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समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. म. ७ उ. १ कुशीलवता दोषनिरूपणम् ६२९ परगृहं भोजनाय प्रवर्तते, चारणवत् स्तुतिवाक्यानि प्रयुंजानो भक्ष्यासक्तवराह इव शीघ्रमेव विनश्यति संसारं भ्रमिष्यतीति भावः ॥२५॥
पुनरप्याह-'अन्नस्स पाणस्स' इत्यादि। मूलम्-अन्नस्स पाणसिंह लोइयस्स अणुप्पियं भासइ सेवमाणे। .. पासस्थयं चेव कुसीलयं च निस्सारए होई जहा पुलाए।२६। छाया-अन्नस्य पानस्यैहलौकिकरयाऽनुप्रियं भाषते सेवमानः।।
पार्श्वस्थतां चैव कुशीलतां च निस्सारो भवति यथा पुलाकः ॥२६॥ में जाकर पेट भरने में तत्पर रहता है वह संसार रूपी संकट में पड़ता है। वह शीघ्र विनाश को प्राप्त होगा अर्थात् संसार परिभ्रमण करेगा।२५।
पुनः कहते हैं-'अन्नस्त पाणस्स' इत्यादि। शब्दार्थ-'अन्नस्स पाणस्स-अन्नस्य पानस्य' अन्न तथा पान 'इहलोह. यस्स-ऐहलौकिकस्य' अथवा वस्त्र आदि इस लोकके पदार्थ के निमित्त 'सेवमाणे-सेवमान:' सेवा करता हुआ जो पुरुष 'अणुप्पियं भासहअनुप्रियं भाषते' प्रियभाषण करता है वह 'पासस्थियं चेव कुसीलयं चपार्श्वस्थतां कुशीलतां च' पार्श्वस्थ भावको तथा कुशीलभाव को प्राप्त होता है 'जहा पुलाए-यथा पुलाक' तथा यह भूसाके जैसा 'निस्सारए होइ-निस्सारो भवति' सार रहित होजाता है अर्थात् संयम से परिभ्रष्ट हो जाता है ॥२६॥ આ ચારોનું પાલન નહીં કરી શકવાને કારણે સંસાર રૂપ સંકટમાં ફક્સાઈ જાય છે. એટલે કે એ સાધુ સંસારમાં પરિભ્રમણ કરતે રહે છે અને સંસારનાં દુખે ભેગાવ્યા કરે છે. મેક્ષ રૂપી પરમસુખને તે ગુમાવી બેસે છે. જે ૨૫
કુશલેના વિષયમાં સૂત્રકાર આ પ્રમાણે વિશેષ કથન કરે છે'अन्नस्स पाणस्स' त्यादि
शहाथ-'अन्नस्स पाणस्स-अन्नस्य पानस्य' मथ। भन्न तथा पाम 'इहलोइयस्स-ऐइलौकिकस्य' अथवा पर विगेरे भी ना पहा निमित्त 'सेवमाणे-सेवमानः' सेवनी भरे ५३५ 'अणुप्पिय भासइ-अनुप्रिय भाषते' (प्रिय भाष ४२ छ, ते 'पासस्थिय चेव कुसीलय च-पार्श्वस्थतां कुशीलतां च' पाश्वरथ मापन तथा शासनाने प्राप्त थाय छे. 'जहा पुलाए-यथा पुलाकः' तथा ते मुसांना 'निस्सारए होइ-निस्सारो भवति' सा२ । मनी mय छे. अर्थात् सयमयी परिष्ट 2 14 छ. ॥ २६ ॥
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