Book Title: Sutrakritanga Sutram Part 02
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Jain Shastroddhar Samiti

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Page 637
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ७ उ. १ कुशीलवतां दोषनिरूपणम् १२५ कथा कथ गति, स साधुभावाद्भ्रष्टः । यस्तु पुनराहारवस्त्रार्थ स्वकीयान् गुणान परेण ख्यापयति, सोऽप्यधमः । यश्च स्वगुणं स्वेनैव प्रकाशयति स तु अधमाधम इति भावः ॥२४॥ पुनरप्याह-णिक्खम्म दीणे' इत्यादि । मूलम्-णिक्खम्म दीणे परभोयणमि मुहमंगलीए उदराणुगिद्धे। नीवारगिद्धे व महावराहे अदूरए एहिई घातमेव ॥२५॥ छाया-निष्क्रम्य दीनः परभोजने मुखमांगलिक उदरानुगृद्धः । नीवारगृद इत्र महावराहः अदुर एष्यति घातमेव ॥२५॥ पाने के विचार से वहाँ धर्मकथा करता है, वह साधुता से भ्रष्ट होजाता है और जो आहार वस्त्र आदि के लिए अपने गुणों को दूसरों से प्रकट करवाता है, वह भी अधम है। जो अपने गुणों को अपने ही मुख से प्रकट करता है वह अधमाधम है ॥२४॥ शब्दार्थ-'णिक्खम्म-निष्क्रम्य' जो पुरुष घर से निकलकर 'परभोयणमि दीणे-परभोजने दीन:' अन्यके भोजनकेलिये दीन बनकर 'मुहमंगलीए-मुखमांगलिकः? भाट के जैसा दूसरेकी प्रशंसा करता है 'नीवारगिद्धेव महावराहे-नीवारगृद्ध इव महावराइ' वह तण्डल के दानों में आसक्त महान सुअर के जैसा 'उदाणुगिद्धे-उदरानुगृद्धः' उदर पोषण में तत्पर है 'अदूरए-अदरे' वह शीघ्र ही 'घायमेव-घातामेव' नाशको ही 'एहिह-एष्यति' प्राप्त होते है ॥२५॥ ભજન પ્રાપ્ત કરવાની ઈચ્છાથી, ધમકથા કરે છે. તે સાધુના ધર્મનું–આચારનું પાલન નહીં કરવાને કારણે “સાધુ” કહેવાને પાત્ર નથી. વળી જે અધ આહાર, વસ્ત્ર આદિને માટે બીજાની પાસે પોતાના ગુણોની પ્રશંસા કરાવે છે, તે પણ અધમ છે. જે પોતાનાં ગુણે પિતાને જ મઢે પ્રકટ કરે છે તેને તે અધમમાં અધમ કહી શકાય. ગાથા ૨૪ "णिक्खम्म दीणे' याह Nati-'णिक्खम्म-निष्क्रम्य' २ ५३५ ३२थी नीजान 'परभोयणसि दीणे-परभोजने दोनः' मन्यना सासन भाट हीन मनीन 'मुहमंगलीएमुखमांगलिकः' भाटनी म भानना १माए ३ छ 'नीवार गिद्धेव महावरा हैनीवारगृद्ध इव महावराहः' त यामाना शुभ मासरत भाटा सुनी म 'उदराणुगिद्धे-उदरानुगृद्धः' ४२ पौषशुभ त५२ छ, 'अदूरए-अदूरे' tal 'थायमेव-घातमेव' नाशने । 'एहिद-एष्यति' प्राप्त थाय छे. ॥२५॥ सू० ७९ For Private And Personal Use Only

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