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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir “समयार्थबोधिनी टीका प्र. शु. अ. ७ उ. १ कुशीलवतां दोषनिरूपणम् ५८३ तदेवं यो धर्म नाचरति तस्य मानुष्यमतिदुर्लभम् । अतो- 'माणुसतं मनुष्यखम् दुर्लभं जानीहि । तथा जन्मजरामरणरोगशोकादि नारकादिषु चाऽतितीत्रम् | 'भयं दट्ठु' भयं दृष्ट्वा 'वालिसे अलंभो' बालिशेन सदसद्विवेकहीनेन पुरुषेण अलभ्यः लघुयोग्य धर्म इत्येदपि दृष्ट्रा विच । तथा निश्चितमग 'एकांत एक दुःखः , : मेर लोकानाम् ' जरिए व' ज्वरित इव यथा ज्वराक्रान्तः एकान्तं दुःखमेाऽनुभवेत्, तथा 'लोए' अयमपि लोको दुःखभाजनम् इत्यवगम्य । 'संबुज्झहा ' संबुध्यध्वम् सम्यग् बोधं प्राप्नुत, सर्वथा दुःखसंकुलोऽयं संसारिनिवहः । क्षुधितो अन्नाभावे यथा पांडय ने, विपासिनो जलमन्तरा, वृश्चिकदष्टः प्रतिक्षणं पीडयते तथैवायं लोको ज्वराकान्त इव सर्वया दुःखितो भवतीति । एवं दुख 24 इस प्रकार जो धर्म का आचरण नहीं करता उसे मनुष्य भव की प्राप्ति होना अत्यन्त दुर्लभ है। इस कारण मनुष्यत्व को दुर्लभ समझो। तथा नारक आदि भव में जन्मजरामरण रोग शोक आदि के दुःख को देखकर तथा अविवेकी जन धर्म को प्राप्त नहीं कर पाते, इस बात का विचार करो । तथा यह भी विचार करो कि यह लोक उसी प्रकार दुखी और संतप्त हो रहा है जैसे ज्वरग्रस्त प्राणी । यह सब विचार -करके सम्प्रकं बोध को प्राप्त करो। जैसे भूखा मनुष्य अन्नके अभाव में पीड़ा का अनुभव करता है 'पिपासा से हमाकुल पुरुष जल के बिना छटपटाता है, बिच्छू का मा प्रतीक्षण तड़कता रहता है, उसी प्रकार यह लोक ज्वराकान्त की भाँति सर्वथा दुःखों से पीड़ित रहता है, इस प्रकार दुःखों से आकुल इस लोक આ પ્રકારની સઘળી અનુકૂળતા મળત્રા છતાં જે માણસ ધર્મનુ માચરણ કરતા નથી, તેને ફરી મનુષ્ય ભવની પ્રાપ્તિ થવી અત્યન્ત દુર્લભ कारणे मनुष्यत्वने हुईल समन्ने, तथा नार, तिर्यय हि लवोमां જન્મ, જરા, મરણ, રેગ, શેક આદિના દુઃખને દેખીને પણ અવિવેકી માણુસા ધર્મને પ્રાપ્ત કરી શકતા નથી, આ વાતના વિચાર કર. તથા એવા વિચાર પણ કરવા જોઈએ કે આ લેાક જવરગ્રસ્ત જીવનાં જેવા જ દુ:ખી અને સતત છે. આ બધી બાબતોના વિચાર કરીને સમ્યક, બોધને 1 र 24 C 5 प्राप्ति ४. * જેવી રીતે,ભૂખ્યા માણસ અન્નના અભાવને લીધે પીડાના અનુભવ કરે छे, भेभ तृषार्थीी व्यथये पुरुष पाणीने माटे तरमूड़ियां भरे है, प्रेम वाछीओ उण माय हाय सेवा पुरुष उनी पीडाथी प्रतिक्षण तर હતા રડે છે, એજ પ્રમાણે આ લેાક (આ લેાકના જીવા) વરગ્રસ્ત વ્યક્તિની જેમ નિરન્તર દુઃખાથી પીડાતા જ રહે છે. આ પ્રકારે દુઃખોથી 2 For Private And Personal Use Only
SR No.020779
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages729
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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