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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - सूत्रकृतागसूत्रे : ‘अन्वयार्थ (से) स. वईमानस्वामी (सागरे वा) सागर इव-स्वयम्भूरमणसमुद्रवत् (पनया) प्रज्ञया-बुद्धया (अक्खया) अक्षयः-स्वयम्भूरमणवत्, अथवा (महोदही वाबि) महोदधिः-स्वयम्भूरमण समुद्र इचापि (अणंतपारे) अनन्तपार:-अ. पारप्रज्ञावानित्यर्थः (अणाइले वा) अनाविलो वा-निर्मलः, (अकसाई) अकपायी -कषायरहितः (मुक्के) मुक्तः-ज्ञानावरणीयाधष्टकर्मरहितः (सक्केव) शक्र इव-इन्द्रवत् (देवाहिवई) देवानामधिपतिः (जुम) द्युतिमान-अतितेजस्वी वर्द्धमानोऽस्तीति ॥८॥ टीका--(से) स भगवान् महावीरः (सागरेव) सागर इव-समुद्रवत् (पनया) प्रज्ञया, प्रकर्षेण ज्ञायते समस्तोऽपि पदार्थोऽनया इति प्रज्ञा तया प्रज्ञया ज्ञानेन (अक्खय) अक्षय:-क्षयरहितः, ज्ञातव्येऽर्थे जीवाजीवादिरूपे भगवतः प्रज्ञा नक्षीयते, तथा नैव प्रतिहन्यते । सा हि-तदीयबुद्धिः केवलज्ञानात्मिका, सा च कालतः साद्य__ अन्वयार्थ-भगवान् बर्द्धमानस्वामी प्रज्ञा से समुद्र के समान अक्षय हैं अर्थात् स्वयंभूरमण समुद्र के समान अप्रतिहत ज्ञान से सम्पन्न हैं अथवा महासागर के जैसे अनन्तपार-अनन्तप्रज्ञावान हैं। वह निर्मल, निष्कषाय, ज्ञानावरणीय आदि कर्मों से रहित तथा इन्द्र के समान देवों के अधिपति और अत्यन्त तेजस्वी हैं ॥८॥ टीकार्थ- 'से' इत्यादि, वह भगवान् वर्द्धमानस्वामी 'सागरेव' सागर-समुद्र के समान ‘पन्नया अक्वए' प्रज्ञासे अक्षय हैं, प्रकर्षपने से समस्त पदार्थ जिसके द्वारा जाना जाय उसे प्रज्ञा कहते हैं-उस प्रज्ञासे क्षयरहित हैं, अर्थात् ज्ञातव्य-जानने योग्य जीवाजीवादिरूप अर्थ में भगवान का ज्ञान न प्रतिहत होता है और न क्षीण होता है यथा. वस्थितस्वरूप में नित्य रहता है। वह भगवान की प्रज्ञा केवलज्ञानरूप है સૂત્રાર્થ–ભગવાન મહાવીર સ્વામી પ્રજ્ઞામાં સમુદ્રના સમાન અક્ષમ્ય હતા, એટલે કે સ્વયંભૂરમણ સમુદ્રના સમાન અપ્રતિહત જ્ઞાનથી સંપન્ન હતા. અથવા જેમ મહાસાગર અપાર જલથી યુક્ત હોય છે, એ જ પ્રમાણે તેઓ અનન્ત જ્ઞાનથી યુક્ત હતા. તેઓ નિર્મળ, નિષ્કષાય, જ્ઞાનાવરણીય આદિ કર્મોથી રહિત, તથા ઈન્દ્રની જેમ દેવેના અધિપતિ તથા અત્યન્ત તેજસ્વી હતા. એ ૮ 11-'से' त्या लसवान, भानस्वामी 'मागरेव' समुद्रनारेम 'पन्नया अक्खए' प्रज्ञाथी अक्षय छ, ५४ाथी सबा पहा ना बारा જાણી શકાય તેને પ્રજ્ઞા કહેવાય છે. તે પ્રજ્ઞાથી અક્ષય છે. અર્થાત્ જાણવા જેવા જીવાદરૂપ અર્થમાં ભગવાનનું જ્ઞાન પ્રતિહત થતું નથી તેમ ભાછું ચતું નથી. યથાવસ્થિતપણાથી નિત્ય રહે છે. ભગવાનની પ્રજ્ઞા-કેવળ For Private And Personal Use Only
SR No.020779
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages729
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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