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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. म. ३ उ. २ अनुकूलोपसर्गनिरूपणम् ४१ अन्वयार्थ:--(अह) अथ अतिकूलोपसर्गकथनानन्तरम् (इमे) इमे=अनन्तरं वक्ष्यमाणाः (मुहुमा) सूक्ष्मा-परैरलक्ष्यत्वात् (संगा) संगा मातापित्रादिसंबन्धाः (जे) ये संगाः (मिक्खूर्ण) भिक्षूणांसाधूनामपि (दुरुत्तरा) दुरुत्तरादुर्लध्याः (एगे) एके-केचन पुरुषाः (तस्य) तत्रतस्मिन्ननुकूलोपसर्गे (विसीयंति) विषीदन्ति शिथिलाचारिणो भवन्ति संयम वा त्यजन्ति अथवा (जवित्तये) यापयितुम् = संयमे स्वात्मानं व्यवस्थापयितुं (ण चयंति) न शक्नुवन्तिन समर्थाः भवन्तीति ॥१॥ ____ शब्दार्थ-'अह-अध' प्रतिकूल उपसर्ग के कथनानन्तर 'इमे-इमे' ये अनन्तर कहे जाने वाले 'सुहुमा-सूक्षमाः' सूक्ष्म बहार नहीं दिखने वाले 'संगा-संगा' मातापित्रादि एवं बांधव आदि के साथ का संबंधरूप उपसर्ग होते हैं 'जे-ये ये संग 'भिक्खूण-भिक्षूगां साधुओं के द्वारा 'दुरुत्तरा-दुरुत्सरा' दुरुत्तर-अर्थात् दुस्तर हैं' 'एगे-एके' कोई पुरुष 'तस्थ-तत्र' उस संयंवरूप उपसर्ग में 'विसीयंति-विषीदन्ति' विषाद को प्राप्त होते हैं अर्थात् शिथिलाचारी होते हैं अथवा 'जवित्तये-यापयितुम्' संयमपूर्वक अपना निर्वाह करने में 'न चयंति-न शक्नुवन्ति' समर्थ नहीं होते हैं ॥१॥ ___ अन्वयार्थ-यह जो सूक्ष्म अर्थात् दूसरों को प्रतीत न होने वाले संग माता पिता आदि के सम्बन्ध हैं, वे साधुओं के लिए भी दुर्जेय हैं। कोई कोई साधुजन अनुकूल उपसर्गों के आने पर विषाद युक्त हो जाते हैं-शिथलाचारी बन जाते हैं अथवा संयम का त्याग कर बैठते हैं। वे अपनी आत्मा को संयम में स्थिर रखने में समर्थ नहीं होते हैं।१। शहा - 'अह-अथ' प्रतिम ५सना यनानन्तर 'इमे-इमे' मा मानन्त२ ४७वामां मा 'सुहुमा-सूक्ष्माः' सूक्ष्म मार नही मापापासंगा-संगा' भाता पासव' मा वगैरेनी साना स ५३५ ५सयाय छ 'जे-ये' मा स 'भिक्खूण-भिक्षणां' साधुयाना द्वा२। 'दुरुत्तरा-दुरुत्तराः' इत्त२ अर्थात् स्तर छ. 'एगे-एके' ७५३५ 'तत्थ-तत्र' ते ३५ पसभा विसीयति -विषीदन्ति' विषाहने प्राप्त थाय छ, अर्थात् शिथियारी मनी नय. भया 'जवित्तये-यापयितुम्' संयमपूर याताना निवाल ३२वामा 'न चयंति-न शक्नुवति' समय यता नथी. । १॥ સૂત્રાર્થ-આ જે આ સૂફમ-અન્યના દ્વારા જાણવામાં આવનારો-સંગ છેમાતાપિતા આદિને સંબંધ છે, તે સાધુઓને માટે પણ દુર્જાય છે. અનુકૂળ ઉપસર્ગો આવી પડે ત્યારે કોઈ કઈ સાધુઓ વિષાદને અનુભવ કરે છે– -શિથિલાચારી બની જાય છે, અથવા સંયમને ત્યાગ કરી નાખે છે. તેઓ પિતાના આત્માને સંયમમાં સ્થિર રાખી શકવાને સમર્થ હોતા નથી. ૧૫ For Private And Personal Use Only
SR No.020779
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages729
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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