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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org समयार्थबोधिनी टीका प्र. थु. अ. ३ उ. १ परतीर्थिकैः पीडोत्पादनम् ३३ रागद्वेषाऽधीनाः । 'केई' के पि इत्यंभूताः 'अनारिया' अनार्या:-अहिंसा धर्ममनभिज्ञाः सदाचारे वर्त्तमानं साधु क्रीडामद्वेषाभ्याम् 'लसंति' ऌपर्यंति पीडयन्ति दण्डादिप्रहारैः कटुशन्देर्वा । केचित् अनार्याः आत्मदण्डसमाचाराः तथा विपरीतमतयः रागद्वेषाभ्यां साधु पीडयन्ति इति ||१४|| मूल - अप्पे पलियंते चारो चोरो ति सुवयं । " Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बंधति भिक्खु बाला सायवयण हि य ॥१५॥ छाया - अप्येके पर्यन्ते चारवर इति सुव्रतम् । बध्नन्ति भिक्षुकं बालाः कषायवचनैश्व ||१५|| द्वेष से आपन हैं अर्थात् पाप का आचरण करने में अनुरागी और धर्म का आचरण करने में देवचार हैं-रागी और द्वेषी हैं, ऐसे कोई कोई अनार्य, अहिंसा धर्म के मर्म से अनभिज्ञ लोग सदाचारपरायण साधु को क्रीडा या देव से प्रेरित होकर दण्ड आदि का प्रहार करके अथवा कटुक शब्द कहकर पीडा पहुंचाते हैं । तात्पर्य यह है कि कोई कोई आत्मा के लिए अहितकर आचरण करने वाले और विपरीत बुद्धि वाले लोंग रागद्वेष से प्रेरित होकर साधु को कष्ट देते हैं || १४ || शब्दार्थ- 'अप्पे - अप्येके' कोई 'बाला- बालाः' अज्ञानी पुरुष 'पलि यंसि - पर्यन्ते अनाये इसके आसपास विचरते हुए 'सुब्वयं सुव्रतम्' साधु को 'भिकाgi - भिक्षुकम' भिक्षुक को 'चारो चोगेसि - चारचोर इति' यह गुसचर है अथवा चोर है ऐसा करते हुए 'बर्धति - बध्नन्ति' रस्सी आदि से बचते है तथा 'कापणेहिय कषायवचनैः' कटुवचन कहकर साधुको पीडित करते हैं ||१५| કરે છે અને ધર્માચરણ કરવામાં દ્વેષ યુક્ત છે એવાં રાગ દ્વેષ યુક્ત, અને અહિંસા ધર્મોથી અનભિજ્ઞ કઇ કઇ અનાય લેકે। સદાચાર પરાયણ સાધુને પેાતાના આનંદને ખાતર અથવા દ્વેષભાવથી પ્રેરાઇને લાકડી આદિના પ્રહાર વડે અથવા કટુ શબ્દો વડે પીડા પહોંચાડે છે. આ સમસ્ત કથનને ભાવા એ છે કે કોઈ કેઈ આમહિતના ઘાતક અને વિપરીત બુદ્ધિવ ળા રાગદ્વેષથી પ્રેરાઈને સાધુને કષ્ટ દે છે. ગાથા ૧૪મા शब्दार्थ - 'अपेगे - अप्येके' अर्ध 'बाला- बालाः' अज्ञानी ५३५ 'पलियंतेसिं - पर्यन्ते' अनार्य देशना आश्रयासमा 'मुव्वयं सुव्रतम्' साधुने 'भिक्खुयं -विक्षुकम्' भिक्षुउने 'चारो-चोरोत्ति चारचौर इति' या गुप्तयरे हे अथवा और छेउता 'बंधंति - बध्नन्त' होदरी वगेरेशी मांघे छे तथा 'कसायवयणेहियकषायवचनेः' टु वयन म्हीने साधुने पांडित अर्थात् हुयी रे छे. ||१५|| सू० ५ - For Private And Personal Use Only
SR No.020779
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages729
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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