SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 68
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे मूलम्-जं किं च अणगं तात तपि सव्वं समीकतम्। हिरण्णं ववहाराइ तेपि दाहासु ते वयं ॥८॥ छाया-यत्किचिच्च ऋणं तात! तत्सर्व हि समीकृतम् । हिरण्यं व्यवहारादि तहास्यामो वयं वसु ॥८॥ अन्वयार्थ-(तात) हे तात हे कुडुम्बरक्षकपुत्र (जं किंचि) यत् किंचित् (अणगं) ऋरणं (तं वि सम्ब) तदपि सर्वम् अस्माभिविभज्य (समीकत) समीकृतम् समभागेन व्यवस्थापितम् (चवहाराइ) व्यवहारादिः (हिरण) हिरण्यसुवर्णादिकं (तंपि) तदपि (ते) तुभ्यम् (वयं) वयम् (दाहामु) दास्यामा- त्वदीयव्यवहारोपयोगिसुवर्णादिक दास्याम इति भावः ॥ घर पर ही पलो । संयम साधना का यह अवसर नहीं है। जव अवसर आवेतो बिना किसी बाधा के तुम संयम का अवश्य अनुष्ठान करना li७॥ शब्दार्थ--'तात-तात' हे पुत्र ! 'जं किंचि अणगं-यत् किंचित् कणम्' जो कुछ ऋण था 'तं वि सवं-तदपि सर्वम्' वह भी सब 'समीकतं-समीकृतम्' हमने विभाग कर बराबर कर दिया है 'यवहाराइव्यवहारादिः' व्यवहार के योग्य जो 'हिरणं-हिरण्यम्' सुवर्णादिक है 'तं पि-तदपि' वह भी ते-तुभ्यम्' तुझको 'वयं-वयम्' हम लोग 'दाहायु-दास्थामः' देंगे अतः तुमको घर ही चलना उचित है ॥८॥ अन्वयार्थ-हे पुत्र ! हे कुटुम्ब के रक्षक ! जो ऋण चढाथा, उस सब को हम लोगों ने बांट कर बराबर कर लिया है। व्या हार के लिए तुम्हें जो हिरण्य (चांदी) सुवर्ण आदि चालिए वह हम तुम्हें देंगे॥८॥ ત્યારે કેઈ પણ પ્રકારના અવરોધ વિના તું અવશ્ય સંયમની આરાધના ४२२१. ॥॥॥ ७॥ साथ-'तात-तात' 3 पुत्र! ‘ज किंचिअणगं-यत् किंचित्ऋणम्' रे ४. तु तं वि सव्वं-तदपि सर्वम्' ते ५ मधु 'समीकतं-समीकृतम्' अमे विनासरीने ५२४२ ४१ वधु छ ‘ववहाराइ-व्यवहारादिः' ०५१७(२ना योग्य २ हिरण-हिरण्यम्' सुqfles . 'तपि-तदपि' ते ५५ ते-तुभ्यम्' तर 'वयं-वयम्' मा 'दाहामु-दास्य मः' मापी थी तमारे धेर આવવું જ યોગ્ય છે, ૫૮ સૂત્રાર્થ-હે પુત્ર! હે કુટુંબના આધાર! તારે માથે જે ઋણ (દેવ). વધી ગયું હતું, તે અમે સૌ કુટુંબીઓએ ભાગે પડતું ચુકવી દીધું છે તારે વ્યવહાર ચલાવવા માટે તારે જે સુવર્ણ, ચાંદી આદિની જરૂર હોય તે અમે तन माशु गाथा ८॥ ... For Private And Personal Use Only
SR No.020779
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages729
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy