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सूत्रता - अन्वयार्थ:--(जे) यः साधुः (धम्मलदं) धर्मलब्धम्-दोषरहितमाहारम् (विणिहाय) विनिधाय (भुंजे) मुले (जे) यः-भिक्षुः (वियडेग) विकटेन-अचिर्स जलेनापि, (साहटु) संहृत्यांगान्यपि (सिणाइ) स्नाति-देशसर्वस्नानं करोति (ज) यः (धोबई) धावति-वस्त्रं पादौ वा (लूसयइ वत्थं) च पुनः वस्त्रं स्वकीयं लूपयति शोभार्थ दीर्घ वस्त्रं इस्वं करोति इस्वं वा दीर्घ करोति (आहाहु) अथाहुः तीर्थकरगणधरादय आहुः कथयन्ति (से णागणियस्स दूरे) स एतादृशव्यवहारवान् नान्यस्य निर्ग्रन्थमावस्य दूरे वर्तते इति ॥२१॥ 'साइटु-संहृत्य' अंगो को संकोच करके भी 'सिणाइ-स्नाति' स्नानकर ता है तथा 'जे-य:' जो 'धोवई-धावति' अपने वस्त्र अथवा पैर आदि को धोता है 'लूसयई वत्थं-लूषयति च वस्त्रम्' और शोभा के लिए बडे वस्त्र को छोटा अथवा छोटे वस्त्र को वडा करता है 'अहाहु-अथाहुः' तीर्थकर तथा गणधरों ने कहा है कि 'से नागणियस्स दूरे-स नाम्यस्य दरे' वह संयम मार्ग से दूर है ॥२१॥ ___ अन्वयार्थ--जो साधु धर्मलब्ध अर्थात् निर्दोष आहार को रखकर सनिधि करके अर्थात् संचित कर पीछेसे भोगता है, तथा जो अचित्त जल से भी स्नान करता है, वस्त्र या पैरों को धोता है, जो शोभा के लिए लम्बे वस्त्र को छोरा या छोटे को लम्बा करता है, वह निर्ग्रन्यभाव से दूर रहता है, ऐसा तीर्थकर और गणधर कहते हैं।२१। सायन श२ प 'सिणाइ-स्नाति' स्नान ४२ छे. तथा 'जे-ये' या 'धोबई-धावति' पाताना पो मया ५१ विगैरेने धुसे छे. 'लूसयई वत्थलूषयति च वस्त्र' मने लाने भाटे मोटर पखने नानु म! नाना पने मोटु ४२ छ 'अहाहु-अथाहुः' ती २ तथा धराये खुले है-से नागणियस दूरे-म नाम्न्यस्य दूरे' ते संयम माथी २४ छ. ॥ २१ ॥
સૂત્રાર્થ–જે શિથિલાચારી સાધુ એટલે કે નિર્દોષ આહારને સંગ્રહ કરીને (સંચય કરીને) ભેગવે છે, જે અચિત્ત જળ વડે સ્નાન કરે છે, જે વસ્ત્ર અને હાથ પગ જોવે છે જે શોભાને માટે લાંબા વસ્ત્રને ટૂંકુ અને દૂધ વસ્ત્રને લાંબુ કરે છે, તે સાધુ નિર્ચભાવથી દૂર રહે છે, એવું તીર્થકરો અને ગણધરોનું કથન છે. ૨૧
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