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सूत्रकृतासन 'यथा धेनुसहस्रेषु वत्सो धावति मातरम् ।
एवमात्मकृतं कर्म,कर्तारमनुधावति ॥१॥' येन जीवेन यादृशं कर्म वर्तमानभवे, कृतं तत् कर्म परभवे तमेव पुरुष प्राप्नोति स्वकृतकर्मणः फलं स्वयमेव भुङ्क्ते इति भावः ॥२३॥ मूलम्-एयाणि सोचा नरगाणि धीरे न हिंसए किंचण सबेलोए। एंगंतदिट्टी अपरिगगहे उ बुझिंज लोयस्स वसं न गच्छ।२४॥ छाया-- एतान् श्रुत्वा नरकान् धीरो न हिस्यात्कंचन सर्वलोके।
__ एकान्तदृष्टिरपरिग्रहस्तु बुद्धयेत लोकस्य वशं न गच्छेत् ॥२४॥ को भोगते हैं, कहा भी है-'यथा धेनुसहस्रेषु' इत्यादि ।
जैसे हजारों गायों में से बछड़ा अपनी माता को पहचान कर उसी के पास जाता है, उसी प्रकार अपने किये कर्म अपने को ही फल देता है।
तात्पर्य यह है कि जिप्स जीव ने जैसा कर्म किया है वह वर्तमान भव में अथवा परभव में वैसा ही फल भोगता है ॥२३॥ 'एयाणि सोच्चा' इत्यादि।
शब्दार्थ-धीरे-धीरः' घोर पुरुष 'एयाणि नरगाणि-एतान् नरकान' इन नरकों को 'सोच्चा-श्रुत्वा' सुनकर 'सव्वलोए-सर्वलोके' सब लोक में 'किंचण-कंचन किसी प्राणी की 'न हिंसए-न हिंस्थात् हिंसा न करे किन्तु 'एगंतदिही एकान्तदृष्टिः' सर्व जीवादितत्वों में विश्वास रखता हुआ 'अपरिमाहे उ-अपरिग्रहस्तु' परिग्रह से रहित
જેવી રીતે હજાર ગાયના સમૂહમાંથી પણ વાછડુ પિતાની માતાને से.मी ने तेनी १ ५:से तय छ, मेरा प्रमाणे पाते ४२७ म પિતાને જ ફળ દે છે. એટલે કે કરેલા કર્મનું ફળ જીવને અવશ્ય लोग ५३ छे.'
તાત્પર્ય એ છે કે જેવું જીવે જે કર્મ કર્યું હોય એવું જ ફળ તેને વર્તમાન ભવમાં અથવા પરસવમાં ભોગવવું જ પડે છે. ૨૩
'एयाणि सोच्चा' इत्याहिAvt-'धीरे-धीरः' धा२५२५ 'एयाणि नरगाणि-एतान् नरकान्' २मा न२. ने सोच्चा-श्रुत्वा' सालणाने 'सव्वलोए-सर्वलोके' मा १ मा 'किंचणकंचन' प प्रायानी 'न हिंसए-न हिस्यातू' डिसा ना रे ५न्तु 'एगंतदिनी-एकान्त दृष्टिः' ५५ ७ विगरे तमा विश्वास रामत! 'अपरिगहे उ
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