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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir % - - - समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ.३ उ.३ वादपराजितान्यतीथिकधृष्टता० १२५ दधात तदा संयमयात्रानिर्वाहार्थं याचिताहारादेव दानेन अदत्तादानमृषामापिस्वदोषों स्याताम् यतः दात्रा साधुभ्य एव दत्तं न तु अन्यस्मै दातुमाहारादिकं दत्तमत इमौ दोषौ भवतः इति ॥१६॥ मूलम्-सव्वाहि अणुजुत्तीहि अयंता जवित्तये । तओ वायं णिराकिच्चा (जो वि पग्गन्भिया ॥१७॥ छाया--सर्वाभिरनुयुक्तिभिरशक्नुवन्तो यापयितुम् । ततो वादं निराकृत्य ते भूयोऽपि प्रगल्भिताः ॥१७॥ अन्वयार्थः-(सव्वाहि अणुजुत्तोहि) सर्वाभिरनुयुक्तिभिः सर्वेरेव प्रमाणभूत हैतु. दृष्टान्तः (जवित ये अचयंता) यापयितुमशक्नुवन्तः स्वकीयपक्ष-स्थापयितुमसमर्था हो जाएगी। साधु संयम यात्रा के निर्वाह के लिए आहार की याचना करता है। उसमें से यदि दान दे तो उसे अदत्तादान और मृषावाद दोष होंगे। दाता साधु के उपभोग के लिए आहार आदि देता है, दूसरों को दान देने के लिये नहीं देता दूसरों को तो वह अपने हाथ से स्वयं दे सकता है। ऐसी स्थिति में साधु यदि अन्य याचकों को दान देने लगे तो उसे पूर्वोक्त दोनों दोषों का भागी होना पडेगा॥१६॥ शब्दार्थ--'सब्याहिं अणुजुत्तीहिं-सर्वाभिरनुयुक्तिभिः सप युक्तियों द्वारा 'जवित्तये अचयंता-धापयितुमशक्नुवन्तः' अपने पक्ष की सिद्धि न कर सकते हुये 'ते-ते' वे अन्य तीर्थी 'वायं णिराकिच्चा-वादं निराकृत्य' वाद को छोड़कर 'भुजो वि-भूयोपि'फिर से 'पगम्भियाप्रगल्भिताः' स्वपक्ष की स्थापना करने की धृष्टता करते हैं ॥१७॥ ___ अन्वयार्थ-सभी युक्तियों से अपने पक्ष को सिद्ध करने में असકરે છે. જે તે આહારનું દાન દે, તે તેને અદત્તાદાન અને મૃષાવાદ દેશે લાગે. સાધુના ઉપભેગને માટે દાતા આહારાદિ દે છે, અન્યને દાન આપવાને માટે દેતે નથી. જે અન્યને આપવું હોય તે તે પોતાને હાથે જ આપી શકે છે. આ પ્રકારની પરિસ્થિતિમાં દાતાએ પિતાને અર્પણ કરેલું દાન, જો સાધુ બીજા કેઈને આપી દે તે તેને અદત્તાદાનદેવ અને મૃષાવાદદોષના Hil२ मा ५३ छे. गाथा १६॥ _eli-'सव्वाहि अणुजुत्तीहिं-सर्वाभिरनुयुक्तिभिः' मधी युतियां दी। 'जवित्तये अचयंता-यापयितुमशक्नुवन्तः' याताना पक्षनी सिद्धिनरी शsai 'ते-ते ते अन्यतीथी' 'वायं णिराकिच्चा-वाई निराकृत्य' पाहन छोडीने 'भुज्जोवि -भयोपि' रीने 'पगभिया-प्रगस्मिताः' पोताना पक्षनी स्थापना ४२वानी ધષ્ટતા કરે છે. ૧૭ના સૂવાથ–સઘળી દલિલેને ઉપગ કરવા છતાં પણ જ્યારે તે અન્ય For Private And Personal Use Only
SR No.020779
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages729
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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