SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 659
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ८ उ. १ वीर्यस्वरूपनिरूपणम् भेदप्रदर्शरपूर्वकमेव वीर्यस् रूम ह -कम्म मेगे पवेदंति' इत्यादि । मूलम्-कम्म मेंगे पैवेदति अकम्नं वावि सुवया। एएहिं दोहि ठाणेहि जेहिं दीसंति मच्चिया॥२॥ छाया-कमै के प्रवेदयन्त्यकर्म वापि सुव्रताः । आभ्यां द्वाभ्यां स्थानानं याभ्यां दृश्यन्ते माः ॥२॥ अन्वयार्थ:-(एगे कम्मं पवेदेति) एके केवन कमैव वीर्य प्रवेदयन्ति कथयन्ति (सुव्यया अकम्मं वा वि) हे सुव्रताः ! केचन अकर्म एव वीर्य कथयन्ति (मच्चिया) मीः (एए हिं) आभ्याम् (दोहिं ठाणेदि) द्वाभ्यां स्थानाभ्याम् (दीसंति) दृश्यन्ते इति ॥२॥ अथ भेद निरूपण करते हुए वीर्य का स्वरूप कहते हैं'कम्म मेगे पवेदंति' इत्यादि। शब्दार्थ-'एगे कम्मं पवेदेति-ए के कर्म प्रवेदयन्ति' कोई कर्म को वीर्य ऐसा कहते हैं 'सुन्वया अकम्मं वावि-सुव्रताः अकर्म वापि' और हे सुत्रतो! कोई अकर्म को वीर्य कहते हैं 'मच्चिया-माः ' मर्त्य लोक के प्राणी 'एएहि-अभ्या' इन्हीं दोहिं ठाणेहि-द्वाभ्यां स्थानाभ्याम् दो स्थानों से 'दीसंति-दृश्यन्ते' देखे जाते हैं ॥२॥ ___अन्वयार्थ हे सुव्रतों ! (अच्छे व्रतवाले भव्यो') कोई कर्म को ही वीर्य कहते हैं, कोई अकर्म को वीर्य कहते हैं। इन्ही दो भेदों में मनुष्य देखे जाते हैं ॥२॥ के लेहोर्नु नि३५ ४२तi वीयर्नु २१३५ ४९ छ. 'कम्ममेगे पवेति' त्यादि शहाय-'एगे कम्म पवेदंति-एके कर्म प्रवेदयन्ति' ३६ भने वाय' मे प्रमाणे छे. 'सुव्वया अकम्मं वावि-सुव्रताः अकर्म वापि' भने सा। प्रतपणा 'भुनिया' 5 समन पीय से प्रभारी छे. 'मच्चिया-माः ' भृत्युसन प्राणी 'एएहि-आभ्यां' मा 'दोहि ठाणेहि-द्वाभ्याम् स्थानाभ्यम्' में स्थानाची 'दीसंति-दृश्यन्ते' हेमाय छे. ॥२१॥ અવયાર્થ–હે સુત્રને (સારાવત વાળા ભ) કેઈ કર્મને જ વીય કહે છે, કેઈ અકર્મને વીર્ય કહે છે ? એ બે ભેદે વાળ મનુષ્યો જોવામાં आवे छे. ॥२॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020779
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages729
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy