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समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ५ उ. १ नारकीयवेदनानिरूपणम् ___ अन्वयार्थः-(जे आयमुहं पडुच्च) य आत्मसुखं प्रतीत्य स्वसुखाय (तसे थावरे य पाणिणो) त्रसान् स्थावरान् प्रागिनः 'ति' तीव्रम्-अतिनिरनुकम्पम् 'हिंसई हिंसति-व्यापादयति 'जे लुपए' यो लूप:-पटूकायजीमाणलुण्ठकः 'होई' भवति तथा 'अदत्तहारी' अदत्तहारी-परद्रव्यापहारका 'सेयवियस्स' सेवनीयस्स संयमस्य 'किवि ण सिक्खई' न किश्चिदपि शिक्षते, अल्पमपि सेवन न करोतीति ।।४॥
शब्दार्थ--'जे आयलुहं पडुच्च-प आत्मसुख प्रतीत्य' जो जीव अपने सुख के निमित्त 'तसे थावरे य पाणिगोत्रमान,स्थावरान् प्राणिन.' प्रस
और स्थावर प्राणी को 'निव-नीब्रम्' अन्न दशाहीन होकर सिईहिंसति' मारता है जे लू मए--यो लूषकः' जो प्राणियों का मारने व ला 'होई-भवति' होता है तथा 'अदत्तहारी-अदत्तहारी' विना दिये अन्य की चीज लेने वाला है वह 'सेपवियस्प्त-सेवनीयस्य' सेवन करने योग्य संयम का 'किंचि ण सिक्खई-किश्चिदपि न शिक्षते' थोड़ा भी सेवन नहीं करता है ॥४॥
अन्वयार्थ-जो जीव अपने सुख के लिए बस और स्थावर जीवोंका अत्यन्त निर्दय भाव से घात करते हैं, जो षटूकाय के जीवों के प्राणों को लूटते हैं, परद्रव्य का अपहरण करते हैं और जो सेवन करने योग्य का सेवन नहीं करते अति स्वल्प संयम का भी पालन नहीं करते (ऐसे जीव नरक में जाते हैं)॥४॥
Avani-'जे आयसुहं पडुच्च-य आत्मसुख प्रतीत्य' २ ०१ पाताना सम भाट 'तसे थावरे य पाणिणो-त्रमान् स्थावरान् प्राणिनः' अस मन स्थावर मालीन 'तिव्व-तीव्रम्' अत्यत या२1ि ४२ 'हिंसइ-हिंसति' मारे छ 'जे लूसए-यो लूषकः' रे प्राणियोन भा२पाना २१मावाणी होई-भवति' थाय छ, तथा 'अदत्तहारी-अदत्तहारी' माया विना भीमानी १२ वा. पाप है।य छ, ते 'सेयवियस्स-सेवनीयस्य' सेवन ४२५॥ योग्य सयभनु 'किषि ण सिक्खई-किञ्चिदपि न शिक्षते' या पशु सेवन ४२ता नथी. ॥४॥
સૂત્રાર્થ–જે જ પિતાના સુખને ખાતર ત્રસ અને સ્થાવર જોની અત્યંત નિર્દયતા પૂર્વક હત્યા કરે છે, જેમાં છકાયના જીના પ્રાણને લૂટે છે. જેઓ પારકા દ્રવ્યનું અપહરણ કરે છે, અને જે સેવન કરવા યોગ્ય વસ્તુનું સેવન કરતા નથી, એટલે કે જેઓ સંયમનું સહેજ પણ પાલન કરતા નથી, એવાં છે નરકમાં જાય છે, ૪
सु० ४३
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