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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra १७४ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे छाया - एवमेके व पार्श्वस्था मिध्याध्योऽनार्याः । तु अध्युपपन्नाः कामेषु पूतना इव तरुणके । १३ ॥ अन्वयार्थः – ( एवं ) एवम् पूर्वोक्तप्रकारेण मैथुनं निरवद्यं मन्यमानाः, (गे) एके तु - केचन (पासत्या पार्श्वस्थाः (मिच्छादिडी) मिध्यायः विपरीतावोध : (अणारिया ) अनार्या: ( कामेदि) कामैरिच्छामदनरूपैः कामेषु वा शब्दादिषु (झोवचन्ना) अध्युपपन्नाः = वृद्धिभावमुपगताः (तरुणए) तरुण केस्त्रीपत्ये (पूणा इव) पूतना इव = पूतना उरभ्रीवेति || १३ || अब सूत्रकार उपसंहार करते हुए गण्ड पीडा (फोडे को दबाने) आदि दृष्टान्त देनेवालों के कथन को दूषित करने के लिए कहते हैं-- 'एवमेगे उ' इत्यादि । शब्दार्थ - 'एवं - एवम् ' पूर्वोक्त प्रकार से मैथुन को निरवद्य मानने वाला 'एगे उ- एके तु' कोई 'पासत्या पार्श्वस्था:' पार्श्वस्थ 'मिच्छदिट्टीमिथ्यादृष्टयः' मिध्यादृष्टिवाले 'अणारिया-अनार्थ' अनार्य 'कामेहिकामैः कामभोगो में अथवा शब्दादिविषयों में 'अज्झोवबन्ना-अध्युपपन्नाः' अत्यन्त आसक्त होते हैं 'तरुण-तरुण के' अपने बालकों पर 'पूयणा इंव - पूतना इव' जैसे पूतना नामकी डाकिनी आसक्त रहती है | १३ | अन्वयार्थ - इस प्रकार मैथुन को निर्दोष मानने वाले कोई कोई पार्श्व - स्थ मिध्यादृष्टि हैं, अनार्य हैं, और कामभोगों में उसी प्रकार आसक्त हैं जैसे पूतना डाकिनी बालकों पर आसक्त होती है | १३|| હવે સૂત્રના ઉપસ'હાર કરતા સૂત્રકાર ઉપર્યુક્ત દૃષ્ટાન્તા દ્વારા (ખીલને દબાવવાના, સ્થિર જળ પીનાર પિંગ પક્ષી આદિના દૃષ્ટાન્તા દ્વારા) પેાતાના મતનુ’ समर्थन ४२नारा से अनी मान्यतानु' 'उन पुरे छे.- 'एव मेगे' इत्याहि For Private And Personal Use Only शब्दार्थ - 'एवं - एवम्' पूर्वेति प्रहारथी मैथुनने निरुद्य मानवात्राणा 'एगे उ- एके तु' 5 'पाखत्था - पार्श्वस्था:' पार्श्वस्थ 'मिच्छदिट्टी - मिध्यादृष्टयः' मिथ्यादृष्टिवाणा 'अणा रिया -अनार्याः' अनार्य 'कामेहिं - कामैः' अमलगमां अथवा शब्द वगेरे विषयोभां 'अञ्ज्ञोवबन्ना - अध्युपपन्ना' अत्यन्त वधारे आसक्त होय छे, 'तरुण-तरुणके' पोताना है। अगर 'पूरणा इव - पूतना इव' જેવી રીતે પૂતના નામની ડાકણુ આસક્ત રહે છે. ૫૧૩૫ સૂત્રા—આ પ્રકારે કામÀાગાને નિર્દોષ માનનારા કાઈ કઇ પાર્શ્વ સ્થા (શિથિલાચારીએ) મિથ્યાષ્ટિ છે અને અનાય છે. તેઓ કામભાગેામાં એટલાં બંધાં આસક્ત છે કે જેટલી પૂતના ડાકણ માલકા પર આસક્ત હાય છે. ૧૩ા
SR No.020779
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages729
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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