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समार्थबोधिनी टीका प्र. थु. अ. ७ उ. १ कुशीलवतां दोषनिरूपणम्
छाया - अपि हन्यमानः फलकावतष्टः समागमं कांक्षत्यन्तकस्य । निर्घुण कर्म न पैति अक्षय इन शकटमिति ब्रवीमि ॥२॥ अन्वयार्थः - ( अविम्ममाणे) साधुः अपि हन्यमानः उपसर्गादिभिः पीडय मानोषि (फळगावती) फलकावद:- फलकवत् तनूकुतः (अंतकस्य समागमं और कहते है- 'अवि हम्ममाणे इत्यादि ।
शब्दार्थ- 'अविस्ममाणे- अपि हन्यमानः साधु परीषद एवं उप सर्गों के द्वारा पीडा पाता हुआ भी उसे लहन करे 'फलानडी-फल arents: ' जैसे काष्ठ की पटिया दोनों तरफले छोली जाती हुई रागद्वेष नहीं करती है उसीप्रकार बाह्य एवं अभ्यन्तर तपसे कष्ट पाता हुआ भी रामदेव न करे fasta aमागमं कंखति - अन्तकस्य समागमं कांक्षति' मृत्यु के आनेकी प्रतीक्षा करे 'णिधूय कम्मं-कर्म निर्धूय' इस प्रकार से कर्म को दूर करके साधु 'ण पवंचुवेह-न प्रपञ्चम् उपैति ' जन्म, मरण और रोग, शोक आदि को प्राप्त नहीं करता है 'अक्खक्खए वा सगडं-अक्षक्षये शकटमित्र' जैसे अक्ष (धुरा) के टूट जाने से गाडी आगे नहीं चलती है 'सिबेमि इति ब्रवीमि ऐसा मैं कहता हूं ||२०||
अन्वयार्थ - - उपसर्गों द्वारा पीड़ित होने पर भी साधु ष्ठ के पटिये के जैसे रागद्वेष न करे, किन्तु समभाव से मृत्यु की प्रतीक्षा करें। सूत्रार साधुय्याने हे छे- 'अवि हम्ममाणे' इत्याहि
शवार्थ–‘अवि हम्ममाणे- अपि इन्यमानः साधु परीषड भने उपसर्गो द्वारा पीडा यामीने तेने सडन रे 'फलगावतट्टी - फलकावतष्टः' भ લાકડાના પાટિયા અને ખાજુથી છેલાવા છતાં પણ રાગદ્વેષ કરતા નથી એજ પ્રમાણે ખ!હ્ય અને આભ્યંતર તપથી કષ્ટ પામીને પણ રાગદ્વેષ ન કરે 'अंतरस समागमं कखति - अंतकस्य समागमं कांक्षति' परंतु भात भाववानी शड लु 'णिधूय कम्मं - कर्म निर्धूय' या तिथी उसने दूर अरीने साधु 'ण पवंचुवेइ - न प्रपश्वम् उत' जन्म, भरथु भने रोग, शोक, विगेरने प्राप्तं उरता नथी 'अक्खक्खए वा सगडं-अक्षक्षये शकटमिव' प्रेमाक्ष उत घसराना तूटि भवाथी गाडी भागण यासी शती नथी. 'त्तिवेमि इति ब्रवीमि ' એ પ્રમાણે હું કહું છું ॥ ૩૦ ॥
સૂત્રા—ઉપસર્ગોં દ્વારા પીડિત થવાના પ્રસંગ આવી પડે, તે પણ સાધુએ કાષ્ટના પાટિયાની જેમ રાગદ્વેષ કરવા જોઈએ નહીં, પરન્તુ સમભાઁ
सू० ८१
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