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सूत्रकृताङ्गसूत्र अन्वयार्थ:-'उड़' ऊर्ध्वम् (अहेय) अधः (तिरियं) तिर्यक् (दिसासु) दिक्षु (तसाय जे) त्रसाश्च ये (थावरा जे य पाणा) स्थावराश्च ये पाणा:-पाणिनः सन्ति तान् (णिचाणिच्चेहि) नित्यानित्याभ्याम् (समिक्ख) समीक्ष्य-केवलज्ञानेनाs. र्थान् परिज्ञाय (से पन्ने) स प्रज्ञः स एव माज्ञः (दोवेव) दीप इव वस्तुबोधकतेजोराशिरिव (समिय) समितं समतया युक्तम् (धम्म) धर्म श्रुतचरित्ररूपम् (उदाहु) उदाह-वदति ॥ ४ ॥
टीका-(उड़) ऊर्ध्वम् (अहेय) अधः (तिरियं) तिर्यक् (दिसामु) दिक्षु चतुर्दश ज्ज्वात्मकलोके। (जे) ये (तसा य) साश्व-त्रस्यन्तीति साः तेजोवायुरूप विकलेन्द्रियपञ्चेन्द्रिय भेदात् त्रिधा । तथा च (जे थावरा) ये स्थावराः पृथिव्यबूवनस्पतिभेदात् त्रिधा। (जे य पाणा) ये च पाणा:-ये च उच्छ्वासादिरूप प्राणवन्तः से युक्त 'धम्म-धर्मम्' श्रुतचारित्ररूप धर्म का 'उदाहु-उदाह' कथन किया है ॥४॥ ... अन्वयार्थ-ऊर्थ, अधः एवं तिर्यक् दिशाओं में जो भी त्रस और स्थावर प्राणी हैं, उन्हें नित्य और अनित्य दोनों प्रकार से केवलज्ञान द्वारा जानकर दीप के समान वस्तुतत्व को प्रकाशित करनेवाले धर्म का स्वभाव से विशिष्ट कथन किया है।।४।।
टीकार्थ-ऊर्ध्व दिशा में, अधोदिशा में तथा तिर्थी दिशाओं में अर्थात् चौदह राजू परिमित लोक में जो स अर्थात् त्रास को 'अनुभव करनेवाले तेजस्काप, वायुकाय, विकलेन्द्रिय तथा पंचेन्द्रिय के भेद से तीन प्रकार के जीव हैं उनको और जो पृथ्योकाय, अपकाय तथा बनस्पतिकाय के भेद से तीन प्रकार स्थावर जीव हैं, जो उच्छ्वास आदि प्राणों से युक्त हैं, उनको प्रकृष्ट प्रज्ञा से केवलज्ञान से भगवान् -दीप इव' हिवाना समान् 'समिय-समितम्' समताथी युति 'धम्म-धर्मम्' श्रुतयात्रि३५ धमनु 'उदाहु-उदाह ४थन ४३६ छ. ॥४॥ ના સૂત્રાર્થ-ઊર્વ દિશા, અદિશા અને તિર્યંગ દિશામાં જે ત્રસ અને સ્થાવર જ રહેલા છે, તેમને કેવળજ્ઞાન દ્વારા નિત્ય અને અનિત્ય એમ અને પ્રકારે જાણીને, દીપકની જેમ વસ્તુતત્વને પ્રકાશિત કરનારા ધર્મન, મહાવીર પ્રભુએ સમભાવ પૂર્વક પ્રતિપાદન કર્યું છે
- हिमां, माहिम मने तिछ शिमi-मेट ચૌદ રાજ પ્રમાણ લેકમાં જે ત્રસ અને સ્થાવર જીવે રહેલા છે તેમને મહાવીર પ્રભુએ પિતાની પ્રકૃષ્ટ પ્રજ્ઞા વડે-કેવળજ્ઞાન વડે નિત્ય અને અનિત્ય
જાગ્યા. એટલે કે દ્રવ્યાર્થિક નયની અપેક્ષાએ તેમણે તેમને નિત્ય જાણ્યા અને પર્યાયાર્થિક નયની અપેક્ષાએ તેમણે અનિત્ય જાણ્યા.
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