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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतामसूत्रे - प्रकरणमुपसंहरमाइ-सूत्रकारः-'इच्चे वणं सुसेहंति' इत्यादि । म्लम्-इच्छेवणं सुसेहंति कालुगीये समुटिया। विवद्धो नाइसंगेहि तोऽगार पहावइ ॥९॥ छाया-इत्येव सुशिक्षयन्ति कारुण्यं समुपस्थिताः। विवद्वो ज्ञातिसंगेन ततोऽगारं प्रधावति ॥९॥ अन्वयार्थ:-(ण) ग्वलु (कालणीये समुठिया) कारुण्ये समुपस्थिताकारुण्यमुत्पादयंतः (इच्चे३) इत्येवं पूर्वोक्तरीत्या (सुसेहति) मुशिक्षयंति स चापरिणतधर्मा, नवपत्रजितः (नाइसंगेहि) ज्ञातिसंगैः (विवद्धो) विवद्धा-मातापितपुत्रकलादिमोहितः (तो) ततस्तदनन्तरं (भगारं) अगारं गृहं (पहावा) प्रधावति गच्छतीत्यर्थः ॥९॥ प्रकरण का उपसंहार करते हुए सूत्रकार कहते हैं 'इच्चेव ण' इत्यादि । शब्दार्थ-'णं-खलु' निश्चय 'कालुणिये समुष्टिया-कारुण्ये समु. पस्थिताः' करुणाजनक बन्धुवर्ग के 'इच्थेव-इत्येवम्' इस प्रकार के पूर्वोक्त रीति से 'सुसे हंति-सुशिक्षपन्ति' साधु को शिक्षा देते है अर्थात् समझाने पर 'नाइसंगेहि-ज्ञातिसंगैः' ज्ञातिसंग से 'विवद्धोविवद्धः बंधा हुआ अर्थात् मातापिता पुत्र कलत्रादि में मोहित होकर 'तभो-ततः उस समय अगारं-अगारम्' घर की ओर 'पहावा-प्रधा. वति' जाता है ॥९॥ ___ अन्वयार्थ-करुणा से परिपू में ज्ञातिजन इस प्रकार साधु को सिख लाते हैं । वह नवदीक्षित और अपरिणतधर्मा साधु ज्ञातिजनों के मोह में फंस कर घर चला जाता है ॥९॥ ३ मा ४४२७ने। ७५स!२ 11 सूत्र २ ४ छ-'इच्चेषण' त्याह शण्टा - -खलु' निश्च५ क लुमिये समुद्रिया-कामण्ये समुपस्थिताः' ३६. स.धु ना इचव-इत्येवम्' मा ५२ पूरित शतथी 'सुसेहति-सुशिक्षयन्ति' साधुने शिक्षा है छे १ मथात् समयी 'नाइ. संगेहि-ज्ञातिसंगैः' शातिसगी विवद्धो-विबद्धः' मायेला अर्थात् माता, पिता, पुत्र, सत्र, पमा माहित ने 'त मो-ततः' ते समये अगारं-अगारम' घरनी त२६ 'पहावइ-प्रधावति' लय छे. ८ સૂત્રાર્થ–કુટુંબીઓ અને સગાં-સંબંધીઓ આગળ વર્ણવ્યા પ્રમાણેના કરુણાજનક વચને વડે તે નવદીક્ષિત સાધુને સંસારમાં પાછા ફરવા માટે સમજાવે છે. તેને પરિણામે નવદીક્ષિત અને અપરિણતધર્મા સાધુ જ્ઞાતિજનોના For Private And Personal Use Only
SR No.020779
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages729
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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