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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समार्थबोधिनी टीका प्र. थु. अ. ७ उ. १ कुशीलवतां दोषनिरूपणम् छाया - अपि हन्यमानः फलकावतष्टः समागमं कांक्षत्यन्तकस्य । निर्घुण कर्म न पैति अक्षय इन शकटमिति ब्रवीमि ॥२॥ अन्वयार्थः - ( अविम्ममाणे) साधुः अपि हन्यमानः उपसर्गादिभिः पीडय मानोषि (फळगावती) फलकावद:- फलकवत् तनूकुतः (अंतकस्य समागमं और कहते है- 'अवि हम्ममाणे इत्यादि । शब्दार्थ- 'अविस्ममाणे- अपि हन्यमानः साधु परीषद एवं उप सर्गों के द्वारा पीडा पाता हुआ भी उसे लहन करे 'फलानडी-फल arents: ' जैसे काष्ठ की पटिया दोनों तरफले छोली जाती हुई रागद्वेष नहीं करती है उसीप्रकार बाह्य एवं अभ्यन्तर तपसे कष्ट पाता हुआ भी रामदेव न करे fasta aमागमं कंखति - अन्तकस्य समागमं कांक्षति' मृत्यु के आनेकी प्रतीक्षा करे 'णिधूय कम्मं-कर्म निर्धूय' इस प्रकार से कर्म को दूर करके साधु 'ण पवंचुवेह-न प्रपञ्चम् उपैति ' जन्म, मरण और रोग, शोक आदि को प्राप्त नहीं करता है 'अक्खक्खए वा सगडं-अक्षक्षये शकटमित्र' जैसे अक्ष (धुरा) के टूट जाने से गाडी आगे नहीं चलती है 'सिबेमि इति ब्रवीमि ऐसा मैं कहता हूं ||२०|| अन्वयार्थ - - उपसर्गों द्वारा पीड़ित होने पर भी साधु ष्ठ के पटिये के जैसे रागद्वेष न करे, किन्तु समभाव से मृत्यु की प्रतीक्षा करें। सूत्रार साधुय्याने हे छे- 'अवि हम्ममाणे' इत्याहि शवार्थ–‘अवि हम्ममाणे- अपि इन्यमानः साधु परीषड भने उपसर्गो द्वारा पीडा यामीने तेने सडन रे 'फलगावतट्टी - फलकावतष्टः' भ લાકડાના પાટિયા અને ખાજુથી છેલાવા છતાં પણ રાગદ્વેષ કરતા નથી એજ પ્રમાણે ખ!હ્ય અને આભ્યંતર તપથી કષ્ટ પામીને પણ રાગદ્વેષ ન કરે 'अंतरस समागमं कखति - अंतकस्य समागमं कांक्षति' परंतु भात भाववानी शड लु 'णिधूय कम्मं - कर्म निर्धूय' या तिथी उसने दूर अरीने साधु 'ण पवंचुवेइ - न प्रपश्वम् उत' जन्म, भरथु भने रोग, शोक, विगेरने प्राप्तं उरता नथी 'अक्खक्खए वा सगडं-अक्षक्षये शकटमिव' प्रेमाक्ष उत घसराना तूटि भवाथी गाडी भागण यासी शती नथी. 'त्तिवेमि इति ब्रवीमि ' એ પ્રમાણે હું કહું છું ॥ ૩૦ ॥ સૂત્રા—ઉપસર્ગોં દ્વારા પીડિત થવાના પ્રસંગ આવી પડે, તે પણ સાધુએ કાષ્ટના પાટિયાની જેમ રાગદ્વેષ કરવા જોઈએ નહીં, પરન્તુ સમભાઁ सू० ८१ For Private And Personal Use Only
SR No.020779
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages729
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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