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समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ५ उ. १ नारकीय वेदनानिरूपणम् ३७७ मूलम्-छिंदति बालस्स खुरेण नकं, उठे वि छिदंति दुवेवि कण्णे। जिब्भं विणिकस्स विहस्थिमित्तं
तिखाहिं सूलोहिऽमितावयंति ॥२२॥ छाया-छिन्दन्ति वालस्य क्षुरेण नासिकामोष्ठौ अपि छिन्दन्ति द्वावपि करें।
निां निनिष्कास्य वितस्तिमात्रा तीक्ष्णाभिः शूलाभिरभितापयन्ति ॥२२॥
अन्वयार्थः--(बालस्स) वालस्य निर्विवेकिनो नारकस्य (नक्क) नासिका (उहे वि) ओष्ठौ अपि (खुरेण) क्षुरेण दिति) छिन्दन्ति-कतयन्ति तथा (दुवे वि कण्णे) द्वावपि कणों (छिदंति) छिन्दन्ति (विहस्थिमित्त) वितस्तिमितां वितस्तिमात्रां (जिन्भ) जिह्वां (विभिकास) चिनिष्कास्य (तिववाहि मूलाहि) तीक्ष्णाभिः शुलाभिः (अभितायंति) अभितापयन्ति वेधयंति इति ॥२२॥
शब्दार्थ-- बालस्स-बालस्य' विवेकरहित नारकिजीव की 'नक्कंनासिका नालिका को 'उद्वेवि-औष्ठो अपि' और ओष्ठ को भी 'खुरेणक्षुरेण' अस्तुरे से छिदंति-छिन्दन्ति' काटते हैं तथा 'दुवे वि कण्णेछावपि को दोनों कान भी छिदंति-छिन्दन्ति' काट लेते हैं 'विहत्थिमित्तं-विनस्तिमिता' रितसित मात्र 'जिन्भ-जिहां जीभ को 'विणिकस्म-विनिष्कास्य' बाहर खींचकर 'तिक्खाहिं सूलाहि-तीक्ष्णाभिः शुलाभिः' तीक्ष्ण धार वाले शूल से 'अभितावति-अभितापयन्ति' पीड़ित करते हैं ॥२२॥
अन्वयार्थ-नरकराल अज्ञान नारक की नाक काट लेते हैं, होठों को काट लेते हैं और दोनों कानों को भी काट लेते हैं। एक बेत लम्बी जीभ बाहर निकालकर तीक्ष्ण शूलों से उसे वींध कर पीडा देते हैं ॥२२॥
wale --- बालस-बालस्य' विहित न वानी 'नक-नासिको' नासिक (ना) 'उने वि-ओष्ठौ अपि सने 8२ ५५ ‘खुरेण-क्षुरेण' भरतराथी 'छिदंति-हिन्दन्ति' ॥ छ तथा 'दुवेवि कण्णे-द्वावपि कौँ' ने जान ५ 'छि दंति-छिन्दन्ति' ५ो छ 'विहत्थिमित्तं-वितस्तिमात्रां' वितरित मात्र अर्थात् सवत रेसी 'जिन्भ-जिह्वां' 2 'विणिक्कस्व-विनिष्कास्य' महार मेयाने तिक्खाहि सूसाहि-तीक्ष्णाभिः शूलाभिः' ती धारपाणी शुगयी 'अभितावयंति-अभितापयन्ति' पारित ४२ छे. ।। २२ ॥
સૂવાથં–નરકપલે અજ્ઞાન નારકનાં નાક કાપી લે છે, હોઠ કાપી લે છે, અને કાન પણ કાપી લે છે અને એક વેંત લાંબી તેમની જીભને બહાર ખેંચી કાઢીને તીણ શલે (ધારદાર કાંટા જેવાં શસ્ત્રો) વડે વીંધી નાખે છે.
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