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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ६१२ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इन्वारं निस्तीति संबद्धा वैरपरम्परा । यतो हि हिंसा पापमुत्पादयनि प्रापफलं दुःखमिति व्या हिंसा हितांमित्राषिभिरिति ॥७॥ - संपेरायं नियच्छति तदुक्कडकारिणो । रोगदोसस्सिया बाला पाव कुब्वति ते बहुं ॥८॥ ક્ષા छाया सांपर यकं नियच्छन्ति भारमदुष्कृतकारिणः । रागद्वेषाश्रिता बाळाः सम्यं कुर्वन्ति ते बहु ॥ ८ ॥ अन्वयार्थः - ( अतदुक्कडकारिणो ) आत्मदुष्कृतकारिणः- स्वपापविधायिनः सन्तः (संपरायं नियच्छंति) साम्परायिकं कर्म नियच्छन्ति - बध्नन्ति ( रामदोस जीव मारने वाले को मारता है। इस प्रकार जो परम्परा चल पड़ती है, उसका सैकड़ों भवों तक अन्त नहीं आता । हिंसा पाप को जन्म देती है और पाप दुःख का जनक होता है। अतएव जो अपना हित चाहते हैं, उन्हें हिंसा का सर्वथा त्याग कर देना चाहिए ||७|| 'संरा' इत्यादि । शब्दार्थ -- अत्तदुक्कडकारिणो- आत्मदुष्कृतकारिण:' स्वयं पापकरने वाले जीव 'संपरायं नियच्छंति-सांपरायिकम् नियच्छन्ति' सांपराधिक कर्म बांधते हैं 'रागदोसस्सिया ते बाला - रागद्वेपाश्रिताः ते बाला:' राग और द्वेष के आश्रयसे वे अज्ञानी 'बहु पावं कुव्वंति - बहु पापं कुर्वन्ति' बहुत पापकर्म करते हैं ॥ ८ ॥ अन्वयार्थ -- स्वयं पाप करने वाले जीव साम्परायिक (संसार परि જન્મમાં તે જીત્ર મારનારને મારે છે. આ રીતની જે પરંપરા ચાલુ થાય છે तेनो मत से डे। लवे। सुधी भावतो. नथी. हिंसा पापने उत्पन्न करे छे, मने पाया होय छे. तेथी के धरछे छे. तेथे હિં'સાને હુંમેશાં ત્યાગ કરવો જોઇએ. ઘણા पोतानु हित 'संरा' इत्याहि शब्दार्थ -- 'अत्तदुक्कडकारिणो - आत्मदुष्कृतकारिणः' पोते 'संररायं नियच्छं ते सांवरायिकम् नियच्छन्ति' सांप 'रामदोसस्त्रिया से बाल' - रागद्वेषाश्रिताः ते बालाः' राम भने द्वेषना माश्रयथी ते पाश्ववाणा धेछे उर्भ - zulu fag qrá gsåfa-ag 919 gåfa' ug - अन्वयार्थ-स्त्रयं पाय उरवा पाणी ७१ my sal se §. 11 पाय (संसारना For Private And Personal Use Only
SR No.020779
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages729
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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