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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे D जायार्थ:-- ( अरहंतभासियं) अद्वापितं - तीर्थकरमतिपादितम् (समाहियं ) समाहितं युक्तियुक्तम् (अपमृद्ध अर्थ पदोषशुद्धम्-अः पदैश्च निर्दोषम् ( धम्मे सोचा ) धर्मे - श्रुतचारित्रलक्षणं श्रुखा (तं सद्ददाणा ) तं - धर्ममद्भाषितं श्रद्दधानाः तत्र श्रद्धां कुर्वन्तः (जणा) जनाः- लोकाः (अणाऊ ) अनायुषः - अपगतायुःकर्माणः सन्तः मोक्षं प्राप्नुवन्ति - अथवा - ( इंदा व इन्द्रा इव (देवाहिब ) देवाधिपाः- देवस्वामिन: ( आगमिस्संति) आगमिष्यन्ति - भविष्यन्तीति ॥ २९ ॥ टीका - - ' अरहंतमा सियं' अद्भाषितम् 'समाहिये' समाहितम् युक्तियुक्तम् 'अपवसुद्धं ' अर्थपदोषशुद्धम्, अधैः पतिपाद्याभिधेयैः पदेस्तद्वाचकशब्दैः उपपदोषशुद्धं'- अर्थ और पदों से युक्त 'धम्मं सोच्चा धर्म श्रुत्वा धर्म को सुनकर 'तं सदहाणा-तं श्रद्दधानाः' उसमें श्रद्धा रखने वाले 'जणाजनाः' मनुष्य 'अणाउ - अनायुषः' मोक्षको प्राप्त करते हैं अथवा 'इंदाव इन्द्र इव' वे इन्द्र के जैसे 'देवाहिव देवाधिपाः' देवताओं के अधिपति 'आग मिस्संति - आगमिष्यन्ति' होते हैं ||२९| - अन्वयार्थ - अरिहन्त के द्वारा प्ररूपित, युक्तियुक्त, अर्थ और शब्द दोनों दृष्टियों से निर्दोष धर्म को श्रवण करके, उस पर जो श्रद्धा करते हैं, वे भजन आयुकर्म से रहित हो कर मुक्तिकाभ कर लेते हैं अथवा इन्द्र के समान देवों के अधिपति होते हैं ॥ २९ ॥ टीकार्थ- सर्वज्ञ सर्वदर्शी अरिहन्त भगवन्त द्वारा भाषित युक्ति संगत तथा भाव और भाषा अर्थात् वाच्य और वाचक या अर्थ एवं शब्द दोनों ही दृष्टियों से सर्वधा निर्दोष श्रुतचारित्र रूप धर्म को सुन शुद्ध' अर्थ भने पोथी युक्त 'धम्मं सोच्चा-धर्मं श्रुत्वा धर्मने सांभजीने 'वं मद्दाणा - तं श्राधानाः' तेमां श्रद्धा रामवावाणा 'जणा-जनाः मनुष्य 'अणा - अनायुषः ' भोक्षने प्राप्त मेरे छे. अथवा 'इंदाव - इन्द्र इव' तेथे न्द्र नीम 'देवाहिव - देवाधिपाः' देवताओना अधिपति 'आगमिस्संति - आगमि - व्यन्ति' थाय छे ॥ २८ ॥ સૂત્રા અરિહન્ત ભગવાન્ દ્વારા પ્રરૂપિત, યુક્તિયુક્ત, અ` અને શબ્દ અને દષ્ટિએ નિર્દોષ ધંનું શ્રવણુ કરીને, તેના ઉપર જે શ્રદ્ધા રાખે છે, તે ભવ્ય-જીવા આયુકમ થી રહિત થઇને મુક્તિ પ્રાપ્ત કરી શકે છે, અથવા રવાના અધિપતિ ઇન્દ્રની પદવી તે અવશ્ય પ્રાપ્ત કરે છે. રા मार्थ- सर्वज्ञ, सर्वदृशी अरिहन्त भगवन्ती द्वारा लाषित, युक्तिस વર્ષી ભાવ અને ભાષા એટ્લે કે વાચ્યું અને વાચક અથવા અથ અને For Private And Personal Use Only
SR No.020779
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages729
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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