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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र.श्र. अ. ३ उ.२ वादिशास्त्रार्थे समभावोपदेशः १३५ इमं वक्ष्यमाणम् 'धम्म धर्मम्-धरतिदुर्गतौ प्रपततः प्राणिनः शुभस्थाने च पत्ते इति धर्मस्तम् । अथवा-अभ्युदयनिःश्रेयससाधको धर्मः तादृशम्-धर्मम् श्रुतचारित्राख्यम् 'आदाय' आदायगृहीत्या 'समाहिए' समाहितचित्तः 'भिक्खु भिक्षु:साधुः 'गिलाणस्स' ग्लानस्य-ज्वरादि पीडितस्य साधोः 'अगिलाए' अग्लान ग्लानिरहितो भूत्वा 'कुज्जा' कुर्यात् वैयावत्यादिकम् ॥२०॥ मूळम्-संखोय पेसलं धम्म दिढिमें परिनिव्वुडे । उसंग्गे नियामित्ता आमोक्खाय परिवएजासि ॥२॥ ॥ ततीय अज्झयणस्स तइओ उद्देसो समतो॥ तिबेमि ॥ ___ छाया--संख्याय पेजलं धर्म दृष्टिमान् परिनिर्वृतः।। उपसर्गान् सनियम्य आमोक्षाय परिव्रजेत् ॥२१॥इति ब्रवीमि॥ किया है वह 'धर्म' कहलाता है । अथवा जिससे अभ्युदय अर्थात् स्वर्ग और निःश्रेयस अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति होती है, वह धर्म कहलाता है। ऐसा धर्म श्रुतरूप और चारित्ररूप है। इस धर्म को धारण करके समाधियुक्त चित्तवाला मुनि ज्वर आदि से ग्रस्त दूसरे मुनि की ग्लानि से रहित होकर वैयावृत्य आदि करें ॥२०॥ शब्दार्थ--'दिट्ठिमं-दृष्टिमान्' जीवाजीवादि पदार्थ के स्वरूप को यथार्थ रूप से जानने वाला 'परिनिव्वुडे-परिनिर्वृतः'राग द्वेषवजित शांत मुनि 'पेसलं धम्म-पेशलं धर्मम्' उत्तम श्रुतचारित्ररूप धर्म को संखायसंख्याय' जानकर' उवलग्गे-उपसान' अनुकूल प्रतिकूल उपसगों को 'नियामित्ता-नियम्य' अपने वश में करके 'आमोक्खाय-आमोक्षाय' मोक्षपातिपर्यन्त परिचए-परिव्रजेत्' संयम का अनुष्ठान करें ॥२१॥ છે. અથવા જેના દ્વારા અભ્યદય (વર્ગ અને નિઃશ્રેયસની-મોક્ષની પ્રાપ્તિ થાય છે, તેને ધર્મ કહે છે. એ ધર્મ શ્રત ચારિત્ર રૂપ ધર્મ છે. આ ધર્મને ધારણ કરીને સમાવિયુક્ત ચિત્તવાળા મુનિએ ગ્લાનિનો ત્યાગ કરીને - પ્રસન્ન ચિત્તે, તાવ આદિ બીમારીથી પીડાતા મુનિની સેવા કરવી જોઈએ ૨૦ शा- विट्रिम-दृष्टिमान्' वा मेरे हाथ ना २१३५ने यथाय ३५था on Jalatणा 'परिनिव्वुडे-परिनिर्वृतः' रागद्वेष त शांतमुनि पेसलं धम्म-पेशलं धर्मम्' इत्तम श्रन थारित्र३५ धमन संखाय-संख्याय' जीने 'उअसगे--उपसर्गान्' अनुण प्रति पनि 'नियामित्ता-नियम्य' पोतान. पशमा परीने 'आमोक्वाय-आमोक्षाय' भीक्षप्राप्ति ५यत (सुधि) 'परिवए-. परिव्रजेत्' सयभनु २४न ४२. ॥२१॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020779
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages729
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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