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सूत्रकृताङ्गसूत्रे मेगन्नं पानं चाऽभ्यवहरगीयम्, तथा-हितं मितमिष्टं वा सत्यमेव वक्तव्यम् । क्षान्तेन दान्तेन विषयविनिव्रतात्मना संयमानुष्ठानतत्परेण भवितव्यमिति भावः ॥२५॥ मूलम्-झाणजोगं समाहटु कायं विउसेज्ज सबसो। तितिक्खं परमं णचा आमोक्खाय परिव ए जासि॥
तिबेमि॥२६॥ छाया--ध्यानयोगं समाहृत्य कायं व्युत्मजेत्सर्वशः।
तितिक्षां परमां ज्ञात्वा आमोक्षाय परिव्रजेत् ॥ इति ब्रवीमि ॥२६॥ आशय यह है-साधु को उदर पूर्ति के लिए अल्प आहार तथा परिमित आहार पानी का सेवन करना चाहिए, परिमित सत्य वचनों का ही प्रयोग करना चाहिए शान्त दान्त और विषयों से विरक्त होना चाहिए । सदा संयमपरायग रहना चाहिए ॥२५॥ 'झाणजोगं समाहर्ट्स' इत्यादि ।
शब्दार्थ-'झाणजोग-ध्यानयोगम्' साधु चित्त निरोध लक्षण वाले धर्मध्यानादि को 'समाहटु-समाहृत्य' ग्रहण करके 'सब्यसो कायं विउसेजज-सर्वशः कायं व्युत्मजेत्' सब प्रकार से शरीरको बुरे व्यापरोसे रोके 'तितिक्ख परमं णच्चा-तितिक्षां परमां ज्ञात्वा' परीषह तथा उपसर्ग के सहन को सबसे उत्तम समझकर 'आमोक्खाए-आमो क्षाय' मोक्ष की प्राप्ति पर्यन्त संयमका अनुष्ठान करे 'त्तिबेमि-इति ब्रवीमि' ऐसा मैं कहता हूँ ॥२६॥
કહેવાનો આશય એ છે કે-સાધુએ ઉદર પૂર્તિ માટે અલ્પ આહાર તથા પરિમિત આહાર પાણીનું સેવન કરવું જોઈએ. પરિમિત સત્ય વચન જ બોલવા જોઈએ. શાન્ત દાન્ત અને વિષયેથી વિરકત બનવું જોઈએ. સર્વદા સંયમ પરાયણ રહેવું જોઈએ. પાપા
'झाणजोग समाहटु' त्यहि
शहाथ-'ज्ञाणजोग-ध्यानयोगम्' साधु वित्त निरोध लक्षाणाम ध्यान.विरेने 'समाहदटु-समाहृत्य' घडए ४ीने 'सव्वसे। कायं विउसेज- सर्वशः कायं व्युत्सृजेत्' या प्रारथी शरीरने १२५ व्यापारथी 0 'तितिक्खं परमं णच्चा-तितिक्षां परमां ज्ञात्वा' परीष भने 6५ । २ हनने ५५.था तम समलने 'आमोक्खाए-आमोक्षाय' भाक्षनी प्राति पय-त सयभनु अनुडान घरे. 'त्तिबेमि-इति ब्रवीमि' को प्रमाणे छु. ॥२६॥
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