने पासन ४२१ना भाट चोइया-नोदित्ताः' माया बगेरेना द्वारा प्रेरित ४२ 'जवित्तए -यापयितुम्' ते साभायारीना पावन पू' पाताने। निर्वाड 'अचयंताअशक्नुवन्तः' ना ४२N Asdi 'मंदा-मन्दाः' भूभ माणूस 'तत्थ-तत्र' समयमा स० ११ For Private And Personal Use Only
SR No.020779
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages729
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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