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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir .- अन्वयार्थः-(बालं) बालं-नारकं (कंदसु) कन्दुषु-कन्दुकाकृतिनरकेषु (पक्खिप्प) मक्षिप्य-पातयित्वा-परमाधामिका (पयंति) पचन्ति (दड्रा) दग्धास्ते भारकाः (तोवि) ततोपि-तस्मादपि स्थानात (पुणो उप्पयंति) पुनरपि उत्पतन्तिउच्छलन्ति तत्रापि (ते) ते नारकनीवाः (उडकाएहिं) ऊर्ध्वकाकैोगका (पखज्जमाणा) पखाधमानाः-भक्षिताः सन्तः (अपरेहि) अपरैरन्यैः (सण'फएहिं) सनखपदैः-सिंहादिभिः (खज्जति) खाद्यन्ते भक्षिता भवन्तीति ॥७॥ टीका-'बालं' बालं-विवेकरहितं नारकिजीवम् 'कंदसु' कन्दुकाकति कुंभीषु 'पक्लिप्प' प्रक्षिप्य-पातयित्वा ते परमाधार्मिकाः ‘पयंति' पचन्ति 'तओवि' ततो. ऽपि तदनन्तरम् 'दड्डा' दग्धाः 'पुण' पुनः 'उप्पयंति' उत्पतन्ति, ऊर्ध्वम् उत्क्षिप्ताः 'तओ वि-ततोपि' वहां से भी 'पुणो उप्पयंति-पुनरपि उत्पतन्ति' फिर ऊपर उछलते हैं 'ते-ते' वे नारकि जीव 'उडकारहि-ऊर्ध्वका?' द्रोण नाम के काक के द्वारा 'पखज्जमाणा-प्रखाद्यमानाः' खाए जाते हैं 'अवरेहि-अपरैः' तथा दूसरे 'सणफएहि-सनखपदैः' सिंह व्याघ्र आदि के द्वारा भी 'खज्जंति-खाद्यन्ते' खाए जाते हैं ॥७॥ ___ अन्वयार्थ-परमाधार्मिक असुर अज्ञानी नारक को कन्दुक (गेंद) के समान आकृति वाले नरक में गिराकर पकाते हैं । दग्ध हुए (अग्नि से जलते हुए) नारक जब उससे ऊपर उछलते हैं तो द्रोण काकों के द्वारा खाये जाते हैं । (नीचे आते हैं तो) सिंह आदि के द्वारा भक्षण किये जाते हैं ॥७॥ टीका-विवेकविकल नारक जीव को कन्दुक जैसी आकृतिवाली कुंभी में गिराकर परमाधार्मिक पकाते हैं । जब वे उसमें जलने के 'पुणो उपयंति-पुनरपि उत्पतन्ति' ५।७। ५२ छणे छे 'ते- ते ना२६ 'उडूढकारहि-ऊर्ध्वकाकैः' द्रो नामना । पक्षिना द्वारा 'पखज्जमाणा-प्रखाधमानाः' an ते 'अवरेहि-अपरैः' wlon 'सणफएहि-सनखपदैः' सिं, पाय वगेरेना वा ५५ 'खजति-खाद्यन्ते' मापामा भावे छे. ॥७॥ પરમાધામિકે અજ્ઞાની નારકેને કÇક (દડા)ના જેવા આકારના નરકમાં નાખીને પકાવે છે. અગ્નિને લીધે દાઝતા નારકે જ્યારે તે જગ્યાએથી ઊંચે ઉછળે છે, ત્યારે દ્રોણ નામના કાગડાએ તેમને ખાવા માંડે છે, જે તેઓ નીચે આવી પડે છે, તે સિંહ આદિ હિંસક જાનવરે તેમનું ભક્ષણ કરે છે. છા ટીકાથ–પરમાધાર્મિક અસુરે તે અજ્ઞાન (વિવેકરહિત) નારકોને દયાના આકારની કુંજીમાં પટકીને પકાવે છે. તે કંપનીમાં જ્યારે For Private And Personal Use Only
SR No.020779
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages729
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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